नाटक

सामाजिक सच की अभिव्यक्ति

 

  •   एश्वर्या 

 

(ताजमहल का टेंडर : अजय शुक्ला)

अजय शुक्लाकृत ताजमहल का टेण्डरएक व्यंग्यात्मक नाटक है जो अपनी मूल प्रकृति में हमें उस कड़वे सत्य से परिचय कराता है जो आज प्रत्येक भारतीय के समक्ष अपने यथार्थ भयंकर रूप में खड़ा है । यह नाटक राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में फैले भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करता है । इसी भ्रष्टाचार की पृष्ठभूमि में नाटककार अजय शुक्ला ने एक ऐसी कल्पना की है जिसमें आज की परिस्थिति में यदि शाहजहाँभी बेगम का ख्वाबगाह बनवाने के सपने देखे तो वो सपना सच होना असम्भव हो जाएगा । यह नाटक अपने व्यंग्यात्मक स्वरूप में विडम्बना का संचार करता है । ‘‘यह नाटक जानीपहचानी स्थितियों को कुछ ऐसे रोचक रूप में प्रस्तुत करता है कि हँसते हैं, मुस्कुराते हैं, माथा पीटते हैं कि क्या व्यवस्था की इस सांगठनिक रुग्णता और भ्रष्टाचार के कैंसर का सचमुच कोई प्रतिरोध या इलाज नहीं है ।’’ (भूमिका)

 हमारे इस हँसने, मुस्कुराने व माथा पीटने के पीछे यही विडम्बना है ।
  ‘ताजमहल का टेण्डरनाटक हमारे सामाजिकराजनैतिक जीवन से मूल्यों, मान्यताओं, मर्यादाओं के ह्रास को व्यंग्य के पैने और धारदार हथियार के द्वारा प्रस्तत करता है । यह नाटक विश्व के सात अजूबों में से एक, ताजमहल का स्वप्न देखने वाले बादशाह शाहजहाँ को आज की भ्रष्ट अफसरशाही, स्वार्थसिद्धि में लिप्त रिश्वतखोर नेताओं के बीच ला खड़ा करता है । ‘‘अतीत को वर्तमान या वर्तमान को अतीत में स्थापित करने की यह कल्पना हमें एक ऐसे दुष्चक्र के रूरू जा खड़ा करती है । जिसमें फँसकर, आदमी तो क्या, एक सर्वसत्तासम्पन्न सम्राट का हुक्म और ख्वाब तक रिश्वत और फाइलों के चक्रब्यूह में दम तोड़ देते हैं ।’’ (भूमिका)
नाटक में शाहजहाँ अपनी पत्नी मुमताज महल की याद में ताजमहल बनाने का सपना देखता है और अपने राज्य के चीफ इंजीनियर गुप्त जी को यह आदेश देता है कि सात दिनों के अन्दर काम शुरू हो जाये । लेकिन गुप्ता जी, सुधीर और भैया जी, हर विभाग का अधिकारी, न्यायपालिका, सभी इस करोड़ों रुपए के खेल में अपनी स्वार्थसिद्धि करते हैं । एक कॉरपोरेशन खड़ा किया जाता है । सैकड़ों क्लर्क और इंजीनियर भर्ती किये जाते हैं । गुप्त जी का मकान, फाइव स्टार होटल, फार्म हाउस तो बन जाते हैं, लेकिन ताजमहल बनने की शुरुआत भी नहीं होती । पच्चीस वर्ष बीत जाते हैं, ताजमहल देखने की हसरत लिये शाहजहाँ की मृत्यु हो जाती है, लेकिन इतने वर्षों के बाद भी, दिनरात काम जारी रहने के बावजूद ताजमहल का काम सिर्फ टेण्डर निकलने की दहलीज तक ही पहुँचता है । नाटककार ने आसपास की स्थितियों को रोचक रूप में प्रस्तुत किया है जिसे पढ़करदेखकर हम हँसते हैं लेकिन यह सोचने पर मजबूर होते हैं कि इस प्रशासनिक अव्यवस्था का कोई निदान सम्भव नहीं है ।
