लेख

साहित्यिक प्रेरणा से निर्मित होता महात्‍मा

 

साहित्‍य को समाज का महत्‍वपूर्ण हिस्‍सा माना जाता है। प्राय: यह देखा जाता है कि किसी व्यक्ति या समाज के विकास में साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसलिए साहित्य को समाज का दर्पण भी कहा जाता है। किन्तु इस दर्पण में कितने लोग गम्भीरता पूर्वक साहित्‍य के उस प्रतिबिम्ब को देख पाते हैं, जो यथार्थ को अपने भीतर समेटे होता है, यह अधिक मायने रखता है। साहित्‍य में वास्‍तविक झलक होने के बावजूद हर कोई इससे नहीं जुड़ पाता। इस देश में ऐसे कितने लोग हैं, जिन्हें देशी-विदेशी लेखकों के अच्छे साहित्य को पढ़ने का अवसर मिल पाता है? या फिर कितने लोग साहित्य पढ़ पाते हैं? यह भी महत्‍वपूर्ण प्रश्‍न है। साहित्यिक प्रेमियों के अलावा, आम जनमानस का साहित्यिक रुझान कम ही देखने को मिलता है। इन परिस्थितियों के बावजूद यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि साहित्य एक ऐसा साधन है, जिसकी साधना से एक साधारण व्यक्ति भी असाधारण बन सकता है। यह गुण साहित्य में विराजमान होता है।

गुलाम भारत में साहित्य का जो योगदान देखने को मिलता है, वह उल्‍लेखनीय है। उस दौर के अधिकांश लोगों का रुझान साहित्य में देखा जा सकता है। ये लोग न सिर्फ साहित्य को पढ़ते थे, बल्कि उनके विचारों का पालन अपने आचरण में भी करते थे। यही आचरण आगे चलकर कब क्रांति या जन आंदोलन का स्वरूप धारण कर लेता था, यह कह पाना कठिन है। गुलाम भारत में एक तरफ राजा और दूसरी ओर अंग्रेजी हुकूमत का अत्याचार निरन्तर बढ़ता ही जा रहा था। इस विकट समय में महात्मा गाँधी जैसे व्‍यक्तित्‍व का जन्म होता है। यह व्‍यक्ति एक साधारण हाड़-मांस में दिखने वाला जरूर था, किन्तु बेहद असाधारण था। मोहनदास करमचंद गाँधी से राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी बनने की उनकी यात्रा किसी से छिपी नहीं है। इस साधारण व्यक्ति को असाधारण बनाने में साहित्य का भी मूल्‍यवान योगदान देखने को मिलता है।

महात्मा गाँधी ने बचपन के दिनों में स्वयं यह बात अपनी आत्‍मकथा में स्वीकार की है कि वे साधारण औसत श्रेणी के विद्यार्थी थे। सिर्फ इतना ही नहीं वे स्वयं को बचपन में मंद बुद्धि का ही मानते थे। जब महात्मा गाँधी को उनके पिता ने स्कूल में दाखिला दिलाया था, तो वह निश्‍चय ही औसत श्रेणी के विद्यार्थी थे। किन्तु वे सिद्धांतवादी थे। स्‍कूल में ही उन्‍होंने नकल का विरोध किया था। स्कूल के दिनों में उन्‍हें कक्षा से सम्बन्धित पाठ्यक्रमों को पढ़ने में मन नहीं लगता था। इसलिए उन्‍हें पाठ्यक्रम की चीजें कम ही याद रह पाती थी। किन्तु रूचि के अनुरूप, वे जो कुछ पढ़ लेते थे, उनको भूलते नहीं थे। उन्‍हें पाठ्यपुस्तकें सदैव अरुचिकर लगती थी।

