सिनेमा

हिंदी सिनेमा में भूमंडलीकरण, वैकल्पिक संस्कृति और स्त्री

‘आजा नच ले’ 
                                       -सुधा सिंह
 
आजा नच ले माधुरी दीक्षित नेने की हिंदी सिनेमा में पुनर्वापसी वाली फिल्म थी। विवाह के बाद माधुरी ने सक्रिय फिल्मी कैरियर से खुद को अलग कर लिया था। सात साल के अंतराल के बाद माधुरी ने हिन्दी सिनेमा में पुनः वापसी इस फिल्म से की। आदित्य चोपड़ा के निर्देशन में बनी इस फिल्म को यशराज फिल्म्स के बैनर तले रिलीज किया गया था। यह फिल्म 2007 में रिलीज हुई थी। इस फिल्म में बेहतरीन कलाकारों की भरमार है जो छोटी-छोटी भूमिकाओं में अपनी छाप छोड़ते हैं।
फिल्म के निर्माता आदित्य चोपड़ा और निर्देशक अनिल मेहता हैं। पटकथा जयदीप साहनी की है। हिंदी सिनेमा के इतिहास में यह फिल्म कई लिहाज से महत्वपूर्ण और चर्चा के लायक है। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस की दृष्टि से असफल फिल्म थी और प्रायः सिनेमा समीक्षकों और दर्शकों ने इस फिल्म को माधुरी दीक्षित की पुनर्वापसी की फिल्म के रूप में ही लिया। ज्यादा चर्चा माधुरी के सिनेमाई सौंदर्य और प्रभाव को लेकर ही हुई। वे कितनी बड़ी दीख रही हैं, कहाँ कहाँ से उनकी उम्र झलक रही है, इसी तरह के स्टीरियोटाइप चर्चे सुनने-पढ़ने में आए।
हिंदी सिनेमा में एक बड़ा परिवर्तन तब घटित होता है जब वह पौराणिक देवी-देवताओं और धार्मिक कहानियों से बाहर निकल आता है। इसके बाद वह मुड़कर पौराणिक विषयवस्तु को नहीं देखता। पौराणिक श्रृंखला की अंतिम सफल फिल्म थी जय संतोषी माँ। हिंदी सिनेमा की मूल विशेषता है कि इसमें समसामयिक ज्वलंत मुद्दे हमेशा से चित्रण के केन्द्र में रहे हैं। इसके कारण सिनेमा वर्तमान जगत के साथ अपना संवाद बनाए रखता है। वर्तमान की समस्याओं पर फिल्म बनाना, वर्तमान की कहानी कहना, चित्रित करना हिंदी सिनेमा की खासियत बन गई। स्थिति यह है कि वर्तमान से काटकर हिंदी सिनेमा की बात नहीं की जा सकती। एक तरफ वर्तमान केन्द्रिकता और दूसरी तरफ उसके ट्रीटमेंट के स्तर पर उससे गंभीर पलायन-ये हिंदी सिनेमा के दो छोर हैं। हिंदी सिनेमा में यथार्थ के साथ ट्रीटमेंट की स्थिति को देखते हुए प्रसिद्ध सिनेमा समीक्षक फ़िरोज़ रंगूनवाला टिप्पणी करते हैं, व्यावसायिक फिल्में, जो मूलतः बॉक्स ऑफिस को देखकर बनती हैं, जो अपने विषय के जरिए कोई महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं पैदा करती और दर्शक में भावनाओं का उन्माद पैदा करने तक चुक जाती है। प्रायः सभी एशियाई देशों में जहाँ दर्शक इस बुनियादी समझ के साथ फिल्म देखना आरंभ करते हैं कि ये फिल्में यथार्थ से परे पूरी तरह गप्प हैं अथवा इनमें अतिरंजकता है। इसलिए वे विषय को गंभीरता से नहीं लेते अगर वह पड़ोसी देश से पिछले युद्ध की कहानी हो तब भी नहीं।[1]
बहुत कम ऐसी हिंदी फिल्में बनी हैं जिनमें वर्तमान में मौजूद समस्या या संवृत्ति पर बात की गई हो और उसके ट्रीटमेंट के स्तर तक इस बात को संभाले रखा गया हो। रेमण्ड विलियम्स के शब्दों में, यथार्थवाद को समझने का संकट तब और गहरा हो जाता है जब हम पाते हैं कि कला और साहित्य में यथार्थवाद एक पद्धति और सामान्य व्यवहार दोनों है।[2]सिनेमा में मोटे तौर पर दो स्कूल हैं-एक उन फिल्म निर्माताओं का स्कूल है जो यथार्थवादी समस्या के औचित्यपूर्ण और विवेकवादी प्रस्तुतिकरण पर जोर देते रहे हैं वहीं दूसरा स्कूल बाज़ार की मांग-पूर्ति के आधार पर मेलोड्रामा की पद्धतियों का इस्तेमाल करता रहा है। यह एक विडंबना है कि जिस समाज में सबसे अधिक समस्याएं हों और लोगों के पास समस्याओं के समाधान कम-से-कम हों वहाँ यथार्थवादी फिल्म-परंपरा हाशिए पर रहती है और मेलोड्रामा की परंपरा वर्चस्व बनाए रखती है। 