नाटक

हिन्दी रंग-जगत की महत्वपूर्ण नाट्य पत्रिकाएँ

  •  प्रतिभा राणा
हिन्दीरंग-जगत में नाट्य पत्रिकाओं की भूमिका महत्वपूर्ण रही है I नाटक और रंगमंच पर केन्द्रित पत्रिकाएँ बीसवीं शताब्दी से प्रकाशित होनी आरम्भ हुई I इससे पहले साहित्यिक पत्रिकाओं में ही यदा-कदा नाटक और रंगमंच पर आधारित सामग्री प्रकाशित होती थी; लेकिन स्वतंत्र रूप से किसी भी नाट्य पत्रिका का अभाव था I प्रकाशन के आरंभिक दौर में पं. नारायण प्रसाद ‘बेताब’ द्वारा संपादित ‘शेक्सपियर’ (१९०६) और नरोत्तम व्यास द्वारा संपादित ‘रंगमंच’(१९३१) पत्रिकाएं नाटक पर अवश्य प्रकाशित हुईं, लेकिन ये किसी विशेष दृष्टि को सामने नहीं ला सकी I
    हिन्दी नाट्य पत्रिकाओं की वैचारिक प्रतिबद्धता और उनके विकास की दृष्टि से पांचवा दशक विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, इससे पहले के समय को नाट्य पत्रिकाओं का शैशव काल मानना चाहिए I पांचवे दशक में इप्टा की स्थापना (१९४३) ने भारतीय रंगपरिवेश में सामाजिक एवं राजनीतिक संदेश देने के लिए नाटकों का प्रदर्शन किया I इन नाटकों के प्रचार-प्रसार के लिए अंग्रेजी बुलेटिन (जुलाई १९४३ ) और भित्ति पत्रिका (१९४६) का प्रकाशन किया; इन दोनों के माध्यम से एक नई रंगचेतना से साक्षात्कार हुआ I इसी से प्रेरित होकर इप्टा की आगरा शाखा द्वारा श्री राधेलाल के संपादन में ‘रंगमंच’ (१९५३) और वृंदावन लाल वर्मा, श्यामू सन्यासी के सम्पादन में ‘अभिनय’(१९५६)पत्रिका प्रकाशित हुईं I इन दोनों पत्रिकाओं ने हिन्दी भाषी प्रदेश के रंगकार्यों का परिचय इप्टा की इकाइयों के कार्यक्रमों के माध्यम से दिया है I लेकिन ‘रंगमंच’ के केवल आठ अंक छपे और ‘अभिनय’ चार वर्षों तक चलने के बाद बंद हो गई I
इसी तरह आज़ादी के बाद देश में सांस्कृतिक कलाओं के संरक्षण और प्रसार हेतु कला अकादमियों की स्थापना की गई I भारत के विभिन्न प्रदेशों में बनी इन अकादमियों और शौकिया नाट्य मंडलियों ने भी अपनी पत्रिकाएं प्रकाशित करने की ओर कदम बढाए I पटना की ‘बिहार संगीत, नृत्य एवं नाटक अकादमी’ (१९५१)से प्रकाशित अंग्रेजी-हिन्दी पत्रिका ‘बिहार थिएटर’ (सं.-जगदीशचन्द्र माथुर ,१९५३) और उदयपुर की ‘भारतीय लोककला मंडल’ से प्रकाशित ‘लोककला’ (सं-देवीलाल सामर /महेंद्र भानावत,१९५३) ऐसा ही महत्वपूर्ण प्रयास था I इन पत्रिकाओं का मुख्य उदेश्य भारतीय कलाओं के विभिन्न रूपों से पाठकों और दर्शकों का परिचय कराना था I इसका सकारात्मक असर ये हुआ कि प्रदर्शनकारी कलाओं और पारंपरिक नाट्य के विविध रूपों के बारे में एक नई सोच बननी शुरू हो गई I हालांकि इन पत्रिकाओं में बहुत कुछ अकादमिक एवं तथ्यपरक था, लेकिन इससे भारत के अनेक नाट्य रूपों की बहुत सारी जानकारियाँ नाट्य अध्यताओं के ज्ञान को समृद्ध बनाती आ रही हैं I