एक दिन अचानक पिताजी की खरीदी हुई एक किताब पर गाँधी जी की नजर पड़ी। उस किताब का नाम था, ‘श्रवण पितृभक्ति’। इस किताब को देखकर उन्‍हें इसे पढ़ने की इच्छा हुई और पढ़ना शुरू कर दिया। किताब रुचिकर लगने लगी, तो पूरी किताब पढ़ डाला। इस किताब का गहरा असर महात्मा गाँधी पर पड़ा और उनके मन में भी श्रवण बनने की तीव्र इच्छा जा‍गृत हुई। वे श्रवण कुमार तो नहीं बन पाए, किन्तु अपने पिता की सेवा श्रवण कुमार की तरह अवश्य करते थे। इसी दौरान एक नाटक कंपनी आई थी, जो ‘हरिश्चंद्र का आख्यान’ नाटक का मंचन कर रही थी। महात्मा गाँधी इस नाटक को देखकर भाव विभोर हो गये थे। इसलिए इस नाटक को बार-बार देखने की उनकी लालसा होती थी। हरिश्चन्द्र की छाप महात्मा गाँधी पर गहरी पैठ कर गयी थी। इसलिये वे सोचते थे कि हरिश्चन्द्र की तरह सब क्यों नहीं होते? इस तरह बचपन में पढ़ी हुई ‘श्रवण पितृभक्ति’ और ‘हरिश्चन्द्र का आख्यान’ नाटक का प्रभाव बचपन से लेकर जीवन पर्यंत बना रहा।महात्मा गांधी: मोहन से महात्मा तक की यात्रा ( Journey of Mahatma Gandhi  from Mohan to Mahatma)

बाल्यावस्था में ही महात्मा गाँधी का विवाह हो चुका था। उस समय पाठ्यपुस्तकों के अतिरिक्त निबन्धों की  छोटी-छोटी पुस्तकें जैसे- दंपत्ति प्रेम, कम खर्चे, बाल विवाह आदि की खूब चर्चा रहती थी। इन विषयों से सम्बन्धित कोई भी किताब उनके हाथ लगती, तो उसे वे झट से पढ़ जाते थे। ऐसी ही एक किताब उनके हाथ लगी थी, जिसका नाम था, ‘एक पत्नी-व्रत’। इस किताब को पढ़ने के बाद वे स्‍वयं को पत्नी व्रत बनाने का भरसक प्रयत्न करते रहते थे। जबकि कस्तूरबा बाई अपने पति के प्रति पहले से ही कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदार थी। लेकिन गाँधी जी अपना पतित्‍व सिद्ध करना चाहते थे। हालांकि आगे चलकर यह भावना बदल गयी थी। शायद बाल्यावस्था के पति का स्वभाव कुछ ऐसा ही होता होगा।

महात्मा गाँधी अपने बाल्यावस्था में पतित्‍व और विद्याभ्‍यास दोनों का धर्म भलीभाँति निर्वाह कर रहे थे। विद्याभ्‍यास के दौरान ही जब वे छठी कक्षा में पहुँचे थे, तब संस्‍कृत भाषा को कठिन समझकर फारसी भाषा की कक्षा में एक दिन बैठ गये थे। इस हरकत से उनके संस्कृत के शिक्षक को बहुत दुख हुआ। उन्होंने कहा “हिन्‍दू होने के नाते तुम्‍हें अपने धर्म की भाषा सीखने की प्रेरणा दी गयी है और तुम अपने धर्म की भाषा को सीखने के बजाय, दूसरे धर्म की भाषा सीख रहे हो।” इस घटना के बाद महात्मा गाँधी ने फारसी को छोड़कर संस्कृत भाषा का चयन किया।

तेरह से लेकर सत्रह साल के विद्याभ्यास के दौरान वे धार्मिक शिक्षा की ओर अग्रसर होते दिखाई पड़ते हैं। ‘रामायण’ अर्थात राम के प्रति उनका आकर्षण ‘रंभा’ (नौकरानी) के कारण पड़ा। दरअसल महात्मा गाँधी को भूत-प्रेत से डर लगता था। ‘रंभा’ ने उनको बताया कि राम नाम जपने से भूत-प्रेत सब भाग जाते हैं। इस तरह ‘रामायण’ का नित्य पाठ कर कण्‍ठाग्र करने लगे। ‘रामायण’ के पाठ में महात्मा गाँधी को खूब रस आता था। इसलिए ‘रामायण’ के प्रति श्रद्धा की बुनियाद तैयार होने लगी थी। आगे चलकर ‘रामायण’ को ही वे अपना सर्वोत्तम ग्रंथ मानते थे। रामायण का प्रभाव इतना अधिक पड़ा कि जीवनपर्यंत इसी धर्म में रच-बस गये।

