कथा-संवेद – 21

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सुपरिचित कथाकार प्रज्ञा का जन्म 28 अप्रैल 1971 को दिल्ली में हुआ। परिकथा (जनवरी 2013) में प्रकाशित ‘मुखौटे’ शीर्षक कहानी से अपनी कथायात्रा शुरू करनेवाली प्रज्ञा के चार कहानी-संग्रह- ‘तकसीम’, ‘मन्नत टेलर्स’, ‘रज्जो मिस्त्री’ तथा ‘मालूशाही… मेरा छलिया बुरांश’, दो उपन्यास- ‘गूदड़ बस्ती’ और ‘धर्मपुर लॉज’, बाल साहित्य की एक पुस्तक ‘तारा की अलवर यात्रा’, नाट्यालोचना की चार पुस्तकें- ‘नुक्कड़ नाटक: रचना और प्रस्तुति’, ‘नाटक से संवाद’, ‘नाटक: पाठ और मंचन’ तथा ‘कथा एक अंक की’ और कथेतर गद्य की एक किताब ‘आईने के सामने’ प्रकाशित हैं।
सरल लेकिन मजबूत कथासूत्र और स्पष्ट राजनैतिक पक्षधरता प्रज्ञा की कहानियों के दो महत्त्वपूर्ण गुण-सूत्र हैं। इन दोनों की स्वाभाविक मौजूदगी के बीच गंगा के विद्रोहिणी स्वरूप के कारण ‘जड़खोद’ को प्रज्ञा की कथा-यात्रा के एक नये पड़ाव और प्रस्थान की तरह देखा जाना चाहिये। समय, समाज और राजनीति की तमाम दुरभिसंधियों के बीच इस कहानी में गंगा का व्यक्तित्व जिस साहस, धैर्य और संजीदगी के साथ विकसित होता है, वह इसे समकालीन हिन्दी कहानी के एक महत्त्वपूर्ण और यादगार चरित्र के रूप में दर्ज कराने की सामर्थ्य रखता है। कथारस को आद्योपांत बरकरार रखकर समय और समाज की फाँकों पर चौकस निगाह रखते हुए चाक्षुस दृश्यों की रचना इस कहानी की बड़ी विशेषता है। कथानक की एकरैखिकता, पात्रों के श्वेत श्याम बाने और घटनाओं की नाटकीयता जिन्हें सामान्यतया कहानी की कमजोरियों की तरह रेखांकित किया जाता है, यहाँ अपनी परस्पर आबद्ध और नियोजित संरचना के साथ सार्थक और दृष्टिसम्पन्न प्रतिरोध का एक ऐसा प्रति-संसार रचते है जिसमें लैंगिक समानता और धार्मिक संवेदनशीलता के प्रश्न एक चैतन्य स्वपनदर्शिता के साथ सहज और चुंबकीय कथारूप में मुखरित हो उठे हैं। रचना में निहित स्वप्न को ही उसके शिल्प की तरह विकसित करने का भी यह एक विरल उदाहरण है।
राकेश बिहारी
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जड़खोद
प्रज्ञा
वो मुझसे दो साल बड़ी थी पर स्कूल में केवल एक दर्जा आगे थी। जिंदगी के पाठ पढ़ाने वालों में वो मेरी उस्ताद थी। राजधानी में चंद्रनगर के लक्ष्मीनारायण मंदिर के किशन पंडित की बेटी गंगा। एक मोहल्ले में रहने के बावजूद यदि हमारे स्कूल एक नहीं होते तो गंगा का मेरा उस्ताद बन पाना नामुमकिन था। मैकू उससे मुझे जोड़ने वाला पुल था। मैकू रोज सुबह साढ़े छह बजे अपनी मजबूत काठी और दमदार रिक्शे के संग घर के बाहर रिक्शे की घंटी को तेजी से टनटनाता। मोहल्ले के दस बच्चों को बारी-बारी से उनके घरों से बटोरकर , रिक्शे पर लादकर मैकू स्कूल छोड़ता और फिर दोपहर को उन्हें स्कूल से लेकर सुरक्षित उनके घर पहुंचाता। कायदे से रिक्शे में तीन बच्चे ही मुख्य सीट पर सम्मान से बैठ सकते थे पर मैकू यदि तीन बच्चों को ही लाता-ले जाता तो महीने भर में खुद क्या खाता और अपने घर क्या भेज पाता? उसकी कुशाग्र बुद्धि ने रिक्शे में लकड़ी का एक फट्टा पीछे लगवाया और फट्टों का एक बेंच बनवाकर मुख्य सीट के सामने लगवाया। यह बेंच मुख्य सीट की तुलना में बड़ा था जो दोनों ओर से रिक्शे की हद से बाहर जाकर तीन की बजाय चार बच्चों का बोझ ढोता था। रिक्शे की नीली रैग्ज़ीन वाली मुख्य सीट पर स्कूल की तीन बड़ी दीदियों का एकछत्र राज था। उनके सामने वाली सीट पर कुछ और बच्चियों का। पीछे का फट्टा भी वी.आई.पी. सीट से कम न था पर उसकी शर्त साफ थी- छठी-सातवीं की पतली-दुबली लड़कियां ही वहां स्थायी स्थान पातीं। पीछे बैठकर हर वाहन से आगे होने का यह सुख निराला था जिसे आगे बैठी लड़कियां भला क्या जान पातीं? मेरे और एक अन्य लड़की के अलावा तीसरी लड़की गंगा थी जो पिछले फट्टे की हमारी साथी थी।
‘‘जाओ बेबी! पंडितजी की लड़की को जल्दी से ले आओ। रोज-रोज घंटी बजाबजाकर माथा खराब होता है।’’ मैकू ने कहा।
एक रोज मैकू का यही आदेश मानने के बाद तो मैकू की और मेरी, दोनों की झिझक खुल गई। एक हुक्म देता तो दूसरा फौरन से पेशतर हुक्म बजा लाता। दिक्कत केवल एक थी। मैकू का हुक्म और मेरा तीर की तरह दौड़ना तो एक तरफ रहता पर गंगा अपनी चाल चलती। उसे न मैकू की डांट की परवाह थी न मेरी खड़ा जीना भागकर चढ़ने की फुर्ती से कोई लेना-देना। खुश्क गले में चाय उतारते हुए वह रोज मुझसे पूछती-
‘‘चाय पिएगी?’’
‘‘ न नहीं, जल्दी चलो। मैकू को गुस्सा आ रहा है।’’
मैं मंदिर के गलियारे में लोहे की सीढ़ियों का एक मंजिला जीना चढ़कर ऊपर पहुँचती तो अलसाकर उठी, बिना नहाई-धोई गंगा यूनिफ़ॉर्म में बैठी नाश्ता कर रही होती। उसके नाश्ते में हर रोज अजवायन-नमक का तिकोना परांठा रहता और स्टील के गिलास में खौलती चाय। वह इत्मीनान से नाश्ता करती पर मेरी बेसब्री देखकर मां से दूसरा गिलास मांग दोनों गिलासों में चाय को औटाकर ठंडा करती। फिर लंबे बाल संवारकर चोटी बनाती। उसके बाद पैरों में मोजे चढ़ाती और लगभग भागते हुए स्वेटर-जूते पहनती। इतनी देर में मैकू का भयावह चेहरा मेरे सामने आकर मुझे न जाने कितनी बार डराता। मेरे चेहरे पर पुते डर को पढ़कर वो जल्दी करती। नीचे से मैकू लगातार लंबी घंटी देता पर घंटी सुनने वाला गंगा का कान उस वक्त बहरा हो जाता था।
‘‘ तुम्हें स्कूल छोड़कर दूसरी शिफ्ट वाली सवारियां भी उठानी होती हैं। देर करोगी तो कल से छोड़ देंगे तुमको।’’ मैकू खीजता।
‘‘ छोड़कर दिखाओ, इस रिक्शे के आगे लेट जाऊंगी। चला लेना फिर। अब बकझक में कौन देर कर रहा है, मैं या तुम?’’
