कविता

काफलपानी श्रृंखला की चार कविताएँ

  • मंगलेश डबराल

 

( काफलपानी वह जगह है जहां मेरा जन्म हुआ. काफल पहाड़ में पाया जाने वाला एक पेड़ है जिसके छोटे-छोटे बुग्गीदार फल खट्टे-मीठे बहुत स्वादिष्ट होते हैं और सिर्फ एक महीने तक लगते हैं. काफल की जड़ों से होकर बहता पानी बहुत मिठास-भरा होता है. तेज़ी से विलुप्त हो रहे पेड़ों में यह पेड़ भी शामिल है )
1.घास और पत्थर
घास और पत्थर यहाँ एक साथ आये
कभी घास ने पत्थर को ढंक दिया  
और कभी पत्थर ने घास को अपने में छिपा लिया  
घास ने चाँद और तारों को छूने की कोशिश की
जैसे किसी स्वप्न में   
पत्थर ने अपना आकार बढाकर पहाड़ की शक्ल ले ली
ताकि लोग वहाँ रह सकें   
यह एक सभ्यता के पनपने की कहानी थी   
सन्नाटे में जब पानी चमकता तो संसार पारदर्शी हो उठता
जिसके दूसरी तरफ भी देखना मुमकिन था   
घास और पत्थर का प्रेम जहाँ कहीं टूटता
वहाँ का पानी सूखने लगता  
आप जगह-जगह जो सूखे हुए धारे और न्योले1 देखते हैं
वे इसी टूटे हुए प्रेम के निशान हैं.
———————
1पहाड़  में पानी के स्रोत.
2.पुराना पत्थर
सैकड़ों वर्षों से यह पत्थर यहीं रह रहा है
यह यहाँ रहने वाले मनुष्यों की ही तरह है
बल्कि उनसे कुछ पुराना और बेहतर
मसलन दूसरे लोगों के विपरीत यह हमेशा घर में रहा
इसने कभी बसों में धक्के नहीं खाये दूर शहरों की तरफ नहीं गया
अमीर कोठियों और कम तनख्वाह की नौकरी करने
इसने न अपमान सहे और न इसे कभी घर की याद आयी
कभी देवता बनने का ख़याल भी नहीं आया 
यह आसपास ही बना रहा
बच्चों के खेलने की जगह पर
या वहां जहाँ बूढ़े लोग उम्र के कठिन दौर में धूप सेंकते हैं
जहां एक थका हुआ आदमी इसे तकिया बनाकर कुछ देर लेट जाता है 
या घर लौटती औरतें अपने बोझे उतार कर कुछ देर सुस्ताती हैं 
अपनी संततियों को यह
नये बन रहे घरों की नींव में रहने के लिए भेजता रहा है 
इस पर जो बहुत सी लकीरें बनी है
वे दरअसल सभ्यताओं की ओर जाने वाले पुराने रास्ते हैं
जो अब सिकुड़ कर संकरे और अजनबी हो गये हैं
इसके भीतर एक छोटा सा मुलायम पत्थर है
जो दिल के आकार का है और जब-तब धड़कता है.
3.भूत
यह ऐसा भूत है जो देवता बनते-बनते रह गया
जब भी भूत देवता बनने को होते हैं यह पिछड़ जाता है
हमेशा का फिसड्डी
जब यह मनुष्य था तब भी ऐसा ही था
बचपन में कक्षा में इसे सबसे पीछे बिठाया जाता था
कई बार फेल भी हुआ
स्कूल में सेब और नाशपाती लाता
अध्यापकों की आँख बचाकर उन्हें बेचता
और शाम को उस पैसे से घर के लिए राशन ले जाता
इसे बीड़ी-सिगरेट की लत लग भी गयी 
एक दिन पिता ने इसका स्कूल छुडवा दिया
मृत्यु होने पर खबर तभी लगी जब यह भूत बन गया
अब यह यहाँ रहता है
एक चबूतरे पर पीपल और सुरू1 के पेड़ों के नीचे
वहां जहाँ से गाँव के दिखने की शुरुआत होती है
बुरी आदतों वाले इस भूत को सब जानते हैं
यहाँ से गुजरने वाले थक कर जब यहाँ बैठते हैं
तो इसके लिए मिठाई-बीड़ी-सिगरेट
