हिन्दी में छायावाद : काव्य-स्वातन्त्र्य
- पद्मश्री पं. मुकुटधर पांडेय
एक ओर कविता अपनी जन्मकुटीर से निकलकर बाहर पैर रखती है, दूसरी ओर उसे नियमों और रीतियों द्वारा चारों ओर से घेर रखने का यत्न आरम्भ हो जाता है। इस प्रकार, थोड़े-थोड़े काल के अन्तर पर, साहित्य के दो विभाग खड़े हो जाते हैं। प्रचलित भाषा में इसका नाम है-‘ उन्नति’। पर इसके साथ ही, एक बड़ी भारी हानि जो सूत्रपात होता है उसकी ओर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है। कविता के लिए एक रीति अथवा नियम आवश्यक अवश्य है ; पर यह नहीं कि। वह साहित्य में हिमाचल-सा अचल बना रहे, उसमें कोई परिवर्तन न किया जा सके और न कोई नवीनता ही लायी जा सके। यह मानना पड़ता है कि निश्चित रीति से कविता करने में कवि को अपनी प्रतिभा-धारा बहाने के लिए मार्ग ढूँढ़ निकालने को उधर-उधर भटकना नहीं पड़ता। उसे खुदी-खुदाई नहर मिल जाती है, जिससे उसके श्रम और शक्ति की बचत होती है ; किन्तु इससे उसे अपनी स्वतन्त्रता तथा साहसिकता दिखलाने का अवसर बिलकुल नहीं आता। अपने बच्चों को अनिष्ट की आशंका से, साहस के कामों से दूर रखकर, अधिकांश माता-पिता समझते हैं कि हमने उनका बड़ा कल्याण किया। वे यह नहीं सोचते कि ऐसा करके हम उनके साहस-पूर्ण कार्य करने की इच्छा और शक्ति को दबा रहे हैं, उन्हें भीरु बना रहे हैं। बस, यही हाल यहाँ भी समझिए। बेचारा कवि धीरे-धीरे इन रीतियों के दबाव में यहाँ तक आ जाता है कि वह उनकी सीमा से एक पग भी आगे बढ़ाना पाप समझता है। इसका फल यह होता है कि साहित्य चमत्कारपूर्ण नये-नये आविष्कारों से एकदम रिक्त रह जाता है। आश्चर्य की बात यह है कि जिसे लोग ‘उन्नति’ कहते हैं उसी से इतनी बड़ी हानि होती है। इसका एकमात्र कारण है- ‘सभ्यता’।
जिस देश की सभ्यता जितनी प्राचीन होगी उसके साहित्य की यह हानि भी उतनी ही बड़ी होगी। सभ्यता साहित्य में रीति-ग्रन्थों का पहाड़ खड़ा कर देती है, जिससे मौलिकता का द्वार रुक जाता है। मौलिकता का अभाव व्यक्तित्व का बाधक है जो कवि के लिए अत्यन्त आवश्यक है। बिना व्यक्तित्व दिखलाये, कवि-प्रतिपत्ति किसी को नहीं मिल सकती। वह व्यक्तित्व चाहे भाव में हो,भाषा में हो, छन्द में हो या प्रकाशन-रीति में हो, पर कविता में हो जरूर। जिसकी कविता में व्यक्तित्व नहीं उसे कवि नहीं, अनुकरणकारी कहना चाहिए। इस अनुकरणकारिता का सब दोष यद्यपि रीति-ग्रन्थों ही के मत्थे नहीं मढ़ा जा सकता, प्रतिभा का अभाव भी उसके लिए बहुत कुछ जिम्मेदार है, तथापि एक बात तो जरूर है कि उनके फन्दे में पड़ कर कवि बहुत कुछ परतन्त्र हो बैठता है। उसकी प्रतिभा स्वतन्त्र उड़ान नहीं ले सकती। वह घेरे से बाहर जाने के लिए पंख फड़फड़ाती है ; पर उसके पंखों से लगी हुई रस्सी मानो उसे खींचे रखती है। विचार कर देखा जाय, तो कवि की दुर्बलता ही इसका मुख्य कारण जान पड़ेगी।
