लेख

सर्वं प्रिये ‘चारुहीनं’ वसंते: उर्फ़ वसंत खो गया है…!! 

 

सम्पादक मित्रों से बात करने के कई बार बड़े जोखम होते हैं। अब देखिए – उस दिन हाल-अहवाल के लिए फ़ोन किया, तो वसंत ऋतु पर कुछ लिखने का प्रस्ताव रख दिया।

वसंत एक मौसम है और मौसमी याने सामयिक मुद्दों पर लिखना-लिखाना पत्रकारिता की प्रासंगिकता है, बल्कि वही उसकी प्रकृति बन गयी है। सो, वसंत में वसंत पर सामग्री चाहिए।  

लेकिन हम ठहरे साहित्य के विद्यार्थी। और सामयिकता इसी तरह साहित्य में प्रासंगिक नहीं होती। कालिदास ने छहो ऋतुओं पर लिखा ‘ऋतु संहार’। लेकिन हर ऋतु में ही तो उस पर नहीं लिखा होगा। ‘बारहमासा’ की भी परम्परा रही, जो हर महीने में ही तो न लिखा गया होगा। कविता या कोई भी कला मौसम की मोहताज नहीं हो सकती –‘मौसम की मोहताज न कोयल, पैरों की मोहताज न पायल’। लेकिन समय पर काम करने की नसीहत देता ज़रूर है साहित्य – ‘का बरखा जब कृषी सुखाने’!! लेकिन कालिदास ने वसंत पर चाहे जब लिखा हो, मैं तोवसंत व वर्षा में ही इन ऋतुओं पर लिखे का सस्वर पाठ करता रहा हूँ…बड़ा आनंद भी आता है। याने इसी प्रकार वसंत में वसंत पर पढ़ना पाठक को भी अच्छा लगेगा…। और लिखने-छापने वाले से जयादा महत्त्व तो पाठक का है ही इस उपभोक्ता समाज में…! अस्तु,  

साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते वसंत का शोर सुनते-सुनते ही बड़ा हुआ हूँ। लेकिन इस पर लिखने का ख़्याल कभी न आया। शायद इसलिए की कितना तो लिखा गया है वसंत पर…। बात कालिदास की निकल गयी है, तो मेरे इस प्रियतम कवि, कविकलगुरु को वसंत ही प्रिय नहीं लगी, बल्कि उनका प्रेमी कहता है – प्रिये, वसंत में सब कुछ मनोरम है – सर्वं प्रिये चारुतरं वसंते:। फिर पद्माकर का वह कवित्त तो नवीं कक्षा में ही सत्यनारायण बाबू साहेब ने रटवा डाला था। शायद एक-तंतिया बाबू साहब पर वसंत बच्चों की ज़ुबानी ही आता था…और पद्माकर जी ने सारी कायनात में वसंत को बौराया-बौराया फिरता हुआ पाया था –‘बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में, बनन में बागन में बगर्यो वसंत है’।

इस तरह एक वसंत तो यह, जो एक कवि के लिए बौराया हुआ आता है, तो उसके आने पर दूसरे कवि के लिए अखिल प्रकृति सुंदर हो जाती है, लेकिन इन दोनो कवियों के बीच में हुए महाकवि तुलसी, जिन्हें वर्षा-शरद इतनी प्रिय लगी कि कथा में इन ऋतुओं के आने का मौक़ा बनाया और इनका स्वतंत्र वर्णन किया। बाबा तुलसी चाहते, तो वसंत के लिए भी मौक़ा निकाल सकते थे। तब ‘घन-घमंड नभ गरजत घोरा’ में ‘प्रिया हीन’ होने के नाते ‘डरपत मन मोरा’ न होता, वरन बौराये वसंत के असर से पूरी प्रकृति पर छायी रूमानियत में प्रिया के प्रति मन में सहज प्रेम उमगता– जैसे कालिदास के यहाँ वसंत के आते ही सभी सहजत: मदमस्त हो जाते हैं –वृक्षों में फूल आ जाते हैं –द्रुमा: सपुष्पं,जल में कमल खिल उठते हैं –सलिल: सपद्मा:, स्त्रियाँ कामातुर हो उठती हैं –स्त्रिय: सकामा:, हवाओं में सुगंध भर उठती है –पवन: सुगंधि:…और मतवाली हवाओं से कामी पुरुषों के मन में प्रिया-मिलन की उत्सुकता पैदा होती है –मंदानिला: कामि-मनसां सहस्रोत्सुकत्वं कुर्वन्ति…। इतना ही नहीं, सामान्य मनुष्य से आगे बढ़कर वसंत ऋतु की मनोहर हवाएँ ऋषि-मुनियों के मन को भी हर लेती हैं –मनोहराणि पवनानि चित्तं मुनेरपि हरंति…आदि-आदि।

