लेख

दलित स्त्रीवाद की पृष्ठभूमि 

 

        आधुनिक काल में सर्वाधिक चर्चित विषय है स्त्री विमर्श। पितृसत्तात्मक मानसिकता के विरुद्ध स्त्रियों का एकजुट होना और उस एकजुटता से जिस शक्ति का उद्भव हुआ उसे ही स्त्री विमर्श के नाम से अभीहित किया गया। भारतीय समाज में यह परम्परा रही है कि पुरुष ही नीति निर्धारण का जिम्मा सँभालते रहे हैं, स्त्रियों को इसमें कभी शामिल नहीं किया गया। फिर चाहे वे नीतियां स्त्रियों के लिए ही क्यों न बनायीं जा रही हों। ऐसे में एकाधिकार का सवाल खड़ा होता है। गौरतलब यह है कि ऐसा सिर्फ भारतीय समाज में ही नहीं बल्कि सभी समाजों में कमोबेश यही हाल रहा है. स्त्री जगत को भी हमेशा पुरुषों की दृष्टि से देखने का प्रयास किया गया है. उन्हें क्या करना चाहिए? कैसे रहना चाहिए? क्या पहनना चाहिए? और कैसे बात करनी चाहिए? इत्यादिI

भारतीय समाज पित्रसत्तात्मक समाज रहा है “आज तक कि सभी संस्कृति, दर्शन व् साहित्य पुरुष केन्द्रित रहा है। सुंदर अब स्त्री के निगाहों से इस दुनिया को देखने और परखने कि जरुरत है।”[1] लेकिन आधुनिक युग में ये मान्यताएं धीरे धीरे टूटती हुई नजर आती हैं। स्त्री अब प्रश्न करना सीख रही है। स्त्री विमर्श का मूल सिद्धांत ही यही है कि समय और समाज को उसके नजरिये से देखने का प्रयास हो। स्त्री विमर्श का अर्थ पुरुषों का विरोध नहीं बल्कि एक ऐसे समाज कि स्थापना पर बल देना है जो समाज मनुष्य जीवन के सभी पक्षों का उचित समायोजन कर सके और साथ ही सामंतवादी सोंच और मुल्यों का विरोध कर पाने में सक्षम हो। यहाँ स्त्री सशक्तिकरण का तात्पर्य यह नहीं कि स्त्री पुरुष कि मानसिकता अपना ले बल्कि उसके सशक्तिकरण का अर्थ है परिवार के जनतांत्रिक पक्ष पर बल देना. अपने समाज में उसे अपनी बात रखने का हक देना। यही सही मायने में स्त्री सशक्तिकरण है।

स्त्रियों पर सदियों से पुरुष समाज द्वारा नाना प्रकार के सामाजिक बंधनों द्वारा उसका शोषण किया जाता रहा है। इस पारिवारिक अत्याचार तथा दमन के प्रति सचेत स्त्री चेतना ने ही स्त्री विमर्श को जन्म दिया है। “स्त्री विमर्श आत्मचेतना, आत्मसम्मान, समानता और समानाधिकार की पहल का नाम है”[2] स्त्रियों को उनके अपने अस्तित्व बोध ने ही विमर्श की प्रेरणा दी है। उन्हें अपने आत्मसमर्पण और पितृसत्तात्मक व्यवस्था से बाहर लाने का पूरा श्रेय स्त्री विमर्श को ही जाता है।

