लेख
भूख की आग का सामाजिक आशय
भूख क्या है ? एक फिजिकल फेनोमेना या मेंटल फेनोमेना ? क्या भूख से शरीर का
कोई सीधा सम्बन्ध है या यह केवल दिमागी कसरत है ? यदि भूख का शरीर से सम्बन्ध है तो जो लोग सालों–साल योग द्वारा भूखे रह जाते हैं, उनका शरीर क्षीण क्यों नहीं होता ? क्या भूख के मायने गरीब के लिए अलग हैं और अमीर के लिए अलग ? भूख का वर्ग–विभाजन से क्या कोई सीधा सम्बन्ध है ? इन सब विषयों को लेकर पाठक/दर्शक को आक्रोशित करता है–कृष्ण बलदेव वैद का नाटक-‘भूख आग है’ । भूख एक गरीब व्यक्ति के लिए जीवन और मरण का प्रश्न है तो एक अमीर व्यक्ति के लिए शब्दों की जुगाली मात्र है । जब समाज में सभी व्यक्ति बराबर हैं तो फिर भूख किसलिए है? कुछ लोग समाज में भूखे रह जाते है, उसका कारण क्या है ?
‘‘बच्ची–यह तो ठीक कि भूख खाली पेट की पुकार है । लेकिन सवाल उठता है पेट खाली हुआ क्यों, आई मीन, भूख है क्यों ?’’
भूख इतना सीधा–सादा शब्द नहीं है, जितना ऊपर से दिखाई देता है । इसके अन्दर एक समाज की विद्रूपता, नग्नता, घिनोनापन परिलक्षित होता है । यह शब्द एक समाज के वर्ग चरित्र को हमारे सामने रखता है ।
तीन दृश्यों में विभाजित कृष्ण बलदेव वैद के इस नाटक में भी अन्य नाटकों की तरह कोई खास कहानी नहीं है । एक नवधनाढ्य परिवार का –श्य है, जिसमें एक पुरूष, स्त्री और उनकी बच्ची के बीच बातचीत चल रही है । बच्ची को उसकी मैडम होम–वर्क में भूख पर ‘एस्से’ लिखने के लिए देती है । बच्ची क्योंकि खाते–पीते घर की है इसलिए भूख के विषय में वह कुछ नहीं जानती । मम्मी–पापा की सहायता लेने का प्रयास करती है । लेकिन वे भी भूख को ‘राम की माया और कर्मों का फल’ ही मानते हैं । वे जीवन में भूख के ताप से अपरिचित हैं । शायद इसलिए कि उन्हें कभी अभाव का सामना नहीं करना पड़ा । पेटू किस्म की उसकी माँ के लिए तो उनके खाने की मात्र में कुछ कटौती ही भूख है इसलिए वह हर समय कुछ न कुछ खाती ही रहती है । क्योंकि परिवार धन–सम्पन्न है इसलिए उन्हें भूख का अनुभव नहीं है । भूख पर विस्तृत जानकारी लेने के लिए दूसरे दृश्य में पूरा परिवार जामा मस्जिद जाता है क्योंकि वहाँ गरीब भिखारी बड़ी मात्रा में मिलते हैं । भूखों की चीखों को बीच ये तीनों ताबड़तोड़ कबाब–टिक्के खाते हैं । तीसरे दृश्य में वहां से तीन भिखारियों को भाड़े पर घर लाया जाता है, ताकि उनसे पूछा जा सके कि भूख वास्तव में होती क्या है ताकि भूख पर कुछ सामग्री मिल जाए और ‘एस्से’ पूरा हो सके । यहाँ भिखारी भी नाटक करते हैं । वे सबको अपनी बातों में उलझाए रखते हैं बच्ची, मम्मी, पापा – तीनों को बेहोश कर देते हैं । घर से पैसे और सामान उठाकर भागने का प्रयास भी करते हैं । लड़की के अपहरण का प्रयास करते हैं । फिर वे सब मिलकर गाना गाते हैं-‘भूख आग गोलियों से बुझ न पाएगी, फैल जाएगी’ –––यहीं पर नाटक की समाप्ति हो जाती है ।
