सिनेमा

प्रतिरोध की नई सिनेमाई अभिव्यक्ति और उसके मायने

संजय जोशी

आज के जमाने में जैसे ही कोई महत्वपूर्ण घटना घटती है उस घटना की वीडियो क्लिपिंग मुख्यधारा  न्यूज़ चैनलों द्वारा साजिशन दबा दिए जाने के बावजूद यू ट्यूब , फेसबुक, ब्लॉग या दूसरे किसी वैकल्पिक प्रसार माध्यम पर जगह पा ही जाती है. और फिर धीरे – धीरे वह खबर बनना शुरू होती है. आज से 30 बरस पहले तक मुख्यधारा और सत्ता के प्रतिष्ठानों  द्वारा घटनाओं को सेंसर करना दुहरे स्तर पर कार्य करता था . एक तो छवियों को दर्ज करना ही ख़ासा महंगा मसला था और दूसरा उनका प्रसारण भी महंगी तकनालजी के कारण लगभग असंभव था.   

अपने इस लेख में मैं नए भारतीय समाज की उथल –पुथल और नई तकनीक के कारण उसकी छवियों के लोगों तक पहुँच सकने और फिर इस कारण एक नए  बनते परिदृश्य की चर्चा करूँगा. इसकी चर्चा इसलिए भी जरुरी है क्योंकि इस नई सिनेमाई अभिव्यक्ति को अभी भी मुख्यधारा का वितरण तंत्र और बदनाम फंडिग के रास्ते डींग भरता तथाकथित फिल्म फेस्टिवल सर्किट जगह देने से परहेज करता. इस नए परिद्रश्य और नए प्रयासों को समझने के लिए भारतीय सिने इतिहास के बारे में कुछ खास बात जान लेना अच्छा रहेगा .     1895 में फ्रांस के पेरिस शहर में सबसे पहले चलती हुई छवियों के प्रदर्शन के बाद अगले ही बरस बम्बई ( अब मुंबई ) में लुमिये भाइयों ने छवियों का ब्योपार जमाया . दादा साहब फाल्के की इन चलती हुई छवियों को देखने की दीवानगी परेश मोकाशी की मराठी फिल्म ‘हरिश्चन्द्राची फैक्टरी’ में बहुत खूबसूरती के साथ व्यक्त हुई है. इसी दीवानगी के चलते ही फाल्के 1913 आते –आते हिन्दुस्तान की पहली चलती फ़िल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बना सके. पड़ोस के देश इरान में तो 1930 में बाकायदा एक फ़िल्म स्कूल भी खुल गया , शायद यह भी एक वजह हो कि उनका सिनेमा आज विश्व सिनेमा में एक ख़ास हैसियत रखता है . बात अगर फिर से भारतीय अभिव्यक्ति पर करें तो हम पायेंगे कि 30 , 40 और 50 के दशक तक हमारा मुख्यधारा का कथा सिनेमा बहुत हद तक जन मानस के सुरों और मनोभावों को पकड़ पा रहा था . 50 के दशक आते –आते फ़ीचर फ़िल्म निर्माण में स्टूडियो की निर्णायक सत्ता से  यह साफ़ घोषित होता है कि मनोरंजन वाले इस माध्यम पर सिर्फ और सिर्फ अपना लाभ तिहरा चौथा करने की ही मंशा नहीं थी बल्कि राष्ट्रीय कांग्रेस की राजनीति के साथ –साथ चलने का प्रण भी था . इसी वजह से दादा साहब फाल्के से शुरू होकर व्ही शांताराम , पृथ्वीराज कपूर, प्रथमेश बरुआ ,बिमल राय , ख्वाजा अहमद अब्बास , चेतन आनंद, एल वी प्रसाद , महबूब खान , सत्यजित राय ,  गुरु दत्त, ऋत्विक घटक  सरीखी प्रतिभाओं ने भारतीय जनता के दुःख दर्द को सुनहले परदे पर रूपांतरित करने में अहम् भूमिका निभाई और प्रभात स्टूडियो , बॉम्बे टाकीज , नवकेतन स्टूडियो, मिनर्वा मूवीटोन आदि संस्थाओं की स्थापना कर फ़िल्म निर्माण को एक प्रगतिशील वैचारिकी भी प्रदान की . इन्ही सब कारणों से हमें  राजा हरिश्चन्द्र , दो आंखें बारह हाथ , बंदिनी , दुनिया न माने , सगीना महतो , डाक्टर कोटनीस की अमर कहानी , नीचा नगर , झनक –झनक पायल बाजे , दो बीघा जमीन , पाथेर पांचाली, अजांत्रिक  जैसी कालजयी रचनाएँ मिलीं जिन्होंने सिने माध्यम की क्रांतिकारी भूमिका के महत्व को रेखांकित किया . इन अभिव्यक्तियों ने स्वतंत्रता आन्दोलन के विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी . ये फिल्में लोगों तक इसलिए भी पहुँच सकीं क्योंकि फीचर फिल्मों का उद्योग भारतीय सिने के इतिहास में बहुत शुरू से ही स्वरुप ले सका . इसलिए बहुत सारी खराब फिल्मों के प्रचार –प्रसार के साथ – साथ वितरण और प्रदर्शन की एक व्यवस्था होने के चलते कुछ बेहतर सिनेमा भी लोगों तक पहुँच सका . ये अलग बात है कि समय के बदलने और राष्ट्रीय राजनीति के धूमिल पड़ने के साथ –साथ इस बेहतर सिनेमा की आवृति और तीव्रता भी क्षीण होती गयी . ऐसा क्यों और कैसे हुआ इस पर चर्चा करने से पहले यह जानना जरुरी होगा कि भारतीय सन्दर्भों में गैर फीचर फिल्मों के लिए क्या गुंजायश थी और उनकी जरुरत के क्या निहितार्थ हैं ?
 इस बात को समझना बहुत जरुरी है क्योंकि आगे की सारी बातें जिस ‘नई सिनेमाई अभिवयक्ति’ की होने वाली हैं उनका सम्बन्ध गैर फीचर फिल्मों से ही जुड़ता है .
लेकिन इससे भी पहले सिनेमा के सन्दर्भ में फीचर और गैर फ़ीचर के मतलब को समझना जरुरी है . फीचर और गैर फ़ीचर फ़िल्म
 जब हम फीचर फ़िल्म कहते हैं तो उससे हमारा आशय उन फिल्मों से होता है जिनकी कहानियाँ पहले से ही तय हैं . इसे हम कथा फ़िल्म भी कह सकते हैं . चूंकि हम एक चुनी हुई कहानी के लिहाज से अपने निर्णय करते हैं इसलिए लोकेशन , पात्र , कलाकार , संगीत , ट्रीटमेंट और शूटिंग का तरीका भी पूर्वनिर्धारित होता है . इस पूर्वनिर्धारण और तकनीक के उन्नत होते जाने के कारण अब धीरे –धीरे कथा फिल्मों की शूटिंग के लिए वास्तविक लोकेशन की बजाय स्टूडियो में ही सब कुछ फिल्माने का चलन बढ़ता गया और इस कारण भी कथा फिल्मों से जीवन भी क्रमश कम होता गया . कथा फिल्मों के उलट हर रोज हर क्षण घटती हुई वास्तविकता भी थी जिसे न्यूज और प्रवृति के बतौर दर्ज करना ज़रूरी था . इसलिए सिनेमा के इतिहास में गैर कथा फिल्मों को दर्ज करने के रूप में शुरुआती वर्षों में खबरों के फिल्मांकन और सम्पादन को ही सिर्फ गैर कथा फ़िल्म के रूप में समझा गया लेकिन  बाद में जब वास्तविक घटनाओं की अलग –अलग अभिव्यक्तियों को भी दर्ज करना शुरू किया गया तो गैर कथा फ़िल्म श्रेणी का भी एक स्वतंत्र व्यक्तित्व विकसित हुआ . इस क्रम में ब्रिटिश दस्तावेजी फिल्मकारों का योगदान खासा अहम है . नानुक ऑफ़ द नार्थ , द नाइट मेल जैसी फिल्मों ने इस श्रेणी को कलात्मक ऊँचाई प्रदान की . ऐसा नहीं है सिनेमा की इन दो सामान्य श्रेणियों के अलावा कोई और श्रेणियां नहीं है और यह भी कि इन दो श्रेणियों का एक दूसरे पर कोई प्रभाव नहीं हैं . दोनों स्वतंत्र श्रेणियां होने के साथ – साथ एक दूसरे को प्रभावित भी करती रही हैं .
