लेख

सम्मोहन और असहमति के बीच

 

  • राकेश बिहारी

प्रियंवद हिन्दी के उन विरले कथाकारों में से एक हैं जिनसे आप असहमत होते हुये भी अथाह प्यार कर सकते हैं। असहमतियों और किन्तु-परंतु के कई अंतःसूत्रों की उपस्थिति के समानान्तर इनकी कहानियाँ अपने पाठकों को जिस तरह सम्मोहन के अनाम जादू में बांध लेती है, वह इनके कथाकार की ऐसी विशेषता है जिसकी कामना दुनिया की किसी भाषा के किसी कथाकार को हो सकती है। प्रियंवद एक साहसी कथाकार हैं। विषय के चयन से लेकर उसके निर्वाह तक इनकी कहानियाँ न सिर्फ तमाम वर्जनाओं का निषेध करती हैं, बल्कि समाज और सम्बन्धों के बने-बनाए व्याकरणों की चौहद्दियों का अतिक्रमण करते हुये एक निर्बंध समाज की भूमिका भी प्रस्तावित करती हैं। गोकि प्रियंवद की कई कहानियाँ सांप्रदायिकता जैसे समकालीन राजनैतिक विषयों को भी-बहुत सूक्ष्मता से विवेचित-विश्लेषित करती हैं, लेकिन इनके द्वारा लिखी गईं प्रेम-कहानियाँ इन्हे सम्पूर्ण हिन्दी कथा-साहित्य में एक विशिष्ट कथाकार होने का हक और सम्मान दोनों प्रदान करती हैं। ‘उसने कहा था’ जैसी कालजयी प्रेम कहानी से शुरू होनेवाली हिन्दी कहानी की दुनिया में जयशंकर प्रसाद, जैनेन्द्र, रेणु, निर्मल वर्मा आदि जैसे संवेदना-समर्थ कथाकारों की उपस्थिति के बावजूद प्रेम हिन्दी कहानी के लिए लगभग त्याज्य और वर्जित प्रदेश-सा ही रहा है। एक खास राजनैतिक-वैचारिक काट से लगभग आक्रांत कहानियों के बर्चस्व के बीच कहानियों में प्रेम के नैरंतर्य को कायम रखना किसी कथाकार के लिए बहुत बड़ी चुनौती और जोखिम का काम है। बीहड़ जोखिम के इस भूगोल पर अपने-कथा परिसर की निर्मिति के बहाने प्रियंवद एक साहसिक रचनात्मकता का परिचय तो देते ही हैं, हिन्दी कहानी के एक लगभग सूने-से कोने को अपनी कलात्मक प्रयोगधर्मिता से आबाद करने का ऐतिहासिक काम भी करते हैं। सारिका, जनवरी 1980 में पुरस्कृत और प्रकाशित अपनी पहली कहानी बोसीदनी से कथा-यात्रा शुरू करने वाले प्रियंवद की लगभग पचास कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। लगभग पैंतीस वर्षों के उल्लेखनीय कालखंड में सृजित कहानियों की यह फेहरिस्त बताती है कि प्रियंवद सिर्फ लिखने के लिए कहानियाँ नहीं लिखते। जाहिर है एक सजग और सतर्क तैयारी के साथ लिखी गई प्रियंवद की सभी कहानियों का समग्र और सम्यक मूल्यांकन प्रस्तुत लेख के दायरे में संभव नहीं है। इसलिए सुविधा के लिए इस लेख को प्रेम और देह की नैतिकता को केंद्र में रख कर लिखी गई उनकी कुछ चुनिन्दा कहानियों तक ही सीमित रखा गया है।
“रिश्तों के नाम जीवन को बहुत छोटे-छोटे घेरों में बांध देते हैं। आँखों में कपड़ा बांधे बैल की तरह आदमी उन्हीं घेरों में घूमता रहता है। यह गलत है। एक बार में आदमी क्या सब रिश्ते नहीं भोग सकता? क्या मेरे और तुम्हारे रिश्ते का कोई नाम है? क्या मैं तेरी सब कुछ नहीं हूँ, माँ, दोस्त, बहन… बोल…?
‘हाँ बूबा’, मैं बूबा की हथेली की नीली नसें चूम लेता। तुम मेरी इकलौती आस्था हो, मेरी रक्षिता हो, मेरे कल्याणी। मेरी आवाज़ कांपने लगती। बूबा मेरी निगाहों में तब न जाने कितनी ऊपर उठ जातीं। ज्ञानी, गंभीर, ममत्वमयी बूबा।”
