नाटक

आतंकी हिंसा की खोल में ‘चुप’ के राज़ और भी हैं…!

 

अंधेरी उपनगर, मुम्बई के ‘सात बंगला’ इलाक़े में स्थित ‘आराम नगर’ मुहल्ले में रंगमंच के नये-नये केंद्र बन रहे हैं ‘बेदा फ़ैक्टरी’ व ‘क्रीएटिव अड्डा’…आदि, जो थिएटर के लिए खूब  मुफ़ीद व इसके भविष्य के लिए बड़े शुभ हैं। यहीं ‘परख’ नाट्यसमूह और निर्देशक तरुण कुमार की युति का पहला नाटक ‘चुप’ देखने का अवसर मिला।

हिंदी में अज्ञेयजी की जानिब से ‘चुप की दहाड़’ बहुत मशहूर है। और नाटक की यह ‘चुप’ भी साधारण नहीं है, बल्कि पहली नज़र में कला के समाजचेता पक्ष का उद्घोष है। फिर ‘चुप’ नाम का यह नाटक बोलता भी बहुत है। और जितना बोलता है, उतना खोलता नहीं। परंतु जितना खोलता है, वह गूंज बनकर दर्शकों के मन-मस्तिष्क को ठोंकता रहता है…और उसी ठोंकने की गूंज की अनगूँज हैं आपके सामने प्रस्तुत ये शब्द…।  

‘चुप’ नाटक के सभी पात्र बोलने से ज्यादा बोल-बोल कर असली बात को ढँकते है – उसे टालते हैं। बार-बार हर बात को कहते-कहते रुक जाते हैं – खुद को रोक लेते हैं। यह पारिवारिक स्तर पर चुहल भी है, तंज भी है और नाट्यमय भी है। यह बोलने का अबोल होना, बोलने में ‘चुप’ का निहित होना ‘चुप’ में बोलने का प्रकट होना…नाटक की विषय-वस्तु के कारण है, जो ज़ाहिर तौर पर तो आज के माहौल में व्याप्त आतंकवाद एवं हिंसा…आदि से अवाम में पैदा हुए अवसाद-दहशत-व्यर्थता बोध से भरा-भरा है। इसीलिए यह ‘चुप’ प्रतीकात्मक रूप से एक परिवार की त्रासदी को मंच पर लाकर सभी से बोलवाने का आवाहन है…। हिंसा-आतंक का डर ही बोलने को चुप कर देता है…फिर जो परिवार उसका बेरहम शिकार है, नाटक की गवाही में जिस घर का साद नामक नव विवाहित छोटा बेटा उठा लिया गया है, उस घर पर बने नाटक के लिए डर के मारे ‘चुप’ हो जाने का ऐसा रहस्यमय नाम ही वाजिब है!!

मैंने तो लिखने की सुविधा के लिए यह राज़ खोल दिया, पर नाटक में हिंसा की थीम धीर-धीरे खुलती है…यह खुलना ‘छिपाते-छिपाते बयां हो गयी है’ की कला का सिला है। इस कला को नाटक में साधा है फ़वाद खान ने, जो अब तक हमसे अनजान रह गये, पर यूँ बहुत सरनाम हो चुके लेखक हैं। लेकिन हिम्मत से कहना बनता है कि यह लेखन का कौशल भले हो, प्रस्तुति के लिए उतना मुफ़ीद नहीं – खासकर पहला दृश्य तो ‘सर मुँड़ाते ही ओले पड़े’ की तरह आता है, जो किसी भी शुरुआत की प्रचलित धारणा ‘फ़र्स्ट इम्प्रेशन इज लास्ट इम्प्रेशन’ के विपरीत है। इसमें अपहृत के बड़े भाई सलमान की भूमिका में आगे चल के (अज्ञेयजी के) दहाड़ने वाला शख़्स भी ऐसा दबा है – गोया वह भी उठा लिये जाने वाला है। इस दृश्य में जान डालने का काम निर्देशक तरुण कुमार भी करा सकते थे। यूँ उनकी बातों में लेखक के बखान से लगा कि वे फ़वाद खान के मुरीद हैं, तो उस तरह सोचा ही न होगा…। लेकिन हमें तो पहले दृश्य की अन्यमनस्कता से उबरने में वक्त लगा…। तो आइए, उस दृष्टि से सोचें… 

