कथा संवेद

कथा-संवेद – 7

 

इस कहानी को आप कथाकार की आवाज में नीचे दिये गये वीडियो से सुन भी सकते हैं:

 

 

भूमंडलोत्तर कहानी के सर्वाधिक विश्वसनीय कथाकार पंकज मित्र का जन्म 15 जनवरी 1965 को तत्कालीन बिहार और वर्तमान झारखण्ड के रांची शहर में हुआ। हंस, सितंबर 1996 में प्रकाशित अपनी पहली कहानी ‘अपेंडिसाइटिस’ से कथा-यात्रा शुरू करनेवाले पंकज मित्र के चार कहानी-संग्रह ‘क्विज़ मास्टर और अन्य कहानियाँ’, ‘हुड़ुकलुल्लू’, ‘ज़िद्दी रेडियो’ तथा ‘वाशिंदा @ तीसरी दुनिया’ प्रकाशित हैं।

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समाज का एक वर्ग अहिंसा और सत्याग्रह को हमेशा से कमजोरी और भीरुता की तरह देखता रहा है। लेकिन गांधी ने न सिर्फ कहा बल्कि यह सिद्ध भी कर दिखाया कि तमाम हथियारों और संसाधनों से युक्त सर्वशक्तिमान होने के दंभ से भरे हिंसक सत्ता-व्यूह को भेदने के लिए सत्य और अहिंसा ही सबसे मजबूत उपकरण हैं। पंकज मित्र की कहानी ‘बापू सेहत के लिए तू तो हानिकारक है’ अहिंसा को प्रतिरोध के आखिरी और सबसे कारगर विकल्प की तरह प्रस्तुत करती है। गांधी दर्शन के चार सर्वाधिक प्रमुख घटकों सत्य, अहिंसा, सविनय अवज्ञा और ब्रह्मचर्य की प्रासंगिकता को तंज़ की रोशनी में उभारने के लिए कहानी में जिस बापू नामक चरित्र को विकसित किया गया है, उसकी निर्माण प्रक्रिया में गांधी की निर्मिति की अनुगूंजों को साफ-साफ सुना जा सकता है। गांधी ने कोरे सिद्धान्तों का प्रतिपादन नहीं किया बल्कि स्वयं उन सिद्धांतों पर आधारित जीवन जीने के हरसंभव प्रयोग भी किए। पंकज मित्र ने इस कहानी के नायक का चरित्र रचते हुये गांधी के जीवन में गहरे व्याप्त उस प्रयोगधर्मिता को बहुत बारीकी और सांकेतिकता से रेखांकित किया है। प्रकटतः गांधी के नकार का प्रहसन-सी दिखती यह कहानी अपनी आंतरिक संरचना में गांधी-मार्ग के स्वीकार की मजबूत अंतर्ध्वनियाँ समेटे हुए है।

राकेश बिहारी

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बापू सेहत के लिए तू तो हानिकारक है

पंकज मित्र

 

हमारे बापू पर हमला हो गया था और वह भी हमारे मोहल्ले में। यह कोई रहस्य भी नहीं था कि किसने हमला किया था, या करवाया था और क्यों। बापू उन शारीरिक विशेषताओं वाले लोगों में शुमार होता था जिन्हें देखते ही षोडशी कन्याएं – “अंकल! थोड़ा साइड दीजिएगा” का विषवाण चला देती थीं और वह निष्कवच इन विषवाणों को झेलने के लिए अभिशप्त था। दरअसल दो तरह की शारीरिक विशेषताओं वाले लोग होते हैं- एक वह जो अपनी कद काठी, दाढ़ी- मूछों की अनुपस्थिति और सिर के बालों की घनघोर उपस्थिति की वजह से अपनी वास्तविक उम्र से काफी कम के लगते हैं और उमरचोर कहलाते हैं और दूसरे वे जो असमय कालकवलित हुए केशों, पकी – पोढ़ी कद काठी, अकालचश्म होकर अपनी उम्र से काफी बड़े लगते हैं। वह दूसरी वाली कैटेगरी में आता था। था तो हमारे कॉलेज का ही मित्र और जितने दुर्गुण हममें थे, वह सब उनमें भी थे बल्कि कुछ ज्यादा ही परिमाण में – मसलन गांजे की सिगरेट वह जितनी तेजी से भरकर तैयार करता, उतनी हम में से कोई नहीं कर पाता। तकरीबन आधे किलोमीटर की दूरी से ताड़कर वह बता देता था कि वह जो स्कूटी पर गुलाबी टॉप में आ रही है, वह सेकंड ईयर में है और थर्ड ईयर के फलाने या चिलाने के प्रेम में आकंठ डूबी है और हम लोगों का कोई भी प्रयास निष्फल होगा। फलाँ सर कितनी देर तक ब्लैक बोर्ड की तरफ मुड़कर लिखेंगे और इतनी देर में हमारा पूरा दल खिड़की से निकल पाएगा या नहीं। मोहल्ले की फलानी का पति दोपहर में लंच के लिए आता है तो ठीक कितने बजे हम गली की तरफ वाली खिड़की की फाँक से नीली फिल्म दृश्यों का आनंद ले सकते हैं। यह सब उसके विशद्  ज्ञान और कार्य व्यापार का अंग था और उसके असत्य के साथ निरंतर किये गये प्रयोगों का तो पूछिए ही मत।