गाँधी जी को कुछ महीनों के बाद उस स्थान से राजकोट के लिए पलायन करना पड़ा। यहां उन्‍होंने ‘भागवत’ को पढ़ा। इस ग्रंथ को पढ़कर धर्म रस अत्यधिक तीव्र होती गयी। ‘रामायण’ और ‘भागवत’ ने उनकी धार्मिक आस्‍था को बढ़ा दिया था। बाल्यावस्था में पढ़ी हुए अच्छी-बुरी किताबों की बहुत गहरी छाप मन-मस्तिष्‍क पर पड़ती है। महात्मा गाँधी पर भी किताबों का प्रभाव पड़ रहा था। इसी दौरान इनके हाथ ‘मनुस्मृति’ लगी। वे इसे भी पढ़ गये। किन्तु इसमें उनकी श्रद्धा नहीं जमी, उल्टे इस ग्रंथ के प्रति उनमें थोड़ी नास्तिकता ही पैदा हुई।फैक्ट चैक: क्या महात्मा गांधी भारत-पाकिस्तान विभाजन के समर्थन में थे? |  भारत | DW | 02.10.2019

सन् 1887 में महात्मा गाँधी ने मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली। इससे आगे की शिक्षा के लिए वे विलायत जाने की तैयारी में लग गये। विलायत जाने के बाद उनके सामने जो सबसे बड़ी समस्या खड़ी हुई, वह थी सात्विक भोजन की। हालांकि शारीरिक कसावट के लिए इससे पूर्व वे मांस का सेवन कर चुके थे। विलायत में विभिन्न कठिनाईयों का सामना करने के बाद किसी तरह उन्‍होंने एक वेजिटेरियन रेस्तरां (अन्नाहारी भोजनालय) को खोज निकाला था। इसी दौरान उन्‍हें साल्ट की किताब ‘अन्नाहार की हिमायत’ को पढ़ने का अवसर मिला। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद महात्मा गाँधी के अंदर अन्नाहार के प्रति जो विश्वास बढ़ा, उसका नियमित तौर पर पालन करने लगे थे। उनके अंदर दूसरों को भी अन्नाहारी बनाने का लोभ जाग गया था। अन्नाहार के प्रति निरन्तर उनकी श्रद्धा बढ़ने लगी थी। इसलिये उन्होंने अन्नाहार से सम्बन्धित अन्य किताबों का भी अध्ययन किया, जिसमें से हावर्ड विलियम्स की ‘आहार नीति’, डॉक्टर मिसेज एना किंग्सफर्ड की ‘उत्तम आहार की रीति’ और डॉक्टर एलियन के आरोग्य विषयक लेख महत्‍वपूर्ण थे। इन पुस्तकों का प्रभाव यह हुआ कि आहार विषयक प्रयोग उनके जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया।

अन्नाहार विषय के साथ गाँधी जी विलायत में बैरिस्टरी की भी पढ़ाई कर रहे थे। किन्तु बैरिस्टरी की पढ़ाई में उनका मन कम लगता था। विलायत में लगभग एक साल बीत जाने के बाद गाँधी जी का परिचय वहाँ के विभिन्‍न धर्मों से हुआ। विलायत में दो थियॉसॉफिस्ट मित्रों के अनुरोध पर उन्‍होंने ‘भगवद् गीता’ पढ़ना शुरू किया और इन्हीं भाइयों के सुझाव से आर्नल्‍ड की ‘बुद्ध-चरित’ भी पढ़ा। उन्‍होंने ‘भगवद् गीता’ की अपेक्षा ‘बुद्ध-चरित’ को अधिक रस पूर्वक पढ़ा। हालांकि एडविन आर्नल्‍ड का ‘बुद्ध-चरित्र’, ‘भगवद् गीता’ का ही अनुवाद था। शायद इसलिए ‘भगवद् गीता’ का प्रभाव उन पर अधिक पड़ा।