वस्तुत: पहले दृश्य से लेकर अंत तक की द्वंद्वात्मक स्थितियों का बड़ा कारण दूसरा भी है। नाटक सिर्फ़ हिंसा पर नहीं रह जाता, बल्कि इसी के गौण उत्पादन के रूप में अपहृत छोटे बेटे की पत्नी रबिया से बड़े बेटे सलमान का प्रेम सम्बंध भी जोड़ दिया जाता है। इस सम्बंध के प्रति सलमान की वफ़ादारी व आसक्ति चाहती है कि छोटा भाई साद न आये। घर के लायक़ कर्त्ता के रूप में वह साद की वापसी के लिए धरने-प्रदर्शन-मोर्चे…आदि में जाने के मां के प्रयत्नों को भिन्न-भिन्न कारणो-बहानों से रोकना चाहता है। इस तरह यह प्रकरण अंदर ही अंदर हिंसा-समस्या से निपटने में अड़ंगा बनता जाता है। इससे दोनो समस्याओं को बेवजह भारी क्षति पहुँचायी गयी है। यह सब करता सलमान ही है। इसके लिए वह अपनी बेटी की सुरक्षा को भी खूब-खूब स्थापित करके किसी तरह भी आतंकियों या प्रतिरोधी व्यवस्था की नज़र में न आने का सरंजाम रचता है। पहले दृश्य में रबिया-सलमान के बीच बहकी-बहकी आधी-अधूरी रहस्यमय बातें यही हैं कि मां से इस प्रेम की बात रबिया स्वयं कहे…। वैसे दिन-रात साथ रहते हुए भी मां को इस सम्बंध की भनक न लगना भी अजीब ही है, क्योंकि औरत दूसरी औरत के ऐसे मामलों को यूँ भाँप लेती है – गोया ‘समुझहिं खग खग ही कै भाषा। और उधर रबिया है कि साद के आने की मुंतज़िर न सही, आने पर क्या जवाब देगी, के द्वंद्व में अवश्य है। यही अड़चन है, वरना दुनियावी दृष्टि से भी सब सही है। सलमान की पत्नी भी मर चुकी है – गोकि उस समुदाय में पत्नी के होते भी बहुत अड़चन न होती। तो हर दृष्टि से यह बिलकुल निरापद है।

इस बीच साद की वापसी का यही डर न होता, तो सलमान-रबिया का यह प्रेम होना कुदरती भी है और साथ रहने से ज्यादा सहज व वांछित भी। आगे चलकर उसके गर्भवती होने का पता भी चलता है, जिसके लिए अब दोनो का फ़ैसला हो जाना जितना ज़रूरी हो जाता है, सलमान के प्रयत्न उतने ही बढ़ जाते हैं…। तो आख़िर निर्णायक बात की ठहर ही जाती है परिवार में…।  और अंत में जब सलमान ही कहता है – ‘उसे ‘खुला’ (रिश्ता तोड़ने की इजाज़त) चाहिए’, तो बिना बहुत देर किये मां ‘खुला’ दिला भी देती है।

इस प्रकरण ने एक और भावुक प्रसंग रचा है कि ‘खुला’ के काग़ज़ात देते हुए मां कहती है कि अब तुम लोग कहीं भी (दुबई-मस्कट) जा सकते हो – मैं यहीं रहूँगी। ऐसा कहते हुए बेटे से पैसे भेजने की बात भी कहना मातृत्व का बेपर्द होना है, पर स्थिति की वीभत्सता ही ऐसी है। नाटक यह भी नहीं बताता कि बाप क्या करता था, कितना कमाया था…बस, इतना ही बाताता है कि भाई के धोखे ने उसे क़र्ज़दार बना दिया और उसे चुकता करके बड़ा बेटा कुछ और लायक़ बन गया। परवरिश भी की, तो उस ‘खुला’ में उसका दाय भी शामिल है। सो, भावपरक रिश्ता जैसा खाँटी व निराबानी कुछ नहीं बचता – सिवाय छोटे बेटे साद के प्रति मां की एकनिष्ठ ममता के, जिसे लेकर खूब सारे भावुक संवाद बने हैं। और इधर सलमान की रबिया के प्रति वफ़ादारी के, जो वैसी संवादमय भी न हो सकी…और ‘खुला’ मिल जाने पर सलमान की नाहक हीला-हवाली में उतनी खाँटी भी न रही, जो लेखकीय भ्रांति (कनफ़्यूजन) का सिला है।   

  