गंगा , अपने खुश्क गले की लठैती ठसक में पूछती फिर तुरंत अपनी उम्र मुताबिक मासूमियत चेहरे पर ओढ़ लेती। इधर गंगा के इंतजार में पूरा रिक्शा पिसता। मैं भी उसमें शामिल थी पर गंगा को उसके घर से लाने में आगे चलकर मेरा फायदा बहुत हुआ। धीरे-धीरे मंदिर का हर कोना मेरी पहुँच में हो गया। दिन का कोई वक्त हो ,घर में मन न लग रहा हो तो गंगा मंदिर में जाने का एंट्री पास बन गई। दोपहर में मंदिर बंद है पर गंगा पिछला दरवाजा खोल देती और हम दोनों पूरे मंदिर में भागते। बाद में मेरी कुछ और सहेलियों को भी यह सुविधा उपलब्ध हुई। हम कलामंडी की प्रतियोगिता करते। पूरे मंदिर में दौड़ लगाते। मुख्य मूर्तियों के आगे लगी रेलिंग को पारकर सब मूर्तियों को छूते। मंदिर की सबसे ऊपर की दोनों मंजिलें जहां किशन पंडित और मंदिर ट्रस्ट के लोगों के अलावा सबका प्रवेश वर्जित था वहां भी कभी-कभार जाने का मौका गंगा खोज लेती। दूसरी मंजिल पर बने विशालकाय कमरे को साल भर में कृष्ण जन्माष्टमी के दिन ही लोगों के लिए खोला जाता था। वह कमरा ट्रस्ट की बैठकों या आयोजनों के सामान रखने के काम आता। एकाध मौका मंदिर की बड़ी-सी छत पर जाने का भी गंगा की वजह से ही मिला था।
‘‘ करमजली! औंधी खोपड़ी की लड़की, कोई सऊर ,न कोई ढंग। जड़खोद कहीं की। जाने कहां से पैदा हो गई हमारे घर? कुलच्छनी। इमरजंसी में पैदा हुई और आफत बनकर हमारे सर चढ़ गई। इसका नाम गंगा नहीं इंदिरा रखना चाहिए था।’’
रोज मुझे घर में आया देखकर जहां किशन पंडित, गंगा को मेरे सामने गरियाने में काफी सहज हो गए थे वहां मेरे ज्ञान का इजाफा भी रोज-रोज हो रहा था। एक तरफ मैं पंडितजी के इंदिरा विलाप को सुनती तो दूसरी तरफ गंगा के अपने पिता के सामने चुप रहने और पीछे से उनकी करतूतों के उसके किए खुलासे मुझे चौंकाते।
‘‘ खाओ न री! पूरे पांच रुपये हैं मेरी जेब में। जिसको जो चाट खाने का मन हो, वही खाओ और भैया! इस सोनू के लिए तो एक पत्ता टिकिया का बना दो।’’
मुझे अच्छा लगा कि मेरी पसंद गंगा जानती थी पर उसकी जेब में पांच रुपये और स्वभाव में अनमोल मस्ती देखकर मैं दंग थी। उन दिनों पांच रुपये में दो-ढाई किलो दूध आ जाता था। मुझे डर लग रहा था मेरे घर से किसी ने आज मुझे चाट खाते रंगे हाथ पकड़ लिया तो मेरी जमकर धुनाई होगी।
‘‘कहां से लाई इतने पैसे?’’
शैली, सीमा, राधा के जाने के बाद मैंने गंगा से सवाल किया।
‘‘ सब भगवान का दिया है तू क्यों परेशान होती है।’’
अक्सर सहेलियों को चढ़ावे में आए फल-मिठाई खिलाते हुए गंगा ‘भगवान का दिया’ कहकर भरपूर ठहाका लगाती थी। आज भी उसने ठहाका लगाया पर मेरी जान सूख गई। इस राज से पर्दाफाश अगले मंगलवार को हुआ। मंगल की शाम मंदिर की धज ही कुछ और होती। बाहर प्रसाद की आस में लाइन लगाए शोर मचाते, धक्कामुक्की करते बच्चे तो अंदर जिंदगी के भयों से जूझते हनुमान के भक्त। मंदिर के सामने वाला मुख्य हिस्सा भीड़ से घिरा रहता और मंदिर के मुख्य दरवाजे के दाएं-बाएं के हिस्से भी भरे रहते। बीच का विशाल रास्ता भी मोहल्ले के वृद्धों से भरापूरा रहता। भक्तों की पूजा करवाते व्यस्त पंडितजी की निगाह से बचकर मंदिर के दो कोनों में गंगा हाथ की सफाई दिखाती। एक कोना जहां बीच में शिवलिंग रखा था, उसके ऊपर शीशे में बंद हनुमान, लक्ष्मी और गणेश विराजमान थे वहां मंगल ही मंगल था। हर शीशे के दरवाजे में बाहर एक चौकोर-सी कटिंग थी जिसमें हाथ घुसाकर लोग मूर्तियों के पैर छूकर दान-दक्षिणा अर्पित करते। भक्त अर्पण करते और गंगा बड़ी सफाई और चालाकी से उस अर्पण को हथिया लेती। वह चिराग तले अंधेरा वाली कहावत को चरितार्थ कर रही थी। मैं, उसकी चौर्यकला के करतब देखकर दंग थी।
‘‘पकड़ी जाएगी तो पंडितजी ढिबरी टाइट कर देंगे तेरी?’’ मेरी हकबकाई मुद्रा ने उसे भरपूर झकझोरा।
‘‘ मैं न टाईट कर दूंगी उसकी ढिबरी?’’
