संवेद

भूमण्डलीकरण के दौर में हिन्दी सिनेमा

जवरीमल्ल पारख     

                                       

पिछले दो से अधिक दशकों से विश्व की राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों को
जिस एक शब्द से पहचाना जा सकता है, वह है भूमण्डलीकरण। यह भूमण्डलीकरण
शब्द पूँजीवादी राजनीतिक अर्थव्यवस्थाओं के भूमण्डलीकरण को ही व्यक्त कर रहा है।
कह सकते हैं कि इस दौर में पूँजीवादी व्यवस्थाओं का विस्तार हुआ है, उनमें पारस्परिक
आदान-प्रदान बढ़ा है और जिस तरह की भी वैकल्पिक व्यवस्थाएँ थीं, वे या तो ढह गयी
हैं, या कमजोर हुई हैं। लेकिन भूमण्डलीकरण सिर्फ अर्थव्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था
तक ही सीमित नहीं है। उसका दायरा सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों तक फैला नज़र
आ रहा है। इसलिए भूमण्डलीकरण सामाजिक परिवर्तन की सम्पूर्ण प्रक्रिया को दर्शाने
वाला शब्द है और इसे इसी अर्थ में ग्रहण भी किया जाना चाहिए। इसका अर्थ यह कदापि
नहीं है कि यह प्रक्रिया चुनौतीहीन और विकल्पहीन है। सच्चाई यह है कि भूमण्डलीकरण
के विस्तार और वर्चस्व के साथ-साथ उसके प्रति असन्तोष और उसको चुनौती देने वाली
ताकतों का भी विस्तार हुआ है। इसे इस दौर में उभरने वाले नये तरह के राजनीतिक
आन्दोलनों के जरिए ही नहीं बल्कि उन सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के द्वारा
भी देखा जा सकता है, जो इस दौर में उभरी हैं और जिनका निरन्तर विस्तार हो रहा है।
सिनेमा अपने जन्म से ही एक वैश्विक माध्यम रहा है। दृश्य माध्यम होने की अपनी
विशिष्टता के कारण यह भाषाओं की सीमाओं को लाँघकर अपने प्रभाव का विस्तार करता
रहा है। परम्परागत ललित कलाओं के विपरीत यह माध्यम रचना, रखरखाव, सम्प्रेषण
और प्रतिलिपि निर्माण के लिए ऐसे तकनीकी संसाधनों पर निर्भर है जिनके लिए बड़ी
पूँजी की आवश्यकता होती है। पूँजी के अलावा इसका निर्माण भी जनोत्पादन की तरह
होता है। फिल्म का निर्माण हो जाने के बाद उसका प्रदर्शन कई शहरों में, एक साथ,
ऐसे थियेटरों में होता है जहाँ फिल्म प्रदर्शन की सुविधा मौजूद होती हैं और उस थियेटर
में कई सौ लोग एक साथ बैठकर फिल्म देखते हैं। फिल्म का सामूहिक और व्यापक प्रदर्शन
ही उसके निर्माण में लगी पूँजी की वापसी और मुनाफे की गारंटी बनता है। यानी कि
यदि किसी फिल्म को देखने के लिए हजारों की संख्या में दर्शक टिकट खरीदकर सिनेमाघरों
तक नहीं पहुँचते हैं, तो उस फिल्म से लाभ कमाना तो दूर उसकी लागत निकालना भी
मुश्किल हो जाता है। फिल्म की नाकामयाबी से होने वाला नुकसान इतना ज्यादा हो सकता
है कि फिल्मकार के लिए आगे फिल्म बनाना नामुमकिन हो जाये। इसलिए यह बहुत
स्वाभाविक है कि फिल्म के निर्माण के लिए पूँजी लगाने वाला निर्माता और उसका प्रदर्शन
करने वाला वितरक यह जरूर चाहेगा कि फिल्म ऐसी बने जिसे अधिक-से- अधिक दर्शक
देखना पसन्द करें। यही वह बिन्दु है जहाँ सिनेमा पर बाजार का दबाव उसके निर्माण
और प्रदर्शन का निर्धारक तत्त्व बन जाता है। पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में बाज़ार की भूमिका
समाजवादी व्यवस्थाओं की तुलना में ज्यादा निर्णायक होती है। फिर भी, भूमण्डलीकरण
के दौर से पहले कुछ हद तक पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में बड़ी पूँजी और छोटी पूँजी
के बीच भेद किया जाता था। बड़ी पूँजी के जबड़ों से छोटी पूँजी को संरक्षण और सुरक्षा
देने के प्रावधान भी किये गये थे। ऐसे उत्पादों को जो सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रा
में आते हैं, उनको भी बड़ी पूँजी के वर्चस्व से बचाने के प्रावधान किये गये थे। सांस्कृतिक
उत्पादों को भौतिक उत्पादों से अलग रखा गया और उसके लिए अलग नियम-कायदे बनाये
गये थे। लेकिन भूमण्डलीकरण ने पूँजीवादी अर्थव्यस्थाओं द्वारा ऐसे सभी संरक्षणों और
सुरक्षाओं को न सिर्फ खत्म कर दिया गया बल्कि यह सिद्धान्त पेश किया गया कि मुक्त
प्रतिद्वन्द्विता ही लोकतन्त्रा का आधार है। बाज़ार ही वह जगह है जहाँ मुक्त प्रतिद्वन्द्विता
सम्भव है। इस सिद्धान्त को भौतिक उत्पादों के क्षेत्रा में ही नहीं सांस्कृतिक क्षेत्रा में भी
लागू किया गया। यही कारण है कि इस दौर में अच्छी फिल्मों को प्रोत्साहन देने के लिए
उठाये गये सभी कदमों से राज्य ने धीरे-धीरे अपने हाथ खींच लिये। इसीलिए 1970-80
के दशकों में जो समानान्तर सिनेमा आन्दोलन उभरा था, वह भूमण्डलीकरण के दौर में
खत्म हो गया। जिस फिल्म वित्त निगम को जिम्मा सौंपा गया था कि वह अच्छी फिल्मों
के निर्माण के लिए अनुदान प्रदान करेगा, वही विदेशी फिल्मों के वितरण के व्यवसाय
में लग गया। सिनेमा एक साथ कला भी है, सांस्कृतिक उत्पाद भी है, समाज परिवर्तन का एक
माध्यम भी है, लेकिन उद्योग और व्यवसाय भी है। किसी फिल्म को बनाने के लिए सिर्फ
कलाकारों की ही जरूरत नहीं होती, उसके लिए फिल्म से जुड़ी प्रौद्योगिकी का उपयोग
करने की क्षमता रखने वाले तकनीशियनों की जरूरत भी होती है। इसी तरह फिल्म बनने
और उसका प्रदर्शन करने का प्रबन्धन करने वाले प्रबन्धकों की भी जरूरत होती है। फिल्म
निर्माण में आवश्यक मशीनों, उपकरणों, कच्चे माल और निष्पादकों की व्यवस्था करने
के लिए निवेश की जरूरत भी होती है। इस निवेश का प्रबन्धन करने वाले यानी कि
फिल्म में पूँजी लगाने वाले व्यक्ति, समूह या कम्पनी के लिए यह जरूरी है कि लगायी
गयी पूँजी न सिर्फ सुरक्षित रहे बल्कि उस पर उन्हें मुनाफा भी मिले। इस तरह फिल्म 

निर्माण और प्रदर्शन की पूरी प्रक्रिया किसी भी अन्य व्यवसाय की तरह एक व्यवसाय है
और इसलिए बाज़ार की गतिविधियों और नियम-कायदों का असर पड़ना स्वाभाविक है।
इस सत्य को स्वीकार करने के बावजूद यह भी सच्चाई है कि फिल्म फ्रिज, कार
या अन्य किसी भौतिक वस्तु की तरह का उत्पाद नहीं है। यह एक सांस्कृतिक उत्पाद
है। रोटी, कपड़ा और मकान की तरह फिल्म के द्वारा हमारी किसी भौतिक जरूरत की
पूर्ति नहीं होती। न ही वाशिंग मशीन, फ्रिज या माइक्रोवेव की तरह वह हमारे जीवन
को आरामदेह बनाती है और न ही यह उन चीजों में शुमार होती है जिनसे हमारा जीवन
विलासपूर्ण बनता है। फिल्म हमारे जीवन में वही स्थान रखता है जो स्थान साहित्य, संगीत
और अन्य कला-रूपों को प्राप्त है। इनके द्वारा हमारी मानसिक जरूरतों की पूर्ति होती
है। हमारा अच्छा-बुरा मनोरंजन होता है। हमें अच्छे विचार और अच्छे आदर्श मिल सकते
हैं और हमें दुनिया को एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए प्रेरित कर सकती हैं। साहित्य
की तरह सिनेमा भी वैचारिक संघर्षों की अभिव्यक्ति का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम है। दुनिया
में जो बदलाव हो रहा है, सिनेमा उनसे अछूता नहीं रहता और न रह सकता है। यदि
पिछले एक शताब्दी में सिनेमा में निरन्तर बदलाव आया है, तो इसका कारण सिर्फ यह
नहीं है कि सिनेमा से सम्बन्धित प्रौद्योगिकी का विकास हुआ है या सिनेमा के दर्शकों
की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। इसका कारण यह भी है कि सिनेमा के माध्यम से जो
सन्देश प्रसारित होते हैं, वे अपने समय और समाज से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रेरित
और प्रभावित होते हैं। वे उनसे निरपेक्ष रहकर नहीं निर्मित हो सकते। इसलिए यदि पिछले
दो दशकों में जिसे हम भूमण्डलीकरण के दौर के रूप में जानते हैं, तो इस दौर का सिनेमा
भी इस भूमण्डलीकरण के प्रभाव से अछूता नहीं रहा है। इसलिए इस दौर के सिनेमा
को समझने और परखने का एक महत्त्वपूर्ण आधार स्वयं भूमण्डलीकरण है।
भूमण्डलीकरण की पहचान है पूँजी का भूमण्डलीकरण और निगमीकरण। इस दृष्टि
से देखने पर यह कहा जा सकता है कि हिन्दी सिनेमा का बढ़ता अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार
इसी का परिणाम है। लेकिन जिस तरह सूचना और संचार के दूसरे क्षेत्रों का निगमीकरण
हुआ है, हिन्दी सिनेमा का उस तरह से अभी निगमीकरण नहीं हुआ है। यह अवश्य है
कि कुछ बड़े राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय निगम भी हिन्दी फिल्मों के निर्माण और वितरण
में दिलचस्पी लेने लगे हैं। वे फिल्म निर्माण, प्रदर्शन, दूसरी भाषाओं में डबिंग और वितरण
आदि के कामों में सक्रिय नज़र आते हैं। यह कहा जा सकता है कि इस दौर में बनने
वाली फिल्मों के पीछे भूमण्डलीय बाज़ार की बढ़ती ताकत काम कर रही है। हिन्दी सिनेमा
का व्यवसाय अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर काफी फैला है। आॅडियो, वीडियो कैसेटों, सीडी और
डीवीडी का एक बिल्कुल नया बाज़ार निर्मित हुआ है। इसी तरह दो दशक पहले सिनेमाघरों
में जाकर पाँच-दस रुपये के टिकट खरीदकर कोई भी फिल्म देख सकता था। मल्टीप्लेक्स
के आगमन ने उन्हीें फिल्मों की टिकटों को दस-बीस गुना बढ़ा दिया है। मल्टीप्लेक्स ने
फिल्मों से होने वाली आय को बढ़ाने में अहम भूमिका निभायी है। मल्टीप्लेक्स का अर्थशास्त्रा
कुछ इस तरह है: उतने ही क्षेत्राफल में पहले एक सिनेमाघर होता था, अब तीन-चार
सिनेमाघर बनाये जाते हैं। इन सिनेमाघरों की क्षमता कुल मिलाकर पहले के एक सिनेमाघर

 