संसार में प्रत्येक मनुष्य स्वतन्त्रता की इच्छा रखता है, फिर उसे मानसिक भूमि में परतन्त्र रहना क्यों पसन्द होगा यह बात समझ में नहीं आती। किन्तु नैतिक साहस के अभाव कवि रीति-ग्रन्थों की सीमा को, नहीं लाँघ सकता। वह यह नहीं सोचता कि कविता इन रीति-ग्रन्थों की अनुगामिनी नहीं, बल्कि रीति-ग्रन्थ ही कविता के अनुगामी है। पहले कविता जन्म लेती है, फिर आलोचक-गण अपने सामने उसका आदर्श खड़ा कर नियम और रीतियाँ निश्चित करते हैं। यही बात कविता के भिन्न-भिन्न भेदों के विषय में भी कही जा सकती है। महा-काव्य, खण्ड-काव्य, गीति-काव्य आदि नाम आलोचकों ही के दिए हुए हैं। कवि से उनका कोई सम्बन्ध नहीं। वह न तो ‘ महा-काव्य ‘ लिखता, न ‘ खण्ड-काव्य ‘, न ‘ गीति-काव्य ‘, वह तो केवल अपने हृदय के आवेशों को प्रकट करता है। ये आवेश जिन रूपों से बाहर होते हैं उनकी विशेषताओं पर दृष्टि रखकर आलोचक अपने आलोचन-कार्य के सुभीते के लिए उन्हें भिन्न-भिन्न नाम दे देते तथा भिन्न-भिन्न श्रेणियों में विभक्त कर देते हैं।
साथ ही, प्रत्येक का लक्षण निर्धारित कर उसके लिए कुछ विशेष प्रकार के नियमों की सृष्टि भी कर देते हैं। यदि कोई स्वतन्त्रता-प्रिय कवि इन नियमों की सांकल को तोड़ डालता है, तो आलोचक उसे ऐसा करने से रोक तो सकता ही नहीं, लाचार उसकी इस उच्छृखलता को अपवाद या किसी अन्य रूप में स्वीकार कर लेता है। कभी-कभी उसे अपने नियमों में सुधार करना पड़ता है, सुधार ही नहीं, कुछ नियम को रद्द कर दूसरा नियम बनाना पड़ता है। इस हेर-फेर में पड़ कर काव्य का एक रूप धीरे-धीरे अन्य रूप में परिवर्तित हो जाता है। अस्तु, यह बात साहित्य के क्रम-विकास से सम्बन्ध रखती है। सारांश यह है कि कवि इन नियमों को मानने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। उसकी इच्छा पर ही काव्य-भेदों के जीवन-मरण का प्रश्न निर्भर है। वह स्वेच्छानुसार नयी-नयी रीतियों से काम ले सकता है। अंग्रेजी का एक काव्य-मर्मज्ञ कहता है ….. “There Are not only three or ten orA hundred literary kinds ; thereAreAs many kindsAs thereAre individual poets.” अर्थात् “साहित्य के दस या पाँच या सौ ही प्रकार नहीं हैं। जितने कवि हैं उसके उतने ही प्रकार हो सकते हैं।” यथार्थ में बात ठीक जान पड़ती है। यहाँ ‘ कवि ‘ शब्द से तुक्कड़ों का बोध नहीं, प्रतिभाशाली कवियों का संकेत है। ऐसे कवि साहित्य की धारा को मोड़ कर उसे एक नयी गति प्रदान करते हैं, जाति के विचार-भवन की बन्द खिड़कियों को आघात-पूर्वक खोल देते जिससे उसमें बाहर की हवा और आलोक बेखटके आने-जाने लगता है। वे परम्परा के दास नहीं रहते, साहित्य में कुछ-न-कुछ अपना व्यक्तित्व छोड़ जाते हैं – नवीनता स्थापित कर जाते हैं।