हिन्दी जगत में स्त्री विमर्श की पहल नयी नहीं है। स्त्री विमर्श का अपना लम्बा इतिहास रहा है जिसकी चर्चा यहाँ अभीष्ट नही। वर्तमान समय में स्त्री विमर्श ने मुक्ति, स्वतंत्रता, अस्तित्व एवं अस्मिता से सम्बंधित सभी पहलुओं का उल्लेख किया है। “ नारी विमर्श नारी मुक्ति से सम्बद्ध एक विचारधारा है। यह एक ऐसा विमर्श है जो नारी जीवन के छुए-अनछुए पीड़ा जगत के उद्घाटन के अवसर उपलब्ध कराता है।”[3] उन्हें है जहाँ से वे अपने मन की बात कह सकती हैं। वो मंच देता है जहाँ से वे अपने दुःख को खुद अपनी भाषा और समझ से बयां कर सकती हैं। बोलने और सवाल करने का यही अधिकार स्त्री विमर्श का प्राणतत्व है। स्त्री विमर्श को अनेक रचनाकारों ने विभिन्न रूप से परिभाषित करने का प्रयास किया है।  हिन्दी साहित्य जगत में अनेक लेखिकाओं ने अपने निजी अनुभवों को, अपने दुःख-दर्द को सहकर स्त्री जीवन के यथार्थ को प्रस्तुत किया है। यह एक मुक्ति संघर्ष है और इस संघर्ष को स्त्री विमर्श कि पृष्ठभूमि भी कहा जा सकता है। “अमेरिका में सन 1965 में स्त्रियों कि स्वाधीनता व् अधिकारों को लेकर बेंटी फ्रायडेन ने ‘द फेमेनिक मिस्टेक’ नामक चर्चित पुस्तक लिखी। सन 1966 ई. से महिलाओं के राष्ट्रीय संगठन की स्थापना हुयी जिसके आधार पर सन 1970 ई. के आसपास आन्दोलन हुए।”[4] स्त्री का आत्मसंघर्ष अपनी निरन्तरता में प्रत्येक युग में विद्यमान रहा है। समाज के बदलते तापमान में, बदलते सामाजिक सन्दर्भों में अपनी अधीनस्थ की भूमिका, शोषण, असमानता से मुक्ति के प्रयत्न एवं दोहरे मानदंडों के बीच अपनी बदलती सामाजिक भूमिका के बावजूद स्त्री के प्रश्न नहीं बदले हैं। स्त्री विमर्श का सरोकार जीवन और साहित्य में स्त्री मुक्ति के प्रयासों से है।

विमर्शों कि इस पड़ताल में लघु पत्रिकाओं का योगदान अहम् रहा है। इन पत्रिकाओं ने स्त्री विमर्श, दलित विमर्श एवं अन्य समसामयिक मुद्दों पर होने वाली बहस में निजी सहभागिता निभाई है। इन पत्रिकाओं ने उन सभी विमर्शों को आवाज दी है जो सदियों से अनसुनी थीं। इस क्रम में हंस पत्रिका का महत्त्व बढ़ जाता है। रामकृष्ण पाण्डेय ने लघु पत्रिकाओं के भारतीय परिप्रेक्ष्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि  “ एक समय था जब भारतीय भाषाओँ में छोटी पत्रिकाओं का एक बड़ा आन्दोलन विकसित हुआ था।  उसका मूल स्वर व्यवस्था विरोध और बड़ी पत्रिकाओं कि जकड़बंदी से साहित्य को बाहर निकलना था। कहना न होगा कि छोटी पत्रिकाओं के आन्दोलन ने उस राजनीति को संपोषित किया जो परिवर्तनकामी थी और सामाजिक रूपांतरण कि पक्षधर थीं।”[5] पाण्डेय जी ने जिस दौर को ‘एक समय’ कहा है वह 60-70 का दशक है. यही वो समय है जब राजेन्द्र यादव ने ‘हंस’ पत्रिका को पुनःप्रकाशित किया थ।. राजेंद्र यादव ने 31 जुलाई 1986 में बंद पड़ी ‘हंस’ को नयी उड़ान दी।

हंस के संपादक के रूप में राजेन्द्र यादव ने इतनी महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक भूमिका निभाई कि पिछले 3 दशकों के दौरान हिन्दी साहित्य में प्रवेश करने वाले लेखक उनके लेखन से कम, संपादन से ही अधिक परिचित हुए। “उन्होंने हंस को लोकतान्त्रिक संवाद और बहस-मुबाहिसे का एक ऐसा खुला मंच बना दिया जैसा हिंन्दी में पहले कभी नही था।”[6]

        “हंस के सम्पादकीय धीरे-धीरे एक साहित्यिक संस्था में बदलते गये क्योंकि उनके माध्यम से राजेन्द्र यादव समसामयिक सामाजिक-राजनीतिक और साहित्यिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर बेलग ढंग से अपने गैर पारंपरिक और अक्सर चौंकाने वाले विचार प्रकट करते थे। पहली बार किसी साहित्यिक पत्रिका ने हिन्दी साहित्य में सवर्णवाद, दलित रचनाशीलता और स्त्री विमर्श के सवालों को केन्द्र में रखकर न केवल गंभीर और गरमागरम बहसें चलायीं बल्कि उसमे दलित साहित्य और स्त्री विमर्शवादी साहित्य को प्रमुखता से स्थान दिया। जिसके कारण दलित और स्त्री विमर्शवादी लेखक-लेखिकाओं कि रचनाशीलता साहित्य संसार के सामने आ पायीं।”[7] 

