कथा संवेद – 6
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प्रेमचंद और अमरकान्त की कथा-परंपरा के वाहक तथा ‘रचना समय’ के सम्पादक हरि भटनागर का जन्म 6 अप्रैल 1955 को राठ, हमीरपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ। सुल्तानपुर से प्रकाशित होनेवाली ‘कृति’ पत्रिका में 1977 के आसपास छपी ‘सिलिण्डर’ कहानी से अपनी कथा यात्रा शुरू करनेवाले हरि भटनागर के चार कहानी-संग्रह- ‘सगीर और उसकी बस्ती के लोग’,‘नाम में क्या रखा है’,‘बिल्ली नहीं दीवार’ और ‘आँख का नाम रोटी’, एक उपन्यास- ‘एक थी मैना एक था कुम्हार’ तथा तीन बालोपयोगी पुस्तकें ‘जाफ़र मियां की शहनाई’,‘सी-पो सी-पो’ और ‘बजरंग पाँड़े के पाड़े’ प्रकाशित हैं।
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प्रकृति और मनुष्य का रिश्ता शायद मानव सभ्यता के इतिहास का सबसे पुराना रिश्ता है। लेकिन अर्थ और यंत्र आधारित सभ्यता के विकास की संवेदनहीन दौड़ ने मनुष्य और मनुष्येतर के बीच एक बड़ी खाई खोद डाली है। तमाम प्राकृतिक संसाधनों पर आधिपत्य की लालसा में मनुष्य और प्रकृति के बीच साहचर्य का रिश्ता लगातार संघर्ष की कड़वाहटों में बदलता गया है। ‘उफ़’ कहानी में रज़िया और सुल्तान का प्रेम मनुष्य और मनुष्येतर के बीच जारी संघर्ष का एक रचनात्मक प्रतिरोध है। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को धता बताते हुये सांस्थानिक खरीद-फरोख्त को राष्ट्रीय चरित्र की तरह विकसित करनेवाले समय में सुल्तान का सौदा इस समयावधि के एक बड़े रूपक की तरह भी खड़ा होता है। सुल्तान तो बेच दिये जाने के बाद भी भाग सकता है, लेकिन बिक चुकीं या बिकने के कगार पर खड़ी संस्थायें अपना प्रतिरोध कैसे दर्ज करेंगी? ऐसे भयावह समय में रज़िया जैसे चरित्र ही उम्मीद की किरण हो सकते हैं। जिस समय और समाज में पशु की रक्षा के नाम पर निर्दोष मनुष्यों की हत्या की जा रही हो, रज़िया और सुल्तान की यह कथा एक ऐसे सपने को बचाए रखने का रचनात्मक उपक्रम है, जिसके मरने को पाश ने सबसे खतरनाक कहा है।
राकेश बिहारी
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उफ़
हरि भटनागर
ईद का दिन है और रज़िया उदास-परेशान है। एक ही बात है जो उसे बार-बार छेद रही है कि क्या सचमुच अब्बा चाँद के बहकावे में आ गये हैं और सुल्तान को बेचरहे हैं।
यह बात वह किससे पूछे? अम्मी पड़ोस से आए बच्चों को सेंवई खिलाने में लगी हैं और अब्बा कपड़ों में लोहा करने में। आज त्यौहार के दिन वे आराम करते, लेकिन एक गहकी को बाहर जाना था, इसलिए उसके पूरे घर के कपड़े लोहा करके पहुँचाने थे। वैसे तो वे सुबह निकल जाते हैं मगर आज देर हो गयी है। वे तेज़-तेज़ हाथ चला रहे हैं। सुल्तान बाहर खड़ा उनका इन्तज़ार कर रहा है।
रज़िया की अब्बा-अम्मी से पूछने की हिम्मत नहीं हो रही है। डर रही है कहीं बिगड़ न पड़ें। वह कपड़ों के गट्ठरों के बीच दब के बैठ गयी।
अम्मी गुस्से में अब्बा से कह रही हैं कि देखो इस चुड़ैल को, त्यौहार के दिन मुँह फुलाए पड़ी है, पता नहीं क्या चाहती है। कित्ती तो बढ़िया सेंवई पकाई है, बच्चे कित्ते प्यार से खा रहे हैं। ये है कि…
– खालेगी, थोड़ा चुप तो रहो- अब्बा लोहा करने वाले कपड़ों पर पानी छिचकारते बोले-जादा पीछे पड़ना ठीक नहीं! खाएगी, अपने आप माँग के खाएगी!
