संस्मरण

हमारे ‘श्रीधर भइया’ उर्फ़ सबके ‘बच्चा’

 

श्रीधर भैया अपने घर की अपनी पीढ़ी में सबसे बड़ी संतान थे, सो पूरे घर ने प्यार में उन्हें ‘बच्चा’ कहा, जो इतना लोकप्रिय हुआ कि उनके सुरहन (मेरे घर से आठ किमी. पश्चिम) गाँव का हर आदमी उन्हें ‘बच्चा’ ही कहता। गाँव के तमाम लोग तो असली नाम जानते ही न रहे होंगे। मुम्बई में भी उन्हें पास-पड़ोस वालों से बच्चा कहे जाते ही सुना मैंने…, पर वहाँ लोग बच्चा के साथ मास्टरजी भी जानते-कहते थे। लेकिन उनसे बहुत छोटे और संज्ञान जितने बड़े होने से मेरे मुँह से कभी बच्चा निकला ही नहीं, तो मुझसे वे सामने ‘भैया’ और अनुपस्थिति में ‘श्रीधर भैया’ ही उचारे गये…।  

और यही मेरे श्रीधर भैया न होते, तो मैं आज यह न होता, जो हूँ…। क्या होता, पता नहीं…! क़िस्सा यूँ कि हाईस्कूल-इंटरमीडीएट की योग्यता पर डाक-तार विभाग में लिपिक पद पर मेरा चयन हो गया था…। नियुक्ति के पहले घर-गाँव, जीवन-चरित्र…आदि की दरियाफ़्त भी हो चुकी…,लेकिन वह 1972 के मध्य का कोई महीना रहा होगा, जब चयन के अंतिम सोपान पर गोकुलदास तेजपाल रुग्णालय (जी.टी. हास्पीटल), मुम्बई में चिकीत्सीय जाँच का परवाना आया…, तो खुश होने के बदले मै काँप गया…। पास तो होना न था – बायीं आँख की रोशनी तो दर्जा छह में पढ़ते हुए ही हाकी-दंड लगने से रेटिना फट जाने के कारण जा चुकी थी, लेकिन इसका मुझे उस दिन के पहले कभी ख़्याल ही न आया था। सो, उस दिन पत्र हाथ में लिये मैं कर्त्तव्यविमूढ़ थसमसाया पड़ा था…।

ऐसे में श्रीधर भैया न होते, तो न मैं नौकरी पाता, न नौकरी करते-करते पढ़ पाता, न प्रोफ़ेसर…आदि होना व फिर लिखना-पढ़ना…आदि यह सब भी न हो पाता, जो हुआ है…।

यह ऐसे हुआ कि उस समय मैं मुम्बई में कुर्ला इलाक़े के ताक्यावार्ड मुहल्ले में स्थित ‘सुरगेन सिपाही चाल’ में रहता था। मुम्बई की चालों में स्थित घरों को ‘खोली’ कहते हैं। वह खोली श्रीधर भैया की ही थी। दशकों पहले उनके सगे काका रामसेवक तिवारी ने ख़रीदी थी, जो बड़े पुराने, पर सगे रिश्ते में मेरे पिता की बुआ की लड़की के लड़के होते थे–याने उनकी माँ का मेरे यहाँ ननिहाल था। और वह किन्ही कारणों से अपने मायके न जातीं, बल्कि मायका करने मेरे यहाँ अपने ननिहाल में आतीं…। इस तरह रामसेवक भैया के बचपन का बहुत समय हमारे यहाँ बीता और इसी रिश्ते से वे हमारे पितादि को मामा कहते, तो मेरे भैया लगते थे। और इसी विरासत के चलते वे मुझे बहुत मानते…। इस तरह क़ायदे से श्रीधर भैया का मैं चाचा लगता, लेकिन वे मुझसे पंद्रहों साल बड़े थे, तो भैया ही कहता–यही चलन है हामारे यहाँ…। दोनो भैया को अलगाने के लिए रामसेवक भइया को मैं ‘पंडित भइया’ कहने लगा और इन्हें भइया। और अब यह सम्बंध एक पीढ़ी लांघ गया है–मैं उस परिवार के बच्चों का बाक़ायदे चाचा हूँ और अब तो बाबा कहने वाले बहुत सारे हो गये हैं–बल्कि परबाबा कहने वालों की पीढ़ी भी सक्रिय हो गयी है। इस तरह यह सम्बंध ठहरा तो पुराना, लेकिन आपसी व्यवहार के चलते था बहुत घरेलू और नज़दीकी, जो है अब भी–बस, बिना साधनों के भी तब जितना आना-जाना हुआ करता था, अब ढेरों साधनों के बावजूद आज के चलन के मुताबिक़ बहुत कम होता है। बहरहाल,

कुर्ला की उस खोली में पंडित भैया के दो सगे साले प्रेम नारायण एवं जगत नारायण उपाध्याय तथा एक मेरे ख़ानदान के बड़े भाई सभाजीत त्रिपाठी भी रहते थे। इनमे से जगतजी किसी भी मिल-फ़ैक्ट्री में बदली वाले (अस्थायी) के तौर पर काम करते और बाक़ी दोनो लोग फ़िनले मिल में काम करते थे, जहां पंडित भैया जाबर (सुपरवाइज़र) थे। उन्होंने ही इन दोनो को तब काम पे लगवा दिया था। हम सबमें बड़ा लगाव व अपनापा था। लिहाजा मेरी समस्या से सभी लोग बेहद चिंतित थे।

और इस संस्मरण के नायक श्रीधर भैया केंद्रीय विद्यालय, भाभा अणु-संधान केंद्र, मानखुर्द में पढ़ाते थे। उस शाम जब स्कूल से आये, तो यह सब सुनकर पहले तो वे भी चिंता में पड़ गये…। फिर कुछ देर में सोच-विचार के बोले–चलो, कल जाके देखते हैं…क्या हो सकता है…! इस तरह श्रीधर भैया ने मोर्चा सम्भाला। दूसरे दिन मुझे लेके अस्पताल चले गये। डाक विभाग का पत्र दिखा के पता किया कि जाँच होगी कहाँ…और आँख की जाँच का कमरा देखा तथा डाक्टर का नाम …आदि हासिल कर लिया। फिर अगले दिन काम बनाने का प्रयत्न करने अकेले गये–याने मुझे न ले गये…। उसके बाद निश्चित तारीख़ पर मेरे साथ आये और थोड़ी ही देर में मेरे हाथ में एक काग़ज़ दिया, जिस पर एक से सात नम्बर के खाने बने थे और हर खाने में कुछ गोले बने थे। बोले – इसे क्रम से याद कर लो कि एक से सात तक खाने में क्रमश: कितने-कितने गोले हैं। वहाँ पहले तो बायीं आँख दबा के दाहिनी से देख के बता देना। फिर जब दाहिनी आँख दबवा के पूछा जायेगा, तो चपरासी हर गोले पर डंडे से खट-खट की आवाज़ करेगा। और तुम याद किये के क्रमानुसार हर खट पर संख्या बोलते जाना…। बस, काम बन जायेगा…और बन गया…। कभी उन्होंने बताया नहीं, लेकिन साफ़ है कि चपरासी को पटाया था भैया ने…। ऐसा कयास है कि उस जमाने में पचीस-पचास रुपए से ही काम बन गया होगा, पर वह आज के हज़ार के बराबर था। मैंने कभी यह सोचके पूछा था कि हिसाब में दे दूँगा, पर न लेने के हिसाब से भैया ने कभी बताया नहीं…। इस तरह पास होकर बात कितनी छोटी-सी हो गयी, जो सचमुच इतनी बड़ी थी कि पूरा कैरियर व जीवन चौपट हो सकता था…!!

और श्रीधर भैया का यह अवदान यहीं नहीं रुका…। मेडिकल के दो-तीन महीनों बाद जब बुलावे का पत्र आया, मै एक कार-दुर्घटना में हँसुली (गरदन के नीचे) की हड्डी तोड़वा कर कंधे से खींचकर पीठ पर पट्टा बँधवाये घर बैठा हुआ उस वक्त खोली पर अकेला था और मेरे पास एक पैसा न था – ऊपर से खोली वालों का दो महीने के खाने का हिसाब चढ़ा था, क्योंकि इसी दुर्घटना के चलते वह छोटी-सी नौकरी भी छोड़नी पड़ गयी थी, जिससे कम से कम खुराकी तो चल जाती थी। इसी में वड़ोदरा जाने के लिए किराए के अलावा प्रशिक्षण-केंद्र की पोशाक…आदि का भी खर्च था…। सब सोचकर खुला पत्र हाथ में लिये मुझे रोना आ गया…। लेकिन अवसाद के उसी आवेग में ऐसा जुनून चढ़ा कि दो महीने के लिए लगे पट्टे को अभी 15 दिन बचा था, लेकिन कैंची उठायी और सारे पट्टे-पुट्टे काट डाले…। इसके लिए भाइयों ने आने पर मज़े का डाँटा भी, पर फ़ायदा यह हुआ कि पट्टा निकल ही गया था, तो इसके कारण प्रशिक्षण के लिए ‘न जाने की’ बात कोई न कह सका।

27 नवम्बर, 1972 को वडोदरा में प्रशिक्षण शुरू होना था–याने महीने के आख़िरी दिन थे। और उन दिनों उत्तर भारतीय परदेसियों की यही जीवन पद्धति थी कि महीने भर के लिए कम से कम खर्च जितने पैसे रखके बाक़ी गाँव भेज दिया जाता था…श्रीधर भैया के शब्दों में–‘कल्याण डका (पार) दिया जाता था’। याने पैसे किसी के पास सिल्लक (बैलेंस) न थे। क्योंकि किसी को अंदाज़ा तो था नहीं कि पैसों की ऐसी ज़रूरत आन पड़ेगी…। उन दिनों उस तबके के लोगों का बैंक खाता होता ही न था। वेतन नक़द मिलता था–कभी लिफ़ाफ़े में लाके चपरासी देता और दस्तख़त लेता…। हमारे डाक-तार विभाग में तो खजाँची अप्पा ढमढेरे साहब रजिस्टर पे दस्तख़त लेके हाथ में नक़दी पकड़ा देते…ख़ैर, तब इस खर्च का बंदोबस्त भी श्रीधर भैया ने ही कराया – बड़े नाटकीय अंदाज में…। ऐसा था कि पंडित भैया पुरोहिती कर्म भी कराते थे और दूसरे दिन उन्हें ‘न्यू मिल’ के पास किसी बड़े ठाकुर साहब के यहाँ कोई यज्ञ कराना था, जिसमें चार-पाँच घंटे लगने वाले थे। एक घंटे बीता होगा कि श्रीधर भैया मुझे लेके वहीं गये। मुझे भान न था कि यह उनकी या दोनो काका-भतीजे की बनायी योजना थी…। सो, श्रीधर भैया व्यास पीठ पर जाके चिंतित मुद्रा में अपने काका के कान में कुछ कहने लगे…, जिसे सुनकर उनके चेहरे पर भी परेशानी के भाव आने लगे…। इस दृश्य को देखकर ठाकुर साहब को इसका सबब पूछना ही था, जिस पर काफ़ी ना-नुकुर के बाद पंडित भैया ने कहा – वो साथ में आया मेरे मामा का लड़का है। पोस्ट-आफिस में उसका चयन हो गया है। अभी पत्र आया है–कल ही जाना है, तो बहुत सारा सामान ख़रीदना है। सो, पैसा देने मुझे जाना पड़ेगा, लेकिन पूजा के बीच बेदी छोड़ना वर्जित है…!! बस, फिर तो उन्हें सहर्ष पैसे देने ही थे…।