लेकिन लगता है वसंत से बाबा तुलसी को ज़रूर कोई कुनह थी। तभी तो उनके यहाँ वसंत अपने आप नहीं आया– अलबत्ता ‘मानस’ में दो बार बनावटी वसंत लाया गया और दोनो बार अपने महनीय पात्रों (ऋषि नारद व देवाधिदेव शिव) से वसंत को हराकर लज्जित किया गया। तबन रहे कालिदास, वरना अपने प्रिय वसंत के साथ ऐसा दुर्व्यवहार होते देख चुप न रहते…। लेकिन बाबा ने नक़ली वसंत में भी काम वही कराया, जो कालिदास के असली वसंत में हुआ – कामोद्दीपन…। बस, उन्होंने कविकोलगुरु की तरह एक-एक उपादान में न बताकर इकट्ठे कह दिया –‘सबके हृदय मदन अभिलाषा, लता निहारि नवहिं तरु साखा’। इस प्रकार कालिदास ने जहाँ स्त्री-पुरुषों की कामातुरता की सीधी चर्चा की, वहींलताओं के प्रति वृक्षों का प्रतीक रखकर बाबा मांसल श्रिंगारिकता को बचा ले गये।लेकिन यहाँ भी पवन कामाग्नि को बढ़ाने का ही काम  करता है –‘बहइ सुहावन त्रिविध बयारी, काम कृसानु बढ़ावन हारी’।

और काव्यों में यह सब यूँ ही नहीं है, बल्कि यह एक स्वस्थ व लोकप्रिय संस्कृति थी। वसंत की शुरुआत ‘वसंत पंचमी’ से होती थी। इस दिन को ‘मदनोत्सव’ के रूप में मनाने की परम्परा थी। राज़-दरबारों में बड़ा उत्सव होता था। पूरा शहर सजता था। नृत्य-गान के कार्यक्रम होते थे…। यह सब यूँ लुप्त हुआ कि आज इसका पता भी कम लोगों को होगा। हमारे बचपन में इस दिन की छुट्टी होती थी। होलिका इसी दिन गड़ती थी। फिर डेढ़ महीने पूरे गाँव के बच्चे-किशोर इसमें रोज़ शाम को खर-पत्तियाँ डालते थे, जिसे होलिका माई का भोजन कहा जाता था। इसीलिए कभी नागा (गैप) नहीं पड़ने देना था – मां भूखी रह जायेगी। फाल्गुन पूर्णमासी की रात को होलिका-दहन होता था। इस पूरे समय में बच्चे हर घर के सामने -ख़ासकर नयी दूल्हनों व भाभियों वाले घरों के सामने-खड़े होकर ‘कबीर’ या ‘जोगिड़ा’ (गालीमय कविता – ख़ासकर दोहा छंद में) बोलते थे। यह छूट हमारी संस्कृति देती है। होलिका-दहन की सुबह होली का त्योहार होता था। उस दिन पूरा गाँव भांग पीता था, रंग खेलता था। यही मस्ती ही तो मदनोत्सव है। शायद इसीलिए इसे ऋतुराज कहा गया है। उस वक्त बड़े-बूढ़े भी खुलकर कबीर बोलते थे और उसमें कोई बंधन नहीं होता था – न उम्र का, न रिश्ते का, न जाति-पाँति का। इस समूची संस्कृति का सारा मामला वर्जनामूलक समाज में दो महीने की स्वच्छंदता से बावस्ता है। इसी की काव्यमय अभिव्यक्ति है कालिदास का वसंत-वर्णन और उसमें भरा पड़ा अफाट श्रिंगार – कामोद्दीपन। इसे साहित्य में वसंत-वर्णन का आगार कह सकते हैं। लेकिन यह सब लुप्त हो गया। अब तो नाममात्र की होलिका दो-चार दिन के लिए गड़ती हैं और कुछ बच्चे जाके जला भी आते हैं। इस सबके बदले आज के समाज में पाश्चात्य संस्कृति की अंधाधुंध नक़ल में ‘वेलेंटाइन डे’ आ गया है, जिसमें वसंत से जुड़ी सारी परम्परा व संस्कृति खो गयी है। ख़ैर,