चित्र : अनुप्रिया

उनके सामने तो असली बापू के सारे सत्य के प्रयोग असफल हो जाते। कुछ प्रयोग तो इतने मारक थे हमारे लिए कि कई बार हम घर पर पिता चाचा ताऊ से मार तक खा जाते थे। मसलन हम सबों का पिक्चर देखने का कार्यक्रम दोपहर में बन चुका होता था  स्कूल में टिफिन के बाद और गली के मुहाने पर वह टकरा जाता हमारे किसी अभिभावक से जो जाहिरा तौर पर बमशंकर पान दुकान पर पान या सिगरेट का शौक फरमा रहे होते थे। उन्हें देखते ही गुरु गंभीर मुद्रा में, एक हाथ में दिखावटी किताब, धीर गंभीर कदमों से दुकान पार करने की चेष्टा कर रहा होता। तभी

-क्या रे आज स्कूल नहीं गया  टिफिन के बाद?

-हां चाचा जी गये थे ना। स्कूल में इंस्पेक्शन टीम आ गयी थी तो छुट्टी हो गयी।

-अच्छा! तो और सब?

-गये होंगे घर।

– तुम कहां जा रहे हो?

-ट्यूशन पढ़ाने।

-ट्यूशन पढ़ाता है तुम – हमारे अभिभावक की आँखें चौड़ी हो जाती थी यह सुनकर।

– यस अंकल आय टीच इंग्लिश टू द जूनियर स्टूडेंट्स टू पे माय स्कूल फी

और फिर हमारी वह धुलाई होती थी कि- देख वह भी तो तेरी क्लास में है। फर्राटेदार  अंग्रेजी बोलता है। ट्यूशन करके खर्चा निकालता है  अपना पढ़ाई का। एक तू है। नालायक!

अगली फुर्सत में हम उसे कूटते थे।

-अरे तो कुछ सूझा नहीं उस समय। जो सूझा  बोल दिये  बस।

स्कूल के दिनों से ही उसके इस किस्म के प्रयोग जारी थे और कॉलेज में भी जब हमारे क्लास की मात्र तीन लड़कियों में से एक के भाइयों ने उसे रंगे हाथों पत्रों का आदान- प्रदान करते हुए पकड़ लिया था और हिंसा को उद्यत हुए तो  उसने इतना निरीह और दयनीय चेहरा बना कर कह दिया कि- वह तो उसे अपनी बहन मानता है अपने हृदय के अंतरतम से क्योंकि उसके कोई बहन नहीं है ना।

साथ ही कुछ सचमुच की आंसुओं की बूंदें भी टपका  डाली तो भाई लोग सब धोखे में आ गये और उसे एक निरीह और निरापद शाकाहारी किस्म का जीव मानने लगे। इसके बाद उसने लंबे समय तक निर्विघ्न  प्रेम का कार्यक्रम चलाया – हर तरह का प्रेम, वायवीय भी और ठोस यथार्थ की धरती पर टिकाने वाला प्रेम भी। इसकी वजह से हम उसे बीसी कहने लगे थे। तो ऐसे ऐसे प्रयोग थे उसके असत्य के। किस्सा कोताह यह  कि वह बूटे से कद का, दुबला, साँवला, गंजे सिर वाला, चश्मिश एक नौजवान था, जिसे नौजवान मानता नहीं था कोई भी। यहां तक कि हम भी नहीं और उसे हमेशा भारत भूषण या अशोक कुमार जैसे अभिनेताओं की श्रेणी में रखते थे जो हमारी मान्यता के अनुसार कभी युवा थे ही नहीं। शैशव के बाद सीधे वृद्धावस्था को प्राप्त हो गये थे। अब उसके असमय गंजेपन की वजह से था या गोल चश्मे की वजह से या दुबली पतली हड़ियल आकृति की वजह से था, हम उसे बापू पुकारने लगे थे और धीरे-धीरे हम उसका असल नाम भूल भी गये थे। यहां तक कि उसके घर जाकर हम में से कोई इसके पिता जी से भी पूछ  देता था  अचानक- चाचा! बापू है क्या घर में?

-कौन? चौंककर पूछते थे उसके पिता। तब सकपकाकर  उसका नाम थोड़ा याद करके बताना पड़ता था।

-भागो यहां से तुम लोग! साले! बापू का नाम भी खराब करोगे तुम लोग!

चाचा दौड़ाते थे  हम लोग को। भागते हुए हम देखते थे कि हमारा बापू घर की छत पर खड़ा हुआ हमारी दुर्दशा के मजे ले रहा होता। इसका बदला हम दूसरे दिन निकालने की कोशिश करते बापू बोलता था – अरे! ओहो हिंसा! हिंसा एकदम नहीं, बातचीत करके मुद्दा सुलझाते हैं  ना।

-साले! डरपोक!

