नाटक
आला अफसर आला रे आला
- कमलेश कुमारी
(आला अफसर – मुद्राराक्षस)
‘आला अफसर’ मुद्राराक्षस की उद्दाम रंग–प्रक्रिया की सफल रचनात्मक उपलब्धि
है । नौंटकी के छन्दों की लयात्मकता में बँधी यह रचना राजनीति के दोहरे और जटिल रूप को उघाड़कर तार–तार कर देती है । आला अफसरों की पोल खोलता यह नाटक उन फटेहाल मजलूम लोगों के प्रति भी संवेदना प्रकट करता है जिन्हें इन ओहदेदारों ने हाशिये पर रख छोड़ा है । चितपुर कस्बे की राजनीति, प्रशासन, शिक्षा, न्याय–व्यवस्था आदि के पतन की पराकाष्ठा होते–होते अचानक दिल्ली से जाँच–पड़ताल करने के लिए आने वाले आला अफसर की खबर आती है । यह खबर चितपुर के रखवालों (बेईमान अफसरों) की नींद उड़ा देती है । आपस में ही आरोप–प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हो जाता है । नौटंकी का एक पात्र रंगा ‘दोहा’ छन्द में कहता हैµ
‘‘एक दूसरे पर वहाँ शुरू हुए आरोप,
हर अफसर की पीठ पर आ पहुँची थी तोप ।’’
सभी अफसरों के दामन दागदार थे । ‘जैसा राजा वैसी प्रजा’ की उक्ति बिल्कुल सार्थक हो रही थी । सबसे ऊँचे पद पर बैठे चेयरमैन को बेईमानी, रिश्वतखोरी, सरकारी सम्पत्ति को अपना समझने, नीची कहकर दुत्कारी जाने वाली जाति की औरतों की इज्जत पर हाथ डालने में कोई परहेज नहीं था । शिक्षा संस्थान के कर्त्ता–धर्ता हेडमास्टर जी भी स्कूल के सात में से पाँच कमरों में बच्चों को बिठाने की बजाय अपनी गाय भैसों का भूसा भरकर रखते हैं । इसी तरह हाकिम भी भाई भतीजावाद का पोषण करते हुए अपने ही साले को बार–बार ठेके दिलवाता है । खुद भी मौज करता है और अपने भाई–बन्धुओं की भी ऐश करवाता है । दफ्तर के कमरों में ही अपना मुर्गीखाना बना कर साइड बिजनेस भी खड़ा कर लेता है । कस्बे का सुरक्षाकर्मी इंस्पेक्टर लोगों की रक्षा करने की बजाय उन पर अत्याचार करता है और अपनी आन–बान–शान अपनी वर्दी को भी जुए जैसे कुकर्म की बलि चढ़ा देता है । सभी पोल खुलते देख चेयरमैन कहता है–
‘‘समझा मैंने खूब हैं सबके सब उस्ताद ।
भाँग कुएँ में, कहाँ तक और खुजाएँ दाद॥
एक दूसरे का भांडा फोड़ने की बजाय मिलकर इस मुसीबत से छुटकारा पाने की राय बनाते हैं । कहरवा छन्द में कोरस गाता है,
‘‘ढूँढ़ो ढूँढ़ो रे अफसर आला ।/ आज तक लूटते थे जो हमको/शेर बनकर डराते थे हमको/हो गया उनका भी मुँह काला ।/ढूँढ़ो ढूँढ़ो रे अफसर आला॥’’
चेयरमैन के आलसी और मक्कार दो चमचे चोखे और अनोखे आकर खबर देते हैं कि दिल्ली से आया आला अफसर पिछले दो हफ्ते से पोपटलाल के होटल में ठहरा हुआ है । अपनी पोल खुलने के डर से सारे घबरा जाते हैं । चेयरमैन कहता है ‘‘बाप रे, उसी दिन तो मैंने उस धोबन की पिटाई की थी । जरूर यह खबर आला अफसर तक पहुँच गयी होगी । शहर की सड़कों पर महीनों से झाड़ू नहीं लगी है । हर चीज“ का कबाड़ा हुआ पड़ा है ।’’ सभी भागिये और अपने–अपने महकमों को सँभालिये । चेयरमैन खुद भी आला अफसर से मिलने जाने के लिए नौकर को गाड़ी निकलवाने के लिए कहता है तो नौकर बोलता हैµ‘‘मगर साहब, गाड़ी पर तो मेेमसाहब पिक्चर देखने गयी हैं ।
