लेख

आलोचना के शोक पर आलोचक का लास्य नृत्य

 

  • भरत प्रसाद

 

युग की अपनी अपराजेय चाल, ईसा पूर्व की अनन्त सदियाँ। ईसोत्तर – प्रथम, द्वितीय, तृतीय, 10वीं ……. 20वीं शताब्दी और आज? इक्कीस कहलाने योग्य न होने के बावजूद हिन्दी आलोचना कदम रख चुकी है 21वीं सदी में। साहित्य की प्रतिनिधि विधाओं की तुलना में अधिक आधुनिक विधा। आधुनिक चेतना के गर्भ से जन्म लेने वाली साहित्य की तीसरी आँख।

अपने उदय के आरम्भ में ही महावीर प्रसाद द्विवेदी और रामचन्द्र शुक्ल की साधना पाकर उध्र्व मस्तकी हो उठी। तब से लेकर अनेक मोड़, अनेक उभार, असंख्य खाइयाँ, गड्ढे और प्रशस्त मैदान आलोचना में आए। ‘युग-युग धावित यात्री’ की तरह दौड़ रही है यह विधा – किसी महावीर प्रसाद, किसी रामचन्द्र शुक्ल, किसी रामविलास शर्मा की तलाश में। क्या पता, उसे कब औपन्यासिक मस्तक वाला हजारी प्रसाद मिल जाय? कब औघड़ी आत्मप्रज्ञा वाला मुक्तिबोध हासिल हो उठे? क्या पता? भारतीयता की माटी में रचा-बसा-पगा और यहाँ के देशज रसों में डूबा हुआ लांजाइनस, कालरिज, इलियट और सात्र्र ही न मिल जाए।

    रामचन्द्र शुक्ल बेजोड़ परिपक्वता, व्यापक अध्ययनशीलता, अपराजेय आत्मविश्वास से लबरेज, जमीनी श्रेष्ठता के संस्थापक व्यक्तित्व। वाक्य-दर-वाक्य में मौलिक, बेलीक दृष्टि की भीनी-भीनी खुशबू। भेदिया, खूफिया, गोताखोर की तरह छान मारा काव्य-सृजन का अन्तर्जगत। निश्चय ही हिन्दी आलोचना तीन चट्टानों के बल कालजयी ऊँचाई लेकर खड़ी हुई। शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा। शुक्ल जी ने आलोचना की अजेय शरीर का निर्माण किया, हजारी प्रसाद ने उसके इतिहास का भारतीयकरण किया और रामविलास शर्मा ने उसकी बहुमुखी क्षमता की नींव रखी। तीनों अनिवार्य, तीनों विकल्पहीन, अपनी महानता के बावजूद तीनों अधूरे।

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भाव, प्रवृत्ति, मनेाग्रंथि, वासना, मानवीय गुण-दुर्गुण की मीमांसा में सिद्ध दार्शनिकों को भी मात देने वाले रामचन्द्र शुक्ल धार्मिक प्रपंच, आडम्बर, तन्त्र के पारंगत व्याख्याता नहीं, न ही सामाजिक विघटन, अलगाव, संघर्ष के कारणों से सीधे टकराकर मौलिक-ढाँचा प्रस्तुत करने वाले आलोचक। अपराजेय मौलिकता के अधिकारी व्यक्तित्व शुक्ल साहित्यिक आलोचना के बरगद तो हैं – किन्तु देशकाल की आलोचना के ध्रुवतारा नहीं। देशकाल की वैज्ञानिक, यथार्थवादी और ज्ञानपूर्ण आलोचना का उदाहरण पेश किया-रामविलास जी ने – ‘भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद’, ‘भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश’ जैसी बृहद पुस्तकें देकर रामविलास जी ने साहित्येतर आलोचना का वह सशक्त बहुमुखीपन दिखाया, जो रामचन्द्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी भी न दिखा पाए।