गाँधी जी ने ब्लैक्‍ट्स्‍की की पुस्तक ‘की टू थियॉसॉफी’ (थियॉसॉफी की कुंजी) पढ़ी थी। इसको पढ़ने के बाद उन्‍हें फिर से  हिन्दू धर्म की पुस्तकें पढ़ने की तीव्र इच्छा पैदा हुई। इन्हीं दिनों मैंचेस्टर के एक ईसाई सज्जन ने गाँधी जी को ‘बाइबल’ पढ़ने को कहा। फिर उन्‍होंने ‘बाइबल’ पढ़ना शुरू किया, जिसमें से ‘पुराना इकरार’ (ओल्ड टेस्टामेंट) और ‘जेनेसिस’- सृष्टि रचना प्रकरण पढ़ने में उनका मन नहीं लगा। ‘नंबर्स’ नामक प्रकरण पढ़ते-पढ़ते मन भर गया था। किन्तु जब ‘नये इकरार’ (न्‍यू टेस्‍टामेण्‍ट) प्रकरण पढ़ने लगे तो ‘गिरी प्रवचन’ का उन पर अच्छा प्रभाव पड़ा। इस प्रकरण में जो उन्‍होंने सीखा और अनुकरण किया, वह यह है कि- ‘जो तुझसे कुर्ता मांगे उसे अंगरखा भी दे दो’। इसकी तुलना उन्‍होंने ‘गीता’ से किया, जिसमें लिखा है ‘जो तेरे दाहिने गाल पर तमाचा मारे, बायाँ गाल भी उसके सामने कर दें।’

मि.कोट्स के सम्पर्क में आने से महात्मा गाँधी ने डॉक्टर पारकर की टीका, पियर्सन की ‘मेनी इनफॉलिबल प्रूफ्स’ (कई अचूक प्रमाण), बटलर की ‘एनॉलोजी’, ईसाई धर्म की किताबें पढ़ी। किन्तु इसमें उनकी रूचि कम थी। इसलिए इन किताबों का प्रभाव गाँधी जी पर नहीं पड़ा। धार्मिक चर्चा और सार्वजनिक काम में उन्‍हें खूब दिलचस्पी होने लगी थी। हिन्दू धर्म के दोष को लेकर परेशान रहते थे। खास तौर पर अस्पृश्यता को लेकर। उनके मन में धार्मिक उहा-पोह की स्थिति निर्मित हो गयी थी। तभी रामचन्द्र भाई ने हिन्‍दू धर्म का गहराई से अध्‍ययन करने की सलाह दी। जब उन्‍होंने निष्‍पक्ष भाव से हिन्‍दू धर्म का अध्‍ययन किया तो पाया कि- ‘‘जो  सूक्ष्‍म और गूढ़ विचार हैं, आत्मा का निरीक्षण है, दया है, वह दूसरे धर्मों में नहीं है।’’ हिन्दू धर्म के साथ ‘कुरान’, एना किंग्सफर्ड के ‘परफेक्ट वे’ (उत्तम मार्ग), ‘बाइबल का नया अर्थ’ किताबों का अध्‍ययन किया और उन्‍हें पसंद भी आयी। इन सभी किताबों को पढ़ने के बाद उनके अंदर हिन्दू मत की अधिक पुष्टि होती है।Mahatma Gandhi came to Jammu Kashmir once and stayed for 10 days jagran  special