इस प्रकार धन उगाह कर हम निकले–श्रीधर भैया ने सारी ख़रीदी करायी। और उस वक्त मुझ अनाथ की स्थिति वाले शख़्स की वड़ोदरा के लिए विदाई यूँ हुई–गोया कोई बेटी ससुराल जा रही हो…। उन दिनों के ऐसे मानुष भाव, ऐसे आत्मीय रिश्ते और ऐसे सहयोग की बावत सोचते हुए मन पुलकित होता है और आज के अपने युग को देखकर अवसाद-ग्रस्त भी हो जाता है – हमें विरासत में क्या मिला और हमने उसका क्या कर डाला…!! मेरी स्थिति में पड़े बच्चे का आज क्या होगा…!! इसे खुद की बड़वार्गी न माना जाये–प्रसंगत: कह रहा हूँ कि अपने आस-पास ऐसे मामले दिखने पर बिना माँगे भी सहायता किये बिना मैं रह न सका हूँ, पर भैया व कुछेक औरों का दाय ऐसा है कि चुकता ही नहीं…!!   

मेरी विदा के समय का एक और दृश्य चिरस्मरणीय है…। भैया के बड़े वाले साले प्रेमनारायण जी बड़े गरम दिमाँग व बड़े फ़राख दिल वाले थे। इधर मैं भी दिमाँग का कम गरम न था–बल्कि हूँ ही। सो, ‘साथ के बर्तन बजते ही हैं’ के वजन पर कभी-कभी नोंक-झोंक से कहा-सुनी हो जाने के क्रम में उन दिनों हमारा अबोला चल रहा था। लेकिन निकलते हुए पहुँचाने के लिए वे भी सबके साथ चले…। जुम्मा मस्जिद के नाके (मोड़) से सब लोग लौटने लगे, तो मैं सबके साथ उनका भी गोड़ धरने (पाँव छूने) चला, तो वे इशारा करते हुए आगे चलते रहे…और कुर्ला पुलिस चौकी (क्या प्रतीक स्थल है!!) तक आये…। वहीं से लौटते समय रोआइन (रुआंसे) होते हुए कहा–‘जहां जा रहे हो, वहाँ ढाई सौ लोग होंगे और कोई अपना न होगा, नात-हित न होगा। इसलिए दिमाँग और ज़ुबान पर क़ाबू करके सम्भाल के रहना… और चिट्ठी लिखते रहना…’। मेरा लगभग डेढ़ सालों से गाँव-घर, मां-बहनें…सब छूटे थे–अंतस् में बड़ा खालीपन भरा था। मन यूँ भी हुड़कता था। अब यह बसेरा भी छूट रहा था…सो, प्रेमू भैया के यह कहते ही, जबरन रोका हुआ दिल का बांध टूट गया–मैं भोंकर के रो उठा था…उन्होंने सहला के चुप ही नहीं कराया, समझाते हुए कुर्ला स्टेशन तक चले आये…लोकल गाड़ी में बिठा के ही लौटे…।

लेकिन वहाँ प्रशिक्षण-केंद्र का माहौल बहुत-बहुत अच्छा था (जिस पर अलग से आलेख लिखा जा सकता है)। सांस्कृतिक गतिविधियाँ खूब हुईं…। मैंने खूब भाग लिये–खूब रास आया। फिर छह लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश के ही मिल गये, जिनमे एक तो दर्जा छह से बारहवीं तक के मेरे सहपाठी शिवमंदिर राय भी रहे। 11वीं-12वीं में तो हम साथ बैठते भी थे। सो, वहाँ जीवन की यारी खूब जमी-छनी, तो खूब अच्छी कटी हमारी…। लेकिन इन सबके बीच प्रेमू भैया की उक्त बात सदा याद आती रहती…।

श्रीधर भैया का ‘मोहिं तो मोरे लोग बनायो’ का अवदान यहीं न रुका…। 9 फ़रवरी, 1973 को प्रशिक्षण पूरा हुआ। दिन के पूर्वार्ध में ही विदाई हो गयी, ताकि निरंतरता में अगले दिन 10 फ़रवरी को नौकरी शुरू हो जाये…। पहले महीने वेतन आया दो सौ नब्बे रुपए…। महीने भर की अपनी कमाई के इतने पैसे पहली बार मिले–खेती में गुड़…आदि बेचने के पैसे इससे ज्यादा बनते, पर वे 4-6 से लेकर 8-9 महीने की कमाई के होते और टुकड़ों में आते…। इस 290 रुपयों में से खोली वालों का उधार पूरा न चुकता करके पहली बार सौ रुपए घर भेजे, तो लगा कि डेढ़-पौने दो सालों बाद पहली साँस ली है। वह दिन खूब अच्छी तरह याद है–मार्च, 1973 के पहले सप्ताह की कोई तारीख़ थी, जब कुर्ला पश्चिम के डाकखाने से मनी ऑर्डर भेज के घर आते हुए बड़ा सुकून महसूस हो रहा था, लेकिन उसी वक्त मुझे अपने आगे पढ़ने का अविकल आवेग याद आया, जिसमें चिट्ठी-छँटाई के इस नीरस-उबाऊ काम का असर भी जुड़ गया था कि यह करते हुए पूरी ज़िंदगी नहीं गुज़ारी जा सकती–हालाँकि विभागीय परीक्षाएँ पास करके डीजी तक बना जा सकता था और सरकारी बंगला-गाड़ी वाला हुआ जा सकता था… फिर केंद्र सरकार की नौकरी थी, तो पूरे परिवार को आजीवन मेडिकल सहायताएँ भी मिलतीं…।

लेकिन अपन को तो साहित्य पढ़ना था – मास्टरजी बनना था…। सो, उसी शाम भैया से कहा। मैं तो तब तक मुम्बई में कॉलेज…आदि का कुछ जानता न था। और भैया ने खुद बड़े भटकावों-प्रयत्नों से अपनी पढ़ाई की थी, सो उन्होंने दूसरे ही दिन वहीं बग़ल में बेलग्रामी रोड पर रहने वाले मेरे हमनाम (सत्यदेव त्रिपाठी) से मिलवा दिया, जिन्होंने ‘गुरु नानक खालसा कॉलेज, माटुंगा’ से बी.ए., एम.ए. किया था। और वे एक दिन मुझे लेकर वहाँ के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉक्टर पारसनाथ मिश्र के घर (‘मोगल लेन, माहिम) चले गये–सब बता दिया। बड़ा अच्छा लगा, जब एक दिन स्वयं मिश्रजी मुझे लेके विश्व विद्यालय के पात्रता (एलिजिबिलिटी) विभाग में चले गये। पढ़ाई के दौरान जाना कि भाषा-संकाय के विषयों में छात्रों का टोटा रहता है, जिसके लिए छात्रों की ऐसी सहायताएँ विभाग करता था…।

फिर तो आगामी जून से मेरी पढ़ाई ही शुरू हो गयी…। इस तरह सम्मौपुर (आज़मगढ़) में जन्म व प्रारम्भिक से उच्चतर माध्यमिक (इंटर की) शिक्षा के बाद मुम्बई में इस मुक़ाम तक मेरा जो भी हुआ …सबके कर्ता-धर्ता श्रीधर भैया ही रहे…।

ऐसे श्रीधर भैया का अब आइए–थोड़ा पूर्वापर देख लें…। यहाँ शर्ट-पैंट-बूट पहनने वाले भैया को गाँव में रहते हुए छुटपन से ही अपने घर आते देखा था मैंने, जिसके कुछ बिम्ब अब भी यादों में जस के तस हैं… अद्धी का सफ़ेद कुर्त्ता और अपने काका के फ़िनले मिल की धवल धोती पर पैरों में काला या म्हरुन बूट एवं कंधे पर हल्के पीले या भूरे रँग के रोयेंदार मोटे तौलिये से सज़े गोरे-चिट्टे, पाँच फ़िट आठ-नौ इंच के लम्बे ग्रैंडील जवान…जब आके सायकल बाहर की दीवाल से लगा के ओसारी में खड़े हो जाते, तो ऐसा लगता–जैसे कोई देवोपम विभूति ही आ गयी हो…। उनकी कमर के नीचे के भाग के मुकाबले ऊपर का देह-भाग ज्यादा भरा-भरा था कि जब कभी नहाने के बाद गमछे या जाँघिये पर खड़े होते, तो लगता कि उस देह-भार को घुटने के नीचे का भाग कैसे सहता होगा!! पहलवानों जैसी गरदन की मोटाई व खिले-खिले या फूले-फूले गाल के भीतर सघन व छोटी दंत पंक्तियाँ ‘वरदंत की पंगति कुंद कली’ भले न रही हों, सुंदर थीं…चेहरा बरबस ही ख़ास ध्यान खींचता…। बड़े से सर पर तेल से चिपका के सँवारे हुए बाल तब तो किंचित विरल ही सही, थे; पर समय से झड़ते गये…। और सेवा-मुक्ति के बाद तो पंचानबे प्रतिशत खल्वाट हो गये थे। तब मैं उनसे व्याजस्तुति में विनोद किया करता था–‘क्वचित् खलु-वाट निर्धन: याने खल्वाट लोग कहीं (विरले) ही निर्धन मिल जायेंगे, वरना अमीर ही होते हैं…। और घर के काफ़ी बड़े किसान-मकान के बावजूद भौतिक स्तर पर भैया वैसे अमीर हुए – बेटे राजेश की कमाई के साथ, लेकिन मन से तो सनातन अमीर थे ही…। बहरहाल,