अम्मी को अब्बा की बात खल गयी। आँखें तरेर कर बोलीं- क्या पीछे पड़ती हूँ, बता तो सई?
अब्बा इस्तरी में भर उठी राख को झटके दे-दे उड़ाने लगे। राख ही उनका जवाब था।
– कल चाँद आया था, तभी से यह मुंडा खराब किए बैठी है- अम्मी बोलीं।
चाँद का नाम सुनते ही रज़िया चिढ़-सी उठी- यही आग लगा है जो मेरे सुल्तान को उड़ाले जाना चाहता है, अब्बा-अम्मी को उल्टी-सीधी पट्टी पढ़ा के… कुड़कुड़ाते हुए रज़िया ने सुल्तान को देखा, जो अपने खूँटे के पास पूँछ हिलाता खड़ा अब्बाकी तरफ़ देख रहा था- बेचारे सुल्तान को पता ही नहीं कि उसे किस ज़ालिम के हत्थे चढ़ाया जा रहा है।
हयातुल्ला सुल्तान को बेहद प्यार करते हैं। कहते हैं कि जब गौरमिंट ने तालाब में कपड़े धोने पर पाबंदी लगा दी थी, उस वक़्त क़स्बे के सारे धोबी अपने-अपने गधों को औने-पौने दाम में बेचने लगे। अकेले हयातुल्ला थे जिन्होंने अपने सुल्तान को बेचने से इंकार कर दिया था। कहा था कि सुल्तान उनके बेटे सरीखा है, सालों से उनकी खि़दमत करता आ रहा है- मुसीबत में भला उसे बेचें क्यों? और उन्होंने उसे नहीं बेचा। सारे धोबियों की तरह उन्होंने भी कपड़े धोने के काम से तौबा करली और सिर्फ़ कपड़ों पर लोहा करने का काम करने लगे।
जहाँ धोबी लोहा किए कपड़े काँधे या साइकिल में फँसा के गहकियों के यहाँ जाते-हयातुल्ला ने सुल्तान को अपनी सवारी बनाया। वे उसकी पीठ पर कपड़े लाद के गहकियों के यहाँ जाते। कभी पैदल चलते, कभी मन होता तो उस पर बैठ कर निकलते।
हयातुल्ला की इस सूझ की तारीफ़ भी हुई, हँसी भी उड़ी। पड़ोसी गिज्जू ने हयातुल्ला की दिल से तारीफ़ की और हँसी उड़ाने वालों को आड़े हाथों लिया। कहा- हया ने सुल्तान को न बेचकर हम धोबियों की नाक रखली, उसे इंसान का दर्जा दिया जबकि हमने अपने गधों को चूना-भट्ठों और खदानों के दोज़ख़ में डाल दिया- वहाँ वे अपने हाड़ तोड़ते हैं, बदले में पिटते हैं, भूखे मरते हैं।
हयातुल्ला सुबह की पीली धूप में सुल्तान को लेकर घर से निकलते। गहकियों के दरवाज़े पहुँचकर उन्हें साँकलखड़काने की ज़रूरत नहीं पड़ती। सुल्तान था जो साँकल खड़काने का काम करता। मतलबसी-पो, सी-पो की गुहार से वह गहकियों को इत्तिला देता। लोहा किये गये कपड़े गहकियों को दिए जाते और जिन पर लोहा किया जाना होता- गट्ठर की शक्ल में सुल्तान की पीठ पर सजने लगते।
सुबह के निकले हयातुल्ला दोपहर को जब सूरज सिर पर होता, घर आ जाते। उस वक़्त दोनों भूखे होते। हयातुल्ला खरैरी खाट पर आ बैठते और सुल्तान अपने ठीहे पर। पहले सुल्तान को खाना-चोकर-रोटी दी जाती, फिर हयातुल्ला को। हयातुल्ला मिनटों में खा के उठ जाते। सुल्तान देर तक चोकर-रोटी का रस लेता। पूँछ हिलाते हुए दरवाज़े की तरफ़ देखता रहता। जानता है कि रज़िया आएगी और उसे अपने हाथों से रोटी खिलाएगी।
थोड़ी देर में रज़िया आती। हाथ में उसके रोटी होती।
सुल्तान समझता है, घर में कौन प्राणी है जो उसे जी-जान से चाहता है। हयातुल्ला और रनिया उसे प्यार करते ही हैं- इसमें कोई शक नहीं है, लेकिन रज़िया का मामला कुछ अलग ही है। उसके हाथ में ऐसा जादू है जिससे उसका रोम-रोम पुलक से भरजाता। सुल्तान उस वक़्त स्नेह से भींग जाता। उसका मन होता कि रज़िया को पीठ पर बैठा ले और क़स्बे की सैर करा लाए। लेकिन ऐसा करने की सख़्त मनाही थी।
रज़िया कहती- चिन्ता न करो सुल्तान! तुम्हारी पीठ पर बैठने का मुझे शौक नहीं। तुमतो जानते हो, मेरा बड़ा भाई, हसन गधे की पीठ से गिरा था सिर के बल और अल्लाताला ने उसे अपने पास बुला लिया था… इसी से अम्मी-अब्बा मुझे तुझसे दूर रखते हैं।
सुल्तान रज़िया के मुँह पर गर्म उसाँस छोड़ता, जैसे कह रहा हो- जानता हूँ, इसका मुझे भारी रंज है। इत्ता भरोसा है कि मैं तुम्हें कभी गिरने न दूँगा!!
