संस्मरण

भोजपुरी कविता के सफरमैना हरिराम द्विवेदी को याद करते हुए…

 

  • सत्यदेव त्रिपाठी

हनुमंत नायडू की कविता है – ‘रोना तक भूल गया, मन इतना रोया है’। वही हाल मेरे और पंडित श्री हरिरामजी द्विवेदीजी से मिलने का है – इतना-इतना मिलना हुआ कि जब याद करने चला हूँ, तो यही याद नहीं आ रहा कि हमारी पहली भेंट कब और कहाँ हुई। लेकिन ‘यादों की इस अँधेरी कोठरी’ के अहसास इतनी ग़वाही अवश्य दे रहे कि दो दशकों से कम की बात तो न होगी…। इसलिए पहली मुलाक़ात के बदले मैं अपने-उनके सबसे यादगार मंजर से बात शुरू करना चाहूँगा…और सच कहूँ कि वह मंजर न होता, तो यह संस्मरण न होता…।

वह यादगार मंज़र वह है, जब हरिरामजी मुम्बई आए हुए थे – जोकि कभी-कभार किसी के बुलावे पर आते रहते थे और जब आते, तो दसेक दिन तो रहते…क्योंकि उन्हें चाहने वाले, उनके मुरीद वहाँ भी कम नहीं हैं, जो सारी व्यवस्था व आवभगत करते हैं। मेरी समस्या यह थीकि मेरे मार्गदर्शन में एक छात्रा (सरिता उपाध्याय) कजरी और फाग के विशेष संदर्भ में भोजपुरी लोकगीतों पर पीएच.डी के लिए शोध कर रही थी, जिसके लिए भोजपुरी क्षेत्रों में जाना, गायकों व गाँवों की गवैया स्त्रियों से मिलना था और त्रासदी यह है कि अपना उत्तर भारतीय समाज आज भी और मुम्बई में रहते हुए भी लड़कियों को अकेले कहीं आने-जाने की छूट नहीं देता।

उनकी उच्च शिक्षा को भी इतनी वक़त नहीं देता कि उसके लिए घर-परिवार का ही कोई लड़की को लेकर बाहर जाए…। ऐसे में मुम्बई से मिर्ज़ापुर, गोरखपुर या किसी भी भोजपुरी प्रांतर में जाके लोकगायकों…आदि से मिलकर प्रत्यक्ष सामग्री-संचयन व संकलन का कार्य होना सम्भव ही नहीं लगता था। और उसके बिना इस-उस किताब से उतारकर डिग्री ले-दे लेने वाले शोध-कार्य का मेरे लिए कोई मतलब न था। ऐसे में हरिरामजी का मुम्बई आना वरदान हो गया। इस मौक़े को लोक लिया मैंने। तबियत अपने राम को थोड़ी अच्छी मिली है। तो सोचा कि अकेले उस बच्ची से मिलवाने का क्या मतलब? पूरे विभाग को लाभ व रस मिले। तो एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय, मुम्बई के अपने विभाग में ‘भोजपुरी लोकगीत’ पर हरिरामजी का व्याख्यान रखा दिया। सरिता से कहा – रेकोर्ड कर लो, याने एक पंथ, दो काज।

उन दिनों एम.ए. भाग-1 व 2 की दोनो कक्षाओं को मिलाकर 80-85 लड़कियाँ होती थीं। एम.फिल., पीएच.डी. मिलाके सौ से ऊपर हो जाती थीं। 150 की क्षमता का हमारा कक्ष था और एकल कार्यक्रम था। स्वागत करते व परिचय देते हुए में मैंने कह दिया कि कजरी से शुरू करें, फिर फाग को लें। जितने तरह की प्रमुख कजरियाँ व फाग होते हैं, उनके लक्षण-पहचान…आदि बताते हुए उदाहरणों को उसी धुन में गाके बताएँगे, तो इन जड़ से कटी बच्चियों के लिए बात स्पष्ट हो सकेगी। फिर इसके बाद समय रहा, तो अन्य प्रकार के लोकगीतों की बात करेंगे…।

हरिरामजी ने वैसा ही किया। कजरी के पहले ही प्रकार को समझाने के बाद उदाहरण के लिए जो पिहके, तो उस पूरी छठीं मंज़िल के सारे पक्षी फड़फड़ाके उड़े और आहट लेते हुए कक्षा की तरफ़ ताक-झांक करने लगे। मैंने भी आरव पाके दरवाजा खोला, अंदर आने के इशारे किए और अन्य विभागों की बच्चियाँ आने लगीं…। दूसरे प्रकार के उदाहरण के गायन पर तो पूरी मंज़िल ही इसी ओर उमड़ पड़ी। बेंचेज कसमसा उठीं, तो खड़े होने लगे लोग। देखते-देखते खचाखच भर गया पूरा कक्ष। धीरे-धीरे कुछ अध्यापक भी आ गये थे। तिल रखने की जगह न बची थी। लोग भाषा का भेद भूल गये थे। संगीत में निमग्न हो उठे थे। लय-धुन-स्वर-लहरियों में तिर रहे थे। समाँ बँध गया था। ऐसा मंज़र मुम्बई जैसे व्यस्त नगर में, जहां अपना काम करो और भाग लो, की स्थापित संस्कृति है, इसके पहले कभी देखा न गया था।