इस तरह यह पूरा प्रकरण आतंक की मूल समस्या को नाहक ही भटका देता है। हल्का कर देता है, बल्कि दोयम दर्जे पर ला पटकता है। पूरे नाटक के दौरान परिवार में आतंक को रोशन (हाइलाइट) किया गया है और इधर परिवार के बाहर इस द्वंद्व व संघर्ष की कोई गति ही नहीं पहुँचती – मात्र मिस्ड कॉल का एक कच्चा धागा है, जो मां व सलमान के फ़ोन पर ही आता है, जिस पर कॉल न कर पाने की तकनीक का महीन सहारा लिया गया है। इसे अपहृत बेटे के संदर्भ से धमकी या चेतावनी समझ कर निबेरने में बहुत समय खाता-खिलाता और उबाता है नाटक। शुक्र है कि वह फ़ोन भी सलमान ही कराता है, का मामला नहीं बनता – गोकि अंत तक आते-आते मेरे शक्की समीक्षक, जो कृति या प्रस्तुति में कहे से ज्यादा किये और किये के तरीक़ों पर विश्वास करता है, को ऐसा विचार आया भी था। बहरहाल…मूल नाटक पढ़ के ही कहा जा सकता है कि यह फिसलन कृति की है या प्रस्तुति की…। लेकिन यह तय है कि इस रूप में ‘चुप’ एक आतंकी खोल में कई अंदरूनी मानवीय दुर्बलताओं के राज़ छुपाए हुए है। यह एक पारिवारिक (परिवार में कीलित) ड्रामा ही पहले है, जिसे ‘मेलो ड्रामा’ भी कह सकते हैं। अंतरराष्ट्रीय समस्या को परिवार के प्रतीक से दिखाना बेमिसाल भी हो सकता था, पर लेखक को उस पैंड़े जाना ही न था।

और मंच-कला की कुदरत ऐसी है कि मंचन के दौरान बड़ा बेटा बना मनीष टंडन पहले दृश्य में ऐसा चुप-चुप बोलता है कि आगे का नाटक कैसे चलेगा, की फ़िक्र होने लगती है, लेकिन वही बाद में इतना बोलता है – चिल्लाता भी है और नाटक का प्रवक्ता पात्र भी सिद्ध होता है। उसे भूमिका का प्रमुख होने व क़द-काठी में हर पोशाक के फबने के साथ अभिनय को अच्छा निभा लेने के लिए नाटक के दृश्य रूप का नायक भी कह सकते हैं, क्योंकि असली नायक तो पूरी प्रस्तुति में आँखों के लिए अदृश्य, पर पूरे नाटक में मुख-कर्ण (बोलने-सुनने) से दृश्य होकर सबके सर पर सवार वह छोटा बेटा साद है, जिसको उठा लिया गया है। बड़ा बेटा सलमान बने मनीष टंडन का पहले दृश्य में खुलकर न बोलने का प्रयोग रहस्यमयता के लिए ठीक है, पर रू-ब-रू माध्यम के लिए यह जटिलता दिग्भ्रमित करती है।

इस दृश्य में अवतरित दूसरी पात्र रबिया तो अंतिम दृश्य को छोड़कर पूरे नाटक पुकारे जाने पर हल्की हाँ के साथ प्रकट होने व पूछे गये प्रश्नों के अति संक्षिप्त उत्तर देने में ही अस्तित्वमान होती है। उसका इतना कम बोलना मूकता की हद को छूने जैसा है, जो पहले तो कोफ़्त पैदा करता है, लेकिन मामला खुल जाने पर वही जीवन व नाटक दोनो के लिए सटीक सिद्ध होता है। आगे चलकर ‘खुला’ मिल जाने पर जब सलमान अनिश्चित-सी बातें करने लगता है, तो खुलकर बोलती भी है। तब वह हिंसा-आतंकवाद की पूरी थीम की बलि (विक्टिम) के रूप में पूरे नाटक की प्रतीक पात्र बन जाती है और फिर तो उसका दब्बूपन भी नाट्य का निखार बन जाता है। पर मुझे अपनी कठ-कल्पना के दोष पर खेद है कि इस निखार में अभिनेत्री सुदीप्ता का चेहरा निखर कर नहीं उभरता – शायद यह उनके एकाकार हो जाने का सिला भी हो।   

परिवार में मां बनी चित्रा मोहन प्रकट होने पर अपने बाह्य व्यक्तित्त्व में पहले अनभाती-सी रहीं…पर वही हैं, जो नाटक में साफ़-साफ़ बोलती भी हैं, बहुत कुछ खोलती भी हैं और इसी से उनका चरित्र एक पानी पर है। उनमें द्वैध नहीं है, फाँक नहीं है। नाटक की वे अकेली सोगहग (कंप्लीट) पात्र हैं। साथ में रहते, सब कुछ करते बड़े बेटे से अधिक जो साथ नहीं है, उस छोटे बेटे को चाहने में निराली मां साकार होती है।

मंच पर एकाधिक वेश-भूषा में प्रकट-अंतर्ध्यान होती सलमान की बेटी ज़ारा यदि आती-जाती होकर रह जाती है, तो लेखक ना सही, निर्देशक को उसे कुछेक मिनट ठहराने टुकड़ों में ही सही, दो-चार वाक्य बोलवाने का फ़र्ज़ तो बनता था – अगले शोज़ में ही सही…।

