मुकुटधर पाण्डेय

कवि और उसका चरित्र : पं. मुकुटधर पाण्डेय

 

कवि शब्द बहुत महत्व का है। कवि का आसन बहुत ऊंचा है। राज राजेश्वरों की भी पहुंच वहाँ तक नहीं। इसका कारण यह है कि कवि ईश्वरीय विभूति संपन्न होते हैं। इसीलिए लोग उन्हें पूज्य दृष्टि से देखते हैं। और उनकी रचनाएँ संसार की स्थाई संपत्ति समझी जाती हैं। इन रचनाओं में सर्वत्र प्रतिभा की प्रभावशालिनी रश्मियों का समावेश रहता है। इस कारण वे मनुष्य की हृदय कलिका को खिलाकर उसके अंतर प्रदेश को प्रकाशित करने की शक्ति रखती है।

अच्छा, तो कवियों के व्यक्तिगत चरित्र कैसे होते हैं? क्या वे सदैव ही अनुकरण योग्य होते हैं? क्या साधारण लोग उनका अनुकरण करके लाभ ही उठा सकते हैं? आजकल शिक्षित लोगों में विशेषकर उन नवयुवकों में जिन्हें कविता से प्रेम है और जो कुछ तुकबंदी करने का यत्न किया करते हैं, कवियों के चरित के अनुकरण की प्रवृत्ति अधिक देखी जाती है। कवियों का महत्व देखते यदि लोगों में उनकी नकल करने का उत्साह उत्पन्न हो तो कोई आश्चर्य नहीं। यदि वे नीर क्षीर विवेक का अनुसरण करते तो शिकायत की जगह न थी। पर ऐसा करना तो दूर रहा वे प्रायः कवियों के दोषों को ही अपनाने का यत्न करते हैं।

इस कारण यदि उन पर दोषारोपण करता है तो वे अपने आदर – भाजन कवि का हवाला देकर ऐसा भाव व्यक्त करते हैं, जिससे जाना जाता है कि वे अपने इस अन्यथा चरण से अपनी गौरव वृद्धि समझते हैं। ऐसे नवयुवकों में से अधिकांश में कविजन सुलभ प्रतिभा तो नहीं किंतु कवि कहलाने की उत्कट अभिलाषा मात्र पाई जाती है। उनकी प्रवृत्ति स्वभाव से ही अनुकरणशील होती है किंतु कुछ तो मनुष्यों के गुण की अपेक्षा अवगुण की ओर प्रथम ध्यान देने की प्रवृत्ति, कुछ इन नवयुवकों की बुद्धि की अपरिपक्वता के कारण ग्राह्यग्राह्य विषयक निर्णय शक्ति की कमी और सबसे अधिक इनके हठाचरण इस विषय में हानिकारक सिद्ध होते हैं।

पहले हमारे देश में जीवन चरित्र लिखने की ओर ध्यान नहीं दिया जाता था। अतएव बड़े – बड़े आदमियों के आचरण संबंधी गुण – दोष उनके साथ ही साथ दुनिया से उठ जाते थे। इससे परवर्ती काल के लोगों को उनका ज्ञान ही न हो सकता था। किंतु अब यह बात नहीं है। पश्चिम के संबंध ने अन्यान्य विषयों की तरह इस विषय पर भी अपना प्रभाव डाला है। अब यहाँ भी प्रसिद्ध प्रसिद्ध पुरुषों के चरित्र लिखकर सुरक्षित रखने की प्रथा चल पड़ी है।

यथार्थ में कवियों की रचनाओं के पूरे – पूरे आस्वादन के लिए उनका चरित्र जानना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि कवि की रचना का विशेष संबंध उसके जीवन की घटनाओं से ही रहता है। घटनाएँ उसके हृदय के भावों का विजृम्भण होती हैं और ये भाव जब हृदय में नहीं समाते तभी कविता के रूप में बाहर निकल पड़ते हैं। कभी – कभी तो इन कविता रुपी प्लेटों पर कवि भावों के फोटो ऐसे साफ उतर आते हैं कि उन्हें देखकर उनके जीवन की वे घटनाएं जिनके कारण वे लिखी गयी थीं, सहज ही में अनुमान कर ली जाती हैं।