से ज्यादा होती है, लेकिन प्रत्येक हाॅल की दर्शक क्षमता काफी कम होती है। इस तरह
इनमें प्रदर्शित होने वाली फिल्मों के दर्शक कम होने पर भी हाॅल के खाली रहने की सम्भावना
कम हो जाती है। यही नहीं पूरे हाॅल की सभी सीटों के लिए टिकट दर एक ही होती
है। लेकिन यह कीमत 100 रुपये से लेकर 500-700 रुपये तक होती है। टिकट दर
सामान्य सिनेमाघरों से तीन-चार गुना ज्यादा होने के कारण प्रति हाॅल होने वाली आय
में भी काफी वृद्धि हो जाती है। मल्टीप्लेक्सों में विभिन्न तरह की उपभोक्ता वस्तुओं के
विज्ञापन और छोटी-छोटी दुकानें भी इनकी आय का जरिया होती हैं। इस तरह पहले
के सिनेमाघरों से कई गुना ज्यादा आय ही मल्टीप्लेक्सों की स्थापना का मकसद है।
मल्टीप्लेक्स महज इमारत नहीं है वरन वह उस माॅल संस्कृति का हिस्सा भी है जो महानगरों
और शहरों में तेजी से उभरा है। मध्यवर्ग में पनपी उपभोक्ता संस्कृति में फिल्म देखना
भी उपभोक्ता संस्कृति का एक हिस्सा है। यह मनोरंजन से कुछ ज्यादा है। यह शाॅपिंग
के आनन्द का विस्तार है। यहाँ फिल्म देखते हुए दर्शक अपने अभिजात होने या अभिजात
वर्ग में शामिल होने का भ्रम भी पाल सकते हैं और उन साधारण फिल्म दर्शकों से दूर
भी रह सकते हैं जिनमें फिल्म देखने का ‘अभिजात संस्कार’ नहीं है। इस तरह इस
उपभोक्तावादी संस्कृति ने फिल्म देखने को भी उसी तरह उपभोग की वस्तु बना दिया
है, जिस तरह वहाँ बैठकर कोला कोला पीना या पाॅपकाॅर्न खाना। इस देखने में न तो
रचनात्मक आस्वादन की सम्भावना बचती है और न ही जीवन के प्रति किसी विवेकपूर्ण
समझ को विकसित करने की।
सिनेमा के दर्शकों का बड़ा हिस्सा शहरी मध्यवर्ग और निम्न-मध्यवर्ग से बना है।
भूमण्डलीकरण ने वैचारिक रूप से सबसे अधिक मध्यवर्ग को अपने प्रभाव मे लिया है।
पिछले दो दशकों से साम्राज्यवादी वित्तीय संस्थाओं की प्रेरणा और प्रोत्साहन से चलायी
जाने वाली आर्थिक उदारीकरण की नीतियों ने यदि एक ओर राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय
पूँजीवादी निगमों को चहुँमुखी विस्तार के अवसर प्रदान किये, तो दूसरी ओर, इसने मध्यवर्ग
की महत्त्वाकांक्षाओं को भी निर्बाध रूप से फलने-फूलने के मौके दिये। देश-विदेश में ऊँची
नौकरियों, शेयर बाज़ार में निर्बाध रूप से होने वाले उछालों ने मध्यवर्ग को इन नीतियों
का ऐसा समर्थक बना दिया कि वह भी गाने लगा कि पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं।
वह न तो यह देख पा रहा था कि इस विस्तार के मदमस्त हाथी के नीचे कौन कुचले
जा रहे हैं और न ही यह देख पा रहा था कि शीतयुद्ध की समाप्ति के बावजूद दुनिया-भर
में हिंसा और युद्ध का पहले से भी अधिक फैलाव क्यों हो रहा है। यह महज संयोग
नहीं है कि भूमण्डलीय यथार्थ के पिछले दो दशक पूँजी के अनियन्त्रिात विस्तार और वर्चस्व
के ही दशक नहीं हैं, बल्कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भयावह हिंसा और आतंक के भी दशक
हैं। इन्हीं दो दशकों में पर्यावरण के सामने ऐसी चुनौतियाँ पैदा हो गयी हैं कि इस भूमंडल
के नष्ट होने का वास्तविक खतरा पैदा हो गया है। इन दो दशकों ने उन सभी लोकतान्त्रिाक
और समतावादी मानव-मूल्यों के सामने प्रश्नचिह्न लगा दिया है जिन्हें पिछले दो शताब्दियों
में मानवजाति ने विकसित किया था। लोगों को समझाया जा रहा है कि बिना लोभ-लालच
और स्वार्थ-भावना के मानव का विकास सम्भव ही नहीं है। जल्दी-से-जल्दी और किसी