ऊपर जो कुछ लिखा गया है उससे मालूम हुआ होगा कि ‘काव्य-स्वातन्त्र्य’ भी कोई चीज है। अब यह देखता है कि आज के दिन संसार में उसकी स्थिति क्या है? यह तो किसी से छिपा नहीं कि यह बीसवीं शताब्दी स्वतन्त्रता और नवीनता का युग है। नये-नये विचारों ने आज पृथ्वी पर एक बड़ा भारी परिवर्तन खड़ा कर दिया है। चारों ओर से नये-नये आविष्कार देखने-सुनने में आ रहे हैं। यूरोप, अमेरिका आदि पाश्चात्य देशों का तो कुछ कहना ही नहीं, वृद्ध भारत भी आज अपनी पुरानी नींद से जाग कर करवट बदलने लगा है। विज्ञान के इस नये युग में लोग देश-जाति के प्राण-स्वरूप साहित्य से उदासीन रहें-भला यह कैसे सम्भव है। आज संसार में जहाँ स्वतन्त्रता के लिए भयंकर लड़ाइयाँ हो रही हैं, लाखों आदमी कट रहे हैं, रक्त की नदियाँ बह रही हैं, अनेक षड्यन्त्र रचे जा रहे हैं, जहाँ स्वतन्त्रता की वेदी पर बड़े-बड़े राजे-महाराजे बलि चढ़ाये जा रहे हैं, वहाँ उसके भाव-राज्य में भी बड़ी-बड़ी क्रान्तियाँ हो रही हैं।
प्राचीन रीतियों और नियमों का गला कट रहा है। नयी-नयी शैलियाँ, नयी-नयी प्रणालियाँ उनका स्थान ले रही हैं। लोग नवीन आविष्कार करके ही नहीं रह जाते हैं। कुछ गरम दल वाले ऐसे भी हैं जो प्राचीन-पद्धति को समूल नष्ट कर देना चाहते हैं। उनका सिद्धान्त है कि जो नयी रीति निकाली गयी उसके प्रचार के लिए उसकी प्रशंसा और पुरानी रीति की निन्दा करनी ही चाहिए। अस्तु, यहाँ हम यह बतलाना चाहते हैं कि इन क्रान्तियों के फलस्वरूप आज साहित्य की भिन्न-भिन्न रीतियों और शैलियों की संख्या इतनी बढ़ गयी है कि ‘अमुक इस समय का सर्वोत्तम कवि है’ यह कहा ही नहीं जा सकता। दूर न जाकर बंग-साहित्य को ही देखिए। वीणा, वंशी, मृदंग आदि की तरल, मधुर, अस्पष्ट, स्वर-लहरी-पूर्ण ‘गीतांजलि’-प्रणेता जो एक कवि है तो भेरी, तुरही और शंख के वीरत्व-पूर्ण, विद्युत-प्रवाही, निनाद-मय ‘मेघनाद-वध’ का कर्ता भी कोई कवि है। इन दोनों में कोई छोटा-बड़ा नहीं है। उनकी परस्पर तुलना ही नहीं की जा सकती। दोनों ने अपने साहित्य को नया रूप प्रदान किया है। जो बात ‘मेघनाद-वध’ में है, वह बात ‘गीतांजलि’ में नहीं है ; और जो बात ‘गीतांजलि’ में है, वह बात ‘मेघनाद-वध’ में नहीं है।