90 के दशक के बाद हिंदी मेलोड्रामा फिल्मों में यथार्थ के विवेकवादी ट्रीटमेंट की मांग बढ़ती गई है। सच यह या किसी भी कला रूप से यथार्थ के हू-ब-हू चित्रण की मांग नहीं की जा सकती। सिनेमा का यथार्थ सिनेमाई यथार्थ ही होगा। जो उसके अपने फॉरमेट और ट्रीटमेंट की परंपराओं में ही रच-बस कर आएगा। सिनेमा का बुनियादी लक्ष्य मनोरंजन है और मनोरंजन की मांग और मनोरंजन का मानवाधिकार के रूप में विकास की मांग बढ़ती जाती है। मनोरंजन को पहले की तरह अतिरंजित और गैर-यथार्थवादी, असंबद्ध ढंग से देखने की बजाए यथार्थ और संबंद्ध तरीक़े से देखने के रवैय्ये का विकास हुआ है। भारतीय कला विशेषकर हिंदी सिनेमा के दर्शकों में एक बड़ा वर्ग सुखांत परंपरा से जुड़ा रहा है। इसी कारण वे फिल्में ज़्यादा पसंद की गई और चली जहाँ यथार्थ, मेलोड्रामा और सुखांत के बीच संतुलन बनाए रखने की कोशिश की गई। फिल्म अध्ययन का महत्वपूर्ण क्षेत्र जिसमें मेलोड्रामा और यथार्थवाद के संबंधों का विश्लेषण किया जाए, अभी भी पर्याप्त अध्ययन से वंचित है।[3] हिंदी में वे फिल्में कम पसंद की गईं जो तनाव के फ्रेमवर्क में बनाई गईं। भारतीय दर्शक का मनोसंसार आशावादी-यथार्थवादी-संभावनाशील अंत, जिसे समाधान कह सकते हैं की मांग करता है।
यह संयोग नहीं है कि 1990 के दशक के बाद हिंदी फिल्मों के बड़े निर्माता-निर्देशकों की फिल्मों में कुछ नए थीम उभरकर आते हैं जो उन विषयों के पहले के प्रोजेक्शन से कई मायनों में अलग हैं। राष्ट्रवाद की थीम पुरानी पड़ जाती है। कहानी का आधार यूनिलेयर के बजाए मल्टीलेयर की ओर बढ़ता है। एक साथ कई अंतर्विरोधी स्थितियों पर फिल्में आती हैं। नायक कब खलनायक में बदलता है और कब खलनायक नायक बन जाता है इस प्रक्रिया में पारदर्शिता और तरलता दोनों दिखाई देते हैं। नायिका और वैंप का अंतर मिटता है। अब अलग से हास्य के लिए अभिनेता की जरूरत नहीं होती बल्कि नायक और अन्य चरित्र मिलकर यह काम निबटा लेते हैं। अलग से हास्य कलाकारों की भूमिका बड़े पर्दे से छोटे पर्दे पर शिफ़्ट हो जाती है। कहानी के परिवेश में भी बड़ा बदलाव दिखाई देता है। अब नायक या नायिका की केवल विदेश में पढ़ाई कर वापस आने की सूचना नहीं होती बल्कि विदेशी परिवेश को केन्द्रित करके कहानी लिखी जाती है। विदेश को ब्लैक एंड व्हाइट के कंट्रास्ट में चित्रित न करके चित्रण में एक सहजता और दोस्ताना व्यवहार दिखाई देता है। एक ऐसी पीढ़ी के युवा दिखाई देते हैं जो विदेश में हैं, प्रवासी हैं पर देश उनसे छूटा नहीं है। उन्हें देश से प्यार है, वे देश के लिए कुछ करने की इच्छा रखते हैं। यानि विदेश पर आधारित फिल्मों की थीम में एक स्मूथनेस है, इसके रफ-एजेज़ को घिसकर सहिष्णु बना दिया गया है और राष्ट्रवाद की सीमाएं यहाँ घुलती नज़र आती हैं।
दूसरी तरफ यही वह दौर है जब प्रांतीयता, क्षेत्रीय समस्याओं को केन्द्र करके फिल्में बनती हैं और सफल होती हैं। छोटे-छोटे बजट की ऐसी दर्जनों फिल्में बनी हैं जिसमें हिन्दी बेल्ट के अलग-अलग प्रांतों की स्थानीय समस्याओं को केन्द्र में रखा गया है। क्षेत्रीय अस्मिताओं के अलावा अन्य अस्मिताओं विशेषकर स्त्री अस्मिता पर कई महत्वपूर्ण फिल्में बनी हैं। अल्पसंख्यकों का मुद्दा राष्ट्रवादी कलेवर में बार बार घिसकर पुराना हो गया है। लेकिन दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यकों में मुस्लिम अस्मिता से इतर अस्मिताओं का चित्रण अभी हिंदी फिल्मों में मुद्दा नहीं बना है। स्त्री की संघर्षशील, जुझारू छवि की हिंदी सिनेमा में कमी नहीं है। पहले भी इस तरह की फिल्में बनती रही हैं जिसमें स्त्री की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। मदर इंडिया[4] जैसी फिल्मों को छोड़ भी दें और केवल हिट रूमानी फिल्मों को ध्यान में रखें तो एक कोमल छुई-मुई-सी लड़की अपने प्रेम को पाने के लिए तमाम पितृसत्ताक बंधनों को काटने के लिए तत्पर होती है। प्रेम को पाने के लिए सभी ख़तरों से खेल जाना और जूझना यह भी कम बड़ी बात नहीं है। लेकिन इस तरह की फिल्मों के इफ़रात में उदाहरण मौजूद होने के बाद भी इन फिल्मों से स्त्री की अस्मिता के चित्रण में मदद नहीं मिलती। इसके कारण हैं क्योंकि स्त्री के लिए प्रेम करने का अपने आप में क्रांतिकारी मूल्य होने के बावजूद भी प्रेम का सारा सेट-अप सामंती है। वह घटित होकर स्त्री के लिए कोई नया परिवर्तनकामी विकल्प नहीं देता बल्कि परिवार और समाज की पुरानी संस्थाओं को पुख़्ता करता है। वफा, समर्पण, क़ुर्बानी जैसे मूल्य प्रेम में घटित होकर स्त्री के लिए स्वायत्त संसार का निर्माण नहीं करते। दिलचस्प बात यह है कि स्त्री की इस प्रेमिका वाली क्रांतिकारी छवि से पुराने सामाजिक मूल्यों को बहुत दूर तक कोई चुनौती नहीं मिलती। न ही स्त्री के पास नए बनते समाज में किसी भी तरह से घुसकर उसका विकल्प या काट प्रस्तुत करने की गुंजाइश बन पाती है।