देखा जाए तो नाटक में कोई खास कहानी नहीं है । नाटक केवल एक परिवार के बच्चे के होमवर्क को लेकर होने वाली बातचीत तक सीमित है । लेकिन परिवार के लोगों की इसी बातचीत में एक खास किस्म की व्यंजना दिखाई देती है । सीधी–सी दिखने वाली इस कहानी की अनेक परते, अनेक गुत्थियाँ नाटक में खुलती दिखाई देती हैं । शिक्षित और नवधनाढ्य वर्ग ने अपने सुविधाभोगी जीवन के कारण देश में एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी जिससे भूख की यह विभीषिका सामने आयी । जीवन जीने के लिए, पेट में जो आग लगती है वही भूख है, इस भूख का शमन न होने पर आदमी कुछ भी कर सकता है, जबकि भूख का एक दूसरा रूप अधिक लालसा से जुड़ा है । पहली भूख जीने के लिए आवश्यक है, वह अभाव में होती है । उसके बिना जीवन सम्भव नहीं । नाटककार ने भी इसके लिए अँग्रेजी के दो शब्दों का सहारा लिया है–एपिटाइट और हंगर । एपिटाइट खाते–पीते, हट्टे–कट्टे अर्थात अमीर लोगों की भूख है जबकि हंगर गरीब, अभावग्रस्त लोगों की भूख है ।
“पापा – बिटिया, एक भूख तो वही होती है जिसे अंग्रेजी में एपिटाइट कहते हैं । और वह भूख तुम्हारे सामने बैठी है । तुम्हारी ममी– एपिटाइट की खाती–पीती हट्टी–कट्टी तस्वीर ।’’
इसका अर्थ है कि भूख के मायने गरीब के लिए अलग हैं और अमीर व्यक्ति के लिए अलग । भारत में रहने वाले लोग दो वर्गों में विभाजित हैं । एक वर्ग वो है जिसके पास खाद्यान का, धन का अतिरेक है । यह वर्ग ठाठ–बाट से सुविधासंपन्न जीवन व्यतीत कर रहा है । उनके लिए भूख जीवन–मरण का प्रश्न न होकर केवल एक मजाक का प्रश्न है । जबकि दूसरा वर्ग अभावग्रस्त है । इस वर्ग की भूख पेट की ज्वाला सुलगाती है । इस सन्दर्भ में ज्योतिष जोशी का कहना है – ‘‘भूख आग है की असल ट्रेजिडी यही है कि भूख की आग के ताप को हमने महसूस करना भुला दिया है, इसीलिए जब तक भूख है । तब तक भूख की आग का तराना भी जीवित रहेगा, इस नाटक को एक सपने की दुखद कथा या नाउम्मीदी की दास्तान के तौर पर तो देख ही सकते हैं, इसे भारतीय आजादी की असफलता के रूप में भी चिन्हित कर सकते हैं ।’’ (रंग विमर्श, ज्योतिष जोशी, पृष्ठ 125)
1947 में जो आजादी देश को मिली वह महज एक सत्ता हस्तान्तरण था । अँग्रेजों के जाने के बाद यहाँ एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया जो किसी भी सूरत में अँग्रेजों से कम नहीं था । देश के सभी संसाधनों पर इस वर्ग ने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया । गरीब व्यक्ति की दशा में कोई बहुत ज्यादा सुधार नहीं हुआ । विकास की इस दौड़ में एक नया वर्ग और पैदा हुआ–नवधनाढ्य वर्ग । यह वर्ग धनाढ्य वर्ग से भी अधिक चतुर और घाघ था । अँग्रेजों के नक्शे कदम पर चलने वाले इन धनाढ्य और नवधनाढ्य वर्गों ने भाषा को भी भेदभाव और शोषण का हथियार बना लिया । अमीर वर्ग की भाषा अँग्रेजी और गरीबों की भाषा हिन्दी ।
‘‘पापा– बता तो रहा हूँ, माई डार्लिंग डायन । तुम सुनो, समझो तो न । हिन्दी में एपिटाइट के लिए अलग वर्ड शायद इसलिए नहीं है कि हिन्दुस्तान में हंगर बहुत ज्यादा है, एपिटाइट बहुत कम । नहीं शायद इसलिए कि हंगर और एपिटाइट का डिफरेंस ही नहीं रहा । साबित हुआ कि हिन्दी हंगरी लोगों की जबान है । इसलिए जो लोग हंगरी नहीं, वो अँग्रेजी ही बोलते हैं, उन्हें अँग्रेजी ही बोलनी चाहिए । मेरा मतलब है ज्यादा से ज्यादा, जहाँ तक पॉसिबल हो सके ।’’