जीवन चरित्र के ऐसे ही लाभों को देखकर अब उनका लिखना आवश्यक समझा जाता है किंतु इन जीवन चरित्रों में चरित्र नायक के गुणों के साथ साथ दोषों का भी वर्णन रहता है, क्योंकि इसके बिना चरित्र अधूरा समझा जाता है। इन दोषों का उल्लेख ही कवि कहलाने के इच्छा रूपी रोग से ग्रस्त हमारे कई अनुकरण प्रिय नवयुवकों के आचरण का मूल कारण है। इस बात को ध्यान में रखकर जब हम अपने पूर्ववर्ती कवियों के चरित्र प्राप्य न होने के दुख पूर्ण विषय पर विचार करते हैं तब हमें एक प्रकार का संतोष ही होता है। संभव है उनमें से बहुतों के चरित्र सदोष रहे हों। हमारा विश्वास है कि हमारे अनुकरण प्रिय लोग उनसे लाभ उठाने में कभी न चुकते।

सच बात तो यह है कि बड़ो के दोषों के अनुकरण से बड़ी हानि पहुंच सकती है।उनका अनुकरण करने में छोटे आदमी अपनी प्रतिष्ठा समझते हैं। चाहे उससे उन्हें लाभ हो चाहे हानि। पर यह उनकी भूल है। कवियों के चरित्र का अनुकरण करने में लोगों को विचार से काम लेना चाहिए। कवियों में स्वभाव से ही कुछ ऐसी बातें पाई जाती हैं जो साधारण लोगों के लिए अत्यन्त हानिकर हैं। यह दोष उनका नहीं, उनकी प्रतिभा का है।

स्मरण रखना चाहिए कि कवि बनने के लिए विद्वता नहीं, प्रतिभा चाहिए। प्रतिभा के साथ साथ जिनमें विद्वता भी पाई जाती है, ऐसे कवि जहाँ तक हो सकता है बुरी बातों में दूर रहने का यत्न करते हैं क्योंकि उनकी विद्वता कार्याकार्य विषयों का निर्णय करने में उनको सहायता पहुँचाती है। पर यह काम प्रतिभा से नहीं हो सकता। उसका काम सिर्फ नये – नये विचार, नई – नई कल्पनायें सुझाना ही है और कुछ नहीं। अतएव जिन कवियों में प्रतिभा तो पूरी – पूरी पाई जाती है पर विचार – शक्ति का अभाव रहता है उनके चरित्र में दोष भी स्थान प्राप्त कर लेते हैं। योरप के विद्वानों का कहना है कि प्रतिभाशाली पुरुषों और पागलों बहुत कुछ समानता है। अतः पागलों के कार्यों के समान प्रतिभाशालियों के भी  कुछ कार्य अविचारपूर्ण हुआ करते हैं।

प्रतिभावानों में विचार शक्ति की हीनता ही नहीं एक प्रकार का हठ भी पाया जाता है, जिसके कारण वे हानि – लाभ अथवा उचितानुचित की उपेक्षा करके जो जी में आया उसे ही कर डालते हैं। मेघनाथ वध नामक बंगला काव्य के कवि मधुसूदन दत्त के अन्य धर्म ग्रहण का कारण उनकी विचार शक्ति की हीनता अथवा हठ के सिवा और कुछ न था। माता – पिता ने विवाह के पहले एक सुंदर व गुणवती कन्या ठीक की। पर इसकी खबर लगते ही मधुसूदन एक गौरंग रमणी के पाणिग्रहण की लालसा से झट क्रिश्चियन हो गए।

उन्हें अपने हिन्दू धर्म को तिलांजलि देते हुए कुछ भी दुख न हुआ। पुत्रवधू के मुखदर्शन की उत्कण्ठा से उत्कण्ठित माता – पिता की कामना वेली पर वज्रपात करते उन्हें दया भी न आई। मधुसूदन की माता उनके विधर्मी होने के समाचार पाकर मूच्छित हो गई और कई दिनों तक बिना अन्न – जल ग्रहण किये हुए संज्ञा – शून्य पड़ी रही। पर मधुसूदन को अपनी कृति पर जरा भी परिताप न हुआ। मेघनाथ वध का कवि इतना निष्ठुर आचरण भी कर सकता है, इसका अनुमान तक नहीं किया जा सकता। पर यह दोष कवि की स्वाभाविक दुष्प्रवृत्ति का फल था।

