नाटक
सर्जनात्मक बेचैनी की विडम्बना
(‘पोशाक’ नाटक – त्रिपुरारी शर्मा)
हिन्दी नाटक और रंगमंच में बहुत कम ऐसे व्यक्तित्व हैं, जो नाट्य–लेखन और निर्देशन दोनों स्तरों पर रंगकर्म कर रहे हैं । नाट्य लेखिका और निर्देशिका त्रिपुरारी शर्मा एक ऐसी ही शख्सियत हैं जिन्होंने अपने नाटकों के माध्यम से समकालीन समय और समाज की चिन्ताओं को शिद्दत से उठाया है । ‘पोशाक’ त्रिपुरारी शर्मा का चर्चित नाटक है जिसमे समकालीन व्यवस्था के भीतर दम तोड़ती युवा पीढ़ी की सर्जनात्मक बेचैनी और विडम्बना को मूर्त करने की कोशिश की गयी है ।
‘पोशाक’ नाटक में कोई कहानी नहीं है, केवल कुछ घटनाएँ हैं जिनके द्वारा अस्तित्व खोते व्यक्तित्व को दर्शाया गया है । इस नाटक के केंद्र में अपनी आकांक्षाओं, सपनों और दुनियादारी के यथार्थ में झूलता और संघर्ष करता कान्ति है । कान्ति की जिदगी में एक ओर उसकी महत्त्वाकांक्षी माँ है जो राशन–पानी के संकट से गुजर रही है, साथ में भाई–भाभी हैं जो दुनिया की नजरों में ‘सेटल’ हो चुके हैं । दुनियादारी की परिभाषा में कान्ति कुछ नहीं करता और मुफ्त की रोटियाँ उस घर में तोड़ रहा है । कान्ति को इस मुफ्तखोरी का अहसास हर रोज माँ द्वारा करवाया जाता है । बीच–बीच में भाई–भाभी भी अपनी तरह से ताने मार जाते हैं, जो कान्ति के जमीर को कचोटते हैं । दुनियादारी के मुताबिक कान्ति जैसे युवा के जीवन का उद्देश्य पैसा कमाना होना चाहिए, जिससे वह एक अच्छा घर और सुख–सुवि/ााएं अर्जित कर सके । लेकिन इन सबसे अलग कान्ति के खुद के सपने और आकांक्षाएं हैं जिनमें उसका संगीत और अस्मिता (जो उसकी हम उम्र दोस्त है और जिसके साथ कान्ति की विवाह करने की इच्छा है)µदोनों के प्रति गहरा लगाव है और जिनके दम पर कान्ति अपनी भीतरी सर्जनात्मक पहचान बनाने के लिए लालायित है । दोनों ही बातें अलग–अलग छोरों पर हैं या यूँ कहें कि विपरीत हैं । कान्ति इन दोनों ही छोरों के प्रति संवेदना रखता है । एक छोर उसका स्वयं का है तो दूसरा उसका अपनी माँ (समाज) का । इनके बीच सन्तुलन का उसे कोई रास्ता नज“र नहीं आ रहा है, वह पाता है कि ये दोनों छोर आपस में बहुत–बहुत दूर हैं । इसी द्वन्द्व के चलते कान्ति अपने एक दोस्त नितिन, जो एक अमीर बिजनेसमैन का बेटा है, के साथ अपना खुद का आकेस्ट्रा खड़ा करने का सपना देखता है लेकिन यह सपना पंख और आसमान न मिल पाने के कारण उड़ान नहीं भर पाता । इसी बीच एक राजनैतिक पार्टी का कार्यकर्ता रौशन लाल कान्ति में अपने संगठन के लिए एक ऊर्जावान कामरेड बनने की सम्भावनाएँ देखता है और कान्ति को राजनीतिक प्लेटफॉर्म मिल जाता है, वह पार्टी के कार्यक्रमों और भाषणबाजी में पड़ जाता है, जिसका उसे अच्छा–खासा नकद भुगतान भी रौशनलाल द्वारा किया जाता है । कान्ति के इस नये काम से उसकी माँ बहुत खुश और तुष्ट महसूस करती है लेकिन इस प्रपंच में पड़कर कान्ति धीरे–धीरे संगीत और अपनी अजीज दोस्त अस्मिता से दूर होता चला जाता है ।