इसी बीच अन्तश्चेतना की संरचना का विलक्षण साधक मुक्तिबोध के रूप में प्रकट हुआ, जिसमें यदि व्यवस्थित आलोचना का संकल्प सध गया होता-तो हिन्दी साहित्य को, शुक्ल जी के बाद मनेाभावों का दूसरा सर्वश्रेष्ठ मीमांसक मिल जाता। अपराजेय हैं शुक्ल और हजारी प्रसाद – क्योंकि ये ‘अप्प दीपो भव’ थे। बांधिए इन्हें मार्क्सवाद, मनोविश्लेषणवाद, गाँधीवाद और अस्तित्ववाद में। थककर पस्त हो जाएँगे आप बौद्धिक कसरत करते-करते। रामविलास जी यदि पराजेय नहीं, तो चुनौतीहीन भी नहीं। एक नहीं दर्जनों स्थापनाओं और निष्कर्षों में ऐतिहासिक चूक करने वाले। मुक्तिबोध और नागार्जुन अपने विलक्षण योगदान के कारणों शिखरों की कतार में खड़े हैं – परन्तु मार्क्सवादी रामविलास जी इन दोनों कवियों के भावी कद की आहट न सुन पाए।

क्या कहें? सुने तो शुक्ल भी नहीं – आकाशवत् कबीर की आहट। रामविलास जी यदि मार्क्सवाद के साथ ग्रहण-परित्याग का मार्ग अपनाए होते तो ठीक शुक्ल के समकक्ष आलोचक सिद्ध होते। विकासशील बुद्धि को ताकत देने वाली बड़ी से बड़ी विचारधारा एक समय के बाद हमारी बौद्धिकता की दुर्बलता बन जाती है – वाद से बन्ध जाना बुद्धि को कन्डीशन्ड कर देना है। मार्क्स ने इस दुनिया को पैदा नहीं किया है – बल्कि दुनिया ने मार्क्स को पैदा किया है। इसीलिए दुनिया की व्याख्या मार्क्सवादी नजरिए से करने की ऐतिहासिक भूल रामविलास शर्मा सहित अनेक मार्क्सवादी आलोचकों, समाज शास्त्रियों और रचनाकारों ने की, और तनिक भी आगा-पीछा, नफा-नुकसान, सही-गलत सोचे आज भी करते जा रहे हैं।

    साहित्य की कोई भी विधा अपना सार्वजनिक महत्व हासिल करती है – सृष्टिधर्मी भाषा के दम पर। साहित्य की भाषा का मानक साहित्यिक भाषा कभी नहीं रही; जीवन की, जिन्दा जनजीवन की धड़कती हुई गतिशील भाषा रही है। क्या यह अप्रिय संयोग नहीं, कि हिन्दी आलोचना का इतिहास, अकादमिक आलोचकों के बीच से ही होकर गुजरा है। आलोचना की भाषा हमारे कदमों का साथ देने वाली, हमारी हार को स्वर देने वाली, खून-पसीने की अभिन्नता का रहस्य खोलने वाली, गुमनाम जनसंघर्ष का अमर दृश्य प्रस्तुत करने वाली और हमारी सोच की प्रतिध्वनि कहाँ बन पायी है? सोच दौड़ाइए, यदि महावीर प्रसाद द्विवेदी हिन्दी के आलोचक मात्र हैं तो ब्रिटिश सरकार द्वारा किए जाने वाले आर्थिक महाशोषण पर केन्द्रित ‘सम्पत्ति शास्त्र’ पुस्तक क्येां लिखते हैं?

रामचन्द्र शुक्ल के रूप में हिन्दी आलोचना का तुलसीदास तो मिल गया, परन्तु उसको उसका संतकबीर? हिन्दी आलोचना अभी तक अपना कबीर नहीं हासिल कर पायी है। आज की सदी में हमारी आलोचना को एक प्रेमचन्द की दरकार है। धार हो आलोचना की, मेधा हो प्रेमचन्द की। कर्म हो साहित्य, संस्कृति, व्यक्ति, व्यवस्था की अचूक मीमांसा का और कलम की प्रचण्डता हो प्रेमचन्द जैसी। ऐन प्रेमचन्द की तरह आज किसी न किसी आलोचक को बेजुबानों की जुबान, जड़ों की वाणी, पशु-पंक्षियों, जानवरों का प्रवक्ता बनना ही पड़ेगा। साहित्य की रक्षा में उठी हुई आलोचक की कलम साहित्य को नहीं बचा पाएगी, बल्कि मनुष्यता को बचाने में उठी हुई आलोचक की कलम से ही साहित्य सुरक्षित रह पाएगा।