चित्र : अनुप्रिया

तो मुद्दा ऐसे सुलझता कि बंगाली हलवाई सपन की दुकान पर गरमागरम, समोसे और चाय सभी दोस्तों को बापू की तरफ से और हम बिना 26 जनवरी 15 अगस्त या 2 अक्टूबर के ही बापू की जय जयकार करते थे और सब मिलकर सामूहिक प्रार्थना करते इस बार बापू अपने ब्रह्मचर्य के प्रयोगों में जरूर सफल हो जाए वैसे अभी तक हमारी दुआ कुबूल नहीं हुई थी। बापू इस मामले में बड़ा संवेदनशील था, विशेष रूप से अंग विशेष को लेकर इतना कि साइकिल पर बैठकर पेडल मार मार कर आते हुए भी घर्षण मात्र से संवेदित हो जाता था और उसकी अपराध बोध वाली नजर देखते ही हम मुतमईन हो जाते थे कि आज फिर जीने की तमन्ना लेकर चला था, लेकिन पहुंचा है मरने का इरादा लेकर। रात में सोते ही कहां कहां से गंधर्व कन्यायें आकर उसे रिझाने भरमाने लगती और बस… कॉलेज की क्लास के बाद सपन के समोसा दुकान पर समोसा खाते हुए, गरम समोसे को ताकते हुए हमारे बापू ने एक शेर जो कहा था, वह हमारे बीच जैसे आप्त शेर बन गया था और गाहे-बगाहे हम इसको दागते रहते थे-

जिंदगी झरक गयी  सपनदा के समोसों में,

सपने सारे बदल गये जैसे  स्वप्नदोषों में।

यह शेर सपन दा की दुकान पर बआवाजे  बुलंद नहीं कहा जा सकता था क्योंकि सपनदा की एक युवा होती बहन भी समोसे में आलू भरने और चाय छानकर  देने में सपनदा की मदद के लिए वहीं आसपास मंडराती रहती थी और हमारे दल का कोई ना कोई, किसी न किसी बहाने से उसकी ओर देखने मुस्काने छूने या उसकी कोई छोटी  मोटी मदद करने के लिए हमेशा तत्पर रहता था। सपन समझता था  सारी बात पर नियमित ग्राहकों को कौन नाराज करना चाहता है। लेकिन वह नजर रखता था और थोड़ी सी अति जिसे वह “बाड़ाबाड़ी” कहता था  देखते ही बहन को आंखें तरेर कर देखता था। उसकी बहन सुरसुराकर  झोपड़ेनुमा दुकान के पीछे टीन टप्पर वाले कमरे में चली जाती थी और हमारे सामूहिक प्रेम के मुंह पर ढनाक से टीन का दरवाजा बंद हो जाता था। प्रेम का पटाक्षेप हो जाता था। सिर्फ बापू इस बात से मायूस नहीं होता था बल्कि उसे आत्मिक खुशी मिलती थी –

-तुम लोग साले सब पापी हो, गंदी नजर है  तुम लोगों की। कम से कम समोसाहरामी तो नहीं करो।

-और तू! – मतलब हम भी उसकी कॉलेज वाली प्रेम कथा का पारायण शुरू कर देते थे और वह दुखी हो जाता था।

-वह मेरी भूल थी और उसके लिए तुम लोग  सब से माफी मांग चुका हूं बल्कि उस बहन से भी मिच्छामि दुक्कड़म बोल चुका हूं।

-तो सपन की बहन के सपने नहीं आते  तुझे बिल्कुल?

-नहीं, शुरु शुरु आते थे, झूठ नहीं कहूंगा पर अब नहीं। बाकायदा अभ्यास किया है मैंने कि नहीं आए। अहिंसा, ब्रह्मचर्य  यह सब अभ्यास पर है।  तुम लोगों को भी करना चाहिए।

बापू आज प्रवचन की मुद्रा में था। इसका मतलब था कि उसके  बाप ने आज इसको फोल्टा फोल्टा कर सेंका होगा। दुकान में बैठ कर दो  पैसे कमाने की नसीहत दी होगी। इसके बाद ही बापू का यह संतई वाला रूप  हमें दिखता था और ऐसे ही अहिंसा के एक अभ्यास के दौरान हमारा बापू पिट गया था। खबर मिलते ही हमारा एक हिंसक  प्रतिनिधिमंडल बापू से मिलने सदर अस्पताल पहुंचा था। हमारे पास मोटरसाइकिल की चेनें  थी, हॉकी स्टिकें थी  गोकि हममें से कोई भी हॉकी नहीं खेलता, एक देसी कट्टा भी जिस की उपयोगिता जांचने का मौका अभी तक आया नहीं था। पर देने वाले ने पूरी तौर पर आश्वस्त किया था कि यह वह वाला नहीं है जिसकी एक फायर में ही नाल फट जाती है – असली मुंगेरिया है  मुंगेरिया! शक्ति प्रदर्शन के सारे सरंजाम हमें छुपा लेने पड़े क्योंकि अस्पताल में बापू का भी बाप मौजूद था जो कि हमें देखते ही भड़क गया –