हर किस्म कि साम्प्रदायिकता के विरुद्ध राजेन्द्र यादव ने सम्पादकीय लिखे और दूसरों के लेख ‘हंस’ में छापे। संजय सहाय के अनुसार “ राजेन्द्र यादव के संपादन में ‘हंस’ ने न सिर्फ साहित्य को एक नयी दिशा दी बल्कि इसने सामाजिक विचार में बदलाव कि कसौटी पर एक बड़ी भूमिका निभाई।”[8]  हमारे समाज में आज भी स्त्रियों, दलितों एवं अन्य अल्पसंख्यक समाज कि जो स्थिति है उसे देखते हुए ये कहा जा सकता है कि ‘हंस’ ने जिस परिपाटी पर चलने का प्रयास इतने वर्षों में किया है उसकी मंजिल अभी दूर है। पत्रिका के वर्तमान संपादक संजय सहाय कहते हैं कि “ साहित्य में स्त्री विमर्श और दलित प्रश्न को ‘हंस’ ने स्थापना दी, इस लिहाज से आगे ‘हंस’ क्या रूख अख्तियार करेगा और समाज में साहित्य कि प्रत्यक्ष भूमिका को सुनिश्चित करने के लिये अभी तक हमने इस क्रम में कोई बदलाव नही किया है। स्त्री विमर्श और दलित विमर्श हासिये पर पड़े लोगों का विमर्श है. हासिये को केन्द्र में लाने कि जंग जारी रहेगी।”[9]

         राजेन्द्र जी दलितों और स्त्रियों कि साझी लड़ाई कि बात करते हैं, दोनों कि पीड़ा को वे एक सी बताते हैं।2002 के सम्पादकीय में वे लिखते हैं- “ साहित्य में स्त्रियों और दलितों का साथ आना एक साझी क्रांति का प्रारम्भ है, क्योंकि दोनों ही सही अर्थों में सर्वहारा है, इनकी वास्तविक मुक्ति भी सर्वहारा क्रांति के दर्शन से उदित होगी।”[10] नवम्बर 2002 के अंक में एक बार फिर वे लिखते हैं कि  “ स्त्री और दलित दोनों ही अन्य हैं वे सामानांतर दुनिया में रहते हैं। चूँकि हमारे और उनके बीच कि अंतःक्रिया निरन्तर बनी रहती है इसलिए उसकी चेतना और अभिरुचियों का विकास हमारी ही बोली बानी में होता है।”[11] इसके पहले भी 1994 नवम्बर दिसंबर के अंक ‘ औरत उत्तर कथा 1’ के सम्पादकीय में वे जहाँ धर्म और जाति दोनों को ही स्त्री के उत्पीडन में सामान रूप से सक्रीय बताते हैं, वहीँ दलित स्त्री को भी ‘स्त्री अस्मिता’ के वृहद् आकर में शामिल मानते हैं।  “ धर्म और जातिगत बलात्कारों के बीच अपने को साधे रखना शायद औरत के लिए सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा है।”[12] 

      राजेन्द्र जी और हंस स्त्री विमर्श के मामले में अपना ही संसार रचते थे। शइनके दृष्टिकोण में स्त्री कि मुक्ति का मार्ग ‘देहमुक्ति’ से तय होता है और देहमुक्ति को वे यौन प्रसंगों तक सीमित कर देते हैं। ‘हंस’ के शुरूआती अंकों के में ही साहित्य में यौन प्रसंगों के डिटेल पर खूब सारी बहसें और सम्पादकीय पसरे पड़े हैं। राजेन्द्र जी अपनी इस जिद्दी समझ को खाद पानी अपनी जिस समझ से देते थे उसकी अभिव्यक्ति वे जुलाई 1993 के अपने सम्पादकीय में करते हैं- “ स्त्री अपनी बौद्धिक या अन्य उप्लब्धियों के लिए चाहे जितनी हाय तौबा मचाती रहे, पुरुष कि जिद्द है कि साम, दाम, दंड, भेद से वह उसे कमर, कूल्हे, नितम्ब, छातियों से ऊपर नहीं उठने देंगे।”[13] इसका आलम यह हुआ कि बाद के दिनों कि रचनाओं में यौन प्रसंगों के डिटेल ‘हंस’ में छपने कि गारंटी बनने लगे।

