सिनेमाघरो से बाहर चवन्नी छाप
महाबाज़ार ने सिनेमाघरों को मल्टीप्लैक्स ऐशगाहों में तब्दील कर दिया है- जो उनके ग्लोबल कारिन्दों के लिए पाँच दिन को रीढ़ झुरझुरा देने वाली मशक्कत की थकान से उबरने की कोशिश के वीकएंड मौजमस्ती के अड्डे बन गये हैं।
महानगरों और उपमहानगरों के माॅलों में तरह-तरह के मालों के बीच-एक माल सिनेमा भी है
जहाँ वीकएंड के तीन दिनों में धूमधाम से सौ-पचास करोड़ तक एक फिल्म पर बरस जाते हैं
और सिनेमा से कमाई के ये सौ-दो सौ करोड़ तो बच्चों की न्यौछावर हैं। माॅलों का खेल नामालूम कितने सैकड़ों-हजारों करोड़ का है। ये खुद ही फरमाते हैं। सिनेमा की टिकिटों से ज्यादा कमाई तो खाने-पीने की चीजों
की बिक्री से हो जाती है- इसलिए नहीं कि ये लाजवाब डिशेज सर्व कर रहे हैं- अफलातूनी कीमतों के कारण-
पच्चीस-पचास-सौ की तो औकात ही क्या है पिज्जा-पिज्जी/कोक-काॅफी डिकोस्टा/काॅर्न फ्लैक्स
चबाने-गुटकने-सटकने के लिए दो-चार सौ भी नाकाफी हैं। प्यारेलाल जी, पानी भी पियोगे तो पचास लगेंगे
वर्ना कटवाओ नाक सरकारी मजबूरी के कारण मुफ्त पानी पिलाने के इन्तजाम की टोंटी दबाओ
पर आपकी भी कोई इज्जत है, ऐसा कैसे करें आखिर, लोक-लिहाज भी तो कोई चीज है
मौके और जगह का खयाल भी तो रखना ही पड़ता है टोंटी से टपकते पानी को न जाने कितने लबों से टकरा चुके गिलास में भरकर पीते बन पड़ेगा? ऊँचे ब्रांड की बोतल से गटकते हुए ही मल्टीप्लैक्स वाले कहलाओगे।
अब आगे बियर-फियर के इन्तजाम में भी क्या बुराई है तरक्की का जमाना है, कब तक काॅफी कोक में अटके रहेंगे। हम यहाँ साक्षात् जन्नत का नजारा चमकाकर छोड़ेंगे, पल-दो-पल और। यहाँ सिनेमा के बीसवीं सदी के विख्यात चवन्नी छाप दर्शकों की गुजर कहाँ उस बेचारे की चवन्नी तो दो-चार-सौ-हजार की हुई नहीं
उलटे वह तो बाजार बाहर ही हो गयी उसी तरह वह चवन्नी छाप भी सिनेमाघरों से बाहर हकाल दिया गया
मुद्रा से बाहर चवन्नी, सिनेमाघरों से बाहर चवन्नी छाप अब पैसों का नहीं, रुपयों का जमाना है और डाॅलर, पौंड, यूरो, दीनार के ख्वाबों का तराना है सँभाल के रख लो पंजी-दस्सी-चवन्नी, ऐतिहासिक अवशेषों की तरह
बच्चों को दिखाने के काम आयेंगे। मल्टीप्लैक्स ऐशगाहों की तो बात ही छोडि़ये छोटे शहरों-कस्बों की सिनेमाओं तक में-जिन्हें अब हिकारत से ‘ठाकिया’ कहा जाता है- फिल्म देखना सौ-पचास से नीचे का
मामला नहीं उतरता, सो अब चवन्नी छाप दर्शक सपरिवार या इष्टमित्रों सहित तो दूर
अकेले भी सिनेमाघरों के पास फटकने की बमुश्किल हिम्मत जुटा पाता है। उस पर करेले पर नीम चढ़ा जायका इस तरह तारी कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों में खासतौर से सिनेमाघरों का अकाल और दुर्दशा