भी तरीके से अमीर बनने में कुछ भी बुराई नहीं है क्योंकि इसी से उन लाखों-करोड़ों
लोगों को रोजगार मिल सकता है जो अब भी भुखमरी और बेरोजगारी का जीवन जीने
के लिए अभिशप्त हैं। आँखों पर बँधी लोभ-लालच की पट्टी ने आर्थिक उदारीकरण की
नीतियों के समर्थकों को दुनिया के बहुसंख्यक लोगों की गरीबी और बदहाली को देखने
से ही वंचित नहीं कर दिया था बल्कि अपने पैरों के नीचे से खिसकती जमीन को महसूस
करने से भी वंचित कर दिया था। दरअसल, उनकी आँखों पर ही पट्टी नहीं बँधी थी,
उनके कानों को भी वह पट्टी बांधे हुए थी कि वे अपने गुब्बारे में से निकलने वाली
हवा की आवाज नहीं सुन सके। सितम्बर, 2008 में जब अमेरिका के विशाल बैंकों ने
ताश के पत्ते की तरह एक-एक कर ढहना शुरू किया तब ही यह सच्चाई एक बार फिर
सामने आयी कि दरअसल पूँजीवाद तो कोई विकल्प है ही नहीं। ठीक यही कहानी 2014
के आम चुनावों के दौरान भी दोहरायी गयी। आर्थिक उदारीकरण की जिन नीतियों पर
चलते हुए कांग्रेस नीत यूपीए सरकार ने देश को महँगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के
दलदल में जा धकेला। उन्हीं नीतियों को विकास का लेबल लगाकर नरेन्द्र मोदी ने इन
चुनावों में शानदार जीत हासिल की, लेकिन सत्ता सँभालने के साथ ही महँगाई और तेजी
से बढ़ने लगी, देशी-विदेशी निगमों के हित में नीतियों में बदलाव किये जाने लगे और
भ्रष्टाचार के नये-नये किस्से सामने आने लगे।
आर्थिक उदारीकरण के इन दो दशकों ने हिन्दी सिनेमा के परिदृश्य को भी तेजी
से बदला है। हिन्दी सिनेमा ने इन दो दशकों में अपने व्यवसाय का बेतहाशा विस्तार
किया है। पहले के किसी भी समय की तुलना में हिन्दी सिनेमा का व्यवसाय अधिक
लाभकारी साबित हो रहा है। पहले यदि सौ में से दस फिल्में मुश्किल से कामयाब हो
पाती थीं, तो सफल फिल्मों की संख्या पहले की तुलना में आज कई गुना ज्यादा बढ़
गयी है। इसने फिल्मों में पूँजी लगाना कम जोखिम भरा और ज्यादा आसान कर दिया
है। यदि आज अपेक्षाकृत कम पूँजी में कामयाब फिल्में भी बनायी जा सकती हैं, और
उनका सफलतापूर्वक प्रदर्शन भी किया जा सकता है, तो, दूसरी ओर, पहले के किसी
भी समय से ज्यादा बड़े बजट की फिल्में भी बनायी जा सकती हैं। इस दृष्टि से हिन्दी
सिनेमा का तेजी से हाॅलीवुडीकरण हो रहा है। हिन्दी सिनेमा के उद्योग के इस अनुकूल
माहौल ने विदेशी पूँजी को भी अपनी ओर आकृष्ट किया है और कई विदेशी फिल्म और
मीडिया कम्पनियाँ भी हिन्दी फिल्मों के निर्माण मे भागीदारी करने के लिए उत्सुक हो
रही हैं।
फिल्म के निर्माण और प्रदर्शन की पूँजी पर निर्भरता ने उसे बाज़ार का मुखापेक्षी
बना दिया है। मुक्त बाजार का सिद्धान्त, व्यवहार में इस बाज़ार पर वर्चस्व रखने वाले
निगमों और इजारेदारों द्वारा बाज़ार को अपने हितों के अनुरूप इस्तेमाल करने की निर्बाध
छूट में बदल जाता है। यह बात सिनेमा के बाज़ार पर भी लागू होती है। बाजार की
ताकतें इस बात का प्रचार करती हैं कि सिनेमा एक लोकप्रिय माध्यम है जिसका मुख्य
कार्य मनोरंजन प्रदान करना है। उसकी सार्थकता उसके लोकप्रिय होने और मनोरंजन प्रदान
करने में ही है। लेकिन फिल्मों की लोकप्रियता का निर्धारण फिल्म की अन्तर्वस्तु और
उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति पर नहीं बल्कि ऐसे बाहरी तत्त्वों पर ज्यादा निर्भर रहती
है जो फिल्म की गुणवत्ता से प्रत्यक्षतः कोई सम्बन्ध नहीं रखतीं। मसलन, अभिनेताओं
की ‘मर्द’ छवि, अभिनेत्रियों के ‘यौन-सौन्दर्य’, प्रतिशोध से प्रेरित हिंसा के उत्तेजक दृश्य,
नृत्य और संगीत का उन्मादपूर्ण इस्तेमाल लोकप्रिय सिनेमा के अनिवार्य तत्त्व इसीलिए
बन गये हैं कि इनके द्वारा मनोरंजन की एक खास तरह की संकल्पना को स्थायित्व प्रदान
किया जा सके। लेकिन ये तत्त्व अपने में पूर्ण नहीं हैं। इनका होना किसी फिल्म की सफलता
की गारंटी नहीं है। फिल्म के इन तत्त्वों को ऐसी किसी कहानी के बीच पेश करना होता
है जो दर्शकों को प्रासंगिक भी लगे और मनोरंजक भी।
प्रासंगिकता एक ऐसी अनिवार्यता है जिसके बिना कोई भी फिल्म दर्शकों को आकृष्ट
नहीं कर सकती। प्रासंगिकता दो अर्थों में अपने को अभिव्यक्त करती है। एक, समकालीन
यथार्थ से जुड़ाव के अर्थ में और दो, उस यथार्थ के प्रति दर्शकों को तार्किक और सही
लगने वाले परिप्रेक्ष्य के अर्थ में। दर्शकों को सही और तार्किक लगने वाला परिप्रेक्ष्य जरूरी
नहीं कि दर्शकों के वास्तविक हितों के अनुरूप भी हो। यह बहुत कुछ राजनीतिक-सामाजिक
चेतना पर निर्भर करता है, दर्शक जिसके प्रभाव में पहले से होता है या भूमण्डलीकरण
की पक्षधर राजनीति जिसे अपने लिए उपयुक्त समझती है। भूमण्डलीकरण ने यदि एक
ओर इस बात का प्रचार किया है कि राष्ट्र-राज्य कमजोर हो रहे हैं, वहीं राष्ट्रवादी भावनाओं
का दोहन भी काफी किया जा रहा है। इसी तरह संस्कृति के क्षेत्रा में अमरीकी वर्चस्व
बढ़ रहा है। लेकिन साथ ही, स्थानिकता और जातीयता (एथनिसिटी) को शेष सभी पहचानों
से बढ़कर बताया जा रहा है। यह महज संयोग नहीं है कि इस दौर में आतंकवाद और
पाकिस्तान विरोधी फिल्मों का बोलबाला इसीलिए रहा क्योंकि इसके द्वारा लोगों का ध्यान
वास्तविक समस्याओं से हटाया जा सके। देशभक्ति और राष्ट्रवाद का प्रभाव दर्शकों को
आतंकवाद और पाकिस्तान विरोधी फिल्मों का सहज ही समर्थक बना देता है।
इसी तरह स्थानिकता और जातीयता के नाम पर वह पारिवारिक, जातिवादी और
धार्मिक पहचानों के नाम पर रूढि़वादी रीति-रिवाजों का समर्थक बन जाता है। उन्हें वह
भारतीय संस्कृति का पर्याय समझने लगता है। इसी भारतीय संस्कृति के नाम पर वह
फिल्मों में महिमामंडित किये जाने वाले रूढि़वादी रीति-रिवाजों का समर्थक बन जाता है।
यह महज संयोग नहीं है कि 1994 में बनी फिल्म ‘हम आपके हैं कौन’ में उत्तर भारत
में प्रचलित हिन्दू विवाह से जुड़े विधि-विधानों को जिस तरह ग्लैमराइज करके पेश किया
गया, उसने न केवल फिल्मों में बल्कि धारावाहिकों में भी एक प्रवृत्ति और विधा का रूप
ले लिया है। यहाँ तक कि इसे भारतीयता की सबसे लोकप्रिय सिनेमाई रूढि़ माना जा
सकता है जो मध्यवर्गीय यथार्थ से प्रेरित होकर अब स्वयं मध्यवर्गीय यथार्थ को प्रभावित
करने लगी है। उत्तर भारतीय मध्यवर्गीय परिवारों में विवाह का पूरा उपक्रम अब ठीक
उसी शैली में होने लगा है जिसे हिन्दी फिल्मों ने लोकप्रिय बनाया है। सातवें-आठवें दशक
में शहरी, शिक्षित मध्यवर्ग में यह विचार लोकप्रिय होने लगा था कि विवाह को परम्परागत
ढंग से करने की बजाय सीधे-सादे ढंग से किया जाना चाहिए। लेकिन 1990 के दशक
के बाद इस विचार को मध्यवर्ग ने त्यागना शुरू कर दिया। यहाँ तक कि अन्तर्जातीय
और अन्तरधार्मिक विवाह भी उसी परम्परागत ढंग से होने लगे हैं। विवाह के अवसर
पर अपनी सम्पन्नता और समृद्धि का यह जो अश्लील प्रदर्शन लोकप्रिय हुआ है, वह
भूमण्डलीकरण के प्रभाव का ही नतीजा है। भूमण्डलीकरण ने वैश्विकता और स्थानिकता,
आधुनिकता और रूढि़वादिता, धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता का एक ऐसा अन्तर्विरोधी
चरित्रा निर्मित किया है, जो लोगों को एक साथ अपनी विशिष्ट पहचान (जो धर्म, जाति,
क्षेत्रा आदि से प्रेरित होती है) के प्रति आग्रही बना रही है, तो दूसरी ओर वैश्विकता के
नाम पर उनके सोच और जीवन-शैली दोनों का अमरीकीकरण भी करती जा रही है।
इस दौर का हिन्दी सिनेमा इस अन्तर्विरोधी चरित्रा का काफी हद तक प्रतिनिधित्व करता
है। अधिकांशतः उसके प्रभाव में आकर और कभी-कभार उसकी आलोचना करते हुए।
भूमण्डलीकरण ने खरीदने और बेचने को जीवन की एक ऐसी अनिवार्यता में बदल
दिया है कि व्यक्ति को इन्सान के रूप में नहीं बल्कि उपभोक्ता के रूप में देखा जाने
लगा है। उपभोक्ता के रूप में उसकी श्रेणियाँ तय हो गयी हैं। कौन कितनी कीमती चीजें
खरीदने की क्षमता रखता है उसी के अनुरूप उसकी सामाजिक हैसियत का निर्धारण होने
लगा है। विभिन्न स्तरीय खरीददारों को धुआँधार प्रचार के द्वारा यह बताया जाता है कि
वे वस्तुएँ कौन-सी हैं जिन्हें खरीदना उनके जीवन को समृद्ध और सार्थक बना सकता
है। वस्तुओं से ज्यादा वस्तुओं का प्रचार महत्त्वपूर्ण हो गया है। फि़ल्में इस प्रचार का साधन
भी हैं और साध्य भी। 1960-70 के दशकों के विपरीत आज फि़ल्मकार यह मानता प्रतीत
होता है कि फिल्म से ज्यादा फि़ल्म का प्रचार महत्त्वपूर्ण है। इस प्रचार का मकसद यह
होता है कि प्रदर्शन के पहले दिन ही, और नहीं तो पहले सप्ताह में ही इतने दर्शक जुटा
लिये जाये कि फि़ल्म पर निवेश किया गया अधिकांश पैसा लौट आये। दूसरा तरीका
यह अपनाया जाने लगा है कि फि़ल्म निर्माता बहुत-सी कम्पनियों, निगमों और एजेंसियों
के साथ गठजोड़ करता है जिनका नाम फि़ल्म के आरम्भ में दिया जाता है और जो फि़ल्म
को प्रायोजित करने में भागीदार बनते हैं। इन कम्पनियों और निगमों द्वारा बनायी वस्तुओं
का प्रचार फि़ल्म की कहानी का हिस्सा भी बनाया जाने लगा है। ‘ताल’ (1999) फिल्म
में नायक-नायिका के बीच प्रेम का माध्यम कोका-कोला की बोतल बनती है जो चम्बा
के छोटे से गाँव से लेकर मुम्बई जैसे महानगर और कनाडा में भी नायक-नायिका के
हाथ में दिखायी देती है। इसी तरह फि़ल्म ‘फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी’ (2000) में नायक
शाहरुख खान हमेशा ह्युंडाई कम्पनी की कार चलाता नज़र आता है। शाहरुख खान इस
कम्पनी की कारों का ब्रांड एम्बेसडेर है। इस तरह के समझौतों में मीडिया कम्पनियों से
समझौते बहुत महत्त्वपूर्ण साबित होते हैं। अब फि़ल्म में केन्द्रीय भूमिकाएँ निभाने वाले
अभिनेताओं और अभिनेत्रियों का काम फि़ल्म पूरी हो जाने के साथ खत्म नहीं हो जाता,
उन्हें उसकी मार्केटिंग के काम में भी जुटना पड़ता है। वे देश-विदेश के विभिन्न शहरों
में प्रेस कान्फ्रेंसों के द्वारा, टेलीविजन चैनलों पर चलने वाले कार्यक्रमों में भाग लेकर और
अखबारों में इंटरव्यू द्वारा फि़ल्म की मार्केटिंग करते नज़र आते हैं। यहाँ तक कि बाद
में जब इन फि़ल्मों को टीवी चैनलों पर प्रदर्शित किया जाता है तो उस समय भी उन्हें
उनकी प्रस्तुति के लिए इस्तेमाल किया जाता है। आजकल इन कलाकारों का अभिनय
से ज्यादा अपनी फि़ल्म की मार्केटिंग करने के काम में दक्ष होना जरूरी हो गया है।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आज भारतीय सिनेमा विशेष रूप
से हिन्दी सिनेमा की पहुँच अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ी है। 1950-60 के दशक में भी
हिन्दी सिनेमा भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर भी अपनी पहुँच रखता था, लेकिन यह पहुँच
अफ्रीका, एशिया और कैरेबियन सागर के उन देशों तक सीमित थी, जहाँ भारतीय मूल
के लोग बड़ी संख्या में रहते थे। इसके बावजूद हिन्दी सिनेमा उन दर्शकों के लिए ही
बनाया जा रहा था, जो भारत में रहते थे। वह उन्हें ही सम्बोधित था और उनके यथार्थ
से ही प्रेरित था। लेकिन पिछले दो दशकों में हिन्दी सिनेमा ने यूरोप और अमरीका के
देशों में अपनी पहुँच बनायी है। यह पहुँच भी अधिकतर उन भारतीयों तक सीमित है
जो इन देशों में रहते हैं। लेकिन यहाँ रहने वाले भारतीयों ने हिन्दी सिनेमा का बाज़ार
ही विस्तृत नहीं किया है बल्कि उन्होंने इस सिनेमा की अन्तर्वस्तु और प्रस्तुति को भी
प्रभावित किया है। अब इन देशों में रहने वाले भारतीयों को भी कहानी का विषय बनाया
जाने लगा है। उनका यहाँ रहना भारतीयता के लिए चुनौती नहीं बल्कि गर्व की वस्तु
हो गया है। वह अमरीका में रहते हुए बड़े गर्व से गा सकता है, ‘आइ लव माइ इंडिया’
क्योंकि उससे यह अपेक्षा है कि वह अमरीका और यूरोप में रहते हुए अपनी कमाई का
एक हिस्सा डाॅलर के रूप में भारत को भेजेगा या भारत में निवेश करेगा और इस तरह
वह भारत के कथित विकास में योग देगा। उसकी भारत के प्रति निष्ठा भारतीयता की
एक ऐसी अवधारणा के गुणगान से ही सिद्ध की जा सकेगी, जो काफी हद तक उत्तर
भारतीय सवर्ण हिन्दू की कथित उदारवादी जीवन-शैली से प्रेरित है। विदेश में रहने वाले
भारतीयों के प्रति बदले रुख को ‘पूरब और पश्चिम’ (1970) और ‘दिलवाले दुल्हनियाँ
ले जायेंगे’ (1996), ‘परदेस’ (1997) जैसी फिल्मों के तुलनात्मक अध्ययन से समझा जा
सकता है।
हिन्दी सिनेमा में आया यह बदलाव महानगरीय मध्यवर्ग के जीवन और सोच में
आये बदलाव का नतीजा है। इस वर्ग का एक बड़ा हिस्सा भूमण्डलीकरण के दौर की
उपभोक्ता संस्कृति से प्रभावित और संचालित होता नज़र आ रहा है। वह 1960-70 के
दौर की प्रगतिशीलता को पीछे छोड़ चुका है। उसके और मेहनत कश वर्ग के बीच कई
स्तरों पर दूरियाँ बढ़ी हैं। शिक्षित मध्यवर्ग की आर्थिक स्थिति में बदलाव आया है। वह
अब अपनी जड़ों-गाँवों और कस्बों-की तरफ देखने की बजाय अमरीका और यूरोप की
तरफ देखने लगा है। वही उसका लक्ष्य है। वह खुद नहीं तो अपने बच्चों के अमरीका
में बसने के सपने देखने लगा है। अगर अमरीका नहीं जाया जा सकता है, तो वह भारत
को अमरीका में बदलने की मुहिम को भी पूरा समर्थन देने को तैयार है। मध्यवर्ग द्वारा
पहले मनमोहन सिंह और अब नरेन्द्र मोदी को दिया जाने वाला समर्थन इसी सच्चाई का
द्योतक है। बड़े-बड़े मालों, मल्टीप्लेक्सों, लक्जरी कारों, मेट्रो ट्रेनों और फ्लाइओवरों वाले
इन महानगरों में भारत को ढूँढ़ना मुश्किल होता जा रहा है। अभी कुछ दशकों पहले तक
देश के शहरों और कस्बों की ही नहीं महानगरों की अपनी विशिष्ट पहचान होती थी,
लेकिन अब सभी बड़े-छोटे शहर एक ही साँचे में ढलते नज़र आ रहे हैं। इस बदलाव