साहित्य में यदि वसंत में श्रिंगार रस की निष्पत्ति हो रही है, तो उसका स्थायी भाव है – प्रकृति – नदियाँ-बगीचे-फल-फूल-पहाड़…आदि। शायद हमारा कोई कवि या मेरा जानीता कोई कवि समुद्र के किनारे न रहा, क्योंकि प्रकृति का सबसे वृहदाकार रूप समुद्र वसंत-विहार में प्रकृति का उपादान बनता मुझे नहीं दिखता – वे नदी के बाद ताल-तलैया की ओर चले जाते हैं –‘नदी उमगि अंबुधि मँह जाई, संगम करहिं तलाव-तलाई’। परंतु हम मुम्बई-वासियों को तो समुद्र के बिना गाढ़ा रोमांस महसूस भी नहीं होता…। और समुद्र तो वसंत का मोहताज नहीं। उसमें निहित रूमानियत सदाबहार है। उसके किनारे हम ‘सरले सावन-भरले भादों’ याने किसी भी मौसम में चले जायें, वैसी ही अनुभूति होती है। इसके किनारे आ जाते, तो न कविकुलगुरु कालिदास को कामोद्दीपन के लिए वसंत का मोहताज होना पड़ता, न तुलसी को कृत्रिम वसंत की सर्जना करनी होती। हाँ, वर्षा में ज़रूर बादलों-हवाओं की संगति पाके सागर भी ज्यादा ज़ोम पर आकर अधिक उत्तेजक हो जाता है, लेकिन वसंत का उस पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ता।

गरज ये कि जैसे समुद्र मोहताज नहीं वसंत का, वैसे हमारा क्लासिक कवि भी जब चाहता है, अपने मन के आवेग व कवि-कौशल से कविता में वसंत ला देता है। लेकिन जहां यह तथ्य उनके काव्य-कौशल में छिपा रह जाता है, वहीं हमारे आधुनिक युग ने इसे सीधे-सीधे कह दिया है। पंडित हज़ारी प्रसाद द्विवेदी भी वसंत पर लिखने चले, तो शान्ति निकेतन में गुरुदेव कवींद्र रवींद्र के लगाए शिरीष से लेकर स्वत: उपजी विष्णुकांता (घास) तक में प्रकृति ही स्थायी भाव बनती दिखी, लेकिन वे इस घटाटोप में खोये नहीं, वरन दो पृष्ठों में ही साफ़-साफ़ निष्कर्ष दे दिया – ‘वसंत आता नहीं, ले आया जाता है। जो जब चाहे, ला सकता है…’–हमारे कवियों व समुद्र की तरह। याने वसंत को मनुष्य की सर्जनात्मकता का प्रतीक बना दिया – उसके अधीन भी बना दिया। इन्हीं पंडितजी की परम्परा और विधा में हुए दूसरे पंडित विद्यानिवास मिश्र ने तो और सीधे-सीधे कह दिया –‘वसंत आ गया, पर कोई उत्कंठा नहीं’