 कथा फिल्मो का स्वतंत्र विकास भारत के चार महानगरों मुंबई , कोलकाता , चेन्नई और हैदराबाद में होता गया और तेजी से इन केन्द्रों पर बनने वाली फिल्मों के लिए वितरण की व्यवस्था भी तैयार हुई जिसके लिए हिन्दुस्तान के छोटे –बड़े शहरों में सिंगल स्क्रीन वाले सिनेमाघरों का निर्माण भी हुआ . इस तरह किसी एक फ़िल्म के निर्मित होते ही वितरण की अच्छी व्यवस्था के चलते उसे एक साथ 200 से 400  सिनेमाघरों के जरिये एक ही सप्ताह में लाखों दर्शक नसीब हुए . भारतीय दर्शकों की इस विशाल उपलब्धता के चलते ही विलक्षण बंगाली फिल्मकार ऋत्विक घटक ने अपने एक लेख ‘सिनेमा एंड आई’ में लिखा है ‘’ मैं कहानियाँ लिखता था और फिर जब लगा कि नाटक करने से मेरी बात ज्यादा लोगों तक पहुँच सकेगी तो नाटक करने लगा , जब सिनेमा माध्यम के बारे में पता चला तो यह लगा कि यह माध्यम तो एक ही समय और ज्यादा लोगों तक मेरी बात पहुंचा सकेगा तो सिनेमा से जुड़ गया … “ 1 शायद यही वजह थी कि चालीस के दशक के मशहूर सांस्कृतिक संगठन इप्टा ने नाटक, साहित्य, चित्रकला और संगीत के साथ –साथ सिनेमा के महत्व को भी बखूबी पहचाना और बम्बई फ़िल्म उद्योग में अपनी सक्रिय उपस्थति दर्ज करवाई .
   कथा फिल्मों के बरक्स गैर कथा फ़िल्म या दस्तावेजी फिल्मों के लिए ऐसा वातावरण बनना  संभव न हुआ . 1948के पहले तक आई ऍफ़ आई (Information Films of India) के नाम से एक संस्था होती थी जिसका मुख्य काम युद्ध संबंधी फिल्में बनाना था . द्वितीय विश्व युद्ध के समय अपने सैनिकों का हौसला बढ़ाने के लिए इसकी सक्रियता थोड़ी बढ़ी भी लेकिन विशाल भारतीय देश काल को गैर कथात्मक तरीके से छवियों  में कैद करने की कोई संस्थागत पहल यहाँ विकसित नहीं हुई . आजादी के बाद गैर कथा फिल्मों के दर्ज करने का परिद्रश्य थोड़ा बेहतर हुआ . 1948 में फ़िल्म्स डिविज़न की स्थापना हुई . अपनी स्थापना के कुछ वर्षों में ही फिल्म्स डिविज़न दस्तावेजी फिल्मों की  बड़ी संस्था के रूप में विकसित हो गयी . इसके पास तकनीकी कर्मियों , पटकथा लेखकों, संगीतकारों और निर्देशकों का एक बड़ा पैनल था जो अपने वृहद् तंत्र के बूते हर साल भारी संख्या में गैर कथात्मक फिल्में निर्मित कर रहा था . पचास के दशक तक दूरदर्शन अस्तित्व में नहीं आया था इसलिए सिनेमा घरों में मुख्य कथा फिल्म को दिखाने से पहले फिल्म्स डिविज़न की इन फिल्मों को देखने का खासा रोमांच भी था . लेकिन इन सब अच्छी बातों के अलावा एक दिक्कत वाली बात दस्तावेजी फिल्मों की इस व्यवस्था में थी . चूंकि सारी व्यवस्था सरकारी थी इसलिए इस संस्थान से गैर सरकारी घटनाओं और प्रवृतियों को दर्ज करने का साहस फिल्म्स डिविज़न में न था . फिल्म्स डिविज़न राष्ट्र निर्माण के काम को तो अपने कैमरे से बिना रुके अंजाम दे रहा था लेकिन किसी भी तरह की प्रतिरोधीय अभिव्यक्ति को दर्ज करने का साहस फिल्म्स डिविज़न की नीतियों में न था .  पचास का दशक बीतते –बीतते जैसे – जैसे इस राष्ट्र निर्माण से लोगों का मोहभंग हुआ वैसे –वैसे इसकी छवियों से भी वे उकताने लगे . लेकिन खुद दस्तावेजी फिल्मों के विकास के लिए अब देर हो चुकी थी . फिल्म्स डिविज़न के विशाल साम्राज्य और इस विधा के स्वतंत्र निर्माण के बनने के कारण असल का भारतीय दस्तावेजी सिनेमा अभी दूर की कौड़ी था . कुछ दशकों के बाद फिल्म्स डिविज़न के निर्माण की तीव्रता भी कम हुई और न्यूज़ की छवियों के लिए अब सरकारी दूरदर्शन ज्यादा भरोसे का साधन साबित हुआ .