ने भी लोगों को स्थानिकता और जातीयता की रूढि़वादी परम्पराओं का पिछलग्गू बना
दिया है। उसने इसे ही अपनी जड़ों से जुड़ना समझ लिया है।
इन सबके बावजूद भारत का पूरी तरह से अमरीकीकरण मुमकिन नहीं है क्योंकि
अमरीकीकरण की यह मुहिम दस फीसद मध्यवर्ग तक ही सीमित है, देश की बहुसंख्यक
आबादी अभी भी गरीबी और पिछड़ेपन की एक ऐसी सच्चाई के साथ जी रही है जिन्हें
चाहकर भी माॅलों, मल्टीप्लेक्सों और फ्लाइओवरों के पीछे छुपाया नहीं जा सकता। इस
दौर का सिनेमा उन मेहनतकश लोगोंµकिसानों और मजदूरों के जीवन-यथार्थ को काफी
हद तक भूल गया है, जो आजादी के बाद के तीन-चार दशकों तक फि़ल्मांे में अभिव्यक्त
होता रहा है। लेकिन भूमण्डलीकरण के इस दौर में बनने वाली फि़ल्मों के दर्शक सिर्फ़
दस फ़ीसद मध्यवर्ग तक सीमित नहीं हैं। इस दर्शक वर्ग से छुटकारा पाने के लिए ही
शायद मल्टीप्लेक्सों का निर्माण किया गया है जिनके महँगे टिकट निम्न-मध्यवर्ग और गरीब
दर्शकों की पहुँच के बाहर हैं। लेकिन ऐसे दर्शकों की संख्या इतनी ज्यादा है कि उनकी
उपेक्षा अब भी सम्भव नहीं हो रही है। हिन्दी में आज दो तरह का सिनेमा बन रहा है।
एक, जिनका प्रदर्शन मल्टीप्लेक्सों तक ही सीमित रहता है, और दूसरा जो छोटे शहरों
और कस्बों तक पहुँचता है। भाषा की दृष्टि से भी इन फिल्मों को अलगाया जा सकता
है। जो फि़ल्में मल्टीप्लेक्सों तक सीमित रहती हैं, उनकी भाषा धीरे-धीरे ‘हिंग्लिश’ में बदलती
नज़र आ रही है जबकि अब भी व्यापक स्तर पर देखी जाने वाली लोकप्रिय फिल्मों की
भाषा का स्वरूप हिन्दी-उर्दू का वही मिला-जुला रूप है जिसे हिन्दुस्तानी के नाम से जाना
जाता रहा है और जो आरम्भ से ही हिन्दी सिनेमा की भाषाई पहचान रहा है। इसका
अर्थ यह नहीं है कि इन फिल्मों की भाषा अब भी पाँचवें-छठे दशक की भाषा है। यह
भाषा भी समय के अनुसार बदली है लेकिन उसकी मूल प्रकृति वही है। आज भी ‘लगान’
(2001),‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ (2003), ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ (2006), ‘जब वी मेट’
(2007), ‘थ्री इडियट्स’(2009), ‘तारे ज़मीन पर’ (2007) जैसी फि़ल्मों की भाषा हिन्दी
सिनेमा की परम्परागत भाषा का ही विकास है।
भूमण्डलीकरण के इस दौर में पश्चिम से आदान-प्रदान की प्रक्रिया में बढ़ोतरी हुई
है। लेकिन आदान-प्रदान की यह प्रक्रिया दोनों तरफ एक-सी नहीं है। हाॅलीवुड की फि़ल्में
अब भारत में ज्यादा बड़े पैमाने पर प्रदर्शित हो रही हैं। उन्हें हिन्दी, तमिल, तेलुगु सहित
कई प्रमुख भारतीय भाषाओं में डब करके दिखाया जा रहा है। भारत अब हाॅलीवुड सिनेमा
का एक प्रमुख बाज़ार हो गया है। यहाँ तक कि कुछ फि़ल्मों में भारतीय यथार्थ की अभिव्यक्ति
भी होने लगी है। इसे रचनात्मक अभिव्यक्ति से ज्यादा व्यावसायिक इस्तेमाल के रूप में
ही देखा जाना ज्यादा सही प्रतीत होता है। ‘स्लमडाॅग मिलियेनर’ (2008) इसी इस्तेमाल
को बताती है। कई हाॅलीवुड फिल्मों में भारतीय कलाकारों को काम भी मिलने लगा है।
शेखर कपूर, दीपा मेहता, मीरा नाॅयर, मनोज, श्यामलन नाइट जैसे भारतीय मूल के फि़ल्मकारों
ने हाॅलीवुड में अपनी पहचान भी बनायी है। इसके बावजूद यह भी सही है कि हाॅलीवुड
का सिनेमा हाॅलीवुड की परम्परा के अनुरूप ही है। उस पर भारतीय सिनेमा का प्रभाव
किसी भी रूप में नज़र नहीं आता। इसके विपरीत भारतीय सिनेमा पर हाॅलीवुड का प्रभाव है. 
बल्कि फि़ल्म की अन्तर्वस्तु और प्रस्तुति भी हाॅलीवुड से अधिकाधिक प्रभावित होती
जा रही है। हाॅलीवुड की लोकप्रिय फि़ल्मों से कथानक चुराकर फि़ल्में बनाने का सिलसिला
तो बहुत पुराना है, लेकिन जो स्पष्ट अन्तर है वह यह कि अब इनको भारतीय दर्शकों
की अभिरुचि के अनुरूप ढालने का प्रयास कम हो गया है और हाॅलीवुड की शैली में
ही बनाया जा रहा है। ‘क्रिश’(2006), ‘धूम’(2004), ‘रोबोट’(2010), ‘रा-वन’ (2011)
जैसी फि़ल्में हाॅलीवुडीकरण का ही नतीजा हैं। नकल की इस प्रवृत्ति के बल पर भारतीय
सिनेमा विश्व सिनेमा में अपना वर्चस्व कायम कर सकेगा, इसकी कोई सम्भावना नहीं
है। यह उन भारतीयों को मानसिक सन्तोष-प्रदान कर सकती है जो मानते हैं कि अमरीका
ही मौलिकता, ताकत और महानता का प्रतिनिधि है और उसकी हर क्षेत्रा में नकल करने
से ही भारत भी अमरीका की तरह शक्तिशाली, मौलिक और महान बन सकता है। भारत
में भी हाॅलीवुड के टक्कर की उन जैसी ही फि़ल्में बनने लगी हैं, इसमें गर्व करने लायक
कुछ भी नहीं है।
हाॅलीवुड विश्व सिनेमा की किसी महान परम्परा का प्रतिनिधित्व नहीं करता। हालाँकि
दुनिया का सबसे अधिक राजनीतिक सिनेमा अमरीका में ही बनता है और वह भी वहाँ
के शासक वर्ग का समर्थक सिनेमा। कुछ अपवादों को छोड़कर हाॅलीवुड का सिनेमा अमरीकी
राजनीतिक वर्चस्व को बढ़ाने की लड़ाई में हथियार की तरह इस्तेमाल होता आया है।
उसका वैश्विक वर्चस्व दरअसल अमरीकी साम्राज्यवाद के वैश्विक वर्चस्व की ही अभिव्यक्ति
है। भूमण्डलीकरण ने इस वर्चस्व को बढ़ाने में ही मदद की है। यह गौरतलब है कि पचास-साठ
के दशक में स्वयं यूरोप में विशेष रूप से फ्रांस, इटली, सोवियत संघ, जर्मनी, हंगरी आदि
देशों में उच्चस्तरीय सिनेमा विकसित हुआ था। यहाँ तक कि ब्रिटिश सिनेमा भी हाॅलीवुड
से स्वतन्त्रा और काफी हद तक बेहतर था, लेकिन भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया ने यूरोपीय
सिनेमा को भी लगभग हाशिए पर डाल दिया है। भूमण्डलीकरण शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व
के लोकतान्त्रिाक सिद्धान्त पर यकीन रखने की अवधारणा नहीं है बल्कि यह वर्चस्ववादी
अवधारणा है। इसे भारतीय सिनेमा के सन्दर्भ में भी देखा जा सकता है। हाॅलीवुड की
तर्ज पर बाॅलीवुड की अवधारणा इसी वर्चस्व की देन है। स्वतन्त्राता-प्राप्ति के बाद के
चार दशकों में भारत की कई भाषाओं के सिनेमा का विकास हुआ था। लेकिन पिछले
दो दशकों में या तो क्षेत्राीय सिनेमा हाशिए पर पहुँच गया है या उनकी अपनी क्षेत्राीय
पहचान लुप्त-सी हो गयी है। दक्षिण में जहाँ आज भी तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम
भाषाओं में बहुत बड़ी संख्या में फिल्में बन रही हैं, उनमें और बाॅलीवुड के लोकप्रिय सिनेमा
में प्रवृत्तिगत कोई अन्तर नज़र नहीं आता। इसी तरह बँगला, मराठी, गुजराती, उडि़या,
असमी आदि भाषाओं में जो रचनात्मक और कलात्मक फिल्में बनती थीं, वह परम्परा
अब समाप्त ही हो गयी प्रतीत होती है। कुछ अपवादों को छोड़कर यदि कुछ बन रहा
है तो बाॅलीवुड फिल्मों के ही क्षेत्राीय संस्करण। यह तथ्य सिर्फ इस बात को साबित करता
है कि हाॅलीवुड की तरह बाॅलीवुड भी वर्चस्ववादी सिनेमा का प्रतिनिधित्व करता है। इसके
पीछे भी पूँजी की बड़ी ताकत का इस्तेमाल हो रहा है।

पिछले तीन-चार सालों में अमरीका और यूरोप के देशों के सामने जो आर्थिक और
राजनीतिक चुनौतियाँ खड़ी हुई हैं, उसने तीसरी दुनिया के देशों पर उनके वर्चस्व को भी
कमजोर किया है। अभी उसके राजनीतिक परिणाम आने शेष हैं लेकिन संस्कृति के क्षेत्रा
में अमरीकीकरण की प्रक्रिया को अवश्य धक्का लगा है। सिनेमा में इसकी अभिव्यक्ति
ठोस रूप में नहीं हुई है। फिर भी, पिछले एक दशकों में हिन्दी में ऐसी बहुत-सी फिल्में
बनी हैं जो भूमण्डलीकरण के दौर के राजनीतिक-आर्थिक और सांस्कृतिक अवधारणाओं
को कुछ हद तक चुनौती देती नज़र आती हैं। ‘लगान’, ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’, ‘स्वदेस’,
‘लगे रहो मुन्नाभाई’, ‘थ्री इडियट्स’, ‘तारे ज़मीन पर’, ‘काॅरपोरेट’ (2006), ‘रंग दे बसन्ती’
(2006), ‘मुम्बई मेरी जान’ (2008), ‘दिल्ली-6’ (2009), ‘पीपली लाइव’ (2010),
‘फि़ल्मीस्तान’(2012), ‘जाॅली एल एल बी’ (2013),‘क़्वीन’ (2014) आदि फिल्मों का
उल्लेख किया जा सकता है।
इस दौर की हिन्दी फि़ल्मों की मुख्य प्रवृत्तियों पर विचार करने पर भूमण्डलीय
यथार्थ के प्रति हिन्दी सिनेमा के रुख को काफी हद तक समझा जा सकता है। इस दौर
में बनने वाली फि़ल्मों में दिखाई देने वाली मुख्य प्रवृत्ति का सम्बन्ध भारतीय पूँजीपति
वर्ग की वैश्विक महत्त्वाकांक्षाओं से है। इस दौर में ऐसी बहुत-सी फिल्मे  बनी हैं जिनमें
भारतीय उद्योगपति का व्यापार अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया, एशिया और अफ्रीका तक
में फैला है। कुछ ऐसे हैं जिन्होंने भारत से लेकर अमेरिका तक में अपना व्यवसाय फैला
रखा है, तो कुछ ऐसे हैं जो पूरी तरह से अनिवासी भारतीय बन चुके हैं। ‘दिलवाले दुल्हनियाँ
ले जाएँगे’, ‘परदेस’, ‘कभी खुशी कभी गम’(2001), से शुरू होने वाली विश्व विजय की
यह कहानी ‘नमस्ते लन्दन’ (2007), ‘जानेमन’ (2012), ‘युवराज’ (2008), तक अबाध
रूप से चली आ रही है। इन सभी फि़ल्मों का भारत से रिश्ता यही है कि इन फिल्मों
के नायक और नायिकाओं के लिए वर और वधू की तलाश भारत में की जाती है या
भारतीय मूल के युवाओं को तलाशा जाता है, ताकि विदेश में रहकर भी कथित भारतीय
संस्कृति की रक्षा की जा सके। इस दृष्टि से एक ओर इन उद्योगपतियों में यदि व्यावसायिक
स्तर पर महत्त्वाकांक्षा वैश्विक नज़र आती है, तो दूसरी ओर, अपनी सांस्कृतिक पहचान
के खो जाने का डर भी नज़र आता है। शायद इसी अन्तद्र्वन्द्व के जरिए ही वे देश-विदेश
में रहने वाले भारतीय दर्शकों को फि़ल्म देखने के लिए प्रेरित कर पाते हैं।
इस तरह की पहली फि़ल्म ‘दिलवाले दुल्हनियाँ ले जायेंगे’ है जो विदेश में रह रहे
अनिवासी भारतीयों को लेकर बनायी गयी है और इसमें उनके जीवन और रहन-सहन
को इस तरह पेश किया गया है कि उनके भारतीय होने के प्रति किसी तरह का शक
न किया जा सके। लन्दन में डिपार्टमेंट स्टोर का मालिक अमरीश पुरी लन्दन में भी अपने
पूरे भारतीयपन और पंजाबीपन के साथ रह रहा है। घर का रहन-सहन और जीवन-मूल्य
सभी कुछ ठेठ भारतीय है। वह बहुत शिक्षित भी नहीं प्रतीत होता। यही स्थिति शाहरुख
खान और उसके पिता की है। फि़ल्म में एक प्रसंग है, जहाँ शाहरुख खान अपने पिता
को यह समाचार देता है कि वह परीक्षा में फेल हो गया है। उसका पिता इस बात से
जरा भी दुःखी नहीं होता, बल्कि इस बात पर गर्व करता है कि वह स्वयं भारत में फेल