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आज के आलोचक के पास परकाया प्रवेश की काबिलियत कहाँ है? प्रेमचन्द ‘परकाया प्रवेशी जादूगर’ थे। हमारा आलोचक ऐसा क्यों नहीं हो पा रहा? उसे प्रकृति से माँगना नहीं आता। आकाश से तनिक मौन छीन लेता, वायु से अदृश्यता, मिट्टी से मामूली रहने का गुण हथिया लेता, तो निश्चय ही वह प्रेमचन्द के कद का सभ्यता-समीक्षक सिद्ध होता। आने वाले कल की आहट सुनना आलोचक प्रेमचन्द होना है, विकृत यथार्थ को अपनी आकांक्षा के ढाँचे में बदलने की जिद्द पालना आलोचक प्रेमचन्द होना है, और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष, सूक्ष्म-स्थूल, सजीव-निर्जीव, साकार-निराकार सत्ता से उसका मर्म चुराकर सबकी जुबान पर राज करने वाली सर्वप्रिय भाषा में रच देना, आलोचक प्रेमचन्द होना है।

हमारे आज के नामी-गिरामी आलोचक मैले ग्रामांचलों की खटास-तितास-मिठास से मुँह और हाथ दोनेां धो बैठे हैं। नगेन्द्र, रमेश कुन्तल मेघ, अज्ञेय, मैनेजर पाण्डेय, विनोद शाही, पुरुषोत्तम अग्रवाल अपने चिन्तन-मनन धर्मी आलोचना के लिए स्थायी पहचान रखते हैं – किन्तु इनकी आलोचना में छलकती-बहती भाषा के जमीनीपन का अभाव है। नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी और परमानन्द श्रीवास्तव की भाषा में रसात्मक कथा की मिठास है, किन्तु प्रेमचन्द की तरह कालजयी दार्शनिकता की दीप्ति गायब है। वीर भारत तलवार, वीरेन्द्र यादव, भगवान सिंह तथ्यात्मक ज्ञान, सूचना और प्रमाण के कुशल व्याख्याकार हैं, किन्तु स्वाध्याय की आग से मौलिक सैद्धान्तिकी की लहक पैदा करने वाले औघड़ साधक नहीं।

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शुक्ल जी के बाद दूसरा एक भी हिन्दी का आलोचक नहीं, जो मूल्यांकन की अमिट सैद्धान्तिकी खड़ा कर पाया हो। हमारे आलोचक के पास राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय आलोचना का ज्ञान है, नवीनतम आलोचना-पद्धतियों से परिचय है और विविध मुद्दों की अधिकारपूर्वक व्याख्या करने का कौशल भी है। इतना ही क्यों? वह किसी भी युग की अपेक्षा सर्वाधिक वाद-निरपेक्ष आलोचक है। बावजूद इसके, उसके मस्तिष्क में विलक्षण मौलिकता का विस्फोट नदारत है, बने-बनाये विचार-मार्गों को इंकार करने, असहमत होने उनका अनुसरण न करने का युगारम्भकारी साहस नहीं है – हमारे आलोचक में। इसीलिए आज हिन्दी आलोचना को केवल दूसरा रामचन्द्र शुक्ल ही नहीं, कबीर, प्रेमचन्द और नागार्जुन चाहिए।

यहाँ कबीर या नागार्जुन कवि रूप में नहीं, विशेषण के तौर पर हैं। पाश्चात्य आलोचना का सिक्का सम्भवतः समूचे विश्व साहित्य पर चल रहा है और आगे भी चलेगा। कुछ अनुचित और हानिकारक भी नहीं है यह। अरस्तू, प्लेटो, लांजाइनस, कालरिज और इलियट से लेकर देरिदा, फूको, सात्र्र और एडवर्ड सईद आलोचना और दर्शन के विश्व में उस उच्च सम्मान के अधिकारी हैं- जो उन्हें आज हासिल हो रहा है। किन्तु वर्तमान हिन्दी आलोचना के समक्ष यह प्रश्न अनिवार्य है कि हिन्दी आलोचना ने विश्व को क्या दिया है?