समय बीतने के साथ–साथ कान्ति का संगठन और रौशनलाल से विश्वास भंग होता है, वह रौशनलाल से अलग होने की सोचता है । वह अस्मिता और संगीत के पास जाने की कोशिश करता है पर विफल हो जाता है । क्योंकि देर हो चुकी होती है और अस्मिता अब नितिन के अधिक निकट है । पूर्ण निराशा की स्थिति में वह अपनी विवेकशीलता भी खो बैठता है और एक दिन नितिन की ह्त्या कर बैठता है । रौशनलाल की मदद से पुलिस से बच निकलता है । अस्मिता कान्ति के इस व्यवहार से बहुत निराश होती है और उसे अपना गुनाह कबूल करवाने की भरसक कोशिश करती है । लेकिन अन्त में हम पाते हैं कि कान्ति अपने ‘स्व’ को खो देता है और दीन–दुनिया से कटकर अपने अकेलेपन में खुश है ।
नाटक अपनी शुरुआत में कुछ–कुछ एब्सर्ड शैली का लगता है । कान्ति दर्शकों की ओर नंगी पीठ किये बैठा है, माँ उसकी कोई कपड़ा न पहनने की जिद से खीज रही है, लेकिन कान्ति को कोई भी कपड़ा अपना नहीं लगता (या वह मानना नहीं चाहता!) इसी दृश्य में कोरस का प्रवेश हो जाता है–
हजार रंग के कपड़े, नीले, फिरोजी, काले, सफेद/कुछ सिले, कुछ उधड़े, चुस्त और ढीले ।/मेरे हाथों के बुने, दुनिया से मिले ।/लगी है पुराने धागों की जेबें/सालों से जुड़ते गये हैं पैबन्द/रंग उनके हो गये /घुलमिल/आहा आहा आहा/कुछ तेरे माप के बने/कुछ मेरी उम्मीदें लिए ढेरों ढेर ये बनते गये/ताक पे ताक भरते गये/सूती, ऊनी, रेशम के ये टुकड़े ।’’
कोरस एक ऐसी रंग–युक्ति है जिसका इस्तेमाल समाज के प्रतीक के रूप में ही अ/िाक होता है । ‘पोशाक’ नाटक में भी त्रिपुरारी शर्मा की यही मंशा रही है–‘‘समाज के लोग जो अलग–अलग समय पर भिन्न–भिन्न रूप में सामने आते हैं– मित्र, पड़ोसी, बाजार के दुकानदार, नीति और नैतिकता के रखवाले जिनसे पक्ष और विपक्ष दोनों में सामना होता है । राशनवाला, भाई, भाभी आदि अन्य पात्र इसी समूह का ही भाग है जिनकी भूमिका विशिष्ट न होते हुए भी अपनी मौजूदगी से ही एक दबाव बना रखती है ।’’ (पात्र परिचय से) वस्तुत: व्यक्ति समाज से चाहे जितना बचना चाहे, सामाजिक तौर–तरीके और व्यवहार प्रत्यक्ष–अप्रत्यक्ष रूप में उसके भीतर समा ही जाते हैं । कान्ति भी अपनी माँ, भाई–भाभी की पैसा कमाने की चाह से कहाँ बच पाता है!