उपर्युक्त पंक्तियाँ ‘होठों के नीले फूल’ से उद्धृत हैं, जो प्रियंवद की दूसरी कहानी है और सारिका, नवंबर 1980 में छपी थी। ‘मैं’ शैली मे लिखी अपनी इस शुरुआती कहानी में प्रियंवद प्रेम और रिश्तों को ले कर जिस जीवन-दर्शन की प्रस्तावना करते हैं, वह उनकी कहानियों में समय के साथ लगातार प्रखर, परिपक्व और मजबूत होता जाता है। रहस्य-रोमांच जैसे किस्सागोई के सहज गुणों से संपृक्त कहानियों के कथाकार प्रियंवद सिर्फ मनोरंजन या पाठकीय कौतूहल व जिज्ञासा को बनाए रखने के लिए कहानियाँ नहीं लिखते बल्कि जीवन-जगत के प्रति अपनी दृष्टि और दर्शन को रेखांकित करना ही इनकी कहानियों का मूल उद्देश्य है। यही कारण है कि इस कहानी की ‘बूबा’ हो या सूत्रधार ‘मैं’ या फिर अन्य कहानियों के पात्र, उनकी भाषा और व्यक्तित्व के किरचों में प्रियंवद की भाषा तथा जीवन-दर्शन की स्पष्ट छाप दिखाई पड़ती है। जैसे कथाकार ने खुद को विखंडित कर इन पात्रों के अणु-अणु में विन्यस्त-सा कर दिया हो। ‘पाठकों की रुचि के अनुसार चीजों को परोसने की ज़िम्मेदारी मैंने नहीं ली है’ की स्पष्ट घोषणा करने वाले प्रियंवद की कहानियों को अपना गंतव्य भली-भांति मालूम है। यह कथाकार अपनी कहानियों में कदम-दर-कदम अपने सपनों की दुनिया के मानचित्र की रेखाएँ खींचता चलता है। रचनाकार के दार्शनिक उद्देश्यों की यह स्पष्टता प्रियंवद की कहानियों को कई बार पात्रों के मनोजगत में संश्लिष्ट और विन्यास में जटिल भी बनाती है, लेकिन अभिव्यक्ति के स्पष्ट ऊद्देश्यों को रेखांकित करने के लिए विषय और शिल्प की तमाम प्रयोगधर्मिताओं के बावजूद सम्प्रेषण और प्रभावोत्पादकता के मोर्चे पर ये कहानियाँ  कभी नहीं चूकती हैं। प्रियंवद एक सम्प्रेषण-सजग कथाकार हैं, यही कारण है कि जटिल मनोविज्ञान, संश्लिष्ट वैचारिकता और सूक्ष्म दार्शनिकताओं के अंतर्गुंफन के समानान्तर असामान्य पात्रों की सृष्टि, रहस्यमय वातावरण का निर्माण और कथा-रस में पगी तरल भाषा के सहारे प्रियंवद पाठकों को किसी समर्थ जादूगर की तरह आद्योपांत बांधे रखने में हर कदम सफल होते हैं।
प्रियंवद की स्पष्ट मान्यता है कि साहित्य वैकल्पिक व्यवस्था नहीं प्रस्तुत कर सकता और यदि कभी उसने कोई सैद्धान्तिक विकल्प प्रस्तुत भी कर दिया तो उसे कार्यान्वित करने के लिए जो संस्थाएं चाहिए उसके लिए कुछ भी कर सकना उसके लिए संभव नहीं है। लेकिन ‘साहित्य का मूल काम सवाल खड़े करना है, विकल्प प्रस्तुत करना नहीं’ के दर्शन में भरोसा रखते हुये भी यह प्रश्न तो उठता ही है कि साहित्य द्वारा मौजूद व्यवस्था को प्रश्नांकित या अतिक्रमित करने के कारण समाज में अराजकता की जो स्थिति पैदा होगी उसके प्रति साहित्य की क्या जिम्मेवारी हो सकती है या होनी चाहिये? एक खास तरह की ‘उदात्तता’ के लिए जगह बनाते हुये प्रेम को पुनर्परिभाषित करने के क्रम में स्त्री-पुरुष संबंध को लेकर इस कहानी सहित अपनी कई अन्य कहानियों में प्रियंवद नैतिकता का जो प्रारूप प्रस्तावित करते हैं, उसे महज ‘उदात्तता’ के दर्शन के नाम पर बिना किसी किन्तु-परंतु के नहीं स्वीकार किया जा सकता। अनुभूति व संवेदना के किसी खास और विशिष्ट क्षणों में प्रेमिका या पत्नी में माँ की प्रतिमूर्ति देखते हुये देवी, माँ, सहचरी, प्राण के आदर्श की संभावना जितनी सहज है क्या भावोद्वेग या आकर्षण के किन्हीं विशेष क्षणों में माँ की काया में प्रेमिका या पत्नी की छाया को देखना-जीना उतना ही सहज हो सकता है? शायद नहीं। तभी तो ‘बूढ़े का उत्सव’ में सैरिबल पाल्सी से ग्रस्त एक लड़के की यौन आवश्यकताओं की पूर्ति खुद उसकी माँ के द्वारा करने को न्यायोचित ठहराने वाले प्रियंवद के पास अपनी एक महिला पाठक के इस प्रश्न का जवाब आज भी नहीं है कि उस