सेंवई खाकर जब बच्चे चले गये, रनिया रज़िया के पास आ खड़ी हुईं। उसके सिर पर हाथ फेरा और पूछा- त्यौहार के दिन तुम मुँह लटकाए हो, क्या बात है बेटी?
रज़िया कुछ बोली नहीं। उसकी आँखों में आँसू भर आए जिसमें सुल्तान तैर रहा था, जिसे देखकर कल शाम को चाँद ने अब्बा को सलाह दी थी कि सुल्तान को निकाल दो, मैं अच्छी रक़म दिलवा दूँगा!
अब्बा कुछ नहीं बोले थे, अम्मी की आँखों में चमक ज़रूर आ गयी थी रक़म को लेकर।
रात में जब वह अम्मी के बग़ल लेटी थी, अँधेरे में अब्बा ने माचिस जलाई। हल्के उजास के बीच बीड़ी सुलगाई। थोड़ी देर बाद वे अम्मी से बोले- तू सुल्तान को निकालना क्यों चाहती है?
– छत टपक रही है, चौमासे में लेटना मुश्किल हो जाता है। फिर गहकियों के लोहा किए कपड़े भी ख़राब होतेरहते हैं। सुल्तान के बदले छत ठीक हो जाए तो क्या बुराई है।
– कोई बुराई नहीं है- अब्बा बीड़ी पी रहे थे। अँधेरे में चिंनगी उभरी- लेकिन सुल्तान की दुर्गति हो जाएगी।
– दुर्गति देखें कि छत!
अब्बा को ज़ोरों की खाँसी आ गयी थी। छाती को वे दोनों हाथों से ठोकने-से लगे, जैसे ऐसा करने से खाँसी थम जाएगी। खाँसी थमते ही वे बोले- सुल्तान को बेच दिया तो मुँह दिखाने लायक़ नहीं रहूँगा।
– ऐसा क्या है- अम्मी तड़क के बोलीं- सब बेगाने हैं, अपने में मस्त। किसी को दूसरे से कुछ लेना-देना नहीं। कल को सुल्तान निपट जाए तो कोई पुछत्तर न होगा।
दोपहर को चाँद सौदे को जमा देने के इरादे से आया। ईद का तो सिर्फ़ बहाना था। साइकिल टिकाकर अद्धे पर उकड़ूँ बैठा वह राह पर निगाह गड़ाए था। हयातुल्ला को उसने सुल्तान पर बैठे दूर से आता देख लिया। वे बीड़ी के धुएँ में डूबे थे। पंचा पहने थे और सफ़ेद कटोरे छाप जालीदार टोपी। काँधे पर गमछा था। काले हँड़ीले बदन पर सफे़द चमकती कसी बनियान। बाएँ बाजू में काले डोरे से बँधी ताबीज़ थी। सुल्तान धीमी चाल में था।
रज़िया चाँद को देखना नहीं चाह रही थी। किवाड़ की आड़ में आ गयी।
सुल्तान के दरवाज़े पर खड़े होते ही, रनिया ने बढ़कर कपड़ों के गट्ठर उतारे। जब हयातुल्ला उतर रहे थे, तभी सुल्तान की निगाह चाँद से टकराई, फिर पता नहीं क्या हुआ, सुल्तान भड़क गया और ज़ोर-ज़ोर से सी-पो, सी-पो की गुहार लगाने लगा। जैसे भास गया हो कि चाँद उसे घर से बाहर करने के इरादे से आया है! इस मूजी को भगाओ! भगाओ!!