 आनंद पटवर्धन की फ़िल्म सक्रियता के मायने
 दस्तावेजी फिल्मों की स्वतंत्र यात्रा दरअसल 1974 में जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन को आनंद पटवर्धन द्वारा दर्ज करने से शुरू होती है . भारतीय सिनेमा में पहली बार व्यवस्थित तरीके से कोई फ़िल्मकार सरकारी सच की अवेलहना कर दूसरे सचों को दर्ज करने की कोशिश शुरू कर रहा था . संपूर्ण क्रान्ति पर आनंद का यह दस्तावेज ‘क्रांति की तरंगों ‘ के नाम से जाना गया और भारतीय सिने इतिहास में मेल का पत्थर बना. 1974  से शुरू करके 2013 तक आनंद ने अपने स्वतंत्र प्रयासों से साम्प्रदायिकता , युद्ध विरोध , दलित राजनीति , मानवाधिकार , पित्र सत्ता आदि विषयों पर छोटी –बड़ी 16 फिल्में बनायी. आनंद इसलिए महत्वपूर्ण फ़िल्मकार नहीं है कि उन्होंने मौजूं विषयों पर 16 फिल्में बनायी बल्कि उनका काम इसलिए भी खास है क्योंकि उन्होंने हिन्दुस्तान में दस्तावेजी फिल्मों के दर्शक बनाने का काम भी किया. वे अपनी फिल्मों के साथ दूरदराज के इलाकों में घूमे भी और आम लोगों को कुछ नए सचों से वाकिफ करवाया . अपनी इसी चिंता की वजह से उन्होंने न सिर्फ अपनी फिल्मों के लिए स्वतंत्र वितरण तंत्र विकसित किया बल्कि लगभग हर फिल्म के राष्ट्रीय नेटवर्क पर प्रसारण के  लिए भारत सरकार से कानूनी लड़ाई जीती और अपनी फिल्मों की प्रसार संख्या बढ़ाने में सफल हुए. भारतीय दस्तावेजी फ़िल्म के इतिहास में आनंद का योगदान इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उनके द्वारा कालेजो और यूनिवर्सिटी में अपनी फ़िल्म दिखाने के कारण नए फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी तैयार हुई जो उनके शुरू हुए काम को बखूबी आगे बढ़ा रही है . यह सच है कि आनंद के काम से हिन्दुस्तान में स्वतंत्र दस्तावेजी फिल्मों की शुरुआत हुई लेकिन वस्तुनिष्ट तरीके से जांच करने पर पता चलता है कि संख्या की दृष्टि से फीचर फिल्मों की तुलना में यह काम इतना छोटा था कि आम जनमानस पर उसका कोई निर्णायक प्रभाव नहीं पढ़ सका . हालांकि इस मूल्यांकन के बावजूद हम आनंद पटवर्धन के काम के महत्व को कम नहीं आंकते हैं क्योंकि नई तकनीक के आने के बाद जो काम नई शताब्दी में शुरू हुआ उसकी जडें तो हम आनंद के काम में ही पायेंगे .  नई तकनीक की सवारी पर प्रतिरोध की नई अभिव्यक्ति 1974 से लेकर 1995 तक तकनीक में तेजी से बदलाव हुए. सिनेमा अब सेलुलाइड के महंगे माध्यम के अलावा वीडियो में भी बनने लगा. शादी की रिकार्डिंग के लिए इस्तेमाल होने वाले वी एच एस जैसे प्रारम्भिक वीडियो फोरमैट से भी रांची के अखड़ा समूह ने अपनी प्रारम्भिक फिल्में बनाई जिन्होंने हिन्दुस्तानी दस्तावेजी सिनेमा में एक ख़ास पहचान बनायी है . 