कहानी में यदि सैरिबल पाल्सी से ग्रस्त पात्र एक लड़की होती तो क्या उसका पिता उसे उसी तरह यौन सुख दे सकता था? प्रियंवद के पास इस प्रश्न का जवाब न होने को महज उनके समाजप्रदत्त संस्कारों से ही जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए। दरअसल नैतिकता सिर्फ दंड और धर्म के द्वारा ही संचालित नहीं होती बल्कि लैंगिकता और रिश्ते की मर्यादा भी  उसका जरूरी पक्ष होते हैं। यही कारण है कि देह, प्रेम और सम्बन्धों की ऐसी उदात्त संकल्पना प्रस्तावित करने के बावजूद ‘होठों के नीले फूल’ की ‘बूबा’ हो या ‘बूढ़े का उत्सव’ की ‘माँ’ अंततः वे अपराधबोध से ग्रस्त हो जाती हैं। ‘बूबा’ के द्वारा अपने नीले पड़ चुके होठ को बार–बार धोना और ‘बूढ़े का उत्सव’ में माँ का आत्महत्या कर लेना उसी अपराधबोध की परिणति है जिसकी जड़ें रिश्ते की मर्यादा और लैंगिकता के प्रश्नों से जुड़ती हैं। उल्लेखनीय है कि बूढ़े का उत्सव’ की  स्त्री पात्र जहां माँ है,  वहीं होठों के नीले फूल की स्त्री पात्र माँ जैसी। देह, प्रेम और रिश्ते की मर्यादा के अंतर्संबंध संबंधी नैतिकता के प्रियंवदीय प्रारूप को समझने के लिए यहाँ उनकी एक और बहुचर्चित कहानी ‘पलंग’ का उल्लेख जरूरी है। रेखांकित किया जाना चाहिए कि ‘बूढ़े का उत्सव’ जहां 1997 में प्रकाशित हुई थी वहीं पलंग 1994 में। यह भी कम दिलचस्प नहीं कि पलंग भी एक माँ बेटे की ही कहानी है। इस कहानी में बेटा अविवाहित है और अपनी प्रेमिका से इस कारण शादी नहीं कर पा रहा है कि उसके एक कमरेवाले घर में किसी और के रहने लायक जगह नहीं है। हालांकि माँ अपने बेटे को उसकी प्रेमिका के साथ पर्याप्त समय बिताने देने के लिए उसके आने पर खुद घर छोड़ कर चली जाती है तथापि  बेटा एक खास तरह की कुंठा और अवसाद से घिरा रहता है। किसी दिन सुबह की दिनचर्या पूरा करती माँ को निर्वसन देखकर वह अपने आप से नियंत्रण खो देता है और माँ को अपमानित करता हुआ तत्क्षण घर से निकाल जाने को क़ह देता है। बेटे से अपमानित माँ निर्वसन दिख जाने के अपने अपराध के लिए उससे पैर पकड़ कर क्षमा याचना करते हुये एक मौका देने को कहती है। इस तरह माँ खुद को बेघर होने से भले बचा ले गई हो पर अपने ही बेटे के द्वारा दिये गये अपमान और उपेक्षा का दंश उसे ज्यादा दिन जीवित नहीं रहने देता। हालांकि इस कहानी में बेटे की खुशी के लिए माँ के द्वारा कुछ भी या सबकुछ कर गुजरने के संकेत उस तरह स्पष्ट नहीं है जिस तरह ‘बूढ़े का उत्सव’ में हैं। लेकिन बेटे की प्रेमिका की उपस्थिति में उसका घर से निकल जाना हो या कि सुबह-सुबह काम निबटाते हुये बेटे के आगे बहुधा लगभग निर्वसन आ जाना या फिर बेटे की दुत्कार के बाद की स्थितियाँ जहां एक पलंग पर होते हुये भी उनके बीच सबकुछ पहले जैसा नहीं रहता, मसलन – “न मुझे उस तरह प्यासी आँखों से देखती। न नजर मिलाती… रात को मेरे साथ सोती पर अब उसने मुझे बहाने से छूना भी छोड़ दिया था…” ये कुछ ऐसी बातें है जिनसे गुजरते हये ‘बूढ़े का उत्सव’ की पूर्वपीठिका को महसूस करने का अहसास-सा होता है। ‘पलंग’ कहानी का बेटा एक सामान्य पुरुष है इसलिए यहाँ रिश्ते और नैतिकता की प्रियंवदीय प्रस्तावना उस तरह से घटित नहीं होती लेकिन ‘बूढ़े का उत्सव’ में एक असामान्य बच्चे की उपस्थिति उसे संभव कर जाती है। कहने का तात्पर्य यह कि सामाजिक मर्यादाओं को लांघ कर प्रेम के जिस तथाकथित उदात्त प्रारूप को  प्रियंवद अपनी शुरुआती कहानियों में