खुश्बू से भरी उस रात का जादू : एक आदिम रात्रि की महक
भारतीय साहित्य जगत का….. बल्कि कहें, वैश्विक ग्राम का जगमगाता, विश्वसनीय नाम है – फणीश्वरनाथ रेणु। रेणु जी किसी भी वंचित तबके के साथ पूरी विश्वसनीयता के साथ खड़े हैं। वे किसी भी परिचय के मोहताज नहीं, ये हम सभी जानते हैं। और ना ही उनकी रचना तथा उनकी रचनागत प्रतिबद्धता किसी के लिए अपरिचित रह गयी है आज। उनके भव्य व्यक्तित्व के अनुरूप ही उनकी विविधवर्णी रचनाएँ भव्य हैं। लगभग हर विषय पर अनेक विधाओं में कितना विपुल रचा है उन्होंने। कितना विस्तृत तथा विशिष्ट है उनका रचना संसार। ऐसा विराट हृदय कि जिसमें सारे वंचितों, दुखी लोगों का दर्द समा जाए।
गम्भीर से गम्भीर बात में भी हास्य का तड़का इनकी लेखनी की अतिरिक्त विशेषता है….अद्भुत, बेहतरीन, अछूते विविध विषयों में इनकी हास्यमयी उपस्थिति मुझे सदा से आकर्षित करती रही है। उनकी लेखनी में खिलंदड़ी-गम्भीर भाषा के साथ मार्मिक यथार्थ का जो छौंक है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।
पटना की बाढ़ पर लिखे उनके बेहद रोचक संस्मरण के जादू से उबर भी नहीं पाई थी कि इधर हाल में उनकी एक कहानी पढ़ने का अवसर मिला मुझे – ‘एक आदिम रात्रि की महक’
भाषाई चमत्कार यहाँ भी है। भाषा का जादू यहाँ भी बोलता है…. बहुत बोलता है।….खुल कर बोलता है।
शुरूआत में ही चुंबक की तरह महीन हास्य आकर्षित कर लेता है। रेलवे के बाबू के साथ रहनेवाले करमा के सही नाम की जानकारी लेने के लिए जब बाबू कहते हैं – तुम्हारा नाम करमा है, करमचंद कि करमू?
तब उसके जवाब में करमा की याद की परतें उघड़ती हैं। कोई बाबू उसे कोरमा कहता था, कोई करीमा, कोई कामा, तो कोई करम-करम कहते करम को कोसने लगता था।
“गोपाल बाबू कहते थे – आसाम से लौटती हुई कुली-गाड़ी में एक ‘डोको’ के अंदर तू पड़ा था, बिना बिलटी-रसीद के ही…. लावारिस माल। ”
गोपाल बाबू के अनुसार यही परिचय है करमा का। लेकिन नए बाबू उसे झारखण्ड का आदिवासी मान रहे हैं। वे करमा के नामकरण की वजह भी बता रहे हैं।
नवीन शब्दों की रचना के साथ नव विशेषता देखें – कुत्ता ‘दुलकी चाल से चला गया’…. पाठकों को चौंका देने के लिए काफी है। दुलकी चाल अब तक सम्मानित अश्वों की थी। उसे रेणु की कलम ने कुत्ते की बना दी और रास्ते के बेबस कुतवा को एक ऊँचे स्थान पर बिठा दिया – ‘जूता-खोर कुत्ता को’
विस्तार से कहती कथा अपने भाषाई सौंदर्य के कारण तथा लेखकीय कौशल से नवीन प्रयोगों के कारण ऐसा चमत्कार पैदा करती है कि उससे नौसिखिया पाठक भी मोहित रह जाता है । जब स्थितियों को परत-दर-परत खोलने के लिए रेणु ….सीटियाँ…. बिगुल….भोंपा…भों-ओ-ओं-ओं-ओं… जैसे शब्दों का प्रयोग मोहक ढंग से करते हैं, तो पाठक ठिठकता है, थमता है, हँसता है और दंग रह जाता है।