पंडितजी के लिए भी यह प्रतिसाद अपवाद व अनूठा रहा। वे इस युवा -बल्कि युवती- मजमे को देखकर रौ में आ गये थे और दो घंटे अबाध गति से चला होगा कार्यक्रम। उसके बाद भी चलता, तो कोई छोड़कर जाने की मन: स्थिति में न होता। हरिरामजी की शारीरिक क्षमता का भी लोहा उस दिन मान गये लोग। उनका ज्ञान-विवेचन-गायन…आदि सब उस दिन अपने चरम पर था। इतने प्रकार की कजरियाँ बतायीं, जो अचानक बोलने आने वाले हरिरामजी के अलावा किसी के वश का न होता। उनके एक-एक लक्षण व आपसी अंतरों को इतने क़रीने व विस्तार से समझाने लगे कि पूरी तैयारी के साथ आया कोई प्रोफ़ेसर भी वैसा क्या बताता…!!

फिर यह तो छात्राओं  -ख़ासकर उस शोध-बालिका के लिए था। जो बाक़ी लोग भर आये थे, वह तो हरिरामजी के गायन-कला की फ़िदाई थी। उनमें बहुत से गीत स्वयं हरिरामजी के थे।उनके काव्यत्व की सुध भी सबको भूल गयी थी। इस अद्भुत समागम के चर्चे हमारे विश्वविद्यालय में तो बहुत दिनों तक चलते ही रहे – हरिरामजी भी इसे बड़ी मीठी याद की तरह भावभीने ढंग से समय-समय पर सुनाते क्या, बखानते रहे। अवश्य उन्हें वह अनुभव आज भी भूला न होगा। उस शोध-बालिका का काम तो शानदार हुआ ही, हरिरामजी का कैसेट उसके पास आज भी होना चाहिए।

लेकिन इस आयोजन का इसके अलावा भी एक उपसंहार बना, जो हज़ारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा प्रेमचंद-साहित्य में सुलभ विविध जीवनरूपों को गिनाने की शृंखला में ‘ईर्ष्यापरायण प्रोफ़ेसरों’ को साकार करता है। उस दौरान हमारी विभागाध्यक्ष किसी अवकाश पर थीं और हरिरामजी के सीमित समय में उनके इंतज़ार का मतलब न था। फ़ोन-सोन करके पूछने की कोई वैधानिक ज़रूरत न थी। लेकिन जब आने पर उन्होंने इस आयोजन की असीम सफलता के झंडे फहरते सुना, तो उनके अंदर वही द्विवेदीजी वाला विशेषण जाग उठा। टिप्पणी आयी – ‘इस गाने-बजाने से विभाग न चलेगा’। लेकिन यह टिप्पणी सुनने वालों की तरफ़ से उनके मुँह पर ही उसी तरह निरस्त कर दी गयी थीं, जैसे मेले-ठेलों में किसी कुँवारी लड़की पर पीछे से टोना मारने वाले काले जादूगर के अक्षत को पलटकर उसी के मुँह पर मारके लौटा दिया गया हो…क्योंकि हरिरामजी का जादू सबके सर चढ़कर बोल रहा था।

यह घटना मेरे काशी विद्यापीठ आने और बनारस में बसने के तीन-चार साल पहले की होगी, क्योंकि इस व्याख्यान के बाद शोध-प्रबंध लिखा गया होगा और जमा करने के बाद की सारी कार्यालयीन औपचारिकताओं के बाद ही मौखिकी हुई होगी, जिसमें मैं बनारस से गया था, जो मुझे अच्छी तरह याद है। और मैं विद्यापीठ में आया 2009 में। और व्याख्यान के लिए बुलाने के पहले से भी मेरा-उनका सम्बन्ध था, तभी तो इस विश्वास के साथ बुला पाया। इस तरह दो दशकों के अपने साथ-सहवास का अंदाज़ा अमूमन साबित भी हो जाता है।

