सिनेमा

भारतीय मध्यवर्ग के सपने और यथार्थ को एक साथ बयां करती फिल्म ‘बागबान’

   

भारतीय मध्यवर्ग के सपने और यथार्थ को एक साथ बयां करती फिल्म

विधि शर्मा

    अक्तूबर, 2003 में रवि चोपड़ा द्वारा निर्देशित फिल्म बागवान रिलीज़ हुई। फिल्म के निर्माता हैं बी.आर.चोपड़ा। यदि बॉलीवुड फिल्म की बात की जाए तो बी.आर.चोपड़ा फिल्म इंडस्ट्री का जाना-माना नाम है। निर्माता, निर्देशक और फिल्म कहानीकार के रूप में 70-80 के दशक में उन्होंने विशेष ख्याति अर्जित की।नया दौर(1957), गुमराह(1963), हमराज़(1967), कानून(1969), पति-पत्नी और वो(1978), निकाह(1982) आदि फिल्में बतौर निर्माता एवं निर्देशक उनकी चर्चित फिल्में रहीं। इनमें से कई फिल्मों की कहानी भी उन्होंने ही लिखी। वर्ष 1998 में हिन्दी सिनेमा में अपने विशेष योगदान के लिए उन्हें दादा साहेब फालके सम्मान से नवाज़ा गया। रवि चोपड़ा इन्हीं बी.आर.चोपड़ा के पुत्र हैं। जायज सी बात है कि जिस घर में पिता(बी.आर.चोपड़ा) और चाचा (यश चोपड़ा) जैसे बड़े फिल्म निर्देशक मौजूद हों वहां फिल्म निर्माण की ओर रुझान अनायास रूप से होगा। निर्माता- निर्देशक के रूप में उन्हें स्थापित करने में परिवार की भी अहम भूमिका अवश्य ही रही होगी। हिन्दी सिनेमा को उन्होंने बतौर निर्देशक द बर्निंग ट्रेन(1980), मजदूर(1985), दहलीज़(1986), बाबुल(2006) जैसी ख्याति प्राप्त फिल्में दीं। 2009 में रिलीज़ हुई फिल्म भूतनाथ और हाल ही में आई फिल्म भूतनाथ रिटर्नस(2014) में उन्होंने फिल्म निर्माता के रूप में अपनी विशेष पहचान दर्ज की।

