सिनेमा

ग्लोबल समय में सिनेमा

प्रियदर्शन

हमारे देश में उदारीकरण के प्रभावों की चर्चा अब तक मूलतआर्थिक और कुछ हद तक सामाजिक संदर्भों में होती रही है। इसके सांस्कृतिक प्रभाव अब तक सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाए हैंजबकि  इस पूरे दौर ने सबसे ज़्यादा तोड़फोड़ हमारे सांस्कृतिक मानस पर की है- ख़ासकर बीसवीं सदी में संस्कृति के सबसे लोकप्रिय उपादान सिनेमा पर इसका प्रभाव बहुत गहरा दिखता है। हिंदी सिनेमा के संदर्भ में कई स्तरों पर इस प्रभाव की पहचान की जा सकती है।
पहली बात तो यह कि तकनीकी तौर पर यह सिनेमा बहुत समृद्ध हुआ है। हॉलीवुड की फिल्मों के संपर्क में आने के बाद ब्योरों के प्रति एक नई संवेदनशीलता इसमें दिखाई पड़ती है। बहुत सारे अर्थों में यह एक स्मार्ट सिनेमा है। इसमें पुराने दौर की स्थूलता और सतहीपन नहीं है। इसके किरदार अपनी नाटकीयता भी एक सहजता के साथ अर्जित करते हैं। कई बार इसने बड़ी कामयाबी के साथ कारोबार और कला के बीच ज़रूरी तालमेल बिठाया है। अगर इक्कीसवीं सदी की फिल्मों पर एक नज़र डालें तो 3 इडियट्स’, ‘पीपली लाइव, मुन्नाभाई एमबीबीएस’, ‘लगे रहो मुन्नाभाई, रंग दे बसंती, इकबाल, गैंग्स ऑफ वासेपुर, जब वी मेट, ज़िंदगी ना मिलेगी दोबारा,चक दे इंडिया’, ‘ओंकारा’,‘तनु वेड्स मनु, बैंड बाजा बारात, पान सिंह तोमर, कहानी, बर्फी और ऐसी कई फिल्मों के नाम अचानक याद आते हैं जिन्हें खूब पसंद किया गया है। इनमें से कुछ फिल्में अपनी सामाजिक सोद्देश्यता के लिए भी सराही गई हैं। ख़ासकर पीपली लाइव’, ‘3 इडियट्स और लगे रहो मुन्नाभाई में लोगों ने अपने ढंग से एक गंभीर संदेश देखा। कई फिल्में अपने ठोस यथार्थवाद की वजह से पसंद की गईं। गैंग्स ऑफ वासेपुर, पीपली लाइव या ऐसी और भी फिल्में हैं जहां कला की बारीक समझ ने फिल्मों को एक गहराई दी। कुछ फिल्में अपने कथ्य के नएपन और सधेपन की वजह से सराही गईं। जब वी मेट, खोसला का घोसला, तनु वेड्स मनु, सात ख़ून माफ़, बैंड बाजा बारात इस तरह की फिल्में रहीं।
यह सूची और बडी की जा सकती है, ये ख़ूबियां और भी गिनाई जा सकती हैं। कुल मिलाकर यह दिखता है कि इक्कीसवीं सदी का हिंदी सिनेमा अपने पूर्ववर्ती सिनेमा के मुकाबले कहीं ज़्यादा समृद्ध और श्रेष्ठ हुआ है। हीरो-हीरोइन और विलेन के बीच प्रेम और बदले की पुरानी जानी-पहचानी कहानी पीछे छूट गई है और अब नए कथानक नए किरदारों के साथ सामने आ रहे हैं।
दरअसल ध्यान से देखें तो एक तरह का आधुनिक मिज़ाज इन फिल्मों ने अर्जित किया है जो देसी कम, ग्लोबल ज्यादा है। इस मिज़ाज में कुछ अच्छी बातें भी हैं। एक अच्छी बात यह है कि स्त्रियों के बने रहे स्टीरियोटाइप कई फिल्मों में टूटे हैं। पहले की तरह सती सावित्री या दिखावटी आधुनिक होने की जगह अब वे ज़्यादा हाड़मांस की हैं। उनमें बराबरी का एहसास भी कहीं ज़्यादा है। दूसरी अच्छी बात यह है कि कई फिल्मों के नायक पुराने दौर के महानयाकों जैसे नहीं हैं- वे बिल्कुल आम लोग हैं जिनमें कुछ कमज़ोरियां भी हैं लेकिन जो अपनी कमज़ोरियों के पार जाने की कोशिश कर रहे हैं। तीसरी बात यह है कि इस सिनेमा ने जनजीवन के उन पहलुओं को छुआ है जो पहले अछूते रह जाते थे। पान सिंह तोमर की कहानी इतने विश्वनसीय ढंग से इसी दौर में कही जा सकती थी। इसी तरह बर्फी या विकी डोनर जैसी दिलचस्प फिल्में शायद पहले नहीं बन सकती थीं। सच तो यह है कि सलमान खान की वांटेड, दबंग या बॉडीगार्ड जैसी फिल्मों के बावजूद और आमिर खान और शाहरुख खान जैसे सितारों की उपस्थिति के बाद भी मुख्यधारा के हिंदी सिनेमा का संसार पहले से बड़ा और विविध हुआ है।
लेकिन फिल्मों के इस बदलते संसार पर अब एक दूसरे ढंग से भी नज़र डालें। यह साफ नज़र आता है कि ये फिल्में उदारीकरण के दौर में बनी नई मल्टीप्लेक्स संस्कृति की संतान हैं जिन्हें उन दर्शकों के लिए बनाया जा रहा है जो नई किस्म की नौकरियों और नए मिलते पैसे के साथ मनोरंजन की ऐसी खुराक की तलाश में हैं जो उनकी छुट्टियों के बीच फिल्म देखने के अनुभव को पारिवारिक पिकनिक में बदल सके। इत्तिफाक से यह वह वर्ग है जिसकी सारी प्रेरणाएं पश्चिम से आती हैं और जिसके पास अपनी कोई सांस्कृतिक विरासत और स्मृति नहीं है। स्मृति अगर है भी तो उन फिल्मों और गानों की जिन्हें वह पुरानी वर्जनाओं के बीच देखने की हिम्मत नहीं कर पाता था। इसलिए यह