आजा नच ले फिल्म इन सब दृष्टियों से बहुत उद्बुद्ध करनेवाली फिल्म साबित होती है। इसमें नई समस्या है जिसका आज के समय के साथ गहरा संबंध बनता है। एक नई व्यवस्था है जो पूँजीवाद से आगे की समस्याएं सामने रख रहा है, उसका एक रचनात्मक विकल्प है और इन सबके केन्द्र में है औरत। विकल्प व्यवस्था नहीं दे रही बल्कि उसी व्यवस्था में पली-बढ़ी और उसे जी रही एक औरत दे रही है। राजनीति की भूमिका है पर वह आम हिंदी फिल्मों की तरह उग्र-आक्रामक राजनीति नहीं है। राजनीति की भूमिका प्रच्छन्न या साइलेंट है। सकारात्मक राजनीति है, सहयोगी क़ानून व्यवस्था है। दोनों संस्थाओं की क्रूरताएँ और छल-छद्म ख़त्म नहीं हुए पर जो फिल्म में आक्रामक नहीं हैं।
अक्सर प्रवासी भारतीयों पर बनी फिल्मों में एक खास किस्म की आदर्शवादिता से काम चलाया जाता है। इस फिल्म में भी उसकी एक झलक है। नायिका विदेश में बस गई है और एक नृत्य स्कूल चलाती है। एक सूचना पर कि उसके गुरू मकरन्द (दर्शन जरीवाला) मरणासन्न हैं और उसे मिलने बुलाया है-वह अपनी 7-8 साल की बच्ची के साथ भारत आती है। गुरू की मृत्यु और उसकी रंगशाला अजंता को बचा लेने की इच्छा के साथ उसका संघर्ष शुरू होता है। वे तमाम अंतर्विरोधी और संघर्षपूर्ण स्थितियाँ जिन्हें वह अपने छोटे-से क़स्बे शामली में दफ़नकर विदेश चली जाती है, उसकी वापसी के साथ ही पुनः जीवित हो उठते हैं।
इस फिल्म का एक संवाद है-कला को शहर की नहीं, शहर को कला की जरूरत होती है। इस संवाद में अर्थ की कई तहें छिपी हुई हैं। शहर के बनने और नष्ट होने पर बहुत शोध हुए हैं। कई पुस्तकें हैं जो शहर के फैलने यानि बनने की प्रक्रिया को समझाने के लिए लिखी गई हैं पर कलात्मक रचना के तौर पर यह अकेली फिल्म सारी पोथियों पर भारी पड़ती है। शहर का बनना केवल नागरिक की आमदनी में इजाफा, आधुनिक तकनीकी सुख-सुविधाओं के आगमन, जीवनशैली में परिवर्तन, बड़े बड़े शॉपिंग सेंटर और मॉल के खुलने और उनसे जुड़े नगरीय सुविधाओं की मौजूदगी से नहीं होता। शहर कोई भौगोलिक-आर्थिक इकाई भर नहीं है बल्कि शहर सांस्कृतिक और कलात्मक इकाई भी होता है। शहर की पहचान सुविधाओं से नहीं कला से बनती है। कला जो शहर की जिंदगी में रची-बसी होती है और जिंदगी की डोर स्त्री के हाथों सुरक्षित होती है। कलाओं से स्त्री का गहरा नाता है- निर्माण के स्तर पर भी और अनुकरण के स्तर पर भी!
ध्यान रहे कि भारत एशिया में पहला ऐसा देश था जिसने सन् 1965 में कांडला में पहला एक्सपोर्ट प्रोसेसिंग ज़ोन[5] स्थापित किया ताकि ज्यादा से ज्यादा विदेशी निवेश आकर्षित किया सके। इसके लिए ज़मीन और अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर लगभग मुफ़्त उपलब्ध करवाना, नियंत्रणों में भारी कमी आदि अनेक सुविधाएं मुहैय्या करवाई गईं। सन् 2000 में विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज़) प्रावधान किया गया। जिसके तहत पूँजीपतियों के लिए सस्ते सरकारी कर्ज़, कई सालों तक किसी प्रकार का कोई टैक्स नहीं, सस्ते दरों पर बिजली-पानी-जमीन, श्रम क़ानून में परिवर्तन आदि किए गए। गुजरात ऐसा पहला राज्य बना जहाँ सन् 2004 में श्रम क़ानून में परिवर्तन करके सेज़ क्षेत्रों में महज एक महीने की नोटिस पर किसी भी मज़दूर को मालिक द्वारा निकालने का प्रावधान किया गया ताकि औद्योगिक विकास में किसी तरह की बाधा न पहुँचे।[6]इस तरह से पूरा देश, सन् 2000 के बाद से विकास के नए मॉडल से रू-ब-रू हुआ। सेज़ के प्रोजेक्ट का कई राज्यों में किसानों और मज़दूरों द्वारा जमकर विरोध भी हुआ। सिंगूर और नंदीग्राम की घटना आज इतिहास है। यह जानना दिलचस्प होगा कि सिंगूर और नंदीग्राम की घटना के घटित होने और इस फिल्म के निर्माण का काल एक ही है!