चेयरमैन : पिक्चर देखने ? अबे वो तो सरकारी गाड़ी हैै ।
नौकर : मगर साहब, वो तो मेमसाहब रोज ले जाती हैं ।
चेयरमैन : मारे गये ।
सरकारी सम्पत्ति का दुरुपयोग करने में चेयरमैन तो क्या उसका परिवार भी पीछे नहीं है । इसी तरह बाकी सारे बेईमान अफसर भी किसी–न–किसी तरह अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हुए थे । इसी सन्दर्भ में चोखे और अनोखे छोटी मछली और बड़ी मछली के उदाहरण देते हैं तो कोरस ठुमरी में गाकर बताता है कि कैसे बड़ी मछली छोटी को और बड़ी को उससे भी बड़ी मछली खाने के लिए तैयार रहती है । ‘सब चोर चोर मौसेरे भाई’ बने हुए हैं । इधर जिस व्यक्ति को आला अफसर समझा जा रहा था वह मात्र एक क्लर्क था । लेकिन ठाठ से रहने की उसकी आदत और अन्दाज ने चोखे–अनोखे को भ्रम में डाल दिया था । हर रोज उम्दा होटलों से लजीज खाने की माँग करने पर उसका खादिम कहता है–‘‘पेशे से क्लर्क, नखरे राजकुमारों के––– ।’’ क्लर्क देवदत्त जिस होटल में मजे कर रहा था उसके मालिक ने बिल न चुकाने पर जेल में बन्द करवाने की धमकी दी ही थी कि आला अफसर का धोखा होने पर उसकी तो निकल पड़ती है । चेयरमैन उस फोकट का सारा बिल तो चुकाता ही है, उसे अपने घर भी ले जाता है, खूब मेहमाननवाजी करता है । सभी को उसके स्वागत की हिदायत दी जाती है और पूरे इलाके से कूड़ा–कचरा साफ करने का आदेश जारी हो जाता है जिसमें गरीबों के घरों तक का सफाया हो जाता है । रंगा गाता है–
‘‘कच्ची बस्ती लोड़ सफाई सब सड़कों की की है ।
लीपा पोती खूब हिदायत सबको यही मिली है॥’’
कोरस भी जंग लड़ने की तर्ज में गाता है–
साफ करो साफ करो ।/झुग्गियाँ साफ करो॥/देखो वो उस तरफ’/मैली सी बुढ़िया और/दुबले से बच्चे लिये/अन्धा एक बैठा है /उसको कहीं कस्बे से/बाहर खदेड़कर/साफ करो साफ करो/झुग्गियाँ साफ’ करा॥
चितपुर कस्बे में जहाँ महीनों से झाड़ू नहीं लगी थी आज आला अफसर के आने पर पूरे इलाके को चमकाया जा रहा था । यह स्थिति केवल इस नाटक की नहीं है बल्कि ये हमेशा से ही होता आया है और होता रहेगा कि जैसे ही किसी नेता के आने की सूचना मिलती है तो इलाके में हड़कम्प मच जाता है । रातोंरात टूटी–फूटी सड़कें ठीक कर दी जाती हैं, सड़कों पर चूने की पट्टियाँ खींच दी जाती हैं और कूड़ा–कचरा साफ कर इलाके को चमका दिया जाता है । यहाँ तक कि टैफिक को भी दायें–बायें मोड़कर जनता को परेशान किया जाता है । क्यों भई नेता भी तो एक इन्सान है फिर वह उन सड़क–चैराहों से क्यों नहीं निकल सकता जहाँ से एक आम आदमी हर रोज निकलता है । कब तक ऊपरी लीपा–पोती से वास्तविकता पर परदा डाला जाएगा ?