करमा यादों के गलियारों में घूमते हुए उन सभी ‘रिलिफिया बाबू’ को याद करता है, जिनका साथ उसे रेलवे की इस 12 सालाना नौकरी में मिला है। इसे नौकरी भी कैसे कहें। वास्तव में वह किसी बाबू का नौकर नहीं। लेकिन विविध ‘टिसनों’ (स्टेशनों) में कई-कई बाबुओं के लिए मुफ्त भोजन बनाता है। उसे कोई तनख्वाह नहीं मिलती। झारखण्ड के किसी गाँव से भाग आया है वह और रेलवे के ‘रिलिफिया’ बाबू संग भटकता रहता है, स्वेच्छा से।
‘सालटन’ अर्थात परमानेंट बाबू उसे नहीं भाते अब। (भाषा का कमाल देखें….सालटन बाबू)
वर्तमान में जिस बाबू के साथ रह रहा है, वे करमा को पसन्द करते हैं। करमा भी उन्हें खूब पसन्द करता है। वह अनेक बाबुओं को जिस ढंग से याद करता है, वह एक रोचकता का निर्माण करता है। कहानी आश्वस्त करने लगती है कि वह फिर, फिर बाँध लेगी। एक ही कथा में एक साथ अनगिन स्थानों, परिस्थितियों, गाँव-घरों, पात्रों, चरित्रों के खट्टेपन-मीठेपन और सम्बन्धों की सैर!
एक बार करमा वर्तमान टिसन के आस-पास घूमने निकलता है। रास्ते में माँगुर मछली मारते लोगों को देख खुद भी मछली मारने के लिए लालायित। कई माँगुर मछली मार कर अपने बाबू के लिए लाता है। पर रास्ते में ही एक बूढ़े खेतिहर के द्वारा अपने घर ले जाने, चाय पिलाने के बाद उसकी आत्मीय बतकही में उलझ सभी मोटी माँगुर उसे सौंप देता है।
वहीं बैठ कर खेतिहर के आग्रह पर भूनी मछली और चूड़े का जलपान उसकी आत्मा तक तृप्त कर देती है। घर के अंदर से आती स्त्रियों की मीठी, अपनेपन में लिपटी खिलखिलाहट उसे बहुत आनंदित करती है। उसे देखकर वृद्ध की खिलखिलाती पत्नी का व्यवहार उसे अपनेपन के एहसास से तृप्त कर देता है।
पंद्रह दिन बाद अगले टिसन पर जाने के लिए तैयार बाबू के साथ जाने से वह करमा अर्थात करमचन इंकार कर देता है क्योंकि उसकी साँसों में उस वृद्ध खेतिहर की बेटी सरसतिया के झबरे केश एवं बेनिहाई देह की सुगन्ध भर गयी है। वह उसकी या उसकी माय की गोद में सर रखने की कल्पना में एक आश्वस्ति सा पाता है…. किसी अपने के होने का। आत्मीय डोर से बँध जाने का। प्रेम की सुगबुगाहट उसे आगे जाने से रोकती है।
कभी किसी टिसन पर मिले मस्तानबाबा प्रारम्भ में कुली कुल के थे। लेकिन बाल, दाढ़ी बढ़ाकर, खंजड़ी बजा कर निर्गुन गाने लगते हैं और साधुओं की तरह प्रसिद्ध हो जाते हैं। यह एक विडंबना रही है भारतीय समाज की कि जब आम भारतीय कुछ नहीं बन पाते थे, अपने श्रम के बल पर सम्मानपूर्वक जी नहीं पाते थे, तो साधु बन जाते थे। और भरपूर मान भी पाते थे।
जब मस्तान बाबा निर्गुण गाते हैं, करमा का दिल जीत लिया करते हैं –
…. घाट-घाट का पानी पी कर देखा
– सब फीका।
एक गंगाजल मीठा….।
