मुकुटधर पाण्डेय

छायावाद क्या है?

 

     हिन्दी में यह एक बिलकुल नया शब्द है ; अतएव पाठक पूछ सकते हैं कि वह क्या है? अंग्रेजी या किसी पाश्चात्य-साहित्य अथवा बंग-साहित्य की वर्तमान स्थिति की कुछ भी जानकारी रखने वाले तो सुनते ही समझ जाएँगे कि यह शब्द ‘Mysticism’ के लिए आया है। पर सिर्फ हिन्दी जानने-वालों की जिज्ञासा इससे और भी बढ़ जायेगी कि यह कौन-सा हौआ है। वास्तव में है भी यह कुछ ऐसा ही।

         मैंने इस विषय में पाश्चात्य-लेखकों की ‘Maeterlinck’ की दो-एक छोटी-मोटी रचना छोड़कर और कोई किताब नहीं पढ़ी। हाँ, कवीन्द्र रवीन्द्र के मीष्टिक-साहित्य की कुछ पुस्तकें अवश्य पढ़ी हैं। यद्यपि इस अल्पातिअल्प ज्ञान को लेकर एक नवीन और गहन विषय पर कुछ लिखने बैठना हास्यास्पद है, तथापि हिन्दी में उसका नितान्त अभाव देखकर, उधर-उधर की कुछ टीका-टिप्पणियों के सहारे, मैं यह दुस्साहस कर रहा हूँ।

         ‘छायावाद’ एक ऐसी माया-मय सूक्ष्म वस्तु है कि शब्दों द्वारा उसका ठीक-ठीक वर्णन करना असम्भव है। उसका एक मोटा लक्षण यह है कि उसमें शब्द और अर्थ का सामंजस्य बहुत कम रहता है। कहीं-कहीं तो इन दोनों का परस्पर कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता। लिखा कुछ और ही गया है ; पर मतलब उसका कुछ और ही निकलता है। किन्तु पाठक इस शब्द-अर्थ के विरोध को देख अलंकार-शास्त्र के रूपक अथवा व्यंग का विभ्रम न होने दें। इसमें ऐसा कुछ जादू भरा है कि प्रत्येक पाठक अपनी रुचि और समझ के अनुसार इससे भिन्न-भिन्न अर्थ निकाल सकता है और भिन्न-भिन्न रीति से, परन्तु समान-भाव से, उसका आनन्द अनुभव कर सकता है। कवि का अभिप्राय उसके लिखने से चाहे जो रहा हो, इससे पाठकों का सम्बन्ध कुछ भी नहीं। अतएव यदि यह कहा जाय कि ऐसी रचनाओं में शब्द अपने स्वाभाविक मूल्य को खोकर सांकेतिक-चिन्ह-मात्र हुआ करते हैं तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।

       छायावाद के कवि वस्तुओं को एक असाधारण दृष्टि से देखते हैं। उनकी रचना की सम्पूर्ण विशेषताएँ उनकी इस ‘दृष्टि’ पर ही अवलम्बित रहती हैं। अतएव ‘छायावाद’ को ठीक-ठीक समझने के लिए इस ‘दृष्टि’ का रहस्य जानना आवश्यक है। इसमें स्थैर्य और पूर्णत्व का नितान्त अभाव रहता है, जिससे वह क्षण भर में, बिजली की तरह, वस्तु को स्पर्श करती हुई निकल जाती है। पर यह स्पर्श इतना क्षीण होता है कि प्रायः वस्तु को उसका ठीक-ठीक ज्ञान भी नहीं होता। हाँ, इन अस्थिरता और क्षीणता के साथ-साथ उसमें एक तरह की विचित्र उन्मादकता और अन्तरंगता होती है जिसके कारण वस्तु उसके प्रकृत रूप में नहीं, किन्तु एक अन्य रूप में, दीख पड़ती है। उसके इस अन्य रूप का सम्बन्ध कवि के अन्तर्जगत् से रहता है। जिस प्रकार किसी भंगभवानी-भक्त के रंजित लोचनों में कोई वस्तु, उसकी भावना या लहर अनुसार कुछ और ही सूझने लगती है, वही हाल इन कवियों की दृष्टि का भी समझिए।