अत: भाषा भी कहीं न कहीं वर्ग विभाजन का एक हथियार है । अँग्रेज तो भारत से चले गये पर जाते–जाते एक ऐसा वर्ग यहाँ छोड़ गए जो अपने हर कर्म में अन्य भारतीयों से श्रेष्ठ दिखने का प्रयास करता है । भाषा के नाम पर भी यह वर्ग अपनी मातृभाषा से घृणा करता है जबकि एक विदेशी भाषा को अपना लेता है । हिन्दी जो आम भारतीय की भाषा है उसे यह तथाकथित नवधनाढ्य वर्ग तुच्छ और हीन समझता है ।
‘‘ममी – उफ , इतना होमवर्क । और वह भी हिन्दी में । अब हिन्दी भी कोई सब्जेक्ट रह गया है, आजकल के जमाने में । इसीलिए मैं कहती हूँ इसकी हिन्दी मैडम को हटवा दो ।’’
धनाढ्य वर्ग ने देश में व्यवसाय के नाम पर लूट मचा रखी है । छोटे फायदे से इनका काम नहीं चलता, इन्हें तो मोटा माल चाहिए ‘बिग मार्जिन’ । भारत में शिक्षा सेवा का केन्द्र मानी जाती रही है, व्यावसायिक कार्य नहीं । लेकिन यह लोग वहाँ से भी मोटा माल लेना चाहते हैं । यदि बहुत ज्यादा फायदा वहाँ नहीं दिखाई देता तो ये स्कूल खोलना भी पसन्द नहीं करते ।
“ममी – तो अपना एक स्कूल क्यों नहीं खोल लेते ?
पापा – इस धन्धे में कमाई तो है । डार्लिंग,लेकिन कम कोई खास फायदा नहीं । मुझे मोटा माल चाहिए । बिग मार्जिन । बिग प्रॉफिट ।’’
वर्ग संरचना के उच्चतम शिखर पर खड़ा व्यक्ति सब कुछ पैसे के बल पर पाना चाहता है । भारत जैसे देश में क्योंकि शिक्षा भी एक व्यापार बन गया है इसलिए शिक्षा का भी सौदा होता है । फर्जी डिग्रियाँ खरीदी जाती हैं । पैसे देकर अंक बढवाए जाते है । यहाँ पैसे और एप्रोच के बल पर सब कुछ सम्भव है ।
‘‘बच्ची – पापा, अगर पैसे और एप्रोच से सब कुछ हो सकता है तो मेरा एस्से क्यों नहीं हो सकता ?
पापा – कौन कह सकता है नहीं हो सकता।
पापा – तो ठीक है मैं अभी जाकर खरीद लाता हूँ एक ए–वन एस्से । कहो तो सारी दुकान खरीद लाऊँ ।’’
विडम्बना देखिए कि यह वर्ग बच्चे पैदा करने तक में पैसे का इस्तेमाल करता है । जब बच्चे पैदा नहीं कर पाता तो प्रेगनेंसी तक का सौदा कर लेता है ।
‘‘पापा – पैसे से और कैसे ? पैसे से और एप्रोच से।जैसे और सब काम होते रहे ।जैसे इस महल के लिए जमीन मिली । जैसे तुमसे शादी हुई । जैसे तुम्हारे भाई को इतना बड़ा काम दिलवा दिया । जैसे बिटिया का दाखिला हुआ । जैसे वह हर साल पास होती है । जैसे तुम प्रेग्नेंट हुई––– ।’’
नाटक में एक स्तर भूख के बहाने ममी–पापा के संबंधों का भी है । धनाढ्य वर्ग में सभी संबंध शक के दायरे में हैं । पति– पत्नी का रिश्ता विश्वास का रिश्ता होता है । पर धनाढ्य वर्ग में यह रिश्ता कहीं न कहीं अविश्वास पर आधारित है–
‘‘ममी – अपनी बिटिया की मैडम पर डोरे डालना चाते हो ?कुछ तो शर्म करो ।’’
धनाढ्य वर्ग ने संबंधों के मूल्य को तार–तार कर दिया है । पति–पत्नी का रिश्ता किसी भी स्तर पर एक दूसरे की चैकीदारी का रिश्ता बन गया है ।
आज भी हमारा समाज एक रूढ़िवादी समाज है जहाँ पुरूष और स्त्री को बराबर नहीं समझा जाता । बच्चा पैदा करने का निर्णय भी लिंग–भेद के आधार पर लिया जाता है । बेटी पैदा करना अपमान माना जाता है । सभी केवल और केवल बेटा पैदा करना चाहते हैं । टेस्ट के माध्यम से पता कर लिया जाता है कि पैदा होने वाली सन्तान बेटा है या बेटी और यदि बेटी है तो एबार्शन करवा कर उसकी भ्रूण हत्या तक करवा दी जाती है । और इसमें खास बात यह कि इस जघन्य अपराध में यह तथाकथित शिक्षित और अमीर वर्ग सबसे आगे है –
‘‘ममी – हमने वह टेस्ट करवा लिया है–क्या अजीब–सा नाम है उसका ?
