कविता निबन्ध लेखमाला भाग – 3
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भाषा
आजकल हिन्दी में जितनी कविताएँ निकलती हैं, वे प्रायः ‘ खड़ी बोली ‘ की ही होती हैं। पर 15, 20 वर्ष पहले यह हाल नहीं था। तब हिन्दी पद्य की भाषा ब्रजभाषा थी। हमारे कुछ दूरदर्शी श्रद्धेय गुरुजन खड़ी बोली में तब भी कुछ-कुछ लिखा करते थे। पर उनके विरोधियों की संख्या कम नहीं थी। ब्रज-भाषा के प्रेमी तब खड़ी बोली को कर्कश और कविता करने के अयोग्य सिद्ध करने में व्यस्त थे। उन्हें लोगों की रुचि का कुछ भी विचार नहीं था। पर समय ने हिन्दी-साहित्य में कुछ ऐसा परिवर्तन उपस्थित कर दिया कि आज खड़ी बोली ही का सर्वत्र बोलबाला है। जो कभी खड़ी-बोली की कविता के घोर विरोधी थे वे ही आज उसकी पीठ ठोंक रहे हैं। पर, आज भी खड़ी बोली का मार्ग बिलकुल कण्टक-शून्य नहीं कहा जा सकता।
आज भी कुछ ब्रजभाषा भक्त ऐसे हैं जो ‘ खड़ी बोली ‘ को कर्ण कटु कह कर उसका प्रचार रोकने के प्रयासी हैं। यह उनके ब्रज-भाषा प्रेम का परिचायक है। इससे खड़ी बोली का प्रचार रुकने वाला नहीं। यह कौन नहीं जानता है कि ब्रजभाषा अत्यन्त मधुर है? पर क्या यह मधुरता-गुण उसे चिरस्थायी बनाने में समर्थ हो सकता है? संसार में कोई भाषा अपरिवर्तित रूप से नहीं रह.सकी है। समय के प्रवाह और लोगों की रुचि ने ऐसे-ऐसे परिवर्तन उपस्थित किये हैं जो भाषाएँ कभी सर्वमान्य और सर्व-गुण-सम्पन्न समझी जाती थीं वे ही आज मृत भाषाएँ कही जा रही हैं। और उनके स्थान में अन्यान्य भाषाएँ काम में लायी जा रही हैं। मतलब यह कि कोई भाषा अपनी मधुरता और अन्यान्य गुणों के कारण चिरस्थायी नहीं हो सकती। यह तो सभी मानते हैं कि उच्चारण की सुविधा के लिए संस्कृत के कठिन और कर्कश शब्दों को सरल और कोमल बनाकर प्राकृत भाषा निर्मित की गयी। प्राकृत भाषा ऐसी मधुर थी कि उसके प्रेमी उसे अपरिवर्तनीय समझते थे ; पर क्या कारण है कि प्राकृत ऐसी मधुर और कोमल भाषा को हिन्दी के लिए अपना स्थान छोड़ना पड़ा? खड़ी बोली आज ब्रज-भाषा का स्थान छीन रही है। सम्भव है, कल उसे भी किसी अज्ञात भाषा के आगे अपना सिर झुकाना। भाषा का परिवर्तन सर्वथैव लोगों की रुचि और समय की गति पर निर्भर है। ऐसी दशा में खड़ी बोली का प्रचार रोकने के अभिप्राय से उसके विरुद्ध विरोधी-दल का कुछ कहना-उसे ‘ कर्कश ‘, ‘ कर्णकटु ‘ कविता के अयोग्य बनाकर, उसकी निन्दा करना केवल जीभ की खुजली मिटाना है।
(सार्वमान्य और गुण सम्पन्न तो वे अब भी समझी
से मृत -भाषाएं कहलाती हैं। मृत भाषा कहने से उसका मान नहीं घटता। –सम्पादक)