शुक्ल जी को छोड़ दें, तो हमारी आलोचना के इतिहास में ऐसे कितने आलोचक हैं, जिसने अभिनव सैद्धान्तिकी, बेजोड़ समीक्षा-दृष्टि और क्रान्तिकारी स्थापनाओं पर विश्व को मुग्ध और चमत्कृत किया हो? सम्भवतः शुक्ल जी के बाद कोई नहीं। कार्ल मार्क्स के दर्शन की रोशनी में आगे बढ़ते हुए अमरता का सपना बुनने वाले हमारे दर्जनों आलोचक यह भूल गये कि सूर्य की रोशनी पीकर चमकने का भ्रम पैदा करने वाला चन्द्रमा आखिरकार प्रकाशशून्य ही सिद्ध होता है। लीक से, सिद्धान्तों से, चिन्तन-पथों से अलग हटकर अभिनव और सर्वथा मौलिक चिन्तन-पद्धति रचने की कला कहाँ है हमारे आलोचक के पास?

भौतिकता के बहुदिशात्मक विस्तार में घुसपैठ लगाकर, मनुष्य के रहस्यमय मस्तिष्क की गतिविधियों, प्रतिक्रियाओं और तेवरों में घुसकर ऐसा सिद्धान्त दुनिया के समक्ष पेश करना, जो फ्र्रायड, युंग, एडलर के निष्कर्षों के समान स्थायी रूप से वैश्विक महत्व का हो। हमारे आलोचक व्याख्याकार ही रह गये, प्रामाणिक सिद्धान्तकार नहीं बन पाए। दिन पर दिन जटिल होता हुआ, नयी प्रवृत्तियों के साथ परिवर्तित और रहस्यपूर्ण होता हुआ विश्व अपनी नवीन व्याख्या के लिए नये सिद्धान्त रचने की चुनौती पेश करता है। पाश्चात्य चिन्तकों में यह चुनौती स्वीकार करने की हिम्मत हमारी अपेक्षा निश्चय ही प्रचण्ड है, इसीलिए समकालीन चिन्तन के क्षेत्र में उनकी भागीदारी हमारी अपेक्षा कई गुना व्यापक भी है।

    साहित्य ही नहीं, सृजन के किसी भी रूप पर महाकाल बनकर टूट पड़ा है बाजारवाद। बाजार के अजेय तन्त्र के खिलाफ खड़े होने और सम्मान पूर्वक बच निकलने का रास्ता जो आलोचक हिन्दी साहित्य को बताएगा और उस रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करेगा, वही नयी सदी के प्रतिनिधि आलोचक का पद हासिल करेगा। पूँजीवाद को नैतिक रूप से पराजित करने का मार्ग कार्लमार्क्स ने खोजा, अमर हो गये आगामी पृथ्वी के लिए। ठीक इसी तरह इस सदी में बाजारवाद को मात देने वाले कार्लमाक्र्सी मेधा की जरूरत है। नस-नस कचोट के रख देने वाला घृणास्पद तथ्य है कि आज समूचा हिन्दी साहित्य इस चकाचैंधपूर्ण बाजार की गिरफ्त में है। क्या वरिष्ठ, क्या युवा कहानीकार बाजार की माया पर मुग्ध होकर ताताथैया नाच रहे हैं, बाजारपरस्त कहानियाँ कूट रहे हैं।

कवि शब्द-दर-शब्द में लतिया रहे हैं – बाजारतन्त्र को, और अपनी अमरता की मार्केटिंग करने में दिन-रात का भेद भूल गये हैं। आलोचकों की दशा इनसे भी गयी-गुजरी। सृजन के विरोधियों, मठाधीशों, शठाधीशों, गुटेश्वरों और गणितेश्वरों का नाम लिखते या बोलते समय इनकी नरम चमड़ी थरथराने लगती है। हाँ, थर्डग्रेडिया रचनाओं के धनी मित्रवर का नाम भजने के लिए, बांछें (जहाँ कहीं भी हों) खिल उठती हैं। दूध और पानी की तर्ज का मूल्यांकन अब म्यूजियम की वस्तु बनती जा रही है। आलोचक के लिए रचना और रचनाकार के मूल्यांकन का नया फंडा है – महफिलों में गलबहियाँ बैठकी, कार्यक्रमों में एक-दूसरे को आमंत्रित करने की होशियारी, पुस्तकें छपवाने, पुरस्कार झटकवाने और प्रसिद्धि का माहौल गरमवाने में बढ़-चढ़कर एक दूसरे का सहयोग।