ममी – हमें दूसरी बेटी नहीं चाहिये ।
बच्ची – हिन्दी मैडम कहती है टेस्ट में लड़की निकले तो लोग एबार्शन करवा लेते है ।’’ अजीब विडम्बना है अपने आप को शिक्षित और एडवांस कहने वाला वर्ग भी इतना रूढ़िवादी है । वह भी लिंग– भेद में अशिक्षित और गरीब लोगों से किसी भी प्रकार से पीछे नहीं है । उसकी प्रगति थोथी है । केवल उसके धनबल में वृद्धि हुई है,उसकी सोच में नहीं । वह आज भी वैसी की वैसी ही है ।
भूख के मूल में है क्या ? – आर्थिक असमानता समाज में कुछ लोगों के पास पैसा बहुत अधिक है तो कुछ के पास बिलकुल नहीं है । यह असमानता ही भूख का असली कारण है ।
‘‘पापा – (सोच की आवाज गम्भीर) भूख बीमारी रूट काज पावर्टी की रूट काज प्रापर्टी पापा ममी के वो सपने वह क्या थ्योरी थी हाँ सरप्लस वैल्यू शोषण की रूट
काज––– ।’’
इस प्रकार भूख के मूल में कहीं न कहीं आर्थिक असमानता और प्रापर्टी का असमान वितरण है । पिछले 65 वर्षों में देश का खूब आर्थिक विकास हुआ लेकिन आज भी देश में भूखों की तादाद बढ़ रही है । विकास की बयार कुछ ही लोगों तक पहुँची है । बाकी के लिए कुछ नहीं बदला है । सब कुछ वैसा का वैसा ही है । सब कुछ बहुत थोड़े लोगों के हाथ में आ गया है, अधिसंख्य जनता तो आज भी नारकीय जीवन जीने कोे अभिशप्त है ।
‘‘बूढा – कुछ भी नहीं बदला ।
बुढ़िया – सब वैसा का वैसा है ।
भूखी बच्ची – भूखे अब भी भूखे हैं ।
बूढ़ा – भेडिये अब भी भेडिये हैं ।
बुढ़िया – भूख अब भी आग है ।
बूढ़ा – भूखों–नंगों की आबादी बढ़ रही है ।
भूखी बच्ची – करोड़ों बच्चे कचरे पर पल रहे हैं ।’’
इस नाटक में भूख, भेडिये, भूखे–नंगे जैसे शब्द लोगों के मन में एक आक्रोश पैदा करते है । यह आक्रोश उन लोगों के प्रति है जिन्होंने यह स्थति पैदा की है । आक्रोश उस व्यवस्था के प्रति है जो बहुत सारे लोगों को कूड़े–कचरे पर मरने के लिए छोड़ देती है । यह आक्रोश इस व्यवस्था को एक न एक दिन अवश्य चकनाचूर कर देगा । भूख की यह आग सब को अपनी लपेट में ले लेगी । इस आग को बुझाने के सभी उपकरण– जेल, गोली सभी धरे के धरे रह जाएँगे और इस आक्रोश का अन्त क्रान्ति में होगा । वैद जी इप्टा से जुड़े रहे हैं इसलिए मार्क्सवादी चेतना इस नाटक में दिखाई देती है ।
नाटक में केवल 6 पात्र हैं । पापा, ममी, बच्ची, भिखारी बूढ़ा, भिखारी बुढ़िया, भिखारी बच्ची । ये सभी पात्र अपने–अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करते दिखाई देते हैं । पापा, ममी और बच्ची अमीर वर्ग के प्रतिनिधि है इसलिए उनका आचार–विचार और भाषा भारत के तथाकथित एलिट क्लास से मिलती है । अपने ऊपर फिजूल खर्च करना और गरीबों को उनका मेहनताना भी न देना इस वर्ग की फितरत है ।