सन् 2000 के बाद  भारत में विकास का मुद्दा और पहचान बाँध, पुल या उड़ानपुल न होकर बड़े-बड़े हाउसिंग प्रोजेक्ट, मॉल और मल्टीप्लेक्स थे। देश के कई प्रांतों में बड़े पैमाने पर कारखानों को घाटे में चलता दिखाकर तालाबंदी हुई और उन्हें पुनः खोलने का कोई उपक्रम पूँजीपति की तरफ से नहीं किया गया। बल्कि उन कारखानों की जमीन पर बड़े-बड़े हाउसिंग प्रोजेक्ट, शॉपिंग सेंटर और मॉल बन गए। यह केवल भारत की स्थिति नहीं है। उत्तर पूँजीवादी दौर में यह अमेरिका और यूरोपीय देशों में घटित हुआ और उन्होंने आर्थिक मंदी का भयावह दौर झेला जिसका असर विकासशील देशों पर भी पड़ा और आज पुराने सोवियत संघ के विभिन्न देशों में यही स्थिति घटित हो रही है। कला, ज्ञान-विज्ञान के तमाम केन्द्र लाभ के केन्द्रों में बदले जा रहे हैं, उन्हें पूँजीपतियों को बेचा जा रहा है। निजीकरण और लाभ के गणित में सिर्फ वे ही कलाएं जीवित रहेंगी जो इन दायरों के अंदर रहकर विकास करने को तैयार होंगी।
शिक्षा और कलाओं के केन्द्र सिर्फ ज्ञान के पुनरुत्पादन के केन्द्र ही नहीं होते बल्कि ये प्रतिरोध, विकल्प और संभावनाओं के भी केन्द्र होते हैं। इस कारण इनकी स्वतंत्रता और सीमाहीनता सत्ता केन्द्रों में भय पैदा करती है। इन्हें पंगु बनाना, विचार और प्रतिरोध की संभावनाओं को श्रीहत कर देना सत्ता केन्द्रों का उद्देश्य होता है। नवउदारवाद के दौर में सबके लिए विकास के नाम पर तीसरी दुनिया के देशों में बड़े पैमाने पर सांस्कृतिक तबाही मचाई गई। विकास की विभिन्न मंजिलों को पार किए बिना उन्हें सीधे उपभोक्तावाद के पाएदान पर खड़ा कर दिया गया। ऐसा करते हुए उन्हें कला और संस्कृति से विहीन बनाया जाना पहला उद्देश्य था।
आश्चर्य होता अगर इतने ज्वलंत विषय पर हिंदी सिनेमा चुप रहता। सुभाष घई की व्यावसायिक तौर पर हिट फिल्म ताल इस समस्या के एक पहलू को छूती है। लेकिन आजा नच ले फिल्म में इस विषय को ज्यादा स्पष्टता के साथ सामने रखा गया है। कलाओं और संस्कृतियों के संरक्षण का जिम्मा सदियों से समाज ने स्त्री पर डाले रखा है। इसके सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष दोनों हैं। समाज द्वारा कला-संस्कृति और स्त्री को एक-दूसरे का पर्यायवाची बना देने पर जहाँ मौत स्त्री की होती है वहीं अगर स्त्री अपने दम-ख़म पर कला-संस्कृति की रक्षा का बीड़ा उठाती है तो वह अपनी पहचान को बृहत्तर स्तर पर स्थापित करती है साथ ही व्यवस्था का विकल्प भी प्रस्तुत करती है।
इस फिल्म में कई बड़े और छोटे यथार्थ की संरचनाएं शामिल हैं। एक बड़ा यथार्थ है किनायिका दिया(माधुरी) का कस्बा शामली है। वह वहीं बड़ी हुई है और नृत्य का अध्ययन किया है। वहीं उसकी सखी-सहेलियां हैं, नाते-रिश्तेदार हैं, वहीं उसने मानवीय संबंधों को सहेजा है, वहीं उसे एक विदेशी फोटोग्राफर से विवाह के स्वतंत्र निर्णय और फिर बाद में संबंध-विच्छेद के कारण लोकापवाद भी मिला है। वह इस जगह के रग-रेशे से परिचित है और लड़की होने के कारण इस जगह के लोगों के ताने-तिश्नों से वाकिफ है। लेकिन उसकी बेटी राधा (दलाई) का कस्बा शामली नहीं है। वह अमेरिका में पैदा हुई है, उसकी मनोदशा का निर्माण भी वहीं हुआ है। अतः गोबर, गंदगी, मच्छर और पीने का सामान्य पानी, निजी जीवन में ताक-झांक और सामान्य बर्ताव में अपारदर्शिता उसके मानसिक छंद को भंग करते हैं। वह परेशान होती है और लौट जाना चाहती है। लेकिन इन सबको झेलकर भी सशक्त, आत्मनिर्भर स्त्री दिया, पलायन नहीं करती। वह अपनी पहचान को कला के जिंदा रहने की पहचान से एकमेक कर लेती है और इससे एक बड़ी चीज निर्मित होती है। फिल्म में जहाँ अजंता थिएटर बच जाता है, जिंदा हो उठता है वहीं जाती तौर पर माधुरी लोक निंदा और आलोचना पर पार पा लेती है। यह अपने से बाहरी तत्वों से लड़ाई है और अपने भीतरी तत्वों से भी। व्यवस्था से लड़ाई है और अपने लोगों से भी। संस्कृति की रक्षा का सवाल है और संस्कृति की पुनर्व्याख्या का भी जिसमें एक स्त्री की अपनी मर्जी से जिंदगी जीने को उच्छृखंलता और अनैतिकता कहा जाता है।