इन बातों के सिवा कवियों में प्रायः आमोद प्रियता, विलासिता, उदारता, व्ययशीलता, असंयतचित्तता, अभिमान, बेपरवाही आदि अनेक दुर्गुण पाये जाते हैं। इनका अनुकरण साधारण लोगों के लिए अति हानिकारक है। अपने इन दोषों के कारण कवियों को स्वयं भी बड़ी – बड़ी विपत्तियों के साथ बराबर मुठभेड़ करते हुए उन्हें अपनी जीवन सीमा के पास खदेड़ने में वे जिस बेपरवाही से काम लेते हैं, उसे हम गुण और अवगुण दोनों कह सकते हैं। कवियों के आमोद प्रिय और विलासी होने के कई कारण हो सकते हैं।

कविता की उत्पत्ति का कारण मन की उमंग है। एक लेखक कहता है – सब लोग अपने जीवन में कई बार कवि हो जाते हैं। यौवनारंभ में प्रायः सभी के मन में उमंगें उठा करती हैं। इन उमंगों को युवक भाव, चेष्टा, कार्य और भाषा द्वारा प्रकट करता है, इस उमंग प्राकट्य का ही नाम कविता है। कवियों के हृदय मे ये उमंगें विशेष रूप से पाई जाती है। वहाँ उनका निवास स्थायी होता है। अब यदि हम आमोद प्रियता और विलासिता के मूल कारण का अनुसंधान करते हैं तो हमें जान पड़ता है कि उनका भी कारण मन की उमंग ही है। कविता और आमोद प्रियता के मूल कारण की यह एकता ही कवियों की विलासिता का मुख्य हेतु जान पड़ती है।

इसका दूसरा कारण कवियों की उत्कट रूप लालसा भी है। रूप अथवा सौंदर्य का उपभोग करते कवि अपने विचारों को सदैव पवित्रतापूर्ण ही बनाए रखता है, यह नहीं कहा जा सकता। क्योंकि ऐसा कहना अस्वाभाविक होगा, सौंदर्य का उपभोग अवश्य ही भले और बुरे दोनों मार्गों से किया जा सकता है। पर उमंगों की प्रबलता पूर्ण प्रारंभिक अवस्था में

कवियों को इसका विशेष खयाल नहीं रहता। विलासिता और सौंदर्य का यह संबंध स्वाभाविक है। कवियों को इस आमोद प्रियता से कुछ लाभ भी होते हैं। इससे इनकी प्रतिभा का स्फुरण होता है और उन्हें कविता लिखने में ‘ उत्तेजना मिलती है। कभी – कभी, कारण विशेष से, कवि के हृदय में विलासिता और कुरुचिपूर्ण रुपलालसा से घृणा भी हो जाती है और उसकी प्रतिभा का प्रवाह सहसा किसी और ही दिशा की ओर बहने लगता है।

कौन कहता है कि गोसाईं तुलसीदास जी को यदि विलासिता और कुरुचिपूर्ण रुपलालसा से घृणा भी हो जाती है और उसकी प्रतिभा का प्रवाह सहसा किसी और ही दिशा की ओर बहने लगता है। कौन कहता है कि गोसाईं तुलसीदास जी को यदि विलासिता से अचानक घृणा भी हो जाती है और उसकी प्रतिभा का प्रवाह सहसा किसी और ही दिशा की ओर बहने लगता है।

कौन कहता है कि गोसाईं तुलसीदास जी को यदि विलासिता से अचानक घृणा न हुई होती तो वे वैराग्य की ओर झुकते और रामायण जैसा आदर्श काव्य लिख सकते। रुप के नशे ने सूरदास को भी खूब छकाया। एक रमणी के रूप लावण्य दर्शन से वे ऐसे मुग्ध हुए कि उन्हें अपने विचारों की पवित्रता को अक्षुण्ण रखना कठिन हो गया। यदि इस घटना से सूरदास को ग्लानि न हुई होती तो आज हम उनके काव्य सागर में प्रेम और भक्ति की अद्भुत लहरें देख सकते या नहीं, यह बात ठीक – ठीक नहीं कही जा सकती है।