नकली अफसर के आने पर कस्बे के हाकिमों की बेईमानी के साथ–साथ उनकी चारित्रिक दुर्बलतायें भी सामने आ जाती हैं । चेयरमैन धोबन की इज्जत पर हाथ डालता है तो उसकी पत्नी और बेटी नकली अफसर को देखे बिना ही उस पर लट्टू हुई जाती हैं । उसकी हर पसन्द–नापसन्द का /यान रखती हैं, वह क्या खाता है, क्या पहनता है ? कौन–सा रंग पसन्द करता है वगैरा–वगैरा । उसके चक्कर में आपस में ही लड़ने लगती हैं । देवदत्त भी चालू किस्म का है । माँ–बेटी दोनों को अपने झूठे प्रेमजाल में फँसा रहा था । उसके बड़े ओहदे, हाजिरजवाबी के अन्दाज और दिल्ली जैसे महानगर का निवासी होने के कारण दोनों उसकी ओर खिंची चली जाती हैं ।
नौटंकी प्रस्तुति का एक बहुत बड़ा गुण है– उसकी नाटकीयता । नौटंकी की प्रस्तुति में अभिनय की अतिरंजना सम्प्रेषण में कहीं खलल नहीं डालती बल्कि अभिनेताओं का आत्मविश्वास और संयम प्रस्तुति को और सुन्दर व भड़कीला बनाता है । दर्शकों को अपने साथ–साथ लेकर चलना ही अभिनेता की सफलता का राज“ है । ‘‘नौटंकी की प्रस्तुति दर्शक को अनौपचारिक बनाती है । उसका सम्प्रेषण इतना तेज“ और सशक्त होता है कि दर्शक का विवेक रौंद जाता है । ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ जहाँ दर्शक को चुभकर रूलाता है वहाँ ‘लैला–मजनूँ’ या ‘अनारकली’ उसकी छाती पर घूँसा मारकर रुलाती हैं ।’’ (रंग भूमिकाएँ–मुद्राराक्षस, पृ– 49) ‘आला अफसर’ में भी ऐसा घूँसा मारने का काम रंगा और कोरस बार–बार करते हैं । चेयरमैन जब देवदत्त को अपने कस्बे के हर विभाग में ले जाता है (जिसमें इस समय ऊपरी लीपापोती कर दी गयी है) तो झूठी जाँच–पड़ताल करते हुए वह कहता है–बहुत खूब! बहुत खूब! हर चीज“ उम्दा, कस्बे का हर विभाग बेहतरीन! और हर जगह दिखाने का आपका तरीका लाजवाब है । फिर मेहमान नवाजी’! मुझे तो यह सब याद रहेगा ।’’ चेयरमैन अपनी झूठी तारीफें सुनकर कहता है–‘‘अब जनाब आपने देख लिया होगा । दूसरे चेयरमैनों की तरह मैं कतई नहीं हूँ । वो लोग तो सिर्फ अपना स्वार्थ साधते रहते हैं । हमारी आदत है, अपने कर्त्तव्य को करना और हर कीमत पर जनता की सेवा करना । अपने कर्तव्य जनता की सेवा को ही भगवान की पूजा मानता हूँ । कुछ नेता लोग तो बस अपने राज में यकीन मानिये तेन्दू की पत्तियाँ तक बेच खाते हैं । मगर मैंने, ईश्वर साक्षी है, जनता का काम ईमानदारी और नेकनीयती से किया है । चेयरमैन की इस झूठी नेकदिली पर कोरस गाता है! ‘‘झूठा! चापलूस! बेईमान! मक्कार! परले दर्जे का काइयाँ और चालाक! लोमड़ी की तरह धूर्त!