दोनों गलबहियाँ डाले हैं।
चवन्नी छाप दर्शक अब पायरेटेड डीवीडियों के हवाले हैं जो किसी भी फिल्म के ‘वल्र्ड वाइड’ रिलीज के दूसरे ही दिन दूरदराज इलाकों तक में उसी तरह बीस-पच्चीस रुपयों में खुल्लम-खुल्ला उपलब्ध होती हैं जिस तरह
पैकेज्ड ड्रिंकिंग वाटर और कोल्ड-ड्रिंक्स की सीलबन्द बोतलें भी उन इलाकों में सहज उपलब्ध हैं जहाँ पीने का साफ पानी मयस्सर नहीं।
इन बीस-पच्चीस की डीवीडियों में एक-दो नहीं, चार-छह फिल्में होती हैं। ओरीजनलों के मुकाबले पचीस-पचास गुना सस्ती और बीसियों गुना शीघ्रता से उपलब्ध। जब तक बेचारे ओरीजिनल बाज़ार में पधार पाते हैं
तब तक तो फिल्म ही पुरानी-टुरानी हो चुकी होती है इसलिए वह कलैक्टर्स आइटम हो जाती है, चवन्नी छाप के किस मतलब की। भ्रष्टाचार की तरह पायरेटेड डीवीडियों का धन्धा मिटाने की मुहिम लगातार चलती रहती है और ये प्रशासन की नाक के नीचे धड़ल्ले से बिकती रहती हैं। चवन्नी छाप यह खूब जानता है कि ये पायरेसी का नहीं उसकी औकात का माल है- हर ब्रांड का माल-उसकी औकात का भी रूप धारण कर
बाज़ार में पटा रहता है-खुलेआम कायदा-कानून अपनी जगह, रोजगार अपनी।
बन्दापरवर, यह खुला खेल है आम आदमी बनाम चवन्नी छाप को हीनताबोध से ग्रस्त करने का
जो बेचारा दाम भी दे, गन्नेटा भी खाये और जो टूटे पलकिया तो अपने प्राण भी गँवाये।
क्योंकि कानून का डंडा सबसे पहले उसी की मजबूत पीठ तलाशता है। न्यायदंड की मार से आहत छोटी मछलियाँ कब नहीं हुईं? बड़ी तो तमाशे का लुत्फ उठाया करती हैं। धन्धे की जड़ें आसमान में
और दिखावा धरती खोदने का अनवरत चलता है पकड़े जायेंगे दो-चार, चउवे-छक्के और हो जायेगी बल्ले-बल्ले!
कानून प्रशासन चुस्त दुरुस्त-शान्ति व्यवस्था कायम और बाप जी, महाबाप जी बनकर मुस्कुरायेंगे।
प्रकाश झा की ‘राजनीति’ का दर्शन पायरेटेड डीवीडी के जरिए करते हुए सन् 2010 में राजस्थान के विधायकगण सामूहिक रूप से धरे गये आजकल इस स्टिंग- फिस्टिंग के कारण बेचारे बड़ों-बड़ों की नाक में दम। बात बड़ों की, सो टीवी खबरिया चैनलों में खूब शोर मचाया और सार्वजनिक रूप से किये गये इस अपराध में किसे क्या सजा मिली? अखबारों-चैनलों ने ढुलकिया पीट ली और मामला आयाराम-गयाराम।
आज़ाद महामहिमों की वाणी का सत्य यथावत् कायम कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है।
सत्य वचन श्रीमन्-सत्य वचन। इस कमजोर याददाश्त के चलते तो बेचारी का ब्लडप्रेशर
भयंकर फ्लक्चुएट होता रहता है-सो मुबारक हो बेचारी जनता को उसकी कमजोर याद्दाश्त-
कहीं तेज हो जाये तो हार्ट अटैक से बचना नामुमकिन। वह अब इतनी भी बुद्धू नहीं कि यह भी न जाने