{1. ‘आमार मनेर भावे आमि एक गेये जाव। तोमार मनेर मत तुमि बझ जावे आर’ (रवीन्द्रनाथ) }

         यह अन्तरंग दृष्टि ही ‘छायावाद’ की विचित्र प्रकाशन-रीति का मूल है। उसमें किसी दृश्य का ज्यों-का-त्यों चित्र उतारा जाता है; पर शब्द ऐसे वेग वाले प्रयुक्त किये जाते हैं कि भाषा उड़ती हुई जान पड़ती है। पाठक उस चित्र को पकड़ना चाहता है; पर अभी वह उसकी आँखों के सामने हुआ ही था कि न जाने कहाँ अनन्त-आकाश में लीन हो जाता है। फिर प्रयत्न करने पर भी उसका कोई पता नहीं चलता। ऐसी कविताओं में शब्द सजीव होते हैं। वे आदमियों की तरह चलते-फिरते और इशारा करते हैं। बोलते भी हैं ; पर भाषा उनकी ऐसी विलक्षण होती है कि मृत्युलोक में उसका कोई व्याकरण ही नहीं। उनमें रूप-रंग और छाया तथा प्रकाश भी पाये जाते हैं। पर चित्र दृश्य वस्तु की आत्मा का उतारा जाता है। चित्रकार को कवि की आत्मा ही समझिए। अतएव पाठक आत्मा द्वारा ही उसे देखकर उसका आनन्दानुभव कर सकता है। पर यदि वह चाहे कि इस आनन्द का उपभोग मैं पूर्ण रूप से करूँगा, तो वह ऐसा कभी नहीं कर सकता। रचना के किसी एक भाव को हृदयंगम कर अथवा किसी एक वाक्य की मधुरता का आस्वादन करके ही उसे सन्तोष मानना पड़ेगा। सम्पूर्ण रचना का पूरा-पूरा स्वाद वह कभी नहीं ले सकेगा। साथ ही, उसकी यह आनन्दानुभूति स्थायी नहीं हो सकती। वह किसी क्षण भी यह नहीं कह सकता कि काव्य की सम्पूर्ण सुषमा इस समय मुझे अनुभूत हो रही है, वह बिजली की तरह निरन्तर लुकती-छिपती ही रहती है। इसके सिवा ऐसी कविता के मर्म के विषय में पाठक को सदैव संदिग्ध ही रहना पड़ता है। उसे यह शंका बनी ही रहती है कि मैं प्रयत्न करके जिस निर्णय पर उतरा हूँ, कवि का मतलब वही है या यह केवल मेरी कल्पना की तरंग-मात्र है। इसका कारण यह है कि कवि जान-बूझकर अपनी रचना को इसी प्रकार मायामय बनाने की चेष्टा करता है। अपनी प्रणाली के अनुसार भावों को स्पष्ट कर दिखाने में वह सक्षम भी नहीं रहता। उसे अपने लक्ष्य और पाठक के बीच में एक पर्दा डाल देना पड़ता है; पर यह पर्दा इतना बारीक नहीं होता कि पाठक उसके भीतर का दृश्य अनायास देख सके। ऐसा करने के लिए उसे अनुमान का सहारा लेना पड़ता है। अनेक अंशों में अनुमान और कल्पना पर ही अवलम्बित रहना पड़ता है। यही कारण है कि जिस कविता के पाठ से एक पाठक आनन्द-सागर में डूब जाता है उसी का दूसरे पाठक के चित्त पर ऐसा करुणाई प्रभाव पड़ता है कि उसके नेत्र निर्झर बन जाते हैं।

