संवेद

पड़ताल पर परिचर्चा (‘पड़ताल’ – पंकज मित्र)

(‘संवेद’ के 71वें अंक के अतिथि संपादक थे – श्री राकेश बिहारी। प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में कहानियां एवं लेख प्रकाशित। प्रकाशन – ‘वह सपने बेचता था’ (कहानी-संग्रह) एवं ‘केंद्र में कहानी’ और ‘भूमंडलोत्तर समय में उपन्यास’ (आलोचना) आदि। संपादन – ‘स्वपन में वसंत’ (स्त्री यौनिकता की कहानियां) एवं ‘अंतस के अनेकांत’ (स्त्री कथाकारों की कहानियों का संचयन)। पहली कहानी – ‘पीढियां साथ-साथ’ (निकट पत्रिका का विशेषांक)। सम्प्रति – एन.टी.पी.सी. लिमिटेड में कार्यरत। संपर्क – एन. एच. 3/सी. 76 एन.टी.पी.सी. विंध्यांचल, पोस्ट – विंध्यनगर, जिला – सिंगरौली, 486885 (मध्य प्रदेश)। +919425823033, biharirakesh@rediffmail.com)
उस दिन हमारे स्टोरी–क्लब में ‘पड़ताल’ कहानी पर परिचर्चा थी। वैसे तो इस क्लब की शुरुआत कुछ पत्रिकाओं द्वारा जोर–शोर से निकाले गये विशेषांकों के बाद चल निकले ‘‘युवा कहानी आन्दोलन’’ की कहानियों पर बात करते–करते हुई थी लेकिन कुछ समय के बाद इसके कुछ सदस्यों को यह लगने लगा कि इस तथाकथित आन्दोलन के पहले के दस–बारह साल के दौरान लिखी कहानियों ने ही कहानियों के प्रति पाठकों की अभिरुचि को विकसित करने का काम किया था और विषय–वस्तु और शिल्प के प्रति जो साहस और नवाचार इस युवा आन्दोलन की विशेषता बताये जाते हैं वे भी उन्हीं दस–बारह बरसों में दृष्टिगोचर हुए थे। इन दस–बारह सालों की कहानियों को महत्त्वपूर्ण मानने वालों में भी कुछ मतान्तर थे। मसलन, कई ऐसे थे जो यह मानते थे कि युवा–कहानी आन्दोलन की शुरुआत 1994–95 से ही मान ली जानी चाहिए, क्योंकि इतिहास के परिवर्तन तो इसी समय से शुरू हुए और कहानियों में विषय की नवीनता और तदनुरूप शिल्पगत प्रयोग की छटपटाहटें इसी समय से व्यक्त होनी शुरू हुर्इं। वहीं कुछ लोग इन दोनों कालखंडों को कहानी के अलग–अलग दौर मानते थे। एकाध दिलजलों ने तो यह फतवा भी जारी कर दिया था कि ‘‘पहले दौर के केन्द्र में कहानी थी और इस प्रायोजित दौर के केन्द्र में कहानीकार हैं।’’ बहरहाल, इस बात पर तो आपत्तियाँ नहीं ही थीं कि शिल्पगत और विषयगत नवीनताओं वाली पिछली कहानियों पर भी बात होनी चाहिए और 1997 के ‘इंडिया टुडे’ की साहित्य वार्षिकी की प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त कहानी ‘पड़ताल’ को, जिसे उस प्रतियोगिता के निर्णायक–मंडल ने ‘‘वर्णन–पद्धति, शिल्प तथा सामयिक सामाजिक सन्दर्भ में विशेष महत्त्वपूर्ण’’ मानते हुए चुना था, चर्चा के लिए चुनने में कोई दिक्कत दरपेश नहीं आयी। किसी ने यह ध्यान अवश्य दिलाया कि जिस प्रतियोगिता में यह कहानी पुरस्कृत हुई थी उसका नाम ‘‘युवा कथाकार प्रतियोगिता’’ था। ‘युवा’ और ‘कथाकार–प्रतियोगिता’ जैसे शब्दों के प्रयोग की विडम्बना पर ध्यान नहीं दिया गया और बात आयी–गयी हो गयी। खैर, पेश है उस परिचर्चा की रपट।