प्रस्तावित करते हैं वह उनकी परावर्ती कहानियों में और मजबूत हुआ है, जिसकी प्रतिध्वनियों को ‘होठों के नीले फूल’ से शुरू होकर ‘पलंग’ से होते हुये ‘बूढ़े का उत्सव’ तक की कथा-यात्रा में स्पष्ट सुना जा सकता है। प्रियंवद की कहानियों में देह प्रेम का लगभग अनिवार्य अंग है जिसे प्रेम की अंतरंग और सघनतम अभिव्यक्ति के माध्यम की तरह देखा जा सकता है। संवेदना के सूक्ष्मतम अवयवों को सींचनेवाले अद्भुत प्रेम दृश्यों के बीच प्रियंवद की लगभग हर कहानी में खालऔर सुख शब्द का प्रयोग हो या कि हर दूसरी-तीसरी कहानी में पलंग की उपस्थिति, ये सब दरअसल प्रेम की शारीरिक अभिव्यक्ति के सांकेतिक उपादान की तरह ही  हैं। यहाँ इस बात का उल्लेख भी किया जाना चाहिए कि प्रियंवद प्रेम में देह की अनिवार्यता को स्थापित तो करते हैं लेकिन यौन दृश्यों की रचना नहीं करते। शारीरिक सम्बन्धों के स्थूल दृश्यों की रचना में न उलझ कर पात्रों के मनोविज्ञान और परिवेश के सूक्ष्म विश्लेषण के बहाने पाठकों के संवेदना-तन्तु को जागृत, झंकृत और उद्वेलित करने की जो असाधारण कलात्मकता  प्रियंवद की कहानियों में दिखाई देती है, वह उनके कथाकार को अलग और विशिष्ट बनाता है। 
‘बूढ़े का उत्सव’ में माँ के पक्ष को न्यायोचित ठहराने के लिए प्रियंवद जहां यह कहते हैं कि ‘इन बच्चों की ऐसी बुनियादी जरूरत एक माँ ही पूरा कर सकती है’ वहीं उसकी आत्महत्या के पक्ष में उनका कहना है कि ‘माँ के अंदर जो चीजें हमने ठूँसी हुई है, वे कहाँ जातीं? इसलिए कथा के ताने-बाने में मृत्यु को बुना।’ पहली घटना के पक्ष में माँ के परंपरापोषित स्वरूप का महिमामंडन और दूसरी घटना के पक्ष में माँ के भीतर ठूँसी गई नैतिकताओं को ज़िम्मेवार ठहराया जाना सामाजिक मनोविज्ञान की ओट में ‘चित्त भी मेरी पट भी मेरी’ का रचनात्मक कौशल है। मतलब यह कि माँ के व्यवहार की दोनों अभिक्रियाएं कहीं न कहीं एक ही मूल्यबोध से संचालित हो रही हैं लेकिन यह कहन के जादू की प्रियंवदीय विशेषता है कि कहानी अपनी परिणति तक आते-आते भिन्न मूल्यबोधों की टकराहट का-सा प्रभाव रचने में समर्थ हो जाती है।
प्रियंवद की कहानियाँ सामान्यतया नैतिकता से जुड़े लैंगिक अस्मिता के प्रश्नों की उपेक्षा करती हैं,  पर दूसरे स्तर पर इनकी एकाधिक कहानियाँ स्त्री बनाम पुरुष संवेदना के प्रश्न को अपने तरीके से उठाने की कोशिश भी करती हैं। उदाहरण के लिए प्रियंवद की एक बहुत ही सम्मोहक और खूबसूरत कहानी ‘नदी होती लड़की’ का संदर्भ जरूरी है। उस कहानी में एक जगह पत्नी के प्रति की जानी वाली अपनी क्रूरता का वर्णन करते हुये कहानी का एक पात्र प्रोफेसर दूसरे पात्र जेनी से कहता है – “पुरुष के स्पर्श से औरत या तो नदी होती है या पोखर। औरत जब नदी होती है तब कोई भी पुरुष उस पर एक पालवाली नाव की तरह तैर सकता है… किसी भी दिशा में, कितनी ही देर। पर जब पोखर होती है तब तब उसके अंदर केकड़े की तरह भी नहीं उतर सकता। औरत कब नदी होगी और कब पोखर यह वह स्वयं नहीं जानती… पर उसे कुछ न कुछ होना पड़ता है। पुरुष के स्पर्श से नदी होना औरत के लिए बड़ा सुख है… पोखर होना भयानक यातना। मैं अपनी बीवी को रोज रात पोखर बना देता हूँ… किसी औरत को इससे बड़ी यातना नहीं दी जा सकती।”
