समीक्षासिनेमा

आदिवासी चेतना की प्रथम पुकार ‘मृगया’ फ़िल्म के संदर्भ में

 

साहित्य समाज को समरस बनाने का संकल्प लेकर चलता है। प्रत्येक भाषा और समाज के साहित्य की अपनी विशिष्टाएँ होती हैं,  आदिवासी विमर्श के संदर्भ में आदिवासी साहित्य की बात करें तो यह उतना ही पुराना है जितना आदिवासी समुदाय और संस्कृति किन्तु वह मौखिक ‘पुरोधा’ के रूप में संरक्षित है तथा आदिवासी भाषाओं में भाषाओं में होने के कारण,  समृद्ध परम्परा के बावजूद मुख्यधारा के साहित्य में प्रविष्टि नहीं पा सका। आदिवासी साहित्य और विमर्श का आरम्भ हम दलित विमर्श के बाद 1980-85 के आसपास महाराष्ट्र में प्रस्फुटित होता हुआ देखतें है जिसका प्रसार आज पूरे भारत में है। भौगोलिकीकरण के तंत्रजाल में विविध अत्याचारों,  शोषण,  नक्सलवाद आरोपों चक्रव्यूह के उत्पीड़न आदि के साथ-साथ शिक्षा,  बाहरी लोगों का संपर्क,  देश की नई उदारवादी आर्थिक नीतियों ने सन 1991 के बाद इनके प्रतिरोध को अधिकप्रखरबनाया जिसे लोगों ने चिह्नित भी किया।

साहित्य की भांति सिनेमा भी समाज की सोच को रूपायित करता है लेकिन आरम्भ से ही मनोरंजन और व्यावसायिकता का आग्रह फिल्म उद्योग पर हावी रही है दर्शक भी सिनेमा टाइम पास,  मनोरंजन के लिए जाता है दर्शकों की इसी मनोवृति का बहाना बनाकर फिल्मकार यथार्थ से दूर ही रहे। यदि आदिवासी जीवन की बात की जाए तो उनके विषय में फिल्मकारों की सोच अत्यन्त तुच्छ है। फिल्मों के आरंभिक सफ़र से आदिवासियों को उसमें शामिल ही नहीं किया गया जहाँ हैं भी वहाँ भी बिना किसी शोध या जानकारी के उन्हें बर्बर, जंगली, अज्ञानी अन्धविश्वासी बलि लेने वाले के रूप में अथवा आइटम गीतों में पत्ते लपेटे,  भाषा के नाम पर हूलालाबोलते हुए,  बचकानी हरकते करते हए दिखया जाता रहा है जोकि इनके साथ अन्याय है वास्तविकता को समझे बगैर मुनाफे हेतु इनकी संस्कृति और सभ्यता का अत्यन्त विकृत रूप प्रस्तुत किया जाता रहा है। लेकिन मृणाल सेन ने न केवल फ़िल्म के प्रस्तुतिकरण में आमूलचूल परिवर्तन किया अपितु उनका क्रांतिकारी कदम फिल्म उद्योग में व्यावसायिक सिनेमा से टक्कर लेता है और कला /समानांतर सिनेमा की शुरुआत करता है। जहाँ वे न केवल आदिवासी जीवन का गंभीरता से यथार्थ चित्रण करते हैं बल्कि से सिनेमा में समाज में निहित अन्याय, शोषण उत्पीड़ित समाज की पुकार के लिए एक मार्ग प्रशस्त करते हैं।

6 जून 1976 मृणाल सेन द्वारा निर्देशित फिल्म मृगया आदिवासी जीवन की पृष्ठभूमि पर बनी एक बेहतरीन फिल्म है यह कहानी उड़िया लेखक भगवती चरण पाणीग्रही की कहानी शिकार का सिनेमांतरण है। भगवती जी मार्क्सवादी साहित्य के प्रवर्तक के रूप में जाने जाते हैं, तो मृणाल सेन भी कम्युनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक विभाग से जुड़े,  पर कभी सदस्य नहीं रहे,  वे भी सिनेमा में मार्क्सवादी कलाकार के रूप में जाने जाते हैं। अपनी कहानियों में उन्होंने सामजिक अन्याय और अत्याचार के विरोध में उपजे घनीभूत विद्रोह को सहज भाव से प्रस्तुत किया है। शिकारी न केवल ओडिया बल्कि सम्पूर्ण भारतीय साहित्य का एक अनमोल रत्न है यह कहानी आदिवासी शोषण के खिलाफ संथाली आदिवासी परिदृश्य को व्यक्त करती है। कई सालों तक संघर्ष के बाद मिथुन चक्रवर्ती को मिला था ए-ग्रेड एक्टर का  सामाजिक दर्जा | ePicturePlus

घुनिया एक आदिवासी संथाल है जो अपने समुदाय को जंगली जानवरों से बचाने के लिए शिकार करता है ‘उसने अनगिनत हिरन, साम्भर, वराह, भालू दो बाघ का भी शिकार किया था, जिसके लिए उसे डिप्टी कमीशनर के हाथों इनाम भी मिलागोविन्द सरदार को मारने के बाद उसे लगता है कि उसे विशेष इनाम बख्शीश मिलेगीक्योंकि झटप सिंह (फिल्म में शोल्पू अंग्रेज सरकार का विद्रोही ) का सर कलम करने पर डोरा को साहब से 500 रूपये की बक्शीश मिली थी झपटसिंह तो बहुत अच्छा आदमी था …लेकिन गोविन्द सरकार सामान्य आदमी नहीं था हमेशा उसके हाथ में बन्दूक रहती थी बाघ, भालू की अपेक्षा लोग उससे ज्यादा डरते थे, बाघ भालू की अपेक्षा वह ज्यादा नुकसान करता था… वह बहुत ही खूंखार आदमी था उसे मारने के लिए घिनुआ को ज्यादा बख्शीश मिलनी चाहिए”1 (गद्य कोश)