कवियों की आमोद प्रियता, श्रृंगार सूचक सामग्री का सेवन, अपव्यय, मद्यपान आदि अनेक भयंकर दुर्गुणों का कारण होती है। ऊपर जिन अवगुणों का उल्लेख हुआ है वे सभी कवियों में पाये जाते हैं, यह बात नहीं, पर यह सत्य है कि अधिकांश कवि आमोद प्रिय जरूर होते हैं। उनके स्वास्थ्य पर इसका बुरा असर पड़ता है। बाबू हरिशचन्द्र यक्ष्मारोग से पीड़ित होकर अल्पावस्था में ही काल कवलित हो गए। उसका कारण शायद उनकी विलासिता ही हो। कवियों में इन दुर्गुणों के उदाहरण ढूंढने से बहुत मिल सकते हैं।

हरिशचन्द्र बाबू का इत्र के दिये जलाना, पैसे को पानी की तरह बहाना अपव्यय नहीं तो क्या है? उसी तरह माइकेल मधुसूदन दत्त का एक – एक अशर्फी देकर बाल कटाना उनके अपव्यय का खासा उदाहरण है। माइकेल कभी – कभी कहा करते थे- बिना चालीस हजार रुपये के एक भद्र पुरुष का निर्वाह वर्ष भर कैसे हो सकता है? यही हाल अंग्रेज कवि गोल्डस्मिथ का भी था। उसके विषय में मेकाले का कथन है- लार्ड क्लाइव हिन्दुस्तान से जो द्रव्य लाये थे, गोल्डस्मिथ के लिए वह भी काफी न होता।

इन कवियों की आमोद प्रियता और अपव्यय की अनेक कथाएँ सुनी जाती है जिनका उल्लेख यहाँ अनावश्यक है। उनकी इस अपरिणामदर्शिता का फल यही होता है, कि वे ऋण में डूब जाते हैं और उनको द्रव्याभाव के कारण भूखों तक मरना पड़ता है। हरिशचन्द्र की अंत में यह दशा हो गई कि उनकी चिट्ठियाँ बिना टिकटों के हफ्तों मेज पर पड़ी रह जाती थीं। माइकेल को निर्धनावस्था में एक बार बड़े घर की भी हवा खानी पड़ी थी। ऋणदाताओं के तकाजों से वे नाको दम रहते हैं। कहते हैं महाजनों से ही तंग आकर माइकेल ने मानसिक यंत्रणा से बचने के लिए शराब पीना शुरू कर दिया था।

इस प्रकार कवियों का जीवन इन आमोद प्रियता, अति उदारता, अपव्यय आदि दुर्गुणों के कारण शांति हीन हो जाता है। कवियों के ऐसे आचरण का अनुकरण करने वालों को सावधान रहना चाहिए।

कवियों की रूचि प्रायः मादक पदार्थों के सेवन की ओर भी हो जाया करती है। इसका कारण यही है कि उनके सेवन से कवियों की स्वाभाविक उमंगों को उत्तेजना मिलती है। बाबू हरिश्चन्द्र के पिता जो एक अच्छे कवि थे, भंग बहुत पीते थे। उर्दू के प्रसिद्ध कवि गालिब शराब के बड़े भक्त थे। यूरोप के तो अधिकांश कवियों में ये बुरी लतें पाई जाती हैं। लेम्ब, टामसन, एडिसन आदि बड़े शराबी थे। कोलरिज को अधिक मद्य पीने ही के कारण अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा था। कवियों के ऐसे भीषण दुर्गुणों का अनुकरण करके भी क्या कोई लाभ उठा सकता है?

प्रायः कवियों का स्वभाव उग्र और असहनशील होता है। उनमें कुछ औद्यत्य भी पाया जाता है। वे बातें अन्य लोगों के लिए कदापि अनुकरण योग्य नहीं | सुप्रसिद्ध गुजराती कवि दयाराम, जिन्हें लोग गुजरात का बायरन कहते हैं, स्वभाव के बड़े घमंडी और उद्धत थे। उनके औद्धत्व के कितने ही उदाहरण प्रसिद्ध हैं। अंग्रेजी कवि पोप का स्वभाव इतना असहनशील था कि उसे अपने विरुद्ध मत वाले समालोचकों की समालोचना सहन न होती थी। उसने एक काव्य में उनकी पूरी – पूरी खबर लेकर आवश्यकता से अधिक बैर का बदला निकाला है। ऐसी और भी कई हानिकारक बातें हैं जो कवियों के आचरण में प्रायः पाई जाती हैं।