जो लोग ‘ खड़ी बोली ‘ में कविता करते हैं उनका अभिप्राय लोगों की रुचि का अनुसरण करना है, न कि ब्रज-भाषा को कर्ण-कटु और गुण-हीन सिद्ध करना। ब्रज-भाषा की मधुरता का प्रमाण इससे बढ़कर और क्या हो सकता है कि फारसी जैसी मधुर भाषा के सुकवि ‘ अलीहजी भी ब्रज में जाकर मातृ-भाषा की मधुरता को भूल गये और रहीम, रसखान आदि अनेक विधर्मी कवि भी उसकी ओर झुक पड़े। खड़ी बोली के समर्थकों में ऐसा कृतघ्न तो कोई होगा जो ब्रज-भाषा के महत्त्व को स्वीकार न करता हो? जिस भाषा को तुलसी, सूर, केशव और बिहारी ने अपनाया, उसके महत्त्व का क्या कहना? जब तक हिन्दी भाषा का अस्तित्व है तब तक ब्रज भाषा का भी महत्त्व समझना चाहिए। पर उसका यह महत्त्व ‘ खड़ी बोली ‘ के प्रचार को रोक नहीं सकता। संसार में शायद ही कोई ऐसा साहित्य होगा, जिसमें गद्य और पद्य के लिए जुदी-जुदी भाषाएँ काम में लायी जाती हों। जब तक हिन्दी के गद्य का कोई रूप निर्धारित नहीं हुआ था, तब तक तो लोग ब्रज भाषा में कविता करने में कोई हानि नहीं देखते थे, पर भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र ने जब से हिन्दी गद्य को उसका आधुनिक रूप दिया, यथार्थ में तभी से लोगों के हृदय में खड़ी बोली अर्थात् प्रचलित गद्य को पद्य की भी भाषा बनाने के भाव प्रकट होने लगे। उनके ये भाव प्राकृतिक नियम के अनुकूल थे अतएव पद्य की भाषा के रूप में ‘ खड़ी बोली ‘ के प्रचार में अधिक समय नहीं लगा। अब तो ‘ खड़ी बोली ‘ एक प्रकार से पद्य की भाषा निर्धारित ही हो गयी। आधुनिक पत्र-पत्रिकाओं में ‘ ब्रज भाषा ‘ के पद्यों का प्रकाशन एकदम बन्द हो जाना ही प्रमाण है।
पर इस समय ‘ खड़ी बोली ‘ के कवियों के भी दो दल हो रहे हैं। एक दल गद्य और पद्य की भाषा को बिलकुल एक करना चाहता है। दूसरा दल पद्य को कुछ स्वतन्त्रता देने का पक्षपाती है। पहिला दल शब्दों को उसी रूप में रखना चाहता है जिस रूप में कि वे गद्य में प्रयुक्त होते हैं, पर दूसरा दल आवश्यकतानुसार उनको कुछ अल्प-परिवर्तन के साथ ग्रहण करने में भी कोई हानि नहीं समझता ‘। पहिला विवशता के समय भी इसका-उसका आदि को इस्का-उस्का लिखने का घोर विरोधी है, पर दूसरा उच्चारण के ध्यान से कुछ वर्षों के हलन्त के प्रयोग का पक्षपाती है। ऐसे कई मतभेद हैं। इस मतभेद से खड़ी बोली को लाभ ही होगा, हानि नहीं। ऐसी अवस्था में जब कि एक बहुकाल-व्यापी भाषा को स्थान-च्युत करके हिन्दी-साहित्य में खड़ी बोली अपना आधिपत्य स्थापित कर रही है, मतभेद का होना स्वाभाविक ही है। हम इसे ‘ खड़ी बोली ‘ की उन्नति का लक्षण समझते हैं।
(1. अलीहजी ब्रज की एक गँवार बालिका के मुख से सुनकर मुग्ध हो गये थे-सम्पादक ” साकरी पगन बीच काँकरी गड़त है। “-सम्पादक
2. सभी साहित्यों में गद्य और पद्य की भाषा में थोड़ा बहुत भेद अवश्य होता है, पर इतना नहीं, जितना हिन्दी में है।)