यहाँ रेणु का गीत-प्रेम स्पष्ट हो जाता है। वे एक साथ कई-कई रूपों में खिलते हैं। वे हर रूप में उतने ही आकर्षक हैं। अपने अद्भुत ज्ञान से रेणु आतंकित नहीं करते, बल्कि वे एक प्रेरक की भूमिका में नज़र आते हैं। इस रचना में भी लोक, शास्त्र, कलात्मक गँवई चित्रण, खेती-बारी, रेलकर्मी का जीवन, किसनई, महत्वपूर्ण स्थितियों की चित्रात्मकता आदि पाठकों को कहानी लेखन की कला सिखाती हुई सी प्रतीत होती है। छोटी-छोटी घटनाएँ इतनी आसानी से कहानी में ढल जाती है कि आप बहते चले जाते हैं कहानी की वेगवती धारा में।
उनका भाषाई सौंदर्य उभर कर सामने आता है जगह-जगह। रून-झुन पायल की मिठास सी भाषा। करमचन को रसोइया बुलाने की बजाय नया शब्द गढ़ा बूढ़े ने – चूल्हचन! पेट भात पर खटनेवाला।
एक-दो बानगी और देखें –
‘गाछ-बिरिच्छ भी अपने लोगों को पहचानते हैं… ।’
‘फसल को नाचते-गाते देखा है कभी?’
‘रोते सुना है…. है….. है…. है – मस्त रहो।’
‘हूँहूँहूँ-हाँहाँहाँ-अरेरेरे – छू दिया न ?’
‘चिरई, चुरमुन…..पानी पाँड़े’
इतनी जीवन्त भाषा! हमेशा ‘धत्त’ की जगह ‘धेत्त!… धेत्त!’ का नया प्रयोग।
मस्ती में डूबी हुई रचनाएँ करुण रस का भी संचार करतीं हैं।
करमा एक अनाथ की तरह है। वह सालटन गोपाल बाबू की बीवी की कारस्तानी देख हर जनाना से डरने लगा था। उनकी दी हुई ‘चोर’ की उपाधि और गाली उसके जेहन का पीछा अन्त तक नहीं छोड़ती। लेकिन सरसतिया और उसकी माय की निश्छल हँसी ने फिर से उसे एक स्त्री के भीतर की स्वाभाविक कोमलता से परिचय करा दिया…. ऐसा परिचय कि उसकी भटकन छूट गयी। स्त्री से नफरत दूर होने लगती है। वह वहीं उसी जगह रह जाना चाहता है। …..सदा के लिए। लेखक स्त्री के दोनों चेहरों से पाठकों को मिलाते हैं यहाँ। क्रूर, घृणायोग्य और कोमल, खुश्बू से भरे स्त्री चेहरे से।
ग्राम्य-अंचल, परिवेश, सामाजिक परिवर्तन और करमा के मन की जमीन पर विभिन्न व्यक्तियों के संसर्ग से उपजे मनमोहक-त्रासद अनुभवों को बहुत खूबसूरती से प्रस्तुत किया है यहाँ रेणु ने। इसकी छिपी मार्मिकता ध्यान खींचती है।
पानी की मानिंद बहती हुई पारदर्शी भाषा में आप डूब से जाते हैं। कहानीकार अपने उद्देश्य में सफल हो जाता हैं, जब उस बूढ़े खेतिहर और उसकी भार्या का मानवीय पक्ष सबको दिख जाता है।….खूब सूक्ष्म, रेशे-रेशे को खोलता विवरण। मानवता और पठनीयता की कसौटी पर सौ फीसदी खरी कथा।
आदमी, आदमियत और मानव मन की गुत्थियों को रेणु भी प्रेमचंद की तरह पूरी शिद्दत से महसूस कर सकते थे। इस कहानी में लेखक की संवेदना, संवेदनशीलता, मन की गुत्थियों को समझने की क्षमता का परिचय मिलता है। वंचितों के साथ खड़े होकर उनके मानवीय रूप को सामने लाना एक लेखक के लिए आवश्यक है। परपीड़ा को समझना, उसे स्वर देना, आम आदमी के झंझा-तूफानों को पूरे संवेदनात्मक आवेग के साथ प्रस्तुत करना ही लेखक का उद्देश्य होना चाहिए और यह काम ‘एक आदिम रात्रि की महक’ कहानी में भी हमारे रेणु ने हँसते-हँसाते कर दिखाया है।