लेकिन इस बीच यह पक्का है, जिसे साबित करने की ज़रूरत नहीं कि भोजपुरी कविता के सफ़रमैना पंडित हरिराम द्विवेदी अपने बनारस में ‘हरी भैया’ के नाम से जाने जाते हैं, यह बात मुझे बनारस आकर ही मालूम हुई और इसे मैंने पहले पहल सुना बनारसी जीवन के सफ़रमैंना प्रबोध मिश्र के श्रीमुख से, जो पहली बार मुझे काशी विद्यापीठ में ही मिले थे। और जब उनसे यह नाम पहली बार सुना, तो समझ न पाया कि ये ‘हरी भइया’ अपने मूर्द्धन्य कवि हरिरामजी दिवेदीजी ही हैं। सुनकर तुरत यह लगा था कि ‘हरी भइया’ क्यों? ‘हरि भइया’ क्यों न हुए – नाहक ही बनारसी उच्चारण-वृत्ति ने दबाके ‘हरी’ कर दिया!! और अब ‘हरि’ और ‘हरी’ के शाब्दिक अर्थभेद को क्या बताना… फिर इसमें कजरी…आदि के टेके में आये‘अरे रामा नागर नैया जाला काले पनिया रे ‘हरी’ को याद कर लें, तब तो ‘हरी भइया’ कैसे कह सकते हैं? मेरे इसी शब्द-संस्कार ने इस संज्ञा को मंज़ूर न किया। जब कभी जहां कहीं कहा भी है, ‘हरिभइया’ ही कहा। बहरहाल,

बनारस आने पर उनसे हुए पहले मिलन की ओर चलें, जो पुनः बनारसी रंगत की लाजवाब शिनाख्त सिद्ध होती है।जब नौकरी करने व रहने के लिए काशी-आगमन की पहली रात ‘मालती होटेल’ और उसके बाद के 7-8 दिनों मुम्बई की अपनी मित्र डॉ. शशि मिश्र के सिगरा स्थित आलीशान बंगले में बिताने के बाद प्रसिद्ध साहित्यकार स्व. पंडित विद्यानिवासजी मिश्र के भतीजे प्रिय उदयन (मिश्र) उर्फ़ ‘मिस्टर’ के सत्प्रयत्नों से दस दिनों के अंदर ही ‘बादशाह बाग’में उनके घर के ठीक सामने के बंगले की तल मंज़िल पर मैं स्थापित हो चुका था। और इसके सप्ताह भर के अंदर ही एक सुबह लगभग 7 बजे के आसपास दरवाजा खटका…तो मैं भौंचक!!

दिसम्बर का मध्य आ गया था। कुछ ठीकठाक ठंड शुरू हो गयी थी। काशी शहर में प्रकाश उदय व वशिष्ठ त्रिपाठी जैसे गिने-चुनों को छोड़कर अभी कोई इतना अपना न हुआ था कि इतनी सुबह और इतनी ठंड में बिना बताए आकर बेखटके दरवाज़ा खटका दे…और ये दोनो भी शहर के दो छोरों पर रहते हैं, जिससे सुबह-सुबह यहाँ आना आसान नहीं…। इस तरह के ढेरों विचार दरवाज़ा खोलने तक के आधे मिनट में आते रहे…। और इनके बीच झूलते हुए दरवाज़ा खोला, तो जो नमूदार हुए, वे अपने यही पंडित हरिराम द्विवेदी ही थे। सुखद आश्चर्य का ठिकाना न रहा…! कूदके गले मिले, जो अति आह्लाद में उनकी आदत भी है और अदा भी। क़द तनिक छोटा होने से उनका हाथ ऊँचे करना ही कूदना लगता है। मैंने भी सुबह-सुबह ‘अपना तो मिला कोई’ की ख़ुशी में कसके भींच लिया था उनको और फिर ‘अपना कोई मिले तो गले से लगाइए, क्या क्या कहेंगे लोग इसे भूल जाइये’ का दावा भी मन में उभर आया था।

हरिरामजी गले से छूटे, तो आवेग के क्षणों में अपनी सहजात प्रकृति (नैचुरल इंस्टिंकट) के अनुसार स्फुट-अस्फुट स्वरों (कुछ फ़रियाते, कुछ लुप्त होते शब्दों) में ख़ुशी व उलाहना एक साथ निकले– ‘तू काशी में आय गइला भैया, बड़ा नींक लगत हौ, बकिनई का बात हौ कि हमैं बतवलेया ना…!! ऊ त काल्ही सुरेंद्र प्रताप मिल गये, तो पूछा – सत्यदेव त्रिपाठी को जानते हैं आप? मैंने पूछा- वो मुम्बई वाले? उन्होंने कहा हाँ। तो मैंने झट से कहा – ‘बिलकुल जानते हैं – छोटे भाई हैं मेरे’। तब बताया कि वे काशी विद्यापीठ में आ गये हैं – यहाँ का पता भी बताया’ – इसके बाद की मसर्रत के क्या कहने – ‘त भइया, मन ना मानल – चल्ल अइली’।

‘लेकिन इतनी सुबह-सुबह’…!! के मेरे कुतूहल पर बोले –‘मैं तो रोज़ ही सुबह 5 बजे गंगा-किनारे पहुँच जाता हूँ। वर्षों-वर्ष से यह नियम है मेरा…। बस, वहीं से आज इधर पलट आया, नहीं तो फिर दिन में समय कब मिले, न मिले…’। मुझे यह तो पता था कि सालों-साल से वे तट पर इतना टहलते हैं, गंगामैया की गोद में इतना रहते हैं कि देखने वाले उन्हें गंगा-किनारे का निवासी भी मानते हैं। उस सुबह मालूम हुआ कि महमूरगंज के अपने निवास लालकोठी से वे रोज़ सुबह चलके गंगातट आते हैं और वहाँ काफ़ी देर टहलते-रहते हैं। गंगा पर लिखा उनका खंड काव्य ‘जीवनदायिनी गंगा’ इन्हीं भोरहरी यात्राओं और जल-तट-प्रांतर के सहवास तथा उसके प्रति पंडितजी के अनन्य मोह व गहन संवेदना का सुपरिणाम है।