      नाट्य पत्रिकाओं की इस कड़ी में इलाहाबाद से प्रकाशित ‘सूत्रधार’(१९५६)विशेष रूप से उल्लेखनीय है I धर्मेन्द्रगुप्त के संपादन में प्रकाशित ये पत्रिका आधुनिक युग का प्रथम व्यक्तिगत प्रयास थी I यह पत्रिका आज़ादी के बाद हिन्दी नाटक और रंगमंच के क्षेत्रकी समस्याओं से साक्षात्कार कराने और उसके निज़ी व्यक्तित्व को बनाने के इरादे से निकली थी I इस पत्रिका का मुख्य उदेश्य शौकिया रंगमंच को प्रोत्साहित करना था I इसीलिए इस पत्रिका के प्रवेशांक में लक्ष्मीकांत वर्मा,धर्मवीर भारती,विजयदेव नारायण साही और धर्मेन्द्रगुप्त के लेख ने अलग-अलग स्तरों पर शौक़िया रंगमंच की समस्याओं एवं सीमाओं का विश्लेषण किया है I लेकिन दुर्भाग्य से इस पत्रिका का दूसरा अंक नहीं निकल पाया I
    सातवाँ दशक हिन्दी रंगमंच के विकास का दशक रहा है I इस दशक में बनारस की श्रीनाट्यम मण्डली की पत्रिका ‘श्रीनाट्यम’ (सं.-दयागिरी,१९६२) के  अंक-९ (१९७०-७१)और १० (१९७२) का उल्लेख अनिवार्य हैI इन अंकों के संपादक कुंवरजी अग्रवाल ने काशी के रंग परिवेश का ऐतिहासिक और तथ्यपरक विश्लेषण किया है I इन अंकों द्वारा तत्कालीन रंगपरिवेश को समझने का एक ठोस आधार प्रस्तुत किया है I इसी तरह हिन्दुस्तानी थिएटर रंगमंडली की अंग्रेजी/हिन्दी पत्रिका ‘हिन्दुस्तानी थिएटर’ (सं.-शमा ज़ैदी/ओ.पी.कोहली /एम.एस.मुददुर ,१९६३)हिन्दी थिएटर के प्रारंभिक ऐतिहासिक क्षणो को जानने के लिहाज से महत्वपूर्ण है I हिन्दी थिएटर के शुरूआती दौर में वैचारिक स्तर पर चीजों को जांचने-परखनें की कोशिश इस पत्रिका ने अच्छी तरह की है I
   व्यक्तिगत प्रयासों की कड़ी में सातवें दशक के मध्य नेमिचंद्र जैन संपादित ‘नटरंग’(१९६५ )मील का पत्थर साबित हुई है, वास्तव में ‘नटरंग’ से ही हिन्दी रंगमंच का आधुनिक दौर शुरू हुआ है, जिससे प्रेरित होकर अनेक छोटी-बड़ी पत्रिकाएं प्रकाशित होने लगीं I इस पत्रिका ने पहली बार नाटक के विवेचन में उस रंगबोध का परिचय दिया जिसमें नाटक के प्रयोग पक्ष पर चर्चा अधिक थी I हिन्दी रंगमंच के आधारभूत प्रश्नों का विश्लेषण और नई रंगचिंतन दृष्टि का आरंभ भी ‘नटरंग’से होता है I इसमें हिन्दी रंगमंच को उसकी समग्रता में जांचा-परखा गया है, इसमें नाट्यालेखों, नाट्यवृत और लेखों ने रंगमंच को विविध स्तरों पर रेखांकित किया है I ‘नटरंग’ में सम्पादकीय भी किसी स्वतंत्र लेख से कम नहीं हैं I इस पत्रिका के विभिन्न विशेषांक समकालीन रंग-संवाद के लिए संदर्भ कोश की भूमिका निभाते हैं I