– तुम लोग गुंडों के चक्कर में ही मेरा बेटा मार खा गया। तब तो आए नहीं बचाने और चलें हैं टक्कर लेने उन लोगों से। इस सूरतहराम के कितनी बार समझाया है, शांति से दुकान में बैठो, दो पैसा कमाओ लेकिन नहीं। लहेंड़ों के साथ गड़मस्ती सूझती है।

यह सब विशेषण हम लोगों के लिए ही था। हम समझ कर भी अंजान बने रहे। बापू का बाप नहीं होने पर हम बता सकते थे कि यह विशेषण पर कितने सटीक बैठते थे। बापू पट्टियों में लिपटा कमजोर दिख रहा था हालांकि  कमजोर तो वह वैसे भी दिखता – तो साले, तुमको उस तरफ मंडराने की जरूरत क्या थी जब वह लोग धमकी देकर गये थे और सपन की दुकान पर भी जाने की जरूरत क्या थी आज जबकि तीन दिन से दुकान बंद है तो… जवाब में बापू सिर्फ तीन बार कूँ कूँ कूँ जैसा कुछ बोला   जिसे हम ठीक से समझ नहीं पाए और एक सीमा से अधिक जोर से न वो बोल सकता था और ना हम क्योंकि उसका बाप वहीं आसपास मंडरा रहा था।

-तुम सिर्फ नाम बताओ उनलोगों के?

-नाम काम सब तो पता है तुम लोगों को।

-नहीं, खासकर किसको पहचाना तुमने?

-अभी खुद को ही नहीं पहचान पाए तो दूसरों को क्या पहचानेंगे?

बापू संतई  मुद्रा में था और हमारे अंतर्केश सुलग रहे थे सामूहिक रूप में।

-हमने माफ कर दिया  उन लोगों को। हिंसा किसी समस्या का समाधान नहीं है।

-तुम चूतिए थे, चूतिए हो और चूतिए ही रहोगे। अहिंसा की बत्ती बनाओ और डाल लो। जब एक दिन गोली मार देगा ना तब समझोगे

-तब समझना क्या है? जय श्री सीताराम बस!

बापू के सांवले चेहरे पर हल्की मुस्कान थी और हम उसे गलियाते हुए लौट रहे थे। सबकी  इच्छा थी कि सपन की दुकान पर चाय और समोसा खाया जाए। लेकिन साले ने तीन दिन से दुकान बंद कर रखी थी बल्कि पुलिस की पेट्रोलिंग पार्टी बीच-बीच में यह सुनिश्चित करने पहुंच रही थी कि दुकान खुली तो नहीं है। दरअसल मौका ए वारदात भी सपन की दुकान थी। सीधा सीधा प्रभावित सपन और उसका परिवार ही था। खासतौर  पर उसकी बहन। हमारा बापू तो सेंतमेंत में पिट गया था।

चित्र : अनुप्रिया

दरअसल घटनाक्रम मतलब क्राॅनोलाॅजी  आमलोगों को शुरू से बतानी होगी तभी मामला स्पष्ट हो पायेगा। उनदिनों अजब दौर चल रहा था। उन्मादी हवायें चल रही थी। तेज़ाबी भाषणों की वर्षा हो रही थी। फज़ाओ में एक किस्म का ज़हर का घुल रहा था  धीरे-धीरे। बड़ी संख्या में लोग इनकी ज़द में आते  जा रहे थे । जगह-जगह बाग़ बन रहे थे और इन बाग़ों के बारे में बताया जा रहा था कि बागों में जहरीले फल लग रहे हैं जिन्हें खाकर जनता बीमार पड़ रही है। वाजिबन मुल्क की सलामती के लिए परेशान लोग बहुत ज्यादा परेशान हो गये थे और कानून की मांग कर रहे थे जिसके ज़रिए  अपने परायों की पहचान हो सके। हर आदमी की  खुर्दबीन से जांच हो कि उस में कितना जहर है, अपना है कि पराया है, मुल्क की सलामती चाहता है कि खिलाफत करता है। रोज निकलने वाले जुलूसों की संख्या बढ़ रही थी ऐसे बागों के खिलाफ और शहर में भी लोग चिह्नित किए जा रहे थे । रात के अंधेरे में कोई आकर चुने हुए घरों पर लाल रंग के क्रॉस का निशान बना देता था जिसे देखते ही उस घर के बाशिंदों का खून सर्द हो जाता था। हम लोगों का खून तो गर्म हो गया था जब सपन के  टीन टप्पर वाले कमरे पर एक सुबह निशान बना पाया गया। सपन, उसकी बहन, उसकी मां, उसका बूढ़ा बलगम थूकता बाप, सबकी आंखों में ख़ौफ था।