रायचंद भाई के द्वारा भेजी गयी ‘पंचीकरण’, ‘मणिरत्नमाला, योगवासिष्ठ का ‘मुमुक्षु’ प्रकरण और हरीभद्रसूरी का ‘षडदर्शन-सम्‍मुचय’ आदि किताबों का भी अध्ययन किया। लेकिन सबसे अधिक प्रभावित करने वाली किताब टॉलस्टॉय की ‘बैकुंठ तेरे ह्रदय में है’ ही रही। नर्मदा शंकर की ‘धर्म-विचार’ पुस्तक की प्रस्तावना में मानो उनके जीवन में हुए परिवर्तन का ही वर्णन था। इस पुस्‍तक ने महात्मा गाँधी को आकर्षित किया था। उन्‍होंने मैक्स मूलर की ‘हिंदुस्तान क्या सिखाता है?’ किताब को भी दिलचस्पी के साथ पढ़ा था। थियॉसॉफिकल सोसायटी द्वारा प्रकाशित उपनिषदों का भाषांतर पढ़ा। इससे हिन्दू धर्म के प्रति उनका आदर और बढ़ गया। उसकी खूबियाँ व गहराइयाँ से समझने लगे।

गाँधी जी ने ‘जूरथुस्‍त के वचन’ नामक पुस्तक भी पढ़ी। इस प्रकार विभिन्न धर्म और संप्रदायों का ज्ञान प्राप्त किया। उन्‍होंने जो पढ़ा और पसंद आया उसे अपने आचरण में लाने की आदत पक्की हो गयी थी। ‘लाइट ऑफ एशिया’ पढ़कर उन्‍होंने ईसा और बुद्ध के जीवन की तुलना की। इसी तरह किसी मित्र के कहने पर ‘विभूतियाँ और विभूति पूजा’ (हीरोज एंड हीरोवर्शिप) पढ़ने की सलाह दी। उसमें से उन्‍होंने ‘पैगम्बर’ (हजरत मोहम्मद) का प्रकरण पढ़ा, जिसमें उनकी महानता का परिचय मिला। उन्‍होंने ब्रेडला की एक पुस्तक नास्तिकता से सम्बन्धित पढ़ा था। इसको पढ़कर वे नास्तिकवाद के प्रति उदासीन बन गये। इस तरह उन्‍हें धर्मशास्त्र का ज्ञान हुआ। उन्‍हें जितना ज्ञान हुआ, उसमें से कुछ का प्रभाव पड़ा और कुछ का नहीं पड़ा।

धार्मिक किताबों को पढ़ाने के अतिरिक्त सबसे अधिक टॉल्‍स्‍टॉय की किताबें पढ़ने में ही मन लगता था। इसलिए उनकी अधिक किताब पढ़ने लगे थे। उनकी ‘गॉस्पेल्स इन ब्रीफ’ (नये करार का सार), ‘व्हॉट टु डु’ (तब क्या करें) आदि पुस्तकों ने उनके मन में गहरी छाप डाली थी। सन् 1890 में पेरिस में हुई बड़ी प्रदर्शनी के बारे में वह पढ़ते रहते थे। एफिल टॉवर की निंदा करने वालों में टॉलस्टॉय मुख्य थे। वे मानते थे कि एफिल टॉवर व्यसन का परिणाम है। इसलिए उन्होंने कहा कि ‘एफिल टॉवर मनुष्य की मूर्खता का चिह्न है।’

कानून के अध्ययन के दौरान उन्होंने ब्रूम के ‘कॉमन लॉ’, स्नेल की ‘इक्विटी’, विलियम्स और एडवर्ड्ज की संपत्ति विषयक, गुडीव की ‘जंगम संपत्ति’ और मेइन का ‘हिन्दू लॉ’ पढ़कर अपनी कानूनी शिक्षा को पूरा किया और बैरिस्टर कहलाने लगे। बैरिस्टरी करने के लिए किसी मित्र ने फ्रेडरिक पिंकट कोड से मिलने की सलाह दी। महात्मा गाँधी जब उनसे मिले तो, उन्होंने कहा कि- ‘के.और मेलेसन की 1857 की गदर किताब’ और ‘लेवेटर और शेमलपेनिक की मुख- सामुद्रिक-विद्या (फिजियोग्नॉमी)’ की पुस्तकों को पढ़ने की सलाह दी। इन दोनों पुस्तक को पढ़ने के बाद बैरिस्‍टरी करने के प्रति उनके मन में उदासीनता आ गयी।जब महात्मा गांधी ने केरल में बाढ़ राहत के लिए जुटाए थे 6,000 रुपये - India  TV Hindi News