जब हरिरामजी अपने घर ‘लालकोठी’, जिसके सामने के ‘स्पेंसर’ में मैं अब हर महीने घर का सामान लेने जाता हूँ, की चर्चा कर रहे थे, तब मैं वह लालकोठी देख चुका था -उनके घर जा चुका था। ठीक याद है कि रथयात्रा पर चल रहे ‘विद्याश्री न्यास’ के कार्यक्रम में मैं मुम्बई से आया था। एक सुबह हम चार-पाँच लोगों को लेकर हरिरामजी अपने घर गये थे। पूरे परिवार से मिलना, हाल-अहवाल जानना हुआ था। चाय के साथ पकौड़ी का गरमागरम नाश्ता हुआ था।

बाहर से बिखरे, पर अंदर से एकजुट उस घर-परिवार को देखकर मुझे बचपने के अपने गाँव का माहौल बड़ी शिद्दत से याद आया था, जब पूरा गाँव एक दूसरे के साथ परिवार के-से अपनेपन  के साथ रहता था, जहां सारे भाव-अभाव बेमानी हो जाते – बची-बनी रहती अटूट पारस्परिकता, जिसमें होता है एक दूसरे के लिए कुछ भी कर देने, वार देने का मानवीय जज़्बा – भारतीय परिवार का आदर्श, जिसके मूर्त्त दर्शन हमें बाबा तुलसी के काव्य में होते हैं। वही यहाँ इस शहर में, जो अपने विशेषण ‘बनारसी’ के साथ ठगों-गुंडों तक को भी विश्व-प्रसिद्ध लियाक़त दे देता है,उसी शहर-ए-काशी में दशक भर के अपने बनारस-निवास में मैंने ऐसे और परिवार भी देखे हैं, जो शहर में रहकर भी लोकजीवन के आदर्श-उत्सर्ग को जी रहे हैं। उस सुबह बहुत उत्फुल्ल होकर, बहुत सुकून लेकर आने की याद मुझे अब भी है।

लेकिन यह संधान नहीं हो पा रहा कि मुम्बई के विभाग का व्याख्यान पहले हुआ था या यह कवि-गृह-गमन!! लेकिन पुन: यह तय पाया जा रहा है कि आदरणीय हरिरामजी के साथ की अवधि अवश्य ही इस गृह-गमन से पहले की है। यदि सम्मेलन में यह पहली मुलाक़ात होती, तो उस दिन उनके घर जाने की बात न बनती। लेकिन प्रथम मिलनकी याद अब भी नहीं आयी…!! तो प्रश्न उठता है – जो याद नहीं, क्या उसका अस्तित्त्व ही नहीं!! और यथार्थ-चिंतन अस्तित्त्व न होने की बात ही मानता है, लेकिन अपना पारम्परिक भारतीय दर्शन तो स्मृतियों व संज्ञानता से परे के सब कुछ को भी अस्तित्वमान मानता है, जिसका सबसे बड़ा प्रमाण ईश्वर है, तमाम देवी-देवता हैं…। फिर यहाँ तो हरिभइया का होना-करना-कहना…आदि सबकी ठोस गवाही भी है और ऐसी गवाहियों को कोर्ट भी मानता है। बहरहाल,

जिस सुबह दरवाज़ा खटका था, तब तक मैं घर पे अकेला ही रहता था – दीदी मुम्बई से आयी न थी और कल्पनाजी (पत्नी) मुझे यहाँ बसा के चली गयी थीं। और अब यह भी तय है कि हरिरामजी शब्दार्थ के मुताबिक़ बनारस-निवास के मेरे पहले सच्चे ‘अ-तिथि’ ठहरते हैं। सो, बातचीत के दौरान पंडितजी का प्रथम आतिथ्य मिट्ठा-पानी से किया –अभ्यागतों के लिए गाँव का गुड़ मेरा स्थायी पदार्थ है – मुम्बई के घर तक। चाय में इनकी ख़ास रुचि नहीं, लेकिन हरि भइया को हरी चाय (ग्रीन टी) पिलाई…और बातों-बातों में कहा – 9 बजे तक सेविका मुन्नी आयेगी, तो विप्रवर को नाश्ता कराया जा सकेगा…। और बड़े सहज भाव से उन्होंने कहा –‘तो फिर मैं नहा लेता हूँ तब तक’…और झटपट कुर्ता निकालने लगे…।