रनिया ने आगे बढ़कर सुल्तान के मुँहपर ज़ोर का लपाड़ा मारा। लपाड़े का कोई असर न था। उल्टे वह और ज़ोर-ज़ोर से चीख़ने लगा। साथ ही दुलत्ती भी चलाने लगा।
हयातुल्ला सुल्तान के मन की बात ताड़ गये, इसलिए दूर जा खड़े हुए चाँद को नुक्कड़ पर जाने का आँखों से इशारा करने लगे।
पानी पीने के लिए हयातुल्ला कुठरिया से आँगन में गये। पानी पीकर वे वहाँ थोड़ी देर असमंजस में खड़े रहे। सहसा उन्होंने बीड़ी सुलगाई। ढेर-सा धुआँ उगला और फिर धुएँ में डूबे-डूबे डुगरते हुए बाहर आए और नुक्कड़ की ओर बढ़ गये।
– लट्ठ से मानेगा ये कमीन!- रनिया पतली पीली कलाई उठाते बोलीं- लाना तो लट्ठ, देखती हूँ इसकी हेकड़ी।
रज़िया समझ गयी कि अम्मी कहीं लट्ठ न बजा दें, इसलिए वह सुल्तान के पास आई। मुँह पर कोमल हाथ फेरा। चुप कराया।
– इसी ने बिगाड़ा है इसको!!!- अम्मी दाँत पीसती बोलीं।
रज़िया ने माथा सिकोड़ कर अम्मी को देखा, जैसे पूछना चाह रही हो कि क्या बिगाड़ा है मैंने सुल्तान को?
जवाब में रनिया ने सुल्तान को सबक़ सिखाने के लिए खूँटे से बाँध दिया। साथ ही अगले पैर रस्सी से जकड़ दिये, ताकि वह चल न सके। बोलीं- जानवरों से क्या रिश्ता। आज यहाँ, कल वहाँ। तुम रोटी दो तो तुम्हारे, न दो तो आँखें फेरलेंगे। यह तोताचसम जात होती है!!!
रज़िया ने आह भरी। उसने सुल्तान के साथ ऐसी बदसलूकी पहली बार देखी थी। उसकी आँखें भर आईं।
रनिया हयातुल्ला और चाँद को खाना खिलाने के लिए बर्तन माँजने लगीं। राख से सने हाथ रोककर सहसा उन्होंने हयातुल्ला के पास बैठे चाँद को देखा। फिर वे चीख़के रज़िया से बोलीं कि चाँद को पानी तो दे दे। मीलों चलकर आया है।
रज़िया ने अम्मी की बात की अनसुनी कर दी।
अम्मी ने बर्तन पटकते हुए गुस्से में कहा- मर! पड़ी रह मुर्दे की तरह!!!