इन क्रान्तियों का जोर पूर्व की अपेक्षा पश्चिम में ही अधिक है। पूर्व में जो कुछ हो रहा है उसे पश्चिमी-क्रान्तियों का असर समझना चाहिए। भारतीय साहित्य भी इस प्रभाव से बचा नहीं। बंग-साहित्य तो नवीनताओं और परिवर्तनों के लिए अपना दरवाजा बहुत पहिले ही खोल चुका है। हिन्दी-साहित्य यदि जागृत रहता, तो वह भी शायद ऐसा करने से नहीं चूकता। पर, उसकी अभी नींद ही नहीं टूटी। दूर जाना तो कठिन है, वह अपने पड़ोसी साहित्यों की ओर भी एक नजर नहीं देखता।
इन परिवर्तनों और नवीनताओं को विरोध और प्रतिवाद का सामना न करना पड़ता हो, यह बात नहीं है। संसार में ‘रक्षणशील’ और ‘उन्नतिशील’ दो दल सर्वत्र है। एक दल प्राचीन-रीति की पूज्य-सीमा की रक्षा करता है तो दूसरा उसे पैरों से कुचल डालना चाहता है। पश्चिमीय साहित्य में इस समय जो क्रान्तियाँ हो रही हैं उनके विरोधी-दलों की कमी नहीं। क्रान्तिकारियों को वे ‘साहित्य-संहारक’, ‘उन्मार्गगामी’, ‘अधोगामी’ कहकर गाली दे रहे हैं। बदले में, दूसरी ओर से भी, कुछ कमी नहीं की जाती। हमारे विचार में ये दोनों बातें ठीक नहीं हैं। दूरदर्शी और विवेकशील व्यक्ति इस दशा में मध्य-मार्ग का ही अनुगमन करते हैं। कोई नयी वस्तु केवल इसीलिए त्याज्य नहीं कि वह नयी है। यदि इसमें कुछ विशेषता और लाभ है, तो उसे ले लेने में हानि ही क्या?
इस प्रकार की नवीनतापूर्ण क्रान्तियाँ पश्चिमी सभ्यता ही के परिणाम हैं, यह नहीं कहा जा सकता। नवीनता स्वाधीन-चेता मानीषी मात्र का ध्येय है। हमारे प्राचीन आचार्यों ने प्रतिभा का यह लक्षण ही निर्धारित किया है कि वह प्राचीन-पद्धति को छोड़ नवीन मार्ग ग्रहण करती है। ‘प्रज्ञा नवनवोन्मेष-शालिनी प्रतिभा मता’ कविवर विल्हण का कथन है-
प्रौढ़प्रकर्षेण पुराणरीति –
व्यतिक्रमः श्लाध्यतमः पदानाम्।
अत्युन्नतं-स्फोटित-कञ्चुकानि
वन्द्यानि कान्ताकुचमण्डलानि।।
अर्थात, “ पदों को अधिक प्रौढ़ कर पुरानी परिपाटी से उलटा चलना ही अच्छा है, जिस प्रकार अत्यन्त बढ़ जाने के (या उन्नति के) कारण कंचुकी (चोली) को फाड़ देने वाले कान्ता के कुच-मण्डल (स्तन-युगल) की प्रशंसा की जाती है। “
कवि-कुल गुरु कालिदास ने भी कहा है-
पुराणमित्येव न साधु सर्व
न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्।
सन्तः परीक्ष्यान्तरद्धजन्ते
मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः ॥
अर्थात्, “पुरानी होने से ही कोई बात माननीय और नयी होने से ही कोई बात निन्दनीय नहीं हो सकती। पढ़े-लिखे लोग अच्छी तरह जाँच-पड़ताल कर पक्की बात को ही मानते और अज्ञानी लोग दूसरे की लकीर के पीछे लट्ठ ले चल पड़ते हैं।”
पाठको, देखिए कैसा न्याय-संगत और पक्ष-रहित कथन है। स्वाधीन-चिन्ता इसी का नाम है। साहित्य में इस समय जो-जो क्रान्तियाँ हो रही हैं उनमें छायावाद भी एक है। …दूसरे लेख में हम यह दिखलावेंगे कि वह है कोई चीज।
सादर प्रणाम