हुआ था जबकि उसका बेटा लन्दन में फेल हुआ है, जाहिर है, यहाँ भारतीयता के साथ-साथ
दर्शकों को यह सन्देश दिया जा रहा है कि विदेश में कामयाब होने के लिए अँग्रेजी और
उच्च शिक्षा की जरूरत नहीं है। इससे मध्यवर्ग के मनोजगत में बैठी अमीर बनने की
लालसा को मजबूती मिलती है।
यहाँ भारतीयता का अर्थ है पितृसत्तात्मक सवर्णवादी जीवन-मूल्यों पर आधारित
जीवन-पद्धति। इस भारतीयता के अनुसार लड़के-लड़की का विवाह उनके माता-पिता तय
करते हैं और लड़की को जिस लड़के के साथ बाँध देते हैं, उसी के साथ वह बिना किसी
ननुनच के सारी जिन्दगी गुजार लेती है। यहाँ घर में माता-पिता की, खासतौर पर पिता
की आज्ञाओं को शिरोधार्य करना बच्चों का कर्तव्य माना जाता है। यानी ऐसा परिवार
जहाँ पिता घर का मुखिया है और स्त्रिायों को चाहे वह बीबी हो या बेटी, उसकी आज्ञा
का पालन करना होता है। ‘दिलवाले दुल्हनियाँ ले जायेंगे’ की कहानी ऐसे ही अनिवासी
भारतीय परिवार की कहानी है। इस तरह की फि़ल्मों का दूसरा सन्देश यह है कि विदेश
में बसने वाले भारतीय इस इंडिया नाम के देश से उतना ही प्यार करते हैं जितना भारत
में बसा हुआ भारतीय करता है। यही नहीं, बाहर बसे हुए भारतीय मूल के लोगों में यहाँ
की धरती और यहाँ की संस्कृति, दोनों से गहरा लगाव भी है। ‘आइ लव माइ इंडिया’
का तराना उनकी इस तथाकथित देश-भक्ति का प्रमाण है। कुल मिलाकर हिन्दी फिल्में
यह विश्वास दिलाने का प्रयास करती हैं कि अनिवासी भारतीय भी भारतीय हैं और देशभक्त
भी। जाहिर है, यह देशभक्ति उस डाॅलर की उम्मीद में प्रदर्शित की जा रही है जिससे
भारतीय पूँजीवाद को प्राणशक्ति मिले। लेकिन साथ ही ये फि़ल्में भारतीय दर्शकों में यह
भरोसा भी पैदा करना चाहती हैं कि पश्चिम के सांस्कृतिक हमले से डरने की जरूरत
नहीं है, क्योंकि डाॅलर में चाहे कितना भी बल क्यों न हो, सांस्कृतिक दृष्टि से तो इंडिया
से महान कोई नहीं है। यह एक तरह से मध्यवर्ग की हिपोक्रेसी है जो अमरीका और
यूरोप में बसना भी चाहता है और अपने को उनसे उच्च मानने का भ्रम भी बनाये रखना
चाहता है। ये फि़ल्में मध्यवर्ग के इसी दोगलेपन को औचित्य प्रदान करती हैं।
यदि भारतीय उद्योगपति महत्त्वाकांक्षाओं के घोड़े पर सवार होकर पूरी दुनिया में
फैल रहे हैं, तो शिक्षित मध्यवर्ग भी उससे पीछे नहीं है। यही कारण है कि इसी दौर
में विदेशों में रहने वाले शिक्षित मध्यवर्ग को लेकर भी उतनी ही बड़ी संख्या में फि़ल्में
बनी हैं। ‘दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे’, ‘कल हो न हो’, ‘आ अब लौट चलें’, ‘हम-तुम’,
‘सलाम नमस्ते’, ‘तर-रम-पम’, ‘दोस्ताना’, ‘न्यूयार्क’, ‘माइ नेम इज खान’, ‘अनजाना
अनजानी’ आदि फिल्मों का उल्लेख किया जा सकता है। इन फिल्मों में सत्तर के दशक
का वह ग्लानि भाव नहीं है जो ‘पूरब और पश्चिम’ जैसी फिल्मों में नज़र आता था।
स्पष्ट ही ये दूसरी तरह की फिल्में मध्यवर्ग की महत्त्वाकांक्षा का ही प्रतिबिम्ब हैं जो विकसित
विश्व में बसना चाहता है और विदेश जाने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ना चाहता।
सफलता और समृद्धि हासिल करने की मध्यवर्गीय मनोवृत्ति सिर्फ विदेश जाने के
रूप में ही व्यक्त नहीं हुई है। यह ऐसी फिल्मों के माध्यम से भी व्यक्त हुई है जहाँ कहानी
तो भारत में ही चलती है लेकिन जो सफलता के उन्मुक्त आकाश में उतने ही ऊँचे उड़ना
चाहते हैं। भूमण्डलीकरण के इस पूरे दौर में सफलता एक बड़ा मूल्य है। कामयाबी को
हासिल करने की दौड़ में मध्यवर्ग और निम्न-मध्यवर्ग के वे लोग जो छोटे शहरों, कस्बों
आदि में रह रहे हैं उनमें भी आगे बढ़ने और सफलता हासिल करने की जबर्दस्त होड़
लगी दिखाई देती है। निश्चय ही इसमें कुछ भी बुरा नहीं है। लेकिन सफलता को मानव-मूल्यों
से भी बढ़कर मानने की प्रवृत्ति को इस दौर की फि़ल्मों में एक ऐसे लक्ष्य की तरह पेश
किया गया है जिसमें कुछ भी अनैतिक नहीं है। लगभग एक दशक पहले बनी फि़ल्म
‘ताल’ में आर्थिक उदारीकरण और उपभोक्ता संस्कृति के गहरे प्रभाव को देखा जा सकता
है। इस फि़ल्म के दो मुख्य पात्रा उद्योगपति मेहता अमरीश पुरी और संगीतकार विक्रांत
(अनिल कपूर) ऐसे चरित्रा हैं जिनके लिए सफलता ही सबसे बड़ा मूल्य है। मेहता हिमाचल
की वादियों में अपना उद्योग स्थापित करने के लिए संगीत के अध्यापक और लोक गायक
तारा बाबू आलोकनाथ का इस्तेमाल करता है, क्योंकि इस संगीत अध्यापक की दोस्ती
राज्य के उद्योगमन्त्राी से है जिसकी अनुमति के बिना उद्योग स्थापित नहीं किया जा सकता।
यही उद्योगपति मेहता और उसका परिवार काम निकल जाने के बाद इस संगीत अध्यापक
को और उसके परिवार को आसानी से भूल ही नहीं जाता बल्कि उसे अपने घर से अपमानित
कर निकालने में भी संकोच नहीं करता। इसी तरह युवा संगीतकार विक्रान्त जो तारा
बाबू के ही गाये-बजाये गीतों को रिमिक्स करके बेचता है, उसे अपने इस कृत्य पर बिल्कुल
भी शर्मिंदगी नहीं है। क्योंकि सफलता के लिए दूसरों को सीढि़यों की तरह इस्तेमाल करना
इस दौर की पहचान है और हिन्दी फि़ल्में इसी सच्चाई को सामने लाती हैं। लेकिन उद्योगपति
मेहता और संगीतकार विक्रान्त को इस बात का एहसास है कि वह जो कर रहे हैं वह
सही नहीं है। कहीं-न-कहीं उनमें ग्लानि का भाव भी है।
‘फै़शन’ (2008) फि़ल्म की नायिका मेघना माथुर-प्रियंका चोपड़ा जब पहली बार
मुम्बई आती हैं और उससे पूछा जाता है कि वह क्या बनना चाहती है तो वह अपने
उत्तर में यह नहीं कहती कि वह माॅडल बनना चाहती है बल्कि कहती है कि वह सुपर
माॅडल बनना चाहती है। उत्तर भारत के एक छोटे-से लेकिन आधुनिक शहर चंडीगढ़ के
मध्यवित्तीय परिवार की इस लड़की की आकांक्षा दरअसल उस भूमण्डलीकरण का परिणाम
है जहाँ कामयाबी ही सबसे बड़ा मूल्य है क्योंकि इस कामयाबी के साथ पैसा और प्रतिष्ठा
दोनों जुड़े हैं। ग्लैमर की इस दुनिया में कामयाबी के जिस उच्च शिखर पर मेघना माथुर
पहुँचना चाहती है, वहाँ पहुँचने के लिए मेघना के पास न कोई हुनर है और न ही प्रतिभा।
यदि कुछ है तो स्त्राी की युवा देह जिसे फैशन की दुनिया ग्लैमराइज कर उन वस्त्रों और
सौन्दर्य प्रसाधनों को बेचने के लिए प्रदर्शित करती है जो अभिजन समाज के लिए ही
वरणीय है। फैशन की दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए, शीर्ष पर पहुँचने के लिए
और लगातार शीर्ष पर बने रहने के लिए उन्हें वे सब समझौते करने पड़ते हैं जिन्हें किसी
भी रूप में सम्मानजनक नहीं कहा जा सकता। लेकिन आगे बढ़ने की ललक में इन युवा
देहों को इस बात का एहसास ही नहीं होता कि वे एक स्त्राी के रूप में क्या खोती जा
रही हैं। इन युवा देहों का इस्तेमाल करने वाले लोग महज व्यापारी हैं। उन्हें इस बात
से कोई मतलब नहीं कि रैम्प पर चलने वाली लड़कियाँ मानव-यन्त्रा नहीं बल्कि सचमुच
की मानव हैं। वे यह भी भूल जाती हैं कि उनके जिस देह का प्रदर्शन करके जो लोग
अपना माल बेचना चाहते हैं, यदि उस माल को बेचने के लिए उन व्यापारियों को बेहतर
युवा देह मिलेगी तो वे उन्हें उसी तरह ठुकरा देंगे जैसे उनसे पहले की लड़कियों को ठुकरा
दिया गया था।
स्वतन्त्रा भारत में जो नया धनाढ्य वर्ग उभरा है और जिसकी आकांक्षा विश्व विजय
से कम नहीं है, सफलता और समृद्धि उसका मूलमन्त्रा है। सफलता हासिल करने के लिए
किसी भी तरह की तिकड़म, धोखाधड़ी और कानूनों को पैरों तले रौंदने को जरूरी और
जायज दोनों माना जाता है। इसे अमेरिका से लेकर इंडिया तक आसानी से देखा जा
सकता है। भारत में धीरुभाई अम्बानी इस सफलता के सर्वाधिक लोकप्रिय प्रतीक हंै और
हिन्दी सिनेमा इन्हें हमारे समय का महानायक बनाकर पेश कर रहा है। कहा जाता है
कि मणि रत्नम की फिल्म ‘गुरु’ इन्हीं धीरुभाई अम्बानी के जीवन पर आधारित है। ‘गुरु’
का नायक गुरुकान्त देसाई (अभिषेक बच्चन) उर्फ़ गुरुभाई तुर्की से जायज-नाजायज तरीकों
से इकट्ठा किये गये पैसों से हिन्दुस्तान लौटकर व्यवसाय शुरू करता है। व्यवसाय के
लिए कम पड़ने वाले पैसे वह ऐसी लड़की से विवाह कर हासिल करता है जो एक बार
घर से भाग चुकी है। गुरुकांत देसाई के लिए कुछ भी अनैतिक नहीं है, बस अधिक-से-अधिक
पैसा और अधिक-से-अधिक कामयाबी ही उसका लक्ष्य है। दरअसल, पैसा ही कामयाबी
है। कामयाबी के लिए किये जाने वाले उसके कार्यों को ही फि़ल्म में उसके संघर्षों के
रूप में पेश किया गया है। प्रतिद्वन्द्वी उद्योगपतियों को बदनाम करना, राजनेताओं और
सरकारी अधिकारियों को रिश्वत से या ब्लैकमेलिंग के जरिए अपने अनुकूल बनाना, फर्जी
आँकड़ों और झूठी सूचनाओं के द्वारा अपने पक्ष में माहौल बनाना, यहाँ तक कि प्रतिकूल
पत्राकारों पर हमले करवाना भी अनैतिकता में शामिल नहीं है। यही गुरुकान्त देसाई जनता
के पैसे के बल पर एक दिन हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा उद्योगपति बन जाता है। वह
बिना शर्म और संकोच के कहता है कि ”सफलता के बन्द दरवाजों को खोलने के लिए
चाँदी के जूते मारने पड़ते हैं और वही मैंने किया है।“ वह अपनी तुलना महात्मा गाँधी
से करता है। महात्मा गाँधी ने देश की आजादी के लिए कानून तोड़ा था और गुरुभाई
ने देश के विकास के लिए कानून तोड़ा। इस तरह वह अपनी सफलता को देश की सफलता
बनाकर पेश करता है। आज विकास के नाम पर 2002 के गुजरात नरसंहार के महानायक
नरेन्द्र मोदी को लोगों ने प्रधानमंत्राी की कुर्सी पर बैठा दिया है, उसके पीछे इसी तरह
की प्रवृत्ति काम कर रही है। नरेन्द्र मोदी को कामयाब बनाने के लिए निगम घरानों ने
जो हजारों करोड़ बहाये हैं, उसकी वसूली वह इसी सरकार के द्वारा ही करेंगे जो इन
निगम घरानों के पक्ष में कानून को तोड़ेंगे, मरोड़ेंगे और उनकी मनचाही व्याख्या करेंगे।
इस दौर ने पैसा और पाॅवर को ही प्रतिष्ठा का पर्याय बना दिया है। ‘काॅरपोरेट’
(2006) भी इसी तरह की फिल्म है जहाँ सफलता के लिए कुछ भी किया जा सकता
है और किसी भी हद तक जाया जा सकता है। शीतल पेय बनाने वाली दो कम्पनियों
की प्रतिद्वन्द्विता न केवल प्रदूषित पेय को बाजार में बेचने को प्रेरित करती है बल्कि पकड़े
जाने पर अपना अपराध अपने यहाँ काम करने वाले मातहत पर डालने में भी किसी तरह
का संकोच नहीं किया जाता। यहाँ तक कि जब अपने ही परिवार के एक सदस्य के
द्वारा अपराध का भंडाफोड़ होने का भय पैदा होता है तो उसको जान से मरवाने में भी
संकोच नहीं किया जाता। उद्देश्य चाहे जो रहा हो लेकिन ‘गुरु’ हो या ‘काॅरपोरेट’ वे इस
सच्चाई को बहुत तीखे तौर पर सामने लाती है कि निगम पूँजीवाद का चरित्रा दरअसल
आपराधिक है जिस पर ‘विकास’ का सुनहरा पर्दा डाल दिया गया है। इस अपराध में
ये पूँजीपति अकेले नहीं हैं। पूरी व्यवस्था इनके साथ है। गुरुकांत देसाई हो या विनय
सहगल इनकी सफलता का कारण इनकी प्रतिभा नहीं बल्कि वह भ्रष्ट व्यवस्था है जहाँ
राजनीतिज्ञ और नौकरशाह बिकने के लिए तैयार रहते हैं। फि़ल्मों में व्यक्त यह यथार्थ
वही है जिसे हम टू जी स्पेक्ट्रम, आदर्श हाउसिंग घोटाला, काॅमनवेल्थ गेम्स घोटाला आदि
उन दसियों घोटालों में देख सकते हैं जहाँ देशी-विदेशी उद्योगपतियों, राजनीतिज्ञों और
नौकरशाहों का नापाक गठजोड़ देश की संपदा को लूटने में लगे दिखायी देते हैं।
एक ऐसे समय में जब समृद्धि सफलता का पर्याय हो वहाँ मध्यवर्ग के युवाओं
के लिए इस सफलता को हासिल करना ही लक्ष्य बन जाता है। उनके लिए इस बात
का कोई खास अर्थ नहीं रह जाता कि उन्होंने यह या वह रास्ता क्यों अपनाया है। ‘फैशन’
की मेघना माथुर हो या ‘काॅरपोरेट’ की निशिगन्धा (विपाषा बसु) दोनों के लिए कामयाबी
के रास्ते पूँजी की उस दुनिया में खुलते हैं जिसकी सेवा कर वे भी उस शिखर पर पहुँचने
का स्वप्न देखने लगते हैं जिस शिखर पर ‘ताल’ का उद्योगपति मेहता, ‘गुरु’ का गुरुकान्त
देसाई (अभिषेक बच्चन), ‘काॅरपोरेट’ का विनय सहगल और ‘फैशन’ का अभिजीत
सरीन-अरबाज़ खान जैसे व्यापारी बैठे हैं जिनके लिए आदमी की कीमत यही है कि मुनाफा
बढ़ाने में वे किस तरह और कब तक मददगार हो सकते हैं। इस बात को नहीं समझ
पाने के कारण ही मध्यवर्गीय युवा पद, पैसा और प्रशंसा के उस झाँसे में आ जाते हैं
जो ये व्यापारी अपना काम निकालने के लिए उन्हें देते हैं। मेघना माथुर को बड़ी गाड़ी
मिलती है, फ्लैट मिलता है और इतना पैसा कि जिसके बारे में उसने सपने में भी नहीं
सोचा था। कमोबेश निशिगन्धा को भी यही सब कुछ हासिल होता है। लेकिन एक दिन
आँखों के नीचे बढ़ती कालिमा के साथ मेघना अपने शहर लौट आती है और निशिगन्धा
जेल पहुँच जाती है।
इस दौर की एक अन्य प्रमुख प्रवृत्ति अपराध फि़ल्मों की है। इस दौर की फि़ल्मों में
अपराध अन्य व्यवसायों की तरह एक व्यवसाय है जिसके अपने जोखिम और अपने लाभ
हैं। ‘सत्या’ (1998), ‘कम्पनी’ (2002) से लेकर ‘ओंकारा’ (2006), ‘बंटी और बबली’(2005)
और ‘ओए लक्की ओए’(2008) तक ऐसी बहुत-सी फिल्मों के उदाहरण पेश किये जा सकते
हैं जहाँ अपराध एक व्यवसाय है और अपराधी एक व्यवसायी। रामगोपाल वर्मा निर्देशित
‘सत्या’ एक कामयाब फि़ल्म है जिसमें अपराध की दुनिया के लोगों की अन्दरूनी दुनिया
पेश की गयी है। इस फि़ल्म का नायक सत्या (चक्रवर्ती) गाँव से मुम्बई जैसे महानगर में
काम की तलाश में आता है, जैसे हजारों लोग आते हैं। सत्या गुंडों के साथ लड़ाई झगड़े
में जेल पहुँच जाता है और वहाँ उसकी मुलाकात होती है, भीखू म्हात्रो (मनोज वाजपेयी)
से जिसका मुम्बई में सक्रिय अंडरवल्र्ड से गहरा रिश्ता है। सत्या उसके गिरोह में शामिल
हो जाता है।
 भीखू म्हात्रो किसी बड़े अपराधी गिरोह का नेता नहीं है, बल्कि मुंबई के
अलग-अलग इलाकों में सक्रिय कई गिरोहों में से एक का प्रमुख है। ये सभी गिरोह पुलिस
से बचने के लिए कम-से-कम कानूनी अड़चनों का सामना किये काम करने के लिए इस
या उस राजनीतिक नेता का संरक्षण प्राप्त करते हैं। ये नेता अपने काले कामों के लिए और
चुनावों में जीत हासिल करने के लिए इन अपराधी गिरोहों का इस्तेमाल करते हैं। इस प्रकार
राजनेताओं और अपराधियों की गहरी साँठ-गाँठ है जो साफ नज़र आती है। इन गिरोहों
में लगभग वैसी ही प्रतिद्वन्द्विता है, जैसी आमतौर पर एक ही तरह के व्यवसाय में सक्रिय
लोगों में होती है। यह प्रतिद्वन्द्विता अपराधी गिरोहों में है इसलिए उनकी आपसी दुश्मनी
खूनी मुठभेड़ों में सामने आती है। ऐसी ही प्रतिद्वन्द्विता रामगोपाल वर्मा की ही फि़ल्म ‘कम्पनी’
में भी दिखायी गयी है। ‘कम्पनी’ में माफिया डाॅन मल्लिकµअजय देवगन से रानी बाईµ
सीमा विश्वास नाम की निम्न-मध्यवर्गीय स्त्राी अपने बेटे चन्द्रकान्त उर्फ चन्दु-विवेक आॅबराय
की चिरौरी लगभग उसी तरह करती है जिस तरह कोई माँ अपने बेटे की नौकरी के लिए
उसके मालिक से करती होगी। यह चन्द्रकान्त मल्लिक के गिरोह में शामिल हो जाता है और
बाद में इतना ताकतवर बन जाता है कि खुद अपना गिरोह बना लेता है।
इस दौर में महत्त्वाकांक्षाओं का शिकार युवा-वर्ग भी हो रहा है। ऐसे युवाओं की
संख्या उन युवाओं से बहुत ज्यादा है जिनको शिक्षा, पारिवारिक सम्पत्ति और किसी तरह
के कौशल के अभाव में समाज और कानून द्वारा मान्य रास्तों पर आगे बढ़ने के अवसर
नहीं मिले हैं। उनके लिए महत्त्वाकांक्षाओं को पूरे करने के आपराधिक रास्ते ही बचे
हैं और हिन्दी सिनेमा में ऐसे युवाओं को केन्द्र में रखकर भी बहुत-सी फिल्में बनी हैं।
ऐसे युवाओं का बाहुबल ठीक उसी तरह इस्तेमाल किया जा सकता है जिस तरह स्त्राी
की युवा देह।
‘ओंकारा’ (2006) के ओमी-अजय देवगन, ईश्वर उर्फ लँगड़ा त्यागी-सैफ अली खान
और केशव उपाध्याय उर्फ केसु फिरंगी-विवेक आॅबराय के इसी बाहुबल का इस्तेमाल वे
राजनीतिज्ञ करते हैं जिनके लिए सत्ता हासिल करने का रास्ता अपराध की दुनिया से होकर
गुजरता है। ‘ओंकारा’ के तिवारी उर्फ भाईसाहब-नसीरुद्दीन शाह इसी तरह के राजनीतिज्ञ
हैं। वे चुनाव जीतने के लिए ओंकारा, लँगड़ा त्यागी और केसु फिरंगी जैसे युवाओं के
बाहुबल का इस्तेमाल करते हैं। जाति और धर्म के नाम पर वे ऐसे युवाओं को अपने
साथ लाने में कामयाब हो जाते हैं जिनके सामने भविष्य का ऐसा कोई सपना नहीं है
जिसे स्वस्थ और सार्थक कहा जा सके। एक ऐसी दुनिया में जहाँ गुरुकान्त देसाई की
तुलना गाँधी से की जाती हो, वहाँ युवाओं का अपराध और आतंक की दुनिया की तरफ
बढ़ना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह महज संयोग नहीं है कि ‘रेस’ जैसी फि़ल्में
कामयाब होती हैं जिसमें कोई भी पात्रा सद्चरित्रा नहीं है। सम्पत्ति को हड़पने के लिए
भाइयों के बीच एक-दूसरे को मारने की कोशिशों पर आधारित इस फि़ल्म में स्त्राी-चरित्रा
भी कमोबेश वैसे ही हैं। रामगोपाल वर्मा, अब्बास-मस्तान, संजय गुप्ता, विशाल भारद्वाज
और इन्हीं की तरह के ऐसे कई निर्माता-निर्देशक हैं जो अपराध और हिंसा को ग्लोरिफाई
करने वाली फिल्मों के द्वारा ही सफलता की सीढि़याँ चढ़ते रहे हैं। माफिया डाॅन, आतंकवादी
और एनकाउंटर विशेषज्ञ पुलिस वालों को नायकत्व प्रदान करने वाली फिल्मों ने खास
लोकप्रियता हासिल की है।
चारों ओर हिंसा का जो माहौल बना है और जिसकी अभिव्यक्ति हम हिन्दी फि़ल्मों
में देखते हैं, उसके दावानल में स्त्रिायाँ सबसे पहले झुलसती हैं। ‘दामिनी’(1993) की घरेलू
नौकरानी का सामूहिक बलात्कार किया जाता है और उसके पक्ष में आवाज उठाने वाली
निम्न-मध्यवर्ग की नायिका दामिनी (मीनाक्षी शेशाद्री) को पागल करार देकर पागलखाने
भेज दिया जाता है। पुरुष सत्ता से टक्कर लेने का साहस दिखाने वाली ‘गाॅड मदर’ (1999)
की नायिका (शबाना आज़मी) को गोली से उड़ा दिया जाता है। ‘लज्जा’ (2001) की
स्त्रिायाँ भी पुरुषों की इसी हिंसक वृत्ति का शिकार बनती हैं। नारी के हिंसक शोषण की
दहला देने वाली कहानी ‘चाँदनी बार’ (2001) में कही गयी है। इसकी नायिका मुमताज
(तब्बू) के माता-पिता साम्प्रदायिक दावानल की भेंट चढ़ जाते हैं। मामा के साथ काम
की तलाश में मुम्बई पहुँचने पर वहाँ उसे बार में नाचने का काम मिलता है। मामा ही
उसकी इज्जत लूट लेता है। पति के रूप में उसे एक खूनी गुंडा मिलता है जिसे एक
दिन पुलिस एनकाउंटर के नाम पर मार डालती है। इज्जतदार काम न मिलने पर उसी
बार में पहले डांसर और बाद में वेट्रेस का काम करते हुए अपने दोनों बच्चों को बड़ा
करती है। लेकिन अतीत उसका पीछा नहीं छोड़ता। किसी सेठ के अपहरण के सिलसिले
में पुलिस उसके किशोर बेटे अभय को जेल में बन्द कर देती है जिसे छुड़ाने के लिए
उसे अपनी इज्जत बेचनी पड़ती है और जवानी में कदम रखती बेटी पायल भी बार में
गाने के लिए मजबूर होती है। बेटा छूट के आता है, लेकिन जेल की भयावह स्मृतियाँ
लेकर जिसका अन्त उसके खूनी बनने से होता है।
भूमण्डलीकरण की उपज आतंकवाद भी है। आतंकवाद को विश्वव्यापी और
खतरनाक बनाने में यदि अमरीका की नवसाम्राज्यवादी नीतियाँ जिम्मेदार हैं, तो उस
प्रौद्योगिकी का भी हाथ है जो नवीनतम हथियारों और संचार प्रौद्योगिकी के रूप में सामने
आये हैं। इस दौर में आतंकवाद को केन्द्र में रखकर लगातार फिल्में बनती रही हैं। भारत
में आतंकवाद कई रूपों में सक्रिय है। लेकिन हिन्दी सिनेमा आमतौर पर कथित रूप से
जिहादी या इस्लामी आतंकवाद को ही विषय बनाता रहा है। आतंकवाद यदि एक ओर
देशभक्ति की भावनाओं को भुनाने का जरिया बनता है, तो दूसरी ओर, यह फिल्मों के
लिए एक बहुत ही उत्तेजनापूर्ण और रोमांचकारी विषयवस्तु भी प्रदान करता है। इस तरह
की अधिकतर फिल्में हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करते हुए भी दर्शकों के इस राजनीतिक
दुराग्रह को मजबूत करती हैं कि ”सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते लेकिन सभी
आतंकवादी मुसलमान होते हैं।“ जबकि अब हिन्दूत्वपरस्त आतंकवाद भी अपने खूँखार
रूप में सामने आ चुका है। यहाँ यह नहीं भुलना चाहिए कि गुजरात में मुसलमानों का
नरसंहार और बाबरी मस्जिद का विध्वंस, उड़ीसा, कर्नाटक आदि में ईसाइयों पर हमले
भी आतंकवाद ही हैं। आतंकवाद पर बनने वाली फि़ल्में किस तरह का खतरनाक राष्ट्रवाद
पैदा कर रही हैं इसे ‘ए वेडनेस्डे’ (2008) फि़ल्म के माध्यम से समझा जा सकता है।
‘ए वेडनेस्डे’ जैसी फि़ल्में आतंकवाद से लड़ने के नाम पर आम आदमी की आड  में
हिन्दुत्वपरस्त फासिस्ट विचारधारा के प्रभाव में बनायी गयी फिल्म है जो न सिर्फ उग्र
राष्ट्रवाद को बढ़ावा देती है बल्कि सवर्ण मानसिकता को भी पुष्ट करती है। आतंकवाद
से लड़ने के नाम पर यह हिन्दुत्व की ताकतों के ‘प्रतिशोधी आतंकवाद’ के पक्ष में जनसमर्थन
जुटाने का काम भी करती है। मध्यवर्ग इस विचारधारा की गिरफ्त में आ चुका है, इसे
26/11 को मुम्बई में हुए आतंकवादी हमले के सन्दर्भ में समझा जा सकता है।
26 नवम्बर, 2008 को मुम्बई में आतंकवादी हमले से पहले 11 जुलाई, 2006
को मुम्बई की लोकल ट्रेनों पर भी आतंकवादी हमला हुआ था जिसको केन्द्र में रखकर
‘मुम्बई मेरी जान’ (2008) फि़ल्म बनायी गयी थी। यह फि़ल्म आतंकवाद को सीधे तौर
पर विषय नहीं बनाती बल्कि आतंकवादी हादसे के बाद आम आदमी पर पड़ने वाले प्रभावों
को अपना विषय बनाती है। इस दृष्टि से यह फि़ल्म वास्तव में आम आदमी को केन्द्र
में रखकर बनायी गयी है। यह फि़ल्म कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इस फि़ल्म के केन्द्र
में न कोई आतंकवादी है और न आतंकवादियों से बदला लेता कोई कथित आम आदमी।
इस फि़ल्म के केन्द्र में न वह मुम्बई है जिसकी पहचान ताज होटल, बाल ठाकरे, मुकेश
अम्बानी और अमिताभ बच्चन हैं। यह वह मुम्बई है जिसका एक रूप फि़ल्म ‘ब्लैक फ्राइडे’
(2004) और ‘आमिर’ (2008) में दिखायी देता है। लेकिन इस फि़ल्म में मुम्बई के अन्य
रूप भी हैं जिनका सम्बन्ध उस मध्यवर्ग से है जो सँकरी गलियों और चालों में नहीं रहता,
लेकिन जो लोकल ट्रेनों में सफ़र करता है और ऐसी आतंकवादी घटनाओं का शिकार
होने के लिए अभिशप्त है। इस मुम्बई का चेहरा आजादी के बाद से निरन्तर बदलता
रहा है। आजादी के बाद के तीन दशकों तक मुम्बई हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे का शहर बना
रहा। लेकिन जैसे-जैसे इस शहर से मजदूर आन्दोलनों का खात्मा होने लगा, वैसे-वैसे यह
शहर भी साम्प्रदायिक और क्षेत्राीयतावादी पार्टियों, तस्करों और माफिया गिरोहों के चंगुल
में फँसता चला गया। ऐसे शहर को यदि साम्प्रदायिकता और आतंकवाद का निशाना
बनाया जाता है, तो इसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं है।
आतंकवाद की तरह साम्प्रदायिकता भी एक ऐसा मुद्दा है जिसे अब आतंकवाद
के बरक्स ही रखकर देखा जा सकता है। यह महज संयोग नहीं है कि आर्थिक उदारीकरण
की नीतियों को अपनाने के साथ भारत की प्रमुख राजनीतिक पार्टी काँग्रेस जो धर्मनिरपेक्ष
होने का दावा करती है, साम्प्रदायिकता के मामले में अवसरवादी रवैया अपनाने लगती
है। पहले शाहबानो मामले में वह मुस्लिम समुदाय के प्रतिगामी हिस्सों को तुष्ट करने
की कोशिश करती है और बाद में कथित रामजन्मभूमि का ताला खुलवाकर हिन्दू
साम्प्रदायिकों की तुष्टि का प्रयास करती है। काँग्रेस के राज में ही दिसंबर, 1992 में बाबरी
मस्जिद का विध्वंस भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार के दूसरे संगठनों के कार्यकर्ताओं
द्वारा किया जाता है और काँग्रेस इसे रोकने में पूरी तरह नाकामयाब रहती है। पिछले
दो दशकों में भारत में साम्प्रदायिक दंगों के चरित्रा में बदलाव आया है। अब दोनों सम्प्रदायों
के बीच दंगे नहीं होते बल्कि अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों पर हमले होते हैं। इस सिलसिले
की शुरुआत बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हुए दंगों में देखी जा सकती है। मुम्बई में
मुस्लिम समुदाय पर हिन्दू साम्प्रदायिक तत्त्वों ने हिंसक हमले किये थे। ‘ज़ख्म’ (1998)