-बताइए भैया! हमलोग भी बाहरी हो गये। इतना दिन से आप लोगों का सेवा कर रहे हैं। – सपन ने रूआँसी आवाज और रोनी सूरत बना कर कहा था और हूँ-हूँ  कर रोने लगा। हम लोगों की स्मृति में शायद यह पहली बार था जब सपन के जैसा खुशमिजाज आदमी, तीस बत्तीस की उम्र का आदमी, इस तरह से रो रहा था । हमें काफी बुरा लग रहा था। बापू ने  जुलूस निकालने वाले नेताओं से बात करने की ठानी हालांकि हम जानते थे कि इसका कोई अच्छा नतीजा होने वाला नहीं था। नगर के महापौर यादव जी का बेटा ऐसे सारे जुलूसों  का सर्वमान्य नेता था इसीलिए बापू उससे बात करने चला गया  हमारी जानकारी के बगैर

-कौन है जी तुम्हारा उ मुसल्ला बांग्लादेशी?

-मुसल्ला!

सपन के बारे में कोई भी ऐसी चीज बापू की स्मृति में आ नहीं रही थी जिससे साबित हो सके कि वह मुसल्ला था। हर दिन दुकान खोलने के पहले अगरबत्ती घुमाता चारों ओर, हालांकि लूंगी पहनता था चारखाने की, लेकिन बहुत सारे लोग पहनते हैं। दुकान में भी हर तरह के देवी देवता के कैलेंडर  टँगे हैं – उसमें हनुमान जी भी थे तो काबे की तस्वीर भी, गुरु नानक भी थे तो बुद्ध भी। बांग्लादेशी है कि नहीं उसके बारे में निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता। बंगाली तो अवश्य था।

-का सोच रहे हो इतना? यह लोग ऐसे ही घुसते हैं। ऊँट और तंबू वाला कहानी सुने हो न? सपन, मुन्ना, खोकन  यह सब नाम से कुछ पता नहीं चलता समझे! -लेकिन विकास भैया! गरम सिंघाड़ा  के साथ जलेबी का रस भी चख लेते थोड़ा- बापू ने घूरकर देखा- काला गॉगल्स, सफेद शर्ट, सफेद पैंट और गले में नारंगी गमछा डाले मोटरसाइकिल पर बैठा एक लड़का बोल रहा था।

-तो भैया क्या नाम है तुम्हारा? बापू है ना? तुम्हारे दोस्तों को बोलते सुना है।

– क्या बापू ? खी-खी-खी- बापू! नाम का असर होता है बे! तब न मुसल्ला लोग के फेवर में लड़ने आया है। वह उ सब नहीं चलेगा।  पहचान – पहचान कर उनके देश भेजा जाएगा। दीमक की तरह खोखला कर दिया सब पूरा देश को।

-चलो निकल लो  बे! – काला गॉगल्स वाला उसको धक्का देते हुए  बोला – बापू – खी-खी

-लेकिन…

-क्या लेकिन? – खतरनाक ढंग से बढ़ा था विकास यादव, हाथ में उन्हें चौड़े कलावे को एडजस्ट करते हुए

-मतलब, आप लोग गलत…

झन्नाटेदार  झापड़ पड़ा था  बापू के चेहरे पर। होंठ फट गया था, गोल चश्मा दूर फिंका गया।

-चल आ उठ उठ! कमाॅन बापू! उठ!

-नहीं हम हाथ नहीं उठाएंगे!

-हाथ तेरा उठने लायक रहेगा  तब ना! गद्दार! – फिर धक्का लगा। लड़खड़ा कर गिरा तो ठेहुना, कोहनी सब छिल गये थे।

– कल हम लोग जुलूस लेकर पहुंचेंगे उस मुसल्ला के दुकान पर! बचा  सके तो बचा लेना! जा भाग!

तो हम लोगों ने बापू को टूटी-फूटी अवस्था में बरामद किया था। पहले तो हम समझे कि बापू में इतनी हिम्मत हो नहीं सकती कि वह विकास यादव जैसे शख्स से सीधे टकराने के लिए चला जाए और वह भी सपन के लिए जिससे हम लोगों का रिश्ता सिर्फ इतना था कि हम रोज शाम उसकी दुकान पर चाय पीते थे और समोसे खाते। हमें लगा कि यह बापू के असत्य के प्रयोगों का हिस्सा था। पर बापू के कटे होंठ और टूटा फूटा शरीर कुछ और गवाही दे रहा था। बापू ने स्थानीय अखबार के स्ट्रिंगर के साथ मिलकर एक आर्टिकल लिखा   जिसमें नए कानून की आड़ में कैसे लोगों को सताया जा रहा है इसका जिक्र था। यह आर्टिकल शहर में इतना मकबूल हो गया, खास तौर पर बाग़ में दिन रात बैठे लोगों के बीच कि उसकी फोटो कॉपी बांटी गयी और पोस्टर छपवाए गये जिन्हें देखकर विकास यादव की पूरी टीम कूदती  थी और कूदते कूदते सपन की टिनहीं दुकान पर ढेले बरसाती थी। टीन की छत पर गिरते पत्थरों की धना धन से सपन का पूरा परिवार पत्तों की तरह काँपता रहता था। विकास यादव के लिए वे लोग कॉकरोच से ज्यादा कुछ नहीं थे जिन्हें जब चाहे जूतों तले कुचल सकता था , लेकिन बाग वालों की सपोर्ट और बापू और उसकी वजह से कुछ हद तक हमारी भी सपोर्ट, इसकी वजह से सीधे सीधे हाथ डालने से डरते थे। सपन का पूरा परिवार भय के जबड़ों के बीच अंदर जाता और बाहर निकलता रहता, जैसे टूटने पर अलग होने की कगार पर पहुंचा हिलता हुआ दाँत।