चर्चा वाले दिन सदस्यों के जुटने के बाद शुरुआत, जैसा आम तौर पर होता था, करने के लिए प्रोफेसर साहब को न्यौता दिया गया। प्रोफेसर साहब ने अपनी चिर–परिचित गम्भीरता से चर्चा की शुरुआत करते हुए सबसे पहले समय के दिनोंदिन अमानवीय होते जाने की ओर ध्यान दिलाया। उन्होंने समाज में रिश्तों की मर्यादा के खत्म होते चले जाने को मानवीयता के खत्म होते जाने का लक्षण बताते हुए कहा, ‘‘आज मानवीयता के संकट का सबसे बड़ा कारण वह उपभोक्तावाद है जो हमारी संस्कृति की जड़ों में घुन की तरह लग गया है। आज वस्तुएँ सम्बन्धों को अपदस्थ करती जा रही हैं। मूल्यों के निर्धारण की एकमात्र कसौटी सिर्फ पैसा रह गया है। स्नेह का स्थान वासना ने, कृतज्ञता का स्थान चाटुकारिता ने और दायित्व–बोध का स्थान सुविधावादिता ने ले लिया है। इस कहानी के किशोरीरमण बाबू की मृत्यु दरअसल उन परम्परागत मूल्यों की मृत्यु है जिन्हें आज की अपसंस्कृति ने अवरोधक और फालतू मान लिया है। किशोरीरमण बाबू का दोस्त के बच्चों को अपना परिवार मानकर पालना उस बलिदान, त्याग और नि:स्वार्थभाव का प्रतीक है जो उन परम्परागत मूल्यों की नींव में है। वहीं दूसरी तरफ (यह प्रोफेसर साहब की प्रिय शैली थी जो ‘एक तरफ और वहीं दूसरी तरफ’ वाले वाक्य–विन्यास में व्यक्त होती थी) टीवी का घर में आना उस उपभोक्तावादी जीवन–शैली का घर में आना है जो घर की चली आ रही दिनचर्या को अस्त–व्यस्त करके आज के फिल्मी जुमले में कहें तो ‘‘इंटरटेनमेंट, इंटरटेनमेंट और सिर्फ इंटरटेनमेंट’’ को जीवन का एकमात्र उद्देश्य बना डालता है। किशोरीरमण बाबू पहले घर के सभी सदस्यों द्वारा उपेक्षित किये जाते हैं और अपने होने की सार्थकता तलाश करते हुए जब बाकायदा हाशिए में, कहानी के एक पात्र के शब्दों में ‘‘सेपरेट में’’, डाल दिये जाते हैं तब उनकी मृत्यु होनी ही है। यह मृत्यु नये के द्वारा पुराने को अपदस्थ करने वाली वह ऐतिहासिक अनिवार्य मृत्यु नहीं है जैसा कि ‘‘गोदान’’ में होरी की मृत्यु है (प्रोफेसर साहब के यहाँ प्रेमचन्द एक अनिवार्य सन्दर्भ थे) बल्कि यह मृत्यु एक प्रकार की हत्या है। एक टीवी के द्वारा मनुष्य की हत्या। वस्तुओं के द्वारा इन्सानियत की हत्या। हत्या की रात टीवी से आती हिंसक आवाजें उस हिंसा का प्रतीक हैं जो हमारे समय में की जा रही सांस्कृतिक हिंसा है। इस कहानी को पढ़ना अपने समय की सबसे क्रूर और नृशंस वारदात के रूपक का साक्षी होना है।’’
प्रोफेसर साहब बैठ गये। सभा में एक स्तब्धता छायी हुई थी और यद्यपि प्रोफेसर साहब की कथन–शैली लगभग सपाट और निर्द्वन्द्व थी मगर वातावरण में उनके भाषण ने एक तनाव और गम्भीरता को तारी कर दिया था। एक–दो पलों के अन्तराल के बाद तालियों की आवाज हुई। इसके बाद एक दुबला–पतला युवक अपनी बेतरतीब दाढ़ी को खुजलाता हुआ उठा। उसने प्रोफेसर साहब को उनके गम्भीर वक्तव्य के लिए धन्यवाद दिया, क्योंकि युवक के अनुसार उनके इस वक्तव्य ने बहस की कई दिशाएँ खोल दी थीं। युवक ने बढ़ते उपभोक्तावाद पर प्रोफेसर साहब की चिन्ता को वाजिब ठहराते हुए कहा कि ‘‘जरूरत उस व्यवस्था के बारे में बोलने की है जिसने इस उपभोक्तावाद की संस्कृति को विज्ञापनों के जरिए एक हेगेमनी की तरह हम पर थोप दिया है। हम इसके बद्धमूल कारण – पूँजीवाद पर आक्रमण करने के