         कविता की इस अस्पष्टता का प्रधान हेतु है कवि के भावों की अनिर्वचनीयता। जिस प्रकार कोई समाधिस्थ योगी समाधि से जागने पर ब्रह्मानन्द के सुख का वर्णन वचनों से नहीं कर सकता, उसी प्रकार कवि भी अपने हृद्गत-भावों को स्पष्ट रूप से शब्दों में नहीं लिख सकता। ‘ कविता लिखने के पूर्व उसके हृदय में जो भावावेश प्रकट हुए थे वे शब्द-सीमा के भीतर से नहीं आये थे। वे केवल उसके अनुभूति-राज्य की सामग्री थे। अतएव उन्हें शब्द-बद्ध करने में वह अस्पष्टता को किसी प्रकार दूर नहीं कर सकता।

             यथार्थ में छायावाद भाव-राज्य की वस्तु है। उसमें केवल संकेत से ही काम लिया जाता है। भाषा उसमें भाव-प्रकाशन का एक गौण साधन मात्र है। यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इस तरह की अस्पष्टता लोगों को कैसे रुचिकर हो रही है? किन्तु उसके हल करने में ‘छायावाद’ के कवियों ने अपूर्व निपुणता प्रकट की है। इस निपुणता ने ही लोगों को ऐसा मन्त्र-मुग्ध कर रखा है कि वे छायावाद के अस्पष्टता-दोष की कोई परवाह न कर उसके परम-भक्त बन बैठे हैं।

           अब देखना है कि यह मोहन-मन्त्र वाली निपुणता है क्या? यह है काव्य में चित्रकारी और संगीत का अपूर्व एकीकरण। कवि तारल्य और माधुर्य का ऐसा स्रोत बहाता है कि पाठक उसमें तल्लीन हो जाता है। फिर उसे इस बात का ध्यान तक नहीं रहता कि मैंने क्या पढ़ा और क्या समझा। उसके काव्य में एक तरह की आकुलता, उत्कण्ठा, उद्वेग, शांति और आशंका का एक ऐसा स्वाभाविक समावेश होता है कि पाठक उनके भीतर अपने हृदय के समत्व को या कभी-कभी भावावेश में अपने अस्तित्व को ही खो बैठता है। उपर्युक्त मनोविकारों में एक अनिर्वचनीय व्याकुलता-पूर्ण सौन्दर्य का सम्मिश्रण रहता है। यह इस सौन्दर्य ही का जादू है जो पाठक को अपने जाल में बेतरह फँसा रखता है। एक बंगाली लेखक के शब्दों में “ Mystic कविता यथार्थ में ही संगीत और चित्र-शिल्प की मध्य-भूमि में स्थित रेखा और सुरों के आभास-पूर्ण एक मायापुरी की सृष्टि है ! “

       ऊपर जो कुछ लिखा गया है उससे पाठक समझ गये होंगे कि छायावाद में भाषा गौण होती है और उसके मर्म की उपलब्धि अनिश्चित। अतएव यह कहा जा सकता है कि छायावाद के कवि लाभालाभ पर कुछ ध्यान न देकर केवल भावावेश और आनन्द-स्पन्दन में ही निरत रहते हैं ; पर यह आनन्द-स्पन्दन उपर्युक्त बंगाली लेखक के कथानुसार, “ताल स्पन्दन-पूर्ण रोशन चौकी के अमूर्त अधृत आनन्द-स्पन्दन से भिन्न कोई वस्तु नहीं। उसे बुद्धि के मार्ग से समझने की चेष्टा करना व्यर्थ है। ऐसा करने से एक तरह की पीड़ा पहुँचेगी।” उसे स्नायु के स्पन्दन में से अनुभव करना चाहिए- “तब वह अमृत-सा बोध होगा।”

{ They come and ask me “ who is he? ” I know not how to answer them . I say ” Indeed I can not tell -Gitanjali}