महत्त्वाकांक्षा और राजनीति के निर्मम जाल में संगीत के प्रतीक मानव–मन की कोमलता, रचनात्मकता और संवेदनशीलता का मर जाना ही इस नाटक की थीम को बुनता है । इन्सानी शरीर और चरित्र की दुर्बलताएँ एक युवा पुरुष के संगीत के प्रति ‘पैशन’ को नष्ट कर देती हैं । इन कमजोरियों का जिम्मेदार वस्तुत: वह समाज की अधिक है जो व्यक्ति को उसकी सर्जनात्मक प्रतिभा के अनुकूल पनपने का वातावरण उपलब्ध नहीं करवा पाता ।
‘पोशाक’ में ‘फ्लैश बैक’ शैली का प्रयोग किया गया है, जिसके द्वारा कान्ति के अतीत में घुसने का अवसर दर्शक को मिलता है, जिससे दर्शक को नाटक की शुरुआत की उलझी हुई तस्वीर समझ में आने लगती है । कान्ति के मन की समूची कोमलता और संवेदनशीलता, स्वयं उसी के द्वारा रचे गये गीत में साकार हो उठी है ।
चुप सोती है रात/होंठों को सिलती बात/खुलता है दिन/लम्हों को गिन/झट जाता है बीत/पल–पल होता अतीत,/श श–––/जुबान रहती है मौन/किससे बोले कौन/श श श श –––//धीरे धड़क ए दिल/जमाना जाये न हिल/ठण्डी रहती है सदा/भले ले ले हवा/श श–––/दिख जाये जो कहीं/सिल दो उसे वहीं/टाँकों की तुरपन/में /फंसता बदन–––/बादलों ने चुरा ली यह गर्जन/आसमाँ रह जाते चुप चुप चुप/ठण्डी रहती है अदा, भले आये ये हवा/आँखें खेलेंµलुक छुप लुक छुप लुक छुप/चुप रहती है दीवार, हमसे न झुक /बहती है /हमसे न रुक/खींचती लकीरों हमसे न झुक ।
कान्ति द्वारा रचे इस गीत में जिस कान्ति–व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं, वह ऊर्जा और सम्भावना से भरा है, अपने इस व्यक्तित्व को गढ़ने के लिए, संगीत से जुड़े सपने को साकार करने के लिए कान्ति को अपनी माँ रूपी सामाजिक–दुनियादारी से मुक्त होना था । लेकिन कान्ति की त्रासदी यही रही कि संगीत के ऊपर दुनियादारी हावी हो गयी– रौशनलाल की संगत में कान्ति ने खुद को इसी सामाजिक मजबूरी के चलते बदलने के लिए छोड़ दिया और जब उसे इस बदलाव के प्रति होश आया, तो वह चिढ़, घृणा और ग्लानि से भरकर असन्तुलित मानसिकता वाला कान्ति हो गया । कान्ति राजनीति और पूँजीवाद के आश्वासनों पर अपना खुद का विश्वास खो बैठा, उसकी संगीत भावना ने दम तोड़ दिया, उसके गीत, उसकी रचना–शक्ति विलुप्त हो गयी । अन्त में कान्ति में केवल एक नपुंसक गुस्से से भरा अकेलापन बचा, जो बेहद कटु और तीखा था और सर्जनात्मक बिल्कुल भी नहीं था । अस्मिता के आत्मविश्वास, निर्माण और सपनों की रीढ़ क्रान्ति ने उस वक्त बिल्कुल तोड़ दी जब वह उसे झकझोरते हुए अपराध–स्वीकृति के लिए प्रेरित कर रही थी । राजनीति के भयानक खोखलेपन और पूँजीवाद की विकृति से आयी पाशविकता ने क्रान्ति के अन्दर एक भयानक विस्फोट कर दिया जिसके कारण उसके दिमाग पर एक अजीब पागलपन चढ़ गया और उसने नितिन की ह्त्या कर दी । कान्ति का विवेक पहले असहाय हुआ, जिससे उसका मानस कुण्ठित हो गया ।