    फिल्म निर्माता एवं निर्देशक के रूप में स्थापित होने के बावजूद बी.आर.चोपड़ा और रवि चोपड़ा को आम दर्शक के बीच पहचान दिलाई उनके मेगा- सीरियल महाभारतने। 80 के दशक में बी.आर.चोपड़ा के अपने ही प्रोडक्शन हाउस- बी.आर.फिल्म्स द्वारा निर्मित और रवि चोपड़ा द्वारा निर्देशित यह सीरियल जन- जन के बीच चर्चित हुआ। हालांकि महाभारत की कथा को केंद्र में रखकर बाद में भी अनेक टी.वी.सीरियल्स का निर्माण हुआ लेकिन किसी ने भी अभिनय और निर्देशन की उस ऊंचाई को नहीं छुआ जो रवि चोपड़ा निर्देशित महाभारत में थी।
      पारिवारिक संबंधों को लेकर निर्मित महाभारत सीरियल की ख्याति से प्रेरित होकर ही संभवत: रवि चोपड़ा ने आज के आधुनिक समाज में रक्त- संबंधों के बदलते स्वरूप को लेकर बागवान फिल्म बनाई। यह फिल्म ऐसे समय में रिलीज़ हुई जब भारतीय समाज, विशेष रूप से शहरी समाज में बहुत तेजी से परिवर्तन हो रहे थे। 90 के बाद उदारीकरण की नीति के चलते व्यापक पैमाने पर गांव तथा छोटे शहरों से लोगों का पलायन बडे शहरों की ओर हुआ। इन शहरों में तेज गति से दौडती जिन्दगी और आपाधापी के इस दौर ने जहां आर्थिक रूप से लोगों को थोडी राहत का एहसास कराया वहीं पारिवारिक स्तर पर बहुत से उलझाव भी पैदा किए । यहां रघुवीर सहाय के शब्दों में कहें तो जिन्दगी शोरगुल हो गयी है , दो पैसे से दस पैसे तक पहुंचने का पुल हो गयी है ।  इस शहरी समाज ने एक ऐसा बडा मध्यवर्ग तैयार किया जो सुविधा भोगी और मौका परस्त अधिक है ।यहां संवेदनाओं और भावनाओं का नितांत अभाव है, संयुक्त परिवार की व्यवस्था लगभग चरमरा गयी है और एकल परिवारों ने व्यक्ति को और अधिक आत्मकेंद्रित बना दिया है। दो पीढियों के बीच की सोच मे इतना बडा अंतर आ गया है कि उसे पाट पाना असंभव सा है । युवा पीढी बाजी मार ले जाती है और पिछली पीढी उसके सामने खुद को ठगा हुआ सा महसूस करती है।
    कुछ इन्हीं समस्याओं को केन्द्र में रखकर बागवान फिल्म की कहानी का पूरा ताना-बाना बुना गया है। फिल्म की कहानी लिखी है, संयुक्त रूप से सतीश भटनागर, बी.आर.चोपडा एवं सफीक अंसारी ने । यह 1937 में बनी हॉलीवुड फिल्म मेक वे फॉर टूमॉरो से प्रेरित है, साथ ही इस फिल्म की पूरी थीम  1983 में मोहन कुमार के निर्देशन में बनी फिल्म अवतार से प्रभावित लगती है जिसमें राजेश खन्ना और शबाना आज़मी मुख्य भूमिका में हैं। कुछ लोग इसे मराठी फिल्म उन पाउस का पुन:संस्करण भी मानते हैं। लेकिन, कुछ भी कहें, यह प्रभाव ग्रहण महज अनुकरण नहीं है। इसमे कुछ ऐसा नयापन और ताजगी है जो इस पुराने विषय में भी जान डाल देता है। दर्शक को पारिवारिक संबंधों,नयी पीढी और पुरानी पीढी के बीच पैदा होते अलगाव और संयुक्त परिवार की समस्याओं को लेकर एक नए सिरे से सोचने पर विवश करता है।
      फिल्म की कहानी एक छोटे शहर के मध्यवर्गीय परिवार के इर्द- गिर्द बुनी गयी है। यह परिवार है राज मल्होत्रा (अमिताभ बच्चन) और पूजा मल्होत्रा (हेमा मालिनी) का। इस फिल्म की यह खासियत मानी जा सकती है कि जहां सामान्यत: बॉलीवुड फिल्मों के केंद्र में युवा वर्ग रहता है वहां इस फिल्म में 60 की उम्र के किरदारों को मुख्य भूमिका में रखा गया है। दरअसल बी.आर.चोपड़ा 30 साल पहले ही यह फिल्म दिलीप कुमार और राखी को लेकर बनाना चाहते थे लेकिन किन्हीं कारणों से उस समय यह फिल्म नहीं बन पाई। इस तरह कह सकते हैं कि काफी लंबे अरसे से इस फिल्म की कहानी उनके जहन में थी जिसे साकार रूप मिल सका 2003 में। यूं तो अमिताभ और हेमा मालिनी की जोड़ी ने 80 के दशक में अनेक हिट फिल्में दी थीं लेकिन 1983 में आई उनकी फिल्म नास्तिक के बाद 20 वर्षों के लंबे अंतराल पर यह जोड़ी एक बार फिर बागवान फिल्म में मुख्य भूमिका में नज़र आई। फिल्म में राज और पूजा के चार बेटे हैं- अजय (अमन वर्मा), संजय (समीर सोनी), रोहित (साहिल चडढा) एवं करण (नासिर खान)। इनमें से तीन बेटों की शादी हो चुकी है। सभी बच्चे अलग- अलग शहरों में नौकरी करते हैं और खुशहाल जीवन जी रहे हैं। खास मौकों, त्यौहार आदि पर पूरा परिवार साथ इकट्ठा होकर खुशियां मनाता है। शुरू में तो सब कुछ ठीक है लेकिन कहानी में मोड़ तब आता है जब आई.