कि कानून कमजोर के पालन करने और ताकतवर के तोड़ने के लिए होते हैं।
जब किसी लल्लू-पंजू सिरफिरे को उसकी हैसियत बतलानी हो तब कानूनशिकनी करते हुए उसे सरेआम दबोच लिया जाये। वह तथाकथित जुर्म जो बड़ी नाकों के नीचे चैबीसों घंटे जारी है उसे बावक्त अपने अहितकारी के सिर टोपी की तरह पहना दिया जाये। आज हमारा हिन्दी सिनेमा जिसका कतई मुहताज नहीं है
वह है हिन्दी इलाका और हिन्दी भाषा समाज इस दिशा में देखकर तो वह थूकता भी नहीं है।
उसके लिए हिन्दीभाषी समाज अधिक-से-अधिक वही है जो महानगर निवासी बन गया है या ठसियल की तरह जम गया है। वर्ना यूपी, एम पी, बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान, उड़ीसा, झारखंड की
पिद्दी कमाई की परवाह किसको है? अब सिनेमा की जमीनी कमाई का सबसे बड़ा जरिया वह
मल्टीप्लैक्स प्रवासी अभिजात युवा है जो इनक्लूडिंग समूची दुनिया में- महाबाज़ार की बैसाखियों पर टिका महाबली अस्तित्व, उसे अपने काँधों उठाये कूल-कूल दनदनाहट में टुन्न है।
जो सिर्फ तीन दिनों के वीकएंड में दस-बीस से लेकर सौ-पचास करोड़ की कारीगरी दिखला देता है
अब इनके मुकाबले बेचारे ठाठिया चवन्नी छापों को कौन पूछे जो तीन दिनों का काम पच्चीस-पचास-साठ दिनों हफ्तों में करने के आदी। इस तरक्की पसन्द फटाफट जमाने में यह सुस्त चाल नाजायज।
पच्चीस-पचास-साठ हफ्तों में सिल्वर-गोल्डन-डायमंड जुबिली नहीं जल्दी-से- जल्दी तीन-सात, चैदह, अधिक-से-अधिक इक्कीस दिनों में सौ-दो सौ उससे भी ज्यादा तो क्रमशः सिल्वर, गोल्डन-डायमंड जुबिली।
अब सिल्वर, गोल्ड, डायमंड पलक झपकते कमाने का जमाना है। मोरी बाँकी हिरनियाँ कब तक धीरे-धीरे चलती रहोगी
कब तक ‘खरगोश पर कछुए की जीत’ की उलटबाँसी में उलझी अपने पैरों आप कुल्हाड़ी पटकने की हिमाकत करती बुढ़ा जाओगी? तो प्यारे, समय की आवाज को सुनो और हर कूबत के लिए किये गये यथायोग्य इन्तजाम को पहचानो तुम इनका अवलोकन बीस रुपए की डीवीडियों के जरिए करो या बाज़ार की मेहरबानी से घर बैठे टेलीविजन के बीसों सिनेमा चैनलों पर दो-तीन की फिल्म पाँच-छह घंटों में देखो लगभग मुफ्त और वह भी डबल प्रोग्राम की तरह। फिल्म की फिलम देखो और यह भी देखो घाले में- कि कितनी ढेरों चीजों से बाज़ार भरा पड़ा है और यह भी जानो कि तुम्हारा कल का मोबाइल आज हो गया पुराना और मोबाइल ही नहीं, सब कुछ हर पल नया, जैसे हर पल नया सो जानो कि क्या-क्या तुम्हें खरीदना-ही-खरीदना चाहिए
और जो खरीदने की जुर्रत नहीं कर पा रहे तो क्यों नहीं और यह भी कि किस तरह औकात हासिल कर सकते हो
और हासिल करने के सैकड़ों तरीके बखान करने के लिए तमाम खान-कपूर-खिलाड़ी बच्चन देवगन वगैरह
अपने महामानवीय अवतारों के जरिए समूची आन-बान-शान के साथ मुस्तैदी से तैनात हैं