झूठ रहा है बोल ये, चेयरमैन सरकार ।
बदमाशों की मण्डली का ये है सरदार॥’’
दर्शक चेयरमैन की फरेबी बातों में खो न जायें इसलिए कोरस उन्हें घूँसा मारकर जगा देता है ।
नाटक एक ऐसी विधा है जो वर्तमान से जुड़ती है । समसामयिकता का गुण उसमें रहता ही है । नौटंकी का कथानक किसी भी काल का हो लेकिन ‘‘प्रस्तुति में वह समसामयिक देशकाल के बोध को प्रतिबिम्बित करता है । इसके लिए सिर्फ पात्रों द्वारा टिप्पणियाँ ही नहीं होतीं, बल्कि मूल चरित्रों के स्वभाव और आचरण में समसामयिकता की एक तस्वीर ज“रूर होती है ।’’ ‘आला अफसर’ भी आज के बल्कि किसी भी देशकाल के उन दोमुँहे नेताओं और उनकी दोगली राजनीति को प्रतिबिम्बित करता है जिनकी कथनी और करनी में जमीन आसमान का अन्तर होता है । जो चेयरमैन जनता की सेवा को भगवान की पूजा मानता है वही उन्हें अपने ऊपर मुसीबत आने पर कूड़े–कचरे की तरह कस्बे से बाहर भी फेंकवा देता है । उन पर अत्याचार करता है । उसकी बदनीयती और दोगलेपन का एक और उदाहरण देखिये जब देवदत्त होटल के कमरे में बिजली की कमी और खटमलों की शिकायत करता है तो चेयरमैन उसे अपने घर ले आता है और कहता है–‘‘जनाब, मैं अर्ज करूँ–यहाँ आपको हर कमरे में रोशनी मिलेगी । वैसे तो जनाब, देखिये, बिजली की बहुत कमी है । और जनाब, हालत तो ये हो गयी कि झुग्गी–झोंपड़ियों वाले भी माँग करते हैं कि उन्हें बिजली चाहिए । यहाँ तक कि गाँवों में भी बिजली की माँग होती है । अब आप सोचिये, गाँववालों का दिमाग खराब हुआ है या नहीं । कहाँ सरसों के तेल के सुन्दर–सुन्दर दीये जलते थे गाँवों में–अब कमबख्त’ बिजली चाहिए । इसीलिए कभी–कभी बत्ती चली जाती है ।’’ वोट माँगते समय कितने बड़े–बड़े वायदे किये जाते हैं लेकिन कुर्सी का नशा जब चढ़ता है, सब भूल जाता है । बड़ी–बड़ी योजनायें पूरी करना तो दूर बेसिक सुविधायें देना भी जरूरी नहीं समझा जाता । अपने खेत–खलिहान छोड़ गाँव से पलायन करने की बढ़ती प्रवृति के पीछे निस्सन्देह गाँव का पिछड़ापन ही कारण हो सकता है । उदारवादी अर्थव्यवस्था ने अमीर को और अमीर तथा गरीब को और गरीब ही बनाया है । किसी भी देश के विकास का मानदण्ड कुछ बड़े–बड़े शहर, महानगर नहीं होते बल्कि छोटे शहरों, कस्बों और गाँवों की भी उतनी ही भागीदारी होती है । चेयरमैन की पत्नी और बेटी भी देवदत्त से दिल्ली की भागती–दौड़ती जिन्दगी की तारीफें सुनकर ललचाती हैं । श्रीमती जी तो यह तक कह देती हैं कि मोक्ष भी उसे ही मिलता है जो दिल्ली में मरता है । श्रीमती जी कहती हैं–
दिल्ली दो दिखलाय मुझे भी मन मेरा ललचाया है ।/सुनती हूँ मैं रोज“ वहाँ गोरी चमड़ी की माया है॥/अँगरेजी’ हर ओर साहबी ठाठ मुझे भी भाया है ।/महामोक्ष के पाए जिसे दिल्ली में मरना आया है॥
देवदत्त कहता है जरूर–जरूर मैं तुम्हें दिखाऊँगा दिल्ली । तभी चंचल (चेयरमैन की बेटी) टपक पड़ती है–
‘‘मम्मी से ज्यादा मुझे है दिल्ली का चाव ।/ यहाँ ठेलकर भी चले नहीं रेत में नाव॥
(बहरतवील)
कोई पिक्चर नयी देख पाती न मैं/जाहिलों की यहाँ पे है भरमार सी ।/
बोर होती हूँ मैं देख लें आप भी,/ तेल हैं बेचते जो पढ़े फारसी॥’’