इस नाटक के विषय में त्रिपुरारी शर्मा का कहना है कि जब वह ये नाटक लिख रही थीं तो उनके सामने सत्तर के दशक की वह पीढ़ी थी जो उस समय की सामाजिक व्यवस्था पर प्रश्न उठा रही थी लेकिन उसे और बेहतर बनाने के लिए कुछ भी नहीं कर रही थी । ‘पोशाक’ नाटक में उन्होंने कान्ति का जो परिचय दिया है, उससे यह परिकल्पना स्पष्ट हो जाती है–‘‘तेईस–चैबीस साल का युवक, अपने आस–पास के माहौल से त्रस्तµकहीं–न–कहीं उसी का अंग । जोश और कुण्ठा दोनों साथ लिए ।’’ वस्तुत: कान्ति ‘पोशाक’ उस समूची युवा पीढी का प्रतिनिधित्व करता है जो भीतर से तिलमिलायी हुई अपने दम पर कुछ करके व्यवस्था को बदलने का जज्बा रखती है लेकिन परिस्थितियों की मार से कुछ भी न कर पाने की विवशता को साथ लिए वह उसी व्यवस्था का अंग बन जाती है ।
‘‘फिरोज, हाँ । हमारी सारी फ्रस्टेशन से इसे भिगो डाला है ।
कान्ति, क्या बताऊँ यार! कोई हमें सुनता ही नहीं ।
फिरोजरू बाईस–तेईस के हो रहे हैं दृ और अब जेब खर्च के लिए भी गिड़गिड़ाओ ।
त्रिपुरारी शर्मा के विचार में, ‘पोशाक’ उन विभिन्न परतों की तरफ संकेत करता है जो स्वेच्छा से या अनिच्छापूर्वक सामाजिक भूमिकाओं, कार्यों, सम्बन्धों और सोच के साथ चली आती हैं । यह एक ढाँचा है, एक तरह की पेटी है । एक छुपी हुई पहचान अक्सर एक ‘बिम्ब’ होती है, जरूरी नहीं कि हमेशा वह ‘स्व’ (सेल्फ) के हूबहू ही हो । यह उहापोह एक आन्तरिक विद्रोह पैदा करता है और हमें वास्तविक दुनिया के विभिन्न पक्षों और अनुभवों की यात्रा कराता है । जैसा कि यह नाटक कान्ति के बारे में है, जो एक व्यक्ति तो है ही, हम सबके भीतर का एक सृजनात्मक बेचैन ‘स्व’ भी है जो सम्भवत: साधारण और अन्तरंग दोनों को सहने में हमेशा समर्थ नहीं होता । और इसलिए पुनर्जीवन की लालसा रखता है ।’’ (‘पोशाक नाटक का ब्रोशर, 23, 24, 25 फरवरी 2006)
मेरे विचार में ‘पोशाक’ नाटक में कान्ति हम सबके अन्तर्मन की उन भीतरी परतों का प्रतीक है जो समाज के सामने अलग और अपने सामने अलग रूप धारण किये रहती हैं–
‘‘दर्जी : वह जबान का पक्का नहीं है । कभी कुछ माँगता है कभी कुछ और । बुशर्ट में हाई नेक चाहिए, कुरते पर टाई वाला कॉलर । पायजामे के पोंछे में वी कट, टी शर्ट पर अम्ब्रेला डिजाइन के बाजू ? उस पर थोड़ी–सी लैस । कहीं पर लोहे का बुरादा चिपका कर ।’’
–यहाँ दर्जी के संवाद में नाटककार ने कान्ति के कपड़ों की पसन्द के माध्यम से उसके लगातार बदलते चरित्र की परतों को खोलकर सामने रख दिया है । कान्ति कभी तो अपना लक्ष्य कुछ निर्धारित कर लेता है फिर खुद ही उस निर्णय को बदल डालता है, हमेशा असमंजस की स्थिति में रहता है, अपनी किसी भी बात और किसी भी निर्णय पर टिक नहीं पाता है । उसके सारे काम बेतरतीब और बिना ठहरकर सोचकर किये गये हैं ।