चित्र : अनुप्रिया

और एक न एक दिन तो हिलते दाँत को टूटना ही था। सपन की बहन शाम को किराने वाले की दुकान से सामान खरीद कर लौटी ही नहीं और वक्त की सितमज़रीफी देखिए कि उस वक्त बाप की किराने की दुकान पर बापू ही उसने सामान उधार भी दिया था क्योंकि सपन की दुकान चल नहीं रही थी  डर से और उसकी बहन ने बापू से गिड़गिड़ाकर  सामान मांगा था तो बापू दया की प्रतिमूर्ति बन गया और बापू का बाप अगिनमूर्ति- सूरतहराम कहीं का! लुटा दो। लुटा दो सब। इस के चक्कर में बड़ा-बड़ा राजपाट डूब गया। इतना छोटा दुकान का कौन औकात है ?  खबरदार! कभी दुकान पर बैठा तो।

बापू निकलते निकलते अपना प्रतिवाद दर्ज  कराता गया – कह रही थी दो दिन से चूल्हा नहीं जला है इसीलिए…

-तुम जिम्मा लिया है  सबके यहां चूल्हा जलाने का! भाग! पहले इस चक्कर में मार खाया और अब माल भी लुटा रहा है।

-सब भगवान दिया है लेकिन एक ही गड़बड़ी किया है कि बराबर नहीं दिया ईश्वर  ने।

बापू के बाप ने एक किलो का बटखरा फेंक कर मारा। यह संयोगवश बापू को लगा नहीं और भागने में लड़खड़ा कर दुकान के सामने वाली गली में गिर पड़ा।

-आय प्रोटेस्ट! – उसने चिल्लाकर बाप की दुकान की ओर देखते हुए कहा। हमलोग उसे खींच कर ले गये नहीं तो उसका बाप दुकान में बिकने वाली झाड़ू लेकर आ ही रहा था। पर बापू बिल्कुल भी उत्तेजित नहीं था। शांत आवाज में कहा – हमें प्रोटेस्ट करना होगा। हम अच्छे दोस्तों की तरह समझाने लगे- तू कौन है? थाना है? पुलिस है? डीएम है, प्रशासन है, कोर्ट है, कचहरी है? – इन सबसे ऊपर हूं। एक कॉमन मैन!

हम समझ गये थे  बापू पूरी तरह से सनक चुका था और हम उसे अपनी निगरानी में रखना चाहते थे। नहीं तो कुछ ना कुछ अनर्थ जरूर होगा। तय हुआ कि हममें से एक हर वक्त उस पर नजर रखेगा कि  कुछ खुराफात न करदे बापू। लेकिन बापू कहां मानता उसे तो खुराफात करना ही था। अपनी छत पर की छोटी कोठरी में वह था और  हम भी नजर बनाए हुए थे पर कब वह फिसल गया एकदम गैंची मछली की तरह और सीधे नमूदार हुआ  विकास यादव के घर के सामने वाले पार्कनुमा जगह पर – गले में  एक हाथ से बनाया हुआ पोस्टर टाँगे। पोस्टर पर लिखा था – काला कानून रद्द करो/ लड़की को वापस जल्द करो।

कुछ लौंडे लपाड़े भी इस अजूबे को देखने जमा हो गये। किसी बिजूके  की तरह लग भी रहा था  बापू – गले में एक बड़ा सा कार्डबोर्ड का पोस्टर, दोनों हाथ फैलाए उस पार्कनुमा जगह पर इधर – उधर जाता हुआ। पीछे-पीछे लुहेड़ों का झुंड-लिहौं लिहौं करता हुआ। खबर सुनकर अखबार का स्ट्रिंगर भी आ गया अपने कुछ मित्रों को लेकर। कुछ बाग़ वाले भी जुड़ गये थे और एक छोटा-मोटा बाग़ यहां पर भी बन गया। विकास यादव के बाप ने पुलिस को खबर कर दिया और पुलिस ने पटापट लाठियां बरसानी शुरू कर दी। अब तक हम लोगों को कुछ पता ही नहीं था कि इतनी बड़ी बात हो चुकी है। जब तक हम पहुंचे बापू घायल हो चुका था। हमने उसको अपने घेरे में ले लिया था। पुलिस ने उसे गिरफ्तार नहीं किया था। यह शायद विकास यादव के बाप ने ही कहा हो। सिर्फ हड़का कर भगाने को कहा हो। सोशल मीडिया के न्योते  पर धीरे-धीरे लोग जमा हो रहे थे। हम लोग बापू को वहां से निकाल ले जाना चाहते थे  लेकिन विजुअलबुभुक्षित चैनल वाले कहां मानते हैं – चेहरे पर टपकता खून, चश्मे के शीशों पर खून, गले में टँगे पोस्टर  पर भी खून के धब्बे- बापू अद्भुत शांत स्वर में बता रहा था कि न्याय और अन्याय के बीच की लड़ाई है