खरैरी खाट पर बैठे हयातुल्ला और चाँद रोटी खा रहे थे। रनिया ने अल्यूमीनियम के भारी कटोरों में गोश्त और स्टील की प्लेटों में बड़ी-बड़ी मोटी रोटियाँ दी थीं।
चाँद चपर-चपर रोटी खा रहा था। उँगलियाँ रसे से सनी थीं, जिन्हें वह मुँह में ले जाकर एक-एक कर चूसता जाता। हयातुल्ला चाँद की प्लेट में रोटी रखने को होते तो वह हाथ से रोक लेता। कहता कि उसका तो पेट पहले से भरा है, वह तो गोश्त की वजह खाने बैठ गया। अभी उसे रहमान के यहाँ भी जाना है। खाने के बीच उसने सुल्तान का सौदा भी पक्का कर दिया। कितनी रक़म नगद देनी है, और कितनी उधार रहेगी और कितनी साइकिल के एवज़ में कम हो जायगी।
खाना खा चुकने पर उसने पानी पिया और हयातुल्ला को देखकर आँख मारी, जिसका मतलब था कि अब उठा जाए। बर्तन को खाट के नीचे रखता, लम्बी डकार छोड़ता वह भारी खुश दीख रहा था, क्योंकि इस सौदे में उसे नफ़ा ही नफ़ा था। जब जाने को हुआ, उसी वक़्त उसे रज़िया का ख़्याल आया, लम्बे डग बढ़ाता वह रज़िया के पास आया। जेब से एक रुपये का सिक्का निकाला, उसकी तरफ़ बढ़ाया। बोला- ले, ईदी! मैं तो भूला जा रहा था।
रज़िया ने माथा सिकोड़ कर गुस्से में हाथ पीछे कर लिये। मन हो रहा था उसके ऊपर थूक दे।
संझाभी नहीं हुई थी कि रज़िया कपड़ों की पोटलियों के बीच सुल्तान के रंज में खोई सो गयी। दोपहर को उसने रोटी भी न खाई। सेंवई की कटोरी और पूरी थाली सुल्तान को दे आई। सुल्तान की आँखें नम थीं। उसने थाली की तरफ़ से मुँह फेर लिया। उसने अपना खाना भी न खाया था।
घर-गृहस्थी का सारा काम करके साँझ को रनिया अल्ला का नाम लेकर कमर सीधी कर रही थीं कि उनकी नज़र रज़िया पर पड़ी जो कपड़ों की पोटलियों पर औंधी पड़ी सो रही थी।
– अरे! ये तो सोई पड़ी है। रनिया चीखीं। उसे उठाने को हुईं तो देखा, देह तप रही थी।
– सुनो मियाँ!- हयातुल्ला को आवाज़ देती रनिया बोलीं- रज़िया को तो तेज़ बुखार है। बदन आग हो रहा है।
हयातुल्ला ने माथे पर बल डालकर रज़िया को बाँहों में टाँग कर खाट पर लिटाया। रनिया ने मोटा चादरा ओढ़ाया और माथे पर ठण्डे पानी की पट्टी रखी। उन्होंने सोचा था कि पट्टी रखने से बुखार उतर जाएगा, लेकिन थोड़ी देर के लिए उतरता फिर बदन तपने लगा।
रज़िया की फिक्र में हयातुल्ला-रनिया को रात भर नींद नहीं आई। बुखार की वही हालत थी। रज़िया रह-रह कराहती और निढाल पड़ी रही।
सुबह जब चाँद सुल्तान को गले में मोटी रस्सी डाल के, और जाने से इंकार करने पर चार-छै लट्ठ पीठ पर फटकार के हँका ले जाने लगा, ऐन उसी वक़्त रज़िया ने भयभीत नज़रों से अपने आस-पास देखा। जब उसे वह न दिखा जिसे देखना चाह रही थी-उसकी आँखों से आँसुओं की धार बह निकली, जो कानों में भरने लगी।
दरअसल लट्ठ पड़ने पर सुल्तान ज़ोरों से चीख़ा था, जिसकी गूँज रज़िया के कानों से टकराई। उस चीख़ में ऐसी करुण पुकार थी, याचना थी, जैसे कोई क़साई जिबह करने के लिए उसे खींचे ले जा रहा हो। अपने को बचाने के लिए वह रज़िया से गुहार लगा रहा था: बचाओ! बचाओ!!!
रज़िया उठने को हुई, रनिया ने उसे दबा के लेटा दिया कि तभी उन्होंने देखा- रज़िया ने आँखें उलट दी हैं। हाथ-पैर, पूरा शरीर मुर्दा हो गया है।
हाय! हाय!!!