बदले यदि मानवीयता की रक्षा और संस्कृति बचाओ जैसे नारों को लगाएँगे तो पुन: उसी पूँजीवाद के दुष्चक्र के घेरे में बँधे रहने पर मजबूर होंगे। संस्कृति, मानवीयता वाले परम्परावाद को जाँचने की जरूरत है। किशोरीरमण बाबू का हनुमान मन्दिर की शरण लेना और उनके सामान में ‘बहुत सारे कल्याण’ का होना आखिर किस ओर संकेत करता है? महज धार्मिकता का आश्रय लेकर हमारी परम्परा आनेवाले पूँजीवादी खतरों से नहीं लड़ सकती उसे अपनी जनवादी संघर्ष–परम्परा के साथ जुड़ना ही होगा, नहीं तो वह वैसे ही मारी जाएगी जैसे कि किशोरीरमण बाबू मारे गये। हम हत्यारों के रूप में वस्तुओं पर दोषारोपण करके एक अमूर्तन गढ़ रहे हैं और उस भूमण्डलीकरण की व्यवस्था पर परदा डाले दे रहे हैं जो इस व्यवस्था के लिए सौ फीसदी जिम्मेदार है। किशोरीरमण बाबू द्वारा पालित परिवार उस नवधनाढ्य–वर्ग का प्रतीक है जो उदारीकरण और निजीकरण के रौंदते टैंक पर सवार होकर इस देश के आम आदमी की छाती पर चढ़ा हुआ है। ‘‘युवक के गले की नसें तन गयी थीं और वह हाँफते हुए बैठ गया। प्रोफेसर साहब युवक की ओर थोड़ा मुस्कुराते हुए देख रहे थे, उनकी इस मुस्कान में थोड़ी सराहना और थोड़ा विनोद मिले हुए थे।
इसके बाद एक स्मार्ट–सा नवयुवक उठा जिसने टी–शर्ट और जीन्स पहन रखी थी। यह कुछ दिनों पहले ही नियुक्त हुआ लेक्चरर था जिसने कुछ ही समय में छात्रों के बीच खासी लोकप्रियता अर्जित कर ली थी। उसने अपनी बात शुरू करते हुए कहा कि “मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि मैं एक कहानी पर होनेवाली परिचर्चा में आया हूँ या किसी और परिचर्चा में! क्या हम ‘अँधेरे में’ को मार्क्सवाद समझने के लिए पढ़ते हैं? यदि मुझे पूँजीवाद के खतरों को समझना होगा या उपभोक्तावादी संस्कृति को तो मेरे पास इस कहानी से बेहतर अध्ययन या अपने स्रोत हैं उन्हें समझने के। इस कहानी के जरिये आज के यथार्थ को जानने के बजाय मैं यह जानना अधिक मुफीद समझूँगा कि यह कहानी किस प्रकार यथार्थ को गढ़ रही है। आप सब इस कहानी के निर्णायकों की अनुशंसा के शब्दों में से पहले दो शब्द–वर्णन–पद्धति और शिल्प को बिल्कुल छोड़े जा रहे हैं। यह कहानी एक हत्या की पड़ताल की फाइल की तरह दर्ज की गयी है और पोस्टमार्टम, केस और चश्मदीद गवाह की भूमिका के बाद एक केस–हिस्टरी के तौर पर बयाँ की गयी है जिस केस का हल नहीं निकाला गया है और उसे ‘ओपेन–एंडेड’ रहने दिया गया है। चश्मदीद गवाह के बयान से दर्ज की गयी केस–हिस्टरी की शैली जहाँ एक तो इस कहानी को रोचक बनाती है, दूसरे सामान्य पाठक को एक थ्रिलर के पाठक में तब्दील करके उसकी क्रिटिकल फैकल्टी को सजग किये रखती है ताकि पाठक के मन में इसके छोटे–से–छोटे ब्यौरे भी उसी महत्त्व के साथ जगह पा सकें। पड़ोस में रहनेवाले युवक की ताक–झाँक और घर में असामान्य रुचि के जस्टिफिकेशन के लिए उस घर की लड़की के साथ युवक के एक असफल प्रेम–प्रसंग की पीठिका भी कहानी में गढ़ी गयी है। नैरेटर इस प्रकार आउटसाइडर होते हुए भी पूरा आउटसाइडर नहीं है। लेकिन घर में वह अवांछित जरूर है जिसके कारण वह इस सारी स्थिति में