सातवें दशक की पत्रिकाओं से प्रेरित होकर आठवें दशक में कई रंगमंडलियों ने रंगकर्म के साथ पत्रिकाएं,पत्र एवं बुलेटिन प्रकाशित किए I इनमें से ‘नाट्य परिषद् पत्रिका’(नाट्य परिषद् मण्डली,बनारस १९७४-७५),’रंगपरिवेश ‘(अनुपमा मंडली,बनारस,१९७५),’अभिरंग’(बिहार आर्ट थिएटर,पटना,१९७५),’थिएटर’(थिएटर मंडली,उज्जैन,१९७८),’रंगशीर्ष’(मध्यप्रदेश लोककला अकादमी,उज्जैन,१०७८),’रूपदक्ष’(कालिदास अकादमी,इलाहाबाद,१९७९)इत्यादि पत्रिकाएं प्रमुख हैंIये पत्र-पत्रिकाएं एक-एक अंक के बाद नहीं छप सकींI इन सबसे भिन्न देहरादून से प्रकाशित बुलेटिन ‘कल्चरल टाइम्स’(सं.नीरा नंदा,१९७९)के सत्रह अंक छपेI इन सभी पत्रों ने अपने प्रदेश के रंगमंच का परिचय दिया है,लेकिन कोई तथ्यपरक जानकारी ये पत्र न जुटा सके I आठवें दशक में ही लखनऊ से निकलने वाली ‘रंगभारती’ (सं.-डॉ अज्ञात /शरद नागर,१९७३)पत्रिका भी उल्लेखनीय है, ये लगभग बारह वर्षों तक प्रकाशित होती रही है I उत्तरप्रदेश के रंगमंच को प्रमुखता से प्रस्तुत करती हुई यह पत्रिका एक बड़े हिन्दी भाषी प्रदेश के रंगमंच से हमारा परिचय कराती हैI उत्तरप्रदेश की शौक़िया नाट्य मंडलियों की सक्रियता,उपलब्धियों और सीमाओं के लिए ‘रंगभारती’उपयुक्त आधार प्रस्तुत करती हैI इसका आगा हश्र कश्मीरी पर केन्द्रित विशेषांक (अंक-५-७ ,१९७९-८०) ऐतिहासिक दस्तावेज़ी सामग्री पेश करता हैI
       इसी प्रकार ग्वालियर से प्रकाशित ‘रंगमंच’(सं.-के.सी.वर्मा,१९७४),उत्तरप्रदेश से ‘छायानट’ (सं.-मुद्राराक्षस/रवीन्द्रनाथ बहोरे/शरद नागर,१९७७)और कोलकाता की  ‘नाट्यवार्ता’(सं.-विमल लाठ,१९७६) पत्रिकाओं में प्रदेश विशेष की सामग्री का अधिक से अधिक संकलन मिलता है I ‘नाट्यवार्ता’ की बात की जाये तो इसके लघु आकार में भी रंगकर्म का महत्वपूर्ण हिस्सा सामने आया है I प्रदेश की रंग मंडलियों का परिचय, अभिनय, रंग तकनीक, रंगकर्मियों, विभिन्न रंगनगरों की गतिविधियों का विश्लेषणात्मक परिचय इन पत्रिकाओं में दिया गया है I किन्तु दिक्कत इस बात की है की ‘छायानट’, ’नाट्यवार्ता’ और ‘रंगमंच’ आदि में प्रदेश विशेष की संपूर्ण और सामाजिक जानकारी का अभाव हैI
     हिन्दी रंगमंच और नाटक पर पत्रिकओं के साथ-साथ एक अंतर्देशीय पत्र ‘अभिनय’(सं.-आनंद्गुप्त/जयदेव तनेजा,१९७६) भी निकला I इस पत्र ने पत्रकारिता को व्यावसायिक स्तर पर लाने की कोशिश की है और एक हद तक ये सफल भी हुआ है I किंतु इसमें कई बार अति उत्साह के कारण व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ कोरी व्यक्तिगत बन गई हैं I फिर भी सारी सीमाओं के बावजूद अंतर्देशीय पत्र में ढेर सारी सामग्री का संयोजन, गोष्ठियों, साक्षात्कारों पर उत्तेजक बहस अपनी सूचनात्मक भूमिका के साथ-साथ उसे सार्थकता भी देता है I कुल मिलाकर इस पत्र ने हिन्दी रंग चेतना के विकास में अपनी सार्थक भूमिका निभाई है I इस पत्र के लिए पत्रकारिता एक रंग अनुष्ठान का रूप बनी है I इसके अंतर्देशीय रूप से प्रभावित होकर लखनऊ से ‘दर्पण दृश्य’(सं.-उर्मिल कुमार थपलियाल/विजय तिवारी,१९७९)और पटना से ‘थिएटर’(सं.-देवेन्द्र बिसुनपुरी,१९८०) पत्र भी प्रकाशित हुए हैं I