सवाल है कि संस्कृति की रक्षा की जरूरत आज के समय में क्यों पड़ रही है? क्या इस पर कोई ख़तरा है? जबकि गीत-संगीत, मेंहदी, जन्म, विवाह-संस्कार जनसंस्कृति का हिस्सा बने हुए हैं और इन्हें केन्द्र में रखकर बनी फिल्में सफलता का पैमाना मानी जाती हैं। वास्तव में ख़तरा कई तरफ से है। पहला ख़तरा शहरी मध्यवर्ग की मानसिकता में है कि वह अपनी स्थानीय संस्कृति और उसके विविध रूपों से विहीन होता जा रहा है। भारत के सुंदर प्रदेशों की तरफ निकल जाइए आपको संस्कृतिविहीनता का नमूना क़दम-क़दम पर मिल जाएगा। क्या हिंदी प्रदेश हों क्या पहाड़ी प्रदेश- संस्कृतिरहितता और उजड़ी हुई आधुनिकता का अद्भुत संगम दिखाई देते हैं। दूसरा ख़तरा है कि संस्कृति के आचार और संस्कारपरक रूपों का ठेका तो स्त्री को दे दिया गया है लेकिन उसके कला, ज्ञान और व्यवहारपरक रूपों से दूरी बनाए रखने की ताक़ीद की जाती है। दिया की सबसे अच्छी सहेली नज़्मा (दिव्या दत्ता) को उसका शौहर फार्रूख़ (इमरान खान) नाटक और थिएटर से दूर रहने की सलाह देता है। दिया के निजी जीवन के निर्णय से उसके प्रति लोगों की घृणा का एक बड़ा कारण उसका कलाकार होना, एक कलाकार से विवाह करना और विवाह न चल पाने की स्थिति में विवाह-विच्छेद भी है। तीसरा ख़तरा पूँजीवाद के उपभोक्तावादी सांस्कृतिक रूप से है जो स्थानीय कला और संस्कृति की हत्या करके ही पनप सकता है। एक सार्वभौम आस्वाद विकसित करने के लिए जरूरी है कि स्थानीय आस्वाद की हत्या कर दी जाए!
इस फिल्म में दमन, नियंत्रण और वर्चस्व के जितने स्तर हैं उतने ही प्रतिरोध, मुक्ति और संघर्ष के भी। पहले स्वयं की मुक्ति फिर संस्कृति की मुक्ति की लड़ाई है। लेकिन इस तरह की लड़ाई की चुनौतियां एक-एक कर नहीं आतीं बल्कि एक साथ ही एक समाज में मौजूद होती हैं। उनसे जूझने और मुक्त होने की कोशिशें भी वहीं पनपती हैं। फिल्म के पहले हिस्से में दिया की मुक्ति और इच्छा के प्रश्न महत्वपूर्ण हैं तो दूसरे हिस्से में समाज और संस्कृति की मुक्ति के। पहले हिस्से के आरंभिक दृश्य में ही जब दिया की बेटी राधा प्रश्न करती है कि वह व्यक्ति कौन है जिसके लिए वे भारत जा रहे हैं तो दिया का जवाब होता है कि वह वही व्यक्ति है जिसने उसकी माँ कोनाचना और जीना सिखाया!’शामली में दिया और नज़्मा के परिवारवालों के लिए लड़कियों की नृत्य-शिक्षा विवाह के पहले उन्हें भीख में दी गई स्वतंत्रता जैसी चीज है जिसका पटाक्षेप उनके विवाह से होना था। दिया अपनी माँ से तर्क करती हुई कहती है कि खुद तो रेडियो टीवी पर लता के गाने सुनती रहती हैं और बेटी नाचे तो बकवासी!” इसी तरह नज़्मा के घऱवाले उसे अजंता जाने से रोकते हुए कहते हैं कि  “जब देखो नाच-गाने की आवाजें आती हैं अजंता से, पता नहीं वहाँ क्या चलता होगा ? ”  प्रतिरोध में दिया का जवाब होता है, नाच-गाने की आवाजें आती हैं तो नाच-गाना ही चलता होगा न!”
स्त्री के मात्र एक अपने फ़ैसले से अन्य सारे मानवीय सामाजिक संबंध पुनर्परिभाषित होते हैं। दिया के एक विदेशी फोटोग्राफर स्टीव के साथ विवाह के निर्णय पर उसके परिवार और समाज वाले खिलाफ हो जाते हैं। एकमात्र उसके नृत्यगुरु उसकी प्रतिभा और भावना की कद्र करते हुए कहते हैं-तू दुनिया के इशारों पर नहीं अपने दिल की धड़कनों पर नाचने के लिए पैदा हुई है, फैला अपने पंखों को और उड़ जा!” दिया के इस निर्णय में शामिल होने के कारण नृत्यगुरु को भी इस लोकापवाद का भागी बनना पड़ता है। लोग अपने बच्चे-बच्चियों को अजंता नहीं भेजते कि कहीं दूसरी दिया न बन जाए। लेकिन गुरु के इस वाक्य में कि वो क्या बनेंगे तेरे जैसा!”– दिया के व्यक्तित्व की मज़बूतियाँ छिपी हुई हैं। इसी कारण वे अपनी असमर्थता जताते हुए दिया से कहते हैं कि हम बहुत रोए, गिड़गिड़ाए, लेकिन हमलोगों की कौन सुनेगा? तू बचा ले, तू बचा सकती है, अजंता को डूबने से बचा ले!”