घिनुआ नहीं जनता था कि अच्छा आदमी अगर सत्ता की गलत नीतियों का विरोध करे तो अपराधी घोषित हो जाता है और सत्ता से मिला हुआ गोविन्द सरदार यदि सत्ता के संरक्षण में रहकर लोगों पर अत्याचार करता है, उनकी जमीन जायदाद लूट लेता है औरतों की इज्ज़त लूट लेता है मनमानी करता है तो उसे मारने वाले को अपराधी मानकर प्राणदंड दिया जायेगा वह तो प्राणदंड का अर्थ भी नहीं जनता था “वह समझ नहीं पा रहा था, क़ानून की दृष्टि में एक गुनाह तो दूसरा गौरव की बात है वह ठाहर आदिवासी संथाल”(गद्य कोश) घिनुआ के सच्चाई और उसके बयां पर सब हंस रहे थे वह जज के सामने वह आपने शिकार का पूरा विवरण देने लगा कि कैसे उसने गोविन्द सरदार का शिकार किया है“दूसरों को लूट लूटकर उसने इतनी संपत्ति अर्जित की थीबड़ा ही शैतान आदमी था वह! पता नही कितने मासूम लोगों को मौत की घात उतारा था उसने! कितने परिवारों को बर्बाद किया था था! कितनी औरतों की आबरू लूटी थी !  उनकी जमीन जायदाद भी उसने आपने नाम कर ली थीउस दिन शाम को वह घिनुआ की औरत के साथ दुराचार करने आया था उसने भूजाली से उसका सर काट दिया” (गद्य कोश) और वह मासूम कानून के इस सूक्ष्म जाल को समझ नहीं पा रहा था। यहाँ तक की जब फांसी से पहले उसकी अन्तिम इच्छा पूछी जाती है तो वह कहता है “मेरी बख्शीश”!!

किसी भी साहित्यिक रचना पर जब फिल्म बनाई जाती है तो रचना को अधिक विस्तार मिल जाता है तथा उसकी आवाज़ अधिक मुखर हो जाती है। मूल कहानी जो कि 1930 के भारतीय परिवेश से जुड़ी कई फिल्म उसे 1857 की क्रांति से पूर्व 1850 के आसपास ले जाती है जहाँ सिदो और कान्हू के नेतृत्व में स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी इसी सभा में यह घोषणा कर दी गयी कि वे अब मालगुजारी नहीं देंगे। इसके बाद अंग्रेजों ने इन चारों भाइयों को गिरफ्तार करने का आदेश दिया परंतु जिस पुलिस दरोगा को वहाँ भेजा गया था संथालियों ने उसकी गर्दन काट कर हत्या कर दी। इस दौरान सरकारी अधिकारियों में भी इस आन्दोलन को लेकर भय प्राप्त हो गया था लेकिन विश्वस्त साथियों को पैसे का लालच देकर सिद्धू और कान्हू को भी गिरफ्तार कर लिया गया और फिर 26 जुलाई को दोनों भाइयों को भगनाडीह गाँव में खुलेआम एक पेड़ पर टांगकर फांसी की सजा दे दी गयी।  (मीडिया विजिल)

फिल्म में भी डोरा नामक खल पात्र विद्रोही शोल्पू को धोखे से मार देता है। मृणाल सेन मानते हैं कि मनोरंजन से परे भी फिल्मों का समाज के प्रति दायित्व व योगदान होना चाहिए। साहित्यिक कथा को समय के किसी भी कलेवर से जोड़ सकते हैं यदि उसकी आत्मा को न छेड़ा जाये। ’शिकार’ कहानी और फिल्म ‘मृगया’ दोनो की आत्मा एक है-बिना किसी लाग लपेट के आदिवासी जीवन संघर्ष और विद्रोह को पूरी ईमानदारी और यथार्थ की पृष्ठभूमि में अंकित करना,  आदिवासी समुदाय का सरल सहज जीवन के चित्रांकन के साथ साथ हर पल के उनके संघर्ष जो जंगल के जानवरों के साथ साथ महाजनी सभ्यता में विकसित गोविन्द सरदार जैसे खूंखार जानवरों से भी मुकाबला कर रहे हैं। फिल्म आदिवासी जीवन तथा उसके संघर्ष वास्तविकता को बड़ी ही सहजता के साथ आम जनता तक पहुंचाती है।  Bollywood's Mrigayaa (The Royal Hunt) brought aspiring dreams to the global  audience

‘मृगया-“रॉयल हंट” जिसे फिल्म में “बड़ा शिकार” कहा गया है अपने आप में बहुत ही अर्थपूर्ण है। शिकार आदिवासी जीवन का अभिन्न अंग है जो सीधे तौर पर उनकी शिकार संस्कृति को अभिव्यक्त कर रहा है। हँसिया,  हथौड़ा हल, कुदाल,  खुरपी आदि आदिवासियों के औजार हैं जो जरूरत पड़ने पर हथियार भी बन जाते है। जंगली जानवरों का शिकार वो आत्मरक्षा के लिए करता है,  तो आत्मसम्मान के लिए सत्ता से भी संघर्ष और विद्रोह करता है, आदिवासी का संघर्ष ताउम्र चलता है। किसी भी बाहरी तत्त्व से उसकासंघर्ष शोषण और दमन के खिलाफ विद्रोह उसकी अस्तित्व को बचने कायुद्ध ही है। फिल्म के नायक घुनिया द्वारा गोविन्द सरदार महाजन को मारना इसी सन्दर्भ को अभिव्यक्ति देता है। क्योंकि उनकी सरल निष्कपट जीवन-शैली को कोई भी क्रूरता व अमानुषिक ढंग से कुचलेगा तो सभ्य माने जाने वाला मनुष्य को जो कि खूंखार जानवर से ज्यादा खतरनाक व चालक है,  उसका शिकार करना उसके लिए अन्तिम विकल्प होगा।

