लेख
स्वप्न और यथार्थ की आवाजाही
(‘शोकगीत’ : कुणाल सिंह)
- अरुणेश शुक्ल
कुणाल सिंह की कहानी शोकगीत कई अर्थों में नब्बे के बाद आये भूमण्डलीकृत यथार्थ की युवा स्थिति की पड़ताल करती है। यह तथ्य में काफी दिनों से था कि इस समय ने हमारे परम्परागत समाज और संवेदना को तोड़ा है। समाज को, व्यक्ति को या अपने समय को देखने की परम्परागत स्याह–सफेद संरचनायें अपर्याप्त और नाकाफी हो गयी हैं। लेकिन इन स्थितियों से किस युवा मानस का निर्माण हो रहा है, या इन सैद्धान्तिकियों की वास्तविक निष्पत्ति क्या हो रही है इसके बहुत कुछ हिस्से का जवाब यह कहानी दे देती है।
बेहद खूबसूरत भाषा में रचे गये पैराग्राफ से शुरू होने वाली यह कहानी एक ऐसे युवा की है जिसे बिना किसी ठोस वजह के एक साथ तीन महीने का वेतन देकर नौकरी से निकाल दिया गया है। कहानी ऐसे ही बेरोजगारी के दिनों की है। यह हमारे समय के उन तमाम युवाओं की कहानी है जिनके सर पर हमेशा नौकरी से निकाल दिये जाने के डर की तलवार लटकी रहती है या जो नौकरी से निकाल दिये जाते हैं।
कहानी हमारे समय के इस कार्पोरेटी होती दुनिया के क्रूर और संवेदनाहीन सच को सामने लाती है। पूँजी की केन्द्रीयता और मुनाफा कमाने के इस युग में जिस तरह से व्यक्ति व श्रमिकों के अधिकारों का हनन हुआ है इसको यह कहानी हमारे सामने बड़ी शिद्दत से प्रस्तुत करती है। निजीकरण के इस दौर में जब भी चाहें कम्पनियाँ बिना कोई कारण बताये हुए आपको नौकरी से कभी भी निकाल सकती है। और विडम्बना यह कि इस लोकतान्त्रिक समाज में जहाँ लगातार मानवाधिकारों के रक्षा की दुहाई दी जाती है वहाँ पर आप कहीं भी उसके खिलाफ अपील नहीं कर सकते। नामवर सिंह ने एक जगह कहा था कि कहानी निष्कर्ष में नहीं ब्यौरों में होती है। सामान्य तौर पर ऊपर से प्रेम व बेरोजगारी की यह कहानी अपने भीतर व्यापक विमर्शों को समेटे हुए हैं। खासकर अब उदारवाद के इस दौर में उन युवाओं की स्थिति क्या है जो क्षमतावान व स्वप्नदर्शी तो है किन्तु उसे न तो पूरा कर पा रहे हैं और न ही सिद्ध। कहानी में कुणाल लिखते है, ‘‘बिलकुल ठीक फरमाया आपने, पैसा होना चाहिए। आजकल तो रुपये के सारे खेल है जनाब। गरीबों के लिए कोई ठौर नहीं। अब नौकरियों को ही लीजिए। आजकल कहीं भी जाइए कॉन्ट्रैक्ट बेसिस पर ही नौकरी मिल रही है। हर साल नया एग्रीमेण्ट और नौकरी का नवीनीकरण। जब तक उनकी मर्जी आपसे काम ले रहे हैं और जब जरूरत नहीं, पिछाड़े लात मारकर निकाल देते हैं। ऐसी नौकरियों में आदमी के अन्दर अनिश्चितता की एक आशंका हमेशा घर किए रहती है।’’ बिना ज्यादा लाउड हुए कहानी का यह पैराग्राफ स्टेट व पूँजी के ताकतवर होते मनुष्य विरोधी चरित्र को हमारे सामने उद्घाटित करता है। वस्तुतः यह व्यवस्था जोकि पूँजी से संचालित होती है वह यह चाहती है कि मनुष्य ज्यादा–से–ज्यादा उस पर निर्भर व आश्रित रहे। उसके जीवन को इस तरह से नियन्त्रित न अनुशासित किया जाये कि वह व्यवस्था के विरुद्ध कुछ सोच ही ना पाये। कान्ट्रैक्ट की नौकरियाँ युवाओं को समाज की अन्य समस्याओं से हटाकर सिर्फ और सिर्फ अपनी नौकरी बचाने तक ही सीमित कर देती है। उसका सारा ध्यान