आपको करते हुए बाअदब, बामुलाहिजा, होशियार! सिनेमाई थियेटर्स का टारगेट अब कम-से-कम
हजार-पाँच सौ की गर्मी रखने वाला दर्शक वर्ग है वही माई-बाप-उसी की डिमांड सर्वोपरि, कोलावरी-कोलावरी डी
जाहिर है कि ये महानायक उसी वर्ग की डिमांड पूरी करेंगे, कर रहे हैं-पूरी निष्ठा के साथ-
और अनेक विप्लवी घनघोर विरोधों के साथ बाजार में आकंठ डूबे पिच्छू के दरवाजे से उसकी सेवा कर रहे हैं।
बाज़ार बुद्धिमान है-जानता है टकराव अवश्यम्भावी है हुनर आखिर हुनर है-बाजीगरी भी दिखायेगा ही
कोई बात नहीं भइए, हमको मालूम है-सब कुछ मालूम है- दुनिया के रास्ते सारे मालूम हैं
ज़हर की काट ज़हर ही है-सो हुनर की काट हुनर। मार लेंगे – इसे हुनर से मार लेंगे।
काबू आ जायेगा, हमें मालूम है। यथार्थ की मार हुनर के आदर्श को नाप लेगी, हमारी जगमग सनसनाहट, तस्वीर को फ्रेम में बाँध लेगी। ऐसी दमादम चुनचुनाहट कि अमरीका पानी भरे, बड़े से लेकर छोटे पर्दे तक ऐसी चमाचम उखाड़-पछाड़ नाज़नीनें जिस्म की आग में उबलती तमतमाहटों में टकराती कि विश्वामित्रा की तपस्या भंग हो जाए-आदमी लगता कहाँ है और विश्वामित्रा भी एक नहीं अनेकानेक जिनके आगे-पीछे, ऊपर-नीचे मेनकाएँ, भिनभिनाएँ मुन्नी-शीला-शालू-जलेबीबाई का जलवा धारण कर कि जो विश्वामित्रा हैं अपने-वे कैरेक्टर ढीला होने पर इतराएँ। अब वो जमाना ही नहीं रहा जो कोई चन्द्रमोहन, मोतीलाल या भगवान दादा
दरियादिली की झौंक में अर्श से फर्श पर आ जाएँ अब मुहब्बत में लुटने का नहीं, लूटने का जमाना है
अब पहला दाँव लगते ही आर्थिक सुरक्षा सबसे पहले लाजि़मी
मन्नत माँगकर सबसे पहले जन्नत हथिया लो प्यारे!
अब कोई सहगल किसी धोबी के घर शादी-ब्याह में बिन बुलाये ही पहुँचकर सारी रात जि़न्दगी की मस्ती में डूबकर ईश्वर आराधना की तरह गाने की बेवकूफी नहीं करता
इसलिए कि कर ही नहीं सकता वर्ना प्रोड्यूसर नहीं तो काॅरपोरेट बाॅस जो प्रोडयूसर को प्रोड्यूसर बनाता हैµलात मारकर बाहर का रास्ता दिखा देगा जो किसी ने उसके करोड़ों के शून्यों से दीदादिलेरी की तो।
सो अब कोई शाहरुख, सलमान, मल्लिका, दीपिका, ऐश्वर्या, मलाइका दो-चार-दस करोड़ रुपयों की ताकत पर ही किसी थैलीशाह के बेटे-बेटी की शादी, बर्थ डे पार्टी में आकर ठुमके लगाते हैं-जो कीमत चुका सके उसी की ताबेदारी में हाजिर दया धरम की खातिर सजी हैं रंग-बिरंगे एनजीओ की बारातें भिक्षा-प्राप्ति के लिए भी और दान को भी सजी हैं ब्रांडेड बिसातें। दिलवालों के दिल में उतरने का जमाना हवा हुआ अब मालदार दिलजलों के दिल बहलाने का जमाना है, सर जी! अब वहीं करोड़ों के सुर्ख दरिया में तैरने-उतराने-डूबने की छूट है-खुली छूट!