उक्त दोनों दलों में से किसके सिद्धान्त मान्य हैं? यद्यपि हमें यह विश्वास है कि आगे चलकर दूसरे दल की जीत होगी, तथापि इस समय हम प्रथम दल वालों ही के मतों का समर्थन करेंगे। पाठक इस बात पर आश्चर्य करेंगे। यथार्थ बात तो यह है कि इस समय यदि दूसरे दल के मतों की पुष्टि की जायगी, तो खड़ी बोली के नव-कवि कविता करते हुए धीरे-धीरे ऐसे स्वतन्त्र हो जाएँगे कि बहुत शीघ्र ही पद्य और गद्य की भाषा में बड़ी विभिन्नता हो जाएगी। बिना किसी भय या रुकावट के ही लोग शब्दों को तोड़-मरोड़ कर पद्य में भरने लगेंगे, क्रिया प्रयोगों में भी स्वतन्त्रता से काम लिया जाने लगेगा। फिर ‘ ब्रज भाषा ‘ को अलग करने से लाभ ही क्या होगा? प्रायः सभी भाषाओं में गद्य की भाषा से पद्य की भाषा में कुछ न कुछ अन्तर होता ही है। पर स्मरण रखना चाहिए कि यह अन्तर एक या दो दिन में नहीं हो जाता। शब्द और क्रिया आदि के सम्बन्ध में व्याकरण के निर्धारित नियमों का जान बूझ-कर उल्लंघन करना यथार्थ में कविता के नाम से व्याकरण की हत्या करना है।
कवि लोग रचना क्रम से कभी-कभी जो भूल कर जाते हैं वह परवर्ती काल में कविता के ग्राह्य मान ली जाती है। इस प्रकार कुछ समय में पद्य की भाषा गद्य की भाषा से कुछ दूर जा पड़ती है। जो लोग पद्य और गद्य की भाषा को एक ही रूप में देखना चाहते हैं उनको स्मरण रखना चाहिए कि ऐसा कभी नहीं हो सकता। इसके कई कारण हो सकते हैं।
प्रथम तो कविता में भाव की प्रधानता रहती है जिससे उसकी भाषा स्वभावतः ही सालंकार होती है। गद्य में ( गद्य से मतलब बोलचाल और साधारण लिखने-पढ़ने की भाषा से है-गद्य काव्य से नहीं ) यह बात नहीं पायी जाती। उसमें उन्हीं बातों का वर्णन रहता है जिन्हें हम प्रत्यक्ष देखते-सुनते हैं। कवि का हृदय स्वभाव से ही भाव ग्राही होता है। साधारण मनुष्य और कवि में इतना ही अन्तर है कि किसी घटना विशेष के दर्शन अथवा श्रवण से कवि का हृदय सहानुभूति के भावों से भर उठता है, पर साधारण मनुष्य अन्य पुरुष की तरह उसे देखने अथवा सुनने मात्र से अपना प्रयोजन रखता है, अब इन दोनों मनुष्यों को आप उनके दर्शन अथवा श्रवण करने के अनुभव को शब्दों के रूप में व्यक्त करने दीजिए। फिर देखिए कि दोनों की भाषा में क्या अन्तर है। आप देखेंगे कि साधारण मनुष्य के लेख की भाषा में बोल-चाल की भाषा से कोई विशेषता नहीं। उसके रूप में परिवर्तन बिलकुल नहीं हुआ? पर कवि के लेख की भाषा सालंकार है, अतएव उसका रूप बोलचाल की भाषा के रूप से भिन्न है। इसका कारण यही है कि घटना के दर्शन अथवा श्रवण करने के समय साधारण मनुष्य के हृदय में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था। पर, उन्हीं बातों से कवि के हृदय-यन्त्र में ऐसा आघात पहुँचता है कि उसके एक-एक तार हिल उठते हैं। जब उसकी अवस्था में इतना परिवर्तन होता है तो कहिए उसकी भाषा के रूप में परिवर्तन कैसे न हो? भावाधिक्य से कविता की भाषा सालंकार हो ही जाती है। कवि की बात जाने दीजिए। आप कभी निसांध्य रात्रि के समय किसी पुत्र-शोक-काल में जननी के करुण-क्रन्दन को सुनिए, फिर उसकी नरकालीन भाषा को उसके साधारण समय के बोलचाल की भाषा से मिलाइए।