चंचल की बातों से ही उस कस्बे की स्थिति का अंदाजा लग जाता है । शिक्षा और मनोरंजन का कोई महत्त्व नहीं । रोजगार की सुविधायें न बराबर । बस नेताओं के आने पर बड़े–बड़े अधिकारी । अफसर अपने इलाके को चुस्त–दुरस्त बना देते हैं । यहाँ एक बात यह भी उल्लेखनीय है कि दिल्ली जैसे महानगरों की चमक दमक का अर्थ ये कतई नहीं है कि वहाँ पर स्थितियाँ बहुत अच्छी है । कमोबेश ऐसी ही दशा पूरे देश की है बस रूप और मात्रा बदल जाती है । सच पर परदा डालकर झूठी तारीफें सुनने–सुनाने के लिए हर जगह मजबूर किया जाता है । चेयरमैन अपने चैकीदार को हिदायत देता है कि कोई भी दबा–कुचला व्यक्ति आला अफसर तक पहुँचने न पायें–
‘और रखना जरा /यान धोबन कहीं/रोना हरिजन का ले आ न धमके यहाँ/
नंगा भूखा न कोई दिखायी पड़े/आला साहब से खोले न अपनी जबाँ॥’’
धोबन की इज्जत पर हाथ डालना, सफल न होने पर उसे चोरी के इल्जाम में फँसाना आदि अपने कुकर्मों से चेयरमैन घबराया हुआ है कि कहीं उसकी पोल न खुल जाये इसलिए सब के मुँह बन्द कर देना चाहता है । नाटककार ने उन तथाकथित राजाओं के जुल्मों को दिखाया है तो जनता में भी जोश के बीच बोए हैं । कोरस गाता है कि हमारे और राजा के महल के बीच एक ऊँची–सी खौफ की दीवार है । सख्त पहरा है । हम हजारों सालों से वहीं–के–वहीं खड़े हैं लेकिन आज हमें अपने हक के लिए इनका सामना करना ही होगा, भेदभाव की दीवार को तोड़ना ही होगा ।
बाँध लो बाँध लो भूख की मुट्टियाँ/फैसला जुल्म का आओ कर ले यहाँ ।/जोश अपना इधर जुल्म उनका उधर/बीच में उनकी बन्दूक तैयार है॥/हम इधर हैं उधर राजी जी का महल/बीच में एक ऊँची–सी दीवार है ।
जुल्म सहते–सहते एक समय ऐसा भी आता है जब व्यक्ति अन्त की फिक्र किये बिना जुल्म को खत्म करने के लिए विद्रोह कर बैठता है ।
चेयरमैन की देखादेखी बाकी अफसर भी वहाँ पहुँच जाते हैं और सोचते हैं कि किसी तरह आला अफसर की कृपा उन पर भी हो जाये । हाकिम, इंस्पेक्टर, हेडमास्टर, पोस्टमास्टर सभी हाजिरी बजाने आ जाते हैं । सभी उसे रिश्वत देकर अपनी रपट सही लिखवाना चाहते हैं । अब मुसीबत ये होती है कि खुलेआम रिश्वत दे कैसे ? हाकिम को एक तरकीब सूझती है–
‘‘हम उसको बोले गाँवों में ही बाढ़ हमेशा आती है ।/सब बाढ़ पीड़ितों का चन्दा ले करके दुनिया खाती है ।/चन्दे की थैली भेंट करें तरकीब मुझे यह भाती है ।’’
लोगों का अपना ही पैसा मुसीबत के समय उन्हें नहीं मिल पाता । बीच के ही कुछ लोग अपनी जेबें भर लेते हैं । अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हैं । हेडमास्टर (बहरतवील)–
‘‘च–च–चन्दे की तरकीग सोची भली/जा के जनता से हम सब वसूली करें ।/ज–ज–जादा से जादा इकट्ठा हो धन/थ–थ–थोड़ी सी अपनी भी जेबें भरें॥’’
कानून का रखवाला इंस्पेक्टर भी कहता है–
‘‘आला अफसर से कहें, भैली ले लें आप ।
रपट भली–सी सभी की, लिख दें माई–बाप॥’’
इन सभी को लगता है कि चेयरमैन उसे पटाकर अपनी अच्छी रपट लिखवा लेगा जिससे उसके भ्रष्टाचारी होने की जाँच ही नहीं होगी और हमारे खिलाफ उसके कान भर दिये होंगे । इसीलिए सभी आला अफसर के सामने अपने–अपने विभागों–दफ्तरों के बढ़िया होने की झूठी प्रशंसा करते नहीं थकते । फरेबी आला अफसर भी उनके इस डर को भाँपकर उनसे खूब पैस ऐंठता है ।
‘‘बड़े माल की लूट है, लूट सके तो लूट ।
सत्ता जैसे ही गयी, माल जाएँगे छूट॥’’
अपनी चालाकी और लोगों की मूर्खता पर देवदत्त को खुश होता देख उसका खादिम कहता है–‘‘मजा तो बड़ा आया जनाब, मगर बुजुर्र्गों ने कहा है अन्धेर नगरी चैपट राजा से कोसों रहना चाहिए दूर!