1990 तक दस्तावेजी सिनेमा का काम फ़िल्म के अपेक्षाकृत सस्ते माध्यम 16 एम एम में होता था. हालांकि यह माध्यम कथा फिल्मों के लिए प्रचलित 35 एम एम माध्यम से लगभग आधे खर्च में सम्पन्न होता लेकिन वीडियो के मुकाबले फिर भी काफी महंगा था . इस माध्यम की एक ख़ास दिक्कत यह थी कि फिल्मों के प्रिंट की प्रति बनाने में खासा पैसा लगता और इस कारण भी कई बार किसी बहुत महत्वपूर्ण फिल्म के एक से ज्यादा प्रिंट न बन पाते . इस वजह से फ़िल्म की स्क्रीनिंग एक साथ कई जगहों पर सम्पन्न न हो पाती. इस बात को अगर हम हिसाब किताब की नज़र से देखें तो बात एकदम साफ़ समझ में आएगी . 1995  तक 1 घंटे की फ़िल्म के डुप्लीकेट प्रिंट की कीमत 20 से 22 हजार रुपये की थी जबकि इसके उलट इतनी ही अवधि के वी एच एस कैसेट 100 रुपये में तैयार हो जाते. थोड़ा और समय बीतने पर मास्टर डीवीडी की डुप्लीकेट डीवीडी 20 रुपये तक में तैयार होने लगी. 1995 के बाद तकनीक में हुए इस बदलाव की वजह से अब किसी फ़िल्म को किसी छोटी पूँजी से बनाए जाने के बावजूद उसकी 500 प्रतियां बनाना एकदम संभव हो गया . शायद यही वजह है कि अस्सी और नब्बे  के दशक की तमाम महत्वपूर्ण दस्तावेजी फिल्में जैसे कि ‘बाबू लाल भुइयां की कुर्बानी’ , ‘वायसेस फ्रॉम बलियापाल’ , ‘हमारा शहर’, ‘समथिंग लाइक अ वार’ , ‘हमारा शहर’ , ‘राम के नाम’ और ‘कमलाबाई’ 1995 के बाद वी एच एस कैसेट  और फिर डीवीडी में रूपांतरित होकर अपनी नई यात्रा पर निकली. न सिर्फ दस्तावेजी फिल्में आसानी से सस्ती लागत में पुनरुत्पादित होने लगी बल्कि विश्व सिनेमा का एक बड़ा जखीरा भी इस सस्ती डुप्लीकेट तकनीक के कारण पायरेसी के रास्ते हर सिने प्रेमी के पास पहुँचने लगा. इस वजह से नए फिल्म फेस्टिवल और नए सिने आयोजक तैयार हुए और मुख्यधारा के कथा सिनेमा के बरक्स गैर कथा फिल्मों का एक नया वृत्त बनना शुरू हुआ.
 नयी तकनीक ने सबसे जरुरी  काम फिल्म निर्माण में लगने वाली लागत को कम करके किया. अब फ़िल्म बनाना सांस्थानिक काम न होकर किसी अकेले व्यक्ति के लिए भी संभव था . शायद यही वजह है कि पिछली शताब्दी समाप्त होते – होते जिस काम को आनंद पटवर्धन , दीपा धनराज , निलीता वाच्छानी , शशि आनंद , मीरा दीवान , रीना मोहन , रंजन पालित , वसुधा जोशी , संजय काक सरीखे चुनिन्दा फिल्मकार कर रहे थे उस मुहिम में अब नए फिल्मकारों की एक बड़ी सूची जुड़ गयी . अहम बात यह है कि इस सूची में अब सिर्फ फ़िल्म संस्थान और मीडिया स्कूल से निकले विद्यार्थी ही नहीं थे बल्कि ओडिशा, झारखंड, केरल, तमिलनाडु के दूरदराज क्षेत्र में काम कर रहे आदिवासी और एक्टिविस्ट कार्यकर्ता भी शामिल थे . तकनीक के इस बदलाव ने न सिर्फ फ़िल्म निर्माण आसान किया बल्कि फ़िल्म को दिखाना भी अब एक बहुत आसान प्रक्रिया थी . फ़िल्म स्क्रीनिंग अब बड़े फ़िल्म प्रोजक्टरों और फिल्म रील के कैन से बाहर निकलकर सस्ते छोटे एल सी डी  प्रोजक्टरों और डीवीडी के पतले चक्कों में सिमट गयी . स्क्रीनिंग का तामझाम अब बड़ी गाड़ियों से उतरकर सिने एक्टिविस्टों के कंधे पर टंगे झोले में समाने लगा .