जैसे कि पहले बताया कि फिल्म 1857 के विद्रोह से पूर्व 1855 में हुए संथाल आदिवासियों के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ‘हूल’ को पृष्ठभूमि में प्रस्तुत करती चलती है जो उनकी गौरव गाथा का इतिहास बताती है “हूलसंथाली आदिवासी शब्द है जिसका अर्थ होता है क्रांति/ आन्दोलन यानी शोषण,  अत्याचार और अन्याय के खिलाफ उठी बुलंद आवाजइतिहासकार संथाल-विद्रोहमानते रहे हैंजबकि सच तो यह है कि यह कोई विद्रोह या आन्दोलन नहीं था,  बल्कि यह ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ युद्ध थाइसे समझने के लिए युद्ध और विद्रोह के बीच फर्क को समझना होगाविद्रोह किसी भी सत्ता से असंतुष्ट जनआन्दोलन को कहा जा सकता है,  जबकि युद्ध दो सत्ताओं के बीच अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए होता है और संथाल हुलसंथालों द्वारा अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ युद्ध था। ” (मीडिया विजिल)

फिल्म की बात हम आरंभ से ना करके अंत से करेंगे जोकि अत्यन्त प्रेरणाप्रद है। मृगया का अंत THE END से नहीं होता बल्कि एक पंक्ति जो अंग्रेजी व हिंदी में चलती रहती है – “STAND UP, STAND UP, ,  REMEMBER THE MARTYES, WHO LOVED LIFE AND FREEDOM……..” “शहीदों की याद में, जिन्हें प्यारी थी ज़िन्दगी और आज़ादी” ये वे आदिवासीशहीद हैं जिन्हें विस्मृत कर दिया गया और इतिहास के पन्नों पर जिनकी उपस्थित दर्ज न हो सकी। सीधू,  कान्हू के रूप में वस्तुत: शोल्पू,  व गुनिया हैंहमारी चेतना जाग्रत कर रहे हैं, आदिवासियों के संघर्ष के साथ आज भी अपने अस्तित्व और अस्मिता के लिए युद्धरत है। “पता नहीं क्यों भारतीय आजादी के इस महान संघर्ष एवं इस विद्रोह के बिगुल को बजाने वाले एवं इन्हें संचालित करनेवाले महान स्वतन्त्रता सेनानियों के सम्बन्ध में हमारे इतिहासकार राजनैतिज्ञ और यहाँ तक की सामान्य जनता भी मौन क्यों है? जनजाति चेतना और स्थानीय प्रभुत्व के कारण पांच – सात वर्ष पूर्व भागलपुर विश्वविद्यालय का नाम बदलकर सिदो – कान्हू विश्वविद्यालय कर दिया गया हौएक दो स्थानों पर उनकी प्रतिमा भी सुसज्जित कर दिया गया हैपरन्तु आज आवश्यकता इस बात की है कि संथाल जनजाति के महान देशप्रेमियों ने 1857 से भी पूर्व जो एक अदम्य साहस और देशभक्ति का परिचय दिया,  उसकी जानकारी सभी लोगों को मिले। ” (मीडिया विजिल)

आज भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है आज पूंजीवादी परिवेश में इनके संघर्ष को विद्रोह बल्कि देशद्रोह के रूप में प्रचारित किया जा रहा है इनके प्रति नकारत्मक रवैया अपनाया जाता है नक्सलवाद के नाम पर आदिवासियों पर अत्याचार किया जाता है उनकी औरतों के साथ दुर्व्यवहार होता है सत्ता की हाँ में हाँ मिलाओ तो ठीक अन्यथा आप देशद्रोही है क्योंकि आप देश के विकास में बाधक है। 1793 ई. में अंग्रेज लार्ड कार्नवालिस ने एक ऐसा स्थायी व्यवस्था लागू की जिसने किसानों को कमजोर और जमींदारों को शक्तिशाली बना दिया वे अंग्रेजों के हित में ही काम करते थे फिल्म का गोविन्द सरकार महाजनी संकृति का प्रतीक है जिसका अंत होना चाहिए लेकिन वो सत्ता के संरक्षण में हैं। ’दमनीकोह’ इलाके को संथालों ने अपने श्रम से रहने व कृषि योग्य बनाया पर सरकार की बुरी नज़र के कारण वे यहाँ लगान वसूलने आ गये, और जमींदारों, साहूकारों का वर्चस्व बढता गया पुलिस के अत्याचार बढ़ने, और इन्हें गुलाम बना दिया गया।  

