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बाजार का पौराणिक परिदृश्य
बाजार का पौराणिक परिदृश्य : हबीब तनवीर का ‘आगरा बाज़ार’ – अमितेश कुमार
‘आगरा बाजार’ आधुनिक भारतीय रंगमंच और भारतीय नाटक के इतिहास में वह मील का पत्थर है जहां से भारतीय रंगमंच अपनी निजता की खोज की यात्रा शुरू करता है। यह नाटक एक युगांतर उपस्थित कर देने वाला नाटक है। स्वातंत्र्योत्तर रंगमंच की भारतीयता क्या हो सकती है यह ‘आगरा बाजार’ ने दिखाया था. सत्तर के दशक में जब ‘जड़ों के रंगमंच’ का नारा बुलंद हुआ तब फिर ‘आगरा बाजार’ केंद्र में आया। साल दर साल बीतते जाने के बावजुद इसके मंचीय पाठ ने अपनी क्षणजीविता नहीं खोई है, रंगमंच पर जिसे कायम रखना मुश्किल है क्योंकि मंचन में जीवित होने के साथ ही यह समाप्त भी होता जाता है। नाट्य पाठ के रुप में हम आलेख की एक मानसिक संकल्पना जरूर कर पाते हैं, लेकिन याद रखिए केवल मानसिक, रस और साधारणीकरण तो पुर्णतया मंचन में ही संभव है। ‘आगरा बाजार’ इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि नाट्य लेखन के परंपरागत ढांचे की अवहेलना करते हुए यह अनोखी रीति में लिखा गया पाठ है। इस पर्चे में हम ‘आगरा बाजार’ के नाट्य पाठ की विशेषताओं का अध्ययन करेंगे और इस दौरान इसकी मंचीय स्वरूप को भी ध्यान में रखेंगे।
‘आगरा बाजार’ पहली बार 1954 में खेला गया और मुकम्मल तौर पर प्रकाशन के स्वरूप में यह 2004 में आया। पहले मंचन से लेकर प्रकाशन तक की बीच की अवधी में पचास साल का अंतर है। बीच बीच में इसके कुछ संस्करण प्रकशित हुए थे लेकिन वो पूरी तरह ठीक नहीं थे और हबीब साहब भी उससे असंतुष्ट थे। हबीब तनवीर ने वाणी प्रकाशन से छपे ‘आगरा बाजार’ के सबसे प्रामाणिक संस्करण की भूमिका में ‘पुराने संस्करणों की खामियां’ शीर्षक से इसके पुराने संस्करणों पर बात की है।उनके अनुसार इस संस्करण से पहले तक के उर्दू और हिंदी दोनों ही की संस्करणों में प्रूफ़ के साथ साथ नज़्मों संवादों इत्यादि और उनके तरतीब में भी गड़बड़ियां थी। इस प्रकाशन के लिये हबीब तनवीर ने लिखा “अब पहली बार कुछ जरा तुंदही से जो मैं ड्रामे छपवाने जा रहा हूं, तो मसौदे से लेकर आखिरी प्रूफ तक जहां मुमकिन है हर छोटी से छोटी चीज का ख्याल रखते हुए। चुनांच: ‘आगरा बाजार’ का अब यह जो 2004 का प्रकाशन हिंदी–उर्दू दोनों जबानों में होने जा रहा है। इसमें नज़्में इतनी ही हैं जितनी स्टेज पर इस्तेमाल होती हैं। हर नज़्म के उतने ही बंद हैं, जो शो के तज़दीद में आइन्दा नवंबर में गाए जाएंगे। नज़्मों की तरतीब भी सही है”[1]। स्पष्ट है कि ‘आगरा बाजार’ नाटक का पूर्ण संस्करण छपे रूप में अपने पहले मंचन से पचास साल के बाद सामने आया। क्या इसी वज़ह से एक पचास साल पुराने नाटक को हम इस सदी का नाटक मान सकते हैं? वैसे यहां गौर करने की बात यह भी है कि अपने मंचीय स्वरूप में भी यह नाटक बार बार परिष्कृत होता रहा और 1954 के अपने पहले मंचन के बाद इसमें किरदार और कथानक के साथ संवाद भी जुड़ते रहे। मंचीय स्वरूप में यह नाटक की कई बार पुनर्जीवित होता रहा। 