       छायावाद के कवि भाषा के प्रयोग करने में बड़े कुशल होते हैं। भाषा को गौण समझकर वे उसके व्याकरण की भले ही उपेक्षा कर बैठें, पर उसका सौन्दर्य कभी नष्ट नहीं होने देंगे। वे प्रायः सरल और बोल-चाल की भाषा में ही अपने भाव व्यक्त करते हैं, किन्तु भाषा की यह सरलता अनेक स्थलों में अर्थ की जटिलता को छिपाने के लिए ही होती है। दूसरी बात यह है कि वे अपनी कविता के लिए विषय-वस्तु बड़ी दूर-दूर से ढूँढ़ कर लाते हैं। उनकी कविता देवी की आँखें सदैव ऊपर की ही ओर उठी रहती है। मर्त्य-लोक से उसका बहुत कम सम्बन्ध रहता है। वह बुद्धि और ज्ञान की सामर्थ्य-सीमा का अतिक्रमण करके मन-प्राण के अतीत-लोक में ही विचरण करती रहती है ; क्योंकि यहाँ उसे अपनी रुचि तथा इच्छा-पूर्ति का यथेष्ट अवसर मिला करता है।

      यहीं छायावादिता से आत्मिकता तथा धर्म-भावुकता का मेल होता है। यथार्थ में उसके जीवन के ये दो मुख्य अवलम्ब हैं। अतएव छायावाद के कवि इन दोनों क्षेत्रों की सीमा से बहुत कम बाहर निकल सकते हैं। वे प्रायः ‘अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणः’ तथा ‘वृहच्च तद्दिव्यमचिन्त्यरूपम्’ के गूढातिगूढ़ रहस्य में ही मग्न रहते हैं। इन्हीं दोनों व्यापक विषयों को लेकर ही ‘छायावादिता’ ने विश्व-साहित्य के दरबार में निर्बाध प्रवेश किया है।

    अभी कहा गया है कि छायावादिता में विषय-वस्तुएँ दूर-दूर से लानी पड़ती हैं ; पर यह बात सदैव स्मरण रखनी चाहिए कि उनकी भित्ति हमारे दैनिक-जीवन की वे क्षुद्र-क्षुद्र घटनाएँ अथवा वस्तुएँ ही होती हैं जिनसे कि हमारा चिर-परिचय रहता है। स्वभाव से ही प्रिय घटनाएँ कवि के हाथों में पड़कर अपरूप-सौन्दर्य धारण करती हैं और हमें एक तरल-मादक पिला कर उन्मत्त-सा बना देती हैं।

     सूर्य, चन्द्र आदि नक्षत्र-समूह, वसन्तानिल, शरदाकाश, ज्योत्स्ना-रात्रि, संध्या और प्रभात की अरुणिमा, सरिता का कलरव, मेघों का गर्जन तथा पुष्पित कानन आदि प्राकृतिक दृश्य और घटनाएँ ‘छायावाद’ की प्रिय सामग्री हैं। वे सांकेतिक रूप से अदृश्य तथा अव्यक्त के प्रकाशन में साहाय्य पहुँचाती हैं।

            छायावादियों की राय में कविता कैसी होनी चाहिए सो सुन लीजिए –

“ Poetry is to be something vague, intangible, evanescent, A winged Soul in flight toward other skiesAnd other lives “.

       इन लोगों की राय में कविता में कुछ-न-कुछ अस्पष्टता जरूर रहनी चाहिए। वे कविता का नामकरण भी नहीं चाहते। “कविता में हमेशा दृष्टिकूटक बातें रहनी चाहिए। किसी वस्तु का नाम दे देने से कविता का तीन-चौथाई मजा निकल जाता है। वह तो उसी समय मालूम होता है जब उसका रहस्य धीरे-धीरे मालूम होता है और अन्त में मालूम होता है कि कवि का सुख-स्वप्न यह था।” अतएव ‘छायावादिता’ को ‘नाम-गोत्र से हीन’ ही समझिए। हाँ, उसकी अस्पष्टता का एक प्रमाण लीजिए। कवीन्द्र रवीन्द्र का प्यारा शिशु अपनी माँ से पूछता है-

       “तुम कहती हो कि पिता अनेकों पुस्तकें लिखते हैं ; पर वे लिखते क्या हैं, सो तो मैं बिलकुल नहीं समझता। वे तुम्हें संध्या समय बहुत कुछ सुनाते रहे ; पर यह तो कहो, क्या तुम सचमुच सब कुछ समझ गयी?”