आप देखेंगे कि दोनों में कितना अन्तर है। इसका कारण उसके हृदय की विभिन्न अवस्थाएँ हैं। पुत्र-प्रेम के भावों से उसका हृदय जब बिलकुल भर गया, तब वे भाव क्रन्दन के रूप में बाहर निकलने लगे। भावाधिक्य और विक्षिप्तता के कारण उस समय उसकी भाषा सालंकार हो गयी, अतएव उसने बोलचाल की भाषा के रूप से एक भिन्न रूप धारण कर लिया।
गद्य और पद्य की भाषा के रूपों में अन्तर होने का दूसरा कारण यह है कि कविता में सुर का ध्यान रखना पड़ता है, पर गद्य में नहीं। कविता को सुस्वर बनाने के लिए प्रायः कवि लोग उसमें यमक और अनुप्रास का प्रयोग करते हैं, जिससे पद्य की भाषा गद्य की अपेक्षा कुछ विलक्षण ही हो जाती है।
तीसरे कारण का सम्बन्ध कवि की परतन्त्रता और स्वतन्त्रता से है। इसका उल्लेख ऊपर हो चुका है-तथापि इस विषय में हम यहाँ कुछ और लिखते हैं। उपर्युक्त कारणों से कविता की और बोल-चाल की भाषा के साधारण रूपों में अन्तर हो जाता है। पर यह ऐसा कारण है कि इससे गद्य और पद्य की भाषाओं में व्याकरण सम्बन्धी भिन्नता दृष्टिगोचर होने लगती है। यह तो सभी जानते हैं कि कवि की गतिमति छन्द के साथ बँधी हुई होती है। छन्द को नियत मात्राओं और वर्गों में ही उसे अपने भाव प्रकट करने पड़ते हैं। नियत मात्राओं और वर्णों का हो नहीं, लघु और गुरु का भी पूरा ध्यान रखना पड़ता है। बिना लघु-गुरु के विचार के नियमित मात्राओं अथवा वर्गों से ही छन्द नहीं बन सकता। भाव चाहे कैसे ही उच्च और नूतन क्यों न सूझे हों, पर यदि वे नियत मात्राओं में नहीं आ सकते, तो कौड़ी काम के नहीं। ऐसे सुन्दर भाव के इतनी उत्तम सूझ को कवि कैसे जाने दे सकता है। उसे नियत मात्राओं में अपना भाव व्यक्त करना ही चाहिए। यदि प्रयत्न करने पर छन्द के उपयुक्त शब्द मिल गये तब तो काम निकल गया, अन्यथा कविता में ऐसे शब्द, जो गद्य में काम में नहीं लाये जाते, रखने अथवा शब्दों को तोड़-मरोड़ कर प्रयोग में लाने के सिवा और दूसरा चारा ही क्या है? प्रायः कवियों की मात्राओं की संख्या कम करने के अभिप्राय से लम्बे-लम्बे सामासिक शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है। ऐसे अवसरों पर जो कठिनता उपस्थित होती है उसका अनुभव कवि के सिवा अन्य जन नहीं कर सकते। कभी एक शब्द के लिए उसे छन्द के ध्यान से घन्टों अटक जाना पड़ता है। एक शब्द की खोज में बेचारा कवि कभी-कभी इतना हैरान रहता है कि उसे भोजन स्वाद तक नहीं जान पड़ता और सारी रात नींद नहीं आती। हाय ! परतन्त्रता बड़ी बुरी चीज है। केवल क्षुद्र कवियों की ही नहीं महाकवियों की भी समय-समय पर वही दुर्दशा होती है। गद्य-लेखकों को इस कठिनता का सामना नहीं करना पड़ता। वे अपने विचार प्रकट करने में स्वतन्त्र होते हैं। उनकी लेखनी परतन्त्रता की बेड़ी से जकड़ी नहीं होती, वह इच्छानुसार दौड़ लगा सकती है। अतएव गद्य लेखकों के शब्दों को तोड़-मरोड़ कर विकलांग बनाने और प्रचलित शब्दों को काम में लाने की आवश्यकता नहीं होती।