जल, जंगल और जमीन के लिए संघर्ष करने वाले विदेशी सत्ता के विरुद्ध युद्ध का बिगुल बजने वाले इन वीरों को षड्यंत्र के तहत इतिहास के बाहर क्र दिया गया ताकि इनका वर्चस्व कायम रहे और ये भी प्रकृति का मनमाना दोहन कर सकें। मृगया आदिवासियों द्वारा लड़ी गयी स्वदेश की लड़ाई से हम सबकी पहचान करवाती है, उनके संघर्षो का वास्तविक परिचय देती है, उनकी सामजिक राजनितिक समस्याओं से हमारा सामना करवाती है। फिल्म हमें उस परिवेश से जोड़ती है जो आदिवासी समाज अंग्रेजो की साम्राज्यवादी नीतियों व् ज़मीदारी व्यवस्था से ट्रस्ट हो शोषण के ख़िलाफ़विद्रोह की आवाज़ उठा रहा था।  Mrigayaa' (1976)

मृगया फिल्म के सन्दर्भ मे सिधु व कनु दो सगे भाइयों की क्रांति का किस्सा गाँव के मुखिया द्वारा सामने आता है। फिल्म का मुखिया बताता है कि ये तब की बात है जब उसका भी जन्म नहीं हुआ था नहीं उसके पिता का ये कथा उसने अपने दादा के मुहं से सुनी थी “उस बेला मे सिधु –कनु दो सगे भाई जिन्होंने संथालो का दल बाँधा, तब शांत मानो शांत नहीं रहा, तब जाग उठा वीरों मे पौरुष, जंगल- जंगल, पहाड़-पहाड़ चारो ओर एक ही नारा एक ही यद्ध ; युद्ध ज़मीदार महाजन के साथ ;युद्ध अंग्रज़ सरकार के साथ

संथाल आदिवासियों का अपनी अस्मिता और अस्तित्व के लिए संघर्ष बहुत पहले शुरू हो चुका था, सत्ता भले ही उस युद्ध को महत्व न दे लेकिन उनके वंशज नहीं भूले बल्कि आज भी आत्मसम्मान के लिए उस इतिहास से प्रेरित हो संघर्ष कर रहें हैं कारण इन आदिवासियों पर ज़मीदार महाजनों व् अंग्रेजो ने मिलकर इनका शोषण किया जल जंगल और जमीन जो इनका पुश्तैनी अधिकार था उस पर कब्ज़ा किया इनकी स्त्रियों को अपनी हवस का शिकार बनाया। आज भी विकास के नाम पर इनको इनकी सांस्कृतिक धरोहरों से वंचित किया जा रहा है।

मृगया संथाल आदिवासियों के संघर्ष को कई स्तरों पर दर्शाती है। एक तरफ प्रकृतिक पारिवेशिक बनसूअर, बाघ अन्य जंगली जानवरों का आतंक तो दूसरी तरफ मानव निर्मित महाजनों जमीदारो व् ब्रिटिशों का अमानवीय अत्याचार जो खूंखार जानवरों से ज्यादा खतरनाक,  धूर्त व् चालाक हैं। शोषण से त्रस्त ये आदिवासी दबी कुचली सहमी ज़िन्दगी जीने को विवश है। इसके साथ ही फिल्म आदिवासी जीवन शैली की लगभग सभी विशेषताओ को बिना किसी फ़िल्मी फार्मूले व प्रयोग के स्वाभाविक रूप मे सामने रखती है। जैसे सामूहिकता, सहभागिता, प्रकृति के साथ अभिन्न लगाव परिश्रमी स्वाभाव स्त्री के प्रति समान सम्मान का भाव।

फिल्म का आरम्भ बन सुअरों के हमले से होता है गाँव वाले एकजुट होकर उन को भागने के लिए सारी रात चिल्लाते है ढोल आदि पीटते है लेकिन जंगली सुअरों के झुण्ड फसलो को बर्बाद कर जाते है। गाँव की एकजुटता, सहभागिता से जो खेत बच गये है उन पर भी गोबिंद सरदार की पैनी नज़र है। सारी रात हल्ला मचाने के बाद, सुबह पूरा गाँव फसलो की बर्बादी का मातम बना रहा है नायिका डूंगरी के पिता मंगरा का तो पूरा खेत तबाह हो गया हालांकि नए दृश्य की शुरुआत मे गाँव की महिलाएं दैनिक दिनचर्या के घरेलु कामकाज, बुआई पिसाई,  आदि मे व्यस्त दिखाई जाती है। पृष्ठभूमि मे गीत चल रहा है “अड़े पहाड़ तो तोड़े पहाड़”। दृश्य व गीत प्रतीकात्मक है, जो आदिवासियों की जिजीविषा को रेखांकित करता है कि कितनी ही कठिनाई आये आगे बढ़ना ही जीवन है। मुखिया के संवाद कथा को गति देते है –

गाँव वाला -“तंग आ गये रोज़ रोज़ के इन हमलो से”

गुनिया –“जो गया सो गयाअब आगे की सोचो”

मुखिया-“एक मेरे सोचे से क्या होता है सारे एक साथ सोचे तो”

गाँव वाला-“महाजन कुछ न सुनेगा –सब छीन ले जायेगा

बनैले सुअरों की आफत के बाद जीवन पटरी पर आ भी जाये तो भी गोबिंद सरदार महाजन की क्रूरता से कैसे बचा जायेगा –“जैसा जानवर वैसा महाजन, हमारी सुनेगा कौन? दोनों बर्बाद करने पर तुले है”बर्बाद आदिवासियों को बंधुआ मजदूर बनाकर महाजन उनकी ज़मीन हथिया लेगा। और उनकी बहु बेटियों का भी शोषण करेगा। एक दृश्य मे कुछ महिलाएं पानी भरकर जा रही है तभी महाजन की पालकी आती है, उनके कदम तेज़ हो जाते है मानो उसकी परछाई भी ना पड़े, पालकी गुजरने के बाद एक महिला शून्य में घूरती हुई कहती है –“मै इसे जानती हूँ, गोबिंद सरदार महाजनमैं लकड़ी बेचने हाट गयी थी, इसके लठैत मुझे उठाकर इसकी कोठी मे ला गये मेरी इज्ज़त लूटी मुझे कांच की चूड़ी दी नयी साड़ी दी” यह संवाद एक तरफ आदिवासी स्त्रियों के दर्द को बयां करता है तो दूसरी तरफ महाजन के चरित्र की संवेदनहीनता को।