इस बाजारवाद ने ही बुनियादी सवालों से रचनाकार और आलोचक का ध्यान भटका दिया है, या यों कहें – वह जान-बूझकर खुद ही भटक गया है। पिछले लगभग पचास वर्षों से कविता, कहानी, उपन्यास विधा में एक भी प्रतिसृष्टि धर्मी, कालजयी रचना नहीं, क्यों? कभी हमारे आलोचक ने उन कारणों की खेाज करके उनकी चीर-फाड़ का साहस दिखाया? साहित्य के संकट का कोलाहल पिछले लगभग 40 वर्षों से दिशाओं में गूँज रहा है – हमारे किसी भी आलोचक ने इस संकट का सफलतापूर्वक प्रतिकार किया? बुनियादी सवाल है कि हिन्दी साहित्य अपने आम पाठक क्यों खो रहा है? आलोचक का साहसिक चेहरा एक सिरे से क्यों गायब हो रहा है? प्रामाणिक आलोचना क्यों गुलर का फूल होती जा रही है? कोने-कोने में खोखली, प्राणहीन, रीढ़हीन, और बेसिर-पैर वाली रचनाओं का क्यों शोर मचा हुआ है?

साहित्य की सत्ता पर वर्षों-वर्षों से उन्हीं कलमेश्वरों का क्यों कब्जा है, जिनकी शातिराना राजनीति के कारण जेनुइन साहित्य हाशिये पर औंधा पड़ा मौत के आँसू रो रहा है? इन सवालों का सशक्त उत्तर देने से भागना, खुद को साहित्य का अपराधी साबित करना है। इस बाजारवाद ने हमसे हमारा एकाश्मक व्यक्तित्व छीन लिया है और हमें कई मुखौटों के साथ अभिनय करने वाला पेशेवर लेखक बना दिया है। बाजारवाद सृजन को बिकाऊ माल बनाने के लिए लेखक को प्रेरित करता है। उसे अपने लेखन की मार्केटिंग करनी है, चर्चा करवाने के जुगाड़ सेट करने हैं। मुख्य धारा में जमे रहने के लिए आत्ममुग्ध, अहंकारी, शेखीबाज, चामदास, पियक्कड़, प्रगतिशीलता विरोधी, जनेऊधारी, जातिपरस्त, सौदेबाज, पूँजीपति किसी भी प्रकार के रचनाकार को माई-बाप, प्रभु, बॉस, दादा कहना पड़े- हमारा रचनाकार, आलोकच को सिर से पाँव तक तैयार बैठा है।

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    यह अकाट्य तथ्य है कि सम्पूर्ण आलोचक उसे ही माना गया, जिसने साहित्य की प्रतिनिधि विधाओं का सन्तुलित, किन्तु दर साहसिक मूल्यांकन करने के साथ-साथ सैकड़ों दिशाओं में हजारों रंग-ढंग के साथ फैले हुए समय के बहुमुखी चरित्र की आर-पार मीमांसा की हो। आलोचक चाहे कितनी भी अद्वितीय प्रतिभा से सम्पन्न क्यों न हो, यदि साहित्येतर ज्वलन्त सवालों का प्रखर समाधान नहीं ढूंढ़ पाता, समझिए वरेण्य और प्रतिनिधि आलोचक नहीं है। श्रेष्ठ आलोचकों की पांत में खड़े होने वाले हिन्दी के कितने आलोचक हैं, जिन्होंने शुक्ल जी और हजारी प्रसाद द्विवेदी के बाद आलोचना की मौलिक सैद्धान्तिकी प्रस्तुत की हो?