इसके सिवा कवियों को कुछ स्वतन्त्रता भी रहती है। प्रतिभा के उन्मेष में कभी-कभी वे व्याकरण के प्रचलित नियमों का उल्लंघन कर जाते हैं। कभी बहु बचन के लिए एक बचन रख देते हैं, कभी क्रियाओं का विलक्षण ही रूप बनाते, तो संज्ञाओं से क्रिया बनाकर काम में लाते हैं। यदि बेचारा गद्य-लेखक ऐसा करे तो समालोचक-समूह उसे वाग्वाण-वर्षा से नाकों दम कर डाले। हमारे विचार में कवियों को इस ईश्वरदत्त स्वतन्त्रता को काम में लाते हुए बहुत सोच-समझकर चलना चाहिए। अनुकरण-प्रथा संसार में बहुत प्रचलित है। उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि हम आज भाषा के जिन साधारण नियमों की अवहेलना कर रहे हैं, हमारे उत्तराधिकारी कवि भी उनकी अवहेलना करने में कोई हानि नहीं समझेंगे।
खड़ी बोली की कविता को अभी बालिका ही समझिए। पर, इस थोड़े समय के भीतर ही कवियों की उपर्युक्त परतन्त्रता ने उसके गद्य और पद्य की भाषा में बहुत कुछ अन्तर उपस्थित कर दिया है। तब खड़ी बोली के पद्य और गद्य को बिलकुल एक कर देने की इच्छा रखने वाले क्या यह नहीं सोचते कि कुछ और आगे चलकर खड़ी बोली की कविता का क्या रूप होगा?
हम विस्तार-भय से यहाँ खड़ी बोली के गद्य और पद्य की विभिन्नता को उदाहरण देकर बतलाना नहीं चाहते। पाठक कुछ यत्न करने पर खड़ी बोली के सामयिक पद्यों में ही नहीं किन्तु खण्डकाव्य और महाकाव्य में भी इस विभिन्नता को सहज ही में देख सकेंगे।
आजकल ‘ अपने जी में ‘ के लिए बहुत लोग पद्य में ‘अपने हिये) लिखने लगे हैं। हमारे विचार में यह न तो कोई मुहाविरा है और न हिन्दी व्याकरण की दृष्टि से ही शुद्ध है। जान पड़ता है कि ‘ हिये ‘ शब्द में अधिकरण के चिह्न लगाने में संस्कृत व्याकरण की नियम की रक्षा की गयी है। गद्य में अपने हिये ‘ कहीं नहीं लिखा जाता। यदि इसके प्रयोग का क्रम जारी रहा, तो शायद आगे चलकर वह पद्य के लिए ग्राह्य भी हो जायेगा। इसीलिए हमने कवियों से अपनी स्वतन्त्रता को समझ-बूझकर काम में लाने की प्रार्थना की है। यह हमने एक बानगी दिखलायी है। आजकल खड़ी बोली की कविता में ऐसे और भी कई विचारणीय प्रयोग पाये जाते हैं।
साधारण शब्दों से क्रिया-पद बनाने की रीति पहिले कहीं-कहीं बंगाली कविता में देखी जाती थी। माइकेल मधुसूदन दत्त ने अपने अन्त्यानुप्रास हीन अमर-काव्य ‘ मेघनाथ वध ‘ में इस रीति से कई जगह काम लिया है, समालोचकों ने इस पर आक्षेप भी किया था। हमें हिन्दी कविता में भी दो जगह ऐसे प्रयोग देखने को मिले हैं। कौन कह सकता है-आगे इस रीति का विशेष आदर होने लगे।