अनायास नहीं है कि इन दिनों जो फिल्में बन रही हैं उनमें हास्य प्रधान चुटीली फिल्मों की तादाद बहुत बड़ी है। इसके अलावा बहुत सारी पुरानी फिल्मों के रीमेक बन रहे हैं। डॉन या अग्निपथ इसके नए उदाहरण हैं। तीसरी बात यह कि सुरुचि या सुसंस्कृति को लेकर चूंकि कोई बहस या आग्रह इस समाज में बचा नहीं है, इसलिए हर फिल्म में एक आइटम डांस है जिसमें कहीं मुन्नी बदनाम हो रही है, कहीं शीला जवान हो रही है। दरअसल इन फिल्मों को देखते हुए ही खयाल आता है कि सिंगल स्क्रीन के चवन्नी छाप दर्शक भले किनारे कर दिए गए हों. लेकिन वह चवन्नीछाप मानसिकता अब भी बची हुई है जो चाव से इन सबका लुत्फ लेती है।
इसी नई संस्कृति का असर है कि इन दिनों बनी ढेर सारी फिल्मों की पृष्ठभूमि ग्लोबल है। यहां डॉन भी आता है तो कई देशों में खेल करता हुआ आता है। कई फिल्मों की पूरी की पूरी कहानी लंदन या न्यूयॉर्क में घटित हो रही है। माई नेम इज़ खान, लंदन ड्रीम्स, पटियाला हाउस, अनजाना-अनजानी और ऐसी ढेर सारी फिल्में याद दिलाती हैं कि फिल्मकारों की नज़र उन प्रवासी भारतीयों पर भी है जिनकी संख्या इन वर्षों में विदेशों में काफी बढ़ी है। यही नहीं, पहले हिंदी फिल्मों में भोजपुरी या पुरबिया बोली का जितना इस्तेमाल होता था, वह काफी कम हो चुका है और उसकी जगह गुजराती और पंजाबी नृत्य-संगीत और खानपान हावी दिखाई देते हैं।
जाहिर है, अब इन फिल्मों के नायक छोटे लोग नहीं हुआ करते। कभी कोई रिक्शा वाला, तांगेवाला या साइकिल चलाने वाला हीरो हो सकता था। यह हीरो कभी-कभी भूख और गरीबी से संघर्ष कर रहा हो सकता था। लेकिन आज यह संभव नहीं है। नए दौर के हीरो नई बाइक्स या गाड़ियों में ही दिखते हैं। उनके संघर्ष भी बिल्कुल बुनियादी ज़रूरतों के संघर्ष नहीं हैं। जहां वे संघर्ष कर रहे हैं, वहां भी उनकी लड़ाई ज़्यादा से ज़्यादा पैसा कमाने और बड़ा आदमी बनने की है। साफ है कि पैसे की आपाधापी ने बाकी मूल्यों को पीछे छोड़ दिया है। इन फिल्मों की पूरी वर्गीय चेतना ही बदली हुई है। अब इन दिनों बनी ऐसी कोई फिल्म आसानी से याद नहीं आती जिसमें अमीरी और गरीबी का कोई द्वंद्व हो- पहले वह था, भले ही सपाट ढंग से अमीर लड़की और गरीब लडके की प्रेमकहानी में। अब अमीर लड़की तो क्या, गरीब लड़की भी अमीर लड़के का ही सपना देखती है।
इसका एक नतीजा यह भी है कि अब सामाजिक संघर्षों और प्रगतिशील मूल्यों वाली वे फिल्में नहीं दिखतीं जिन्हें कभी राज कपूर से लेकर दिलीप कुमार और बाद में अमिताभ बच्चन तक की फिल्मों में- अपनी बहुत सारी नाटकीयता और सीमाओं के बावजूद देखा जा सकता था। 50 के दशक में बनी फिल्म आदमी में दिलीप कुमार अपने द्वंद्व से लड़ता है और अपने दोस्त मनोज कुमार की जान लेते-लेते रह जाता है। अंततः उसकी आदमीयत उसे लौटा लेती है। लेकिन 90 के दशक का शाह रुख़ खान फिल्म अंजाम में माधुरी दीक्षित को हासिल करने के लिए उसके पति की हत्या करने से भी नहीं हिचकता। 1975 में बनी फिल्म दीवार में अमिताभ बच्चन अपने लिए गुंडों से नहीं लड़ता। जब वह एक दूसरे शख्स के प्रतिरोध का हश्र देखता है तो तय करता है कि अगले हफ़्ते एक और कुली इन मवालियों को पैसा देने से इनकार करने वाला है।इस अमिताभ बच्चन के साथ एक मां और एक भाई है जो उसे सही रास्ते की याद दिलाते रहते है। इस नायक के लिए अपराध एक सामाजिक मजबूरी है।
लेकिन 90 का दशक आते-आते सामाजिक मजबूरियों की ये कहानियां निजी प्रतिशोध की कथाओं में बदल जाती हैं और हिंसा मजबूरी नहीं नायक की मानसिकता बनती लगती है। अब दुश्मन को तड़पा-तड़पा कर मारना है। अब नायक के साथ वे मां और भाई नहीं बचे हैं जो उसे रास्ता दिखाएं। बहनें और भाभियां तो न जाने कहां छूट गईं। 1975 में बनी शोले कभी बड़ी हिंसक फिल्म मानी जाती थी, आज फिल्मों की हिंसा देखते हुए वह एक मासूम सी फिल्म जान पड़ती है।
तो ध्यान से देखें तो इस दौर की बहुत सारी अच्छी फिल्में आम हिंदुस्तान की फिल्में नहीं हैं। वे नए बन रहे इंडिया की फिल्में हैं। इन फिल्मों में जितना देशज स्पर्श है, उतना ही अंग्रेजी का इस्तेमाल भी बढ़ा है। इस दौर की ढेर सारी फिल्मों के नाम अंग्रेज़ी में रखे जा रहे हैं। लिखित हिंदी को लेकर इन फिल्मों में घोर उपेक्षा का भाव दिखता है। नो वनकिल्ड जेसिका में हिंदी सबटाइटिल्स इतने अशुद्ध ढंग से लिखे गए हैं कि फिल्म देखते हुए कोफ़्त होती है।