अब किसी को इमोशनल ब्लैकमेल करने की इजाजत नहीं। नहीं अब मुफ्त का चन्दन कि कोई ऐरा-गैरा-नत्थू खैरा नन्दन घिस ले। राजकपूर ने अपनी जिन्दगी में तमाम फिल्मों से जितना कमाया होगा-
वे जो, फिल्मों के बाजार के तिलिस्म के भरभरा जाने के बाद भी मौजूद रहने वाली हैं- उससे कहीं ज्यादा उनका पोता रणबीर कपूर महज़ एक ब्रांड एंडोर्समेंट से कमा लेता है। ऋषि कपूर आज परम प्रसन्न हैं और होना भी चाहिए कि जो सुपरस्टारडम उन्हें अपने समूचे कैरिअर में नहीं मिलीवह उनके बेटे ने पहले ही दौर में हासिल कर ली और वे भी अपनी दूसरी पारी में डिफरेंट किरदारों में लिये जा रहे हैं जो ही डेज़ में हासिल न हो सके।
ऋषि अपने दौर के जलजले में दब गये जिसमें मुहब्बत की बेकद्री थी अपनी अस्मिता की खोज की बेचैनी की जगह किसी भी तरह हर हालत में अपना हक छीन लेने की बेताबी थी जो थी छले गये राष्ट्र के अवाम की बदहवास प्रतिक्रिया। दूसरों ने ठगा उसकी दवा आखिरकार मिली लेकिन जो अपनों से ही ठगे गये, उसका इलाज क्या करें क्योंकि जो अँगुली उठती है गुनहगार पर, वह हमारी अपनी जानिब होती है।
आसान नहीं है अपने ही लालच की जकड़ से छूट पाना। बुद्धि और धन की जो काॅकटेल बनी
उसने गली-गली भावना के एश्वर्य की मीनारें खड़ी कर दीें। नीरज ने कहा है-‘मैं किस-किस द्वारे अपना मस्तक धरूँ मुझे- हर द्वार तुम्हारा द्वार दिखाई देता है।’ अब हर द्वार धनी का द्वार दिखाई देता है धक्के खाने के लिए कुबेर की आराधना में लतभंजन में आनन्द की प्राप्ति करना अवश्यम्भावी। इस महाबाज़ार ने करोड़ों-अरबों की दौलत का चैकीदार बना दिया बेताज बादशाह मस्ती को कारूँ के खजाने ने दबोचकर
गाफिल कर दिया इस हकीकत से कि-‘इक रोज़ ये खन्दी तुझे खा जायेगी बाबा
ये जो दिखती है दोस्त तेरी दुश्मन कहलायेगी बाबा’ ज़नाब नज़ीर अकबराबादी की कहन की तर्ज का ही है
हमारा हिन्दुस्तानी सिनेमा- सतमेल खिचड़ी हर रंग का मुज़ाहिरा-हर ढंग का गुज़ारा-
देश की सब जुबानों से घालमेल बेहिचक। सो क्या हैरत, हर हिन्दुस्तानी ने इसमें अपनी कमियों-खूबियों का अहसास पाया दसों दिशाओं में लोगों ने इसका लुत्फ उठाया यह चवन्नी छापों की दिवानगी है जिसने इन्हें खुदा बनाया और आज वही सिनेमाघरों से बाहर है।पछताओगे ही, इस दीवानगी की कदर भुलाकर
यही चवन्नी छाप तुम्हें खुदा बनाते हैं जो वे सिनेमाघरों से बाहर होंगे तो सिनेमा ही बचेगा क्या!
हिन्दुस्तान में सिनेमा सामाजिक उत्सव है प्राइवेट व्यूइंग नहीं है। ना हो- पर हमने उसे बना दिया है
क्योंकि हमें इसकी जरूरत है- हमें चाहिए यान्त्रिाक आभासी दुनिया जहाँ हम अपनी मनमर्जी का माल खपा सकें रंगीन ख्वाबों के घटाटोप में। क्योंकि हमें जरूरत की चीजें नहीं बेचना हमें जरूरतें बनानी हैं-तरह-तरह की जरूरतें बनानी हैं यह ज्ञान बघारने वाले की जरूरतों का कोई अन्त नहीं-हमें नापसन्द।
जानपांडे कूपमंडूक जरूरतों का अन्त तो जिन्दगी का अन्त। घिसट-घिसटकर तरसते-तरसाते हुए जीने का क्या मतलब? इसीलिए तो चवन्नी छाप सिनेमाघरों से बाहर महाबाज़ार ने किया भी तो उनकी तरक्की ही सोचकर
आओ, आगे बढ़ो, कदम-से-कदम मिलाओ दुनिया से इस तरह कि तुम भी सारी दुनिया से अलग अपनी दुनिया बना लो।
प्रहलाद अग्रवाल: जन्म: 1947, जबलपुर (म.प्र.)। शिक्षा: एम.ए., यायावर, आवारामिजाज। संगीत,
साहित्य और सिनेमा से गहरी आशिकी। विभिन्न पत्रा-पत्रिकाओं में निरन्तर लेखन। ‘वसुधा’ के बहुचर्चित फिल्म विशेषांकका सम्पादन। सिनेमा पर कई पुस्तकें प्रकाशित।
सम्पर्क: 919827009452 prahlad.agrawal1947@gmail.com