सी.आई.सी.आई. बैंक में पिछले 30 सालों से कार्यरत राज मल्होत्रा रिटायर हो जाते हैं। अब वह और उनकी पत्नी अपनी जिन्दगी का बाकी हिस्सा अपने बेटों के साथ बिताना चाहते हैं। बच्चों की छोटी-से- छोटी जरूरतों को पूरा करने की जद्दोजहद में वह अपनी सारी जमा- पूंजी खर्च कर चुके हैं। अब उनके पास कुछ भी नहीं बचा है। ऐसे में पिता के ग्रेच्युटी और पी.एफ. फंड के पैसों में से अपने हिस्से की आस लगाए चारों बेटों को झटका लगता है। उन्हें मां- बाप को अपने साथ रखना अपनी आजादी में खलल जान पड़ता है। उनको अपने साथ न ले जाना पड़े इस कोशिश में लगे चारों बेटे यह तय करते हैं कि मम्मी और पापा बारी- बारी से चारों के पास 6-6 महीने के लिए रहेंगे। उन्हें यह पता था कि उनके मां- बाप एक दूसरे से अलग होकर रहने के लिए राज़ी नहीं होंगे, इसी लिए बहुत सोच- समझकर यह तरकीब निकाली गई थी। उनके इस फैसले से हालांकि पिता राज मल्होत्रा बिल्कुल भी सहमत नहीं हैं लेकिन पत्नी के जोर देने पर वह राजी हो जाते हैं और यहां से शुरू होता है उनके जीवन में तकलीफों का अनंत सिलसिला।
      इस फिल्म को देखते हुए मुझे बार- बार उषा प्रियंवदा की चर्चित कहानी वापसी याद आती रही। इस कहानी का भी मूल कथ्य इस फिल्म की कहानी से काफी कुछ मिलता-जुलता है बल्कि कहानी वास्तविकता के अधिक निकट है। फिल्म में यथार्थ को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर पाना थोड़ा टेढा काम है। कहानी के प्रमुख पात्र हैं गजाधर बाबू जो रेलवे में नौकरी करते हैं। उनके परिवार में पत्नी के अलावा दो बेटे और दो बेटियां हैं। बड़े बेटे और बेटी की शादी हो चुकी है और बाकी दोनों उच्च शिक्षा अर्जित कर रहे हैं। परिवार की सुविधा और बच्चों की पढ़ाई के चलते गजाधर बाबू नौकरी करते हुए छोटे स्टेशनों पर रेलवे क्वार्टर में अकेले ही रहे और परिवार शहर में उनके द्वारा बनवाए गए घर में। अपनी 35 साल की नौकरी के दौरान उन्होंने लगभग एकाकी जीवन बिताया लेकिन अब सेवा- निवृत्त होकर अपने परिवार के साथ बाकी जिंदगी हंसी खुशी बिताना चाहते हैं, पर ऐसा हो नहीं पाता। बच्चे उनकी अनुपस्थिति के अभ्यस्त हो गए हैं और उनका वापस आना उन्हें अपनी आजादी में खलल जैसा लगता है। बहुत कोशिश करने पर भी वे वापस उस परिवार का हिस्सा नहीं बन पाते। यहां तक कि उनकी जीवन संगिनी भी उन्हें नहीं समझ पातीं जिसका उन्हें बेहद अफसोस रहता है। उन्हें लगता है कि वह पत्नी व बच्चों के लिए केवल धनोपार्जन के निमित्त मात्र हैं और अंतत: वे परिस्थितिवश यह निर्णय लेने के लिए बाध्य होते हैं कि घर पर रहने से तो अच्छा है कि फिर से नौकरी कर ली जाए और इसी सिलसिले में वे एक बार और अपने परिवार एवं घर से दूर हो जाते हैं।
      कहानी का अंत बड़ा ही ट्रैजिक है लेकिन जीवन की वास्तविकता यही है। यहां फिल्मों की तरह चमत्कार नहीं होते। बागवान फिल्म भी इसका अपवाद नहीं है। यहां 6 महीने से अलग- अलग रहकर कष्ट में जी रहे राज और पूजा की जिंदगी में भी चमत्कारिक बदलाव आता है। छ: महीने एक दूसरे से अलग रहकर जब राज और पूजा अपनी शादी की सालगिरह पर एक दूसरे से मिलने का कार्यक्रम बनाते हैं उस दौरान उनकी मुलाकात आलोक(सलमान खान) से होती है जो उनका मुंहबोला बेटा है। आलोक एक अनाथ बच्चा था जिसे राज मल्होत्रा ने संरक्षण दिया, पढ़ाया- लिखाया आत्मनिर्भर बनाया और अपनी मेहनत और लगन के बल पर वह विदेश में शिक्षा अर्जित कर सका। वह और उसकी पत्नी अर्पिता(महिमा चौधरी) दोनों ही राज और पूजा को भगवान की तरह पूजते हैं, उनकी सेवा करना चाहते हैं। यहां राज और पूजा को बहुत प्यार और अपनापन मिलता है जो उनके अपने चारों बेटे भी नहीं दे पाते। फिल्म के अंत में एक और चमत्कारिक बदलाव इन दोनों के जीवन