बलात्कार पुरुष के लिए स्त्री के खिलाफ सबसे बड़ा हथियार रहा है। संवेदनहीन और क्रूर स्पर्श से एक स्त्री को नदी के बजाय पोखर बनाकर बलात्कार का सुख भोगने की पुरुष वृत्ति को यह कहानी एक विशेष अंदाज में रूपायित करती है। जेनी की पत्नी विवाह सूत्र में बंधे होने के बावजूद अपने प्रेमी के साथ संबंध में बनी हुई है। जेनी चाह कर भी कभी उसे रंगे हाथ पकड़ नहीं पाता और सबकुछ जान समझ कर भी उसके साथ रहने को मजबूर है। प्रोफेसर से सीख ले कर जेनी अपनी पत्नी को पोखर में तब्दील कर उसे दंडित करना चाहता है। पत्नी को उसके प्रेमी के नाम की गालियां दे-दे कर उसके शरीर में जबरन प्रविष्ट होने की कोशिश स्त्री को पोखर में तब्दील कर देने का सबसे आसान तरीका है। लेकिन इस कहानी में जेनी की यह मंशा पूरी नहीं होती।  उसकी पत्नी अपने प्रेमी का नाम सुनकर और उत्तेजित हो जाती है और नदी बनते हुये यौनसंबंध में तृप्ति तक पहुंच जाती है। पति की तमाम क्रूरताओं के बावजूद यहाँ जेनी की पत्नी के नदी हो सकने को वाइल्ड फैन्टेसी वाले असामान्य यौन मनोविज्ञान से भी जोड़ कर देखने की संभावना बन सकती थी, लेकिन कहानी उस तरह का कोई स्पष्ट या धूसर संकेत नहीं देती है। बल्कि इससे इतर, अपने पति की सुनियोजित अमानवीयता के बावजूद जेनी का इस तरह नदी हो जाना एक पुरुष की मंशा को नाकामयाब करते हुये उसके प्रति प्रतिरोध दर्ज करने जैसा जरूर है। कहानी की भाषा और प्रस्तुति का सम्मोहक जादू कहानी के इस अंत के साथ जुड़कर स्त्री पक्षधरता का एक झीना पाठ तैयार करते से दिखते हैं। लेकिन इस पूरे प्रकरण को दूसरे सिरे से देखें तो एक सवाल सहज ही खड़ा हो जाता है कि क्या कोई स्त्री बलात्कारी के मुंह से महज अपने प्रेमी का नाम सुनकर, उसकी तमाम अमानवीयताओं के बावजूद, इस कदर उत्तेजित हो सकती है कि बलात्कार में यौनसुख का अनुभव करने लगे? कहानी के सम्मोहन पाश में बंधे होने के बावजूद यह प्रश्न पाठक को परेशान करता है और वह यह सोचने को मजबूर हो जाता है कि पुरुष की दृष्टि और हथियार से स्त्री की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती, इसके लिए पुरुष को थोड़ा स्त्री होना होगा। प्रियंवद स्त्री प्रश्नों पर विचार करते हुये सामान्यतया पुरुष के बाने से बाहर नहीं आते हैं। यही कारण है कि पलंग हो या कि बूढ़े का उत्सव’, दोनों कहानियों में ये स्त्रियाँ खुद अपनी कहानी नहीं कहतीं, बल्कि उनकी कहानियाँ कोई पुरुष पात्र सुनाता है। स्त्री और पुरुष संवेदना के अंतर को रेखांकित करने की यह कोशिश उस रात की वर्षा में और एक अपवित्र पेड़  जैसी कहानियों में भी देखी जा सकती है जो पुरुष दृष्टि से स्त्री संवेदना को समझे जाने की सीमा के कारण अंततः स्त्री-पुरुष के बीच साँप-सीढ़ी का खेल बन कर रह जाती है।
कुछ जानबूझकर तो कुछ मजबूरीवश विवाहेतर प्रेम की स्थितियाँ प्रियंवद की कहानियों में कई जगह मौजूद हैं। पर विवाहेतर प्रेम प्रसंग का जो शिल्प इन कहानियों में उपस्थित होता है उससे यह प्रश्न सहज ही उठता है कि आखिर क्या कारण है कि परिवार और विवाह संस्था की चहारदीवारी में खिलेनेवाले ये प्रेम-पुष्प सायास या स्वतः सामाजिक या वैधानिक रूप से वर्तमान विवाह की परिधि को तोड़कर एक नये घर के निर्माण की बात नहीं करते? कहीं यह विद्रोह की कामना के समानान्तर साहस के अभाव का मामला तो नहीं है? कहीं इसके पीछे घर और बाहर के दोहरे आनंद के अवसर को बरकरार रखनेवाली सामंती और अराजक सोच तो नहीं? सवाल कुछ और भी हो सकते हैं, पर खुद प्रियंवद इसका जवाब कुछ इस तरह देते हैं –
“ अवैध सम्बन्धों का प्रेम मुझे आकर्षित करता है.