  ‘ताजमहल का टेण्डरराजनीतिक, सामाजिक, प्रशासनिक रुग्ण व्यवस्था का यथार्थ प्रस्तुत कर हमें हमारी विडम्बना से परिचित कराता है । ईमानदार आदमी का तो यहाँ जीना ही मुश्किल है – यह संवाद भ्रष्ट व्यवस्था के सम्पूर्ण सत्य का उद्घाटन करता है । भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों का ही भविष्य इन परिस्थितियों में उज्ज्वल है । इसका प्रतिबिम्बहमें इसी व्यवस्था में ही दिखलायी पड़ता है‘‘–––अब आप ही देखिये सर, मैं इतने सालों से आपका पीहूँ, कभी मैंने किसी से कुछ माँगा ? जो कुछ मिला ईमानदारी से वो चुपचाप रख लिया । है ना सर ? और वो, कोई काम, धाम, एक झुग्गी मारने का आधा परसेण्ट, हे भगवान का क्या जमाना आ गया है ।’’  नाटककार इस भ्रष्टाचार रूपी लाइलाज बीमारी का निदान खोजना चाहता है इसलिए वह व्यंग्य के पैने हथियार से हमें सोचने पर मजबूर करता है । हम इस सांगठनिक रुग्णता के आदी हो चुके हैं, भविष्य में इसका निदान होगा या नहीं या हम इसी प्रकार इस व्यवस्था को झेलते रहेंगे ।
  नाटककार ने इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया है परन्तु भविष्य की झलक अवश्य दिखा दी है । जहाँ शाहजहाँ की मृत्यु के बाद सुधीर फाइल के बेकार होने की बात करता है तब गुप्ता जी उसे इस सत्य से अवगत कराते हैं कि ताजमहल जैसे सपने देखने वाले कभी खत्म नहीं होते‘‘वक्त गया बात गयी पर हम नहीं जाएँगे । फिर कोई ताज का ख्वाब देखेगा, तब हम फिर बुलाये जाएँगे, तब ये फाइल फिर काम आएगी ।’’ यह संवाद पाठक/दर्शक को अपनी लाचारी पर चिन्तन करने की क्षमता देता है और अपनी वास्तविकता से अवगत कराता है । यहीं यह नाटक भारतेन्दु के नाटकों (भारतदुर्दशा, अन्धेर नगरी) के समकक्ष खड़ा हो जाता है । भारतेन्दु ने अपने नाटकों के माध्यम से दर्शकपाठक की वैचारिकता को झकझोरते थे और उन्हें सुप्तावस्था से जागृतावस्था में लाने का प्रयत्न करते थे ।
  ‘ताजमहल का टेण्डर’ ईमानदारी से तो कोई जीने नहीं देता की व्यथाकथा है । आज का मनुष्य अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए उचित और अनुचित पर विचार करना ही नहीं चाहता और अपने लक्ष्य की प्राप्ति में कदम बढ़ाए जाता है । यह विचारहीनता ही भ्रष्ट तन्त्र की नींव को और पुख्ता करती जाती है । नाटककार ने नाटक में यह स्पष्ट दिखलाया है कि ऊपर से नीचे तक सभी भ्रष्टतन्त्र की नींव को और पुख्ता, मजबूत करते जाते हैं । नाटक में सरकारी महकमे के ऊपर से नीचे तक सभी अधिकारी भ्रष्ट हैं । गुप्ता जी (चीफ इंजीनियर शहजहाँ के सपने की तामिल पच्चीस वर्षों में टेण्डर नोटिस तैयार कर करते हैं । ताजमहल बनाने की प्रक्रिया में गुप्ता जी के मकान, होटल, फॉर्म हाउस बनते जाते हैं और ताजमहल अपने बनने की दिशा ढूँढ़ता रहता है । यह नाटक खुले तौर पर सरकारी कार्यालयों की बदहाली और भ्रष्टाचार को उजागर करता है । सुधीर (गुप्ता जी का पी–) का आजकल ऐसे ही काम हो पाता है दफ्तरों में’ संवाद व्यवस्था को उसके बदरंग रूप में प्रस्तुत करता है ।