तब गाँव के घर में आते ही पहले तो पलंग पर बैठ जाते–पाँव लटका के। फिर पानी-वानी पीके कुर्त्ता निकाल के बाँह वाली शफ़्फ़ाक गंजी पे हो जाते। कभी सिल्क जैसे कपड़े की सफ़ेद लुंगी लाये होते, वरना घर से कोई मर्दानी धोती लेते और दोहरा करके लुंगी की तरह ही खोंस के पहन लेते, जो उन दिनों का बड़ा शरीफ़ाना चलन था। फिर इत्मीनान से दीवाल पे तकिया सटा के और उसी पर पीठ का टेका लगा के बैठ जाते…। गाँव के कई परिचित लोग आते-जाते रहते और वे सबसे बड़ी जीवंतता के साथ मिलते, हालचाल लेते-देते – बातचीत करते…। तब गाँव के सबके रिश्तेदार आधे गाँव को तो जानते ही थे और सभी के सारे रिश्तेदारों को पूरा गाँव जानता था। जानने का हाल यह कि जब अंतिम दिनों के दौरान श्रीधर भैया का कहीं आना-जाना रुक गया था और लगभग हर एक-दो महीने में अपने विलेपार्ले के घर से मैं उनके नवी मुम्बई में स्थित बेलापुर वाले घर मिलने जाता, पूरा दिन उनके साथ बिताता, तो मेरे गाँव के उन दिनों के तमाम लोगों का नाम ले-ले कर उनके बाल-बच्चों की जानकारी लेते और फिर उन अनदेखे बच्चों के हाल-चाल हमेशा यूँ पूछते रहते–जैसे उनसे बड़ा गहन रिश्ता हो…। ऐसे खाँटी सामाजिक-सांस्कृतिक पुरुष मैंने अपने जीवन में बहुत कम देखे हैं। श्रीधर भैया को बात करना भाता था, इसलिए उन्हें आता भी था। बतियाते बड़े उत्साह से, बड़े लगाव से…। गर्मी की दोपहरियों में जब सब सो जाते, उन्हें लेट के कोई मोटी किताब पढ़ते देखने का भी बिम्ब बचपन की मेरी आँखों में संजोया हुआ है। लेकिन उन दिनों मुझसे न कोई ख़ास लगाव हुआ था, न ज्यादा बातचीत होती…। बस, पढ़े-लिखे व ख़ास होने के प्रति सम्मान का भाव मन-व्यवहार में छलकता रहता…।

इसीलिए कुर्ला की उस खोली में जब पहली बार उनसे मिला, तब तक उनसे कोई बड़ी ख़ास निकटता न थी…। वह मुलाक़ात एक आगंतुक की तरह हुई थी…। वहाँ रहने या इन सबसे मिलने भी मैं जाना ही न चाहता था, जिसकी असली वजह यह थी कि जिन दिनों मैं मुम्बई गया, उसके ठीक पहले हुई गाँव में चकबंदी के दौरान अपने ख़ास भाई से मुक़दमा चला, तो बहुत झगड़े हुए थे। सो, बातचीत बंद थी…। और जैसा कि पीछे कहा – कुर्ला की उस खोली में उसी घर के भाई सभाजीत त्रिपाठी वर्षों से रहते थे। इस कारण तब का गँवईं संस्कार उनसे बात करना तो क्या, उन्हें देखना तक न चाहता था। इसका और ख़ास कारण यह था कि उन दिनों यहाँ से इसी सभाजीत भाई की तरफ़ से एक चिट्ठी गाँव गयी थी, जो इनके घर वालों ने ही मुझे दिखायी थी, जिसमें कठोरता से लिखा था कि वह खेत मुझे बिलकुल न दिया जाये…। लेकिन यहाँ रहते हुए इस ‘बिराने देस’ में उसी भाई ने मुझे सगे भाई-सा स्नेह-सम्हार दिया…। एक घटना ख़ास है…पट्टे लगने का जो ज़िक्र पीछे हुआ, वह सड़क पार करते हुए कार से टकराने का था। उस वक्त लगभग 15 दिनों उन्होंने अपना दूध गरम करके मुझे पिला दिया था…जबकि ख्याति ऐसी थी कि भगवान आ जायें, तो सभाजीत भाई उन्हें भी अपने दूध की एक बूँद न दें…। इस सलूक से यहाँ न आना चाहने वाले अपने पूर्व सोच पर मैं बहुत शर्मसार हुआ था।

लेकिन इसी रिश्ते के चलते एक ऐसा राज़ फ़ाश हुआ, जिसमें श्रीधर भैया भी चपेटे में आ गये। हुआ यह कि इसके काफ़ी बाद कभी गाँव जाते हुए सभाजीत भैया अपने बक्से की चाबी मुझे दे गये, तो एक दिन कुछ खोजते हुए एक अंतर्देशीय हाथ लगा, जिसमें लिखा हुआ सब हू-ब-हू वही था, जो पत्र मुझे गाँव में दिखाया गया था और लिखाई थी गाँव-स्थित भतीजे मास्टर शिवाश्रय की। इसका मतलब यह साज़िश गाँव से की गयी थी, ताकि दूर स्थित इस भाई के नाम पर खेल हो जाये और वहाँ के आमने-सामने रहते लोग बरी रहें…। फिर तो यहाँ से गाँव गये उस पत्र के अक्षर भी मेरे स्मृति-पटल पर उभर आये और वह लिखाई इसी श्रीधर भैया की थी–याने शिवाश्रय के पत्र को श्रीधर भैया ने ही उतार कर भेजा था, क्योंकि सभाजीत भैया तो अँगूठाछाप थे। और यह जानते ही तो मैं खौल उठा…उन्हें खूब आड़े हाथों लिया–‘आप ऐसा कर कैसे सके? आप तो हम दोनो के रिश्तेदार हैं और मेरे रिश्तेदार पहले के हैं, जो सीधा रिश्ता है…। उनसे तो बाद में हुआ, जो सीधा न होकर ‘नाते के नात पनाते क पगहा’ जैसा है। ऐसे में उनके इस बेइमान काम के लिए आप उन्हें समझाते और जो होता, वह मुझे भी बताते…। यह सब सही काम न करके आप तो चुपचाप पत्र लिख कर उनकी तरफ़ से पार्टी हो गये–उनकी बेइमानी के हिस्सेदार हो गये…आदि-आदि। और इस पर भैया भी मेरे सामने मज़े के शर्मसार हुए थे। लेकिन श्रीधर भैया के पूरे जीवन में यही एक बात थी, जो उनके व्यक्तित्त्व में ऋणात्मक मिली और हो गयी थी कुछ झटके में…। बहरहाल, अब बता दूँ कि ऐसे में यहाँ रहने मैं आ कैसे गया…?

गाँव से आके मैं जिस अपने सगे बड़े जीजा के यहाँ उतरा, वे कमाने-धमाने में बिलकुल फिसड्डी, लेकिन मन के बड़े अच्छे व व्यवहार में ज़रूरत से ज्यादा मिलनसार थे। सो, वे अपने रिश्तेदारों, गाँव वालों से तो मिलते ही, रिश्तेदारों के गाँव वालों एवं गाँव वालों के रिश्तेदारों से भी घूम-घूम के मुम्बई में मिलते रहते…। इसी श्रिंखला में मुझे भी सबके यहाँ लेके जाते और दो ही चार दिनों के अंदर एक दिन कई लोगों से मिलते हुए बिना मुझे बताये ही श्रीधर भैया की इस खोली पर भी आ गये। फिर तो रामसेवक भैया मुझे देखते ही बड़े खुश हुए, लेकिन इस बात पर उतने ही चकित-हैरान भी कि मुम्बई में उनके होते मैं कहीं और रहने क्यों गया!! चाय-वाय के दौरान गहन अपनाव-सरोकार से भरी-भरी ऐसी बातें भी कीं – ऐसे सवाल पूछे, जो सगे बाप-भाई ही पूछ सकते हैं।

और चलते हुए अपने बचपन में मेरे घर रहने के लगावों के उल्लेख के साथ यहीं आके रहने का प्रबल आग्रह क्या किया, आदेश ही दिया–‘बस, कल सामान-वामान लेके आ जाओ’। मेरे जीजा का गाँव इनके गाँव की बग़ल में है, सो इस नज़दीकी से वे जीजा के स्वभाव व उनके यहाँ रहने के अभाव वाली व्यवस्था को भी जानते थे। लिहाज़ा, मैं उस वक्त उनके मान के नाते आने के लिए ‘हाँ’ बोल के, पर मन में न आने का पक्का करके वापस चला गया। और जब एक सप्ताह नहीं आया, तो अपनी रजा (छुट्टी) के दिन रामसेवक भैया स्वयं लिवाने आ गये…तब तो आना ही पड़ा। इस तरह घुमंतू जीजा को मेरी ज़िम्मेदारी से मुक्ति मिली और यहाँ आना मेरे लिए कितना-कितना अच्छा हुआ, मेरा जी-जीवन तो जानता है, अब इस लेख से आप भी जान चुके हैं–आगे और भी जानेंगे…।

लेकिन उस वक्त श्रीधर भैया ने जब शाम को आके मुझे देखा, तो बड़े निष्ठुर ढंग से और काफ़ी रूखे शब्दों में समझाया था–‘आय गइला, ठीक हौ; लेकिन जान लेया – ई घर ना हौ, इहाँ माई-बाबू, बहिनी-भैया ना हउएँ…अपनहीं कुल करे के होई – अपनहीं मरले सरग देखे के होई। इहाँ चार घरे के पाँच जने पहिलहीं से हउएँ। सबकर आपन-आपन आदत हौ। टुन्न-फुन्न, झगड़ा-तकरार अक्सर होते रहे ले। बकिन चाहे कुच्छू हो जाय, बात ‘सुरगेन सिपाही चाल’ से बहरे ना जात। अब तोंहंके लेके 5 घरे के छह जने हो जइहें। आ तू हउआ अपने घरे के अकेल लइक़ा, दुलरुआ–आछो-आछो कइके पालल…। बकिन इहाँ तुहीं सबसे छोट हउआ। कुल काम के भार तोहईं पे घहराई। तोहंके करहू के परी – सबकर सुनहू-सहहू के परी…। ई कुल जान-समझ के, सहि के रहबा–तबे रहि पइबा। फिर चिट्ठी जिन लिखिहा घरे कि इहाँ सब हमके सतावा ला…वग़ैरह-वग़ैरह। इहे कुल समझ ला, मान ला–त रहा ठाट से…’।

(आ गये, अच्छा है। लेकिन जान लो–यह घर नहीं है, यहाँ माता-पिता नहीं हैं, बहन-भाई नहीं हैं। अपने से ही सब कुछ करना होगा–खुद मर कर ही स्वर्ग पाना होगा। यहाँ चार घरों के पाँच लोग पहले से ही हैं। सबकी अपनी-अपनी आदतें हैं। कहा-सुनी, झगड़ा-तकरार प्रायः होते रहते हैं। लेकिन चाहे कुछ भी हो जाये, बात ‘सुरगेन सिपाही चाल’ से बाहर नहीं जाती। अब तुम्हें लेके पाँच घरों के छह लोग हो जाएँगे। और तुम हो अपने घर के इकले लड़के–दुलरुवे। बड़े लाड़-प्यार में पले…लेकिन सबसे छोटे यहाँ तुम ही हो। सब कामों का बोझ तुम पे ही गिरेगा, करना भी होगा, सबका सहना भी होगा। यह सब कुछ जान-समझ के, सह के रहोगे, तो ही रह पाओगे…। फिर चिट्ठी मत लिखना घर पे कि यहाँ सब लोग तुम्हें सताते हैं…आदि-आदि। यही सब समझ लो, मान लो…तो रहो ठाट से…’)।   ,