चरित्रों की अनिश्चितता और आन्तरिक बेचैनी ने इस नाटक के चरित्रों की बुनावट में अहम् भूमिका अदा की है– अस्मिता के रूप में स्त्री नायक के रूप में उभरकर आती अवश्य है किन्तु नाटक के कान्ति–केन्द्रित होने के कारण उसके लिए ज्यादा गुंजाइश बची नहीं है । और वैसे भी, मेरे विचार में अस्मिता कान्ति के उन भीतरी संवेदनाओं का प्रतीक है जिनसे उसकी सर्जनशीलता और कल्पनाशीलता अपनी खाद पाती थी । लेकिन माँ की दुनियादारी और रौशनलाल की राजनीतिक बुद्धि के चलते उनको पनपने का अवकाश और स्थान नहीं मिल पाया ।
रौशनलाल व्यवस्था की उस तेज और पैनी नजर का सूचक है जो अपनी पहुँच बनाने के लिए नौजवानों की सीढी की तलाश में रहती है और उनकी ऊर्जा का निरीक्षण करती रहती है । रौशनलाल से जुड़ने के बाद कान्ति की जिन्दगी भीड़–भाड़ और शोर–गुल से भरी होते हुए भी अन्तत: एकाकी हो जाती है । कान्ति की भीतरी और बाहरी दुनिया एक–दूसरे के विपरीत हो जाती हैं–जिनके बीच सन्तुलन कान्ति नहीं बैठा पाता । वस्तुत: रौशनलाल के सम्पर्क (बहकावे!) में आकर कान्ति जैसे संवेदनशील व्यक्ति की दिनचर्या जिस तरह की हो गयी थी, उसका विस्फोट होना लाजिमी था । रौशनलाल से प्रभावित होकर कान्ति ने सोचा कि वह कुछ निर्माण कर पाएगा, लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत सिद्ध हुई निर्माण की जगह कान्ति के स्वर, उसका संगीत, अस्मिता से उसका सम्बन्ध, नितिन से दोस्ती–सब कुछ खत्म हो गया । कान्ति की स्थिति ‘न घर का–न घाट का’ वाली हो गयी । कान्ति व्यक्तित्वहीन राजनीति की पोशाक पहने हुए एक ऐसा बिका हुआ बुद्धिजीवी बन गया जिसके शब्द, रौशनलाल के भाषण के शब्द बन गये । उन शब्दों का मकसद केवल जनता को लुभाना (बहकाना ?) रह गया । जब कान्ति को अपने शब्दों के इस इस्तेमाल का अहसास हुआ तो वह बेचैनी से छटपटाने लगा, इस ओढी गयी पोशाक को उतारने के लिए आतुर हो उठा । लेकिन ऐसा कर नहीं पाया– बेचारगी और विवशता की इस स्थिति में उसकी स्थिति असन्तुलित हो गयी, संवेदनशीलता जहाँ बसती थी, वहाँ बहशीपना आ गया । और वह हत्या जैसा घिनौना कृत्य कर बैठा । और कान्ति की विडम्बना देखिये कि इस घिनौने कृत्य की सजा से बचने के लिए उसे फिर से रौशनलाल का ही सहारा (गिरफ्त ?) लेना पड़ा ।
माँ की महत्त्वाकांक्षा के हाथों कान्ति न तो संगीत की पोशाक पहन पाया और जो राजनीति की पोशाक उसे पहनाई गयी उसमे वह फिट नहीं बैठ पाया । इस प्रकार पहने गये वस्त्रों की पहचान के साथ स्वयं की सर्जनात्मक बेचैनी का संघर्ष ही ‘पोशाक’ नाटक की आधार–भूमि है और इस संघर्ष में अन्तत: जीत ‘ऊपरी तौर पर पहने गये वस्त्रों’ की होती है जिनके आगे व्यक्तित्व की कल्पनाशीलता और रचनात्मकता हार जाती है । यह हार व्यक्ति को अकेलेपन के कोनों में छुपने के लिए मजबूर कर देती है क्योंकि अकेलेपन में व्यक्ति का सामना किसी भी प्रकार के समाज से न होकर खुद से ही होता है ।
‘‘माँ: फिर क्या पहनेगा ?