हस्तक्षेप करने की भूमिका में भी नहीं है। यह कहा जा सकता है कि लेखक ने एक गौण पात्र कारेलाल साव के अलावा किसी पात्र को जातिगत पहचान नहीं दी है। क्योंकि जिस यथार्थ को वह अपनी कहानी में बयाँ कर रहा है उसमें जातिगत पहचान कोई भी हो कुछ फर्क नहीं पड़ता। हालाँकि कहानी के ब्यौरे यह स्पष्ट कर देते हैं कि कहानी सवर्ण पात्रों की ही है। आखिर इकोनामी के ओपेन होने का आरम्भिक लाभ इसी वर्ग ने उठाया था। बहरहाल, एक बात थोड़ी दिक्कत इस कहानी में अवश्य पैदा करती है और वह है इस कहानी में स्त्रियों का चित्रण। सारी स्त्रियाँ स्वार्थी, संवेदनहीन और संकुचित मानसिकता की दिखाई गयी हैं। आम तौर पर स्त्रियाँ ऐसी स्थिति में पीड़ितों के लिए पुरुषों से पहले संवेदनशील हो जाती हैं लेकिन इस कहानी में ऐसा नहीं हुआ है। फिर भी यह कहानी जिस यथार्थ को हमारे सामने रखती है वह हमें झकझोरता जरूर है और ऐसा करते हुए वह उस भाषणबाजी और पैराफ्रेजिंग से बिल्कुल बचता है जो आजकल लगभग एक ढर्रा–सा बन गया है।’’
नवयुवक लेक्चरर के बोलने के बाद थोड़ी बुबुदाहट और तालियाँ बजने लगीं। शोर शान्त होने के बाद सूट और टाई पहने एक व्यक्ति ने हाथ उठाया और कहा कि ‘‘मैं इस स्टोरी–क्लब का सदस्य नहीं हूँ। एक मेहमान के तौर पर आया हूँ लेकिन आप सब लोगों की बातें सुनने के बाद मैं भी कुछ कहने की इजाजत चाहता हूँ।’’ लोगों द्वारा बढ़ावा देने के बाद वह माइक पर आया और गला खँखारते हुए उसने शुरू किया, ‘‘देखिए, मेरा मानना है कि तकनीक का विकास मानवीय संवेदनाओं के विकास को नियन्त्रित–निर्धारित करता है। तकनीक के विकास में ही मानव–सभ्यता का भविष्य है। इस कहानी को अभी मैंने यहीं बैठे–बैठे पढ़ा। मुझे नहीं लगता कि घर के बाकी लोग इतने संवेदनहीन हैं। दरअसल उनकी समस्या टीवी पर कार्यक्रमों का प्रसारण–समय है। सीरियल के छूट जाने की चिन्ता है। महिलाओं को यदि दिन में ही अपने फेवरिट कार्यक्रम देखने का अवसर मिल सकता तो वे घर के बुजुर्ग की नींद हराम नहीं करतीं और यह हादसा नहीं होता। यदि कार्यक्रमों की रिकार्डिंग की सुविधा जो हमारी कम्पनी माटा स्काई देती है, वह उस समय होती तो यह मौत नहीं होती। इसीलिए आप सबसे गुजारिश है कि हमने अपना स्टाल बाहर लगाया है।’
लोग उसे मंच से हटाने आगे बढ़ ही रहे थे कि यह खाकसार परिचर्चा छोड़कर बाहर निकल आया।  (इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी–1997)
विभास वर्मा युवा आलोचक। ‘प्रतीक’ पत्रिका के अवदान पर शोध। ‘‘हंस के विमर्श (दो खण्ड)’’ तथा ‘‘राजेन्द्र यादव – साक्षात्कार, संवाद और वार्ताएँ” नामक पुस्तक का संकलन–सम्पादन। मासिक पत्रिका ‘कथादेश’ में ‘लोकवृत्त’ नामक नियमित स्तम्भ लिखते हैं। साहित्य के अलावा सिनेमा और अन्य प्रदर्शनकारी विधाओं में गहरी रुचि। सम्प्रति – देशबन्धु कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। सम्पर्क – मो. +919868281417

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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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