1954 के बाद 1971 में और उसके बाद 1989 में और उसके बाद इक्क्सवीं सदी के आरंभ में लगभग चार बार यह नाटक मंचन के लिये पुनर्जीवित हुआ। नाटक के अपने ढीले ढाले से लगते लेकिन चुस्त विन्यास और कथ्य में छुपे शाश्वत तत्वों की वज़ह से इस नाटक का पुनः पुनः मंचन हुआ। इसके लिये नज़ीर अकबराबादी, उनकी नज़्मों, जिन पर यह प्रत्यक्ष रूप से आधारित है, के साथ नज़ीर के समय का सामाजिक दस्तावेज और उनमें दफ़्न ऐसे प्रश्न हैं जो भविष्य से मुखातिब हैं। वैसे हबीब का मानना था कि केवल नज़ीर के गानों का भी मंचन किया जाता तो वह सफ़ल होता। अपने समय के बार बार अतिक्रमण करने के इस गुण के कारण इस नाटक को इस समय का मानने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिये।
इस संस्करण के अंत में हबीब तनवीर ने तफ़सील से मंचन के तरीकों और रंग संकेतों के बारे में भी लिखा है। जिसमें खासतौर पर से ‘प्रोडक्शन’ यानी नाटक को कैसे खेला जाए, ‘सेट’ यानी नाटक का दृश्यबंध कैसा हो, और ‘कहानी का इरतिका’ यानी नाटक के कथ्य का लक्ष्यार्थ क्या है के बारे में बताया है। नाटक के पाठ में छोटे छोटे रंग– संकेत और अंत में यह मुकम्मल संकेत क्या सूचित करता है? हबीब साहब जो ता उम्र निर्देशक के तौर पर नाटक से छूट लेते रहे अपने मंतव्य के हिसाब से उनका प्रस्तुति आलेख रचते रहे, अपने नाटक के सिलसिले में कोई तयशुदा पद्धति चाहते हैं?
इन संकेतों को ध्यान से पढ़ जाए तो पता चलता है कि हबीब साहब संभावित मंचनों की सहूलियतों के लिये कुछ इशारें कर रहे हैं और नाटक के लचीलेपन के विषय में संकेत कर रहे हैं और यह भावी निर्देशकों का काम आसान करती है। हबीब इस तथ्य से निश्चय ही वाकिफ़ है कि जिस कैनवस का नाटक ‘आगरा बाजार’ है उस कैनवस के नाटक की प्रस्तुति के लिए तैयारी वैसी होनी चाहिये इसलिये उनके तजुर्बे का लाभ आगे भी मिलना चाहिये, क्यों नहीं आखिर यह तजुर्बा पचास सालों का है।
‘आगरा बाजार’ से आधुनिक भारतीय रंगमंच पर अपनी जड़ों की तलाश की प्रक्रिया शुरू हुई। इतने लंबे समय तक खेला जाने वाला नाटक आधुनिक रंगमंच पर शायद ही कोई दूसरा हो। आखिर क्यों यह नाटक इतने लंबे समय तक खेला गया, बार बार इसकी मांग हुई जबकि अपने पहले मंचन के समय बहुत से रंग प्रेमियों को इसे नाटक मानने में ही आपत्ति थी। यह नाटक आधुनिक था, पारंपरिक था, या क्या था? यह तय करने में उस समय समीक्षकों को परेशानी हुई थी, क्योंकि इस नाटक में न नाट्य लेखन की आधुनिक विशेषताएं थी ही नहीं और मंचन के यथार्थवादी पद्धति की रूढियां भी नहीं थी। सुरेश अवस्थी ने इस परेशानी के बारे में लिखा है “एक ही प्रदर्शन में जैसे यथार्थवादी रंगमंच की सभी रूढ़ियां और व्यवहार अपरिचित और विजातीय लगने लगे, और नाट्य प्रदर्शन के साथ दर्शक की साझेदारी हो गई। यह बात और है कि यथार्थवादी पश्चिमी नाट्य पद्धति के दावेदार ‘आगरा बाजार’ को नाटक ही ना मानेंगे”।