कान्ति: कुछ नहीं ।
माँ: बाहर कैसे जाएगा ?
कान्ति: नहीं निकलूँगा ।
माँ: तो काम कैसे चलेगा ?
कान्ति: न चले–––बाहर मैं डरता था । उलझन थी । मैं अब कुछ साबित नहीं करना चाहता । पर अन्दर मुझे किसी सहारे की जरूरत नहीं है । कोई न ही पहचाने तो अच्छा है । यह खाल जो खुलने को कुलबुला रही है–उसे चीर देना अच्छा है । मैं अपने बदन को छूकर तो देखूँ–––उन रगों से पूछूँ वो क्या चाहती हैं, रोम रोम को नोचकर पूछूँ–मेरा ही है न ? यह स्पर्श डसता है तो भी चमड़ी छिलती हैµकोई बात नहीं । थोड़ा होश आ रहा है । पोर–पोर को मिलती हवा––– बहुत दर्द––– । यह एकान्त जो बड़े भाग से मिला है, उसे पूरा पी लूँµभले ही वह मुझे कचोट डाले (पोशाक को काटकर उतारता है । एक ओर से टोली आती है, उसे देखकर रुक जाता है । धीरे–धीरे बुदबुदाता है) गीत तो फिर लिख लूँगा । जरा छू लूँ अपनी साँसों को होंठो का–
प्यास लगे जाने दो–
चाँदनी को कहीं–न–कहीं चूम ही लूँगा ।
(मधुर संगीत भरता है ।)’’
‘‘त्रिपुरारी शर्मा अपने नाटकों में अक्सर ऐसे चरित्र और स्थितियाँ लेकर आती रही है जिन्हें दर्शक पहचानते भी हैं और जिनके बाह्यान्तारिक संघर्ष को समझकर उससे अपने–आपको जोड़ते भी रहे हैं । उनके नाटक इन्सानों की जिन्दगी की सच्ची और विश्वसनीय तस्वीर पेश करते हैं और इस कोशिश में एक नयी रंगभाषा का अन्वेषण भी करते चलते हैं–एक ऐसी रंगभाषा जिसमे समकालीनता और मनुष्यता अभिव्यक्त हो सके ।’’ (पृष्ठ–63, समकालीनता और मनुष्यता की नयी रंगभाषा की खोज–राजेश चन्द्र, समकालीन रंगमंच (पत्रिका) अप्रैल–जून, 2013)
‘पोशाक’ नाटक की भाषा में समकालीन जिन्दगी के सारे रंग मौजूद हैं । कान्ति के घर में छोटी–छोटी बातों पर होने वाली किच–किच और तल्खियां, कान्ति और अस्मिता के आत्मीय सम्बन्ध और संगीत से उनका नाता और फिर संगीत और उनके रिश्ते की विडम्बना, रौशनलाल के राजनीतिक जीवन की महत्त्वाकांक्षाएँ और किसी भी कीमत पर उन्हें पूरा करने की जद्दो–जहदµसब कुछ सहज और सशक्त ढंग से इस नाटक में अभिव्यक्त कर पाने की सफलता त्रिपुरारी शर्मा ने पायी है । कुल मिलाकर यह नाटक समाज की उस मानसिकता को दर्शाता है जो स्थिति, समय और अवसर पाते ही अपना बाहरी पहनावा तो बदल ही लेती है, साथ ही सिद्धान्तों, मूल्यों, भाव–विचारों को भी बदल लेती है । और एक बिल्कुल उलट रूप अख्तियार कर लेती है । ‘गिरगिट की तरह रंग बदलना’ मुहावरा आखिरकार हम मनुष्यों के लिए ही तो बना है, इस बात को ‘पोशाक’ नाटक बखूबी समझा देता है ।
आशा :drasha.aditi@gmail.com, 9871086838