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कविताओं में उभरते सवाल–दर–सवाल : मोहनदास नैमिशराय
कविताओं में उभरते सवाल–दर–सवाल : मोहनदास नैमिशराय
(बस बहुत हो चुका : ओम प्रकाश बाल्मीकि)
हिन्दी में दलित साहित्य मराठी दलित साहित्य के बाद आया, यह बहस का विषय है । हालाँकि यह बात पूर्ण रूप से सच भी नहीं है । इसलिए कि हिन्दी राज्यों में दलित लेखकों तथा कवियों द्वारा उस समय से लिखना आरम्भ हो गया था, जब डॉ– अम्बेडकर की ख्याति यहाँ तक पहुँची भी न थी । हीरा डोम, स्वामी अछूतानन्द, शोभाराम ‘धेनु सेवक’1, बिहारी लाल हरित, माता प्रसाद, श्याम लाल शमी, रामदास शास्त्री, राजपाल सिंह राज, एन–आर– सागर, लक्ष्मीनारायण सुधाकर, डॉ– सुखबीर सिंह, डॉ– सोहनलाल सुमनाक्षर आदि ने कविताएँ लिखना शुरू कर दिया था । इन सभी का आजादी से पूर्व (1947) जन्म हुआ था । इन्हें नवजागरण दौर के दलित कवि और साहित्यकार भी कहा जा सकता है । दलित समाज के बीच ये पहली पीढ़ी के कवि/लेखक थे ।
आजादी के बाद ओमप्रकाश वाल्मीकि का नाम दलित कवियों/कथाकारों में अग्रणी रूप में लिया जाता है । उन्होंने जिस दौर में लिखना आरम्भ किया । वह सब राजनैतिक बदलाव और सामाजिक विद्रोह का था । दलित उत्पीड़न की घटनाएँ तेजी से पूरे देश में होने लगी थीं । स्वयं ओमप्रकाश वाल्मीकि के शब्दों में उन्होने डॉ– अम्बेडकर, पे्रेमचन्द, बाबू राव बागुल की रचनाओं से दिशा मिली । जिस समाज में मैंने साँस ली थी, उसकी वेदना, पीड़ा, दु:ख–दर्द मेरी कविता में उतरने लगा था । ‘ठाकुर का कुआँ’, ‘तब तुम क्या करोगे’, ज्वालामुखी, मानचित्र जैसी कविताएँ लिखी गयी थीं । समाज की व्यवस्था मेरी रचनाओं में चीखने लगी थी । सदियों का सन्तान (प्रथम कविता–संग्रह) की सभी कविताएँ उसी दौर में लिखी गयी थीं ।–––हिन्दी साहित्य की ब्राह्मणवादी चेहरा, जो अभी धुँधला–धुँधला–सा था, अब साफ–साफ दिखाई पड़ने लगा था ।
बकौल रजत रानी मीनू, दलित कवियों में ओमप्रकाश वाल्मीकि सामाजिक संवेदना के एक ऐसे कवि हैं, जिनकी दृष्टि विशेषकर दलित समाज के प्रति गहन, सूक्ष्म और यथार्थपरक रही है ।
जहाँ तक उनके कविता–संग्रह ‘बस्स! बहुत हो चुका’ की बात है, यह 1997 में प्रकाशित हुआ । इसमें संग्रहित कविताएँ हँस, नवभारत टाइम्स, युद्धरत आम आदमी, अंगुत्तर आदि में प्रकाशित हो चुकी थीं । इस संग्रह में कुल पचास कविताएँ हैं । जिनमें अधिकांश सामाजिक विषमता पर कटाक्ष करती हैं । बावजूद कविताओं में बिम्ब, और प्रतीक अलग हैं । कविताओं के टाइटल्स में गम्भीरता है । कविता की शुरुआत से अन्त तक आते–आते पाठक कहीं गम्भीर होने लगता है । उसके भीतर बेचैनी उपजने लगती है । शब्दों की धार पैनी है । नहीं लगता कि संग्रह की सभी कविताएँ सहजता से लिखी गयी होंगी । यही कारण है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि का नाम आज सशक्त कवियों में लिया जाता है ।
कहना न होगा कि वाल्मीकि की इन कविताओं में सवाल–दर–सवाल उभरते हैं । जो विषमता से भरे हिन्दू समाज का ऑपरेशन करना चाहते हैं । बस्स! बहुत हो चुका कविता में यह सवाल तीखे ढंग से उभरता है–
जब भी देखता हूँ मैं/ झाड़ या गन्दगी से भरी बाल्टी–कनस्तर/ किसी हाथ में/ मेरी रगों में/ दहकने लगते हैं/ यातनाओं के कई हज़ार वर्ष एक साथ/ जो फैले हैं, इस धरती पर/ ठंडे रेतकणों की तरह । (पृ– 79)
वहीं मेरे पुरखे कविता में इतिहास की तलहटी से वे सवाल खोजकर लाते हैं, जिसका, जवाब तथाकथित, सुसंस्कृत सवर्ण समाज के पास नहीं है–
तुमने कहा/ ब्रह्मा के पाँव से जन्मे शूद्र/ और सिर से ब्राह्मण/ उन्होंने पलट कर नहीं पूछा/ ब्रह्मा कहाँ से जन्मा ? (प्र– 99)
ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं में जहाँ भरपूर व्यंग्य है वही पाठकों को उद्वेलित कर देने के लिए नुकीले शब्द भी हैं । खामोश आहटें कविता की विशेषता यही है कि कविता की हर पंक्ति पढ़ते हुए सवाल करने लगता है । वे सवाल हैं उन इतिहास पुरुषों से, जिन्होंने दलित समाज को इतिहास ही नहीं संस्कृति और शिक्षा से भी काटकर रखा था । पाठक के सामने अतीत के जैसे दृश्य उभरने लगते हैं ।
दलितों के हिस्से में जैसे प्रेम आया ही नहीं । द्विजों ने उन्हें सदियों से घृणा और नफरत के बाड़े में ही बन्द रखा । उन पर तरह–तरह के अत्याचार किये । वह मूक बन गुलाम की तरह उसके सामने रहा । कवि वाल्मीकि ‘भय’ कविता में कहते हैंµ
तुम्हारे हाथ बढ़े होते/ मेरी ओर/ प्रेम गन्ध का स्पर्श लेकर–––
इस कविता में एक दलित की द्विज से प्रेम की दरकार है, जिससे वह अछूता है ।
दलित जीवन में वसन्त शायद कभी आया ही नहीं । उसका मनोविज्ञान बदल गया है । भावनाएँ जैसे बर्फ हो गयी हैं । जिन्हें पिघलने हेतु आस–पास प्रेम की आँच भी नहीं है । उसका जीवन शुष्क हो गया है । ‘वसन्त को मरे तो युग बीत गये’ कविता में जैसे वाल्मीकि समस्त दलित समाज के वक्ता बन उनकी वाणी को स्वर देते हैं । कवि के रूप में ही नहीं यहाँ वे जैसे समाजशास्त्री बन जाते हैं और कहते हैं–
भद्र जनों की शालीनता पर/ मुखर होते शब्द/ उन्हें डराते हैं/ वे शब्द जो नहीं मानते/ अतीत की हर एक विडम्बना को/ उच्च आदर्श । (पृ– 93)
बकौल तेजपाल सिंह तेज कवि ने इस संग्रह के जरिए एक नया आयाम देने का प्रयास किया है । कुछ कवितांश–
‘ये भूखे–प्यासे बच्चे/ बाहर आएँगे एक दिन/ बन्द अँधेरी कोठरी से/कच्ची माटी की गन्ध/साँसों/ में भटकर (पृ– 21) जहाँ कुछ नहीं होता/वहाँ हवा
होती है । खालीपन भर देने के लिए । (पृ– 41)
इन कविताओं के गर्भ से एक नयी दृष्टि के विकास और समय के साथ–साथ विकास मार्ग पर चलने का आग्रह छुपा है । समय के दबाव और ताप से बनी इस संग्रह की कविताओं में मुखरता है । यथा ‘जिसकी मुट्ठी खाली थी/पेट खाली था । शरीर पर लिपटा था । एक मटमैला चिथड़ा (पृ– 27) याद करो उस माँ का चेहरा/जिसके सामने फेंक दिये हों । नोंच–नोंच कर उसकी माँ के वस्त्र ।’ (पृ– 42)
हिन्दी समाज के हिन्दी साहित्य पर उनकी टिप्पणी देखें-‘हिन्दी साहित्य में जो सहज और सामान्य दिखाई पड़ती है, वह सिर्फ वाहन रूप है । भीतर–ही–भीतर ऐसा बहुत कुछ है जो ‘उन्हें’ और ‘हमें’ अलग खेमों में बाँटकर देखता है, यह एक भयानक त्रासदी है’ ।
दलित साहित्य के वरिष्ठ कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अतीत से वर्तमान तक की इन्हीं त्रासदियों को अपनी कविताओं में शिद्दत के साथ रेखांकित किया है ।
सन्दर्भ
हरि नारायण ठाकुर, दलित साहित्य का समाज शास्त्र, भारतीय ज्ञानपीठ, 18, इंस्ट्रीट्यूकानस एरिया, लोडी रोड, नयी दिल्ली–110003, 2010, प्र– 404, (चाँद के अछूत अंक 1927 से धेनू सेवक जी की कविता छपी थी) । मेरी रचना–प्रक्रिया : अस्मिता की तलाश, अपेक्षा, जनवरी–मार्च, 2003, पृ– 74 । रजत रानी मीनू, नवें दशक की हिन्दी दलित कविता भारतीय भाषा केन्द्र, भाषा संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली, 1996, पृ– 54 । ओमप्रकाश वाल्मीकि, मुख्य धारा और दलित साहित्य सामाजिक प्रकाशन, नयी दिल्ली 2009, पृ– 14 ।
मोहनदास नैमिशराय : जन्म – 5 सितम्बर 1949 मेरठ, उत्तर प्रदेश । कई विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफेसर । रेडियो, दूरदर्शन, फिल्म, नाटक आदि में लेखन व प्रस्तुति । प्रकाशित कृतियाँ-‘सफदर एक बयान’ (कविता संग्रह), ‘अदालतनामा’ (नाटक), ‘क्या मुझे खरीदोगे’ (प्रथम उपन्यास), ‘आवाजें’ (प्रथम कहानी संग्रह) सहित अनेक कृतियां प्रकाशित । कई पुरस्कारों से सम्मानित । सम्प्रति–हिन्दी मासिक पत्रिका ‘बयान’ का संपादन ।
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