[2] यह परेशानी शुरुआती ही नहीं थी बाद की भी थी। ‘आगरा बाजार’ में अभिनय कर चुके महेश आनंद लिखते हैं ‘पहले प्रदर्शन में यह पता ही नहीं चला की बाज़ार से सात–आठ बार कैसे गुजरूं। इस नाटक में कोई कहानी नहीं, तीन अंकीय ढांचा नहीं, कोई नायक या मुख्य पात्र नहीं । बस एक बाजार के कुछ हिस्सों में रंग भरने थे’[3]। यह परेशानी वाज़िब थी क्योंकि देवेद्र राज अंकुर के अनुसार यह शुद्ध अर्थों में नाटक ही नही था[4]। क्यों नहीं था इसका संकेत महेश आनंद के उलझन में है। इस नाटक में कोई स्पष्ट कथानक नहीं था, न हीं कोई मुख्य नायक था, यथार्थवादी नाटकों का तीन अंकीय ढ़ांचा भी नहीं था, नाटक के वृतांत में प्रारंभ. विकास और अंत जैसी कोई स्थितियां भी नहीं थी। सबसे अजीब बात यह थी कि नाटक जिस किरदार को केंद्र में रखता था नज़ीर अकबराबादी का यह किरदार मंच पर ही नहीं आता था। अब ऐसे नाटक को नाटक कैसे माना जा सकता था! दरअसल इस नाटक ने पश्चिमी यथार्थवाद और आधुनिकता द्वारा परिभाषित नाटक के पैमानों का अनुसरण ही नहीं किया। आधुनिक भारतीय रंगमंच के विद्वानों को, जो नाटक की पशिच्मी आधुनिक परिभाषा से अनुकूलित थे, इस नाटक में एक चुनौती नजर आई और इसको समझने की बजाए इसको नाटक मानने से इनकार कर दिया। जिसने इस नाटक स्वीकार किया वो भारतीय रंग परंपरा के पारखी थे और इस नाटक के स्रोत को पहचान रहे थे। सुरेश अवस्थी ने युं ही इस नाटक से ‘जड़ों के रंगमंच’ की शुरुआत नहीं मानी है। स्वतंत्र भारत में जब वैश्विक पह्चान और भारतीय पहचान की आकंक्षा से रंगमंच निर्मित करने की पहल हो रही थी उस समय यह इस नाटक ने बताया कि एक प्रामाणिक किस्म का भारतीय नाटक कैसा हो सकता है, जो पश्चिम का अनुकरण नहीं कर रहा बल्कि उसके सार्थक तत्वों का यहां क परंपरा सेमेल कर रहा है। “पश्चिमी और भारतीय रंग तत्वों के मेल से किस तरह एक नया शिल्प और एक नया नाटक जन्म ले सकता है , इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है ‘आगरा बाजार’- आगरा के मशहूर शायर नज़ीर अकबराबादी की नज़्मों और ग़ज़लों पर आधारित यह नाटक न तो यथार्थवादी नाटक के त्रि–अंकीय शिल्प से कोई मेल खाता है और न ही लोक नाटकों के मनमोहक रंगों गीत नृत्य एवं संगीत से भरपूर है। नाटक जिसकी शायरी पर आधारित है वह तो कभी नाटक में आता ही नहीं, इसके साथ ही नाटक में भी कोई कहानी मौजूद नहीं है। इसके बावजुद नज़ीर अकबराबादी के समकालीन समाज लोगों और रीति–रिवाजों की ऐसी दिलचस्प तस्वीर पेश करता है यह नाटक जो शायद ‘मृच्छकटिकम’ और ‘अंधेर नगरी’ के बाद पहली बार देखने को मिलता है”[5]। ‘मृच्छकटिकम’ और ‘अंधेर नगरी’ के जिक्र से स्पष्ट है कि इस नाटक की रचना किसी शुन्य में नहीं हुई बल्कि भारतीय नाट्य परम्परा में इसके अग्रज मौजूद हैं।