देवदत्त : अबे, अभी और मजा आएगा ।
खादिम : मगर तब की सोचिये जब खुदा न करे हमारा भेद खुल जाएगा ।’’
देवदत्त को समझ आ जाता है कि खादिम ठीक कह रहा है । अब यहाँ से खिसकने में ही भलाई है । यहाँ के लोगों को उल्लू बनाने के अपने कारनामे को खत में लिखकर अपने दोस्त को भेजता है । तभी कुछ मजलूम न्याय की गुहार लगाने देवदत्त के पास आते हैं ।
देवदत्त: ‘‘तुम लोग निर्भय होकर बोलो । तुम्हें न्याय मिलेगा ।
फरियादी एक : (दोहा)
धन्यवाद है आपको, जो सुनते फरियाद ।
ऐसा शुभ अवसर मिला, बहुत दिनों के बाद ॥
कोरस: तोरी गठरी में लागा चोर, मुसाफिर जाग जरा–
फरियादी एक : (बहरतवील)
मुफ्तखोरी में उस्ताद है ये बहुत । जुल्म करता चेयरमैन हम पर बड़े ।
हमसे हर चीज“ की घूस है माँगता । हम इसी के लिए आज आके खड़े॥
दूसरा : (बहरतवील)
इसको उस दिन मेरी भैंस जो भाग गयी । उसको कोठी पे अपनी है बँधवा लिया ।
बीन भी मुझसे कहता है आके बजा । और बदले में खोटा न सिक्का दिया॥
तीसरा : (बहरतवील)
हर किसी को रहा लूटता ये वशर
मेरी मुर्गी को उठवा लिया अपने घर ।
चैथा : (बहरतवील छन्द)
मेरी छोटी–सी थी इक वहाँ झोंपड़ी
उसमें दूकान जबरन है ली इसने कर’’
देवदत्त कहता है मैं तुम सब की परेशानी समझ गया हूँ और आज शाम को ही दिल्ली के लाट साहब के पास जाऊँगा । थोड़ा खर्चा होगा उसका इन्तजाम कर दो वापस आकर कर्जा चुका दूँगा ।
कोरस : तोरी गठरी में लागा चोर, मुसाफिर जाग जरा–
तभी धोबन भी न्याय की गुहार लगाने आती है और कहती है–
काम हाकिम की कोठी पे करती हूँ मैं । एक दिन कपड़े धोने को मैं भी गयी ।
हाथ इज्जत पे डाला चेयरमैन ने । बात है कुछ न इसके लिए ये नयी॥
(दोहा)
असफल जब ये हो गया, लिया कलाई थाम ।
कोड़े लगवाए लगा चोरी का इल्जाम॥
मुझे इससे बचवाओ/उसे तुम दण्ड दिलाओ/जुल्म को दूर कराओ/
बदल गयी सरकार न्याय अब तो दिलवाओ॥
सरकार बदले या नेता बदले लेकिन स्वार्थी प्रवृत्ति कभी नहीं बदलेगी । देवदत्त चित्तपुर के लोगों पर हो रहे अत्याचारों की दास्तान सुनकर उनके साथ न्याय करने का वायदा तो करता है लेकिन फीस की माँग भी करता है । धीरे–धीरे देवदत्त अच्छाई का ढोंग बन्द कर लोगों को गेट आउट कहकर घर से भगाना शुरू कर देता है । चित्तपुर से भागने की कोशिश करता है तो चेयरमैन कहता है सीधा शादी के बाद ही जाना तो उनकी श्रीमती जी कहती हैं–‘‘जमाई बाबू जाएँगे तभी तो बारात लाएँगे ।’’ चेयरमैन खुश होकर उनका सामान पैक करवाता है और स्टेशन पर पहुँचाने की कहता है तो शराफत का ढोंग रचाते हुए देवदत्त कहता है–‘‘आपसे कुछ लूँगा तो वह दहेज“ भी समझा जा सकता है । दहेज“ का मैं सख्त विरोधी हूँ । चाहे तो पाँच सौ एक रुपये से तिलक कर दें । जाऊँगा मैं टैक्सी से ।’’ जाते–जाते भी उन्हें लूट लेता है । सभी चेयरमैन को बधाई देकर कहते हैं कि आला अफसर के दामाद बनने पर हमें भूल मत जाइएगा । तभी पोस्टमास्टर देवदत्त द्वारा लिखी एक चिट्टी देता है जिसमें उसने अपने मित्र को चित्तपुर के आला अधिकारियों की मूर्खता और चालबाजियों का कच्चा चिट्टा लिखा था और किस तरह से उसने यहाँ के लोगों को बेवकूफ बनाया, यह भी बयान किया था । चिट्टी पढ़कर सभी उसे गालियाँ देते हैं । तभी एक सरकारी आदमी इन हुक्मरानों के लिए एक खबर लाता है कि कल सुबह चित्तपुर कस्बे की जाँच–पड़ताल करने एक आला अफसर आ रहा है ।
मुद्राराक्षस की नाट्यकृति ‘‘आला अफसर’ राजनीति में उनकी गहरी और अन्तरंग पहचान का परिणाम है । लेखक ने राजनीति को केवल नारेबाजी के रूप में अपनी रचना पर थोपा नहीं है बल्कि उसकी तहों तक जाकर आम आदमी से उसके रिश्ते और प्रभाव को रेखांकित किया है । देश के तथाकथित रखवालों के अन्याय, अत्याचार, कर्तव्यविमुखता के प्रति हाशिये पर पड़े लोगों के रोष को उजागर किया है । लोगों को इन फरेबी नेताओं के ढोंग का ज्ञान है लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर व अशिक्षित होने के कारण उनका सामना नहीं कर पाते और उनकी चालबाजियों का शिकार होते रहते हैं । अपने अधिकारों को उनका उपकार मानकर सत्ताधारियों की सामन्ती मानसिकता का पोषण करते हैं । ‘‘सरकार बदलने के बाद भी शासकों का न बदलना, नौकरशाही और राजनीतिज्ञों का रिश्ता एक यथार्थ बन जाना और मजलूमों का न्याय और दया व्यापार द्वारा शोषण होना इसके गानों में बाताया गया है ।’’ (आला अफसर के मुख पृष्ठ से) नौटंकी के मूल छन्दों का प्रयोग करते हुए भी हिन्दी की वर्तमान कविता की क्षमताओं का रंग भी अत्यन्त संवेदना से भरा है । ‘‘इसमें वर्तमान परम्परा के अनुसार कुछ लोकगीत तो हैं ही, पारसी रंगमंच की ‘तर्जेजंगी’ (साफ करो साफ करो) भी है, लेकिन मूल नौटंकी के छन्दों का प्रयोग ही प्रमुख है ।’’ (रंग भूमिकायें, मुद्राराक्षस–पृ– 46) नौटंकी छन्दबद्ध रचना है जिसमें मात्रिक और वार्णिक दोनों ही छन्द इस्तेमाल होते हैं । इस विधा का प्रयोग व अध्ययन अधिक न होने के कारण इसे भद्र मंच की स्वीकृति धीरे–धीरे ही मिल रही है । मुद्राराक्षस अपनी लोक–परम्पराओं की विस्मृति पर केवल खेद प्रकट नहीं करते बल्कि आगे बढ़कर नयी राह की ओर इशारा करते हैं । अपने सार्थक प्रयोग से भावी रंग दुनिया को भी प्रेरित करते हैं ।
कमलेश कुमारी : हिन्दी विभाग, अदिति महाविद्यालय, दिल्ली में प्राध्यापन । सम्पर्क :919873648517