‘‘पाप चढ़ेगा तुझे, पाप।’’ सांसारिक भय की बजाय अब मैंने पारलौकिक भय से उसे आतंकित करना चाहा।
‘‘ तो इस पाप की भागी अकेली मैं नहीं हूं। देख रही है न सामने उस आदमी को, मंगल के पैसे बटोरकर मंहगी शराब पिएगा और रात को माई को मारेगा। इस पापी के सामने मैं क्या हूं? भगवान सब जानते हैं।’’
उसकी बागी बातें मुझे डरा रही थीं। जल्दबाजी और मुखसुख में पिताजी को पिताई-पिताई कहने वाली गंगा का उनके लिए एकदम तू-तड़ाक पर उतर आना मेरे बाल मन को झकझोर गया। वह अचानक बड़ी हो गई थी। मैं नहीं जानती थी वह खरोंच मेरे मन पर स्थायी रूप बना लेगी। मेरे सामने पिता के प्रति तीखी कड़वाहट लिए खड़ी पहली लड़की थी- गंगा। मन ने गवाही दी, सही कहते हैं पंडित जी इसे न शर्म, न लिहाज। और हद तो तब हुई जब कुछ समय बाद मैं और गंगा मैकू की पिछली सीट से बरी होकर मुख्य सीट पर आ गए। गंगा का ढंग अब तक न बदला था अलबत्ता मैकू ने घंटी टनटनाना त्याग दिया था। मेरा रोज का क्रम बना हुआ था। मैं सीढ़ियां चढ़ रही थी कि पंडितजी के चीखने की आवाजें तेज होती चली गईं। अंदर का नजारा देखकर मैं सन्न रह गई। पंडितजी, गंगा की गिरफ्त से खुद को छुड़ाने की अथक कोशिश कर रहे थे। उनका पूरा शरीर गंगा को परे धकेलने की कोशिश में था पर गंगा रणचंडी की तरह उन पर हावी थी। गंगा के दांत पंडितजी की कलाई पर गढ़े थे और किसी भी समय कलाई का मांस अपनी जगह से उखड़ सकता था। मैंने देखा गंगा की आंखों में खूनी डोरे उभर रहे थे। उसकी पूरी मुख-मुद्रा नफरती अंगारों-सी दहक रही थी। उसकी मां के माथे से खून टपक रहा था, पंडितजी गुस्से और पीड़ा में बेतरह चीख रहे थे पर गंगा की पकड़ ढीली न हुई।
‘‘हरामी-कमीने ….हाथ लगा अबकी माई को। हाथ तोड़ दूंगी तेरे।’’
गंगा का चेहरा पूरी तरह लाल हो चुका था। आंखें फटी जा रही थीं। पंडितजी पूरा जोर लगा रहे थे कि तभी कमरे में मेरे कदम रखते ही सब अपनी जगह स्थिर हो गए। गंगा ने मेरे भयभीत चेहरे और गले में घुटी चीख को पढ़ा और पंडितजी पर अपनी पकड़ ढीली कर दी। मेरे कानों में गंगा के शब्दों का नफरती लावा उतर चुका था। मेरी आंखों के जरिए मेरी चेतना पर उसके नुकीले दांत काबिज हो गए।
‘‘ सोनू! तू भी मेरे बाप की तरह मुझे ही गलत मान रही है क्या?’’ उस दिन स्कूल की आधी छुट्टी में गंगा ने मुझसे पूछा। सुबह के सदमे से मैं अभी तक मुक्त नहीं हो पाई थी फिर भी मैंने उसे सुनना सही समझा।
‘‘ चंद्रनगर के सबसे बड़े मंदिर का पुजारी ये किशन पंडित दुनिया का सबसे कमीना आदमी है।’’
मैंने उसे घूरकर देखा पर वो मुझे देखे बगैर एकदम सामने किसी शून्य में देखते हुए बोलती रही। उसके भीतर धधक रहा ज्वालामुखी आज फूटकर बिखरने को मचल रहा था।
‘‘ बचपन से अपनी माई को पिटते ही देखा। जब-तब उसने मुझ पर भी हाथ उठाया। मेरा बचपन इस राक्षस की छाया में पला। बरसों से मैं और माई पिटने के आदी हैं। मुझे उससे बचाने माई बीच में कूद पड़ती है और पिटती है। उसकी बेटा न मिल पाने की खीझ भी तो बरसों पुरानी है। छुटपन से ही माई ने मुझे इसकी ऐसी-ऐसी बातें बताईं हैं कि क्या कहूं पर आज बात कुछ और थी। कुछ दिन पहले की बात है। तुझे याद होगा खाली सड़क पर सरपट रिक्शा भगाता मैकू उस दिन मेरे घर के सामने ब्रेक लगाना भूल गया था और रिक्शा पीपल का पेड़ पार कर गया था। मैं रिक्शा से उतरकर घर लौट ही रही थी कि मैंने देखा मेरा कमीना बाप गली के धोबी सूरज की छह-सात साल की लड़की टिन्नी को फुसलाकर मोहल्ले की सबसे बड़ी कोठी वाले शर्मा जी के घर लिए जा रहा है। शर्मा जी सारे परिवार के साथ किसी रिश्तेदार की गमी में गए थे। कोठी के पिछवाड़े में बने स्टोरनुमा कमरे में ये कमीना जाता रहता है। मेरे बाबा के समय से उनकी कोठी का यह कमरा उनके निजी सामान के लिए दिया गया था। अब चाबी इसीके पास रहती है। मेरा दिल धक्क रह गया। माई से सुने इसके क़िस्सों ने मुझे समय से पहले ही बड़ा कर दिया था पर उस दिन तो हद हो गई। इसकी करतूत देखकर मेरे मन की धरती चटक गई। बाप का भेस उघाड़कर एक दरिंदा मेरे आगे खड़ा हो गया। माई को लाऊं, क्या करूं? कुछ समझ नहीं आ रहा था। टिन्नी खतरे में थी ये सोचकर मेरे दिमाग की नसें तड़कने लगीं। मैं पूरी ताकत से भागी। मैंने जोर से स्टोर का दरवाजा पीटना शुरू किया। अंदर की हलचल शांत हुई पर बच्ची की दबी आवाज मेरे सीने से टकरा रही थी। मैंने दरवाजा पीटने के साथ चीखना भी शुरू किया। चंद सैकेंड गुजरे फिर दरवाजा खुला। एक हाथ से दरवाजे के दूसरे पल्ले को कसकर थामे ये राक्षस मेरे अंदर घुसने का रास्ता बंद किए खड़ा था।
‘‘ टिन्नी कहां है? टिन्नी…टिन्नी।’’ मैं पूरी शक्ति लगाकर चिल्लाई। अंदर घुसने की मेरी कोशिश को उस दरिंदे ने परे धकेला लेकिन इतने में टिन्नी उसके पीछे से झांकी।
‘‘ मुझे बाहर आना है दीदी।’’
उसकी झलक मिलते ही मैंने एक्स-रे मशीन की तरह उसे पढ़ा। उस समय मेरी साँसों का बोझ इतना भारी था कि किसी भी समय मैं गिर सकती थी। टिन्नी अभी तक सही सलामत थी। उसे ठीक पाकर जाने कहां से मुझमें इतनी ताकत आ गई कि दरिंदे की समूची ताकत से मैं लोहा लेने लगी। किवाड़ की ओट में मैंने खुद को इस तरह फंसा दिया कि दरवाजा खुलवाकर ही मानी।’’
‘‘दीदी! पंडितजी मुझे भगवान जी दिखा रहे थे। ’’
गंगा से सुना सच मेरे रोम-रोम को कंपा गया। शून्य में घूर रही गंगा का हाथ मैंने थाम लिया। उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे पर उसे अभी बहुत कुछ कहना था।
‘‘ सोनू! उस वक्त टिन्नी की आवाज मुझे दुनिया की सबसे मीठी आवाज सुनाई दी। जिंदगी के इन बीते क्षणों ने मुझे अचानक इतना ताकतवर बना दिया कि मैं एक गौरैया को बाज से बचा लाई। टिन्नी को सीने से चिपटाया और उस दरिंदे को घूरा। खामोश खड़ा था कमीना पर टिन्नी के हाथ से निकल जाने का गुस्सा छिपा न सका। मैंने टिन्नी का हाथ थामा। वो स्टोर के कबाड़ में रखी भगवान की पुरानी मूर्तियों को अभी तक उसी चाव से देख रही थी पर मेरे भीतर कई मूर्तियां ढह चुकी थीं। बेजान मूर्तियां भी और उनसे कमाई करने वाले पिता की मूर्ति भी।’’
‘‘ तूने माई को बताया?’’ मैंने उसका कंधा झकझोरते हुए उसे दरिंदे की सोच से बाहर आने के लिए झटका दिया।
‘‘ माई! इससे भी ज्यादा जानती है सोनू। अक्सर बाबा को याद करते हुए कहती है पता नहीं राम के घर ये रावण कैसे जन्मा? माई बताती है जब मेरे बाबा जिंदा थे तो मंदिर श्रद्धा और आस्था की लौ से जगमगाता था। भजन और मंत्रों का उच्चारण और स्वर लहरी मंदिर के माहौल में एक सादगी और पवित्रता भर देती थी। बाबा की तो मुझे याद नहीं सोनू पर सुबह मुँह अंधेरे जब माई खुले और सुरीले गले से मंत्रोच्चार करती है तो पूरा मंदिर दिव्य लगता है। मन कहता है कि माई को ही मंदिर का पुजारी बनाना चाहिए पर कैसे? माई ठहरी औरत जात। बाबा की नेकनामी की वजह से ही पंडिताई मेरे बाप को विरासत में मिल गई वरना इसका तो उच्चारण भी सही नहीं।’’ वीरान आंखों और पीड़ा से भरे शब्दों से गंगा बोली।
‘‘ टिन्नी ने किसी को कुछ बताया नहीं?’’ मेरी जिज्ञासा का कोई ठौर नहीं था।
‘‘ बच गई बच्ची।’’ एक गहरी सांस छोड़कर गंगा ने कहा।
मैं उसे देखती रह गई।
‘‘ दो दिन बाद शर्मा जी के लौटने पर मैंने माई को उनके स्टोर की चाबी लौटाने की बात कही। मेरे भीतर डर इतना अधिक बैठ गया कि मैंने मंदिर ट्रस्ट के अग्रवाल जी को सारी बात बताई। अक्सर मीटिंगों में उनकी बात का बड़ा वजन रहता है। मेरी बात का उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया पर बड़ी-बड़ी आंखों से धमकाते हुए बोले-‘‘ मरजाद में रह लड़की। बड़ों का आदर-सम्मान कर। लड़की होकर इतने ऊंचे बोल? जिसने जनम दिया, जिंदा रखा उसकी इज्जत उतार रही है। गंगा जैसा पवित्र नाम और कितना खल आचरण।’’ सोनू, अग्रवाल जी को मंदिर की प्रतिष्ठा जान से प्यारी है और इस प्रतिष्ठा की डोर किशन पंडित संभाले है। उस पर आंच कैसे आने देते? माई ने टिन्नी वाली बात का विरोध किया तो पंडित ने माई को बुरी तरह पीटा। गिलास उठाकर मारा तो माई के माथे से टपकते खून ने आज मुझे पागल कर दिया और…’’
मेरे दिमाग के तारों में हाई वोल्टेज करंट दौड़ गया। ये अब तक का सबसे तीखा और मेरे जीवन का सबसे बुरा किस्सा था। मेरा रोम-रोम जानता था इस तीखे अनुभव की छाया से मैं आजीवन मुक्त न हो सकूंगी। इसके आगे गंगा ने मुझे कुछ नहीं बताया पर आज गंगा का घर मेरे लिए खंडहर में तब्दील हो गया। वो सारे चाव, सारी मूर्तियां, कलामंडी लगाने से लेकर खेलकूद की आजादी सब रेत हो गई। उस खंडहर से निकला सच मुझे समूचा हिला गया। एक सवाल मेरे कलेजे में अटककर रह गया- ‘‘ मैं भी तो कभी पंडित के लिए टिन्नी ही थी?’’