और ‘बोम्बे’ (1995) इन्हीं दंगों से प्रेरित फि़ल्में हैं। उसी की प्रतिक्रिया में बाद में मुम्बई
में आतंकवादी हमले किये गये थे, जिस पर ‘ब्लैक फ्राइडे’ आधारित है। इसी तरह गुजरात
की 2002 की घटनाओं ने कुछ फि़ल्मकारों को प्रेरित किया कि वे अपनी फि़ल्मों के माध्यम
से साम्प्रदायिकता के सवाल को राज्य और पुलिस की भूमिका के सन्दर्भ में जाँच कर
देखें। इस दृष्टि से राजकुमार सन्तोषी की ‘खाकी’ (2004) और गोविन्द निहलानी की
‘देव’ (2004) उल्लेखनीय है। ‘खाकी’ में आतंकवाद के नाम पर किस तरह निर्दोष मुसलमानों
को फंसाया जाता है, इसको फि़ल्म का विषय बनाया गया है जबकि ‘देव’ गुजरात में
बेस्ट बेकरी के नरसंहार से प्रेरित है जिसकी एक चश्मदीद गवाह जाहिरा शेख से प्रेरणा
लेकर प्रमुख स्त्राी चरित्रा आलिया (करीना कपूर) को निर्मित किया गया है। गुजरात दंगों
की सच्चाई को राहुल ढोलकिया की अँग्रेजी फि़ल्म ‘परज़ानिया’ (2007) बहुत ही प्रभावशाली
ढंग से पेश करती है। यह फि़ल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है। ‘परज़ानिया’ की
तरह प्रख्यात अभिनेत्राी नन्दिता दास के निर्देशन में बनी फि़ल्म ‘फि़राक’ (2008) का सम्बन्ध
भी गुजरात दंगों से है। ‘फि़राक़’ गुजरात दंगों के एक महीने बाद के हालात से जुड़ी
कहानियाँ कहती हैं। ‘फि़राक़’ दंगों की कहानी नहीं है। लेकिन दंगों की आग से बची
उस गर्म राख की कहानी है, जिसके नीचे नफ़रत के शोले भड़क रहे हैं। चार अलग-अलग
कहानियों के माध्यम से अपनी बात कहती हुई फि़ल्मकार का मकसद नफ़रत के सैलाब
के बाद बची-खुची और बिखरी इन्सानियत को समेटना है।
इस दौर की सिनेमा में मेहनतकश वर्ग का प्रतिनिधित्व लगभग खत्म हो गया
है। गरीब, मजलूम, दलित, आदिवासी, असहाय लोगों की कहानियाँ फि़ल्मों से लगभग
खत्म हो गयी हैं। अब 1950-60 के दशकों में बनी ‘धरती के लाल’‘दो बीघा ज़मीन’,
‘बूट पालिश’, ‘जागते रहो’, ‘प्यासा’, ‘दो आँखें बारह हाथ’, ‘फुटपाथ’, ‘दोस्ती’, ‘मदर
इंडिया’, ‘सुजाता’, ‘पैगाम’, ‘अब दिल्ली दूर नहीं’, ‘श्री 420’, ‘हमलोग’, ‘दायरा’, ‘सीमा’,
‘पतिता’, ‘रोटी’, ‘साहब, बीबी और गुलाम’, ‘बन्दिनी’, ‘जागृति’, ‘काबुलीवाला’, ‘मुन्ना’,
‘शहर और सपना’ जैसी फि़ल्मों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसी तरह समानान्तर
सिनेमा आन्दोलन के दौरान बनी ‘अंकुर’, ‘आक्रोश’, ‘भुवन शोम’, ‘सारा आकाश’, ‘अल्बर्ट
पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’, ‘पार’, ‘दामुल’, ‘निशान्त’, ‘मन्थन’, ‘भूमिका’, ‘दुविधा’,
‘सतह से उठता आदमी’, ‘उसकी रोटी’, ‘अर्धसत्य’, ‘सद्गति’, ‘तमस’, ‘समर’ जैसी
फि़ल्में भी अब नहीं बन रही हैं। किसान और मजदूर इन दो वर्गों को केन्द्र में रखकर
बहुत कम फि़ल्में बनी हैं। ‘लगान’, ‘स्वदेस’, ‘स्वराज: दि लिटिल रिपब्लिक’ (2002),
‘पिपली(लाइव)’ आदि कुछ फिल्में अपवादस्वरूप गिनायी जा सकती हैं, लेकिन अधिकतर
फिल्में मध्यवर्ग या अभिजात वर्ग पर ही केन्द्रित हैं। किसान और मजदूर इस दौर की
राजनीति और अर्थव्यवस्था के हाशिए पर हैं। उसी का स्वाभाविक प्रतिबिम्बन हमें हिन्दी
फि़ल्मों में भी दिखायी देता है। इस दृष्टि से जिन फि़ल्मों का उल्लेख किया गया है,
वे महत्त्वपूर्ण हैं। ‘स्वदेस’ में एक युवक के इर्द-गिर्द कहानी को बुना गया है जो अमरीकी
अन्तरिक्ष संस्था नासा में वैज्ञानिक है और जो अपनी दाई मां को साथ ले जाने के
लिए भारत आता है। वह दाई माँ एक गाँव में रहती है। इस तरह उसे भारत के एक

