योगिता यादव की कहानी ‘गंध’
कबीरदास के प्रचलित दोहे ‘कस्तूरी कुंडली बसै, मृग ढूंढे बन माहि…’ और योगिता यादव की कहानी ‘गंध’ में एक खास किस्म का अंतर्द्वंद देखने को मिलता है। एक में शिनाख्त स्पष्ट है तो दूसरे में स्पष्टता और अस्पष्टता के बीच गहरी कशमकश है।
योगिता यादव की यह कहानी ‘लिटरेरी प्रसिजन’ (साहित्यिक परिशुद्धता) को तोड़ते हुए कई विचारणीय प्रसंगों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करती है। कहानी की पात्र सारिका अपने बचपन के प्रेमी और अब पति अभिनव के विमान दुर्घटना के कारण गुजर जाने पर एक शोकाकुल जीवन जी रही होती है। इस शोकपूर्ण जीवन में वह हमेशा उसी ‘गंध’ को ढूंढती और महसूस करना चाहती है जो उसे अब कभी नहीं मिलने वाला था। ‘एंग्जाइटी अटैक’ और अन्य समस्याओं से जूझती सारिका को उसकी ‘थेरेपिस्ट’ और ‘काउंसलर’ डॉ. सृष्टि सलाह देती है – कृत्रिम पुरुष जननांग (सेक्स टॉय) के उपयोग का।
सारिका उस दुकान की ओर निकलती है जहाँ उसे वह वह कृत्रिम साधन प्राप्त हो सकता है। लेकिन यह उसके लिए आसान नहीं है। यह आसान नहीं होना, एक ऐसे सामाजिक पक्ष को रेखांकित करता है जिसपर गहराई से विचार करना आवश्यक हो जाता है। वह अपने घर और दफ्तर से बीसियों किलोमीटर दूर जाकर भी खुद के पहचाने जाने से डरती है। दुकान ढूंढने के क्रम में वह सोचती है – ‘कितना मुश्किल होता है उसे ढूँढना, जिसे ढूंढते हुए आप चाहते हैं कि कोई आपको न देखे’…मन हुआ कि मैं कोई बुर्का ओढ़ लूँ’। यह वाक्य इस कहानी को समझने का एक ऐसा पाठ प्रस्तुत करता है जिस पर विचार किए बगैर इस कहानी की संवेदना तक पहुंचना बेहद जटिल है। यहाँ दुकान ढूँढना और वहां मृग का सुगंध ढूँढने में जो ज्ञात-अज्ञात का फ़र्क है वही फ़र्क कई बार अध्यात्म और सामान्य जीवन के बीच होता है। अध्यात्म के क्षेत्र में जीवन और मुक्ति तथा सामान्य जीवन के संदर्भ में अनिवार्यता और अस्तित्व के बीच संबंध होने के बावजूद गहरी विषमताएँ भी होती हैं। क्योंकि अनिवार्यता का संबंध जरुरत से भी जुड़ा होता है और यही वह जरुरत है जिसके कारण डॉ. सृष्टि सारिका को उस दुकान पर जाने की सलाह देती है। लेकिन हम जिस समाज में रहते हैं क्या वह समाज ‘जरूरत’ की संरचना के प्रति स्वीकारोक्ति का भाव रखता है? यह प्रश्न इसलिए भी जरुरी हो जाता है क्योंकि यदि यहाँ ‘स्वीकार’ का भाव होता तो सारिका को बुर्का ओढने का ख्याल नहीं आता।
‘बुर्का पहनना’ और ‘बुर्का ओढ़ लेना’ ये दो भिन्न-भिन्न अवस्थाएं हैं लेकिन भिन्नता के बावजूद यह एक जैसी ही संरचना से निर्मित परिस्थितियाँ भी हैं। इस समाज ने कई बार ‘बुर्का’ जैसे विषय पर राजनैतिक प्रतिक्रिया दी है, पत्रकारीय समीक्षा भी की है लेकिन अलग-अलग अनुशासनों के बावजूद कोई भी दृष्टि ‘बुर्का और देह’ के सतही फ़तवों से आगे नहीं बढ़ पाई। यहाँ साहित्य का अनुशासन जो स्वयं शासन की सीमाओं के अतिक्रमण का अनुशासन है, वह देह से जीवन और उस जीवन के साथ सामाजिक मर्यादाओं के परस्पर विपरीत संबंध को अदृश्य से सदृश्य बना देता है। इस कहानी में बुर्का में दफ़न स्मृतियाँ और उन स्मृतियों की शती-प्रथा नुमा नैतिकतावादी व्यवस्था का स्वरुप स्पष्ट हो जाता है, जहाँ अनगिनत अभिसारिका सिर्फ सारिका बनकर कैद हो जाती है। लेखिका ने बेहद मार्मिक प्रसंग के साथ इस तरह के चुनौतीपूर्ण प्रश्न को उठाया है, जिस पर सामाजिक दृष्टिकोण से विचार करना बेहद आवश्यक हो जाता है।