उसके अत्याचार की कोई सीमा नहीं वह जब चाहे जिसका चाहे उपभोग कर सकता है। वह डूंगरी (नायिका घुनिया की पत्नी) के बाप को उठवा कर उसकी पिटाई करवाता है, घर का भेदी लालची,  धूर्त डोरा डूंगरी की ओर इशारा कर महाजन के कान मे फुसफुसाता है, महाजम बड़ी धृष्टता से कहता है– “मंगरा अपनी बेटी को हमारी कोठी मे भेज दे, वहाँ रहेगी, खाएगी, काम करेगी तो तेरा क़र्ज़ भी उतर जायेगा” पृष्ठभूमि मे कौओं की कांव-कांव और डूंगरी का स्तब्ध चेहरा अत्यन्त मार्मिक असहाय, गाँव वाले विवश है, 10रुपये क़र्ज़ पर 22 रुपये ब्याज जो मंगरा पर है। मुखिया कहता है-सरदार आधा पैसा गाँववाले मिलकर दे देंगे आधा तुम माफ़ कर दो” पर महाजन किसी की नहीं सुनता उसेकिसी से कोई सहानुभूति नहीं।Mrigayaa - Mithun's Debut Film - Posts | Facebook

वर्तमान में भी जमीन हड़पना, आदिवासी स्त्रियों को प्रताड़ित करना आज भी कायम है। बल्कि अधिक क्रूरता के साथ 2008 मे छतीसगढ़ की आदिवासी लड़की के साथ दरिंदगी का जो यथार्थ सामने आया वह रोंगटे खड़े करने वाला है। इस इलाके मे विकास के नाम पर आदिवासी लड़कियों को नक्सलवादी या देशद्रोही बताकर जेल में डाल दिया जाता है, उन्हें रौंदा जाता है उनके आत्मसम्मान को कुचला जाता है ताकि कोई दोबारा विद्रोह करने की सोचे भी न। सरकार और अदालतें इनके दुःख दर्दों से एकदम बेपरवाह है। जबकि आदिवासी संस्कृति में स्त्रियों की मान मर्यादा और सम्मान का पूरा ध्यान रखा जाता है। महाजन का मुहं बंद करने के लिए मुखिया का बेटा घुनिया अगले ही दिन वह डूंगरी से शादी कर लेता है। आदिवासी समाज में वैवाहिक संस्थाए स्त्रियों को पसंद नापसंद का पूरा अधिकार देती है, उन पर परिवार या समाज का कोई दबाब नहीं रहता और न ही धर्म या जाति की समस्या रहती है

एक अन्य दृश्य में जहाँ बाघ एक गाँववाले के इकलौते बेटे को उठा ले जाता है तो महाजन बेदर्दी से कहता है “रहोगे जंगलो में तो बाघ ही उठा ले जायेगा न,  परी नहीं न, और फिर एक जन का खाना भी तो बचा न”वहाँ बैठी एक महिला जो महाजन के अत्याचारों और अपने दुखों से विक्षिप्त –सी हो चुकी है कहती है “अब तो बहुत हो गया राजा बाबू, धान कटाई के समय तू आता है, हर बार एक ही बात दोहराता है, आँखे लाल करके भय दिखाकर सब लूट ले जाता हैतू मानुष किस मिट्टी का बना है रे ! राजा बाबू”यहाँ वह बुढ़िया उसे जानवर नहीं कह सकती लेकिन सचाई यही है कि मनुष्य की खाल में छिपे ये भेड़िये धूर्त व ढोंगी है जिनका शिकार करना बाघ जैसे जानवरों से भी ज्यादा कठिन है।

गाँव का एक लड़का शोल्पू इन अत्याचारों के खिलाफ आवाज़ उठाता है तो उसे छिप कर घने जंगल मे रहना पड़ता है शोल्पू अपनी माँ से कहता है कि “अँगरेज़ दरोगा हमारा दुश्मन, गोबिंद सरदार हमारा दुश्मन…बाघ होता तो अच्छा था दरोगा को कच्चाखा जाता। ” यहाँ महाजन और दरोगा के प्रति आक्रोश व्यक्त होता है। जिसे मुखिया तथा गाँव वाले जबान पर नहीं ला पाते। निराशा के क्षणों में मुखिया शोल्पू की माँ से अपना दर्द कहता है क्योंकि मुखिया होकर भी वह गाँव वालो के संरक्षण में कुछ ना कर सका। सिधवा कानू को याद करने के बाद वह कहता है-“वो दिन अब नहीं रहे, तेज़ अब नहीं रहा,  जोर अब नहीं है, आग ख़त्म हो चुकी है –हम ठूंठ है हाँ हम ठूंठ है”तो शोल्पू की माँ उसका प्रतिरोध करती है