अगले कुछ रोज मैकू हमेशा की तरह मुझे गंगा को लाने के लिए कहता रहा पर मैं टस से मस नहीं हुई। पिछले फट्टे पर बैठी नन्हीं सीमा को जैसे ही उसने गंगा को लाने का आदेश दिया वह उमंग में उठने लगी। मैंने तपाक से उसे रोका। मैं उठी और पहली बार मंदिर की बाहरी सीढ़ियों से ही मैंने गंगा का नाम पुकारा। कुछ देर बाद एक लड़की मेरे सामने खड़ी थी। दिख गंगा जैसी रही थी पर गंगा न थी। उसके लंबे बाल गायब थे और कंधे तक कटे बालों में गंगा आज अजीब-सी दिख रही थी। बाल बेतरतीब से कटे हुए थे जैसे कैंची उसने गुस्से में फिरा ली हो। मैं उसे देखती रह गई। उसने मेरी ओर हंसकर देखा और बोली-
‘‘ कमीने को जलाने में मजा आ गया कसम से।क्यूँ लग रही हूं न दिलरूबा दिल्ली वाली? मेरे लंबे बाल उस पंडित को बहुत पसंद थे। काटकर धर दिए उसके आगे। वो तो माई ने कसम दे दी वरना मोहल्ले में टिन्नी वाली बात पर इसकी थू-थू कराती। माई ने तुझे बताने से भी मना किया है। तू भी किसी को मत बताना।’’
उस दिन सारा स्कूल गंगा को अजीब नजरों से घूरकर सवाल पूछता रहा। लौटते समय मैंने भी कहा-
‘‘ गंगा! तू अच्छी नहीं लग रही। बाल काटने ही हैं तो अच्छी तरह कटा ले। अपने पिता के पाप का ये कैसा प्रायश्चित?’’
‘‘ सोनू! पाप-पुण्य के फेर से तो मैं उसी क्षण मुक्त हो गई थी जब टिन्नी को नीच जात कहने वाला मेरा कमीना बाप उसे न जाने कौन-सा पुण्य कमाने कोठी में ले गया था। बचपन से सुनती आई हूं कि औलाद को पिता का कर्जा चुकाना होता है। न जाने अब ये भारी कर्ज मैं कैसे चुका पाऊंगी?’’
गंगा की टीस मेरे मन में भाप-सी उठी। आंसू हम दोनों की आंखों में थे। जीवन का इतना बड़ा सच मन में दबाकर मैंने दोस्ती की हिफाजत की। तब भी जब साल भर बाद दसवीं के आगे की पढ़ाई मुझे देहरादून जाकर हॉस्टल में रहकर ही करनी थी। मेरी आखिरी मुलाकात गंगा से उसके घर में हुई। मेरे मना करने के बावजूद उसने मुझे घर बुलाया। माई ने बड़े प्यार से बनाए पकौड़े खिलाए। मैं जैसे ही बाहर निकलकर सीढ़ियां उतरने लगी गंगा ने मेरा हाथ थामा और मुझे ऊपर के कमरे की ओर ले जाने लगी। मेरा समूचा शरीर झनझना गया। वो मुझे ऊपर खींच रही थी और मैं अपने अकड़े हुए शरीर से इंकार कर रही थी। टिन्नी से जुड़ी बात मेरी चेतना पर हावी थी इसलिए मंदिर में पंडित की गैरहाजिरी में गंगा की माई से मिलना ही मेरे लिए बहुत था।
‘‘चल न…सिर्फ एक बार। कोई नहीं है ऊपर। बस एक बार।’’
जब तक मैं मान नहीं गई वह तब तक जिद किए रही। डरे मन से मैंने कमरे में कदम रखा। सामने हनुमान, राधा-कृष्ण और विष्णु की भव्य मूर्तियां थीं। वही मूर्तियां जो जन्माष्टमी के दिन बिजली से हरकत में आकर लोगों को लुभाया करती थीं। हनुमान सीना चीरते तो राम-सीता उनके दिल में बसे दिखाई देते। विष्णु के हाथ में चक्र तेजी से घूमता और राधा-कृष्ण एक अर्द्धगोलाकार रेल पटरी पर नाचने लगते। सभी मूर्तियां आज बेहरकत खड़ी थीं। कमरे में दो बड़ी-बड़ी गठरियों पर मेरी निगाह गई।
‘‘ देख इनमें क्या है?’’ कहते हुए गंगा ने एक गठरी की गांठ ढीली की।
‘‘ ये सब क्या है?’’ गठरी के अंदर पड़े सामान को देखकर मैं चौंकी ।
गंगा ने गठरी के ढेर से चमड़े के एक केस को उठाया। केस के बाहर निकल रहे चाकू से मूठ को उसने जैसे ही खींचा केस से बाहर एक त्रिशूल निकला। नुकीला और चमकदार त्रिशूल। चाकू के आकार का। उसे केस सहित कंधे पर टांगने से वह बिल्कुल सिक्खों की कृपाण की तरह का अहसास देने लगा।
‘‘ कौन लाया इन्हें यहां और क्यों?’’