गाँधी जी रायचंद भाई की धर्म चर्चा को बड़े ध्‍यान और रूचिपूर्वक सुनते थे। उनके कहने पर ही उन्‍होंने टॉलस्टॉय की ‘बैकुंठ तेरे हृदय में है’ और रस्किन की ‘अन्टु दिस लास्ट’ पुस्तक पढ़कर चकित हो गये थे। इन पुस्तकों का गहरा प्रभाव महात्‍मा गाँधी पर पड़ा। किन्तु इस दौरान मुंबई में इनकी बैरिस्‍टरी नहीं चल पाई और फिर वे दक्षिण अफ्रीका जाने की तैयारी करने लगे। जब प्रिटोरिया पहुँचे, तो वहाँ एक प्रकरण के सम्बन्ध में पी.नोट का मतलब वे नहीं समझ पाये थे। इस अज्ञानता को दूर करने के लिए उन्‍होंने इससे सम्बन्धित बही-खाते की पुस्तकें खरीदी और उसे पढ़ी। इस तरह ज्ञान प्राप्त कर वे अपने अंदर आत्मविश्वास बढ़ाया करते थे। जब उन्‍हें ‘रंग-द्वेष’ के कारण ट्रेन में अपमान सहना पड़ा था, तो उन्‍होंने रेल्‍वे नियम से सम्बन्धित पुस्तक की मांग की और पढ़ डाली। रेल्‍वे नियम की किताब में ‘रंग-द्वेष’ से सम्बन्धित कोई स्‍पष्‍ट नियम नहीं था। इसके बावजूद महात्मा गाँधी को ऐसा अपमान सहना पड़ा था।

सन् 1896 से लेकर 1897 तक परिवारिक दायित्‍वों का निर्वहन करते हुए विलायत में हिंदुस्तानियों को उनका अधिकार दिलाने में महत्‍वपूर्ण योगदान दिया। दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने ‘बाल-संगोपन’ और डॉक्टर त्रिभुवनदास की ‘माने शिखामण’ (माता को सीख) नामक पुस्तकें पढ़ी। इसी दौरान कस्तूरबा बाई का प्रसव होने वाला था। जिस दिन कस्‍तूरबा बाई को प्रसव पीड़ा हो रही थी, उस दिन न डॉक्टर घर पर मिले थे और न ही दाई। ऐसी स्थिति में महात्मा गाँधी ने पुस्तकीय ज्ञान के सहारे अपनी पत्‍नी का प्रसव कराने का दायित्व स्वयं अपने कंधों पर ले लिया और बड़ी कुशलता के साथ सफलतापूर्वक प्रसव कराया। इस कार्य में उन्हें कोई घबराहट भी नहीं हुई।

महात्मा गाँधी ने एक बार धुलाई कला से सम्बन्धित एक पुस्तक पढ़ी थी, तब से ही उन्‍होंने अपना कपड़ा खुद स्‍वयं ही धोना प्रारंभ कर दिया था। इसके साथ ही घर के कई अन्य कार्य भी वे स्वयं ही करने लगे थे। मणिलाल नत्थू भाई का ‘राजयोग’, ‘पातंजलयोगदर्शन’ और ‘गीता’ का अभ्यास पुन: किया। विशेष तौर पर ‘गीता’ का पाठ उनकी  मार्गदर्शिका बन गयी थी। यह किताब उनके लिए धार्मिक कोश की तरह कार्य करने लगी थी। उन्‍होंने जुस्‍ट की ‘रिटर्न टु नेचर’ (प्रकृति की ओर लौटो)  को जब पढ़ा, तो इससे प्रभावित हुए बिना रह ही नहीं पाये। उनका पहले से ही प्रकृति के प्रति गूढ़ प्रेम तो था ही। एक बार उनके छोटे पुत्र का बुखार उतर ही नहीं रहा था। निरन्तर डॉक्‍टरी इलाज से भी कोई लाभ नहीं हो रहा था। सभी तरफ से हताश-निराश होने के बाद वे प्राकृतिक उपचार का साधन ढूँढने लगे। अपने पुत्र का उपचार उन्‍होंने मिट्टी का लेप लगाकर किया और वह अन्ततः इसमें सफल भी हुये। इस तरह गाँधी जी ने प्रकृति से सम्बन्धित किताबों को पढ़कर और उससे प्रभावित होकर उन्‍हें अपने जीवन में आत्‍मसात किया।