मेरा विश्वास है कि प्रेम अपनी पूरी चमक, पूरे आवेग के साथ ऐसे सम्बन्धों में ही रहता है। आत्मा के एक खाली, अंधेरे कोने में बचाकर रखे हुये आलोकित हीरे की तरह! ऐसे सम्बन्धों का प्रेम बहुत गंभीर और अर्थपूर्ण होता है। प्रेम के इन्हीं क्षणों में मनुष्य अपनी असली और पूरी स्वतन्त्रता का उपभोग करता है। उसका पूरा जीवन, व्यक्तित्व, शरीर सब तरह की वर्जनाओं, समाज के घिनौने और निर्मम अंकुशों से मुक्त होता है। इन सबसे विद्रोह की एक मूक अंतर्धारा भी उसके अंदर ऐसे ही क्षणों में बहती है। कुल मिलाकर ऐसे सम्बन्धों में प्रेम अपनी पूरी रहस्यमयता, गोपनीयता, आवेग, आलोक और स्वतन्त्रता के साथ जीवित रहता है। वे सचमुच उसके अंदर गूँजते रहनेवाले सुख के क्षण होते हैं। शेष सम्बन्धों में तो, वह एक लगातार दोहराई जानेवाली, ऊबी हुई गुलामी होता है, जो जरा ही ऊपर की पर्त खुरचने पर दिखाई देने लगता है।”
विवाहेतर प्रेम को बिना किसी वैधानिक अलगाव के जारी रखने या प्रेम को सामाजिक वैधानिक मान्यता देकर सांस्थानिक रूप देने से बचे रहने के पीछे का यह तर्क अपनी भाषा में जितना तरल और मोहक हो, सामाजिक तार्किकता की कसौटी पर उतना ही अग्राह्य है। उल्लेखनीय है कि प्रियंवद इन कहानियों में ऐसा घटित होता दिखाते हुये बच्चों तथा परिवार व समाज के दूसरे घटकों को कथानक से सायास दूर रखते हैं। अमूमन ये कहानियाँ पूरी तरह प्रेमी युगलों के इर्द गिर्द ही घूमती हैं। यथासंभव कहानी में अन्य पात्रों को आने ही नहीं दिया जाता या कोई पात्र आता भी है तो वह प्रेमी युगलों के लिए कभी अवरोधक का काम नहीं करता या तो वह दर्शक भर होता है या फिर सहयोगी। पलंग’, ‘अधेड़ औरत का प्रेम’ ‘कैक्टस की नावदेह’, ‘एक अपवित्र पेड़ जैसी कहानियों में इसे सहज ही महसूस किया जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसी निरापद व अकंटक स्थितियों के बीच प्रेम-संवेदना के सूक्ष्मतम और उच्चतम दर्शन की बातें कहन के कलात्मक वैभव के कारण पाठकों को जादूई सम्मोहन में बांध लेती हैं। कहानी में बहुत कुछ सायास घटित या अघटित किया जा सकता है पर समाज और जीवन में सबकुछ इस कदर सुनियोजित नहीं होता। यही कारण है कि यथार्थ की किसी घटना से शुरू होकर भी प्रियंवद की कहानियाँ अपनी सायास कलात्मक निर्मिति के कारण यथार्थ से विलग होकर एक अलौकिक और अव्यावहारिक स्वप्नलोक की तरह उपस्थित होती है। इन सीमाओं के बावजूद प्रियंवद की जो कहानियाँ संवेदनात्मक रचाव, कलात्मक वैभव और रचनात्मक सामाजिक चेतना के त्रिकोणीय उत्कर्ष के कारण मुझे सर्वाधिक प्रभावित करती हैं उनमें अधेड़ औरत का प्रेम और कैक्टस की नावदेह महत्वपूर्ण है। पुरुष दृष्टि से संचालित होते हुये स्त्री के मनोविज्ञान को समझने की कोशिश का जो आरोप मैंने प्रियंवद की कहानियों पर इस आलेख में लगाया है दरअसल ये दोनों ही कहानियाँ बहुत सहजता से उसका प्रतिलोम रचती हैं। कैक्टस की नावदेहमें जिस तरह प्रियंवद प्रेमिका की बेटी के प्रश्नों के माध्यम से एक प्रेमी (पुरुष) तक उसकी प्रेमिका (स्त्री) के प्रश्नों को पहुंचाते हैं वह हमारी संवेदना को गहरे आंदोलित करता है
एक बात पूछूँ? म्रदिमा ने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया। वह काफी गंभीर लग रही थी। बिलकुल रोने के पहले जैसी उसकी आँखें हो गई थीं।
ऐसा क्यों हुआ? मैं आपकी बेटी क्यों नहीं बन पाई?’ मेरा हाथ काँप गया। म्रदिमा ने मेरा हाथ और कसकर पकड़ लिया।
यह क्यों पूछा तुमने?
माँ ने कहा था।