और अगर पास में हो तो शराब की कुछ बूँदें भी छोड़ देते हैं
अगर नहीं छोड़ें तो यह नुकसान कर सकता है
इसकी अनदेखी करने पर किसको क्या भुगतना पड़ा
इसके कई किस्से प्रचलित हैं 
हालांकि इसकी नुकसान पहुंचाने की ताक़त
देवताओं के मुकाबले बहुत कम है.
 1. पहाड़ी कैक्टस  
 4.चाची का भूत
भूतों के बीच चाची के भूत की हैसियत कुछ अलग थी
उससे सब डरते थे
वह औरतों और ख़ासकर उन बहुओं पर लगता
जिन्हें घर की चक्की में बेतरह पिसना पड़ता था  
गाँव के सबसे संपन्न घर की अकेली युवा बहू चाची
उसकी पसंदीदा शिकार थी 
चाची के सर पर रोज़ काम का पहाड़ होता था
वह सुबह –शाम घर के लिए खाना पकाती
और दिन भर खेत और जंगल के बीच खटती    
ऐसी ही किसी जगह भूत उस पर लग जाता
फिर बाकी1 को बुलाया जाता जो चाची को नचाता 
डमरू-थाली धूप-दीप के साथ
उसकी मांगें मान ली जातीं और उससे वचन लिया जाता
कि फिर मत आना महाराज
लेकिन भूत था कि बस पहाड़ की ओट में छिप जाता था
और जैसे ही चाची पर काम का बोझ बढ़ता  
वह फिर से उसकी देह को जकड़ लेता
खेतों से घर लौटते हुए चाची की आखें चढी हुई होतीं
उसे बुखार आ जाता वह उठने से इनकार करती
और घर के सभी सदस्यों को ऐसे देखती जैसे वे अजनबी हों 
फिर से बाकी डमरू-थाली-धूप-चावल लेकर आता
बैठी हुई चाची का बदन देर तक ऐंठता रहता सांप की तरह
भूत धमकी देता मैं दैत्य हूँ दैत्य नाम है मेरा कुचील
मैला-कुचैला मैं चट कर जाऊँगा तुम्हें और तुम्हारे ढोर-डंगर
चाची का भूत खरी-खरी सुनाता वह सब
जिसे चाची कभी कह नहीं सकती थी भूत के वश में हुए बगैर 
इसके बाद चाची पड़ी रहती दर्द और ऐंठन दूर करती हुई
कुछ दिन बाद फिर से शुरू हो जाती उसकी बेगार
घर खेत जंगल
चाची का तकलीफ सुनने वाला कोई नहीं था
जब भी वह ज्यादा काम की शिकायत करती
इसे बहुओं की आम बहानेबाजी के खाते में डाल दिया जाता   
गाँव की दूसरी बहुएं थीं उसकी हमदर्द लेकिन उतनी ही लाचार  
और फिर वही भूत चिपट जाता  
पहले से ज्यादा विकराल उतरने से करता इनकार
एक दिन जब खेतों से लौटते हुए चाची थकान से चूर थी 
उसने ललकार कर इकट्ठा किये गाँव के लोग
और बिना शर्म के बिना ओझा डमरू थाली के
नाचना शुरू किया एक बीहड़ नाच
चीख कर उसने कहा आज उतारती हूँ अपना भूत
और एक-एक कर गिनाने लगी घर के लोगों के अन्याय
कहा उसने वह सब जो कहता था उसका भूत
एक संपन्न घर की बहू की बगावत आग की तरह फैल गयी
लोगों ने पहली बार देखा बिना भूत के चाची का यह रूप 
लेकिन इसके बाद फिर लौटा नहीं वह भूत
घर के लोग चाची से घबराने लगे
उसके काम का बोझ बहुत कम कर दिया गया 
उन्हें डर था चाची का भूत लौट आयेगा.
——————————————-
1. ओझा के लिए गढ़वाली शब्द.
आसान शिकार
(पोलिश कवि विस्वावा शिम्बोर्स्का की कविता ‘यातनाएं’ और हिंदी कवि रघुवीर सहाय की कविता ‘स्त्री’ की अनुगूंजों के प्रति कृतज्ञता के साथ)
मनुष्य की मेरी देह ताक़त के लिए एक आसान शिकार है
