नाटक
नाट्य परिदृश्य प्रभावशाली कैसे हो?
समकालीन नाट्य परिदृश्य पर संवेद और सबलोग पत्रिकाओं के सम्पादक किशन कालजयी की टिप्पणी
- किशन कालजयी
कहानी, कविता, उपन्यास, संगीत या ललित कला की तुलना में नाटक ज्यादा सामाजिक इसलिए है कि यह अपनी आन्तरिक संरचना में ही सरोकारी होता है । नाट्यालेख को भले कोई एक व्यक्ति लिख रहा हो (कभी कभी यह नाट्यालेख भी समूह में ही तैयार होता है) लेकिन मंच पर प्रदर्शित होने तक की यात्रा में उसका ताल्लुक हमेशा समूह से बना रहता है । नाटक की प्रकृति और संरचना ही इस प्रकार की है कि वह समूह में ही तैयार होता है और समूह के सामने ही उसका प्रदर्शन होता है ।
रंगमंच की एक विशेषता यह है कि समकालीनता से उसका स्वाभाविक जुड़ाव रहता है । यहाँ समकालीनता का तात्पर्य अपने समय की जटिलताओं से है । हिन्दी साहित्य में जब आधुनिक काल का सूत्रपात होता है तो नवजागरण के अग्रदूत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जनता को सजग–सचेत करने के लिए नाटक को ही चुनते हैं यह चयन नाटक और रंगमंच की सामाजिकता, सम्प्रेषणीयता और प्रभावोत्पादकता के कारण ही था । यह अकारण नहीं था जब आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी साहित्य के इतिहास में आधुनिक काल के बारे में लिखना शुरू करते हैं तब वे भारतेंदु की इस अग्रिम सोच का जिक्र करना नहीं भूलते ।
औपनिवेशिक शासन के दौरान स्वतन्त्रता आन्दोलन में नाटक का इस्तेमाल एक हथियार के रूप में हुआ था । यह काम हिन्दी में भारतेंदु हरिश्चंद्र कर रहे थे तो बंगला में दीनबन्धु मित्र और मराठी में विष्णुदास भावे कर रहे थे । इनके नाटकों के कथ्य में समकालीन भारतीय समाज की जो चिन्ता रहती थी, उसके कारण देश की जनता का इन नाटकों के साथ जज्बाती जुड़ाव होने लगा । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का नाटक ‘अँधेर नगरी’ हो या दीनबन्धु मित्र का ‘नीलदर्पण’ य विष्णुदास भावे की ‘सीता स्वयंवर’ इन नाटकों ने भारतीय समाज की चिन्ताओं को राजनीतिक स्वर दिया था । इसलिए इन नाटकों के प्रदर्शन से अँग्रेजों का बौखलाना स्वाभाविक था । नाटक की इसी ताकत को समझ कर अँग्रेजों ने नाटक खेलने पर पाबन्दी लगायी थी । यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि तत्कालीन अँग्रेज शासकों ने ‘ड्रामेटिक परफार्मेंस एक्ट 1873’ लाकर नाटकों के मंचन पर अंकुश लगाया था ।
यह तो सर्वविदित है कि एक हजार साल पहले के हमारे अतीत में संस्कृत नाटकों की एक समृद्ध परम्परा रही है । ईसा पूर्व तीसरी–चैथी सदी में भरत मुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ की रचना की । यह ग्रन्थ नाट्य का सुचिंतित और सुवैज्ञानिक ग्रन्थ कहा जाता है और आज तकनीक के युग में भी पूर्वी–पश्चिमी नाट्य–अध्येताओं के बीच विमर्श का केन्द्र बना हुआ है । ब्रेख्त, स्तानिस्लावस्की जैसे पश्चिम के अनेक विद्वानों की स्थापनाएँ और सिद्धान्त भरत के नाट्यशास्त्र से मेल खाते हैं ।
स्वतन्त्रता–प्राप्ति से एक–दो दशक पूर्व प्रसाद जैसे नाटककारों ने फिर से भारतेन्दु की तर्ज पर नाटक को सांस्कृतिक नवजागरण का माध्यम बनाने की कोशिश की । स्वतन्त्रता–प्राप्ति के बाद नाटककारों और रंगकर्मियों ने नये उत्साह और जोश के साथ, लोक–नाट्य परम्परा का सहारा लेते हुए फिर से नाटक को स्थापित करने की कोशिश की । इस दौरान ‘अन्धा युग’, ‘आषाढ़ का एक दिन’ जैसे कई हिन्दी नाटक अखिल भारतीय स्तर पर मंचित और चर्चित हुए लेकिन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और उसकी शाखाओं और नाटक के अन्य संस्थानों के द्वारा अनेक गतिविधियाँ आयोजित करने और प्रर्याप्त संख्या में नाटकों के प्रकाशन के बावजूद हिन्दी का रंगकर्म और नाट्य–लेखन प्रभावशाली स्तर पर नहीं आ पा रहा है ।