कहानी में यह एक ऐसा पक्ष है जो अनुत्तरित तो नहीं लेकिन उत्तर की प्रतीक्षा में जरुर है क्योंकि समाज को आज नहीं तो कल इन प्रश्नों से टकराना ही पड़ेगा। लेकिन कहानी के दूसरे पक्ष का क्राफ्ट बेहद जटिल है। यह जटिलता जीवन की जटिलता से जुड़ा हुआ है। सारिका जिस दुकान पर कृत्रिम साधन खरीदने जाती है, वह साधन उसकी जरुरत हो सकती है लेकिन वह जरुरत उसकी छटपटाती संवेदना का उपचार नहीं है। सारिका अभिनव की चीजों को छूकर रिलैक्स महसूस करती है। उसे डॉ. सृष्टि की बात याद आती है कि – ‘जिसे तुम रिलैक्सिंग समझ रही हो, असल में वही अब तुम्हारा स्ट्रेस भी है’। सृष्टि उसे उस भाव-बोध से बाहर निकालना चाहती है लेकिन उसे जिस गंध की तलाश है वह गंध उससे बाहर भला कैसे जा सकती है? ‘जिए हुए प्रेम’ और ‘पाए हुए प्रेम’ के गंध से मुक्ति पाना इतना आसान भी तो नहीं है। प्रेम की संरचना में जिए हुए प्रेम के साथ लगाव और अलगाव का संबंध बेहद जटिल होता है। यहाँ इस रूप में उस ‘गंध’ के साथ व्यतीत होता जीवन सुख और दुःख दोनों स्थिति को प्राप्त करता है। जहाँ दुःख विचलन भी पैदा करता है और अदृश्य स्पर्श सुख का अहसास भी देता है यही कारण है कि इस विरह की जटिलता से पार पाना मुश्किल हो जाता है। वह कहती है कि ‘हमें अपने टच को संभाल कर रखना चाहिए, स्पर्श की अपनी स्मृतियाँ होती हैं और ये संवेदित होती हैं’।
यहाँ यह भी ध्यान रखने की जरुरत है कि लेखिका ने जिन संदर्भों को यहाँ रेखांकित किया है वह ‘आवश्यक’ और ‘अनावश्यक’ परिस्थितियों के बीच का एक ऐसा शिल्प है जिसे कोई सधा हुआ रचनाकार ही गढ़ सकता है। जहाँ साधन समाधान नहीं है उस ओर जाना अनावश्यक प्रतीत होता है और दूसरे प्रसंग में जहाँ समाधान नहीं है वहां साधन की तलाश न करना एक आवश्यक या स्वाभाविक परिस्थिति को दर्शाता है। इसे ठीक से समझें तो जब कृत्रिम साधन जिसका संबंध सेक्स से है, सारिका पात्र के लिए समाधान है ही नहीं फिर लेखिका इस प्रसंग को गढ़ती क्यों है? जब हम इस प्रश्न पर गहराई से विचार करते हैं तब हम पाते हैं कि जरुरत समाधान हो यह आवश्यक तो नहीं होता लेकिन जरुरत का संबंध ‘अधिकार’ से भी जुड़ा हुआ होता है। यही कारण है कि लेखिका ने दो परस्पर विरोधी संदर्भों को एक सूत्र में इस प्रकार से ढाला है कि वह एक दूसरे का विरोध न होकर एक दूसरे के अनुकूल हो जाता है जहाँ जरुरत के अधिकार का प्रश्न मुखर रूप में लक्षित हो उठता है।
इस पूरी कहानी में एक खास किस्म का अंतर्द्वंद है जो सामान्य रूप से देखने पर स्मृति-मोह नजर आता है लेकिन जब तक सही और गलत के निर्णयात्मक समीकरण से अलग होकर इसका मूल्यांकन नहीं किया जाए तब तक इस कहानी में वर्णित जीवन की जटिलताओं को समझ पाना मुश्किल है।
इस कहानी का एक तीसरा पक्ष भी है जो गौण होते हुए भी उस ओर पाठक को ले जाने के लिए विवश कर देता है। वह पक्ष है मिग 21 फाइटर प्लेन के राजनैतिक समीकरण का। जो लोग रक्षा मसौदे की राजनीति से परिचित हैं वे इस संदर्भ को बखूबी समझते हैं कि कैसे रक्षा मामलों में राजनैतिक हस्तक्षेप या राजनैतिक उपेक्षा बड़ी-बड़ी घटनाओं को पैदा कर देती है। इस विषय पर अलग से विस्तार में चर्चा की आवश्यकता है।
संक्षेप में कहा जाए तो योगिता यादव की कहानी ‘गंध’ मानवीय जीवन के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष घटनाओं, स्मृतियों, जरूरतों और अधिकारों की ऐसी संवेदनात्मक कहानी है जिसके भीतर मन को उद्वेलित कर देने वाले प्रश्न बेहद सरलता और मार्मिक ढंग से प्रस्तुत हुआ है। लेखिका को इस बेहतरीन सामाजिक कहानी के लिए बधाई।
ऐसी समीक्षा बहुत कम पढ़ने को मिलती है. लेखक ने समीक्षा में कहानी के मूल तत्व को शानदार ढंग से प्रस्तुत किया है. बुर्का पहनना और ओढ़ना दोनों में बारीक़ अंतर है.
शुक्रिया सुभाष