-लेकिन यह देश का भी तो सवाल है?

-किसका देश? कैसा देश? जहाँ महिलाएं सुरक्षित नहीं।

-बाहरी लोगों को तो निकालना होगा ना?

-कौन है बाहरी कौन है भीतरी? कोई दावे के साथ कह सकता है क्या? – एक शेर भी दाग दिया बापू ने “बाप का हिंदुस्तान वाला जो आजकल बहुत चर्चा में था। लड़कों को मजा आ गया – होए, होए करने लगे।

-कल फिर इसी समय यहां धरना होगा।

-अपना नाम तो बता दीजिए!

– बापू! भीड़ में से कोई चिल्लाया था।  हँसी  की एक लहर दौड़ गयी।

हम बापू को लेकर निकल गये।  उसके घर पर जा नहीं सकते थे जैसी उसकी हालत थी। उसके घर वाले देखते तो घबरा जाते। । अपने घर ले जाकर नहलाया धुलाया, खाना खिलाया और तब हमारा दल उसे समझाने बैठा-

– यह क्या कर रहे हो तुम? कुछ अंदाजा है किससे टकराने निकले हो?

-हिंसा करने वालों की संख्या जितनी भी हो एक अहिंसक ही काफी है उससे भिड़ने के लिए।

-तुम को रौंद डालेगा। मिट्टी में मिला देगा  विकास यादव एंड पार्टी और अभी हवा भी खिलाफ है। ज्यादा लोग नए कानून की तरफ हैं। समझे बे चूतिए!

-समझना उनको है।

दूसरे दिन  लाख समझाने पर भी बापू अपना रक्त रंजित पोस्टर लिए, सिर पर पट्टी बांधे उसी जगह पहुंच गया , जहाँ तमाशाई इंतजार कर रहे थे। उन्हें आशंका थी कि शायद बापू आज नहीं आएगा और आज का मुफ्तिया तमाशा नहीं होगा। लेकिन बापू के पहुंचते ही उल्लास की लहर दौड़ गयी। चारों तरफ से होय, होय, हुर्रे, लिहौं, लिहौं होने लगा। बापू निर्धारित जगह पर जाकर खड़ा हो गया।

-हर जोर जुलुम के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है/ सुन लो जुल्मी, सुन लो तुम, बापू ही नेता हमारा है

हमलोगों का पूरा दल बापू को गलियाते हुए वापस लौट गये कि  साले को नेतागिरी का चस्का लग गया है और गलती से उसने गलत  लोगों से पंगा ले लिया है। हमने एक लड़के को नजर रखने को कह दिया। उसके बाद का सारा वाकया  उसी की ज़बानी  सुना हमने – क्या बताएं भैया! बापू भैया को देखते आपलोग! विकास यादव का बाप, विकास यादव और काला काला सफारी वाला गुंडा लोग, किसी के हाथ में पिस्टल किसी के हाथ में एके-47 भी- आकर सब खाली करवा दिया। सब भाग गया पर बापू भैया नहीं भागे । फिर विकास का पापा आके बापू भैया को कुछ  बोला, फिर बापू भैया को साथ लेते गया।

– क्या! साथ ले गये? पहले काहे नहीं बोला बे!  अब हमें डर लगने लगा था। उन लोगों के साथ हमारा बापू अकेला था। हालांकि हम लोग इस हालत में थे नहीं कि विकास यादव के बाप के जबड़े से बापू को छुड़ा लाते । हमने पुलिस के पास जाने की ठानी। – सुनिए! आप लोगों ने ऐसे ही शहर में बहुत हंगामा मचा रखा है।

पुलिस इंस्पेक्टर सीधे-सीधे बोला।

-हमने! सर हमारा बापू तो शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहा था। उसको अगवा  किया गया है।

-ज्यादा नेतागिरी मत झाड़ो। सबका नाम लिखो रे।  सबके बाप को बुलाओ थाना। आजकल फैशन हो गया है। बड़ा आदमी लोग को बदनाम करो। चौक चौराहे पर मोमबत्ती जलाओ। सरकारी कानून का कोई इज्जत नहीं है। सब चले जाओगे अंदर। पूरा करियर खराब हो जाएगा।