और आज सम्पादक के उकसाने पर मैं लिखने बैठा हूँ, तो दोनो पंडितों में वसंत के ‘आने नहीं, ले आये जाने’ एवं ‘आ जाने पर भी उत्कंठा नहीं’ के रहस्य कुछ और तरह से थोड़े-थोड़े समझ में आ रहे हैं, जो तब न आये थे, जब कभी पढ़ा था…। क्योंकि वसंत की उपस्थिति के लिए आज लिखते हुए गाँव से लेकर बनारस व शहरे-मुम्बई तक के अपने तमाम रहिवासी माहौल को छान रहा हूँ, कि कुछ अपना अनुभूत लिखा जा सके, तो वसंत क्या, उसके स्थायी भाव प्रकृति का ही कोई नाम-निशान शेष नहीं दिख रहा…और जोड़-घटा रहा हूँ, तो पता लग रहा है कि जब ये दोनो पंडित ऐसा लिख रहे थे, तब हम पैदा होके होश सम्भाल रहे थे…

…महज़ 22 घरों के नन्हें से पुरवे की सिवानों में 11 तो विशाल पीपल थे। सबमें देवता बसते थे। आज एक भी नहीं हैं- 10 सालों पहले गिरे डीह बाबा शायद आख़िरी थे, जिनके धराशायी चित्र मुंबई आकर भी रुला गये थे। पूरब की ओर विशाल वृक्षों का खूब घना बाग़ीचा था, जिसमें 80% तो आम थे। हवाओं से झरे आमों से ही पूरे गाँव के घरों में चटनी-अँचार बन जाते थे – डंडा-पत्थर मार के तोड़ने की मनाही थी। टपके आम चूसने को भर-पेट मिलते थे। लेकिन 4-5 में पढ़ते हुए शहर से वह ठीकेदार मुस्तफ़ा आया और हम छह घर ब्राह्मण-ठाकुरों को पैसे देकर एक महीने में पूरे इलाके को वीरान कर गया था। मेरे बड़के बाबू को मुस्कुराते हुए 21/ थमाना और सर नीचे किए हुए उनका थामना मुझे आज भी याद है – और गाँव का एक तरफ़ से नंगा हो जाना भी…। पश्चिम में पूरा जंगल था, जिसमें गाँव के सभी लोगों के कुछ-कुछ हिछाए (स्वेच्छा से बाँट दिये) पेड़ थे। तीन पेड़ महुए के हमारे थे। हम तीनो भाई-बहन महुआ बीनने अल्लसुबह जाते। उनकी मादक महक और दुलार भैया के अपने महुए-तले से उठी पिहक ‘महुआ के कुचवा मदन रस टपके कि बहे पुरवैया झकझोर निरमोहिया – छलकल गगरिया मोर…’ की याद से नाक-कान आज भी सुगंधित हो उठते हैं, मन आनंदित हो जाता है…। उस जंगल के उत्तरी सिरे पर पलाश के घने-बड़े पेड़ होते थे, जिनमें वसंत में खूब लाल-लाल फूल खिलते थे। इन्हीं की प्रेरणा से ही अपने बाबा श्रीयुत हरिहर ‘शर्मा’ त्रिपाठी ने कविता लिखी होगी, जिसमें पंक्ति आती है – ‘बन-बन पलासन में आग सों अंगारे लसे, बाह रे वसंत करि कहाँ पे लुकाइ हैं…। लेकिन हाई स्कूल वग़ैरह में पढ़ते हुए जब ऐसी कविताएं समझने लायक़ हुए और यह जाना कि महुए झरने और दुलार भैया के गीत भी वसंत के ही मनुहार रहे…तब तक तो वह जंगल भी उसी पट्टा-प्रक्रिया में वीरान हो गया था, जिसके लिए अदम ने लिखा है–

‘खेत जो सीलिंग के थे, सब चक में शामिल हो गये, हमको पट्टे की नक़ल मिलती भी है तो ताल में’