लगभग हर एक दशक के बाद जीवन में, समाज में, मूल्यों, मान्यताओं, सोच और व्यवहार में निर्णायक परिवर्तन आ ही जाते हैं। साहित्य में भी उन परिवर्तनों का असर दिखाई देने लगता है। ठीक इसी वक्त ऐसे तत्वदर्शी, सूक्ष्म दृष्टि सम्पन्न मेधावी आलोचक की जरूरत पड़ती है- जो परखने के पुराने औजारों को दूर फेंककर नये औजारों को गढ़ता है। समय-सापेक्ष ऐसी नवीनतम सैद्धान्तिक को जन्म देता है- जो परिवर्तित हो रहे या हो चुके समय के यथार्थ की सफलतापूर्वक, समग्रतापूर्वक जाँच-पड़ताल कर सके। ‘प्रकृति के यौवन का श्रृंगार, करेंगे कभी न बासी फूल’ – लिख कर लकीर खींच गये जयशंकर प्रसाद, किन्तु हम हैं कि जंक खायी हुई धारशून्य कुल्हाड़ी से चट्टानें काटने के मुगालते में जी रहे हैं।

कहना जरूरी है कि हमारे आलोचक को बदलते, गलते, उलझते-पुलझते, टूटते-फूटते, बनते-बिगड़ते और जटिल होते सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक समीकरणेां की युगान्तकारी सैद्धान्तिकी प्रस्तुत करनी ही होगी। जय हो आचार्य शुक्ल की, जिन्होंने मनुष्य के सुपरिचित मनेाविकारों को वैज्ञानिक आलोचना की जद में लाया। उसके बाद मनेाभावों पर लिखने का ‘राम नाम सत्य’। हमारे एक भी वरिष्ठ आलोचक ने मनोभावों की मौलिक मीमांसा तो दूर, उसकी व्यावहारिक व्याख्या करने तक की जहमत नहीं उठायी। अपनी ही बहू-बेटी की इज्जत लूटने वाले पिता का मनेाविज्ञान कैसा होता है? प्रतिदिन अमानवीय घटनाओं के बीच दारू उड़ाकर खर्राटा भरते लेखक की बुद्धि की संरचना क्या है?

सैकड़ों मुखौटों में अभिनेता की तरह जीते शिक्षित मनुष्य की आन्तरिक हकीकत क्या है? सर्वज्ञानी, सभ्य, अधिकार सम्पन्न और सुप्रसिद्ध मनुष्य-मनुष्यता का सबसे बड़ा हत्यारा क्यों सिद्ध हो रहा है? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो ठीक शुक्ल जी की तरह एक मनोपारखी आलोचक की माँग कर रहे हैं। न छोड़ने लायक इन प्रश्नों के बावजूद यदि इन्हें छोड़ भी दें – तो 10 स्थायी भावों और 33 संचारी भावों की शुक्लवत् मीमांसा कहाँ हो पायी है? ठहरकर विचार करने पर कई बार लगता है कि यह समय आलोचना के संकट का नहीं, व्यक्तित्व के संकट का है। बौने व्यक्तित्व का है हमारा आलोचक। काम और नाम भले ही बड़ा क्यों न हो। एकाश्मक व्यक्तित्व के अकाल का दौर है यह। जब वह खुद को मुखौटों में छिपाकर जी रहा है तो अनेक बिगड़े-तिगड़े, अंधकारी चेहरे के साथ जीते लाखेां मनुष्यों की व्याख्या क्या खाक करेगा?

वह तो आलोचना के वर्तमान शोक पर सुमधुर लास्य नृत्य करने तक से शर्म नहीं करता। दरअसल उसे अपने पतन, अपने खोखलेपन, अपनी करतूतों और अपनी दुर्बलताओं की दासता का एहसास तक नहीं रह गया है। बावजूद इसके आलोचना के भी अच्छे दिन आएँगे – इस उम्मीद के साथ विचारों के कारीगर राहुल सांकृत्यायन का यह वाक्य अपने आलोचकों के हाथों में सौंप देना जरूरी समझते हैं – ‘‘हमें अपनी मानसिक दासता की बेड़ी की एक-एक कड़ी को बेदर्दी के साथ तोड़कर फेंकने के लिए तैयार होना चाहिए। बाहरी क्रान्ति से कहीं ज्यादा जरूरत मानसिक क्रान्ति की है।’’ (दिमागी गुलामी)

लेखक पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग (हिन्दी विभाग) के अध्यक्ष और प्रोफेसर हैं|

सम्पर्क- +919774125265, deshdhar@gmail.com

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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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