निस्संदेह भागीदारी की कसौटी पर ‘हंस’ दलितों और दलित स्त्रियों दोनों की दृष्टि से कमजोर है।सैद्धांतिक स्तर पर भी राजेन्द्र जी बहुत से ऐसे दलित लेखकों के साथ खड़े नजर आते हैं जो दलित और स्त्री रचनाकारों की आवाज को दलित और स्त्री आन्दोलनों के उद्देश्य में बाधा पाते हैं। इनमे से कुछ तो दलित स्त्रियों की सक्रियता को डॉ धर्मवीर की शैली में हिकारत की नज़र से देखते है।‘सत्ता विमर्श और दलित’ अंक में खुद डॉ धर्मवीर अपनी इस शैली का नमूना ‘दोहरा अभिशाप कितना दोहरा: एक डायनासोर औरत’ में पेश करते हैं। प्रसिद्ध लेखिका कौसल्या वैसंत्री कि लानत-मलानत करते हैं और इसके समर्थन में प्रभा खेतान जैसे स्त्री संघर्ष के पैरोकार को उद्धृत करते हैं-“ दलित आन्दोलन इसलिए ज्यादा सशक्त है कि वहां कांशीराम हैं, डॉ धर्मवीर हैं, इसलिए नहीं कि वहां मायावती और कौसल्या वैसंत्री हैं।”[14]  इस सीमा के बावजूद 350 अंकों और 10 विशेषांकों में फैले ‘हंस’ के पुनर्प्रकाशन में राजेन्द्र यादव और ‘हंस’ ने जाति-धर्म और साम्प्रदायिकता के खिलाफ इमानदारी से मुहीम चला रखी है। इन कसौटियों पर ‘हंस’ खरा उतरता है और इस लिहाज़ से इसकी उपस्थिति हिन्दी में दलित स्त्रीवाद के लिए पृष्ठभूमि सी भी है। जरुरत पड़ने पर दलित स्त्री कि आवाज और मुद्दों को दलित और स्त्री आन्दोलन के खिलाफ मानने वाले राजेन्द्र यादव डॉ धर्मवीर कि नैतिकता और उनके दलित स्त्रीविरोधी मंतव्यों को अपने सम्पादकीय में आड़े हाथों भी लेते हैं। हालाँकि यह भी सही है कि इस सम्पादकीय के लिए अनीता भारती, बजरंग बिहारी तिवारी और श्रीधरम ने राजेन्द्र जी को तैयार किया थाI

सुमित कुमार झा 

लेखक हिन्दी भवन, विश्वभारती शान्तिनिकेतन में शोध छात्र हैं।

मो. न. -9800688441, sjha6405@gmail.com

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[1] अंजुम मलिक, anjumsamay.com, १८ जनवरी २०१४, स्त्री विमर्श के परिप्रेक्ष्य में छिन्नमस्ता

[2] वही,

[3] सं. श्रीराम शर्मा, समकालीन हिंदी साहित्य विविध विमर्श, पृष्ठ संख्या- ९० 

[4] सं. अरुण तिवारी, ‘प्रेरणा’ त्रैमासिक, पृष्ठ संख्या- ५० 

[5] रामकृष्ण पाण्डेय, छोटी पत्रिकाएं और एक लिटिल मैगजीन, २० जून २००९, दैनिक भास्कर, नयी दिल्ली

[6] सं. आभा मोंढे, जाना एक सार्वजनिक बुद्धिजीवी का, २९ दिसंबर २०१३

[7] वही,

[8] संजय सहाय, हंस की भूमिका, जनसत्ता रविवारीय, २३ जनवरी २०१६

[9] वही,

[10] सं. राजेन्द्र यादव, हंस, अंक- २००२ 

[11] सं. राजेन्द्र यादव, हंस, अंक- नवम्बर २००२ 

[12] सं. राजेन्द्र यादव, हंस, अंक-  नवम्बर-दिसंबर १९९४

[13] सं. राजेन्द्र यादव, हंस, अंक- जुलाई १९९३ 

[14] सं. राजेन्द्र यादव, हंस, अंक- अगस्त १९८६, पृष्ठ-०५ 

samved

साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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