सिर्फ अपनी नौकरी बचाने में ही लगा रहता है। इसके लिए वह बारह से चौदह या अठारह घण्टे ऑफिस में मशीन की तरह काम करता है। पूरे करता है। बावजूद इसके असुरक्षित महसूस करता है। इसके इतर जीवन में मार्केट की पहुँच इतनी कि सुख–सुविधा के लिए लोन पर लिए गये रुपये को चुकाने का तनाव उसे ज्यादा–से–ज्यादा काम करने के लिए बाध्य करता है। आशय यह कि यह व्यवस्था युवाओं को एक ऐसे कुचक्र में फँसा कर व बाजार के लिए देने वाले मशीनी प्रोडक्ट में तब्दील कर रही है जिसके पास अपना कोई सरप्लस समय नहीं है। वह हमेशा अपने जीवन की सुरक्षा व बाजार के फायदे के लिए ही सोचता है। समाज, राष्ट्र, परिवार आदि पर सोचने के लिए उसके पास न तो वक्त है और न ही स्थितियाँ। बाजार द्वारा किये जा रहे एलियनिशन का यह एक भयावह व वीभत्स रूप है। इतना भयावह कि कम्युनिस्ट शासित प्रदेश में भी स्थितियाँ अलग नहीं हैं।
कुणाल सिंह की ताकत यह है कि वह बहुत छोटे–छोटे वाक्यों में बिना किसी विद्वत आतंक के बहुत ही सहज तरीके से सच को सारगर्भित रूप से हमारे सामने लाते हैं। कहानी में कुणाल नब्बे के बाद के युवा का प्रतिनिधित्व करता है। सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि यह युवा निराशा व हताशा के गर्व में डूबा नहीं है। उसे अपने समाज व समय के सच का पूरा मान है। बावजूद इसके वह निराश नहीं है। वह इन स्थितियों से निकलने के लिए न सिर्फ प्रयासरत है बल्कि लगातार कुछ बेहतर करने के लिए संघर्षरत भी है। ‘अब हम बेकार हैं।’ “उदासियों में लिपटा हुआ, एक ऐसा नौकरीपेशा होने की जो गर्मी होती है, वह हममें अभी चुकी नहीं थी। यद्यपि उस नौकरी को वापस पाने का कोई सवाल नहीं था लेकिन हमें किसी दूसरी नौकरी की उम्मीद थी।’’ दरअसल यही उम्मीद इस कहानी को बड़ा बनाती है। आज की युवा पीढ़ी पर लगने वाले यह आरोप कि इसके लड़ाकू तेवर नहीं है, रिश्तों के प्रति संवेदनशीलता नहीं है आदि का भी यह कहानी माकूल जवाब देती है। यह इस पीढ़ी की संवेदनशीलता ही है कि कहानी का नायक अपने घर यह नहीं बताता कि उसकी नौकरी चली गयी है, यहाँ तक कि अपनी प्रेमिका को भी नहीं। क्योंकि वह जानता है कि एक सामान्य मध्यवर्गीय घर के लिए नौकरी की कीमत क्या होती है। पूरा का पूरा घर उस नौकरी से चलता है। ऐसे में नौकरी छूट जाने की सूचना पर उस घर पर क्या बीतेगी। ऊपर से टिपिकल पिता की तरह पिता उसे ही नालायक समझेंगे। क्योंकि उनके जमाने में ऐसा नहीं होता था। जबकि सच यही है कि अब जमाना बदल चुका है। स्टेट अब वेलफेयर स्टेट की अवधारणा से बहुत पीछे हट चुका है। किन्तु उन्हें कैसे समझाये। क्योंकि यह जेनरेशन गैप का मामला नहीं है। बल्कि हमारे समय का क्रूर सच है। एक ऐसा सच जिसके चलते एक संवेदनशील युवा के मन में यह कचोट है कि एक अच्छा बेटा होने के बावजूद वह अपने अच्छेपन को साबित नहीं कर सकता। क्या करे दुनिया एक रेडिमेड उत्पाद जो है। कहानी का नायक कुणाल पहले सीपीएम का कार्ड होल्डर था। इसलिए वह सीपीएम की हकीकत भी जानता है। वह एक सचेत युवा है जो दुनिया और प्रतिरोध का दावा करने वाली ताकतों में हो रहे अथवा हुए परिवर्तनों को पैनी दृष्टि