  ‘‘ताजमहल का टेण्डरनाटक उस सामाजिक सत्य को दिखाता है जहाँ बेईमान अपनी बेईमानी में सुखचैन के साथ सोता है, उनका जीवन लगातार समृद्ध होता जाता है जबकि ईमानदार दिनदिन दुखी और लाचार होता जाता है । नाटक में ताजमहल के पब्लिक इशू में हेराफेरी की जाती है । गुप्ता जी अपनी चालाक बुद्धि का परिचय देते हुए अपनी धाँधली का कोई सबूत नहीं छोड़ते और नाटक में ईमानदारी के प्रतीक दारा शिकोह (शाहजहाँ का पुत्र) को उसमें फँसा देते हैं । दारा शिकोह अपनी मासूमियत के कारण बेईमानों के चक्रव्यूह में फँस जाते हैं । ‘‘वो सब दारा शिकोह के दस्तखतों से जारी हुआ है । सारा एलॉटमेन्ट भी उसी के हाथों हुआ है । हम लोगों ने क्या किया है बोलो ?––– सारे आदेश चेयरमैन दारा शिकोह या स्वयं बादशाह सलामत ने जारी करे । भई हम लोग तो सरकारी नौकर हैं, गोरमेण्ट सर्वेन्ट, शाहजहाँ के गुलाम, हमारा काम तो केवल उनके आदेश का पालन करना है तो हम कैसे जिम्मेवार हो सकते हैं । हम किसी चीज के लिए जिम्मेदार नहीं समझे ।’’  अर्थात् आज के इस युग में बेवकूफ बनता है ईमानदार आदमी, जो दूसरों के लिए की सजा भुगतता है । यहाँ तक कि इन भ्रष्टाचारियों को जनता के गुस्से का भी डर नहीं । नाटक में गुप्ता जी भीड़ के गुस्से को भी अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने की नसीहत देते हैं ।
  नाटककार अजय शुक्ला ने भ्रष्टाचार की व्यवस्था में गहरी पैठ दिखाने के साथसाथ भ्रष्टाचार के पीछे छुपे कारणों की भी पड़ताल करने का भी प्रयास किया है कि आखिर ऐसी कौनसी लाचारी है जो इस भ्रष्टव्यवस्था और भ्रष्टाचारियों को बढ़ावा दे रही है । गुप्ता जी और सुधीर के संवाद के माध्यम से इस प्रश्न को नाटक में उठाया गया है, जहाँ गुप्ता जी लालकिले के टेण्डर में धाँधली करने, बेटियों की शादी निपटाने की बात और सुधीर बच्चों के पब्लिक स्कूल में दाखिले की बात करता है । क्या बेटियों के विवाह व पब्लिक स्कूल की फीस का खर्चा व्यवस्था को ज्योंकात्यों मानने के लिए विवश करती है, क्या यही हमारी लाचारी है जो इस अराजकता को बदलने के लिए प्रेरित नहीं करती, या क्या ये हमारा लालच है जो गलत तरीकों से कमाये गये पैसों की बहती गंगा में हाथ धोने को तैयार है । यह नाटक इन प्रश्नों का उत्तर नहीं देता बल्कि पाठक/प्रेक्षक की चेतना को उत्तर देने के लिए झकझोरता है ।
  ‘ताजमहल का टेण्डर’, राजनीतिक, अफसरशाही की वर्तमान स्थिति पर व्यंग्य करता है । राजनेता, सरकारी अफसर जनता की भावनाओं से सरकारी योजनाओं के माध्मय से खिलवाड़ करते हैं । गुप्ता जी, सुधीर, भैया जी (ठेकेदार) अपने स्वार्थ के लिए शाहजहाँकी भावनाओं के साथ खेलते हैं । आज की प्रशासनिक अराजक व्यवस्था में कोई भी योजना अगर समय पर पूरी हो जाये तो यह सरकारी अधिकारियों की गरिमा का हनन हैं यह नाटक इस सत्य से अवगत कराता है कि सालभर के समय में कोई भी योजना फाइल तक ही पहुँच पाती है । शाहजहाँ की सात दिनों में काम शुरू करने की आज्ञा का कोई मूल्य नहीं रह जाता । ‘‘आजकल चपरासी से चाय लाने को कहो तो सात दिनों में चाय भी नहीं आती । सालभर में तो फाईल पुटअप होती है और बादशाह सलामत चाहते हैं कि सात दिनों में काम शुरू हो जाये ।’’  