 

तो फिल्में रंगीन, चटख और बेहतर हुई हैं, नई तकनीक के इस्तेमाल ने उन्हें नए आयाम दिए हैं, लेकिन भारतीय समाज के वास्तविक द्वंद्वों और यहां की प्रेरणाओं से वे कोसों दूर हैं। हिंदी का बड़ा बाज़ार फिल्मकारों को मजबूर करता है कि वे हिंदी में फिल्में बनाएं, अपनी पेशेवर समझ से वे इस समाज के कई अलग-अलग पहलुओं का कायदे से चित्रण भी कर पाते हैं, लेकिन अंतत: यह सिनेमा जनता का नहीं है, न ही जनता के काम आने वाला है। अनुराग बासु की फिल्म बर्फी दरअसल इस नए दौर की प्रतिनिधि फिल्म कही जा सकती है जो एक मार्मिक फिल्म बन पड़ी है लेकिन जिसमें बहुत सारी पुरानी फिल्मों के दृश्य ज्यों के त्यों उठा लिए गए हैं। बाद में अनुराग बासु ने शायद सफाई दी कि यह सिनेमा के उस्तादों को उनका ट्रिब्यूटथा, लेकिन यह नहीं बताया कि इन उस्तादों में उन्हें एक भी भारतीय फिल्मकार नज़र क्यों नहीं आया। जाहिर है, यह बाहर का सिनेमा है जो बाहर की नकल पर हिंदी में बन रहा है। 

samved

साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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