इस सहजता पर बलिहारी जाऊँ!! काशी में ही मिलेगी, लेकिन सबमें नहीं – हरि भैया जैसे खाँटियों में ही…। फिर तो कुरते के नीचे स्थित बाँह वाली गंजी और जनेऊ भी नमूदार हुए और मेरी चेतना में ससुप्त चार दशकों पुराना गाँव में अक्सर आने वाला ‘गँवहियाँ’ (अतिथि रिश्तेदार) जाग गया और लगने लगा कि वही अपने मूल रूप में सामने खड़ा है, जिसे मैं तो अपनी यादों में सँजोए भर रहा, लेकिन हरिरामजी तो बनारस में रहते हुए उस गँवई पाहुने को जीते रहे हैं और आज मेरे लिए साकार कर दिया है –‘तुम्ह प्रिय पाहुने बनु पगु धारे, सेवा जोग न भागु हमारे’। उस सुबह मुन्नी ने क्या बनाया, याद नहीं…।

पर यह याद है कि वे कुछ दिनों तक हफ़्ते में दो-एक बार आ जाते थे। और ऐसे में एक दिन मुम्बई से एम.फ़िल. की एक छात्रा (अर्चना झा) अपने कार्य को अन्तिम रूप देने के लिए अपनी सास के साथ आके एक लॉज में टिकी और मार्गदर्शन के लिए जिस पहली सुबह घर आके बैठी कि पंडितजी आ गये। हमें बात में मशगूल देख वह लड़की भीतर चली गयी। मैं यही मान रहा था कि दूसरे कमरे में बैठ कर पढ़ रही होगी, लेकिन 20 मिनट के अंदर दो प्लेट में फूल गोभी के पराठे लिए हुए वह प्रकट हुई… मैं आश्चर्यचकित!!

और यह सुनकर कि उनके आने के दो मिनट पहले यह बालिका इस घर में पहली बार प्रविष्ट हुई है…हरि भइया इतने हैरान कि उनका हाल देखने जैसा था– खन में हँसते, खन में पूछते…। खाया कम, उस बालिका का इंटरव्यू लिया ज़्यादा–एक अजनवी घर में कैसे खोजा सारा सामान-बर्तन…आदि, कैसे तय किया बनाना…जैसी तरह-तरह की तफ़तीशें प्रकट हो रही थीं – बच्चों जैसी जिज्ञासाएं व बड़ों जैसा अपार विस्मय बनकर…। इसी के साथ भूरि-भूरि सराहना भी माला की सुमिरनी बनकर। याने पूरी गहनता से एक कवि के सारे भाव – इकट्ठे। इसे वे काफ़ी दिनों तक याद भी करते रहे।

दस महीने बादशाहबाग में रहकर मैंने डीएलडब्ल्यू इलाक़े मेंअपना घर ले लिया और रहने चला गया। अब हरि भइया के साथ एक और सुखद संयोग बन गया… मेरे घर के ठीक सामने वाले ठाकुर साहब के स्वर्गीय पिता शिवबंदी सिंह कवि रहे और उससे ज़्यादा कवियों के चाहक रहे। सबसे ज्यादा यह कि हरिरामजी के भाई समान मित्र रहे, जिसका पता पहली ही बार मेरे घर आने पर लगा, जब पूरी कालोनी में मशहूर उस घर की ‘दादी’ को भाभी-भाभी करके पुकारते हुए हरि भैया उनके घर में घुसते चले गये…।

इस तरह उनके घर आने पर भी हमारे घर आना हो जाने के अवसरों को मिलाकर कविश्री का आना अपेक्षाकृत बढ़ ही गया। कभी नाश्ता-पानी वहाँ होता और गप्पागोष्ठी मेरे घर। दादी बड़ी दिलदार हैं इस मामले में। कुछ भी बनाती हैं, लेके घर आ जाती हैं और सामने बैठके खिला के ही जाती हैं। लिहाज़ा, मेरे घर आने पर भी वहाँ नाश्ता करने की याद आ रही है। हाँ, इस घर में हरिरामजी के अनौपचारिक एकल काव्य-पाठ खूब हुए। उनकी बड़ी सहज अच्छाई यह भी है कि ज़रा सा फ़रमाइश कर देते और हरि भैया सुनाने लग जाते।

इसी शृंखला में एक दिन अपना एक सरनाम गीत सुना रहे थे, जो पारम्परिक लोकगीत-सा बन पड़ा है और मैं अपनी रौ में उस वक़्तपहले से खुले रखे हुए अपने लैपटॉप पर लिखने लगा। उनके गाके पूरा होने पर मैंने पढ़के सुना दिया और हरिरामजी इतने प्रमुदित हुए कि कई महीने तक सबको यूँ सुनाते रहे, जैसे मैंने कोई बड़ा चमत्कार या आविष्कार कर दिया हो…। उनकी बालसुलभ-चपलता वाले ऐसे भाव मन पर यूँ खुद उठते हैं कि अमिट हो जाते हैं। अब मोह-संवरण नहीं कर पाऊँगा…एक गायक कवि के संस्मरण में अंगऊँ की तरह ही सही, एक गीत तो बनता है – गोकि उन्होंने उस वक़्त लिख पाने के अपने ‘चमत्कार’ को सच साबित करने के लिए तीन सुनाए और मैंने भी लिख के तीनो बारी-बारी से उन्हें सुना दिये, जो यादगार के लिए हैं भी मेरे पास…। प्रस्तुत गीत पिता-बेटी का संवाद है –