जब महात्मा गाँधी जोहानिस्‍बर्ग में थे। उसी समय महामारी फैल गयी थी। तब उन्‍होंने बीमारों की सेवा में अपना मूल्यवान योगदान दिया था। महामारी के बाद यात्रा के दौरान उन्‍होंने रस्किन की ‘अण्‍टु धिस लास्ट’ पुस्तक पढ़ने का मौका मिला। इस पुस्तक का चमत्कारी प्रभाव गाँधी जी के जीवन पर पड़ा। इस किताब को पढ़कर उनके अंदर रचनात्मक परिवर्तन होने लगे थे और इनके अंदर की सोई हुई भावनाओं को जगाने का काम इस किताब ने ही किया। इसी किताब का गुजराती में अनुवाद आगे चलकर महात्‍मा गाँधी ने ‘सर्वोदय’ नाम से किया था।Bowing down to Bapu adopt these five life forms of Gandhiji on gandhi  jayanti - बापू को नमन : गांधीजी के ये 5 जीवन सूत्र अपनाएं और बदलें अपनी  जिंदगी

सन् 1906 में गाँधी जी ने ब्रह्मचर्य का व्रत करने का निर्णय लिया था। ब्रह्मचर्य का अर्थ होता है मन-वचन-काया से समस्त इंद्रियों का संयम। ब्रह्मचारी लेने के बाद से सादगी और स्वावलंबन का जीवन जीना चाहते थे।  ब्रह्मचारी की दृष्टि से उनके आहार में परिवर्तन होता गया। वे संयम की और बढ़ने लगे थे। उनको जब से रायचंद भाई से यह पता चला कि दूध से इंद्रिय विकास पैदा करने वाली वस्तु है। इसी संदर्भ में उन्‍हें कुछ साहित्य पढ़ने का अवसर मिला, जिसमें गाय, भैंस पर ग्वालाओं द्वारा किए जाने वाले क्रूर अत्याचारों की कथा थी। इस साहित्य का उन पर गहरा असर हुआ और उन्‍होंने दूध पूर्णत: छोड़ने का निर्णय ले लिया था। हालांकि गम्भीर बीमारी की अवस्‍था पर उन्‍हें अन्ततः बकरी का दूध पीने के लिए स्वीकार करना ही पड़ा था।

इस तरह गाँधी जी के जीवन के बचपन से लेकर सन् 1910-12 तक के काल-खंड को लिया जाए, तो उनकी पृष्ठभूमि में उन्‍होंने जो साहित्य पढ़ा, उनका प्रभाव उनके पूरे जीवन काल में बना रहा। पढ़े हुए साहित्यिक विचारों को अपने आचरण में अवश्‍य पालन किया करते थे। सन् 1910 के बाद गाँधी जी का जीवन पूर्णत: सार्वजनिक हो गया था। उन्होंने सार्वजनिक जीवन में जितने भी क्रांतिकारी कदम उठाए थे। उसके मूल में उनके द्वारा पठित साहित्य और विलायत में बितायी जीवन-शैली का स्पष्ट प्रतिबिम्ब दिखाई देता है।

सत्य का प्रयोग उनके द्वारा ‘हरिश्चंद्र आख्यान’ नाटक को देखकर जो उनके मन मस्तिष्क पर पड़ा था। आगे चलकर सत्‍य को ही उन्‍होंने अपने जीवन का एक अचूक सिद्धांत बना लिया। और साबित भी हुआ। बचपन में ही ‘श्रवण पितृभक्ति’ पढ़कर जो उनके अंदर भावना जगी थी, वह सार्वजनिक जीवन में अनवरत चलती रही। अन्नाहार से सम्बन्धित अध्ययन का उपयोग तो उनके जीवन और समाज में क्रांति पैदा करने का मूल्यवान हथियार ‘उपवास’ बना, जिसे भूख हड़ताल के तौर पर प्रयोग किया।