हयातुल्ला-रनिया चीख़-चीख़ के रोने लगे। छातियाँ पीटने लगे कि हसन की तरह रज़िया ने भी दग़ा दे दिया।
अचानक हयातुल्ला के दिमाग़ में नुक्कड़ के डॉक्टर का ख़्याल आया। वे तुरन्त रज़िया को उठाकर डॉक्टर के पास भागे।
डॉक्टर ने धैर्य रखने को कहा। उम्र पूछी। नाम पूछा और हुआ क्या, यह जानना चाहा।
बताये जाने पर डॉक्टर ने पर्ची बनाई। नाम रज़िया लिखा। उम्र दस बरस लिखी। उसके बाद उसने रज़िया की जाँच शुरू की। नब्ज पर उँगलियाँ रखीं। पलकें खोल के देखीं। छाती और पीठ पर आला फिराया। बहुत देर तक हथेलियाँ मलीं। पैर के तलवे भी मलता रहा वह।
सहसा रज़िया के मुँह से मरी आवाज़ में ‘सुल्तान’ शब्द निकला, डॉक्टर ने कहा-रज़िया को तेज़ बुखार है। दवा खिलाओ। ठण्डे पानी की पट्टी रखो, तीन दिनों में ठीक हो जाएगी। घबराने की ज़रूरत नहीं।
तीन क्या पाँच दिन हो गये, रज़िया की हालत काफ़ी ख़राब होती जा रही थी। डॉक्टर की दवा का कोई असर न था। उसके इंजेक्शन का भी फ़ायदा दीखता नज़र नहीं आ रहा था, जिसके बारे में डॉक्टर ने बताया था कि मरता इंसान उठ बैठता है कि सुबह-सुबह दरवाज़े पर सुल्तान के सी-पो, सी-पो की गुहार गूँजी।
सहसा रज़िया के होंठ फड़फड़ाए। भारी पलकें खोले वह अग़ल-बग़ल देखने लगी। फिर काँपते हाथों उठकर बैठ गयी। बुदबुदाई: सुल्तान! सुल्तान!!!
रज़िया! रज़िया!!!
रनिया के ख़ुशी से जहाँ आँसू चू पड़े और उन्होंने रज़िया को छाती से चिपका लिया, वहीं हयातुल्ला के मुँह से ज़ोर की चीख़ निकली। आसमान की ओर दोनों हाथ उठाकर वे ‘या अल्लाह तेरा रहम’ बुदबुदाने लगे। आँसू उनकी दाढ़ी में चमक रहे थे। सुल्तान को लेकर तभी उनके दिमाग़ में एक गुस्सा उठा जिसके बहाव में वे दरवाज़े तक गये, कोने में टिका लट्ठ उठाया और सुल्तान की पीठ पर बेतरह बरसाने लगे।
जब थक गये तो हाँफकर उन्होंने लट्ठ ज़मीन पर फेंक दिया और सुल्तान से सवाल किया कि जब तुझे बेच दिया तो तू वापस आया क्यों? इत्ते लट्ठ पड़ने पर भी बेशरम की तरह खड़ा है! भाग भी नहीं रहा है!!!
इस नादान को क्या जवाब दूँ?- सुल्तान ने हयातुल्ला की आँखों से आँखें मिलाईं। मानों कह रहा हो- तू रुक क्यों गया? पीटता रह। और तू कर भी क्या सकता है? लेकिन तेरी पिटाई से मैं डरने वाला नहीं हूँ और न ही जीते जी यहाँ से हिलने वाला…
हयातुल्ला को लगा, जैसे अनायास ही उनसे कोई गुनाह हो गया। उनकी आँखों से आँसू बह निकले।
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हरि भटनागर
प्रेमचंद और अमरकान्त की कथा-परंपरा के वाहक तथा ‘रचना समय’ के सम्पादक हरि भटनागर का जन्म 6 अप्रैल 1955 को राठ, हमीरपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ। सुल्तानपुर से प्रकाशित होनेवाली ‘कृति’ पत्रिका में 1977 के आसपास छपी ‘सिलिण्डर’ कहानी से अपनी कथा यात्रा शुरू करनेवाले हरि भटनागर के चार कहानी-संग्रह- ‘सगीर और उसकी बस्ती के लोग’,‘नाम में क्या रखा है’,‘बिल्ली नहीं दीवार’ और ‘आँख का नाम रोटी’, एक उपन्यास- ‘एक थी मैना एक था कुम्हार’ तथा तीन बालोपयोगी पुस्तकें ‘जाफ़र मियां की शहनाई’,‘सी-पो सी-पो’ और ‘बजरंग पाँड़े के पाड़े’ प्रकाशित हैं।
– 197, बी सेक्टर, सर्वधर्म कॉलोनी,
कोलार रोड, भोपाल-462042
सम्पर्क- +919424418567, haribhatnagar@gmail.com
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चित्रकार : प्रवेश सोनी
चित्रकला और साहित्य दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से सक्रिय प्रवेश सोनी का जन्म 12 अक्तूबर 1967 को हुआ।
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रेखाचित्र, कवितायें और कहानियाँ प्रकाशित।पुस्तकों के आवरण के लिए पेंटिंग।
सम्पर्क- praveshsoni.soni@gmail.com
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