अब हम कविता की भाषा सम्बन्धी कुछ और बातों का वर्णन कर इस विषय को समाप्त करेंगे।
आजकल हिन्दी-गद्य में दो प्रकार की भाषा लिखी जाती है-एक संस्कृत शब्द-प्रधान, दूसरी बोलचाल की।। संस्कृत-शब्द प्रधान-भाषा से हिन्दी के निजत्व में और बोलचाल की भाषा से उसके राष्ट्रीयत्व में बट्टा लगता है। पर लिखी जाती है- दोनों प्रकार की हिन्दी। जो घर में सदा हिन्दी ही बोलते हैं, वे तो दूसरे प्रकार की हिन्दी लिखना अधिक पसन्द करते हैं, किन्तु जो दूसरी बोलियाँ बोलते हैं उन्हें ऐसा करने में कठिनता होती है, अतएव वे संस्कृत शब्द-प्रधान भाषा लिखते हैं। फिर भी कुछ लोग रुचि भेद से ‘ टकसाली ‘ हिन्दी लिखा करते हैं और वे कुछ सज्जन भी जो घर में हिन्दी ही बोलते हैं-संस्कृत-शब्द-प्रधान हिन्दी को अधिक पसन्द करते हैं, अथवा दोनों ही प्रकार के शब्दों का प्रयोग करते हैं।
हमारी समझ में आजकल खड़ी बोली की कविता की भाषा का भी यही हाल है।
कविता के शब्द-भंडार का द्वार बोल-चाल में आने वाले सब शब्दों के लिए तो खुला ही रहना चाहिए, किन्तु आवश्यकतानुसार उसमें अप्रचलित संस्कृत शब्दों को भी प्रधानता देनी चाहिए। बिना ऐसा किये भाव-प्रकाशन में जरूर कठिनता होगी। हिन्दी का शब्द-समूह इतना विस्तृत नहीं है कि बिना कुछ अप्रचलित संस्कृत-शब्दों की सहायता के उसमें सुगमता से कविता लिखी जा सके। जिस भाषा में एक ही अर्थ के द्योतक जितने ही अधिक शब्द होते हैं उस भाषा के कवियों को कविता लिखने में उतनी ही सुगमता होती है। इस विचार से उर्दू के प्रचलित शब्दों को भी कविता में स्थान प्रदान करने की उदारता दिखलानी चाहिए। प्रचलित शब्दों को कविता में ग्रहण करते समय यह बिलकुल नहीं सोचना चाहिए कि वे किस भाषा के शब्द हैं। कवि-कुल-चूड़ामणि गुसाईं तुलसीदास जी आज के कोई सवा तीन सौ वर्ष पहले इस विषय में हमारे आदर्श हो गये हैं। खड़ी बोली के कुछ अत्यन्त प्रेमीगण कविता में ब्रज भाषा की कुछ प्रचलित क्रियाओं और शब्दों का प्रयोग भी अनुचित समझते हैं। हमारी समझ में यह अनुचित पक्षपात है, खड़ी बोली विदेशी शब्दों को भी ग्रहण कर सकती है, फिर ब्रजभाषा तो अपनी ही है। हमारे कहने का मतलब यह नहीं है कि खड़ी बोली और ब्रजभाषा की खिचड़ी पका दी जाय-जैसा कि आजकल के कुछ पद्य-लेखक करते हैं। जो ब्रजभाषा की क्रिया को काम में लाने की आवश्यकता आ पड़े तो ऐसा करने के पहले उसे खड़ी बोली की क्रिया का रूप अवश्य दे देना चाहिए।
हमने पहले यह कहा है कि खड़ी-बोली की कविता में कुछ अप्रचलित संस्कृत शब्दों का प्रयोग अनुचित नहीं है। इससे यह नहीं समझना चाहिए कि हिन्दी-कविता के नाम से –
” प्रातर्ननामि तव पाद दयैकसिन्धो। “
के समान कोरी संस्कृत रचना की जाय अथवा
” सुरम्य रूपे, रस-राशि रंजिते !