कहानी क्या है मनुष्यता की पहचान कराती हुई एक कोलाज। हमेशा की तरह अपने मोहपाश में बाँधती साफ-सुथरी कथा। वंचितों, शोषितों के पक्ष में पूरी मुस्तैदी से खड़ी। कथ्य के अनुरूप वातावरण निर्माण इस कहानी को विश्वसनीय बनाता है। बिहार के विभिन्न इलाकों में जाते रहनेवाले नायक करमा के बहाने प्राकृतिक, सामाजिक ताने-बाने की गहरी पड़ताल बड़ी सहजता से कर गए कथाकार रेणु।
जीवन के प्रत्येक पक्ष को उजागर करती रेणु की अधिकांश रचनाओं में यह आस्वाद पाया जा सकता है। जिन तक धूप, हवा, पानी नहीं पहुँच पाता, उन्हीं की बात कहने में रूचि लेते रहनेवाले कथाकार का यह अद्भुत कथा सृजन है। समृद्ध कथा भाषा के बावजूद कहन की सादगी, सरलता, घटनाओं की मीठी छुअन हमें हर जगह बाँध लेती है।
जीवन को कितना करीब से देखते, समझते रहे हैं रेणु। अपनी रचनाओं से वे सदा समाज और व्यक्ति को कुछ विशेष देते ही रहे हैं। कहानी रेलकर्मियों पर केंद्रित होते हुए भी कितना विस्तार समोए है। जीवन किसी एकांश में भी कितना अधिक विस्तृत हो सकता है, इसकी बानगी है यह आदिम रात्रि की महक। उस अन्तिम रात करमा अज़ब से आनंदलोक की सैर करता है। खुश्बू में डूबी है वह रात।
पर इतनी समृद्ध कहानी थोड़ी हड़बड़ी में अन्तिम पड़ाव पर पहुँचती है। झटके से अन्त करने की बजाय थोड़ी और गहनता, थोड़ी और तरलता, थोड़ा सा और संवेदनात्मक विस्तार इसे और भी रोचक बना देता। ऐसा मेरा मानना है।
संप्रेषण, पात्रों के गठन, शीर्षक की उपयुक्तता में एक महत्वपूर्ण रचना। चरित्र गठन, संप्रेषण, कथानक, कथ्य में उत्तम। कई पहलुओं को एक साथ खोलती शानदार, बेजोड़ कालजयी कहानी है यह। कालखण्ड में बँध नहीं सकते ऐसे कालजयी लेखक। और ना ही एक आदिम रात्रि की महक समान कोई कथा।
अनिता रश्मि
19-20 की उम्र में पहला लघु उपन्यास प्रकाशित।
दो उपन्यास, चार कहानी संग्रह , एक यात्रा वृत्तान्त, एक लघुकथा संग्रह एवं एक काव्य संग्रह प्रकाशित।
ज्ञानोदय, वागर्थ, हंस, कथाक्रम, समकालीन भारतीय साहित्य, वर्तमान साहित्य, जनसत्ता, रा. सहारा सहित कई राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में शताधिक विविधवर्णी रचनाएँ एवं कुछ समीक्षाएँ प्रकाशित।
कहानियों का मलयालम, तेलुगु में अनुवाद।
उपन्यास पर नवलेखन पुरस्कार( राजभाषा विभाग, बिहार सरकार) ,शैलप्रिया स्मृति सम्मान, प्रथम साहित्य गौरव सम्मान, (स्पेनिन, राँची ) , रामकृष्ण त्यागी कथा सम्मान 2019 ( सर्व भाषा ट्रस्ट )
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