इसी कड़ी में बाल रंगमंच के स्वरुप, उपयोगिता और महत्व को लेकर लखनऊ से ‘बाल रंगमंच’ (सं.-बंधु कुशावर्ती,१९७६) नाम से एक लघु पत्रिका प्रकाशित हुई I इस पत्रिका के कुल २१ अंक छपे I व्यक्तिगत प्रयास की दृष्टि से बाल रंगमंच के लिए समर्पित एक स्वतंत्र पत्रिका का पहला और गंभीर प्रयास महत्वपूर्ण है;यह पत्र बाल रंगमंच के महत्त्व और आवश्यकताओं को रेखांकित करता है I अत: कहा जा सकता है की आठवें दशक के मध्य तक नाटक लेखन और प्रदर्शनों ने पत्र-पत्रिकओं को सर्वाधिक प्रभावित किया I इसी दौर में हिन्दी के अनेक प्रकाशन संस्थानों ने हिन्दी नाटक प्रकाशित किए और प्राय: सभी पत्रिकाओं ने रंगमंच के बारे में कुछ न कुछ प्रकाशित किया I
       नवें दशक तक आते-आते हिन्दी रंगमच पर नुक्कड़ नाटकों का प्रभाव बढने लगा था Iये नुक्कड़ नाटक सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित थे I इसी के प्रचार-प्रसार के लिए कई बुलेटिन निकले I इनमें पटना से ‘नुक्कड़’ (सं.-देवेन्द्रनाथ सिह्न्कू,१९८२),भागलपुर से ‘नुक्कड़ नाटक’(सं.-चंद्रेश,१९८४) और अलीगढ़ से प्रकाशित ‘थिएटर’(सं.-राजेश कुमार,१९८७)पत्रिकाओं में नुक्कड़ नाटकों से संबंधित लेख और कुछ मौलिक नुक्कड़ नाटक छपे I इनमें से ‘नुक्कड़’ पत्रिका तो केवल नुक्कड़ नाटकों तक ही सीमित रही लेकिन शेष दोनों बुलेटिनों में नुक्कड़ नाटकों की स्थिति, स्वरुप, समकालीन प्रयोगों और जन आन्दोलन के उभार आदि प्रश्नों पर विचार किया है I वास्तव में इन दोनों पत्रिकाओं  ने नुक्कड़ नाटकों की चर्चा में विशेष भूमिका निभाई है I
     भारत के विविधता भरे रंगमच को प्रस्तुत करती हुई ये पत्रिकाएँ विभिन्न सामग्री प्रस्तुत करती रही हैं I इसी कड़ी में पारंपरिक रंगमंच पर ‘नौटंकी कला’ (सं.-कृष्णमोहन सक्सेना,१९८३),’रंगायन’(सं.-महेंद्र भानावत,१९६७),’चौमासा’(सं.-कपिल तिवारी,१९८३),’बिदेसिया’(सं.-अश्विनी कुमार ‘पंकज’,१९८७)आदि पत्रिकाओं ने अपनी उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज़ कराई है I प्रदर्शनकारी कलाओं की पत्रिका ‘कलावार्ता’(सं.-श्रीराम तिवारी/पंकज शुक्ल/कमलाप्रसाद,१९८१) ने नए प्रयोगों के साथ नाटक और रंगमंच की नई संभावनाओं पर बातचीत की है I कहीं-कहीं ये बातचीत विचारोत्तेजक बहस के लिए प्रेरित करती है और कहीं –कहीं साहित्य और अन्य कलाओं की पृष्ठभूमि में पाठकों से केवल वार्तालाप करती है I १९९२ के बाद कुछ वर्षों तक यह पत्रिका बंद रही परन्तु सन् १९९९ से इसका प्रकाशन दोबारा शुरू हो गया है I ‘कलावार्ता’ का हबीब तनवीर पर एकाग्र अंक (सं.-कमलाप्रसाद,अंक १०३)एक महत्वपूर्ण संदर्भ पुस्तक की तरह उपयोगी है I