नाटक में छोटे–छोटे संवाद हैं । एक ही बात को बार–बार, अलग–अलग ढंग से कहा गया है । अंक योजना कोई नहीं है, केवल 3 दृश्य हैं । अन्य नाटकों की तरह वैद जी के इस नाटक में भी मंच–निर्देश बहुत कम हैं । नाटक के संवादों में संगीत और ध्वनि का कोलाज सा बनता दिखाई देता है । शब्दों और संवादों की पुनरावृति दिखाई देती है । वैद के नाटकों के शिल्प के सन्दर्भ में देवेन्द्र राज अंकुर का कहना है –––‘‘दूसरी तरफ उनके नाटकों का शिल्प और संरचना यदि उनकी शक्ति है तो यही उनकी सबसे बड़ी सीमा भी बन जाती है । शक्ति इस रूप, में कि इन्हीं सारी युक्तियों से उनके नाटकों में शिल्पगत ताजगी का जन्म होता है, जो इधर के नाटकों में दुर्लभ होती चली गई है । सीमा इसलिए कि इस शिल्पगत ताजगी को मंचन के दौरान उसी रूप में बरकरार रखने के लिए बहुत ही क्षमतावान अभिनेताओं की दरकार है ।’’(पढ़ते सुनते देखते, देवेन्द्र राज अंकुर, पृष्ठ 70) देखा जाए तो ‘भूख आग है’ नाटक जितना सरल दिखाई देता है उतना है नहीं । नाटक के अन्दर के तनाव की अभिव्यक्ति आसान नहीं है । परिपक्व अभिनेता के लिए भी इस नाटक में अभिनय करना किसी चुनौती से कम नहीं होगा । इस सन्दर्भ में अशोक वाजपेयी का कहना है-‘‘इसमें अभिनेताओं को अत्यधिक कौशल के द्वारा इसके निहितार्थ को उभारना होगा और वे अपने संवाद बोलने के ढंग से स्थिति की विडम्बना को हाथ से न जाने दें, गिरफ्त न छोड़ें । नाटक में जो बातचीत हो रही है वह ऊपरी तौर पर यथार्थवादी ढाँचा लगता है लेकिन वही बातचीत उस यथार्थवादी ढाँचे को तोड़ भी रही है । लेकिन अभिनय के स्तर पर शायद एक दूसरी किस्म का तनाव पैदा होगा । क्योंकि जो बात वह कहेगा उससे शायद लोगों को हंसी आयेगी । धीरे–धीरे हँसी एक चीख में बदलेगी, वह और बात है, लेकिन वह जो हंसी है, उसका जो फन (मजा) है या वाक् चातुर्य है उसको संप्रेषित करते समय बहुत संयम की जरूरत है । अभिनेता या कि प्रस्तुति उसे फार्स न बना दे––– ।’’ (भूख आग है : नाट्य पाठ और प्रतिक्रियाएँ, नटरंग, पृष्ठ 37)
अन्तत: कह सकते हैं कि ‘भूख आग है’ एक कथाश्रित नहीं शब्दाश्रित नाटक है । एक–एक शब्द कई–कई अर्थों की व्यंजना करता है । नाटक कहीं एब्सर्ड लगता है तो कहीं लोकधर्मी । इसके मंचन के लिए निर्देशक और अभिनेताओं को अतिरिक्त सावधानी बरतते हुए अर्थ की विभिन्न परतों को दर्शक के सामने लाना होगा ताकि भूख की समस्या से जुड़े प्रश्नों को, विचार और संवेदना के रास्ते समाधान की सही दिशा दी जा सके ।
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