अपनी लड़ाई लड़ते हुए, अपने स्वतंत्र निर्णय के लिए दिया को पलायन करना पड़ा, देश छोड़ना पड़ा था। उसके माँ-बाप को भी पलायन कर शहर छोड़ना पड़ा था। लेकिन पहचान की लड़ाई पलायन से नहीं लड़ी जा सकती। दिया को वापस लौटना ही था। वह लौटी पर इस बार उस सारे तथाकथित कलंक और स्वयं के अपमान की लड़ाई को एक बड़ी लड़ाई से जोड़कर लड़ने के लिए! वह कहती है, मैं जानती हूँ कि आपलोगों की मेरे बारे में क्या राय है, लेकिन यह मेरे बारे में नहीं, यह (अजंता की रक्षा) एक लड़ाई है जो शामली को एक साथ लड़नी है।
पूँजीवाद पेट की लड़ाई और उपभोग की संस्कृति पर जोर देता है। वह मनुष्य को आदिम अवस्था में पहुँचाने का उपक्रम है जहाँ आहार, निद्रा, मैथुन पर ही उसकी आवश्यकताएं ख़त्म हो जाएं। वह मनुष्य की सामुदायिकता और सद्भाव पर हमला करता है। उसे निरंतर तनाव, इर्ष्या और अस्वस्थ स्पर्द्धा में रखता है। जहाँ स्वस्थ आनंद और सामूहिकता बोध की जगह ख़त्म हो जाती है। इस फिल्म का मुख्य गीत आ जा, सबको भुला के नच ले, सामूहिक जीवन और मन की इसी उन्मन अवस्था को संबोधित है। फिल्म का यह गीत जातिवाचक संज्ञा-प्रयोग के कारण विवाद से भी घिरी और कई राज्यों में इस पर प्रतिबंध लगाया गया। बाद में गाने की पंक्ति से जातिसूचक शबेद निकाल दिए गए। लेकिन यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह देखना कि कलाएँ विशेषकर नृत्य मन और शरीर दोनों को उन्मुक्त करती हैं। जब तक उन्मुक्त नहीं होंगे, नृत्य में शामिल नहीं हो सकते।कलाएं मनुष्य की संभावनाशील इच्छाओं के प्रकटीकरण का माध्यम हैं। यह विरेचक भी हैं। दबी हुई प्रतिभा और इच्छाओं को कलाएं जितनी सफाई से मूर्त करती  और कोई चीज नहीं करती। वह मनुष्य के सच्चे आनंद, दुख-सुख की साथी होती हैं। फिल्म के एक अन्य गीत तेरी खूबियाँ, तेरी खूबियाँ, लूट लेंगी हमें तेरी खूबियाँ, शो मी योर जलवा..”, इस को बखूबी स्पष्ट करता है। नृत्य-संगीत प्रधान इस फिल्म की जान हैं इसके खूबसूरत संवाद और विषयानुकूल गीत!
इस फिल्म में एक दृश्य है जो मि. चोजर (विनय पाठक) और मिसेज चोजर (सुस्मिता मुखर्जी) पर फिल्माया गया है। कसे हुए संवादों के साथ इसमें पितृसत्ता की धज्जियाँ उड़ाई गई हैं जो स्त्री को निजी संपत्ति और निजी प्रतिष्ठा की वस्तु भर मानता है। उसकी इच्छा और रुचि के प्रश्न गौण हो जाते हैं। यहाँ तक कि उसकी सामान्य हरकतों को भी नियंत्रित करने की कोशिश की जाती है। दृश्य इस प्रकार है-
मि. चोजर- आई एम ए रिस्पॉन्सिबल गवर्मेंट ऑफिसर! अगर मेरी बीवी ड्रामा खेलेगी तो मेरी क्या इज्जत रह जाएगी?”
मिसेज चोजर –  “…इस घर में केवल दो लोग रहते हैं ये और इनकी इज्ज़त!”
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मि. चोजर- आज आपकी वजह सेमेरी वाइफ ने पहली बार मेरे इंस्ट्रकशन्स मानने से इंकार किया! आज दस साल में पहली बार ये बात सबके सामने निकल आई कि मेरी शादी में सब कुछ ठीक नहीं है!”
          इसी तरह का एक और चरित्र है नज़्मा का। वह दिया के बचपन की सहेली है। दिया के लौटकर शामली आने पर वह उसका चाहते हुए भी दिल से स्वागत नहीं कर पाती क्योंकि उसके पति को दिया का चाल-चलन अच्छा नहीं लगता। इसमें उसकी अपनी सोच की कोई भूमिका नहीं है। नाच, जो उसकी जिंदगी थी शादी के बाद उससे छूट गया है। वह एक पैसेवाले बिजनेसमैन की बीवी है। वह अपनी और दिया की जिंदगी का मूल्यांकन करते हुए कहती है…….. क्योंकि दिया तू हमेशा से ही बहादुर रही है और मैं डरपोक! मैंने अपनी सारी जिंदगी किसी और का दिल जीतने में झोंक दी। उसका दिल जो पहले ही अपना दिल बिज़नेस को दे चुका था! लेकिन जब मुझे यह बात पता चली न तो मेरे दिल से डर जा चुका था। बहुत साल हो गए नाचे हुए, जिए हुए भी बहुत साल हो गए! मुझे एक बार फिर नाचना सिखा दे, मुझे एक बार फिर जीना सिखा दे!”
राजनीति के माहिर चौधरी ओम सिंह (अखिलेन्द्र मिश्रा) जब अजंता को नाच-गाने का अड्डा कहते हैं तो दिया अपनी मंशा और लड़ाई स्पष्ट कर देती है। वह कहती है, नाच-गाने का अड्डा नहीं चौधरी साहब, नृत्य, संगीत और संस्कृति! हमारे देश की पूँजी! इस पूँजी को तोड़कर अब लोगों को बहकाने के लिए यहाँ दूकानें बनेंगी! शॉपिंग मॉल बनेंगे! वो भी सरकारी ज़मीन पर! संस्कृति पर हमला हो रहा है और आप देख रहे हैं चौधरी साहब!”