विचित्रवर्णा भरणे ! कहाँ गयी “?
के समान केवल क्रिया-भेद रखकर संस्कृत लिखा जाय, अथवा “ वसति त्वत्समगज नग क्रीड़ते दान-धार ” के समान हिन्दी-कविता को एक विचित्र रूप दिया जाय।
संस्कृत के हलन्त शब्दों को आजकल हिन्दी गद्य में बहुत से लोग शुद्ध रूप में लिखते हैं। यदि यह नियम मान लिया जायगा तो संस्कृत नहीं जानने वालों को इससे जरूर कठिनता होगी। हमारे विचार से इस नियम से कविता में भी उनका ठीक-ठीक प्रयोग नहीं हो सकेगा। अतएव हिन्दी में उन्हें सस्वर बना कर लिखना ही उत्तम होगा, अर्थात् ‘ विद्वान् ‘, ” भगवान् ‘ आदि शब्दों को विद्वान और भगवान लिखना चाहिए।
अपभ्रंश शब्दों के विषय में इतना ही वक्तव्य है कि उनका आदर ब्रजभाषा में अधिक है। तथापि वे अपभ्रंश शब्द जो उनके शुद्ध शब्दों से भी अधिक प्रचलित हैं खड़ी बोली की कविता में काम में लाये जाते हैं। ‘ भक्ति ‘ और ‘ धनुष ‘ को ‘ भगति ‘ और ‘ धनुख ‘ खड़ी-बोली में नहीं लिख सकते, किन्तु ‘ अश्रु ‘ और ‘ धुरिका ‘ को ‘ आँसू ‘ और ‘ धुरी ‘ लिखने में कोई दोष नहीं। यह बात शब्दों के प्रचार और अप्रचार पर अवलम्बित रहनी चाहिए।
कविता की भाषा ऐसी होनी चाहिए कि पढ़ते ही उसका अर्थ पाठकों की समझ में आ जाय। सरल भाषा से सर्वसाधारण को अधिक लाभ होता है। गुसाईं जी की कविता का स्वाद सभी चखते हैं, किन्तु बिहारी सतसई के दोहों को पूर्णतया समझने वालों की संख्या बहुत कम है।
दूसरी बात यह है कि कविता में जिस रस अथवा विषय का वर्णन हो उसकी भाषा भी उसी रस अथवा विषय के अनुकूल होनी चाहिए। शब्द स्थापन और सुर के उतार-चढ़ाव में ऐसी विशेषता होनी चाहिए कि कविता को पढ़ते समय पाठक को विवश होकर वर्णित विषय अथवा रस के अनुकूल चेष्टा करनी पड़े। बंगला के मेघनाथ बध को पढ़ते समय कभी तो वीरता के उन्मेष से बाहें फड़कने लगती अनुसार हैं और कभी शोकाकुल होकर झर-झर आँसू बहाना पड़ता है। यह रस के भाषा के परिवर्तन का ही प्रभाव है। शब्द-स्थापन ऐसा विचित्र है कि पढ़ते-पढ़ते कभी सारंगी और मजीरा का सुर सुनायी पड़ता है तो कभी कानों में नगारों की गड़गड़ाहट गूंजने लगती है। कविता की भाषा में मुहाविरा का भी विशेष ख्याल रखना चाहिए। जिस कविता की भाषा मुहाविरा होती है उसे लोग रुचि से पढ़ते हैं और उसका प्रचार भी अधिक होता है।
अगले अंक में हम छन्द पर कुछ विचार करके इस लेख को समाप्त करेंगे।