जब मुगल बादशाह की आज्ञा को महत्त्व नहीं दिया जाता तो आम आदमी की बिसात ही क्या है । अफसरशाही को जनता के प्रति अपने दायित्वों की जरा भी चिन्ता नहीं है, वे सिर्फ अपनी स्वार्थपूर्ति में लगे रहते हैं । सम्पूर्ण सरकार तन्त्र के अधिकारों और विभाग, वे चाहे निर्माणविभाग के हों या विजिलेन्स के या पॉल्यूशन कन्ट्रोल बोर्ड के, सभी अपनेअपने हिस्सों के लिए मारामारी करते हैं लेकिन भ्रष्टाचार निरोधक सप्ताह मनाने के लिए रोज पाँच केस पकड़ने का लक्ष्य दिया जाता है और सारे बेईमानों को छोड़कर चाय पीने की माँग करने वाले चपरासी और ऑफिसर का पेन जेब में रखने वाले क्लर्क को पकड़कर भ्रष्टाचार कम करने की कवायद की जाती है । ‘‘–––ऐसे ही करप्शन कम होगा बताइये, चपरासी लोग ब्लैकमेल करके चाय पियें और क्लर्क सख्त सामान को ही उठा ले जाये । ऐसे तो सरकार ही बिक जाएगी ।’’ जबकि स्वयं विजिलेन्स वाले सेठी अपना हिस्सा लेने के लिए फूँकफूँककर बात करते हैं । ‘‘ये विजिलेंस वाले फूंक-फूंक कर बात करते हैं । बड़े ईमानदार होते होंगे, ये परसेन्टेज या कमीशन भी नहीं लेते । बस दीवार बनाने का काम करते हैं और दीवार का मतलब समझते हो लल्लू ? यानी वो चीज जो अन्दर की चीजको ढँक दे समझे अब जाओ दीवार पूरी करने का इन्तजाम करवाओ ।’’
  बादशाह द्वारा मंजूरी मिलने के बाद भी ताजमहल का ख्वाब शाहजहाँ के लिए बस ख्वाब बनकर ही रह जाता है लेकिन यह काल्पनिक स्थिति हमें हमारी वास्तविकता से परिचय कराती है ।
  नाटक में नेता एक और नेता दो की भूमिका भ्रष्ट राजनीतिज्ञों के समान ही है जो तथाकथित जनसेवकहोते हुए गरीब जनता का शोषण करते हैं । इन नेताओं की सम्पूर्ण चिन्ता जनता को केन्द्र में रख अपनी स्वार्थपूर्ति है । नेता वर्ग रिश्वत लेने और देने, दोनों में विश्वास करता है ‘‘आप चाहेंगे तो सब हो जाएगा और भरोसा रखें मैं भी आपकी पूरी तरह सेवा करूँगा जितना भैया जी ने दिया उससे दो पैसे ऊपर ही  दूँगा, कम नहीं आखिर जनता का सेवक हूँ ।’’  जनता का सेवक  ही जनता की व्यथा बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ता ।
  भ्रष्ट अफसरशाही, राजनीतिक व्यवस्था के अतिरिक्त नाटककार ने उपभोक्तावादी संस्कृति (ताजमहल को टूरिस्ट स्पॉटबना उसे फौरेन कॉलेबोरेशन में दिखाना), शिक्षा का व्यवसायीकरण (स्कूलों का टॉप के धन्धा होने की बात), प्रदूषण, आर्थिक मन्दी आदि सभी समकालीन स्थितियों को नाटक में स्थान दिया है ।
  ‘ताजमहल का टेण्डरनाटक की सफलता का सर्वप्रमुख कारण लेखकीय युक्ति है जो मुगल बादशाह शाहजहाँ को आज की भ्रष्ट व्यवस्था में ला खड़ा करता है । यह स्थिति असम्भव अवश्य लगती है लेकिन नाटककार ने इस स्थिति का अर्थपूर्ण उपयोग किया है जिससे दर्शक/पाठक इसे सहज स्वीकार कर लेता है । शाहजहाँ जिसने अपने शासनकाल में एकछत्र राज किया, जिसने भारत को कई ऐतिहासिक धरोेहर दिये, वही शाहजहाँ नाटककार की युक्ति से आज की अफसरशाही के चक्रव्यूह में उलझकर रह जाता हैं । ताजमहल का टेण्डरनाटक का शिल्पगत कौशल अतीत एवं कल्पना के समन्वित रूप में दृष्टिगत होता है । नाटककार ने मंचीय विधान (मंचसच्चा, दृश्यविधान, वेशभूषा, प्रकाशव्यवस्था आदि) को अत्यधिक सरल रखा है जिससे प्रदर्शन में विशेष कठिनाई नहीं होती । नाटक का मूल उद्देश्य वर्तमान व्यवस्था में फैले भ्रष्टाचार और अनैतिक आचरण का पर्दाफाश करना है और नाटक के संवाद इस उद्देश्य को पूर्ण करने में सफल रहे हों । ये संवाद हँसाते तो अवश्य हैं किन्तु पाठकदर्शक को सोचने पर मजबूर करते हैं कि भ्रष्टाचार के इस रोग का क्या कोई उपचार नहीं है ।
  अफसरशाही के इस भ्रष्टतन्त्र में कोई भी विभाग अछूता नहीं है । ऊपर से नीचे तक हर कोई भ्रष्ट आचरण में लिप्त है । ‘‘आप ही देख लीजिये क्या हाल है ? कभी यहाँ जाओ चढ़ावा देने ? कभी उधर जाओ । बीच में तो एक बाबू ने कहा कि फाइल ही खो गयी है । पूरा केस फिर से शुरू करना पड़ेगा । ढाई महीने बिल क्लर्क दबाये बैठा रहा । क्या बताऊँ गुप्ता जी, चपरासियों तक ने नहीं छोड़ा । सभी को पता था करोड़ों का मामला है ।’’  जो स्वयं भ्रम है, वो भी भ्रष्टाचार की दुहाई देते हैं । ईमानदार आदमी का तो आजकल जीना ही मुश्किल हैसंवाद बारबार पात्रों द्वारा बोला जाता है जो दर्शकपाठक के साथसाथ व्यवस्था की विसंगति को दर्शाता है । नाटक की भाषा भी समकालीन भ्रष्टतन्त्र को बेनकाब करने का सामर्थ्य रखती है । नाटककार ने इसका ध्यान रखा है कि बोलनेवाला पात्र यदि ऐतिहासिक है तो उसकी भाषा युगानुरूप हो और यदि बोलने वाला पात्र पढ़ालिखा उच्च वर्ग का है तो उसकी भाषा हिन्दीअँग्रेजी मिश्रित शब्दोंवाक्यों वाली हो । नाटक शाहजहाँ और गुप्ता जी द्वारा प्रयुक्त भाषा में इस अन्तर को देखा जा सकता है । गुप्ता जी जब शाहजहाँ से बात करते हैं तो उनका लहजा चापलूसीसा होता है ‘‘मैं तो आपका ही दिया खाता हूँ हुजूर, सब सरकार का ही दिया हुआ है ।’’  वहीं गुप्ता जी जब नेता से वार्तालाप करते हैं तो शिष्टता का दामन छोड़कर सामने वाले की हैसियत देखकर । वैसी ही भाषा का इस्तेमाल करते हैं ‘‘भरे चलचल टटपुँजिए तू लेटो आन्दोलन करेगा तो पुलिस भी पीटो आन्दोलन शुरू कर देनी । तुझ पर ।’’ इस प्रकार नाटक की भाषा चमकदार नहीं बल्कि यथार्थपूर्ण है ।
  वस्तुत: ताजमहल का टेण्डरनाटक स्वार्थ में आकण्ठ दूबे रिश्वतखोर असुरों, नौकरशाहों की सच्चाई को प्रेक्षक के सामने लाता है । सर्वसत्तासम्पन्न सम्राट भी इनके चंगुल में बेबस हो जाता है तो एक आम आदमी की रिश्वत और फाइलों के चक्रव्यूह में फँसकर क्या हालत होगी इसकी कल्पना की जा सकती है । यह नाटक इस कल्पना को ऐसे दुष्चक्र के सामने खड़ा करता है जिसमें फँसकर बादशाह का भी रिश्वत और फाइलों के चक्कर में दम तोड़ देता है ।
ऐश्वर्या : जन्म – 23 जनवरी 1979, दरभंगा, बिहार । एमहिन्दी, एमफिल, पीएचडी। विभिन्न पत्रिकाओं में लेखन । हिन्दी विभाग, स्वामी श्रद्धानन्द कॉलेज में प्रा/यापन । सम्पर्क : +919312062390
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samved

साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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