‘आगरा बाजार’ से ही हबीब तनवीर के रंगकर्म की विधिवत शुरूआत हुई थी। इसी के बाद वह प्रशिक्षण लेने के लिये यूरोप चले गये । इस नाटक में हबीब साहब की प्राथमिकता थी, नज़ीर अकबराबादी के जीवन को सामने लाना। खासकर नजीर के जनकवि वाले पहलू को। उर्दू साहित्य के इतिहास में शायद ही नजीर को बड़े कवियों की पंक्ति में रखा जाता है। आलोचकों और बुद्धिजीवियोंसे अधिक उनकी पंक्तियों को ज़िंदा रखने वाला आम आदमी है। ककड़ी, लड्डू बेचने वाले, पतंग उड़ाने वाले उनकी कविताओं को अपने कंठ पर धारण करते थे। उन्होंने कवितायें भी ऐसी ही लिखी थी होली, दीवाली, रीछ, तैराकी, पतंगबाजी, मेला इत्यादि पर। लेकिन आम जनजीवन की कविता के अलावा उन्होंने उम्दा शायरी भी की थी जो उस्तादों के शायरी से कतई कमतर नहीं थी। ‘आदमीनामा’ और ‘बंजारा’ जैसे नज़्म दर्शन की ऊंचाई को छूते हैं। हबीब तनवीर ने ‘आगरा बाजार’ के माध्यम से नजीर की जन छवि रची है। “नज़ीर लगभग एक सौ साल जिन्दा रहा। उसकी जिंदगी में इसे किसी अदीब ने न पूछा, मरने के कमोबेश एक सौ साल बाद तक उसका नाम किसी नक़्क़ाद की ज़बान पर न आया मगर दौ सौ साल तक अवाम ने नज़ीर को जिंदा रखा। इसके अशआर और उसकी नज़्में सीना–ब–सीना आज की नस्ल तक पहुंचा दिए गए, अवाम ने अपनी ‘अमानत’ की बड़ी जिम्मेदारी से हिफ़ाज़त की और हिंदुस्तान के शहर, देहात और कस्बे आज भी नज़ीर के नगमों से गुंज रहें है। दरवेश और गदागर शुमाल से लेकर जुनूब तक आज भी नज़ीर की नज़्में गली– कूचों में गाते फ़िर रहें हैं। ये नज़ीर की जिंदगी और कलाम का सबसे बड़ा ड्रामा है और तारीखे अदब का दिलचस्प बाब!”[6]
‘आगरा बाजार’ की मूल कथावस्तु है (यहां ये भी ध्यान रखना चाहिये कि यह कथावस्तु कथा नहीं है, यह नाटक की आख्यानात्मक सरंचना है )कि आगरा के बाजार में मंदी है जिसमें एक ककड़ी वाला अपनी ककड़ी बेचना चाहता है। वह उसके लिये नज़ीर से गीत लिखवा कर लाता है और उसके बाद उसकी ककड़ियां बिकने लगती है। ‘आगरा बाजार’ के पहले प्रदर्शन में कथा यही थी और प्रस्तुति लगभग एक घंटे की ही थी। इसको उन्होंने नज़ीर के समय की आर्थिक, राजनितिक और सामाजिक परिस्थितियों के साथ बुना था। नाटक में बाजार का पूरा माहौल है जिसमें मेला, मदारी, उत्सव, पतंगबाजी, होली, कृष्णोत्सव सब है। सामान्य जीवन की गति और उल्लास को नाटक में जीवंतता से संयोजित किया गया है जिसके संदर्भ नज़ीर हैं।
ओखलाकी पहली प्रस्तुति में हबीब तनवीर जामिया के शिक्षकों और छात्रों के साथ इसे तैयार कर रहे थे लेकिन बाद में रिहर्सल देखने आने वालो में से भी कुछ लोगों को शामिल कर लिया[7]। लगभग पचहत्तर अभिनेताओं की कास्ट के साथ इसे दिल्ली शहर के और हिस्सों जैसे रामलीला मैदानमें भी खेला गया। हबीब साहब इस नाटक को अपनी कामयाबी की बुनियाद मानते हैं। संगीत नाटक पुरस्कार से सम्मानित होने के बाद हबीब तनवीर को पुरस्कार वितरण समारोह में‘आगरा बाजार’ प्रस्तुत करने के लिये कहा गया। एक बार फ़िर उन्होंने ‘आगरा बाजार’ को पुनर्संयोजित किया। इसके पहले तक हबीब तनवीर ‘नया थियेटर’ मेंछत्तीसगढ़ी अभिनेताओं के साथ प्रयोग करने में लगे था और ये