    कट्टरतावादियों के द्वारा जिस देसी संस्कृति के नाम की दुहाई दे कर नृत्य-संगीत को विदेशी बताया जाता है, पश्चिमी और अपसंस्कृति कहकर खारिज किया जाता है, लोगों को उससे दूर रखने की भूमिका बांधी जाती है, फिल्म में उसे लोगों की सामूहिक जिंदगी की धड़कन के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। फिल्म का एक चरित्र इमरान पठान जो आगे चलकर मजनूँ की भूमिका करता है, दिया से कहता है- अमेरिका से नाच-गाने का कल्चर उठा के लाई हो ना तुम, वह यहाँ नहीं चलेगा। दिया का जवाब संस्कृति की राजनीति का काट प्रस्तुत करता है। वह कहती है- अमेरिका से कौन मनहूस लाया है? वो तो अमेरिका यहाँ से ले गई थी। अमेरिका में कहाँ मिलते हैं ऐसे मजनूँ!”
    इसी तरह बिज़नेसमैन फ़ार्रूख से पैसे लेकर अजंता की रक्षा के सवाल पर यू-टर्न ले चुके राजनीतिज्ञ चौधरी ओम सिंह के आरोप कि नाच-गाने के बहाने शहर की युवा पीढ़ी को बर्बाद कर रहे हो, के जवाब में दिया स्पष्ट कर देती है- ये ड्रामा नहीं जिंदगी है चौधरी साहब!”
          पूरी फिल्म में स्त्री और संस्कृति पर पितृसत्ता और वैश्विक पूँजी से उद्भूत संस्कृति के हमले चित्रित हैं। वैश्विक पूँजी अपने स्वार्थी चरित्र के कारण हमला करने में सामंती-पितृसत्ताक हथियारों का इस्तेमाल स्त्री के खिलाफ करने से नहीं चूकता। स्त्री की शुचिता और उसका चरित्र इस तरह के असभ्य हमले के केन्द्र में होते हैं। बिज़नेसमैन फार्रूख़ अपने फ़ायदे के लिए अपनी पत्नी नज़्मा का इस्तेमाल करता है। नज़्मा के मुँह से वह दिया के चरित्र के खिलाफ दुष्प्रचार करवाना चाहता है ताकि सब कुछ प्रामाणिक लगे क्योंकि नज़्मा दिया की बचपन की सहेली है। नज़्मा की हिचकिचाहट भरे शब्दों को स्पष्टता देते हुए वह दिया के बारे में ज़हर उगलता है। पत्नी से जोर देकर वह कहता है कि वह सभी को बताए कि दिया कैसी स्त्री है? वह कहता है- क्या हैं वो, कलाकार हैं या कुछ और हैं?”..“कलाकार आज़ाद ख़याल के होते हैं और ये कुछ ज़्यादा आज़ाद ख़याल की हैं। पहले किसी अंग्रेज़ के साथ कुछ हुआ और उसके बाद माँ-बाप को बताए बिना भाग गईं।
          फिल्म का जोर स्त्री और संस्कृति को प्रतिष्ठा दिलाना है, इंसानी प्यार को प्रतिष्ठा दिलाना है, जो सबसे ऊपर है। प्यार क्या है- यह जानना महत्वपूर्ण है। भूंमडलीय संस्कृति में प्यार मूर्खता है जैसा कि दिया की किशोरी बेटीराधा, लैला-मजनूँ के बारे में अपनी राय रखते हुए कहती है। यह वह पीढ़ी है जो भूमंडलीकरण के व्यवहारिक उपयोगितावादी दौर में पैदा हुई है। इसका पिछली पीढ़ी से जबर्दस्त अंतर्विरोध है। यह पीढ़ी पारदर्शी है, स्पष्टवादी है, अपने स्वार्थों और लक्ष्यों को पहचानती है। फार्रूख़ के इस सवाल पर कि हस्बैंड?” दिया अचकचा जाती है पर राधा नहीं। वह कहती है-दे डिवोर्स्ड। दिया के यह पूछने पर कि ऐसा क्या था दोनों (लैला-मजनूँ) के प्यार में जिससे आज भी जमाना दोनों को याद करता है? कोई जवाब दे सकता है?” राधा कहती है- आई थिंक दे वेयर रियली डम्ब! आई मीन, हू गिव्ज़ देयर लाइफ फॉर समवन एल्स दीज़ डेज़?”लेकिनप्यार में असफल रही दिया कहती है, रॉन्ग, आज भी लोग प्यार में जान देते हैं, अगर प्यार वैसा हो तो।
    फिल्म में बहुत ही प्रच्छन्न तरीक़े से प्रेम, विवाह, स्त्री-पुरुष संबंध आदि को व्याख्यायित किया गया है। प्रेम को देह के फ्रेम से बाहर ईश्वरीय वरदान बताया गया है। प्रेम की सबसे बड़ी पैरोकार दिया है जो स्वयं प्रेम करती है, विवाह करती है और विवाह विच्छेद भी होता है। पर मनुष्य के प्रेम पर से उसका विश्वास नहीं उठता। दूसरी तरफ मोहन है जो दिया से प्रेम करता है, विवाह करना चाहता था पर असफल रहता है और आजीवन उस प्रेम को जिंदा रखता है। एक और जोड़ा इमरान(कुणाल कपूर)और अनोखी(कोंकणा सेन शर्मा) का है जो नहीं जानता कि प्यार क्या है, पर प्यार कर बैठा है। इस फिल्म में स्त्री-पुरुष का प्रेम जितना पात्रों के जरिए पर्दे पर चित्रित है उतना ही गीतों और संवादों के माध्यम से उसे उदात्ता दी गई है। फिल्म के एक गीत ये इश्क़ इश्क़ है इश्क़ इश्क़ में एक बंद आता है- जो नहीं चढ़ी कांधे कहार की, राधा मीरा की डोली है/ ना ग़ालिब मोमिन की जुबान, ना इंसानी य़े दास्तान, ऊपर से आई बोली है!” जो प्रेम की अनिवार्य परिणति विवाह में मानते हैं उनके लिए फिल्म का संदेश है कि प्रेम किसी तरह के बंधन का मोहताज नहीं।