‘‘ ट्रस्ट के लोग लाए हैं। कहते हैं मोहल्ले के कारसेवक हिंदुओं में बंटेगा। यह उनकी पहचान बनेगा। धर्म का काम पंडित के जिम्मे है और मैं ठहरी उसके हर काम की दुश्मन। मन तो करता है आग लगा दूं इन गठरियों में पर जल्लाद माई को जीता नहीं छोड़ेगा।’’ गंगा बोली।
‘‘ राम के नाम में इस त्रिशूल का क्या काम? ये तो बिल्कुल हथियार जैसा लगता है।’’
भीतर खदबदाते सवाल को मैं रोक न सकी। हम दोनों पूरा सच तो नहीं जानते थे पर समय की आंधियों से बेपरवाह नहीं थे। आंधियां हमारे कानों से भी टकरा रही थीं। अपने मोहल्ले में कल से बंटने वाले इन त्रिशूलों को देखने से ही सिहरन पैदा हो रही थी। गंगा ने जबरदस्ती एक त्रिशूल मेरे हाथ में थमा दिया। मैंने सहमते हुए उसे छूकर देखा। उसका सिरा बेहद नुकीला था। एक वार में सामने वाले को घायल करने में पूरी तरह सक्षम। तभी गंगा एक थैले में दोनों गठरियों से कुछ-कुछ त्रिशूल निकालकर जल्दी-जल्दी भरने लगी।
‘‘ ये क्या कर रही है तू?’’ मैंने सवाल किया।
‘‘ ये थैला ले जाकर रूपविहार के नाले में फेंक आऊंगी। कमीना, जड़खोद कहता है न मुझे, देख इसकी जड़ खोद के ही रहूंगी।’’ वह पूरी घृणा के साथ बोली।
‘‘ किसी ने देख लिया तो?’’ मेरा डर फुसफुसाया।
‘‘ कोई नहीं देखेगा। हर रोज वह नाला कितने मोहल्लों का कूड़ा निगलता है, थोड़ा और सही। फिर मुझे बाप का पुराना कर्जा भी तो चुकाना है कि नहीं।’’
ज्वालामुखी के मुहाने पर खड़ी हम दोनों की बत्तीसी एक साथ चमकी।
मेरे हॉस्टल पहुँचने के कुछ दिन बाद ही गंगा के खत नियमित तौर पर मुझे मिलने लगे। मैं उसकी अकेली राजदार दोस्त थी पर खत लिखने का मामला एकतरफा रहता क्योंकि गंगा ने मुझे जवाब लिख भेजने से साफ मना कर दिया था क्यूंकि हर खत पहले उसके पिता की नजर से गुजरता था।
इन दिनों किशन पंडित अपनी बेटी पर मेहरबान था। गंगा की उम्र सत्रह पार कर चुकी थी और उसका कसाई बाप उसकी शादी करने पर आमादा था। बात उन्हीं दिनों की है। राम की राह पर किशन पंडित कारसेवकों के एक जत्थे और पत्नी-बेटी सहित अयोध्या अपने पुराने पुलिसिया दोस्त बृजेश्वर के घर पहुँच गया। महीने भर यहां रुकने का कार्यक्रम था। उसके मन में था एक साथ दो काम निबट जाएंगे। धर्म की राह भी बनेगी और बेटी से भी मुक्ति पा लेगा। गंगा के खत पूरी तफसील से मुझे सच बताते। नए ठिकाने की एक भी बात उसने नहीं छिपाई।
‘‘ भाईजी! अयोध्या इस बार अपना बदला लेकर रहेगी। तुम बस देखते जाओ। देश भर से राम के नाम पर जत्थे के जत्थे हमारे नेताओं के इशारे पर चले आ रहे हैं। इस बार पुनीत काम होकर रहेगा। लला की भूमि है कोई खेल नहीं।’’ बृजेश्वर ने कहा।
‘‘हमने भी कसर कहां छोड़ी है। बस भैया! लगे हाथ गंगा का कारज भी हो जाए तो छुट्टी पाऊं।’’
किशन पंडित का स्वर बेचैन था।
देख ले सोनू! कितनी जल्दी पड़ी है इसे छुट्टी पाने की। एक बार इससे अलग हो जाऊं फिर कभी मुंह न देखूं इसका। माई को भी अपने संग ले जाऊंगी।
बात इन्हीं दिनों की है जब गंगा के जीवन में पहला प्यार और पिता सरीखा स्नेह देने वाला एक इंसान साथ-साथ आया। पुलिसिया चाचा बृजेश्वर के बहनोई समरकांत शुक्ला भोपाल से अपने साले के घर आए। अयोध्या में उनकी जमीन के केस की सुनवाई थी। बृजेश्वर की बहन गुजर चुकी थी पर जीजा-साले का रिश्ता अभी जिंदा था। समरकांत के कोमल स्वभाव और स्नेह की उजली मूरत में गंगा ने अपनी जिंदगी के किसी पहले अच्छे पुरुष को पाया। वह उनसे खूब बतियाती। उनकी सेवा करती। समरकांत भी उसे खूब स्नेह देते। जिस दिन उनका जाना हुआ गंगा खूब रोई। समरकांत ने सिर पर हाथ रखकर आश्वस्त किया उनके घर पर गंगा का सदा स्वागत है। समरकांत शुक्ला के अलावा गंगा की मुलाकात प्रभात से हुई जो उसे पहली नजर में भा गया। मन की मचलती तरंगों को आखिर किससे बांटे? आड़े दिनों में दोस्त ही इकलौता सहारा रहते हैं। इसलिए मेरे पास गंगा के लिखे खत जल्दी-जल्दी पहुँचने लगे। पुलिस इंस्पैक्टर बृजेश्वर के घर और गली में एक लड़का साइकिल पर रोज फूलमाला देने आता था। दो-एक दिन गंगा ने उससे माला ली तो बातों का सिलसिला चल निकला। लंबे कद और चौड़े माथे वाला प्रभात कॉलेज में पढ़ने वाला होशियार लड़का था। अभावों में भी हरदम खिलखिलाता। गंगा को पहली बातचीत में उससे लगाव हो गया। अगली मुलाकातों में दोनों एक-दूसरे से खुलने लगे-
‘‘ राम-राम पंडितजी, कैसे हो?’’ प्रभात ने पूछा तो गंगा ने तुरंत सावधान किया-
‘‘ हमें तो औरत का जनम मिला है, हम कहां के पंडितजी?’’