यह कहानी अपनी संवेदनात्मक सूक्ष्मताओं के कारण एक बेहद सतर्क और संवेदनशील पाठ का मांग करती है। बहुत संभव है कि पाठ की थोड़ी सी असावधानी कथानक में विन्यस्त भावप्रवणता को कोरी भावुकता के खाने में डाल दे। म्रदिमा के प्रश्न का जवाब उसकी माँ के प्रेमी का हाथ कांपने में निहित है। यह कहानी बिना वाचाल हुये और बिना किसी को छोटा किए जिस तरह स्त्री और पुरुष संवेदना के बीच के बारीक अंतर को रेखांकित कर प्रेम को स्वप्न से आस्था में तब्दील कर देती है वह एक विरल अनुभव है। स्वप्न और आस्था के बीच का जो अंतर इस कहानी में अभिव्यंजित हुआ है वह पुरुष और स्त्री मनोविज्ञान के बीच स्थित फासले को समझने का एक बहुत ही जरूरी उपकरण है।
रहस्य, रोमांच और अवांतर प्रसंगों के सहारे पाठकों को चौंकाते हुए सहसा उसे एक ऐसे धरातल पर पहुंचा देना जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी, प्रियंवद के कथाकार की बड़ी विशेषता है। अधेड़ औरत का प्रेममें तमाम पाठकीय कयासों को झुठलाते हुये प्रियंवद प्रेम की स्मृतियों को फिर-फिर जीने की लालसा लिए एक अकेली स्त्री की प्रतीक्षा के बहाने प्रेम में समर्पण और पारलौकिकता के प्रांजल अहसास को विकल कर देने वाली तन्मयता के साथ स्थापित करते हैं। एक पुरुष के हारने की मनोदशा के साथ खत्म होनेवाली यह कहानी दरअसल प्रेम में देह और कामना के विरुद्ध रूह और समर्पण की स्थापना का आख्यान है। ये दोनों कहानियाँ प्रियंवद की अपनी ही कहानियों का प्रतिपक्ष भी हैं और उनके कहानीकार की उपलब्धि भी।
प्रियंवद की कुछ खास कहानियों के बहाने लिखी गई यह टिप्पणी एकांगी होगी यदि इस बात को रेखांकित नहीं किया जाय कि इन कहानियों के तमाम विद्रोही चरित्र स्त्रियाँ हैं। विवाह और परिवार संस्था की सीमा के भीतर रहते हुये प्रेम के सहारे विद्रोह का बिगुल फूँकती ये नायिकाएँ प्रेम और देह के बहाने एक ही रिश्ते में हर रिश्ते को जी लेने के जीवन दर्शन के नाम पर रिश्तों की मर्यादा तोड़ने के बाद भले अपराधबोध से भर जाती हों, पर विवाहेतर प्रेम सम्बन्धों को जीते हुये उनके भीतर कोई अपराधबोध उत्पन्न नहीं होता। स्त्रियॉं के इस विद्रोह का कोई स्थाई रचनात्मक परिणाम निकल सके इसके लिए वास्तविकता के धरातल पर सांस्थानिक विलगाव की स्वीकार्यता बहुत जरूरी है। फिलहाल प्रियंवद अपनी कहानियों में विद्रोह के उस विस्तार से दूर तो रहते ही हैं, ‘अवैध के प्रति आकर्षण के बहाने उसे सायास खारिज भी करते हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि उनकी आगामी कहानियाँ प्रेम और विद्रोह के विमर्श के इन छूटे हुये या कि छोड दिये गए सूत्रों पर भी नए सिरे से विचार करेंगी।
***
संवेद – 106, जुलाई 2017 में प्रकाशित
पेशे से कॉस्ट अकाउंटेंट राकेश बिहारी कथालेखन तथा कथालोचना दोनों ही क्षेत्र में सक्रिय हैं। दो कहानीसंग्रहवह सपने बेचता थाऔरगौरतलब कहानियाँतथा एक आलोचना पुस्तककेंद्र में कहानीप्रकाशित। कहानीसंग्रहस्वप्न में वसंतसहित महत्वपूर्ण पत्रिकाओं के कई विशेषांकों का सम्पादन। स्पंदन आलोचना सम्मान प्राप्त।
संपर्कएन एच 3 / सी 76, एनटीपीसी, पोविंध्यानगर, जिलासिंगरौली (मध्य प्रदेश) 486885 मोबाईल – +919425823033 ईमेलbrakesh1110@gnmail.com
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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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nirdesh nidhi
7 years ago