ताक़त के सामने वह अशक्त और लाचार है 
कमज़ोर और नाज़ुक हैं उसके बाल और नाख़ून
जो शरीर के दरवाज़े पर ही दिखाई दे जाते हैं
उसकी त्वचा इस क़दर पतली है कि कुरेदते ही रक्त बहने लगता है
और सबसे अधिक ज़द में आया हुआ है छोटा सा हृदय
जो इतना आहिस्ता धड़कता है
कि उसकी आवाज़ शरीर से बाहर नहीं सुनाई देती
जब वह आईने में खुद को देखती है
तो कोई भी देख सकता है कि वह सुन्दर और डरी हुई है   
मनुष्य की मेरी देह अत्याचारियों के लिए आकर्षण का विषय है
वे जानते हैं उसके बहुत सारे इस्तेमाल
उसे प्रयोगशालाओं में ले जाया जा सकता है
देखा जा सकता है वह कितनी तकलीफ बर्दाश्त करेगी 
कितनी देर बर्फ की सिल्लियों और बिजली के झटकों को सहेगी  
यहाँ तक कि उसकी चर्बी से साबुन बनाने के बारे में भी सोचा गया  
दखाऊ ऑश्विच माइ लाइ  गुलाग गुआंतेनामो अबू गरेब गुजरात
उस पर बहुत से निशान मौजूद हैं
लम्बे अनुभवों से भरी हुई वह भांप लेती है
कि उस पर आनेवाले अत्याचार किस तरह के होंगे
मिट्टी हवा पानी ज़रा सी आग
और थोड़े आकाश से बनी है मेरी देह
उसे मिट्टी हवा पानी और आग में मिलाना है आसान
उसकी आत्मा पानी की बूँद सरीखी है
जिसे पोंछ डालना आसान है
पूरी तरह भंगुर है उसका वजूद
जिसे मिटाने के लिए किसी हरबे-हथियार की ज़रूरत नहीं पड़ती
किसी ताक़तवर की एक फूँक उसे उड़ाने के लिए काफी होगी
वह उड़ जायेगी सूखे हुए पत्ते या नुचे हुए पंख की तरह
उसे फिर से बनाना भी असंभव है
सभी आततायी जानते हैं उसका यह अनोखापन
मनुष्य की मेरी देह किसी तहखाने में छिपी नहीं रहती
वह हमेशा दिखती रहती है
आसपास मामूली कामों में लगी रहती है
सड़क पार करती है कुछ दूर पैदल चलती है
थक कर बैठ जाती है और उठ खड़ी होती है
प्रेम करती है और फूल की तरह खिल उठती है
दुनिया के तानाशाहों को उसे कहीं खोजने की ज़रूरत नहीं पड़ती
दुनिया में अद्वितीय यह मनुष्य देह थोडा साहस जुटाती है
और ताक़त के सामने अकेली निष्कवच खड़ी हो जाती है

 

आलोकधन्वा कहते हैं कि मंगलेश फूल की तरह नाजुक और पवित्र हैं | निश्चय ही स्वभाव की सच्चाई, कोमलता, संजीदगी, निस्पृहता और युयुत्सा उन्हें अपनी जड़ों से हासिल हुई है, पर इन मूल्यों को उन्होंने अपनी प्रतिश्रुति से अक्षुण्ण रखा है | मंगलेश डबराल की काव्यानुभूति की बनावट में उनके स्वभाव की केन्द्रीय भूमिका है | उनके अंदाजे-बयाँ में संकोच, मर्यादा और करुणा की एक लर्जिश है | एक आक्रामक, वाचाल और लालची समय में उन्होंने सफलता नहीं, सार्थकता को स्पृहनीय मन है और जब उनका मंतव्य यह हो कि मनुष्य होना सबसे बड़ी सार्थकता है, तो ऐसा नहीं कि यह कोई सासान मकसद है, बल्कि सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि यह आसानी कितनी दुश्वार है |  
संवेद जुलाई 2017 में प्रकाशित |

 

samved

साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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