‘‘ हमारे लिए तो तुम ही पंडित, ऊपर से गंगा जैसा नाम। तुम्हारे बात करने से हमारा ये जनम सुधर जाए और पैर छू लें तो सात जनम। बचपन से यही सुनते आए हैं।’’ प्रभात हाजिरजवाब था।
‘‘ सोच लो, हम छू लेंगे तुमको तो निभाओगे सात जनम? ’’
गंगा की बात सुनकर प्रभात हकबका गया। दो घड़ी को पूरी गली से सारी आवाजें गायब हो गयीं। गंगा ने फूलमाला लेते हुए प्रभात का हाथ सहलाया और मुस्कुराती हुई अंदर चली गई।
‘‘ ये रोज-रोज माली के लड़के से कैसा हंसी-ठट्ठा? चाचा हूं तेरा, टाँगे तोड़कर हाथ में दे दूंगा, फिर साथ देखा तो।’’
बृजेश्वर के पुलिसिया दिमाग ने खतरा सूंघ लिया। गंगा ने कोई सफाई नहीं दी।
‘‘ जड़खोद, नासपीटी, कमजात की हमदर्द ठहरी ,सदा की।’’
पंडित ने चुभता हुआ ताना गंगा की ओर उछाला। गंगा जानती थी बाप की छाती में टिन्नी का तीर अभी तक अटका हुआ है।
गंगा ने सारी घटना लिखते हुए मुझे ये भी बताया कि प्रभात से प्यार का इरादा पक्का करने में उसके बाप का यह ताना भी असरदार रहा।
गंगा के खत पढ़कर मैं जान गयी अब गंगा को कर्ज चुकाने का एक और मौका हाथ लग गया है। मैंने उसके कुशल की कामना की क्योंकि मैं देख पा रही थी कि गंगा जलती आग में कूद पड़ने को आमादा होगी। कुछ दिन बाद मेरे इंतजार की घड़ियां लंबी हो गयीं पर गंगा का कोई खत नहीं आया। फोन नम्बर कोई था नहीं और खत लिखने की मुझे सख्त मनाही थी। मैं आखिर क्या करती? छुट्टियों में घर आई तो मंदिर गई। पता चला अभी तक कोई नहीं लौटा। मेरी जिज्ञासा का पारा चढ़ता ही चला जा रहा था। दिन सप्ताह पर लदे, सप्ताह महीने पर और महीना ,महीनों की सीढ़ियां लांघने लगा। गंगा की तलाश में मैंने चंद्रनगर की अपनी सहेली शैली को लगा दिया। हफ्ते में एक बार उससे फोन पर बात करती पर शैली से कोई जानकारी नहीं मिल सकी। कई महीनों बाद शैली ने बस यही बताया कि किशन पंडित वापिस लौट आया है पर साथ में न माई लौटी, न गंगा। समय अपनी रफ्तार चलता गया और आखिरकार साल भर बाद गंगा की एक लंबी चिट्ठी मुझे मिली। जल्दबाजी में कांपते हाथों से मैंने चिट्ठी को लिफाफे से आजाद किया। चिट्ठी क्या थी कितनी जिंदगियों की ब्यौरेवार तफसील थी।
गंगा की चिट्ठी ने साल भर की मेरी जिज्ञासा को तमाम सूचनाओं से भर दिया प्रभात से उसके प्यार के दिनों के कोमल एहसास बेदर्दी से कुचल दिए गए। उसके मुंहबोले चाचा और पिता ने छह दिसम्बर को एक साथ दो कारनामों को अंजाम दिया। सुबह भारी भीड़ के साथ पूरी मौज में मस्जिद का खंडहरनुमा ढांचा ढहाया तो रात को गंगा की हत्या का कोशिश भी की गई। प्रभात से गंगा की बढ़ती मुलाकातें और मुँहजोर हो रही उसकी जबान पर लगाम लगाने का यही अचूक तरीका था उसके बाप और चाचा के पास। सुबह धर्म की रक्षा ने उनके हौसलों को जोश से ऐसा भरा कि सारे रिश्ते-नाते ताक पर धर दिए दोनों ने। रात में सो रही मां-बेटी के कमरे में दोनों घुस गए। गंगा को बचाने में माई ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। गंगा को किसी तरह माई ने भगा दिया। माई का सिर फटने से कपड़े खून में तरबतर हो गए। उसी पल दोनों अपराधी सचेत हुए। अगले दिन गंगा का कुछ पता नहीं चला पर प्रभात की खूब पिटाई के बाद चाचा ने उस पर चोरी का इल्जाम लगवा दिया। माई कुछ दिन बाद चल बसी। गंगा का कुछ भी पता नहीं चला प्रभात को तीन साल की जेल हो गई। गंगा किसी तरह भोपाल पहुंची। वहां जाकर कुछ महीने शांति रही पर समरकांत से गंगा की नजदीकी समरकांत के दोनों विवाहित लड़कों से देखी न गई। दोनों बहुओं-बेटों ने ये सोचकर उनके रिश्ते को लांछित किया कि गंगा से मुक्ति मिलेगी पर दांव उल्टा पड़ गया। समरकांत शुक्ला ने सबको हैरान करते हुए अपने से बहुत छोटी उम्र की गंगा से विवाह कर लिया।
गंगा की चिट्ठी पढ़कर मेरी हैरानी आसमान छू गई। अविश्वसनीय किंतु सच और सच की अधखुली परतें लिए मैं कितनी ही देर कुर्सी पर बैठी रह गई। गंगा या मिसेज समरकांत शुक्ला? एक सवाल न जाने कितने सवालों को लिए था। गंगा की चिट्ठी में एक फोन नम्बर भी था। दो दिन सारी स्थिति को पचाने के बाद मैंने गंगा को फोन किया।
‘‘ मैं ठीक हूं …तू बता?’’
गंगा के एक वाक्य से मैं उसके हालात का जायजा लेने लगी। उसकी आवाज में मुझे कोई खास परेशानी महसूस न हुई।
‘‘ आखिर शादी की ऐसी क्या मजबूरी थी?’’
मेरा गुस्सा तमाम एहतियात के बावजूद फट पड़ा।
‘‘जब मानुस धर्म देखने वाली आँखें फूट जाएं तो रिश्ते की सीखचों में कैद होना ही अंतिम उपाय रहता है।’’
गंगा संयत स्वर में बोली पर मैंने अनुमान लगा लिया कि गंगा तो एकदम पक्की गृहस्थिन की तरह बोल रही है। आज उसकी बोली में माई का कंठ घुला था।
‘‘ तू प्रभात के लिए रुक नहीं सकती थी?’’ मैं चिल्लाई।
‘‘ कहां रुकती, किसके पास रुकती? क्या प्रभात के मां-बाऊजी रख लेते मुझे? वहां रहती तो पंडित मुझे जीता छोड़ता? कहां जाती? क्या करती? सही समझा इसलिए भोपाल चली आई।’’ गंगा सभी सवालों के लिए तैयार थी।
‘‘ शादी क्यों की? कैसे निभा रही है एक बूढ़े आदमी के साथ? उस आदमी के साथ जिसे पिता सरीखा मानती थी?’’
मैंने मन की तह में पड़ा असली सवाल पूछ ही डाला।
‘‘ समरकांत जी से विवाह का निर्णय न मेरा था, न उनका। मेरे पक्ष में बेटों-बहुओं से उनकी लड़ाई इस हद तक बढ़ी कि वे पिता पर दबाव डालने लगे कि वे मुझसे शादी करेंगे तो ही मैं यहां रह सकती हूँ। बेटों ने सोचा जिस बाप ने अपनी जवानी पत्नी के बिना गुजार दी वह बुढ़ापे में क्या ब्याह रचाएगा? पहले तो समरकांत जी ने बाढ़ के रेले को किसी तरह रोककर रखा फिर कुछ ऐसा हुआ कि उनके बेटों से न उगलते बना, न निगलते।’’ गंगा मेरे उलझे सवालों के सुलझे जवाब देती रही।
‘‘ और तेरा गृहस्थ जीवन…?’’ मेरी अंतिम जिज्ञासा भी अपना ठौर पाना चाहती थी।
‘‘ वो चल रहा है अपनी गति से।’’
गंगा ने ठहरकर कहा तो मेरे पास पूछने को कुछ नहीं बचा। कितना अजीब था सारे सवालों के जवाब मिलने के बावजूद मेरी सारी जिज्ञासाएं अधर में लटकी थीं। ऐसा क्या हुआ? कैसे निभा रही होगी गंगा? अपनी उम्र से इतने बड़े आदमी के साथ उसका रहना कैसे होता होगा? अपने से बड़े बेटों की मां बनकर कैसा लगता होगा? प्रभात से उसका प्रेम क्या सिर्फ कुछ दिन का खेल भर था? कितनी कमजोर निकली गंगा। बूढ़े पति के मरने पर क्या होगा उसका? सारे सवाल अक्सर एक साथ मुझ पर हमला करते। मन करता गंगा के घर जाऊं। वहां जाकर सच जानूं पर हिम्मत नहीं हुई। उसके बाद मैंने अपनी तरफ से उसे फोन नहीं किया। उसके खत आते जो केवल घर की सुख-शांति के हाल बताते और मेरी तरक्की का हाल जानना चाहते। मेरे बेहद संक्षिप्त से खत भी देर-सबेर उस तक पहुंच जाते। धीरे-धीरे वह सिलसिला भी थककर थम गया।
बी.टेक के बाद एम.टेक की पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप पर मेरा दाखिला आस्ट्रेलिया की एक यूनिवर्सिटी में हो गया। जाने की खबर गंगा को दूं या नहीं इस पशोपेश में रही। कितने सालों से उससे कोई वास्ता भी नहीं रहा था। आखिर में मेरी दोस्ती ने उतार-चढ़ाव में भी अपने साबुत होने का सबूत दिया। मेरे आगे पढ़ने और बाहर जाने की बात सुनकर जब फोन पर गंगा की चहकती आवाज सुनी तो महसूस हुआ जैसे उसकी एक आंख रो रही थी तो दूसरी हंस रही थी। मुझे अपना देहरादून का हॉस्टल जल्द छोड़कर घर लौटना था। दिल्ली शहर से प्यार होते हुए भी गंगा चंद्रनगर आने से बचना चाहती थी इसलिए भोपाल से मेरे हॉस्टल आई। आज कितने बरसों बाद गंगा मेरे सामने थी पर मैं उसे पहचान न सकी। कहां वह अल्हड़, बेलगाम गंगा और कहां यह गृहस्थिन गंगा? आज कितने समय बाद हम दोनों गले मिले तो समय ठहर गया। अपने कमरे में उसे लाई तो धूप ने कमरे को उजास से भर दिया। इस उजास ने हर दूरी को मिटाकर पुराने दिनों की रंगत कमरे में घोल दी।
‘‘ मिसेज शुक्ला ! ये क्या हुलिया बनाया है? करीने से बंधा हुआ जूड़ा, ये बनाव-सिंगार, ये साड़ी-हार। तुमने तो हमारी गंगा को बिल्कुल ही मिटा डाला। कहां गई हमारी वो दिलरूबा दिल्ली वाली, जिसके बेतरतीब कटे बालों की हमें आदत थी।’’ मेरी आवाज चहकी तो गंगा की वही पुरानी खनकदार हंसी समय की सुरंगों को पार करती लौट आई।
‘‘ गंगा को मिटा पाना किसी के बस की बात कहां?’’