      इस तरह नाट्य पत्रिकाओं ने हिन्दी रंगमंच को उसकी विविधता के साथ छुआ है, इसी पंक्ति में संस्कृत रंगमंच पर केन्द्रित दो विशिष्ट नाट्य पत्रिकाओं ‘नाट्यम’(सं.-राधावल्लभ त्रिपाठी,१९७८) और ‘कालिदास जर्नल’ (सं.-कमलेश दत्त /श्रीनिवास रथ/प्रभात कुमार,१९८२) का उल्लेख किया जा सकता हैI इन पत्रिकाओं ने ‘नाट्यशास्त्र’ की अवधारणाओं को स्पष्ट करते हुए संस्कृत नाटकों के प्रति एक नयी समझ बनाने का प्रयास किया है I ‘नाट्यम’ पत्रिका द्वारा विभिन्न संस्कृत नाटकों की खोज,अनुवाद और प्रकाशन इसकी उपलब्धि है I
      दसवें दशक के आते-आते कुछ अल्पकालीन नाट्य पत्रिकाएं प्रकाशित हुईं I ‘रंगमंच’(सं.-ज्ञानेश्वर मिश्र ‘ज्ञानी’,१९९१),’नाट्यभारती’(ओमप्रकाश भारती,१९९१) , ’रंगयात्रा’ (सं.-ज्ञानेश्वर मिश्र ‘ज्ञानी’,१९९१)’रंगसृजन’(१९९३), ‘रंगप्रभा’(सं.-शिवमूरत सिंह,१९९४),’रंगअभियान’(सं.-अनिल पतंग,१९९५),’यायावर’(सं.-आर.आशीष/अस्मा सलीम/उमेश मेहता,१९९३),’रंगमाया और फिल्ममाया’(सं.-प्रदीप वेर्नेकर,१९९७),’बहरूप’ (सं.-जे.एन.कौशल/शाहिद अनवर,२०००) आदि I इनमें से अधिकांश पत्रिकाएँ एक दो अंकों के बाद बंद गईं I केवल ‘रंग अभियान ‘,रंगप्रभा’ और ‘फिल्ममाया और रंगमाया’ पत्रिकाओं के अंक देर-सवेर प्रकाशित होते रहते हैं I जो पत्रिकाएं बंद हुईं उनका कारण रंगमंचीय प्रतिबद्धता की कमी नहीं बल्कि आर्थिक अभाव थाI
       इसी दशक में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय,दिल्ली से प्रकाशित ‘रंग-प्रसंग’ (१९९८ ) पत्रिका ‘नटरंग’ के बाद हिन्दी की दूसरी नाट्य पत्रिका बन गई हैI यह पत्रिका वर्षों तक नियमित रूप में प्रयाग शुक्ल के कुशल सम्पादन में प्रकाशित होती रही लेकिन उनके जाने के बाद कुछ समय के लिए इसमें विराम लग गया था; बहरहाल खुशखबरी यह है कि अभी हाल में ही श्री नीलाभ के सम्पादन में इसका नया अंक आ गया है I इस पत्रिका ने रंगमंच के अनेक पक्षों को छुआ है I इसकी सामग्री विश्लेषणपरक दृष्टि के साथ नवीनता का पुट लिए हैI  ‘रंग-प्रसंग’ में रंगमंच के अलावा अन्य प्रदर्शनकारी कलाओं यथा चित्रकला,संगीत,नृत्य,वाद्य एवं फिल्म इत्यादि पर भी सामग्री दी गई है I समय-समय पर प्रकाशित  होने वाले विविध विषयों पर आधारित इसके विशेषांक महत्वपूर्ण रंग सामग्री प्रस्तुत करते हैं I