    फिल्म में अजंता को बचाने के लिए राजा उदय सिंह (अक्षय खन्ना) की चुनौती दिया स्वीकार करती है कि वह दो महीने के अंदर शामली के लोगों से ही अजंता में एक सफल आयोजन करवाएगी। इस शर्त को पूरा करने के क्रम में नृत्य-नाटिका लैला-मजनूँ के मंचन के दौरान बड़ी खूबसूरती से फिल्ममें घटित होनेवाले हाव-भाव कादर्शक के की भावनाओं और संवेदनाओं के साथ कैसे साधारणीकरण होता है, इस प्रक्रिया को दिखाया गया है। हिंदी फिल्मों की लोकप्रियता का यह बड़ा कारण है। दर्शक अपने को नायक-नायिका के भावों के साथ जोड़ लेता है और उसके सुख-दुख, राग-विराग से एकमेक होकर हँसने-रोने और खुश होने लगता है। वह खुद को पर्दे पर स्थानांतरित कर लेता है और आनंद का अनुभव करता है। इस भाव के कई दृश्य लैला-मजनूँ नृत्य-नाटिका के गीत इस पल मैं हूँ या तुम… में देखा जा सकता है। पुरानी कथावस्तु को कैसे नया रंग और अर्थ दिया जा सकता है जो आज के बदलते यथार्थ को संबोधित करता हो, यह इस नृत्य-नाटिका के एक संवाददृश्य मेंदेखा जा सकता है। लैला की बहस अपने भाई तबरेज़ से हो रही है जो मजनूँ से उसके प्रेमसंबंध पर नाराज है और लैला को स्त्री की मर्यादा का पाठ पढ़ाता है। भाई तबरेज़ को लगता है बहन लैला हिमाकत कर रही है। संवाद इस प्रकार हैं-  तेरी हिम्मत!
नहीं ताक़त!
तू है दया की पुतली, बस्स!
 पर ना हूँ हया की पुतली, बस्स!”
          यह नृत्य नाटिका इस नोट पर खत्म होती है कि बिना प्यार के किसी भी चीज का कोई अर्थ नहीं रह जाता। किसी भी धर्म को मानने से पहले प्यार की सत्ता को स्वीकारना होगा।
ब्रह्मज्ञान को मानों या गीता के ज्ञान को मानों,
बाइबिल कुरान को मानों या गुरुग्रंथ महान को मानों,
लेकिन बिना प्यार के मानोगे तो थक जाओगे,
यार, प्यार को मानों, पहले प्यार भरी इंसानी जुबान को मानों!”
    शहरी विकास की सार्थकता तब है जब वह सामूहिक रूप में मिलकर हंसी-खुशी के साथ शहर जिंदा रहे। कला वह सार्वजनिक क्षेत्र निर्मित करती है जिसमें सामूहिक सरोकार बनते हैं। लोगों का अलगाव कम होता है। एक-दूसरे के सुख-दुख में भागीदारी का भाव बढ़ता है। एक बॉण्ड बनता है। कला का केन्द्र है सामूहिकता। कला का जन्म ही साझे श्रम से होता है, यह साझे अनुभवों की साझी पूँजी होती है। किसी एक मल्टीनेशनल की इजारेदारी नहीं। भूमंडलीय पूँजी के बाई-प्रोडक्ट के रूप में उद्भूत पूँजीवादी कला विविधता और सामूहिकता में नहीं एकरूपता और एकाकीपन में विश्वास जताती है। फिल्म में नवउद्भूत संस्कृति का प्रतिरोध है। शामली शहर कला के सामूहिक भाव को ज़िंदा रखने में सफल होता है। सभी मिलकर उसे ज़िंदा रखते हैं। फिल्म में नए क़िस्म के पब्लिक स्फीयर का जन्म हो रहा है, कंज्यूमरिज़्म के जरिए नहीं रचनात्मक आनंद के सृजन के जरिए।
सुधा सिंह : एसोशिएट प्रोफेसर, मीडिया एंड जर्नलिज़्म, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-7 

 

 


[1] रंगूनवाला, फ़िरोज़, द सांग एंड डांस फॉरमेट विल एन्श्योर इट्स नेवर टेकेन सीरियसली, टाइम्स ऑफ इंडिया, 29 जून 1977. 

 

 

[2] विलियम्स, रेमणड, की वर्ड्स, लंदन, फोन्टाना, 1988, पृ.260
[3]विस्तृत जानकारी के लिए देखिए, ग्लेडहिल, क्रिस्टीन(सं), होम इज़व्हेयर द हर्ट इज़ःस्टडीज इन मेलोड्राम एंड द वीमेन्स फिल्म, लंदन, ब्रिटिश फिल्म इंस्टीट्यूट,1987
[4]मदर इंडिया, निर्देशक, महबूब, 1957
[5]http://www.sezindia.nic.in/index.asp
[6]http://www.wikiwand.com/en/Special_economic_zone

samved

साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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