“मेरा शोल्पू ठूंठ नहीं है वो स्वदेशी वालो के साथ उठता-बैठता है, ठूंठ कहने से कोई ठूंठ हो जाता है क्या?तू ठूंठ है” शर्मिंदा मुखिया बाद मे शोल्पू से कहता है –“तू ही हमारा सिधु तू ही हमारा कानु”यहाँ मृणाल सेन आदिवासियों के उस विद्रोह की याद दिलाना चाहते है जिसे इतिहास में स्थान नहीं मिला “भारत के स्वतंत्रता संग्राम की पहली जनक्रांति कहे जाने वाले संथाल विद्रोह के नायक सिद्धू-कानू और उनके परिजनों के लिए अन्याय ही नियति गयी है। महाजनों,  ज़मींदारों और अंग्रेज़ अधिकारियों के अन्याय का शिकार हुए सिद्धू-कानू,  उनके भाई चांद,  भैरव और हज़ारों संथाल जनजाति के लोगों के साथ इतिहासकारों ने भी कम अन्याय नहीं किया हैइतिहासकारों ने 1857 के सिपाही विद्रोहको ही भारत की पहली आज़ादी की लड़ाई मान लिया है जबकि 1855 की इस जनक्रांति को महज संथाल हुलकी संज्ञा देकर ही समेट दिया गया है”  (बीबीसी हिन्दी)

मुखिया का संवाद इस बात का भी परिचयक है कि आदिवासियों के संघर्ष तथा विद्रोह को कोई विराम नहीं लगा सकता शोल्पू जैसे नवयुवक आज़ादी के लिए संघर्षरत है शोल्पू का विद्रोह साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ विद्रोह है तभी तो गाँववाले अपनी सामुदायिकता का परिचय देते हुए डोरा को झूठा साबित कर देते है यहाँ मृणाल सेन आदिवासियों के दुःख दर्द,  व संघर्षो को मानो नया मार्ग दिखा रहे है कि कैसे घर के भेदियों को सबक सिखाना हैहूलसंथाली आदिवासी शब्द है जिसका अर्थ होता है क्रांति/आन्दोलन यानी शोषण,  अत्याचार और अन्याय के खिलाफ उठी बुलंद आवाजइतिहासकार संथाल-विद्रोहमानते रहे हैंजबकि सच तो यह है कि यह कोई विद्रोह या आन्दोलन नहीं था,  बल्कि यह ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ युद्ध थाइसे समझने के लिए युद्ध और विद्रोह के बीच फर्क को समझना होगाविद्रोह किसी भी सत्ता से असंतुष्ट जनआन्दोलन को कहा जा सकता है,  जबकि युद्ध दो सत्ताओं के बीच अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए होता है और संथाल हुलसंथालों द्वारा अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ युद्ध था(मीडिया विजिल)  

mrigaya hashtag on Twitter

फिल्म का एक महत्वपूर्ण दृश्य है फिल्म का नायक मुखिया का बेटा घुनिया गाँव का सबसे अच्छा तेज़ सतर्क शिकारी है। गाँव वालों को जंगली जानवरों से बचाता है। भोला- भाला,  मासूम,  ईमानदार आदिवासी घुनिया अपने शिकार के इस गुण से गाँव मे आये नए ब्रिटिश प्रशासक का भी मन मोह लेता है। दोनों में भाषा, संस्कृति या किसी भी रूप मे समानता नहीं है सिवाय शिकार के। एक के लिए शिकार शौक है तो दूसरे के लिए जरूरत, सुरक्षा हेतु तथा भोजन का वैकल्पिक साधन। ब्रिटिश शासक बड़े राजा बाबु घुनिया से “बड़ा शिकार बड़ा ईनाम” की बात कहता है। तब घुनिया उसकी हवेली पर जिन्दा हिरनी के शिकार को कंधे पर लाद कर ले जाता है, पर ईनाम देने पर मासूमियत से शरमाँ जाता है कहता है –मैं ख़ुशी से लाया, तू भी शिकारी मैं भी शिकारी”इसी समय एक नौकर जमीन से खुदाई के दौरान मिली एक खोपड़ी लेकर आता है दोनों सहम जाते हैं, नौकर बताता है कि शायद ये खोपड़ी उसी अँगरेज़ बाबू की है जिसका सिर संथालो ने अलग कर यहाँ दफना दिया था-

हम बचपन से सुनते आये है कि इस इलाके में लड़ाई हुई थी, घमासान जंग, संथालो ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी थीतब एक संथाल ने एक अँगरेज़ खोपड़ी कलम कर दी थी हो न हो, ये खोपड़ी उसी अँगरेज़ की है” घुनिया के चेहरे पर भय मिश्रित प्रश्नचिह्न है कि अब बड़े राजा बाबू की क्या प्रतिक्रिया होगी बड़े राजा बाबू भी चुप है, दृश्य सांकेतिक है –‘अँगरेज़ के हाथ में खोपड़ी है, देर तक उस पर कैमरा, एक तरफ संथाल घुनिया जो अपने शिकार के कारण प्रशंसा का पात्र है दूसरी तरफ अँगरेज़ की खोपड़ी, संथालो की बगावत का प्रमाण। दोनों पशोपेश में बिना कुछ कहे दृश्य बदल जाता है’। यह घटना भविष्य में घुनिया को जेल भिजवाने का अप्रत्यक्ष माध्यम बनती है क्योंकि बड़े राजा बाबु अगर चाहता तो घुनिया को जेल न पहुंचाता, वह घुनिया को एक अच्छा, ईमानदार सरल व भोला इन्सान मानता है,  मगर खोपड़ी ने उसके मन में बदले की भावना का बीज बो दिया था। पूर्व में संथालो ने जो विद्रोह किया था उसकी सजा वर्तमान में घुनिया को मिली। आज भी आपरेशन ग्रीन हंट के नाम पर बेगुनाह आदिवासियों को उजाड़ा जा रहा है