…फिर और बड़े हुए, तो शहर (आज़मगढ़-जौनपर) आने-जाने लगे। सड़क के दोनो ओर विशाल-छतनार वृक्ष होते। उनकी छाँव में हल्की बयार भी हवा के झोंके की तरह ऐसा तर किये रहती कि सायकल पर डबल सवारी भी 35 किमी चलाने में पसीना न आता था। आते-जाते राही किसी भी वृक्ष तले छाया में बैठ-लेट के सुस्ता लेते…। अब वहाँ चार-छहमार्गी (फ़ोर-सिक्स वे) महामार्ग बन गये हैं– एकदम निचंट – दूर-दूर तक अफाट बिछी कांक्रीट की सड़कें…कहीं पत्ते-पौधे के निशां तक नहीं!! किनारों पर पेड़ लगाने की योजना भी नहीं। बीच में भेदक (डिवाइडर) की जगह छोटे-छोटे वृक्ष लग रहे, जिनमें न छाया होगी, न फल। आज का समय कितना वसंत-विरोधी हो गया है!! और यह सड़कों पर ही नहीं, चहुँ ओर हो रहा है। प्रकृति का आगार है हिमालय। आप जाके देखिए, जिस तरह पहाड़ कट रहे हैं और उस काटे पत्थरों से नदियाँ पट रही हैं, देश की सीमाएँ जिस तरह नंगी हो रही हैं…कि दिल दहल जाता है। और आज चहुँ ओर ऐसा ही बहुत-बहुत कुछ…तो क्या सब कुछ ऐसे ही हो रहा है…!!

ऐसे में बेचारा वसंत आये भी तो कहाँ… उसके आश्रय व आधार ही उजह (निर्मूल हो) गये। तभी तो आधुनिक कवि रघुवीर सहाय को वसंत आने का पहला पता कलेंडर से लगा एवं दफ़्तर की छुट्टी से प्रमाणित हुआ वसंत पंचमी का दिन।  

और आज के यांत्रिक-तकनीकी युग को इस उजहने से कोई उज्र नहीं। वातानुकूलित गाड़ियों में आज वृक्षों के छाँव की दरकार नहीं। हिमालय से लेकर समुद्र तक अखिल सृष्टि में छाया पद्माकर का ‘बगर्यो वसंत’ आज मोबाइलों-कंप्यूटरों में आबाद है…इसी में प्रमुदित है यह युग…। और हमारा वह भारतीय मदनोत्सव वाला वसंत आज इन्हीं गैलों में खो गया है।

और हम कालिदासीय लोग कविकलगुरु की जानिब से झींक रहे हैं…उनके ‘चारुतरं’ के बदले अपनी प्रिया से ‘सर्वं प्रिये ‘चारुहीनं’ वसंते:’ कहने को बाध्य हैं –कह कर ग़म ग़लत कर रहे हैं…। ऐसे में सम्पादक महोदय पता नहीं कौन सा वसंत चाहते थे मुझसे, पर अपुन तो ‘देंगे वही, जो पायेंगे इस जिंदगी से हम’।

हाँ, इस बेकली में एक आश्रय है मेरे लिए भी -चचा ग़ालिब का। उनके लिए ‘मदिरा की धार में ही सारी उमंगें समायी हैं – चाहे भले एक आलम के लिए नयी-नयी हरियाली लिये हुए वसंत आया हो’–एक आलम पे है तूफ़ानि-ए-कैफ़ियते-फ़स्ल, मौज़-ए-सब्जा-ए-नौखेज से ता मौज़े शराब।

पर क्या करें, मौज़े शराब में भी बह नहीं सकते – ब्राह्मणत्व ने उस लायक़ भी न रखा…!!

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सत्यदेव त्रिपाठी

लेखक प्रसिद्ध कला समीक्षक एवं काशी विद्यापीठ के पूर्व प्रोफ़ेसर हैं। सम्पर्क +919422077006, satyadevtripathi@gmail.com
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Yash sharma
Yash sharma
2 years ago

दादा चरणस्पर्श
बेहद ज्ञानवर्धक लेख

इतने सारे कवियों की वसंत को लेकर दृष्टि में जो आपने लेख पिरोया है,अद्भुत।।

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