धार्मिक किताबों के अध्ययन से हिन्दू धर्म के प्रति न सिर्फ आकर्षित हुए थे, बल्कि उसमें जो अMahatma Gandhi Jayanti: गांधी को नहीं था नेताजी सुभाष की मौत पर यकीनच्छाईयाँ एवं  मानवीय मूल्य थे, उनका उनके जीवन में बखूबी प्रभाव पड़ा। आरोग्य विषयक जो किताबें उन्होंने पड़ी थी, उनका पालन स्वयं अपने परिवार और जीवन में करते रहे।

रस्किन की किताब का इतना अधिक प्रभाव उन पर पड़ा कि उनके सिद्धांतों का प्रभाव गाँधी जी के जीवन में स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। इस किताब में यह विचार है कि– ‘सबकी भलाई में हमारी भलाई निहित है, वकील और नाई दोनों के काम की कीमत एक सी होनी चाहिए। सादा मेहनत मजदूरी का किसान का जीवन ही सच्चा जीवन है।’  इस विचार ने मानो उनका जीवन ही बदल कर रख दिया।

टॉलस्टॉय की किताब ने तो विश्व प्रेम के माध्‍यम से मनुष्य कहां तक ले जा सकता है, के विचार ने महात्‍मा गाँधी को जैसे भाव-विभोर कर दिया था। इसके साथ ही स्वतन्त्र विचार शैली और शक्तिशाली नीति, सत्य के सम्मुख सिद्धांतों का प्रभाव गाँधी के जीवन में स्‍पष्‍ट तौर पर देखा जा सकता हैं। इन साहित्यों ने गाँधी जी के भावी जीवन की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी। भविष्‍य के सार्वजनिक जीवन में इसका उपयोग भलीभाँति होता हुआ दिखाई देता हैं। मोहनदास करमचंद गाँधी से राष्‍ट्रपिता महात्‍मा गाँधी बनने के इस सफर में, उपर्युक्त साहित्‍य का मूल्यवान योगदान देखने को मिलता है। आजादी की लड़ाई में इन किताबों का अमिट छाप स्पष्ट तौर पर दिखाई पड़ती है। इसलिए कहा जा सकता है कि कैसे साहित्‍य एक साधारण और औसत दर्जे वाले व्यक्ति को भी असाधारण बना देता है।

आधुनिक जीवन-शैली में मानव मशीन की तरह बनता जा रहा है। खासतौर पर शहरी जीवन तो पूरी तरह मशीन बन चुका है, जिसमें साहित्‍य की जगह नहीं के बतौर है। ऐसा लगाता है कि आधुनिक चकाचौंध और बाजार ने लोगों की मानसिकता को ही जकड़ लिया है। मनुष्‍य भौतिक सुख-सुविधाओं और विलासी जीवन के पीछे इतने व्‍यस्‍त हो गये हैं कि इनकी सोच मानो बस यहीं तक सिमट गयी हो। नयी पीढ़ी अपना पूरा जीवन इसी में लगा देते हैं। ऐसे समाज की सोच को बदलने की आवश्‍यकता है। इस कार्य में साहित्‍य महत्‍वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इसलिए आवश्‍यकता है कि भारतीय समाज के अंदर साहित्‍य के प्रति अभिरूचि पैदा करने के सारे साधनों को बेहतरीन तरीके से प्रेषित, संचारित और पालन  किया जाए। यदि हम यह कहें कि गाँधी जी को सत्‍य, अहिंसा और प्रेम की भावना साहित्‍य से ही मिली थी तो अतिश्‍योक्ति नहीं होगी।

लेखक शिक्षक एवं स्‍वतन्त्र लेखक हैं।

सम्पर्क- +919479273685, santosh.baghel@gmail.com.

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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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