एक ओर घुनिया गाँव वालो के हित में अपनी जान जोखिम में डालता है उनकी रक्षा करना अपना कर्त्तव्य समझता है उसके तीरंदाजी की तुलना अर्जुन से की जाती है गाँव में हो रहे सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान महाभारत नाटक चल रहा है, अर्जुन लक्ष्य कर तीर चलने के लिए तत्पर है तो डूंगरी अर्जुन की तुलना घुनिया से करती है जो अपने लक्ष्य को जानता है वह श्रेष्ठ धनुर्धर है, जो अपने शिकार को छोड़ता नहीं। । शोल्पू भी गाँव की आजादी व अस्मिता की खातिर स्वदेशी आन्दोलन मे शामिल हुआ है। एक जंगली जानवरों का शिकार करता है तो दूसरा साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार के लोगों से मुकाबला कर रहा है। तभी खबर आती है कि शोल्पू ने अपने गिरोह के साथ मिलकर सरकारी खज़ाना लूटा है तथा एक दरोगा का क़त्ल किया है।

जब पूरा गाँव बनसूअर व अर्जुन के शिकार का नाटक देख रहा था कि अचानक वहाँ पुलिस का आक्रमण हो जाता है वह अन्धाधुन्ध संथालो को मारने पीटने लगते है वे शोल्पू को खोज रहे है। मगर गाँव वालो के एकता की वजह से डोरा फिर झूठा पड़ जाता है। अगले दिन मुनादी होती है “जबकि हमारी सरकार अमन पसंद सरकार हैशोल्पू ने उसके साथ बगावत की है डकैत शोल्पू गिरोह का सरदार है जो भी उसे पकड़वायेगा सरकार उसे 500रुपये ईनाम देगी। ” गाँव वाले इस मुनादी से हैरान है क्योंकि शोल्पू तो आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा है फिर उस पर ईनाम क्यूँ? ईनाम के लालच में तथा बदले की भावना से वशीभूत डोरा अँधेरी रात में पुलिस वालो के सामने शोल्पू को गोली मार देता है। लेकिनक्रांति का अध्याय शोल्पू के साथ समाप्त नहीं होता बल्कि घुनिया इस मशाल को थाम लेता है। जब गोबिंद सरदार के लठैत डूंगरी को उठा ले जाते है तो घुनिया महाजन का “बड़ा शिकार” करने निकल पड़ता है आज उसके हाथ में धनुष नहीं कुल्हाड़ी है “जैसा जानवर वैसा ही हथियार”और घुनिया अपनी पत्नीं के सम्मान की रक्षा हेतु महाजन का सर कलम कर देता है। A consummate actor - OrissaPOST

महाजन का शिकार कर वह बड़े राजाबाबू अंग्रेज़ की हवेली जाता है उसे विश्वास है आज उसने ‘बड़ा शिकार’ किया है हत्या जैसी संकल्पना वह समझता ही नहीं। बस इतना ही जनता है कि उसे इस शिकार बड़ा ईनाम मिलेगा क्योंकि महाजन ने सदा गाँव वालो पर अत्याचार किया, शोषण किया, स्त्रियों को प्रताड़ित किया, आज उस खूँखार जानवर का अंत हो गया लेकिन वह हतप्रभ है कि जिस राजा बाबू ने सदा शिकार के लिए ईनाम दिया आज बड़े शिकार पर उसे जेल मे क्यों डाल दिया गया बड़े राजा बाबू कहता है “I know that accused person he is very simple and good man, honest and state forward…he is a good shikaari…he told me that he killed Gobindsardaar” भाषा भले ही घुनिया ना समझा हो लेकिन भाव समझते उसे देर ना लगी वो जोर से चिल्लाता है “हाँ खून किया जान से मारा ..पर क्यों मारा ये मेरी बहु से पूछो,  मेरे बापू से पूछो, सारे गाँव वा

लो से पूछो ….बड़े राजा बाबू आपने तो कहा था बड़ा शिकार बड़ा ईनाम, …आप मुझे बताओ कि शोल्पू एक अच्छा लड़का था, डोरा बुरा,  शोल्पू को मारने के लिए आपने डोरा को 500 रुपये ईनाम दिए और मैंने जिस जानवर को मारा है वह सबसे ज्यादा खूंखार है …तू मुझे यहाँ क्यूँ लाया …ऐसा तो कोई पाप मैंने नहीं किया” एक जानवर के मारने पर ईनाम दूसरे जानवर (मनुष्य) को मारने पर फांसी क्यों? इस सारे घटनाक्रम में घुनिया की ईमानदारी उसकी मासूमियत तथा अंत तक उसका सच्चाई पर टिके रहना कि उसी ने महाजन का क़त्ल किया है आदिवासी जीवन-शैली को मार्मिकता से रेखांकित करती है यह भी विचारणीय है कि खून करते समय घुनिया को किसी ने नहीं देखा,  वह चाहता तो उसे मार कर चुपचाप घर बैठता लेकिन वो ऐसा नहीं करता। क्योंकि आदिवासी संस्कृति में जानवर मारना कोई अपराध नही और अपराध जैसी संकल्पनाए तो वैसे भी सभ्य समाज की देन है जबकि ‘मृगया’यानी शिकार आदिवासी जीवन के संघर्ष का अहम व अभिन्न अंग है। मृगया फिल्म आदिवासी जीवन के संघर्ष और जिजीविषा को THE ROYAL HUNT के माध्यम से साझा करती है। फांसी के समय चेहरा ढंकने के बाद भी घुनिया चिल्लाता है“मैने अपने दुश्मन को मारा है, मुझे जाने दो मैं देखना चाहता हूँ”