अब अंतिम पड़ाव पर आयें…तो तरुण कुमार (हालाँकि अब वे तरुण भले हों, कुमार नहीं हैं) प्रस्तुति में पात्रत्व के श्रिंगार हैं। उनके बात करने के तरीक़े में वही पुरानी ठसक व बिलसती कला है, जो वाणी का सम्मोहन होता था। इसे लेकर कुछ देर तो चुहल-सी होती है, लेकिन इस उपयोगितावादी शोर्टकट जमाने में उन्हें कालबाह्य (आउटडेट) होना ही था, तो फिर कई कोशिशों में फेल होने के बाद मां मोर्चा सम्हाल लेती है और वे परिवार में दर्शक बने रह जाते हैं। पर उनका उस पारंपरिक लरजती-लहकती वेश-भूषा, बुद्धिजीवी-दार्शनिक वाली दाढ़ी-चश्मा पर मस्त चाल-ढाल, उठना-बैठना, चुप देखना तक में मंच पर होना -और न होने पर भी नेपथ्य में होने का अहसास- वो कर देता है, जिसे गिरिजाकुमार माथुर के शब्दों को बदलकर कहूँ तो –एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है, बेज़ुबान ‘मंचों-पर्दों’ को घर कर देता है’

क्योंकि उक्त समूचे संभार के रचयिता वही तो हैं। और इस मंच-रचना में जो हुआ हो, उससे आप सहमत-असहमत हो सकते हैं, उस पर बहस-मुबाहसा कर सकते हैं। लेकिन उस सब पर उनकी पकड़, उसके नियमन-संचालन पर शक नहीं कर सकते। निर्देशक तरुण का वृद्ध पिता रूप ही नाटक के युवा होने की थाती बना है…।  

अब आख़िरी मुक़ाम पर थोड़ी बात नाटक के आचार-पक्ष की…। नाटक में नाट्य समूह के सिवा अलग से निर्माता तो होता रहा है, जो यहाँ ‘चुप’ है, लेकिन 45 सालों हो गये नाटक देखते, उस पर लिखते…लेकिन कोई आयोजक भी होता है, जो प्रचार-पुस्तिका में लेखक-निर्देशक के समकक्ष होता है, का पता न था। यहाँ हैं सम्मान्य ऋचा नागर जी – प्रदर्शन पूरा होते ही पात्र-परिचय के बाद एक-एक कर दर्शकों से प्रतिक्रिया लेने का इतना सघन आयोजन भी पहले कभी देखने की याद नहीं आ रही…, जिसका लगभग संचालन भी ऋचाजी ने किया। ऐसी संजीदा प्रस्तुति पर इतनी त्वरित या तुरंत प्रतिक्रिया लेने को साहित्य की शब्दावली में ‘अधकचरे (अनपके-अधपके) अध्ययन का अकस्मात् वमन’ कहा गया है और पहली वक्ता के रूप में मोहतरमा बोलनी शुरू हुईं, तो बोलती ही चली गयीं…। फिर तो प्रवाह ही उमड़ पड़ा…। किसी बड़े चिंतक ने कहा है – ‘एव्री गुड पोइट्री मेक्स मी सैड’, जिसे इस संदर्भ में कहें तो – ‘सैड ड्रामा-शो मेक्स पीपुल वोकल’। बोलने वाले ज्यादा लोग नाटक वालों के जाने हुए या उनसे जुड़े हुए होने के कारण स्वभावत: अच्छा ही बोलते हैं। यहाँ ऐसा हुआ कि सबके मन में नाटक कम, हिंसा या आतंकवाद ज्यादा पैठा था – उसी तुरंता के कारण। सलमान-रबिया के आंतरिक पक्ष पर एक शब्द न कहा गया, जो दर्शाता है कि बिना सोचे बोलना कितना एकांगी, पिश्टपेषित व दयनीय होता है। वे उसी पर बोलते हुए नाटक व ख़ास तौर पर उसके पात्रों के नाम पर से उनके रिश्तों याने मां-पिता…आदि पर कैसा असर दिखा…, बोलते रहे…।

हाँ, पहले दृश्य का दबा-दबा होना व मंच के पास एक प्रकाश-पुंज के व्यवधान जैसी बातें भी आयीं। ‘परख’ समूह के लिए चर्चा सफल रही, पर यही शो के दूसरे दिन आयोजित होती, (नाट्योत्सवों में निर्देशक के साथ बातचीत के रूप में ऐसा होते महाराष्ट्र में मैंने देखा है) तो बेहतर होता…!! लेकिन तब बोला भले चाहे जैसा गया होता, कितने लोग आते, की प्रतिबद्धता की शवपरीक्षा भी हो जाती…!! क्योंकि ‘गतानुगतिको लोक:, न लोको परमार्थिक:’।

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सत्यदेव त्रिपाठी

लेखक प्रसिद्ध कला समीक्षक एवं काशी विद्यापीठ के पूर्व प्रोफ़ेसर हैं। सम्पर्क +919422077006, satyadevtripathi@gmail.com
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