उस वक्त ग्रामीण संस्कारों में पले-बढ़े मुझे उनका यह सब कहना बड़ा अनुचित व नागवार लगा था–घर आये किसी से ऐसा कहा जाता है भला…!! कटु यथार्थ को भी यूँ बताने-कहने का ऐसा रवाज कभी रहा नहीं अपने यहाँ; लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते गये, उनकी कही बातें साकार होती गयीं…और उनके कहे मुताबिक़ रहना (गोकि दूसरा रास्ता भी न था) मुफ़ीद होता गया…। तब समझ में आया कि वे बड़े पनियाफ़ार (स्पष्ट) ढंग से जीवन के तल की सचाई मुझे दिखा रहे थे, ताकि वहीं से हम आगे बढ़ें–तनज़्ज़ुल (अवनति-पतन) की हद देखना चाहता हूँ, कि शायद तरक़्क़ी का ज़ीना वही हो’

कहना होगा कि भैया के इन दोनो रूपों को मिलाकर सज्जन पुरुष की अवधारणा वाले बचपन में पढ़े श्लोक का मानो दृश्य रूप ही मेरे सामने साकार हो गया हो–

‘नारिकेल समाकाकारा दृश्यंते भुवि सज्जना:। अन्ये बदरिकाकारा बहिरेव मनोहरा:’

(सज्जन पुरुष इस धरती पर नारियल के समान दिखते है (बाहर से कठोर, अंदर निर्मल-मीठा जल) और अन्य (दूसरी तरह के दुर्जन) लोग बेर की तरह–बाहर से ही कोमल (अंदर एकदम कठोर)।

अब भैया के निवास–याने ताक्यावार्ड की उस खोली का जायज़ा लें…। लगभग 12×12 फ़िट का एक कमरा था। उसी में खाना बनता–सब लोग मिल के बनाते… सबसे बड़े व सबके श्रेष्ठ होने से पंडित भैया को लोग काम छूने न देते, फिर भी वे कर ही देते कुछ न कुछ। श्रीधर भैया को छूट थी, फिर भी कभी-कभी कुछ करने की याद है (भाजी भूँजने के बिम्ब अभी आ रहे हैं), लेकिन वही अत्यावश्यके… या फिर छुट्टी-वुट्टी के दिन बड़ा मूड आ जाने पर…। कह दूँ कि श्रीधर भैया उस खोली के राजकुमार थे। जन्म से अपनी पीढ़ी की बड़ी संतान। यहाँ सबसे अधिक पढ़े-लिखे और अच्छे स्कूल में अध्यापक। सर्वाधिक काम आदतन प्रेमू भैया करते। मेरे भाई सिर्फ़ आँटा गूँथते और रोटी बेलते। लगके काम जगतजी भी करते…। मुझे खाना बनाने का कुछ न आता था – वहीं मैंने सीखा–याने वह खोली मेरे खाना बनाने की पाठशाला सिद्ध हुई…। क्या पाकशाला भी? क्योंकि आज मैं खाने की हर नियमित चीज़ (दाल -भात-रोटी-भाजी) यदि ठीक-ठाक बना लेता हूँ, तो वह कुर्ला की उसी खोली की देन है। और एक वक़्त ऐसा भी आया था, जब जगतजी लम्बे समय के लिए घर चले गये थे, तो दाल-भात-भाजी के साथ रोटियाँ सेंकने का भी काम मुझे ही करना पड़ता–और 70 रोटियाँ सेंकनी होतीं, क्योंकि मेरे दो और श्रीधर भैया के सात-आठ के सिवा कोई भी दस रोटी से कम न खाता और मिल में काम करने वाले मेरे भैया व प्रेमूजी 12 रोटियाँ लेके भी जाते…। बता दूँ–कि पंडित भैया बाहर का कुछ न खाते। उठउवा (घर से डब्बे का) खाना भी न खाते। 42 साल नौकरी की मुम्बई में, कभी चाय तक बाहर की न पी। मिल में कभी अगली पाली में आने वाला जाबर न आता, तो आठ घंटे फिर काम करते–बाहर जाके सेब-केला, चना-कुरमरा खा आते, लेकिन चाय-खाना कुछ और नहीं। गाँव जाते हुए तब 36 घंटे में बनारस पहुँचते, तो पहले मिट्टी के बर्तन-पत्तल-उपले…आदि ख़रीद के कहीं खाना बनाते-खाते…और उसके बाद आगे की यात्रा करते – बस द्वारा उन दिनों टुकड़े-टुकड़े में 8-10 घंटे की…!! ख़ैर, 

वहाँ खोली पर खाने के तुरत बाद सारे बर्तन साफ़ कर लिये जाते। अपनी खायी थाली के साथ खाना बनने वाले बर्तनों – टोप-तवा-पतीली-कड़ाही…आदि– में से एक-एक सब लोग उठा लेते…। श्रीधर भैया इसमें भी कसरियाते…। चाहते कि उनकी थाली भी कोई थाम ले उनके हाथ से…और मैं व जगत ही थे उनसे छोटे। कभी हम ले भी लेते, तो वे औपचारिक-सा ना करके सहर्ष दे भी देते। माँजे बर्तन उस मुख्य कमरे के उत्तर चाल-मालिक की चारो तरफ़ से बंद पड़ी ख़ाली जगह में रख दिये जाते, जिसे बाद में ख़रीद भी लिया गया। वहीं मोरी थी, जहां नल लगा था–सुबह आधे घंटे के लिए तेल की धार की तरह पानी आता, तो दो-तीन बाल्टी पीने भर के लिए भर लेते। बाक़ी का सारा काम चाल में स्थित बावड़ी (कुइयाँ) से होता। 15-20 खोलियों की उस चाल के बीच में मज़े की बड़ी एक खुली-ख़ाली जगह भी थी, जिसके बीच में पत्थर की दो पट्टियाँ रखी थीं। तो उस बावड़ी से बाल्टी में भर-भर के पानी लाया जाता और गाँव की तरह वहीं खुले में नहा लेते, कपड़े साफ़ कर लेते…। जिनके घरों में औरतें थीं, वे बावड़ी का पानी ले जाके अपनी खोली की मोरी में नहा लेतीं…।

सोने की व्यवस्था यह थी कि उसी एकमात्र कमरे में दो लोग ज़मीन पर बिछा के सो जाते। बाक़ी तीन लोग कमरे के बाहर के बरामदे में सोते, जो बमुश्किल पाँच फ़िट चौड़ा था। मेरे आने के बाद उसी में कोने वाली खाट मुझे मिली और वहाँ सोने वाले जगतजी भीतर सोने चले गये–याने बाहर-भीतर तीन-तीन। बरामदे की पहली खाट पर श्रीधर भैया सोते। 5 फ़ुटा लम्बाई के चलते भैया के पाँव को तो सिकुड़े रहना पड़ता, पर उनकी खाट चौड़ी ज़रा-सी अधिक थी। वरना बाक़ी हम दोनो की तो इतनी संकरी थीं कि करवट लेने के लिए पूरे शरीर को हवा में उठा के ही बाएँ-दाएँ हो सकते थे। लेकिन जीजा के यहाँ तो ढाई इंच ऊँचे पटरे पर सोता था। घुटने के नीचे के पाँव या तो मुड़े रहें या फैलके ज़मीन पर रहें…। फिर उसके मुक़ाबले तो यह सुख-सेज ही प्रतीत होता था। सच ही सुख-दुःख का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता, वे एक दूसरे की तुलना में ही कम-ज्यादा होते हैं। नरोत्तमदास जी ने ‘सुदामा चरित’ में दरिद्र सुदामा के राजोचित होने के बाद की स्थित्ति को लेकर ठीक ही लिखा है–

‘भूमि कठोर पे रात कटे, कहँ कोमल सेज पे नींद न आवत।

कै जुरतो नहिं कोदो-सवां, प्रभु के परताप ते दाख न भावत’।

ख़ैर, हमारे सोने की यह व्यवस्था तब बदली, जब मैंने बी.ए. में प्रवेश ले लिया। सुबह 7 बजे की कक्षा होती, तो साढ़े पाँच बजे उठके चाय…आदि बनाने के लिए उस मुख्य कमरे की ज़रूरत पड़ने लगी। तब मैंने प्रस्ताव रखा कि मैं अंदर ही ज़मीन पर सोऊँ…ताकि किसी को सोने में या उठने की दिक़्क़त न हो। लेकिन अंदर दो लोगों को सोना था, तो एक को दिक़्क़त होनी ही थी। तब तक श्रीधर भैया मेरी पढ़ने-लिखने व रुचि-सोच की कुछ अलग वृत्ति से वाक़िफ़ हो चुके थे। अत: उन्होंने एक और सहयोग-त्याग किया–या कहें कि संगति बिठायी…मेरे साथ वे भी अंदर वाले कमरे में ज़मीन पर सोने आ गये। हम एक ही बड़ी चटाई व बड़े-चौड़े गद्दे पर सोने लगे और पंडित भैया तथा प्रेमू भाई हमारी खाटों पर बरामदे में चले गये। अब हमें पैर मोड़ने, करवट बदलने की दिक्कतों से मुक्ति मिली।

सुबह के कॉलेज के कारण मैंने पूरे दो सालों के लिए अपनी नौकरी का समय शाम को साढ़े तीन से रात के दस बजे का करवा लिया–डाक-तार विभाग की ‘अहर्निशं सेवामहे’ का सुफल!! और मैंने विभाग से अनुमति भी ली थी पढ़ने की, तो ऐसे सहयोग की विभागीय वैधानिकता भी थी। फिर रात 11 बजे वापस आने पर भी खाने-पीने के लिए उस कमरे की दरकार होती और भैया तो लेट आते ही…। इस तरह दोनो की संगति बन गयी…। हम साथ में खाते–जो पहले आ जाता, दूसरे का इंतज़ार कर लेता …। फिर धीरे-धीरे हम देर रात तक बातें करने लगे और एक दूसरे के दुखम-सुखम के अलावा सोच-संस्कार से भी वाक़िफ़ होने लगे…। यही वे दिन साबित हुए और वह खोली ही साधन बनी, जब हममें एक दूसरे के भाव व समझ ने सांसारिक व ज़ेहनी मुक़ामों से होते हुए मन के गहन-गह्वरों तक पहुँचने के सफ़र तय किये और आगे के सम्बंधों को चिर स्थायित्व मिला…।