से नोट करता है, उन्हें समझता है। इसलिए वह कहता कि दुनिया एक रेडिमेड उत्पाद है और मैं कुछ नहीं कर सकता। मेरी उम्र महान पच्चीस साल है। मैं सिर्फ इश्तहारों को पढ़ सकता हूँ और लड़कियों के साथ फ्लर्ट कर सकता हूँ। और ज्यादा हुआ तो मल्टीलेक्स सिनेमा पर बहस कर सकता हूँ और एड्स की रोकथाम के सामाजिक अभियान में हिस्सेदारी कर सकता हूँ। लोग कहते हैं कि एड्स इस मिलेनियम का सबसे बड़ा संकट है। मिलेनियम मतलब समझ से ना?’’ यह पैराग्राफ और लम्बा है। मेरी अपनी समझ में यह कहानी का सशक्त पैराग्राफ है। सशक्त इस मायने में कि इससे कुणाल सिंह की राजनैतिक–सामाजिक व सैद्धान्तिक समझ तथा सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति का पता चलता है। दरअसल, पहले यह उद्देश्य होता था कि दुनिया को बदलना है उसे बेहतर बनाना है, सक्रिय हस्तक्षेप करके। एक नई दुनिया बनाना है जिसमें शोषण न हो! किन्तु आज स्थिति यह है कि एक ऐसी दुनिया हमें मिली है जो कि रेडीमेड उत्पाद है। इसे मार्केट व पूँजीवाद ने बनाया है, जिसे बदला नहीं जा सकता, न ही इसमें किसी तरह का हस्तक्षेप किया जा सकता है। बस हमें इसमें रहना है, बाजार की शर्तों पर, शर्तें ऐसी कि अब स्टेट मार्केट ही तय करता है कि हमें खतरा किन चीजों से है हमें जिसका और कितना तथा जिस तरह का प्रतिरोध करना है। इसीलिए अब भूख, कुपोषण, बेरोजगारी, शोषण की जगह एड्स ‘शताब्दी का सबसे बड़ा संकट’ है। विडम्बना तो यह है कि दुनिया बदलने का दावा करने वाली मार्क्सवादी पार्टियाँ इस बड़े षड्यन्त्र व खतरे को नहीं समझ पा रही हैं। वे भी उत्तर आधुनिक वर्चुअल रीयलीटि को ही रिअल मान बैठी हैं। इसी कॉमरेड सोम सारस्वत को अब अमरीका या पूँजीवाद की जगह शाहरूख खान, आसाराम बापू और प्रमोद महाजन से बराबर का खतरा नजर आता है। क्रान्तिकारी वैश्विक चेतना का इतना स्थानीय स्वखलन ध्यातव्य है। इससे भी ज्यादा दु:खद यह है कि उन्हें आम जीवन के तकलीफों की भी समझ नहीं है। उन पर उनका ध्यान नहीं है कि एक गरीब या आम आदमी के जीवन में चाय–पानी से लेकर चप्पल–लुंगी खरीदने तक किस तरह परेशानी का सामना करना पड़ता है। अर्थात् न ही वैश्विक चेतना है और न ही आम जीवन की समझ। ऐसी स्थिति में इस रेडीमेड दुनिया में अब मुद्दे–खतरे व विमर्श की रेडीमेड हो गये हैं। जिनका हकीकत से दूर–दूर तक शायद ही कोई लेना–देना हो।
‘शोकगीत’ में सिर्फ ऐसा नहीं है कि मध्यवर्ग या आम आदमी के दु:खों का ही वर्णन है कुणाल सिंह बहुत सचेत रूप से इस वर्ग के दिखावटीपन को भी उद्घाटित करते हैं। लड़कियों की मध्यवर्गी पहचान बताते हुए लिखते हैं कि ‘‘मेरा ख्याल है कि पैर बड़े चुगलखोर होते हैं। अक्सर हाथों की बनिस्बत बहुत कम सुसंस्कृत होते हैं पैर। जबकि हाथ नयी सभ्यता को पूरी तरह अपना चुके होते हैं, पैरों में अब भी पुरानी सभ्यता की विवाइयाँ घिसट रही होती हैं।’’ निश्चित तौर पर पैर आधार है। आधार जो कि अधिरचना की हकीकत बयाँ करता है। भारतीय मध्यवर्ग जो कि वेष–भूषा रहन–सहन में तो कहानी में आयी लड़कियों की तरह आधुनिक व अमीराना है। किन्तु भीतर से कितना खोखला है। इसको उसकी नौकरी की असुरक्षा, बेरोजगारी, परम्परा के प्रति प्रेम से समझा जा सकता है। इतना ही नहीं भारतीय समाजार्थिक विकास की हकीकत को भी यह रूपक हमारे सामने खोलता है।