 

अमवा लगइहा बाबा बारी बगइचा, किनिबियाल गइहा दुआर।

पिपरा लगइहा बाबा पोखरा के भिटवां, कि गोइंडे लगइहा बँसवार।

 

अमवा सयानहो इफरिहैं ए बाबा, निंबिया देहीं जूड छाँह।

पिपरा केडरिया पेपरिहैं झलुअवा, बँसवा बिरनवां के बाँह।

 

अमवा लगइबे बेटी बारी बगइचा, निंबिया लगइबे दुआर।

पिपरा लगइबे बेटी पोखरा के भिटवां, नाहीं लगइबे बँसवार।

 

काहे न बँसवा लगइबा ए बाबा, बँसवा सगुनवां के खान।

सुपली मउनिया से ओडिचा चँगेलिया, सबही जे करेला बखान।

बँसवासे ए बेटी डोलवा फनाला, होइ जाला घर सुनसान।

बिटिया के बाबा से पूछा न कइसन, मँडवा के होला बिहान।

 

एक और देख लीजिए – दूसरा भी –

 

अपनैंअपन करीं केतनी बखान होसासु मोरि धरती, ससुर असमान हो

लहुरा देवरवा मोरि अँखिया कै पुतरी, सासुजी के अँचरा कै कोनवाँ परान हो

जेठऊ त हमरे ससुर के दुलरुआ, गंगा एस निरमल हमरी जेठान हो

ननदी हमार पुनवासी कै अँजोरिया, सइयाँ मोरउगैं जइसे सुरुज बिहान हो

नइहर मोर जइसे जलभर बदरा, मोरे ससुरे वइसैं लहरै सिवान हो

उस अवाई में दो साल मैं रहा बनारस– 10 महीने बादशाह बाग में और 14 महीने यहाँ। फिर नौकरी की शर्तों के चलते मुम्बई जाना पड़ा। लेकिन जिन थोड़े लोगों की कमी महसूस होती, उनमें हरिरामजी भी थे। और सुखद संयोग यह हुआ कि जाने किस दैवी विधान से मेरे वापस जाने के बाद हरिरामजी लगातार दो-तीन बार मुम्बई आये। कोई न कोई आयोजन होता, जिसमें आते और फिर एक-एक मित्र-मुरीद के यहाँ एक-एक, दो-दो दिनों करके हफ़्ते-दस दिनों तो रहते।

यह मुझे कमोबेस उस चेलाने की याद दिला देता, जिसमें ख़ानदानी गुरुओं की सालानाफेरी लगती और वे एक-एक दो-दो जून अपने अलग-अलग चेलों के घर जूठन गिराके उन्हें आशीर्वाद देते…। और मुम्बई तथा इसमें रह रहे हिन्दी समाज की इस मामले में तो तारीफ़ करनी पड़ेगी कि ऐसे गुणीजनों के लाभ लेने और उन्हें यथाशक्ति आदर-सम्मान देने में पीछे नहीं रहता। इन आवागमनों के दौरान ढेरों आयोजन होते रहे। मुम्बई की दूरियों व अपने कामों की व्यस्तताओं के बीच दो आयोजनों में अपने शामिल होने की पक्की याद इस वक्त मुझे आ रही है।

एक तो हमारे अभिन्न मित्र शैलेश सिंहजी के विद्यालय सेंट ज़ेवियर्स, जो मेरे विश्वविद्यालय के पार्श्व में ही स्थित है, में शाम को हुआ था। शायद आयोजक था ‘जनवादी लेखक संघ’, मुम्बई। सप्ताह के दिनों में शाम छह बजे के बाद के आयोजन मुंबईकरों के लिए सुभीते के होते हैं। उपस्थिति अच्छी हो जाती है और साहित्य में रुचि-दख़ल रखने वाले लोग आ पाते हैं। उस आयोजन में ‘जलेस’ की निहित प्रकृति के मुताबिक़ मराठीभाषी रचनाकार व साहित्यिक लोग भी थे। लेकिन हरिरामजी के काव्य व संगीतमयता के साथ सुनाने में भाषा-प्रांत-पेशे…आदि की कोई दीवार रह कहाँ पाती है!! रही-सही को शैलेशजी की हहासभारी खुली दाद भी गिरा देती है। कुल मिलाकर रात का रंग खूब जमा था।