अब इसके बाद तो कहना बनता है कि ताक्यावार्ड की वह खोली श्रीधर भैया के स्तर व स्थिति के अनुकूल बिलकुल न थी। लेकिन वही कि करें क्या, जायें कहाँ–बल्कि जायें कैसे? मुम्बई में अलग या अच्छा घर लेने की स्थिति न थी। गाँव में 15-20 सदस्यों का सम्मिलित परिवार चलाना था, वहाँ के बड़े आदमी होने के स्तर को बनाये भी रखना था। हमारे यहाँ की यह पारिवारिक-सामाजिक संस्कृति ऐसी रही (बहुत हद तक अब भी है), जिसे शहर के बंदे समझ तक नहीं सकते। यह चलाना किसी को दिखता-लगता भी न था–वे रहते भी ऐसे थे। मसलन, चाल के सारे लोगों से बड़ी आत्मीयता से बात करते–सबका सुख-दुःख जानते, साझा करते। यह न दिखाते कि वे कोई बड़े आदमी हैं–और यही उनकी ‘बड़े आदमीयत’ थी। बहरहाल, भैया बाहर से अच्छी तरह वहीं रह के चला रहे थे, पर अंदर से किसी-किसी तरह निभा रहे थे…और किसी को इसका पता भी न चलने देते। इसी एहतिहात वश वे कभी किसी मित्र को घर लाते न थे–सिवाय एक शर्माजी के, जिनसे बेहद घरू सम्बंध हो गये थे। यह चलाना इसलिए भी चल जाता कि सुबह 9-10 बजे खाके निकलते, तो रात को 9-10 बजे ही आते। स्कूल के बाद कुछ ट्यूशन भी करते…। फिर उनका मित्र-मंडल भी बड़ा था, तो मिलते-जुलते हुए आते। और उनका सबसे बड़ा अड्डा था – अपने घर से मुख्य सड़क पर निकल के दो मिनट की दूरी पर स्थित लालता शुक्लजी का घर। उनकी दूध की दुकान भी थी, जहां भैया ने रोज़ पीने का दूध भी बँधा रखा था। पीछे शुक्लजी का एक ठीक-ठाक सजा कक्ष भी था। उनके भतीजे लाली से भैया की बड़ी गाढ़ी दोस्ती हो गयी थी। सो, सारा काम ख़त्म करके आते हुए वहीं बैठ जाते…। और घर पे कोई कभी न पूछता कि कहाँ रहे…।

फिर भी खाने पर उनका इंतज़ार होता–कभी आ भी जाते! प्राय: न आने पर कभी-कभी तंज में या मज़ाक़ में यह भी कहा जाता–काहें आये, वहीं सो क्यों नहीं गये? याने बच्चा में राजकुमारत्व का बोध तो उनके रहन-सहन-व्यवहार में था ही, उसे वहाँ के सहवासियों ने सहर्ष सम्मान व बढ़ावा भी दिया था। और पंडित भैया का अपने भतीजे ‘बच्चा’ के प्रति प्रेम क्या, मोह या आसक्ति कह लें, ऐसा था कि उनकी चलती, तो उनका बर्तन भी माँज देते और खाना खाट पर देते ही नहीं, अपने हाथ से खिला भी देते। लेकिन ऐसा न हुआ, तो बस लोक लाज के मारे, वरना श्रीधर भैया खाट पर बैठ के खा भी लेते…!! लेकिन कभी यह भी देखा कि जब वे दोनो ही खाके सबसे बाद में उठते, तो पंडित भैया का बर्तन श्रीधर भैया उठा लेते व माँज देते और वे छोड़ भी देते…। हमारे समाज की छोटे-बड़े की यह संस्कृति भी सनातन रही, जो अब तो लुप्तप्राय हो गयी है। कभी पंडित भैया लेटे रहते, तो श्रीधर भैया उनके पाँव भी दबाने लगते…। पिताओं व बड़े भाइयों के पाँव दबाना अपने यहाँ एक प्रच्छन्न परम्परा जैसा रहा है। और भैया के ऐसा करते वक्त पंडित भैया के चहरे पर उभरे तृप्ति के भाव देखते ही बनते…। तात्पर्य यह कि दोनो का यह प्रेम पारंपरिकता व अधुनातनता का ऐसा मिला-जुला रूप था, जो अपरिभाषेय ही कहा जा सकता है, जो अंत तक निभा भी…। फिर पंडित भैया जब गाँव जाते, अपने बड़े भाई ब्रजभूषण तिवारी (श्रीधर भैया के पिता) के पाँव दबाते देखे जाते…।

अपनी खोली की व्यवस्था ऐसी थी कि खाना तो शरीकत में बनता – याने पूरा खर्च लिखा जाता और कुल व्यय को छह भागों में बाँट दिया जाता…। लेकिन यह सिर्फ़ भोजन की शरीकत थी – दाल-भात-भाजी-रोटी की। कभी-कभार और तर-त्योहारों को खीर-पूरी भी बनती…। वरना किसी को घी-दूध-फल… आदि खाना है, तो वह अपना-अपना होता–लाओ-खाओ…। इसमें श्रीधर भैया व सभाजीत भाई के दूध पीने के ज़िक्र हुए। और कोई नियमित दूध पीने वाला न था। लेकिन एक बार श्रीधर भैया घी ख़रीद लाये–शायद स्वास्थ्य के लिए किसी की सलाह पर…। अब यदि दाल में घी डाल के खाते, तो सबके सामने अकेले घी खाना अच्छा नहीं लगता। सो, वे ब्रश करने के बाद कटोरी में लेके गुड़ के साथ खा लेते…। दो-चार दिनों बाद उन्हें शक हुआ कि उनके खाने के मुक़ाबले घी ज़्यादा ही खर्च हो रहा है–याने कोई और भी खा रहा है। उन्होंने रात को मुझसे बताया और कहा भी कि अब मैं बंद कर देता हूँ…देखते हैं – क्या होता है…। और घी का डब्बा सचमुच एक दिन ख़ाली हो गया। लेकिन इसका न पता किया जा सकता था, न भैया ने कोशिश की…और न यह बात किसी को बतायी–बस, फिर घी लाये ही नहीं–और किसी ने पूछा भी नहीं कि लाना बंद क्यों किया!! पाँच घरों के छह लोगों के साथ में रहने की यह अदा भी मुझे भा गयी–सब तो अपने ही हैं, किसे कहें–‘पुतवौ निंक, भतरो निंक, केकर किरिया खाँव…’? विष्णु प्रभाकर ने ‘रहना-सहना-कहना’ को ‘घर की तीन कुंजियाँ’ बताते हुए लिखा है–‘आप किसी के साथ उतने ही दिन रह सकते हैं, जितने दिन उसे सह सकते हैं’लेकिन ऐसा…या ऐसे…सहना…? मेरे लिए तो ग़ज़ब है…श्रीधर भैया ही कर सकते थे…!!

भैया के राजकुमारत्व का एक अभिनव आयाम देखें…एक ही चटाई पर साथ सोने के दौरान कॉलेज जाने के लिए मै पहले उठता…। मेरे तैयार होते-होते श्रीधर भैया जागते और उठने की प्रक्रिया में ज़ोर से कराहते और फिर ऐसे झटके व हौले से उनकी याचना-भरी चीख आती–‘अरे सत्देव भाई, तनी हई देखा हमार पिठिया त अकड़ि गइल…हिलही ना देति हौ…तनी भैया मल दा तौ…मोर भैया न…’। फिर इसमें दो मिनट देर होते ही ‘अरे जल्दी आवा, नहीं त टुटि के गिर जाई’…। और मैं कपड़े पहने-अधपहने आके मलने लगता…दो-चार मिनट बाद रुकवाते और उठ के बैठ जाते–कुछ-कुछ दुआ-असीस-उपकृत जैसा बोलते…। यह रोज़ नहीं, तो सप्ताह में चार दिनों तो होता ही…। और ग़ज़ब यह कि रोज़ के शब्द-भाव-अंदाज बिलकुल अलग होते–गोया पहली और आख़िरी बार कह रहे हों…। मैंने इसे अपने रोज़ के एक काम के रूप में मान लिया था, लेकिन उनके वाक्-वैविध्य का बड़ा मज़ा भी आता…।

वह करते हुए एक दिन मुझे याद आ गया था कि इनका यह रमना नया नहीं, पुराना है…। कभी गाँव में भी देखा था, जब 4 बजे सुबह-सुबह गन्ना की पेराई होती थी और मज़दूर तो सूरुज-उग़ानी (साढ़े छह-सात बजे) के पहले आते न थे। तब इनके छोटे भाई राजनारायण बैलों को नाध के पेरना शुरू कर देते। वे खाँटी व पक्खड गृहस्थ थे। ‘मैं पढ़ूँगा नहीं, खेती करूँगा…मुझे पढ़ने मत भेजिए’ – ऐसा साफ़-साफ़ कह के पढ़ाई छोड़ के किसानी करने वाले शख़्स मेरे अनुभव में अब तक के वे इकले रहे और हैं। अभी (सितम्बर,2023) जीवित हैं, पर अब न काम करने लायक़ हैं, न यांत्रिक खेती में ज़रूरत ही है। और मैंने घोषणा कर दी है कि उनके रहते मैं सुरहन आता रहूँगा, लेकिन उनके बाद शायद नताई करने आना छोड़ दूँ – क्योंकि नयी पीढ़ी शादी-व्याह के अवसरों के सिवा आना नहीं चाहती। बहरहाल,

उस सुबह पर चलें…। कल में गन्ना लगाने के लिए राजनारायण भाई को एक आदमी की दरकार होती…। और बड़े व युवा होने से अपने कर्त्तव्य का बोध श्रीधर भैया को भी होता…। लेकिन उनका पीठ-दर्द वहाँ भी होता…ऐसे ही झटके-हौले से तब भी किसी को बुलाते–प्राय: राजनारायण भाई ही कल खड़ी करके आते–सहलाते…और कह भी देते–‘भाय, तू रहे दा…सुत्तल रहा–हम कै लेब अकेले’… और ये सचमुच सो जाते…वे कर भी लेते…। लेकिन वहाँ इसे इनकी पीठ पीछे जंगरचोरी (काम से जी चुराना) का स्थायी बहाना माना जाता, क्योंकि लोक किसी को मिटाता नहीं, तो बख़्शता भी नहीं। इसी से यहाँ इन आदतों को आलस्य-सुकुमारता समझा जाता…। मेरी समझ में सचाई दोनो को मिला के ही बनती है। लेकिन मैं फिर एक ही शब्द में इसे वही कहूँगा–‘श्रीधर भैया का राजकुमारत्व’…!!