यह सवाल बहुत महत्त्वपूर्ण है कि बंगला या मराठी रंगमंच जिस स्तर पर जीवन्त,सक्रिय और समकालीनता से सम्बद्ध है दुर्भाग्य से हिन्दी रंगमंच की वह स्थिति नहीं है । उदारीकरण और मुक्त बाजार का असर तो वैश्विक स्तर पर है । इसलिए उपभोक्तावाद और संचार माध्यमों की अपसंस्कृति से सभी भारतीय भाषाओं के रंगमंच को जूझना पड़ रहा है । लेकिन इस लड़ाई में हिन्दी रंगमंच कुछ ज्यादा ही पिछड़ा हुआ है । इसकी एक वजह तो यह है कि हिन्दी पट्टी वर्षों से सांस्कृतिक सूखे का शिकार रही है । यही वह इलाका है जहाँ जातीय गोलबन्दी, प्रशासनिक भ्रष्टाचार और राजनीतिक अराजकता अपने चरम पर है । जाहिर है इस भ्रष्टाचार से ऐसे लोग और संस्थाएँ अछूते नहीं हैं जिनके पास नाटक और रंगमंच की बागडोर है ।
किसी टीवी धारावाहिक के कथानक और उसके पात्रों से समाज का जो रिश्ता है उसका एक चैथाई भी नाटक और रंगमंच से बन पाया है क्या ? कम से कम छह महीने के रिहर्सल और जद्दोजहद से तैयार नाटकों को दूसरे शो के लिए दर्शक मुफ्त भी नहीं मिलते । दिल्ली मुम्बई जैसे महानगरों में यदि उदार प्रायोजक नहीं मिलें तो यहाँ भी रंगमंच की स्थिति दयनीय हो जायेगी । हमें संस्कृति का सवाल बनाकर बहस को केन्द्रित यहाँ करना चाहिए कि नाटक और रंगमंच को हम अपने जीवन और समाज का हिस्सा कैसे बनायें ? किसी एक नाटक की प्रस्तुति के लिए किसी को करोड़ों रुपये का अनुदान मिल जाये और कोई रंग समूह हॉल का किराया तक का जुगाड़ आपसी चन्दे से करता हो, इस गैरबराबरी के साथ नाटक और रंगमंच का सामाजिक विकास कैसे सम्भव है ? यदि रंगमंच को समाज का आवश्यक अंग बनाना है तो संसाधनों के बँटवारे पर न्याय का सिद्धान्त लागू करना होगा ।
इस काम के लिए हम सिर्फ सरकार और नौकरशाहों पर निर्भर नहीं रह सकते, रंगकर्मियों को इस मुहिम में आगे आना होगा । समर्थ रंगकर्मी जिनकी साख समाज और सरकार दोनों पर है, उन्हें अपनी पहल से इसे एक रंग आन्दोलन का रूप देना होगा । सिर्फ मुम्बई के पृथ्वी थियेटर और दिल्ली के श्रीराम सेन्टर की भव्य नाट्य प्रस्तुतियों से रंगमंच का कल्याण नहीं होगा । गाँव–गाँव और शहर–शहर रंगमंच की जरूरत को महसूस करे और तदनुरूप आचरण करे तब कहा जा सकता है कि नाटक और रंगमंच फैल रहा है ।
गाँव में जब हम रंगमंच की बात कर रहे हैं तो हमें इस पर विचार करना चाहिए कि नाटक की प्रस्तुति को कम खर्चीला और आसान कैसे बना सकते हैं ? यह एक अजीब विडम्बना है कि शहरी नाट्य प्रस्तुतियों में हम भव्यता का एक टापू निर्माण कर लेते हैं । प्रयोगशीलता के नाम पर किए जाने वाले नये–नये तकनीकी प्रयोगों ने प्रस्तुतिकरण के स्तर पर एक चोंकाने वाली आभा का निर्माण किया है । नाटक के बाद हमें यह याद रहता है कि ‘सेट बहुत अच्छा है’, हम यह भी नहीं भूलते कि ‘प्रकाश व्यवस्था बहुत अच्छी थी’ लेकिन हमें कलाकारों का अभिनय और उनके सम्वाद याद नहीं रहते । इस चकाचैंध से रंगमंच के रिश्ते पर भी हमें विचार करना चाहिए । यहाँ मोहन राकेश की सलाह का उल्लेख अप्रासंगिक नहीं होगा कि तकनीक का अधिक इस्तेमाल पश्चिम का प्रभाव है और इससे दूर रहने और मानवीय संसाधनों के अधिकाधिक इस्तेमाल की जरुरत है । क्योंकि लोक–नाट्यों की परम्परा के रूप में हम इन्हीं संसाधनों के कारण जुड़े रहे हैं ।
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