इन चंद शब्दों ने फिर से मुझे पुरानी गंगा से मिलवा दिया। कितने दिनों बाद सुनी गंगा की लठैती ठसक वाली उसकी बिंदास हंसी पर उसके कहे ये शब्द और उसके चेहरे की रंगत से न जाने क्यों मुझे रहस्यों से बनी किसी अबूझ पहेली की झलक मिली। मैं इस समय अपनी गंगा को पूरा लौटा लाना चाहती थी। वह बहुत देर तक मेरी पढ़ाई, हॉस्टल के कारनामे, घर के किस्से सुनकर और चंद्रनगर की यादें जिंदा करके जब संतुष्ट हुई तब जाकर उसने बताया कि इन दिनों वह भी अपनी छूट गई पढ़ाई पूरी कर रही है तो मेरी खुशी सातवें आसमान पर पहुँच गई।
‘‘ अब आगे क्या करने का इरादा है गंगा मैडम?’’ मैं चहकी।
‘‘ अभी तो पढ़ाई पूरी करनी है। देखो फिर ….’’ उसका जवाब संयमित उत्साह से भरा था।
‘‘ एक बात पूछूं गंगा….प्रभात तो अब तक छूट गया होगा न कैद से?’’
आज गंगा सामने थी तो प्रभात का जिक्र छिड़ना लाजिमी था।
‘‘ हां, वो तो तीन साल बाद ही छूट गया था।’’
‘‘ फिर…तू मिली उससे?’’
‘‘ हां, मिली न। वो आया था मेरा पता लगाकर मुझसे मिलने। समरकांत जी ने भोपाल में ही एक दुकान में उसके लिए काम की व्यवस्था करा दी। अपनी शरण में आई एक लड़की का सच्चा सहारा बने समरकांत जी।’’
‘‘प्रभात अब भी तुझे चाहता है।’’ मैंने गंगा से बेहिचक पूछा।
‘‘ हां ,सोनू। बहुत।’’
‘‘ तो किसका इंतजार कर रही है? क्यों नहीं छोड़ देती समरकांत को?’’ मैं चीखी।
‘‘ नहीं सोनू! उन्होंने मुझे तब आसरा दिया जब मेरा कोई ठिकाना न था। उन्होंने मुझे बाप और चाचा के चंगुल से आजाद कराया। जिंदगी के मायने दिए। प्रभात की मदद की। अब मैं इतनी बेगैरत तो नहीं कि उनके जीवन के अंतिम पड़ाव पर उनका साथ छोड़ दूं।’’
गंगा का एक-एक शब्द अडिग चट्टान-सा ठोस था।
‘‘ पर क्या तू सुखी है उनके साथ?’’ मेरा सवाल उसके बेहद निजी कोने में दाखिल हो गया।
‘‘ सुख क्या है सोनू?’’
‘‘ मतलब इतने वर्षों में तुझे कोई संतान…?’’ मैं हकलाई।
‘‘ तो सुख यानी विवाह संबंध में मेरी और समरकांत जी की दैहिक तृप्ति? और संतान?’’
गंगा की आंखों में न जाने कैसा भाव था कि मैं शर्मिंदा हो गई।
‘‘ जो किसी से न कहा आज तुझसे कह रही हूं सोनू , समरकांत जी ने मुझे सहारा दिया है। जीने का सच्चा सहारा। जाने अनजाने में विवाह का रिश्ता जरूर जुड़ा उनसे पर अपनी पत्नी को उन्होंने तन से नहीं पूरे मन से प्यार किया है। जब समय था तब ही उन्होंने किसी से तन-मन की डोर नहीं बांधी तो मुझसे क्या बांधते? मैं आज भी उनमें एक मददगार बुजुर्ग को देखती हूं वो आज भी मुझमें एक बेसहारा लड़की को पाते हैं। वह लड़की जो अब उनके कारण धीरे-धीरे खड़े होना सीख रही है। पता नहीं मेरे सुरक्षित भविष्य को लेकर उनमें एक अजब-सा जुनून है। ’’
गंगा के शब्दों में एक निर्मल धारा बह रही थी। मेरी सारी इंद्रियां जड़ थीं। गंगा ने मुझे बताया समरकांत जी ने शरण में आई एक लड़की की प्राणपण से सामाजिक-आर्थिक रक्षा करने की बात ठान ली। बेटों-बहुओं की नजर उनके पैसों पर थी। रोज-रोज पिता की खिलती मुद्रा और गंगा की सेवा पाकर उनका बेहतर हो रहा स्वास्थ्य बेटों की मंजिल में बाधा बन रहा था। लड़के-बहुएं बात-बेबात पिता को लांछित करने लगे। गंगा की साफगोई एक बड़े निर्णायक दिन का रहस्य खोल बैठी।
‘‘सोनू! बुजुर्ग पिता की तीमारदारी को ताक पर रखकर उनके लड़के पिता की जगहंसाई कराने पर तुल गए। एक दिन तो गुस्से में पागल उनके बेटे ने उन पर हाथ उठाया ही था कि जाने कैसी बिजली मेरी देह में कौंधी कि मैं बीच में आ गई और उससे गुत्थम-गुत्था हो गई। सारा घर मेरी थू-थू करने लगा मैं पिटती रही पर हार नहीं मानी। आवेश में झनझनाया शरीर ही नहीं जबान ने भी उस दिन सबको मुंहतोड़ जवाब दिए। लड़ाई-झगड़े में समरकांत जी के मुंह से अचानक विवाह की बात निकल गई. मैं हैरान जरूर हुई पर उनकी बात का कोई विरोध नहीं किया। ’’
ये सुनकर मुझे अपने पिता की कलाई में दांत गड़ा देने वाली गंगा याद आई। सारी बातें जानकर मैंने गंगा का चेहरा गौर से देखा। उस पर मलिनता की एक रेखा नहीं थी। शाम के ढलते सूरज की लालिमा, दूर आसमान में उड़ते पंछियों की उड़ान का बाधारहित भाव और कल उगने वाले सूरज की आस उसकी आँखों में थी। सुख उसके चेहरे पर बिछा था। मैं अपलक उसे देख रही थी। मेरे पास कहने को कुछ शेष नहीं था पर गंगा एक लंबी चुप्पी के बाद फिर बोली-
‘‘ सोनू! अयोध्या की उस रात के बारे में आज सोचती हूं पुजारी बाप के मेरी हत्या के षडयंत्र में ही मेरा पुनर्जन्म लिखा था…पुर्नजन्म नहीं उसे नवजीवन कहना अधिक उचित होगा। जिंदगी के हादसे भी कई बार सही मंजिल का पता बता देते हैं। न उस रात मेरी हत्या की कोशिश होती न मैं बदहवास-सी घर से भागती और न समरकांत जी मेरी जिंदगी का हिस्सा बनते। जिंदगी का वृत्त जैसे अपना चक्र पूरा करके मेरे दुखद अंत की बजाय एक नई शुरुआत की ओर मुड़ गया।’’