इसी तरह स्कूल जाने के लिए पैंट-शर्ट पहन के कमरे से निकलते और बरामदे में खाट पर बैठकर जूता पहनने लगते, तो बाक़ी सब चीज़ें याद आतीं…फिर वहाँ जो भी होता, उससे कलम-पैसा-रूमाल-चश्मा… आदि तमाम पूरक चीजें एक-एक कर माँगते और जो भी उस वक्त आस-पास होता, सहर्ष देता भी…। कभी यदि स्वेच्छा से खाना बनाने बैठ जाते, तो स्टोव जलाने से लेकर कड़ाही-बटलोई, कलछुल, चमचा -संडसी से लेकर तेल-मसाला…आदि तक किसी को देना होता…। इसके लिए मै उन्हें ‘अंकल पोज़र’ कहता, जो अंग्रेज़ी की सरनाम कहानी ‘अंकल पोज़र हैंग्स अ पिक्चर’ का केंद्रीय चरित्र है। वह दीवाल पर एक चित्रा टांगने के लिए सीढ़ी, उसे पकड़ने वाले से लेकर हथौड़ा-खीली-तस्वीर सब देने के लिए पूरे परिवार को इकट्ठा कर लेता है और अंत में सीढ़ी लिये-दिये गिर जाता है…। यह नाम उन पर चस्पा तो न हुआ, पर ऐसा होते वक्त लोग मुस्कुरा के, मज़ाक़ में कह ज़रूर देते–‘अंकल पोज़र’…!!

सो, भैया का यह सब गाँव से मुम्बई तक त्रिकाल में स्वीकार्य था, क्योंकि वे हर स्थिति में सबके सुख-दुःख के भागीदार भी होते…। गाँव में रहते अपने राजनारायण भाई के भी सुख-स्वास्थ्य का ख़ास ध्यान हमेशा रखा। भैया सबके दुःख-कठिनाइयाँ सुनते और यथाशक्ति, यथासंभव उसे मिटाने के प्रयत्न में लग जाते–मेरी आँख के टेस्ट की तरह। कुल मिलाकर इस मामले में ‘लकी’ थे बच्चा–छोटे-बड़े सबके दुलरूवे, सबके आदरणीय…!! और इसी सबमें तो निहित थे श्रीधर भैया…यही उनकी निजताएँ ही तो उनकी पहचानें थीं। इन्हीं से बने थे वे, तो इन्हीं में प्रकट होते…। और यह न होता, तो वे भी सबकी तरह सामान्य हो जाते–फिर बताने में यह मज़ा भी कैसे आता…?

लेकिन हमारा यह सब साल भर ही चला…। मेरे बी.ए. के पहले साल के परिणाम आये। काफ़ी अच्छे अंक मिले, जिसके आधार पर हमारे अध्यापकों को अगले साल बी.ए. में मुझे सर्वाधिक अंक पाने (टॉप करने) की संभावना दिखी। यह बात उन्होंने प्राचार्य डॉक्टर रघुवीर सिंह को बतायी ही नहीं, एक दिन सभी विभागीय अध्यापकों के साथ मुझे उनके सामने सगर्व खड़ा भी कर दिया। ज़ाहिर है कि खुश होके उन्होंने बधाई दी–गर्मजोशी से हाथ मिलाया…लेकिन फिर गुरुजी ने लगे हाथों मेरे रहने-करने के संकट भी संक्षेप में बता दिये…। और प्राचार्य ने तुरत कह दिया–‘तो हॉस्टल दे देते हैं और ये टॉप करें – कॉलेज का नाम रोशन करें…’। (भैया के इस संस्मरण में यहाँ इतना अपना जोड़ रहा हूँ, क्योंकि इस फल-प्राप्ति का बीज-वपन भी भैया का ही किया हुआ है… हमारे यहाँ यह मान्यता है कि 24 घंटे में एक बार आदमी की जिह्वा पर सरस्वती बैठ के बोलती हैं। तब उसका बोला सच हो जाता है। सो, उस वक्त प्राचार्यजी की जिह्वा पर बैठी रही होंगी–वह सच हो गया 1975 में। फिर तो उसके लिए मुझे एम.ए. के दौरान विश्वविद्यालय से दो साल छत्रवृत्ति भी मिली। उसी प्राप्ति के लिए कॉलेज ने बतौर सम्मान ‘फ़ेलो’ बना दिया – 125/ महीने उसके भी मिलने लगे। छात्रावास मुफ़्त था पहले से ही…। उसी साल महाराष्ट्र में 10+2+3 व्यवस्था लागू हुई, तो सप्ताह में विभाग की नौ कक्षाएँ बढ़ गयीं। फिर प्राचार्य ने कहा–‘नौ कक्षाओं के लिए अलग से नियुक्ति क्यों की जाये? अपने उसी स्कॉलर को दे दें–‘लेट हिम गेट एक्सपीरिएन्स ऑल्सो’। फिर उसके लिए 15/ प्रति घंटा के हिसाब से अलग वेतन मिलने लगा। कुल मिलाकर भैया के किये-कराये के प्रताप से इतना कुछ हुआ – उतना भौतिक नहीं, जितना सम्मान्य…कि गाँव के मुहावरे ‘इनके यहाँ तो लक्ष्मी गोड़ तोड़ के बैठ गयी हैं’ को बदलकर कहूँ, तो ‘सरस्वती ने गोद में बिठा’ लिया था मुझे)।

इस प्रकार 1974 में बी.ए. के दूसरे साल की शुरुआत (जुलाई-अगस्त) में इसी छात्रावास-सुविधा के साथ कुर्ला की वह खोली छूटी। रोज़ वाला भैया का और खोली-परिवार का साथ छूटा, जो बहुत खला। वहाँ रहने की सकेस्ती बहुत थी। पढ़ने-लिखने की बड़ी असुविधा थी, लेकिन भाई लोगों के दिलों में इतनी अपार जगह थी, कि मैं अपना शरीर ही लेके छात्रावास जा सका–मन तो यहीं रह गया…, जो खींचता रहता। यही कारण था – बल्कि दिली माँग थी कि साढ़े तीन साल मैं हॉस्टल में रहा और अपनी कक्षाओं में पढ़ने, परीक्षा के लिए तैयारियों और कॉलेज की कक्षाएं लेने के साथ 8 घंटे की पोस्ट ऑफ़िस की नौकरी, जो आते-जाते मिला के दस घंटे हो जाती… आदि सब व्यस्तताओँ के बावजूद हर सप्ताह या दस दिनों में एक बार तो खोली पर अवश्य जाता और ऐसा अंदाज के पहुँचना चाहता कि श्रीधर भैया के साथ सबसे भी भेंट हो जाये…और जब जाता, भोजन तो करना ही करना पड़ता–भले रुक के इंतज़ार करना पड़े। कभी दस दिनों से ज्यादा हो जाये, तो सभी उलाहना देते…। त्योहारों के दिन तो खाने के लिए वहाँ जाना ही होता, वरना बाद में इतनी फटकार मिलती कि मिट्टी पलीद हो जाती। आज वैसी अपनत्व भरी फटकारों के लिए मन तड़प के रह जाता है…। इसके अलावा भी जिस दिन वहाँ पूरी-खीर वग़ैरह जैसा कुछ ख़ास बनना होता, भैया बताने या बुलाने हॉस्टल चले आते, क्योंकि तब मोबाइल थे नहीं और हॉस्टल की ऑफ़िस के फ़ोन पर पब्लिक बूथ से फ़ोन हो नहीं पाता, क्योंकि वह अक्सर बिगड़ा या फिर व्यस्त रहता…। बहुत दूर न था, बस से 15 मिनट की बात थी, लेकिन कभी-कभी तो भैया बताने-बुलाने आ जाते और मैं न मिलता…। क्योंकि मेरा आना निश्चित ही न होता, जिससे वहाँ किसी को ठीक पता भी न होता…। लेकिन इससे अगली बार बताने आने पर भैया को कोई उज्र न होता…। भैया के इन प्रेम-प्रयत्नों, खोली के सभी लोगों की वैसी स्नेहभरी हौंस-धौंस के लिए आज भी एकांत क्षणों में मन तड़पता है…उसी 12X 12 की खोली में पहुँच जाने का मन हो जाता है–कवि बिहारी की तरह – ‘मन होइ जात अजौं वहै उहि जमुना के तीर’।

बी.ए. के बाद जब एम.ए. करने गया, तो मैंने भैया से भी प्रस्ताव रख दिया…। वे असल में एम.ए. की समकक्ष योग्यता ‘साहित्यरत्न’ करके पढ़ाने लगे थे, लेकिन औपचारिक रूप से एम. ए. करने की उनकी लालसा का पता मुझे उन रातों की अपनी गुफ़्तगुओँ में चला था। और तभी मेरे मन में बात उठी थी कि अपने साथ एम.ए. करने के लिए मैं भैया से कहूँगा…। थोड़ी-सी हिचकिचाहट के बाद उन्होंने मान भी लिया। अब हम भाई से सहपाठी भी हो गये…। कह सकता हूँ कि भैया का एम.ए. उतनी आसानी से हुआ, जितनी की उम्मीद मैंने न की थी। असल में खालसा कॉलेज ऐसा केंद्र था हिंदी वालों का, जहां मुम्बई के सभी डोलू-बोलू (सक्रिय कह लें) अध्यापकों का आना-जाना था, तो सबसे परिचय व हेल-मेल हो गया था। थोड़ा असर बी.ए. में सर्वोच्च अंकों से पास होने का भी था। लिहाजा भैया का साल में बमुश्किल दस एक बार ही कक्षाओं में आने से काम चल गया। लेकिन भैया इतने सज्जन व मिलनसार थे कि इतने में ही अपनी शालीनता-व्यावहारिकता से वे मेरे लगभग सभी दोस्तों के भी ‘भैया’ हो गये। हमारे बीच ‘भैया’ ही उनका नाम पड़ गया…। खूब मज़ा आया। उनमें से दो-एक तो अब तक सम्पर्क में हैं। उनसे गाहे-ब-गाहे होती बातों में भैया की चर्चा आज भी कभी हो जाती है। कुछ प्राध्यापकों से भी उनके अच्छे ताल्लुक़ बने। श्री दयाराम पाण्डेय, डा. टी.एन. राय, डा. राम सकल शर्मा… जैसे कुछ के तो घर भी आना-जाना हुआ। उन दिनों उक्त सभी के सहयोग से भैया के लिए किताबों व लिखित सामग्रियों का भी इंतज़ाम आसानी से हो जाता…। खोली पर जाते उन दिनों, तो भी अक्सर एम.ए. की कक्षाओं व पढ़ाई की ही बातें होतीं…पाठ्यक्रम की रचनाओं या कुछ मुद्दों पर चर्चाएँ हो जातीं…। याद आता है कि उन दिनों बात करते-करते कई बार मैं वहीं भैया के साथ सो भी जाता–पहले की तरह। सुबह उठके चाय बनाता, पीता-पिलाता…उन क्षणों की यादों में तिरना आज भी अच्छा लगता है। भैया ने मेहनत की। समझ अच्छी थी। साहित्य के संस्कार थे और सबसे अच्छा यह कि उनके पास एक सु-मन था, जो साहित्य के लिए बहुत मुफ़ीद होता है। बस, ज्यादा लिखने की आदत छूट गयी थी, जिसे साधा भैया ने। उसका सुफल भी मिला। उनकी उम्मीद से अधिक अंक मिले–55% से ऊपर…किसी भी योग्यता के लिए मानक, जिसकी ख़ुशी मुझे अपने 67% पाके पुनः सर्वोच्च आने से ज्यादा हुई…। भैया की एक आकांक्षा पूरी हुई, मैं उसका निमित्त बना – सार्थक हो गये दो साल…!!