    इक्कीसवीं सदी की बात की जाये तो इसकी शरुआत में भारतेंदु नाट्य अकादमी (लखनऊ ) से ‘भरत रंग’ (सं.- सुशीलकुमार सिंह,२००१) पत्रिका प्रकाशित होनी आरंभ हुई I अपने प्रवेशांक से ही इस पत्रिका ने हिन्दी रंगमंच के कई महत्वपूर्ण प्रश्नों पर विचार किया लेकिन ये सिलसिला लम्बा न चल सका क्योंकि दो अंकों के बाद यह पत्रिका बंद हो गई I इसी दशक में इप्टा (रायगढ़) की अनियतकालिक पत्रिका ‘रंगकर्म’ (सं.-उषा आठले/युवराज सिंह आज़ाद,२००३) और हौशंगाबाद से बुलेटिन ‘इप्टावार्ता’ (सं.-हिमांशु राय ,२००२) में इप्टा की क्षेत्रीय गतिविधियों का परिचय मिलता है I एक उपयुक्त मंच पाने की छटपटाहट इन पत्रिकाओं में महसूस होती है I
इस तरह अनेक छोटी-बड़ी नाट्य पत्रिकाओं ने आज़ादी के बाद से ही हिन्दी रंगमंच को लेकर एक सुगबुगाहट पैदा कर दी है I इनमें से कुछ पत्रिकाएं अपने प्रदेश के रंगमंच को आधार बनाकर निकली लेकिन वास्तव में इन सभी पत्रिकाओं का मुख्य उद्देश्य क्षेत्रीय रंगमंच को राष्ट्रीय रंगमंच से जोड़ने का रहा है I इन सभी पत्रिकाओं ने किसी न किसी रूप में हिन्दी रंगमच को प्रभावित किया है और अभी भी कर रही हैं I हिन्दी रंगमंच से जुड़े संस्कृत रंगमंच,पारंपरिक रंगमंच,बाल रंगमंच,नुक्कड़ नाटक आदि को आधार बनाकर प्रकाशित हुई ये पत्रिकाएं अपने लिखित रूप में किसी दस्तावेज़ से कम नहीं हैं I सही मायनों में देखा जाये तो यही इनकी उपयोगिता भी है और योगदान भी I
                                   डॉ.प्रतिभा राणा
                                  स्वामी श्रद्धानंद महाविद्यालय
                                   ( दिल्ली विश्वविद्यालय )
सहयोगी ग्रन्थ
१.जगदीश्वर चतुर्वेदी – ‘हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास की भूमिका’ ,अनामिका   पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स ,दिल्ली,१९९७
२.ज्योतिष जोशी (सं.)- ‘सम्यक’ , राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली , १९९४
३.धर्मेन्द्रगुप्त –‘लघु पत्रिकाएं तथा साहित्यिक पत्रकारिता’ ,तक्षशिला प्रकाशन ,दिल्ली,२०००
४.नंदकिशोर नवल- ‘हिन्दी आलोचना का विकास’,राजकमल प्रकाशन ,१९८१
५.नेमिचंद्र जैन – ‘रंगदर्शन’ ,राधाकृष्ण प्रकाशन,दिल्ली,दूसरा संस्करण १९८३
६.प्रतिभा अग्रवाल (सं.)- ‘भारतीय रंगकोश’ ( खंड १-२ ),राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय नई दिल्ली एवं नाट्य शोध संस्थान,कोलकाता  ,२००६
७.डॉ.महेश आनंद –‘रंग दस्तावेज़: सौ साल’ (खंड १-२ ),राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय,नई दिल्ली,2007

 

८.सूर्यप्रसाद दीक्षित – ‘वृहत हिन्दी पत्र-पत्रिका कोश’ ,वाणी प्रकाशन,दिल्ली,१९९६ 

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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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Unknown
5 years ago

sarahniy pryas ji

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