अन्तिम दृश्य- सारे गाँव वाले घुनिया से जेल जाकर मिलना चाहते है मगर जानते हैं कि उन्हें कोई मिलने नहीं देगा तब मुखिया कहता है कि “ हम देंखेंगेजब सूरज चढ़ेगा वो हमको छोड़कर चला जायेगा हम उसी समय सूरज को देख लेंगे, सूरज देखते रहेंगे”डूंगरी बोलती मैं वो रास्ता जानती हूँ जहाँ से सूरज उगे, खेत- खलिहान, पोखर, मचान सारी पृथ्वी दिखे”प्रकृति में जन्म व्यक्ति प्रकृति में वेलीन हो रहा है लेकिन उसका संघर्ष सूरज की भांति जलता रहेगा उनके इरादे चट्टान की तरह अटल हैं, खेत- खलिहान, पोखर, मचान सारी पृथ्वी किसी एक नि नहीं सभी की साझा विरासत है। फिल्म का अंत सन्देश दे रहा है कि दबे कुचले सहमे आदिवासी अब उगते सूरज के प्रकाश से जाग चुके है। उनके भीतर सिधु,  कानू,  शोल्पू व घुनिया ने विद्रोह का बीजवपन किया है। अन्तिम दृश्य में सभी चट्टान पर हाथ उठाये खड़े है मानो सूरज को पकडे हुए है। जिसका प्रकाश उन्हें आज़ादी का रास्ता दिखायेगा। फिल्म कोई भी उपदेश नहीं देती लेकिन जनांदोलन की अपेक्षा रखती है तभी बदलाव के रास्ते खुलेंगे।  mrinal sen birth anniversary photo with Mithun Chakraborthy from shooting  of Mrigaya -कलात्मक फिल्मों के सरताज थे मृणाल सेन, पद्म पुरस्कारों से भी  हुए सम्मानित - India TV Hindi News

मृणाल सेन की मृगया “द रॉयल हंट”फिल्म आदिवासियों के जीवन को, उनकी समस्याओ व संघर्षो को सहजता व ईमानदारी से दर्शको के सामने रखती है। मासूम अभिनय के लिए घुनिया यानी मिथुन चक्रबर्ती को बेहतरीन कलाकार का नेशनल अवार्ड मिला, तथा बेहतरीन फीचर फिल्म के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। एक और महत्तवपूर्ण तथ्य जो सराहनीय है कि मृणाल जी ने आदिवासी जीवन से जुडी उड़िया कहानी का हिंदी भाषा में फिल्मांकन किया। जबकि वे बंगला में इस फिल्म का निर्माण कर सकते थे। लेकिन जैसे स्वतंत्र की पुकार के लिए खड़ी बोली हिंदी के महत्व को अहिन्दी नेताओं ने समझा उसी प्रकार आदिवासियों की पुकार पूरा भारत सुने इसके लिए उन्होंने हिंदी को माध्यम बनाया। यह भी एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि उन्होंने प्रेमचंद की ‘कफ़न’ कहानी उड़िया में फिल्म बनाई, जबकि महादेवीजी के संस्मरण ‘चीन फेरीवाला’ पर को बंगला में फिल्म बनायी।

वस्तुत: मानवीय संवेदनों के पारखी के समक्ष भाषा कभी चुनौती नहीं बनती। मृणाल ने आदिवासी जीवन को हिंदी का कलेवर देकर उनकी समस्याओ को देश के हर हिस्से तक पहुँचाने का सार्थक कार्य किया है फ़िल्में अभिव्यक्ति का सशक्त, व त्वरित प्रभावशाली माध्यम है। मृगया आदिवासी इतिहास के संकेत देती है, जंगली जानवरों के साथ-साथ सभ्य जानवरों से संघर्ष को आवाज़ देता है, मानवीय धरातल प्रदान करता है। यहकहना अतिश्योक्ति न होगा कि इस फिल्म के बाद आदिवासियों के संघर्ष को नए प्राण मिले महाश्वेता देवी को बिरसा मुंडा उपन्यास पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला, जिसके अनुवाद ने हिदी साहित्य को एक नई प्रेरणा मिली बिरसा मुंडा के आलोक में समस्त भारत के आदिवासी समुदाय में चेतना जागृत हुई। 1980-81 में साप्ताहिक दिनमान और धर्मयुग में आदिवासी विशेषांक निकले 1980 में ही लक्ष्मण गायकवाड का मराठी उपन्यास ‘उलच्या’को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला कुल मिलकर कह सकते हैं कि 1976 में प्रदर्शित मृगया फिल्म आदिवासी साहित्य और विमर्श का प्रस्थान बिंदु का स्रोत है क्योंकि इसने आदिवासी साहित्य के लिए समुचित वातावरण निर्मित किया।

मूलाधार –

मृगया फिल्म, 1 जनवरी 1976 में प्रदर्शित, निर्देशक मृणाल सेन, भगवती चरण पाणिग्रही कि उड़िया कहानी शिकार पर आधारित। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित, सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिथुन चक्रबर्ती।

‘शिकार’ कहानी का हिंदी अनुवाद -हिंदी गद्यकोश  http://gadyakosh.org/

.

रक्षा गीता

लेखिका कालिंदी महाविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय) के हिन्दी विभाग में सहायक आचार्य हैं। सम्पर्क +919311192384, rakshageeta14@gmail.com
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments
Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x