एम.ए. की परीक्षा के परिणाम तो उस साल (1977) देर से आये–सितम्बर में। लेकिन गुरुवर चंद्रकांत बाँदिवडेकर की संस्तुति पर मुझे चेतना कॉलेज में नौकरी मिल गयी छह जुलाई से ही… और मैंने भी जून में परीक्षा ख़त्म होने के बाद से पोस्ट ऑफ़िस की नौकरी पर जाना ही बंद कर दिया था। अब छात्रावास छोड़ना था, लेकिन रहने की कोई व्यवस्था नहीं थी। भैया जितना सहनशील मैं न था। इसलिए अपनी खोली पर जाना नहीं चाह रहा था। डर भी था कि वहाँ चला गया, तो वहीं रहने के लिए अभिशप्त हो जाऊँगा–भैया की तरह ही छोड़ नहीं पाऊँगा–इस प्रकार वे ही नहीं, उनका जीवन भी हमारा पाठ-प्रदर्शक बना और उनसे अलग राह पर चला…, क्योंकि उनकी राह कठिन थी–मैं चल नहीं सकता था। इसलिए उन लोगों को अपनी आवास-समस्या मैंने बतायी ही नहीं। बताता, तो रहने जाना पड़ जाता…। इसे मैं खास उल्लेख्य समझता हुं कि न छात्र रह गया था, न फ़ेलो – याने बिना किसी वैधता के मै नौ महीने छात्रावास में रह गया, लेकिन कभी किसी ने कुछ कहा तक नहीं–पूछने की तो बात ही क्या…!! छात्रावास अधीक्षक प्रो. मोहिन्दर सिंह (अध्यक्ष, रसायन शास्त्र विभाग) कभी कहीं मिल जाते। नमस्ते करता। वे हालचाल पूछते…उस दौरान मैं ही कहता–सर अभी तो यहीं हूँ। वे बड़ी सादगी से कहते–कोई बात नहीं…देख लो कहीं आराम से…।

यह भी भैया और उस खोली के साथ किसी पूर्व जन्म का नाता ही रहा होगा कि नौ महीने बाद एक दिन इतिहास विभाग के प्रो. आर.आर. सिंह आये और ‘क्या पंडित, यहाँ से तभी जाओगे, जब तुम्हारा सामान बाहर फेंक दिया जायेगा…. कहते हुए आनन-फ़ानन में मुझे उठा ले गये अपने लॉज में, जहां वे दो खाट का एक पूरा कमरा लेके 14 सालों से अकेले रहते थे। वह ‘गंगा-जमुना’ लॉज हमारी ‘सुरगेन सिपाही चाल’ से चल के 5 मिनट की दूरी पर था। सो, खोली में न रहते हुए भी खोली के पास रहने की आदर्श स्थिति बन गयी। बाबा शब्दश: सही हुए–‘जब जैसी भवितव्यता, तैसी मिलै सहाइ। आपु न जाइ तहाँ पर, ताहि तहाँ लइ जाइ’।। लेकिन खोली के रहिवासियों के साथ मेरे रिश्ते के लिए ज्यादा सही यह है ‘जा पर जाकर सत्य सनेहू, सो तेहिं मिलै न कछु संदेहू’। अब तो हर तीसरे दिन पहुँच जाते। खूब छनी-खूब रमे…। तब तक भैया का दूसरे नम्बर का बेटा राजेश पढ़ने के लिए मुम्बई आ गया था। आठ एक साल का रहा होगा – लॉज में उसके आने की याद आ रही है…।

लेकिन दो साल ही चला यह साथ। इसी दौरान मेरा प्रेम परवान चढ़ा और मै 1980 के दिसम्बर में शादी करके, लॉज छोड़ के विलेपार्ले रहने आ गया। अंतरप्रांतीय होने से घर-गाँव के लिए शादी कुछ दिन गोपनीय रही, लेकिन बताने पर भैया तुरत आये…और कुल दो-चार बार ही आने की याद है। साल-दो साल के मेरे बेटे के साथ उनका बच्चों जैसा खेलना याद तो है ही, कभी-कभी चर्चित हो जाता है…। कभी लगता है कि यह भी कुदरत की ही योजना रही होगी कि प्रेयसी-पत्नी के साथ इतने प्रगाढ़ रिश्ते के बिना भैया व चाल की उस खोली को छोड़ कर मैं रह न पाता, सह न पाता…। शब्द-संगति के मोह में मराठी में कहने का मन हो रहा–‘मुल्गी मिणाली, खोली सुटली’।

इसी के बाद उस खोली से मेरे सम्बंध कभी-कभार वाले हुए…। और वह खोली भी धीरे-धीरे दरक रही थी। पंडित भैया तो मेरे छात्रावास जाने के पहले ही 1973-74 के दौरान मिल से सेवामुक्त होकर घर गये, तो बहुत दिनों रह न पाये–जल्दी ही स्वर्ग सिधार गये। ऐसे अजीब मंजर भी मैंने काफ़ी देखे हैं कि उस पुराने दौर के उत्तर भारत के लोग पूरी ज़िंदगी कर-कसर-कटूसी कर-कर के मुम्बई-कलकत्ता …आदि शहरों में कमाते। सारे पैसे घर भेजते–वहाँ पक्का घर बनवाते, खेत ख़रीदवाते, बच्चों के शादी-व्याह रज-गज से कराते और यह सब करते हुए यह सपना पाले रहते कि सेवामुक्त होकर जायेंगे, तो ठाट से रहेंगे…। और इसी ख़्वाब को संजोये अकेले या समूह में खुद बनाते-खाते ज़िंदगी बिता देते…। लेकिन वही कि ‘जन जुटाये घरी-घरी, ख़ुदा ले जाये एक्के घरी’। ठीक-ठीक याद नहीं, पर उस वक्त पूरी खोली ख़ाली थी – शायद गर्मी-दीवाली के दिन रहे होंगे, जिससे सब लोग गाँव गये रहे होंगे और परीक्षा …आदि के कारण मैं खोली पर अकेले रहा हूँगा…क्योंकि रो-रो कर भैया के नाम चिट्ठी लिखने की याद आ रही है मुझे…याने श्रीधर भैया व बाक़ी सभी वहीं रहे होंगे…।

यह ध्यान देने की बात है कि उसके बाद तो श्रीधर भैया अपनी ज़िंदगी जी सकते थे…अपने रहने का माकूल इंतज़ाम कर सकते थे। लेकिन बाक़ी खोली वालों याने मेरे भाई व अपने मामाओं के लिए भी वे उसी तरह साथ रहे…। ऐसे भैया के प्रति हमारे मन का सारा आदर-सम्मान उनकी इसी संसक्ति, मनुष्यता, सांस्कृतिक सरोकारों के लिए है। आज अपने सगे भाई-बहन – अब तो माता-पिता तक के लिए कोई ऐसा त्याग नहीं कर रहा…। अभी-अभी एक मामला ऐसा आया है कि अपनी अनव्याही युवा बेटी को विरार में अकेली छोड़कर बेटे के मोह में मां, फिर पत्नी-बेटे के मोह में पिता भी बोइसर रहने चले गये…। तो ऐसे समय में श्रीधर भैया का ऐसा करना सचमुच प्रणम्य है और अद्वितीय भी…।

मैं 1980 के दिसम्बर में कुर्ला-लॉज से गया और 1982 में मिलों को मुख्य शहर से बाहर ले जाने की सरकारी पहल के समय फ़िनले मिल बिकी और बंद हुई, जिसके चलते सारे कामगार बेरोज़गार हो गये। तब अपने उत्तर भारत के लोगों के ‘अपने मुलुक’ चले जाने के प्रवाह में प्रेमनारायणजी व मेरे भाई सभाजीतजी भी सदा के लिए गाँव चले गये…। प्रेमू का तो पता नहीं, लेकिन अविवाहित सभाजीत भाई साहब का तो सब पता है, जिसके लिए एक अलग पोथन्ना दरकार होगा। इस विघटन के संदर्भ में सिर्फ़ इतना कह दूँ कि जिस भतीजे शिवाश्रय त्रिपाठी को उन्होंने आठवीं के बाद शहर भेजकर और उन दिनों (पिछली शताब्दी के छठें-सातवें दशक में) हर माह सौ रुपए भेज कर 14-15 सालों पढ़ाया, क्योंकि दसवीं से बी.एससी. तक हर कक्षा में उन्होंने दो-दो, तीन-तीन साल से कम न लगाये…। वे हाई स्कूल में अध्यापक भी हुए, पर बीमारी के दिनों में इन्हें छोड़कर अपने परिवार सहित बाज़ार में रहने चले गये…और उनकी दूसरी वाली विधवा बहू ने उनका गू-मूत सब किया…। याद आ रहा–

      जिन्हें प्यार के अर्थ ही व्यर्थ निकले, वो इंसानियत के ख़रीदार निकले।

      कहीं एक मासूम सी रहगुज़र पर, फटे हाल मुफ़लिस वफ़ादार निकले… बहरहाल,

इस प्रकार उस खोली से सबके चले जाने के बाद जाकर भैया ने अपनी निजी ज़िंदगी की पहल की – भाभी को मुम्बई लाये…। उनके रहते उस खोली में जाने, भाभी से खूब बतियाने एवं उनके पूजा-पाठ करने और फिर झड़प से खाना बनाके खिलाने की साफ़ याद आ रही है मुझे…, लेकिन मिलने आना होता – वही ‘कभी-कभार वाला’। फिर कुछ समय पश्चात भैया अपने स्कूल के आवास में रहने अणुशक्ति नगर गये, जो मेरे घर (विलेपार्ले) से काफ़ी दूर है। याद नहीं आता कि मुम्बई के घर से कब उनसे मिलने गया…, लेकिन 1989 में मैं चेतना कॉलेज छोड़के गोवा विश्वविद्यालय में पढ़ाने चला गया…तब औसतन हर दो महीने में एक बार घर आता। हमारी बस सुबह-सुबह अणुशक्ति नगर से गुजरती और मैंने नियम बना लिया था कि उतर कर पहले भैया के घर जाता। तब मोबाइल न थे–फ़ोन भी इतने आम न थे कि बता के बस पकड़ता…। सो, सोते से जगाता सबको। चाय पीके नहाता, नाश्ता करता और भैया-भाभी-बच्चों से खूब सारी बातें करता…। दोपहर के खाने पर घर पहुँचता…। यह कार्यक्रम ढाई-तीन साल तो चला…। उसी दौरान भैया 1993 में सेवामुक्त हुए…। मैं गोवा से पूना चला गया। फिर मुम्बई–फिर काशी विद्यापीठ के बीच काफ़ी चलायमान रहा…। इसी सब में मिलना ‘न मिलने’ जितना अनियमित रहा–गोकि फ़ोन पर हाल-समाचार होते रहे…और बनारस रहने के दौरान गाँव जाना अधिक होता, तो ज्यादा हाल-चाल वहाँ उनके घर से मिलते…।