बहुत ही तथ्यपरक और प्रियंवद जी की कहानियों की गहन पड़ताल ब्आरा लेख है राकेश जी द्वारा ।जैसी बारीकी लेखक की रचनाओं में है ठीक वैसी ही बारीक समीक्षक की दृष्टि में भी है।
प्रियंवद जी और राकेश जी मेरी ओर दोनों को शुभकामनाएं।
शुभेच्छु
निर्देश निधि

रचना प्रवेश
7 years ago

प्रियवन्द की कहानियों का इतना गहन विश्लेषण पढ़ा ,अच्छा लगा ।इस आलेख को पढ़ने के बाद पुनः कहानियों को पढ़ने की उत्कंठा जाग उठी ।क्योंकि राकेश जी की व्यक्त दृष्टि से कहानियों का पठन एक नया आनंद देगा ।
अच्छी पकड़ राकेश जी की कहानियों के विषय वस्तु और भावों पर ।
शुभकामनाये ।

nirdesh nidhi
7 years ago

जितनी बारीकी से प्रियंवद लिखते हैं उतनी ही बारीकी से किया गया है यह समालोचन भी। अच्छी पकड़ है राकेश जी।मेरे विचार से आलोचना यानि किसी दूसरे के कहे को ठीक ठीक समझना काफी दुष्कर कार्य है जो कि राकेश की द्वारा सफलता से किया जाता है।

Unknown
7 years ago

उम्दा आलेख, इतनी बारीकी से आपने विवेचन किया है की अब प्रियंवद की कहानियों को पढ़ने का मन हो आया है।

radiosakhi
7 years ago

बढ़िया गहरा विवेचनात्मक लेख …गागर में सागर जैसा..।यह लेख पढ़ कर प्रियंवद की तमाम कहानियां पढ़ने को मन उत्कण्ठित हुआ है .. ..बढ़िया आलेख के लिए बधाई।

Soniya Gaur
7 years ago

Bahut accha lekh. Badhai Rakesh sir

गौरीनाथ
7 years ago

महत्वपूर्ण और तार्किक लेख। राकेश जी को बधाई और शुभकामनाएँ।

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