कुछ प्रकृत कवियों की छात्रावस्था पर ध्यान देने से मालूम होता है कि उनका जी पढ़ने – लिखने में जैसा चाहिए वैसा नहीं लगता। अतएव वे प्रायः पाठ्य विषयों की अवहेलना किया करते हैं। गणित, भूगोल आदि कुछ विषय तो उन्हें ऐसे कर्कश जान पड़ते हैं कि उस पर उनका ध्यान जमता ही नहीं। वे उन्हें पढ़ते – पढ़ते उकता जाते हैं क्योंकि उनकी स्वतंत्रता प्रिय प्रतिभा उन विषयों की श्रृंखला लाद कर कैद में रहना नहीं चाहती। वह यथेच्छ भ्रमण करना पसंद करती है। इसके सिवा वह उत्पादिनी शक्ति विशिष्ट भी होती है।

अतः ग्रहण करने की अपेक्षा उत्पादन करने की ओर उसकी प्रवृत्ति अधिक रहती है। कवियों की रूचि स्वभाव से ही ललित विषयों की ओर होती है, जिसके कारण तर्कपूर्ण जटिल और कर्कश विषय उन्हें अच्छे नहीं लगते। अब यदि उनकी छात्रावस्था के वृतांत पढ़कर कोई साधारण विद्यार्थी उनका अनुकरण करे, अपनी पाठ्य पुस्तकों के अध्ययन की ओर ध्यान न दे तो इसका परिणाम कितना भयंकर होगा?

कवियों के दुर्गुर्गों का यह हाल पढ़कर शायद कुछ लोगों के हृदय में उनके प्रति अश्रद्धा उत्पन्न हो जाए। पर ऐसे लोगों को स्मरण रखना चाहिए कि कवियों में गुण भी ऐसे पाये जाते हैं जिनका वर्णन यदि यहाँ किया जाए तो ये दोष उनके आगे बिलकुल ही क्षुद्र ज्ञात होंगे। सहृदयता, परदुःखकातरता, परोपकारिता, सहानुभूति, प्रेम, दया, करुणा, विचारों की उच्चता और पवित्रता आदि कहाँ तक कहें। ऐसे अनेक सद्गुण हैं जो कवियों के हृदय में आश्रय पाते हैं।

फिर सभी कवियों में उक्त प्रकार के दोष पाये ही जाते हैं, यह बात भी नहीं। नियमों के अपवाद भी तो होते हैं, कुछ कवि यों के आचरण पर उनके जीवन की घटनाओं का भी प्रभाव पड़ता है और उनका चरित्र कुछ का कुछ हो जाता है। कालिदास के चरित्र के विषय में जो बातें प्रचलित हैं उसका प्रतिवाद करके कुछ लोग यह सिद्ध करने का यत्न करते हैं कि वे अवश्य ही सच्चरित्र थे। पर हम इस प्रतिवाद की आवश्यकता नहीं समझते। उनकी चरित्रहीनता की कहानियाँ सच्ची हों या झूठी उनसे कालिदास की महत्ता में कुछ भी अंतर नहीं पड़ सकता।

उन्होंने अपने काव्यों में चरित्रों के जो आदर्श दिखाये हैं वे ऐसे प्रभावोत्पदक हैं कि उन्हें पढ़कर पाठक का चित्त उच्चता के शिखर पर पहुँच जाता है। उसे कवि के व्यक्तिगत चरित्र की ओर फिर कर देखने का अवकाश ही नहीं मिलता | महाकवियों की यही विशेषता है। वे खुद चाहे जैसें हों वे दूसरों को सदा उच्च बनाने का ही यत्न करते हैं। आप यदि एक साधारण चरित्रहीन व्यक्ति के आचरण की तुलना इससे करेंगे, तो कवियों की महत्ता का अवश्य पता लग जाएगा।

बाबू हरिशचन्द्र की रचनाओं ने हिंदी भाषा भाषियों का कितना कल्याण किया है। कवि अपने स्वभाव से विवश होकर कुछ दुराचरणों में प्रवृत्त हो जाते हैं पर उनके दुःखमय परिणामों का अनुभव करके वे लोगों को उनसे सावधान ही करते हैं। उनके लिए इस प्रकार का अनुभव आवश्यक भी कहा जा सकता है। संभव है बिना आत्मागत अनुभव के दुर्गुणों के भयंकर परिणामों के ज्यों के त्यों चित्र खींचकर लोगों के हृदय में उनके प्रति घृणा उत्पन्न कराने में वे पूरी सफलता प्राप्त न कर सकते।