में घटित होता है। जब राज अपने बेटे संजय के साथ दिल्ली में रह रहे थे उसी दौरान उनकी मुलाकात एक गुजराती दम्पति हेमंत पटेल (परेश रावल) और शांति पटेल (लिली दुबे) से होती है। ये दोनों एक कैफे चलाते हैं और राज को अपने बड़े भाई (मोटा भाई) की तरह मानते हैं। अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए राज दिन का बड़ा हिस्सा उनके इस कैफे में ही गुजारते हैं। इसी दौरान यहां आने वाले कॉलेज के बच्चों के अनुरोध पर वे अपने और अपने परिवार की कहानी लिखते हैं। इन बच्चों में से ही एक के पिता का विदेश में पुस्तक प्रकाशन का व्यवसाय है। उनको राज के जीवन की यह कहानी पसन्द आती है और वे उसे एक खूबसूरत किताब का रूप दे देते हैं। इस किताब के छपने की जानकारी फिल्म के अंत में राज को मिलती है और यहां से इन दोनों का पूरा जीवन ही बदल जाता है। यह किताब उनको शोहरत की बुलन्दियों तक पहुंचाती है। इसी किताब के सिलसिले में प्रकाशक राज मल्होत्रा को सम्मानित करने के लिए एक पार्टी रखते हैं जिसमें शहर भर के विशिष्ट लोग आमंत्रित हैं। वहां राज और पूजा के बेटे- बहू भी इस आस में पहुंचते हैं कि शायद उन्हें उनकी भूल की माफी मिल जाए और एक बार फिर वे मां- बाप से जुड़कर उनकी भावनाओं का दोहन कर सकें।
 फिल्म के अंत में ही राज मल्होत्रा का एक वक्तव्य है जिसमें इस पूरी फिल्म का मर्म निहित है। दो पीढ़ियों के बीच पैदा होते अंतराल, जमाने के साथ रक्त- संबंधों में आता बदलाव, युवा पीढ़ी की बढ़ती व्यावहारिक सोच आदि अनेक मुद्दों पर यहां चर्चा होती है। किस तरह पूरी जिंदगी मां- बाप इस कोशिश में लगे रहते हैं कि बच्चों को अच्छे- से- अच्छा जीवन मिल सके। उनके सारे सपने और ख्वाहिशें पूरी हो सकें। यहां तक कि बच्चों के सपने पूरे करते- करते उनके अपने सपने अधूरे ही रह जाते हैं। पर बदले में उन्हें क्या मिलता है? अपमान और उपेक्षा? उनकी अपने बच्चों से जो अपेक्षाएं होती हैं उसे भी वे गलत अर्थ में ग्रहण करते हैं। उनको लगता है कि मां- बाप ने उनको पाल-पोसकर बड़ा किया उसी के एवज में वे अपने बुढ़ापे में उनका संरक्षण चाह रहे हैं। लेकिन ऐसा सोचना बिल्कुल गलत है। वे बस उनसे भावनात्मक संरक्षण चाहते हैं। फिल्म में ऐसे अनेक संवाद आते हैं जो इस पीढ़ी की लाचारी का बखूबी बयान करते हैं; जैसे राज का अपने से ही पूछना – “अगर हम अपने बच्चों का पेट भरकर खुद खाली पेट सोये तो हमने किया ही क्या है? यदि अपनी जरूरतों को परे करके बच्चों की ख्वाहिशें पूरी करते रहे तो हमने किया ही क्या है? और अंत में उनका यह कहना कि किसी से उम्मीद करनी ही नहीं चाहिए क्योंकि उम्मीदें टूटती हैं तो बहुत दुख होता है। इसमें हमें गजाधर बाबू की वह पीडा नजर आती है जहां उम्र के आखिरी पड़ाव में उन्हें लगता है कि वे जिंदगी द्वारा ठगे गए हैं। उन्होंने जो कुछ चाहा उसमें से उन्हें एक बूंद भी न मिली यह फिल्म ऐसे अनेक महत्वपूर्ण मुद्दों और सवालों को उठाती है,जिसका सीधा संबंध आज की बाजारवादी एवं पूंजीवादी व्यवस्था से है। जहां रक्त संबंध से अधिक भावनात्मक संबंध महत्वपूर्ण हो उठे हैं। खासतौर से 1990 के बाद से पूंजी और बाजार के गठजोड से जो नयी पीढी अपना नजरिया बना रही है उसमें संबंध पुराने पड रहे हैं। आज शहरों में तेजी से बढ़ते वृद्ध- आश्रम और युवा पीढी की लिव- इन रिलेशन में जीने की चाहत में हम इसकी झलक पा सकते हैं। यही कारण है कि यह फिल्म मध्यवर्ग़ के साथ-साथ पूरे भारतीय समाज में पसंद की गयी, क्योंकि यहां संबंधो की महत्ता ही सर्वोपरि है।    
                                           विधि शर्मा
                                   (एसिस्टेंट प्रोफेसर,हिन्दी विभाग)
                                   अदिति महाविद्यालय,दिल्ली विश्वविद्यालय
                                   ई-मेल – vidhi.du@gmail.com

 

        

samved

साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x