‘शोकगीत’ में एक प्रेमकथा भी साथ–साथ चलती है – कुणाल और लिपि की। लिपि जो अपने पिता की मर्जी से शादी न करके अपनी मर्जी से कुणाल से शादी करना चाहती है। दोनों की शादी तय भी है किन्तु समय के दबाव में कहीं–न–कहीं दोनों के प्रेम को भी प्रभावित किया है। प्रभावित इस मायने में कि कुणाल उसे नहीं बता पाता कि इसकी नौकरी छूट गयी है क्योंकि उसे डर है कि कहीं यह पता चलने पर उसके घरवाले उसकी शादी कहीं और न तय कर दें। वह अन्त तक उसे नहीं बता पाता। दरअसल, आज के समय में बिशुद्ध प्यार भी आर्थिक दबाव से मुकत नहीं है। अन्तिम पृष्ठों में इस बदलते समय में मनुष्य व यन्त्र के बीच की दूरी कम होने का संकेत है। दरअसल कहानी में कुणाल सिंह ने स्मार्टली कुछ बहुत ही खूतसूरत शिल्पगत प्रयोग किये हैं ऐसे प्रयोग जिन्हें देखकर बतौर कथाकार कुणाल सिंह की काबिलियत और व्यापक रीच का अहसास होता है। इस कहानी में शुरुआत के कुछ पृष्ठों और अन्तिम दो पृष्ठों पर कुणाल ने यह दिखाया है कि हमारे समय में स्वप्न और यथार्थ की विभाजक रेखा धुँधली हुई है। स्वप्न वहीं तक नहीं होता जहाँ तक हम उसे देखते हैं वह उसके बाद भी होता है। इसी तरह स्वप्न में भी यथार्थ होता है। वह सिर्फ स्वप्न से बाहर नहीं होता यही कारण है कि वह सण्डे को भी ऑफिस चला जाता है। उसे याद नहीं रहता कि यह छुट्टी का दिन है। वह किसी भी सवाल का कोई जवाब दे सकता है और बोलने के नैरन्तर्य में भी शब्दों के टुकड़े एक–दूसरे से जुदा और सम्पूर्ण थे। बेहद सरल दिखने वाली इस कथा संरचना में कुणाल ने एक बहुत ही जटिल किस्म के कथाशिल्प को गढ़ा है।
कहानी में कुणाल सिंह की भाषा कई शेड्स लिये है। पहला पैराग्राफ एक बेहद जादुई–सी भाषा में लिखा गया है। ऐसे कई पैराग्राफ इस कहानी में और भी मौजूद हैं। किन्तु उल्लेखनीय यह है कि कुणाल अपनी ही भाषा में अपने द्वारा रचा गया जादू खुद ही तोड़ते हैं। धुएँले, पहाड़े जैसे शब्दों का सटीक इस्तेमाल कर वह आपको वहाँ रुकने के लिए बाध्य करते हैं। ‘शोकगीत’ में परिवेश या प्रकृति व प्रेम के चित्रण में कुणाल ने ऐसी भाषा का प्रयोग किया है मानो हम सत्तर एमएम के पर्दे पर कोई पुरानी रंगीन हॉलीवुड की क्लैसिक रोमैंटिक फिल्म देख रहे हों। यानी भाषा को जबर्दस्त विजुअल पावर प्रदान किया है कुणाल ने। वहीं समाज का चित्रण करने में, सामाजिक, राजनैतिक समस्याओं के चित्रण में बोलचाल के साथ–साथ कहीं–कहीं सपाटबयानी के साथ व्यंग्यात्मकता वाली भाषा है। देशज शब्दों, मुहावरों के साथ–साथ बोलचाल के अँग्रेजी शब्द यह दिखाते हैं कि कुणाल सिंह की भाषा की बहुस्तरीयता क्या है! (हंस, अप्रैल 2005)
कुणाल सिंह की कहानी ‘शोकगीत’ की यह समीक्षा ‘संवेद’ के 71वें अंक (दिसंबर 2013) में प्रकाशित है।
अरुणेश शुक्ल
युवा आलोचक। विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में आलोचनात्मक लेखों का नियमित प्रकाशन।
अस्मिता विमर्श में गहरी अभिरुचि।
संपर्क : मो. – +918975250626