कहा जाता है कि एक चरित्रहीन व्यक्ति यदि दूसरे को सच्चरित्र बनने का उपदेश दे तो उसके कहने का कुछ प्रभाव नहीं पड़ सकता। पर यह बात साधारण लोगों के लिए ही अधिकतर है- कवियों के लिए नहीं, कवियों में एक विशेष प्रकार की शक्ति होती है। उनकी उक्तियों में बल होता है, वे लोगों पर जादू का सा असर डालती हैं। क्या हम कवियों की कृतियों में संसार का महदुपकार होते नित्य नहीं देखते?

कालिदास की रचनाओं के पात्रों के आदर्श चरित्र तथा उनमें कही गई सच्चरित्रता सूचक उक्तियों का हवाला देकर यदि कोई कहे कि एक चरित्रहीन पुरुष के लिए चरित्र का ऐसा आदर्श खड़ा करना कभी संभव नहीं हो सकता तो यह बात ठीक नहीं। कवि में साधारण मनुष्यों की अपेक्षा कितनी ही विलक्षणताएं पाई जाती हैं। जिस विषय, जिस अवस्था जिस गुण का वर्णन उसे अभीष्ट होता है उसका वर्णन ज्यों का त्यों कर सकता है पर ऐसा करने के लिए उसे अपने हृदय से जरूर उत्तेजना मिलनी चाहिए। कारण यह है कि उसमें वर्णनीय विषय के साथ तादात्म्य प्राप्त करने का दैवी गुण होता है। यह गुण कवि के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसके बिना कोई कवि नहीं हो सकता। कवि इस गुण को माँ के पेट से लेकर आता है। जब किसी विषय या चरित्र से उसका तादात्म्य हो जाता है। तब उसे अपने व्यक्तिगत चरित्र अथवा गुण – दोष का ध्यान ही नहीं रहता। यही नहीं, वह अपने पार्श्ववर्ती संसार को भूल सा जाता है और एक अन्य लोक में विचरण करने लगता है।

कहने का मतलब यह नहीं कि कालिदास चरित्रहीन थे और वे इसी से अपने पात्रों का चरित्र उज्जवल बनाने में समर्थ हुए। हम सिर्फ यही कहना चाहते हैं कि कालीदास में यदि कवि जन सुलभ अनेक स्वर्गीय गुणों के साथ दो चार दुर्गुण भी रहे हो तो कोई अस्वभाविक बात नहीं।

संसार में ऐसा कोई नहीं जो बिलकुल ही निर्दोष हो। इस अवस्था में मनुष्यों का कर्त्तव्य है कि वे दोषों में पर दृष्टि न देकर गुणों को ही अपनाने का यत्न करें। हम कवियों की रचनाएँ पढ़कर जितना लाभ उठा सकते हैं, उतना उनके व्यक्तिगत चरित्र पर ध्यान देने से नहीं उठा सकते। कवियों के चरित्र पाठ से और लाभों के सिवा मनोरंजन भी होता है, उनका प्रत्येक कार्य विलक्षणता पूर्ण हुआ करता है।

अंत में हम अपने अनुकरण प्रेमी नवयुवक बंधुओं से प्रार्थना करते हैं कि वे कवियों के उपदेशों को ईश्वरीय आदेश समझकर ग्रहण करें, पर उनके कार्यों की लीक पर चलने के पहले जरा सोच लें। बड़ों में यदि दोष होते हैं तो उनमें गुण भी पाये जाते हैं। इस दशा में साधारण लोगों का प्रत्येक बात में उनका अनुकरण करना कदापि ठीक नहीं। आप कवियों के गुणों का अनुकरण कीजिए दोषों का न कीजिए।

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(छायावाद एवं अन्य श्रेष्ठ निबंध: पं. मुकुटधर पाण्डेय:-सम्पादक डॉ. बलदेव, 1984. प्रकाशक :-बसन्त राघव, शरद, श्रीशारदा साहित्य सदन,रायगढ़, छत्तीसगढ़) से साभार

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बसंत राघव साव

प्रस्तुतकर्ता : बसंत राघव साव, प्रकाशक, श्री शारदा साहित्य सदन, रायगढ़, छत्तीसगढ़ 496001 सम्पर्क: +918319939396, basantsao52@gmail.com
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