हम लोग समझ गये कि हमारी दाल यहाँ नहीं गलेगी और इंस्पेक्टर से ज्यादा हम अपने बापों से डरते थे। हम सीधे सीधे एसपी के यहां चलेंगे। वहां कम से कम बात तो सकती थी। एसपी बड़े बेतकल्लुफी से मिले।

-जाइये आप लोग! आपका दोस्त, क्या नाम बताया था, बापू ना? पहुंच जाएगा घर! हिम्मती है लड़का वैसे! – एसपी हँसकर बोले। बापू की प्रशंसा में बोले गये अल्फाज  हम में अचानक डर पैदा कर गये क्योंकि हमने तो कभी बापू को हिम्मत का प्रदर्शन करते देखा नहीं था। हमारे हर मारपीट के हिंसक कार्यक्रम में हमेशा पीछे रहता था – थर थर काँपता हुआ, घिग्घी बँधी हुई और कई बार हमें संभालना पड़ता था या ऐसे कार्यक्रम से उसे दूर रखना पड़ता था।

पर बापू सचमुच लौट आया। थोड़ा टूटा फूटा लग रहा था, लँगड़ाता, लड़खड़ाता, सपन की मां और बहन उसे कंधे का सहारा देकर ला रहे थे। बिल्कुल दृश्य वैसा ही था जब बापू  गोली लगने से पहले प्रार्थना सभा में दो महिलाओं के कंधे का सहारा लेकर जि रहे थे। सपन ने बाद में बताया कि बापू उनके सामने बिल्कुल नहीं डरा, सीधे आंखों में देख कर बात की थी उसने और कहा कि बहन को साथ लेकर ही जाएगा। उसके बाद क्या हुआ होगा, इसका अंदाजा बापू की हालत देखकर लग ही रहा था। हम उसके लिए बहुत डर रहे थे। हो सकता है यह विकास के घुटे राजनीतिज्ञ पिता की कोई लंबी चाल हो।उसने सोचा हो कि खुद पिस्टल हाथ में लेकर तीन गोलियाँ सीने में उतार देने से ज्यादा निरापद और सुरक्षित तरीका था भीड़ के हवाले कर देना। बाकी का काम भीड़ देख लेती थी। एक दानवी उल्लास के साथ नेज़े पर सिर को रखकर उछालने जैसा उत्सव मनाने को आतुर भीड़ । किसी मरदूद ने  जोर से गाना बजा दिया था – बापू सेहत के लिए तू तो हानिकारक है। बापू गाना सुन कर मुस्कुरा रहा था – काले चेहरे की एकदम उज्जवल मुस्कान। बापू हमारी सेहत के लिए सचमुच हानिकारक साबित होने वाला था।

पंकज मित्र

भूमंडलोत्तर कहानी के सर्वाधिक विश्वसनीय कथाकार पंकज मित्र का जन्म 15 जनवरी 1965 को तत्कालीन बिहार और वर्तमान झारखण्ड के रांची शहर में हुआ। हंस, सितंबर 1996 में प्रकाशित अपनी पहली कहानी ‘अपेंडिसाइटिस’ से कथा-यात्रा शुरू करनेवाले पंकज मित्र के चार कहानी-संग्रह ‘क्विज़ मास्टर और अन्य कहानियाँ’, ‘हुड़ुकलुल्लू’, ‘ज़िद्दी रेडियो’ तथा ‘वाशिंदा @ तीसरी दुनिया’ प्रकाशित हैं।

शिक्षा :पी एच डी (अँग्रेजी साहित्य)
सम्प्रति :आकाशवाणी जमशेदपुर में कार्यक्रम अधिशासी
पुरस्कार /सम्मान : इंडिया टुडे का युवा लेखन पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद का युवा सम्मान, मीरा स्मृति सम्मान, वनमाली कथा सम्मान, रेवांत मुक्तिबोध सम्मान, बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान
सम्पर्क : +919470956032, pankajmitro@gmail.com

पता :102,हरिओमशांति अपार्टमेंट, साकेत विहार, हरमू, राँची – 834002 झारखंड।

चित्रकार : अनुप्रिया

दृष्टिसंपन्न रेखांकनों से साहित्य और कला जगत में अपनी पहचान अर्जित कर चुकी अनुप्रिया का जन्म सुपौल, बिहार में हुआ। कविता और चित्रकला दोनों ही विधाओं में समान रूप से सक्रिय अनुप्रिया के दो कविता- संग्रह ‘कि कोई आने को है’ तथा ‘थोड़ा सा तो होना बचपन’ प्रकाशित हैं। हिंदी की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में रेखाचित्र प्रकाशित। कई महत्वपूर्ण पत्रिकाओं तथा साहित्य अकादमी सहित कई प्रकाशकों की पुस्तकों के आवरण पर चित्र और रेखांकन प्रकाशित।

सम्पर्क:  +919871973888, anupriyayoga@gmail.com

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samved

साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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