उस आयोजन की अविस्मरणीय याद ख़ास यह है कि उक्त उद्धृत बाबा-बेटी संवाद वाले गीत की अन्तिम पंक्ति ‘बंसवा से ए बेटी डोलवा फ़नाला कि होइ जाला घर सुनसान, बिटिया के बाबा से पूछा न कइसन मंडवा के होला बिहान’ सुनाते हुए हरि भइया धार-धार आँसुओं में रो पड़े थे– अहक उठे थे…। कवि की उस भावमयता की कल्पना कीजिए, जिसमें गीत लिखने और उसके बाद के दो-चार दशकों के दौरान कई सौ बार सुनाने के बावजूद उस पीड़ा के रेचन का हाल यह कि भरी मजलिस की दुनियादारी के सामने भी आंसू रोके से भी नहीं रुक पाते, तो सृजन के क्षणों के ‘स्पॉण्टेनियस ओवरफ़्लो आफ पावरफुल फ़ीलिंग़्स’ का सोता किस पाताल-लोक की सतह से फूटा होगा…!! फिर तो अपने गमछे से आंसू पोंछ और दो घूँट पानी पीके ही पूर्ववत सुना पाये थे।

दूसरा आयोजन भी देर शाम को हुआ था। वह बोरिवली के आगे हाइवे पर शायद किसी बड़े होटेल के प्रांगण में तम्बू-तना विशाल पांडाल था। शायद वह सप्ताह भर चलने वाला कोई साप्ताहिक कला-संगम था। आयोजक संस्था का नाम तो याद नहीं आ रहा है, लेकिन माध्यम बने थे बड़े भाई हृदयेश मयंक, जो हमारे बीच आयोजनधर्मी व्यावहारिकता के शीर्ष पुरुष हैं। मुझे वहाँ कवि का परिचय देना था। मैंने क्या कहा था, वह तो भूल गया; पर जोकहा, उसे सुनकर हरिरामजी की उत्फुल्लता और काव्य-पाठ की शुरुआत में उनकी मुतासिरी के निर्मल उल्लेख के शब्द नहीं, भाव अवश्य आज भी आँखों में मूर्त्त हैं।उस भव्य व विशाल आयोजन में दर्शकों की कोई ख़ास श्रेणी (डिज़ाइन) न थी।

हर क्षेत्र के लोग थे – भिन्न-भिन्न संस्कारों-पेशों वाले लोग। पर सबको एक श्रेणी में ढालके अपने साथ बहा ले जाने वाली हरिरामजी की चिर-परिचित कला की दृश्यावली वहाँ भी नुमायाँ हो रही थी। एक विरल बात बनी उस दिन…कि पंकज त्रिपाठी तब तक तो हमारी तरह आम आदमी ही थे, पर आज तो सिनेमा व वेबसीरीज के नामचीन अभिनेता हैं। वे अपने ससुर के साथ आए थे। उन दिनों उनकी शिक्षा-संस्कारी पत्नी श्रीमती (शायद मृदुला) त्रिपाठी मेरे अंतर्गत ‘हिन्दी रंगमंच के विकास में ‘रंगप्रसंग’ की भूमिका’ विषय पर पीएच. डी. के शोध-कार्य की तैयारी कर रही थीं, जो बाद में स्वास्थ्य के कारणों से शुरू ही न हो पाया। पंकज बिहार के हैं – खाँटी भोजपुरी वाले। उस शाम आयोजन के बाद उनकी तृप्ति और आनंद का उच्छल स्रोत सारे बांध तोड़कर धाराप्रवाह शब्दों में उफन रहा था। देर रात को ही वहाँ से हमारा सबका निकलना हो पाया था।

इस प्रकार मुम्बई से बनारस के दौरान रहे संग-साथ और हुए कवि-सम्मेलनों की चर्चा हुई, लेकिन कवि-सम्मेलन से इतर भी कई-कई आयोजनों में हम मंच पर भी साथ रहे और बहुत बार दर्शक-दीर्घा से भी उन्हें देखा-सुना – कार्यक्रमों की अध्यक्षता व संचालन करते हुए एवं वक्ता के रूप में बोलते हुए भी। इनके कुछ यादगार बिम्ब भी मन-मस्तिष्क बने हैं…, जिन्हें व्यक्त कर देना भी इस स्मरण यात्रा में मौजूँ होगा…। कविताओं में जहां उनके आपूरित लोक का आलोक अनिर्वचनीय आभा बिखेरता है, उनके बोलने में वह पीछे हो जाता है। तब उनमें संस्कारी पांडित्य, प्रांजल कवित्त्व एवं अभिजात शालीनता व सलीका देखते ही बनता है। हाथ विविध रूपों में संचालित होते हैं।