प्रयोग असफल हो रहे थे। हबीब तनवीर ने इस दौरान शहरी अभिनेताओं के साथ भी कुछ प्रस्तुतियां की थी। इस पुनर्प्रस्तुति में उन्होंने पुरानी प्रस्तुति के अभिनेताओं के साथ छत्तीसगढ़ी अभिनेताओं को भी शामिल किया। नाटक की कथावस्तु का भी विस्तार किया गया। अब इसमें एक तवायफ़ और दारोगा के चरित्र को शामिल किया गया जिसके साथ साथ सिपाही और शोहदे भी चल आये। यह सत्ता की निरंकुशता और उसके भ्रष्ट रवैये को भी दिखाता है। इस कड़ी में मंजूर हुसैन का भी किरदार है जो बिलकुल खामोश रहता है। प्लाट की तीसरी कड़ी के रुप में किताब की दुकान आ जुड़ा जहां बैठकर साहित्य चर्चा होती है। साहित्यकारों, उर्दू साहित्य, मुद्रण की तब्दिलीयां, भाषा की स्थिति, किताब के बाजार का जायजा वहां से मिलता है। इस प्रकार यह प्रस्तुति लगभग तीन घंटे की हो गई। संगीत नाटक अकादमी के समारोह में प्रस्तुत किये जाने के बाद यह अत्यंत लोकप्रिय रहा और उसके बाद इसे हर दशक में खेला गया। नाटक और प्रस्तुति की सरंचना को इतना लचीला रखा गया है कि पात्र बदल जाने से या कुछ कांट छांट कर लेने से भी उस पर असर नहीं होता है। दर्शकों को देखते हुए भी हबीब तनवीर चलती प्रस्तुति की अवधि में कतर ब्योंत कर देते थे[8]।
नाटकको पेश करने वाली बुनियादी युक्ति है फ़कीरों का गायन जो दृश्यों के बीच में आता है और कड़ियों को संयोजित करते हुए सूत्रधार की भूमिका एक तरह से निभाता है। नाटक मुख्यतः दो अंको में विभाजित है, अंक दृश्यवार विभाजित नहीं है। पहला अंक ‘आगरे की वस्तु स्थिति और नज़ीर के अपने परिचय से शुरू होते है जिसे फकीर गाते हैं। दूसरा अंक बंजारा से शुरू होता है और आदमीनामा पर समाप्त होता है। फकीरों का गीत नज़ीर की शायरी की बानगी देने के अलावा नाटक के गति को भी संयोजित करता है। यह दृश्यों को जोड़ता भी है और किसी खास जगह पर रोककर उन्हें व्याख्यायित भी करता है।
नाटक फकीरों के गीत से शुरू होता है जिसमें आगरा के बाजार की झलक है।
सर्राफ़, बनिये, जौहरीऔरसेठ–साहुकार
देतेथेसबकोनकद, सोखातेहैंअबउधार
बाजारे में उड़े है पड़ी खाक बेशुमार
बैठेहैंयूंदुकानोंमेंअपनीदुकानदार
जैसे कि चोर बैठे हों कैदी कतारबंद
इस एक नज़्म से ही आगरा के बाजार का पूरा माहौल सामने आ जाता है जिसमें किसी व्यापारी का कोई सामान नहीं बिक रहा है, रोजी की मार है और भयानक मंदी है[9]। इस बाजार में विविध प्रकार के चरित्र हैं। ककड़ी बेचने वाला, पान बेचने वाला, लड्डू बेचने वाला, किताब विक्रेता, एक उदयीमान कवि, एक इर्ष्यालु कवि, एक ईमानदार आलोचक, नज़ीर की प्रशंसक एक तवायफ़, नजीर की नज़्मों को गाने वाला एक युवक, होली खेलने वालों का दल, पुलिस के आदमी, पतंगवाला। इस बाजार में सब आते हैं, मदारी, बाजीगर, मेले वाले, हिजड़े। यहां उत्सव भी मनाये जाते हैं। एक तरह से मंच पर भी भारतीय जीवन की विविधवर्णी तस्वीर और उल्लास का चित्रण प्रभावी ढंग से किया गया है। ये सभी पात्र किसी ना किसी तरह से नज़ीर से जुड़े हैं। इन पात्रों के संवादों से ही नज़ीर की छवि बनती है। यहां दिखता है कि शहर के अदब के लोग जहां नज़ीर को हिकारत से देखते हैं वहीं मदारी, तवायफ़, ककड़ी वाले ने उनकी शायरी को कंठ दिया है।