दिसम्बर 2011 में ‘पुन: मूषको भव’ या फिर ‘मैं जहां कहीं भी भूलूँ-भटकूँ या भरमाऊँ, है एक यही मंज़िल, जो मुझे बुलाती है…’ की तरह जब मैं मुम्बई बहुरा, तो फिर भैया से मिलना नियमित हुआ–वही महीने-दो महीने में एक बार की तरह। तब देखा (सुनकर जानता तो था ही) कि राजेश ने बेलापुर (नवी मुम्बई) में महानगरों के आम घरों के मुक़ाबले काफ़ी बड़ा (दुमहला) और अच्छा घर ले लिया है। आज के युग की संकल्पना के हिसाब से भैया का परिवार बड़ा है। अतः यहाँ 6-8 से 8-10 लोग तो प्रायः रहते। इसका सुखद परिणाम यह हुआ कि वृद्धावस्था में सम्मिलित परिवार वाले पहले के जीवन जैसी देख-रेख-सँभाल भी भैया को मिली – बहू-बेटियों, पोते-पोतियों से…और आज के रहन-सहन व दवा-इलाज के आधुनिक व प्रगत (मॉडर्न ऐंड ऐडवाँस) जीवन की सुख-सुविधाएँ भी मिलीं। एक बार किसी आयोजन में पूरा परिवार जा रहा था और तब भैया बिलकुल जाने लायक़ न थे, तो उनके साथ रहने-करने के लिए मैंने अपने को प्रस्तुत किया, लेकिन तब तक कल्याण से उनकी एक बहन प्रभावती, जिसके पिता का ननिहाल भैया के घर था और वह बचपन में इन्हीं के घर रही क्या, यहीं से व्याही थी, स-पति आके रहने को प्रस्तुत हो गयी…ऐसा था उनका विस्तृत अपनापा वाला कुनबा…!! और यह घर-रिश्तेदारी तक सीमित न था, उनके मिलनसार स्वभाव के चलते उनके घर के आसपास के हमउम्र लोगों का एक अच्छा ख़ासा मित्रमंडल बन गया था, जो लोग रोज़ शाम को मिलते थे झील किनारे – भैया के घर से 200 कदम की दूरी पर स्थित। उनके बीच भैया के साथ मैं भी दो-एक शाम बिता चुका हूँ। उन सभी का एक दूसरे के सुख-दुःख को साझा करना देख चुका हूँ। भैया के इतने सारे सुख-सुयोग को उनका सौभाग्य व संयोग कहकर मैं निपटाऊँगा नहीं, बल्कि उनका अर्जित–उनके सलूक-सम्हार का सुफल। मैं इसे उनका खुद को लोगों के लिए तिल-तिल खपाने का प्रतिदान कहूँगा…।

बहुत यादगार रहा–भैया का एक जन्म-दिन–शायद 84वां, जो राजेश ने अपने इलाक़े के एक मशहूर हाल में आयोजित किया था। यहाँ के उनके सारे उपलब्ध मित्र-सहकर्मी तो थे ही, गाँव से पूरे परिवार व सभी प्रमुख रिश्तेदारों को बुलाया गाय था–मैं तो यहीं था। यह आयोजन ‘हरे राम, हरे कृष्ण’ संस्था के सहयोग से हुआ था, जिसमें राजेश बहुत आस्था रखता है और बहुत सक्रिय भी राहत है। उस संस्थान के तमाम गणमान्य लोग भी शुभेच्छा देने के लिए पधारे थे। अच्छा खान-पान भे हुआ था, जिसमें मेरी रुचि राम-कृष्ण से ज़्यादा रहती है…।  

भैया भले पूरे जीवन पैर-पीठ दुखने-पिराने का राग अलापते रहे हों, उनके शरीर को सामान्य तौर पर निरोग कहा जा सकता था…। रक्तचाप, मधुमेह…आदि जैसी कोई बीमारी थी नहीं उन्हें, जो आज प्रायः होती है लोगों को और जो शरीर को व्याधि मंदिर बनाने की कारक होती है। आँख-कान…आदि भी उम्र के हिसाब से ठीक ही थे। बस, अवसान के सात-आठ सालों पहले गुर्दे (किडनी) के मरीज़ हुए…। दवा-इलाज के बाद उसके प्रकोप से जीवन को यथाशक्ति बनाये-बचाये रखने (सरवाइवल) के लिए अपोहन (डायलिसिस) ही आख़िरी उपाय होता है। भैया की नौकरी केंद्र सरकार की थी, तो नि:शुल्क इलाज की व्यवस्था थी ही। आने-जाने के लिए अपनी कार और लेके आने-जाने के लिए सदा एकाधिक बच्चे मौजूद …याने हर तरह का सुपास…। कोई समस्या थी ही नहीं। एक बार यूँ ही देखने साथ रहने के लिए मैं अपोहन के समय गया था। अपोहन की शुरुआत तो, जैसा आम तौर पर होता है, लम्बे अंतराल से हुई थी, पर धीरे-धीरे वह सप्ताह में दो बार तक पहुँची…। फिर अंतिम वक्त तो आना ही था–‘तुलसी या धरा को प्रमान यही, जो फ़रा, सो झरा, जो बरा, सो बुताना’। और वह आया 6 अगस्त, 2019 को।

तमाम परिवार यहाँ था ही। सो, दाह-संस्कार मुम्बई में ही करके अस्थियाँ काशी ले जायी गयीं, जिसमें गाँव के घर वाले भी शामिल हुए। मैं गाँव में ही था, पर उस दिन कहीं गोरखपुर-देवरिया गया था। सो, आने पर ‘दुआर करने’ सीधे घर गया। दुख का पारावार तो था ही, लेकिन भैया अपनी उम्र (86 वर्षा) जी के गये थे। हाँ, भाभी का कष्ट ज़रूर सालने वाला था। मैं उनके पास बैठा काफ़ी देर तक–वे छोड़ भी न रही थीं…। यहीं एक आगे की फ़नी, पर उल्लेख्य बात कहने का मोह-संवरण नहीं कर पा रहा हुं…। कुछ महीनों बाद मैं घर गया था, तो पता लगा कि भैया की पेंशन का अर्धांश, जो भाभी को मिलना था, अभी शुरू नहीं हो पाया…क्योंकि उसे गाँव से लेने की व्यवस्था करनी थी। बड़ा बेटा विनोद घर ही रहता है, पर सिर्फ़ राजेश के सिवा भाभी किसी के साथ बैंक जाने को तैयार ही नहीं…उधर ऐसी किसी ज़िद की सम्भावना से अनजान राजेश श्राद्ध निपटा के मुम्बई चला गया था। मैंने पूछा, तो सीधे बोलीं–‘तू लेके चला, त चलब’। मैं अचरज से अवसन्न और आह्लाद से प्रमुदित…।

लेकिन शाम हो गयी थी–बैंक बंद हो गये थे। और शायद आगे भी एक-दो दिनों की छुट्टी थी, जिस दौरान मेरा भी मुम्बई का हवाई टिकिट था, जिसे निरस्त करना बड़े घाटे का होता है। लेकिन इस काम का पता करता रहा…और वह राजेश के जाने पर ही हुआ। अभी लिखते हुए पता किया, तो मालूम पड़ा कि हर साल जीवित प्रमाणपत्र देने के लिए भी राजेश को ही जाना पड़ता है–इस साल का अभी नहीं हुआ है और अगला नवम्बर आ रहा है…। मैंने सालों-साल एम.फ़िल. में ‘साहित्य का मनोवैज्ञानिक अध्ययन’ पढ़ाया है…ऐसी बातों के कारण खोजने की आदत हो गयी है – प्रयत्न करता हूँ। निष्कर्ष ग़लत भले हो, पर आधार सहित व्याख्या तो कर ही पाता हूँ। लेकिन इस ग्रंथि को ठीक-ठीक निबेर नहीं पाता–बस, इतना सूत्र मिलता है कि इसकी गुत्थी विनोद-राजेश या मुझमें नहीं, कहीं मुम्बई में अटकी हुई है, जिसकी कड़ी वहाँ रहने वाले भैया के विश्वस्तों के साथ जुड़ी है…। पर ऐसा क्यों हुआ, की तफ़सील न उचित है, न सम्भव, क्योंकि यह कोई ‘केस’ नहीं, अपना घर है…। बहरहाल,

जाते हुए भैया से भेंट एवं दाह व अस्थि-विसर्जन से वंचित मैं बाक़ी सारे कर्मठ (रिचुअल्स) में रहने की प्रतिबद्धता से दसवें पर आया और पढ़े-लिखे परदेसियों के फ़ैशन के अनुसार जब सिर्फ़ दाढ़ी बनवाने के बदले पूरा बाल निकालने के लिए नाई से कहा, तो लोग मेरा मुंह ताकने लगे। बाल-छिले सर पर राजेश ने चंदन का गाढ़ा लेप लगाया, जो मैंने अब तक पहली व आख़िरी बार देखा। सारे कर्म इतने भावात्मक उत्सवी ढंग से किया गया–विशेषत: राजेश के नेतृत्व में, कि देखकर सच ही मन ‘श्रद्धानंद’ हो गया – श्रद्धा व आनंद से भर गया…। इनका घर गाँव से थोड़ा बाहर है और सामने बहुत बड़ी जगह है। वहाँ खूब सजावट के साथ विशाल शामियाना तना था। एक तरफ़ गाना-बजाना हो रहा था और दूसरी तरफ़ पारम्परिक व आधुनिक क़िस्म के अनगिन व्यंजन सज़े थे। और नात-हितों-मित्रों के साथ जुटा-जमा था पूरा पवस्त…। नाच-गान के बीच हम सभी के भैया-विषयक भाव-विचार भी सुने गये–मैं अकेला भोजपुरी में बोला था…।

चलते हुए सबको पौधे भेंट किये गये–मैं बेल का पौधा लाया। गाँव के अपने बगीचे में लगाया, जो घर व सड़क के बीच स्थित है–याने बाग़वानी या निरीक्षण करने के अलावा यूँ भी आते-जाते हुए सदा दिखता है। सो, वहाँ रहते हुए उस बेल के ज़रिए बार-बार भैया को याद करते रहते हैं…। अब तो वह फल देने जैसी स्थिति में आ गया है…। भैया के साथ वर्षों तक खाते-सोते जीवन बीता है, बेल-फल के साथ उनकी यादों की संजीवनी भी मिलती रहेगी…।

धन्यवाद राजेश व पूरा परिवार… और प्रणाम भैया…!!

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सत्यदेव त्रिपाठी

लेखक प्रसिद्ध कला समीक्षक एवं काशी विद्यापीठ के पूर्व प्रोफ़ेसर हैं। सम्पर्क +919422077006, satyadevtripathi@gmail.com
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