   सेंसर से मुक्त जमाने में नया सिनेमाई माहौल
       यहाँ गौरतलब है कि नई शताब्दी में एक ओर नई आर्थिक नीतियों के चलते जहां हर रोज जन आन्दोलन शुरू हुए वहीं सरकारी मीडिया और निजी मीडिया दिन ब दिन जन विरोधी होता गया . ऐसे समय में नयी तकनीक की मदद से तैयार हो रहा नया भारतीय दस्तावेजी सिनेमा अपनी सार्थकता सिद्ध करने में कामयाब रहा. पहले जब स्क्रीनिंग के लिए कुछ चुनिन्दा सरकारी फिल्म फेस्टिवल और चैनल ही उपलब्ध थे और  किसी भी फ़िल्म को स्क्रीनिंग के लिए सेंसर की अनिवार्य प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था . यह अनिवार्य प्रक्रिया कई असुविधाजनक कृतियों को डिब्बाबंद करने में बहुत कारगर साबित होती थी लेकिन अब जबकि तकनीक की उपलब्धता की वजह से असंख्य छोटे – बड़े फेस्टिवल वजूद में आ चुके हैं किसी भी जरुरी कृति को सेंसर करना लगभग असंभव हो गया है . संजय काक की कश्मीर में आजादी के मायने खोजती दस्तावेजी फ़िल्म जश्न-ए-आज़ादी के वितरण को समझाना नए सिनेमाई माहौल को समझने में खासी मदद करेगा. इस फ़िल्म की कश्मीर घाटी में फिल्मकार द्वारा कम से कम 500 डीवीडी बेची गयी और फिल्मकार के अनुमान के द्वारा इन डीवीडी की कम से कम 2500  पाइरेटेड प्रतियां वहां लोगों ने बनाई . इस तरह कश्मीर की आज़ादी का एक स्वतंत्र पहलू इन 3000 डीवीडी के जरिये लोगों तक जगह बना सका . कुछ ऐसा ही मामला मणिपुर में लगाए गए काले कानून AFSPA 1958 और उसपर बनी विभिन्न दस्तावेजी फिल्मों के जरिये हुआ . आज भी कथा फिल्मों की तुलना में दस्तावेजी फिल्मों के प्रदर्शन और वितरण के लिए शुक्रवार रिलीज़ जैसी  कोई स्वतंत्र व्यवस्था तैयार न हो सकी है. लेकिन पिछले कई दशकों की तुलना में आज का समय दस्तावेजी फिल्मों के लिए सबसे बेहतर है जब वे न सिर्फ स्वतंत्र तरीके से निर्मित हो पा रही हैं बल्कि तकनीक और दृढ़ संकल्पों की वजह से अपने समय के सच की लौ को जिलाए हुए भी हैं .   

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1.      Cinema and I : Ritwik Ghatak published by Ritwik Ghatak Memorial Trust
आभार : इस लेख को लिखने में लेखक को प्रतिरोध का सिनेमा अभियान के अब तक हुए 38 फिल्म फेस्टिवलों , उनमे दिखाई गयीं दस्तावेजी फिल्मों और उसमे शामिल फिल्मकारों से की गयी बहसों का लाभ मिला है . इसके लिए लेखक इन सबका आभारी है .
संजय जोशी
      स्वतंत्र फिल्मकार और प्रतिरोध का सिनेमा अभियान के राष्ट्रीय संयोजक .

 

      thegroup.jsm@gmail.com / 9811577426           .             

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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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