बाजार का दृश्य रचने के लिये हबीब तनवीर ने मंच का नियोजन यथार्थवादी ढंग से किया है। बाजार का माहौल रचा गया जिसमें मंच के दोनों तरफ़ दुकान हैं, बीच में एक दोमंजिला ढांचा है जिसके नीचे दुकान और ऊपर कोठा है। नाटकीय कार्यव्यापार इन्हीं स्पेसों पर होते हैं। मंच परदो विरोधी जगहें है, मंच के दो कोनों में एक कुतुब फ़रोश की दुकान और दूसरी पतंग वाले की दुकान। कुतुब फ़रोश नज़ीर से चिढ़ता है और पतंगवाला नज़ीर का प्रशंसक है। इन दोनों के बीच होने वाली नोंक झोंक सेही नज़ीर का व्यक्तित्व नाटक में सामने आता है।नाटक के अंतिम हिस्से में हमजोली, किताब की दुकान से उठकर पतंग की दुकान पर आ जाता है। नज़ीर की शायरी स्थापित हो जाती है। इन दोनों के बीच में बाजार की अन्य दुकानें हैं जिसके ऊपरी माले पर बेनज़ीर का कोठा है। बेनज़ीर और दारोगा के संवादो से सियासत का चेहरा उभरता है। नाटक का अंत नज़ीर के ‘आदमीनामा’ के संदेश से होता है;
यांआदमीपेजानकोवारेहैआदमी
औरआदमीहीतेग़सेमारेहैआदमी
पगड़ीभीआदमीकीउतारेहैआदमी
चिल्लाकेआदमीकोपुकारेहैआदमी
औरसुनकेदौड़ताहै, सोहैवहभीआदमी
‘आगरा बाजार’ नजीर के हवाले से तत्कालीन जीवन स्थितियों को दिखाता ही है कुछ ऐसी सार्वजनिन चीजें भी दिखाता है जो मनुष्य के जीवन के साथ शाश्वतता से जुड़ी हुई है। भूख और मुफ़लिसी ऐसे ही दो पहलू हैं जिसका हल आज भी नहीं खोजा गया है। जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के इन पहलूओं के साथ मानव जीवन की अनिवार्य नियति को भी यह नाटक संकेतित करता है “ सब ठाठ पड़ा रह जायेगा जब लाद चलेगा बंजारा”। जीवन के मुश्किलों के बीच नाटक जीवन के उन रंगों को भी पकड़ता है जो मनुष्य के जीवन में रस भरते हैं। मदारी का खेल, बलदेव जी का मेला, होली, तैराकी, कृष्णोत्सव का रंग नाटक में चटक होकर मुखर हुआ है। जो मंच की दृश्यात्मकता में वृद्धि करता ही है यह भी दिखाता है कि नज़ीर अपने सामयिक जीवन में कितना गहरे धंसे हुए हैं। और उन चीजों पर अपनी लेखनी चलाते हैं जिस पर लिखना दूसरे शायर मुनासिब नहीं समझते। आखिर रीछ का बच्चा, ककड़ी, तरबुज, पतंग, तैराकी पर कौन लिखता है! जीवन के साथ हबीब तनवीर ने सियासी पहलुओं को भी उभारा है। अंग्रेजी राज के साथ छापेखाने जैसे आधुनिक अविष्कार की चर्चा भी नाटक में है।
हबीब द्वारा निर्मित इस बाजार की तुलना भारतेंदु के ‘अंधेर नगरी’ के बाजार के साथ करनी चाहिये। हबीब तनवीर ने उन्नीसवीं सदी के आगरा का यथार्थ चित्रण करने की कोशिश की है। जबकि भारतेंदू उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के एक प्रतीकात्मक बाजार की सरंचना करते हैं। ‘आगरा बाजार’ के बाजार में मंदी है जिसमें कुछ नहीं बिकता जबकि ‘अंधेर नगरी’ के बाजार में सब कुछ बिकाऊ है। ‘आगरा बाजार’ का भविष्य है ‘अंधेर नगरी’ का बाजार जो उसके अतीत में ही रचा जा चुका है।