गरदन सम पर उठती-गिरती है, दाये-बायें घूमती है और आवाज़ में पॉज भी आता है, लेकिन धाराप्रवाह बोलने के दृश्य कम आते हैं। ज़्यादातर सोचते-सोचते बोलना या बोलते-बोलते सोचना होता है, जो उनकी साधी हुई अदा भी हो सकती है, पर गहरी विद्वत्ता की छाप छोड़ती है। संगीत सभाओं में भी हरिरामजी को सुना। उनके संगीत के शिष्य-शिष्याओं में अपने गुरु के प्रति अपार श्रद्धा-प्रेम देखा– मंच पर भी, मंच-परे भी। शिष्यों की श्रद्धाभिव्यक्ति के क्षणों में गुरु को उन्हें सहारते-असीसते, शर्माते-गर्वाते भी देखा है और हर भाव व भंगिमा बस, नयनाभिराम होती है, क्योंकि अंतस्तल से उठी-निकली होती है…। शिष्याओं के प्रति उनके इन भावों पर उनके हमउम्र यारों को उन्हें चिढ़ाते तथा इस पर हरि भइया को ज़ुबान से ना-ना करते हुए आँखों में लजाते देखा है।  

मंच व मंच के बाहर के उनके परिधान अलग होते हैं। मंच पर भी अध्यक्ष हुए तो कुरता सिल्क का आवश्यक हो जाता है। यदि कार्यक्रम संगीत का हुआ, तो सिल्क पर भी बेल-बूटे आ जाते हैं।  सिल्की सदरी गाढ़ी-रंगीन हो जाती हैं, जो मौसमानुसार सूती-ऊनी तो होती ही है। माथे के टीके का चंदन गाढ़ा और कुछ बड़ा हो जाता है। धोती शफ़्फ़ाक चुन्नटदार हो जाती है और छजते  पैताने पर सजते जूते ‘पम्पशू’ हो जाते हैं। ऐसे सजे-बजे हरिरामजी के मंच की तरफ़ जाते हुए चलने में ऐसा भाव विराजता है, जिसे कवि ने कविता-कामिनी के रूपक में ‘कालिदासो विलास:’ कहा है। ऐसे में उनका नाटा क़द वामनावतार की गरिमा से युक्त और गाढ़ा-सांवला रंग कृष्णाभिराम लगने लगता है…।

मंच पर अध्यक्ष बने बैठे हरिरामजी में पद-अवसर की शालीन ठसक व्यक्तित्त्व की विनम्र गुरुता बनकर ‘जथा नवहिं बुध विद्या पाये’ का भान कराती है, जो अध्यक्षीय वक्तव्य में गम्भीरता का काम्य पर्याय हो जाती है। कुल मिलाकर कार्यक्रम के पहले उनके वेश-भाव को देखकर ही आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि वे क्या होंगे – अध्यक्ष, वक़्ता, कवि या श्रोता…। वैसे काशी के आयोजनों में हरिरामजी का सिर्फ़ श्रोता बनकर रह जाना उनके व्यक्तित्त्व को सुहाता (शोभता) नहीं। सो, बनारस को भी भाता नहीं। ऐसे मौक़े बिरले ही रहे, जब वे श्रोता भर हों। फिर उन कार्यक्रमों में हरि भाई देर तक टिकते नहीं। उपस्थिति दर्ज कराके, मिल-जुल के निकल लेते देखे जाते हैं –और आज इतना भी क्या कम है?

इन दिनों उम्र और कोरोना के चलते उनका उस तरह आना कम हो गया है, पर स्नेह तनिक भी कम नहीं हुआ है, न होगा – ऐसा विश्वास उनके व्यक्तित्त्व ने ही दिया है। यह लिखते हुए गाँव में बैठा हूँ, जहां आबाल-वृद्ध सभी भोजपुरी भाषा से बने-बढ़े व इसी संस्कृति में कमोबेस पगे हैं। तो लिखने के दौरान गंवई चलन में जो भी आते रहे – पड़ोसियों से लेकर घर-ख़ानदान के लोग – ख़ासकर भाभियों-बहुओं-पोतियों-बेटियों… सबको गूगल से खोलकर कवि का काव्य-पाठ सुनाता रहा और बताता रहा कि ये मेरे हरि भैया हैं। इन्हीं के साथ बितायी अपनी यादों को लिख रहा हूँ। सुनकर उनकी नज़रों में अपने कुछ बड़ा होने का अहसास भी होता रहा। इसी को कहते हैं – नदी क काछा, बड़े क पाछा…, जिसका सुख लेता रहा। दो दिन इन्हीं यादों में तिरने का भी बड़ा मज़ा आया। जब सबको बताया कि ये 85 साल के हैं, तो सभी विस्मित होते रहे इस उम्र में इनके सधे-मधुर गायन से… और मेरे मन में यही कामना उठती रही – अपने हरि  भइया दीर्घायु हों और ऐसे ही प्रसन्न मन गाते रहें….!!

सत्यदेव त्रिपाठी

लेखक काशी विद्यापीठ के पूर्व प्रोफ़ेसर हैं।

सम्पर्क +919422077006, satyadevtripathi@gmail.com

ग्राम – सम्मोपुर, पोस्ट – इरनी (ठेकमा), ज़िला आज़मगढ़ (उ.प्र.) 276003/ मो.9422077006 

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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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