गाँव के यथार्थ को जानने का अवसर मिलता है। उसे वह गाँव बहुत पिछड़ा हुआ लगता
है। गाँव में जरूरत के अनुसार बिजली की आपूर्ति नहीं है, सड़कें अच्छी नहीं हैं, शिक्षा
का उचित प्रबन्ध नहीं है। इसके अलावा गाँव जाति और धर्म में भी बँटा हुआ है।
प्रगति की दौड़ में गाँव पिछड़ता जा रहा है। उनके पिछड़ेपन का समाधान फि़ल्मकार
विदेशों में जा बसे भारतीयों के लौट आने में ढूँढ़ता है। लेकिन इसी फि़ल्म में एक गरीब
परिवार का प्रसंग आता है जो कर्ज के बोझ तले दबा हुआ है। वह परिवार इस गरीबी
से मुक्ति के लिए जो प्रयत्न करता है, उसे गाँव वाले इसलिए स्वीकार नहीं करते क्योंकि
वह छोटी जाति का है।
‘स्वराज: ए लिटिल रिपब्लिक’ फि़ल्म में गाँव में पानी पहुँचाने के लिए संघर्ष करने
वाली चार दलित औरतों में से एक का पति बेरोजगार मजदूर है। वह जिस फैक्टरी में
काम करता था, वह बन्द हो चुकी है। ‘पीपली(लाइव)’ किसानों द्वारा की जा रही
आत्महत्याओं के माध्यम से वर्तमान व्यवस्था विशेष रूप से काॅरपोरेट मीडिया को व्यंग्य
का निशाना बनाती है। किस तरह अपने हालात से तंग आकर एक किसान इस उम्मीद
में आत्महत्या करने की सोचता है कि उसके बदले में उसके परिवार को एक लाख रुपये
सरकारी अनुदान के रूप में मिलेंगे और यह रुपया उनके परिवार को कर्ज से मुक्ति दिलाएगा।
यह इतिहास की विडम्बना ही कहा जायेगा कि जब देश औपनिवेशिक दासता से आक्रान्त
था, तब भी किसान कर्ज के बोझ तले दबा हुआ था और आज आजादी के बाद भी
वह कर्ज के बोझ से मुक्त नहीं हुआ है। हाँ, यह जरूर है कि कर्ज के बावजूद तब किसान
आत्महत्या नहीं करते थे लेकिन आज किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हैं।
इस फिल्म में प्रेमचन्द के ‘गोदान’ का सन्दर्भ कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। ‘गोदान’
का होरी भी कर्ज के बोझ से लदा है और मजबूर होकर उसे किसानी छोड़कर मजूरी
करनी पड़ती है। मजूरी करते हुए ही एक दिन वह मर जाता है। यहाँ भी होरी महतो
नामक एक किसान पात्रा है, जो पूरी फिल्म में गड्ढा खोदता और उसमें से मिट्टी निकालता
दिखायी देता है। एक दिन यह होरी महतो उसी गड्ढे में मरा पाया जाता है। ‘पीपली
(लाइव)’ का होरी भी एक किसान ही है, जिसकी कर्ज की वजह से जमीन नीलाम हो
जाती है और जो मिट्टी बेचकर जीवन-यापन करता है। इस फिल्म का नायक नत्था भी
गाँव से भागकर शहर में मजदूरी करने लगता है। यदि आजादी के साठ साल बाद भी
किसानों की वही दशा है, जो आजादी से पहले थी, तो विकास और समृद्धि की लंबी-चैड़ी
बातें करने का कोई अर्थ नहीं है। ‘पीपली (लाइव)’ सिर्फ किसानों के यथार्थ को ही नहीं
दिखाती, उससे कहीं भयावह उस नापाक गठजोड़ को दिखाती है जिसके कारण होरी जैसे
किसानों के बेमौत मरने के लिए मजबूर होना पड़ता है। प्रेमचन्द ने ‘गोदान’ में होरी के
शोषकों के एक गिरोह को पेश किया था, ‘पीपली लाइव’ में भी ऐसा ही एक गिरोह
है। उनके नाम और काम भले ही बदल गये हों, लेकिन एक मामूली किसान उनके लिए
आज भी दुधारू गाय की तरह है।
यह सही है कि फिल्मों में किसानों के जीवन की अभिव्यक्ति हाशिए पर ही रहती
है। लेकिन फि़ल्मकारों के लिए उनकी उपेक्षा करना मुमकिन नहीं होता। इसलिए थोड़े-थोड़े