         इन अवतरणों से पाठकों को ‘छायावाद’ की प्रकृति का बहुत कुछ ज्ञान हुआ होगा। आप कहेंगे-वाह, क्या विचित्र इन्द्रजाल है। हम कहते हैं कि जितना अधिक उसके भीतर प्रवेश कीजिए वह उतना ही अधिक मायामय जान पड़ेगा। एक अंग्रेजी लेखक ने उसे जो एक ‘मनोरंजक व्याधि’ (Interesting disease) कहा है सो बहुत ही ठीक है। व्याधि भी यदि कहीं मनोरंजक हो पायी है, तो यहीं।

          छायावाद के पाठक को बीच-बीच में चौंक उठना पड़ता है। उसे लिखते समय स्वयं कवि की भी वही दशा रहती है। आप कहेंगे इस पचड़े में पड़कर चित्त की स्वस्थता खोने से क्या लाभ? पर इस पचड़े का स्वाद एक बार चखिए, फिर शायद आप उसे कठिनता से भूलेंगे। उपयुक्त प्रश्न का उत्तर चाहे जो हो, हम यहाँ सिर्फ इतना ही बताते हैं कि ‘छायावाद’ के प्रतिनिधि कवि अपनी कविता की उपयोगिता के विषय में क्या राय रखते हैं। कवीन्द्र रवीन्द्र ने अपने ‘Cresent Moon’ नामक पुस्तक में ‘ मेरा गीत ‘ में लिखा है- “वत्स, यह मेरा गीत प्रेम-पूर्ण भुजाओं की तरह अपने सुर और लय के जाल से तुम्हें बेष्ठित करेगा।”
      “यह मेरा गीत स्नेह-स्निग्ध चुम्बन के समान तुम्हारे कपोलों का स्पर्श करेगा।”
      “जब तुम अकेले रहोगे, तब वह तुम्हारे पास बैठकर दुख-सुख की बातें करेगा और जब भीड़-भड़क्के में रहोगे, तब वह तुम्हें उसके संघर्ष से बचा रखने में चहारदीवारी का काम देगा।”
      “यह मेरा गीत तुम्हारे स्वप्नों को पंखपदान करेगा और तुम्हारे हृदय को अज्ञान के किनारे लेकर उतार देगा।”
      “जब तुम्हारे मार्ग पर रात्रि का घोर अन्धकार छा जायेगा तब यह तुम्हें रास्ता बतलाने में विश्वस्थ तारे का काम देगा।”
      “यह मेरा गीत तुम्हारी आँखों की पुतलियों पर जा बैठेगा और तुम्हें ऐसी दिव्य-दृष्टि प्रदान करेगा कि तुम पदार्थों के अन्तःप्रदेश में प्रवेश कर सकोगे।”
      “और जब मेरी वाणी मृत्यु-लीन होकर मौन हो जायेगी, तब यह मेरा गीत ही तुम्हारे जागृत हृदय से वार्तालाप करेगा।”

         उन्होंने अपने गीतों के विषय में जो कुछ कहा है, वहीं यहाँ सम्पूर्ण ‘छायावाद’ के लिए कहा जा सकता है
          क्रमशः

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बसंत राघव साव

प्रस्तुतकर्ता : बसंत राघव साव, प्रकाशक, श्री शारदा साहित्य सदन, रायगढ़, छत्तीसगढ़ 496001 सम्पर्क: +918319939396, basantsao52@gmail.com
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