बाजारऔर परिवेश को प्रामाणिक बनाने के लिये हबीब तनवीर ने’ भाषा’ का सहारा लिया है। नाटक में उस समय की ज़बान का प्रयोग करने के लिए उर्दू की किताबों का सहारा लिया जिसमें मिर्ज़ा फरहतुल्ला बेग की ‘दिल्ली की आवाजें’[10]खास थी। जिसमें गलियों, नुक्कड़ में बोली जाने वाली भाषा का संग्रह था। छत्तीसगढ़ी अभिनेताओं के शामिल हो जाने से बाद में प्रस्तुति में भाषा की इस रवानगी पर असर पड़ा। नाटक को पहली बार प्रस्तुत करने के समय के बाद से इसमें मुख्य कोरस गाने वाले फ़कीर और अन्य अभिनेताओं मेंव्यापक बदलाव हुआ। पतंगवाला, किताब विक्रेता, तज़्किरानविस, मदारी इत्यादि चरित्र निभाने वाले अभिनेता हर दौर में बदल गए। लेकिन नाटक की लोकप्रियता में कमी नहीं हुई, अलबत्ता प्रस्तुति का स्तर वैसा नहीं रहा।
‘आगरा बाजार’ कई मायनों में हबीब तनवीर के रंगकर्म के साथ साथ भारत के उस भावी रंगमंच की भी धुरी थी जो उसके पहली प्रस्तुति के तीन दशकों के बाद या सत्तर की प्रस्तुति के तुरत बाद में शुरू हुआ। वैसे दूसरी बार प्रस्तुत करते समय शिथिलता और कच्चापन जो इस नाटक की पहली में प्रस्तुति में था धीरे धीरे दूर हुआ[11]। इस प्रस्तुति को नाटक मानने में रंगकर्मियों के मन में संशय था ‘नाटक था भी और नहीं भी। छोट छोटे हिस्सों और घटनाओं को जोड़कर नाटक बनाया गया था। कहीं यह प्रयत्न नाटकीय बन गया था कहीं नहीं। नज़ीर अकबारबादी की कविता नाटक की गति को बढ़ाती थी तो कहीं उसकी गति को अवरूद्ध करती थी’[12]। लेकिन इस नाटक से हबीब तनवीर ने हिंदी में एक नये मुहावरे की शुरूआत की[13]। हबीब तनवीर इस नाटक के लेखन और प्रस्तुतिकरण के माध्यम से एक ठेठ देशज शैली की तलाश उस वक्त कर ली थी जब ‘भारतीय रंगमंच में भारतीयता अथवा उसकी अपनी निजी पहचान, शैली और स्वरूप का डंका पीटने वालों नारों और मुहावरों का जन्म भी नहीं हुआ था।…जिस दौर में भारतीय रंगमंच पश्चिम के तथाकथित यथार्थवादी प्रभाव में लेखन और प्रस्तुति के स्तर पर सक्रिय था उसी क्षण हबीब तनवीर अपने नाट्य दल के साथ एक ऐसी रंगशैली की तस्वीर पेश कर रहे थे, जो बाद में भारतीय रंगमंच में मील का पत्थर साबित हुई”[14]। इस प्रस्तुति ने यथार्थवादी रंगमंच में एक सेंध लगा दी और एक वैकल्पिक आधुनिक रंगमंच की प्रस्तावना की। और बताया कि एक किस्म का आधुनिक रंगमंच यह भी हो सकता है जो सहज और देशी जड़ों में जुड़ा हुआ है। जिसमें कथा का न कोई ढांचा है, न विकास रेखा और न ही उसमें चरित्र का द्वंद्व है। नजीर के जीवन के बहाने वह उनके समय के अदब और हालात के साथ उनके जीवन और उसकी सामाजिक छवि को एक ढीले ढाले से लगते लेकिन चुस्त मनोरंजक नाटक में पेश करते हैं।
[9] उपेन्द्र नाथ अश्क ने एक समीक्षा में यह शिकायत की कि वस्तुओं की बिक्री को दिखाना चाहिये था। उपेन्द्रनाथ अश्क(1990), ‘आगरा बाजार: कुछ इम्प्रेशन’, छायानट, अंक 52: 57.