अन्तराल के बाद ऐसी फिल्में बनती रहती हैं जिनमें किसानों के जीवन की समस्याएँ कई
रूपों में अभिव्यक्त होती हैं। ‘शंघाई’ (2012) और ‘मटरू की बिजली का मटोला’ (2013)
विशेष आर्थिक ज़ोन बनाने के नाम पर किसानों की ज़मीन छीने जाने को विषय बनाती
हैं और इन फि़ल्मों में किसान आन्दोलनों को कुचलने की कोशिश को भी कथानक में
शामिल किया गया है। ‘चक्रव्यूह’ (2012) में आदिवासियों के जमीन और जंगल छीने
जाने को कहानी का विषय बनाया गया है। लेकिन इसे माओवादी आन्दोलन के साथ
जोड़कर पेश किया गया है। ‘जौली एलएलबी’ (2013) में कहानी के केन्द्र में दिल्ली है
जहाँ एक अमीर युवा की गाड़ी से फुटपाथ पर सोने वाले छह लोग कुचलकर मर जाते
हैं। यह फि़ल्म प्रसिद्ध बीएमडब्ल्यू कांड से प्रेरित है। यह छह लोग गाँवों के गरीब हैं
जो दिल्ली शहर में काम की तलाश में आये हैं और जिनके लिए इस बड़े शहर में रात
गुजारने के लिए भी कोई महफ़ूज जगह नहीं है। अमीर लोग किस तरह न्याय-व्यवस्था
का इस्तेमाल करते हैं, किस तरह गवाहों को खरीदा जाता है, पुलिस का इस्तेमाल
डराने-धमकाने के लिए किया जाता है और यहाँ तक कि आरोपी पक्ष के वकील भी चन्द
पैसे के लिए बिकने को तैयार हो जाते हैं, यही इस फि़ल्म की कहानी है।
‘शंघाई’ फिल्म का शंघाई या चीन से कोई सम्बन्ध नहीं है। दरअसल, यह उस
राजनीतिक मुहिम का नाम है जो भारत के महानगरों को भी शंघाई की तरह ऐसे आधुनिकतम
शहर का रूप देना चाहता है, जहाँ की भव्यता गगनचुम्बी इमारतों, सर्पीले फ्लाईओवरों,
लक्ज़री कारों, महँगे सामानों से भरे माॅलों से पहचानी जाती है। लेकिन ऐसे विशाल शहरों
को बनाने के लिए ज़मीन की जरूरत होती है और वह ज़मीन किसानों से ही मिल सकती
है। वह जमीन जो किसानों के लिए उनके जीवन-यापन का मुख्य साधन है। विशेष आर्थिक
ज़ोन की पूरी संकल्पना निगम पूँजीवाद की देन है, जो किसानों की ज़मीनों पर अमीर
और उच्च मध्यवर्गीय लोगों के लिए आलीशान घरों, फ्लैटों, दफ्तरों, मालों, मनोरंजन गृहों
का निर्माण करती है और इस तरह भारत जैसे गरीब देश के करोड़ों लोगों से उनकी
रोजी-रोटी छीनकर और मामूली मुआवजा देकर उनकी जमीन छीन लेती है। इस मुहिम
का विरोध करने वालों को प्रगति और विकास का विरोधी करार दिया जाता है। किसान
इस लड़ाई में लगभग अकेले हैं। इक्का-दुक्का वामपन्थी राजनीतिक दलों और स्वयंसेवी
संगठनों के अलावा, उनका साथ देने के लिए कोई आगे नहीं आता। मध्यवर्ग का एक
बड़ा हिस्सा निगम पूँजीवाद की इस मुहिम का समर्थक और सहयोगी बना हुआ है। निगम
पूँजी से संचालित मीडिया इसे अपनी ही मुहिम समझता है। इसके बावजूद इक्का-दुक्का
फिल्मों में ही सही, विशेष आर्थिक ज़ोन के नाम पर किसानों की ज़मीन छीने जाने को
आलोचनात्मक नज़रिए से देखा गया है। ‘ज़ी’ फिल्म से प्रेरित ‘शंघाई’ एक राजनीतिक
थ्रिलर है जिसमें किसानों के लिए संघर्ष करने वाले एक स्वयंसेवी संगठन के प्रमुख की
हत्या कर दी जाती है। इस हत्या के पीछे राज्य की मुख्यमंत्राी का हाथ है, जो विशेष
आर्थिक ज़ोन की अपनी मुहिम को किसी भी कीमत पर पूरा करना चाहती है। यह हत्या
इस उम्मीद से भी की जाती है, ताकि आन्दोलन को कुचला जा सके। ‘मटरू की बिजली
का मंडोला’ में भी विशेष आर्थिक ज़ोन को ही मुद्दा बनाया गया है। लेकिन यहाँ इसे

व्यंग्य के माध्यम से पेश किया गया है। ‘शंघाई’ में पूँजीवाद का घृणित चेहरा सामने
नहीं आता और भ्रष्ट मुख्यमन्त्राी की असलियत सामने लाने में नौकरशाही और मीडिया
दोनों जरिया बनते हैं जबकि ‘मटरू की बिजली का मंडोला’ में पूँजीपति, राजनीतिज्ञ और
भ्रष्ट नौकरशाहीµसभी का भ्रष्ट चेहरा सामने आता है। किस तरह ये सभी मिलकर किसानों
की ज़मीन छीन लेने का प्रयत्न करते हैं, यही इस फिल्म का विषय है। एक गाने के
माध्यम से ही सही फिल्म में एक बार फिर जमीन जोतने वालों का नारा बुलन्द किया
गया है, फिल्म हथौड़ा और दराँती की याद दिलाती है। ‘जिसकी खेती उसकी जमीं है/रे
बाबाजी की धौंस नहीं है’, ‘अब चले हथौड़ा और दराँती/हट लूटने वाले’ या ‘तेरी तानाशाही
नहीं चलने देंगे/रे अपना मोर्चा नहीं टलने देंगे’ जैसी पंक्तियाँ जन-आन्दोलन के उन पुराने
दिनों की याद दिलाती हैं और यह भी संकेतित करती हैं कि किसानों के आन्दोलन को
ऐसे वामपन्थी तेवर वाले नेतृत्व की जरूरत है।
भूमण्डलीकरण के दौर की इन फि़ल्मों से यह स्पष्ट है कि हिन्दी के सिनेमा ने
जाने या अनजाने भूमण्डलीकरण के दौर की सच्चाइयों को और उनसे जुड़ी चुनौतियों
को व्यक्त किया है। इस पर विवाद हो सकता है कि हिन्दी सिनेमा ने भूमण्डलीकरण
के बारे में फैलाये जा रहे भ्रमों को दूर करने में कोई भूमिका निभायी है या नहीं। साहित्य
और सिनेमा का काम अपने समय की सच्चाइयों को रचनात्मक और कल्पनाशील रूप
में पेश करना है। लोकप्रिय मनोरंजन का माध्यम होते हुए भी हिन्दी सिनेमा ने इस काम
को कुछ हद तक करने का प्रयत्न किया है। स्पष्ट ही सिनेमा से हम किसी क्रान्तिकारी
बदलाव की उम्मीद नहीं कर सकते, यदि बदलाव की ताकतें राजनीतिक और सामाजिक
क्षेत्रा में कमजोर हों।

जवरीमल्ल पारख: जन्म: 1952, जोधपुर (राजस्थान)। शिक्षा: एम. ए., जेएनयू से प्रो. नामवर सिंह के निर्देशन
में पी.एच.डी.। मीडिया, साहित्य और सिनेमा पर विपुल और महत्त्वपूर्ण लेखन। जनसंचार माध्यम और सांस्कृतिकविमर्श, जनसंचार माध्यमों का राजनीतिक चरित्रा, जनसंचार माध्यमों का वैचारिक परिप्रेक्ष्य, हिन्दी सिनेमा कासमाजशास्त्रा, लोकप्रिय सिनेमा और सामाजिक यथार्थ, आधुनिक हिन्दी साहित्य: मूल्यांकन और पुनर्मूल्यांकन,संस्कृति और समीक्षा के सवाल समेत एक दर्जन से अधिक पुस्तकों का लेखन। सम्प्रति: इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीयमुक्त विद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर। सम्पर्क: 9819606751, jparakh@gmail.com

 

samved

साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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