मैं साफ महसूस कर रही थी कि गंगा की बातों में अब वजन आ गया था। हो न हो ये समरकांत जी के साथ और शिक्षा का ही नतीजा था। बातों में सलीका, उसकी पोशाक जितना ही व्यवस्थित था और व्यवहार में बारिश की सौंधी मिट्टी की महक थी। आवाज़ पहले सी खुश्क थी पर अंदाज़ बदला हुआ था। देश दुनिया के बारे में उसकी नजर साफ हो चली थी। मुझे वो लड़की याद आई जो पिता से बदला लेने पर उतारु होकर त्रिशूलों से भरा बैग नाले में बहा आई थी। मेरी आंखें देख पा रही थीं समरकांत जी फ्रेंड, फिलॉस्फर, गाइड से कहीं आगे बढ़कर गंगा के जीवन में पुरुष का पुख्ता भरोसा बनकर उतरे थे। साथी के रूप में उस शख्सियत ने गंगा को नए रूप में रच दिया था।
अगले पूरे दिन हम दोनों साथ रहीं बिल्कुल चंद्रनगर वाली लड़कियां बनकर। पलटन बाजार से खरीदारी की। आज फिर गंगा ने मुझे जी भर कर चाट खिलाई। शाम को हम दोनों बाजार घूमते हुए घंटाघर के पास एक चाय के खोखे पर बैठ गए।
‘‘ सोनू! माई की बहुत याद आती है। मेरे कारण मेरी माई…।’’
गंगा का स्वर पहली बार तरल था। पहली बार मेरे पास भी कोई जवाब नहीं था। मैंने धीरे से उसके कंधे को छुआ तो उसने अपना सिर मेरे कंधे पर टिका लिया।
‘‘ उसके बाद तू कभी चंद्रनगर नहीं गई न?’’ सब जानते हुए भी मैंने बात बदली।
‘‘ वहां अब मेरा कौन है? वो कमीना किशन पंडित भी अब सत्तर के फेटे में होगा। क्या मिला जीवन से? पत्नी-बेटी का रिश्ता गया। देखभाल गई। जवानी गई तो ठिकाना गया। सुनने में आया है उसे मंदिर ट्रस्ट ने उसकी करतूतों से आजिज आकर बेइज्जत करके निकाल दिया है। मेरी शादी उसके कलेजे की फांस बनी रही।’’
कहते हुए गंगा का स्वर तरल से ठोस होता गया।
‘‘ तुझे किसने बताया?’’ मैंने पूछा।
‘‘ समरकांत जी ही बता रहे थे…पिता नाम के उस जीव को बड़ा धक्का पहुंचा समरकांत जी के मुझे आसरा देने पर।’’
गंगा की आंखें ज्वाला से जल रही थीं पर होंठों से हंसी फूट रही थी। भले ही यह हंसी बड़ी ही रहस्यमय थी पर इस रहस्य की चाबी मेरे पास थी।
‘‘ गंगा, अब तो तेरा कर्जा पूरा चुक गया न या अभी कुछ बाकी है?’’ मैंने उसकी आंखों के तल में झांका।
‘‘ जब तक जीना, कर्जा चुकाना।’’
उसकी इस निष्कर्षात्मक टिप्पणी से हम दोनों जोर-जोर से हंसने लगे।
मेरे आस्ट्रेलिया चले जाने के बाद गंगा मन में तो रही पर बातों का सिलसिला पहले थमा और कुछ समय बाद खत्म-सा हो चला। एम़.टेक. के बाद पीएच.डी. और फिर नौकरी के बाद वहीं बसने वाले कुणाल से मेरी शादी हो गई। जिंदगी की सड़क पर जीवन बेतहाशा भागता चला गया। अब आठ साल का मेरा बेटा सौरभ हमारे साथ है। जिंदगी के कितने उतार-चढ़ाव मेरी उम्र देख चुकी थी। मैं सुखी थी। आईने में अपना चेहरा देखकर कभी-कभी उसका मिलान देहरादून हॉस्टल के अपने कमरे में देखे गंगा के चेहरे पर बरस रहे सुख से भी करती। हालंकि बीच-बीच में कुछ दिनों की कांफ्रेसेज़ में भारत जाना होता। दो-एक बार भोपाल भी गई। दीवानों की तरह गंगा का पता लगाया पर कुछ हासिल नहीं हुआ। जीवन के कितने पहाड़ों की बर्फ पानी बनकर कहां से कहां तक बह गई कोई हिसाब न रहा। गंगा की याद भी कलैंडर में उसके जन्मदिन की तारीख को सहलाने भर तक सिकुड़ गई। मां अक्सर कहती थी दोस्ती के पिटारे का ढकना हमेशा खुला रहता है। दोस्त आते रहते हैं और चले जाते हैं। एक-दो ही होते हैं जो जनम-जिंदगी साथ देते हैं। वही होते हैं जो खुले पिटारे की तह पकड़ लेते हैं। आज मां की बात सोचती हूं तो लगता है गंगा भी मेरे लिए पिटारे की तह को पकड़े समय के साथ बहती रही है। इन बीते सालों में मुझे बचपन की दोस्त शैली से केवल समरकांत जी के देहांत की सूचना मिली। मेरी हिम्मत नहीं हुई कि गंगा के वैधव्य की खबर लूं। लंबे अर्से बाद जब समरकांत जी के घर का नया नम्बर खोज-खाजकर भोपाल फोन किया तो एक क्रूर आवाज मेरे कानों में टकराई-‘‘यहां कोई गंगा-वंगा नहीं रहती।’’
मेरी और गंगा की उम्र चालीस के करीब जा रही थी। मैं उससे दो साल पीछे पर फिलहाल हम दोनों चालीस से कम थीं। पर कहां होगी गंगा? देहरादून हॉस्टल के बाद इन बीते सत्रह सालों में क्या हुआ होगा उसका?–सारे सवालों के जंगल मेरे आगे खड़े-खड़े सघन होते गए।
‘‘ खुश हो जाओ सोनू! तुम्हारी अगली कांफ्रेस फिर भोपाल में हो रही है।’’
एक दिन कुणाल ने यह सूचना देकर मुझे चौंका दिया। एक ही इंस्टीट्यूट में काम करने वाले हम दोनों की सूचनाएं साझी रहती थीं। कुणाल जानते थे भोपाल मेरे लिए गंगा का शहर है पर गंगा का नया ठिकाना कौनसा है, किसीको नहीं पता था।
‘‘ कोई फायदा नहीं कुणाल। इतने बरस बीत गए। अब गंगा को ढूंढ पाना बेकार है। कोई पता-ठिकाना भी नहीं।’’ मेरी निराशा अपने चरम पर थी।
‘‘ कोई बात नहीं कांफ्रेंस में तो जाना ही है।’’
कुणाल ने कहते हुए कांफ्रेस का औपचारिक पत्र मुझे थमाया।
इस बार भारत लौटी तो लौटना पहले जैसा नहीं था। भोपाल और गंगा की याद दोनों मुझे सामान्य नहीं रहने दे रहे थे। इस साल पुरानी सरकार को हराकर नई सरकार ने सत्ता संभाली थी। विकास के नए-नए नारे हवा में फैले हुए थे। दो दिन की कांफ्रेस के बाद मेरे पास एक दिन का समय बाकी था। फ्लाइट देर रात की थी। सुबह उठकर सोचा समरकांत जी के घर ही चली जाऊं, पर मैं जान रही थी वहां जाकर क्या मिलना है। सुबह से बेचैन मन को ठिकाने पर लाने के लिए कुणाल को फोन किया तो जनाब ने भोपाल के नमकीन-मीठे की फरमाइश कर दी। यहां आने पर कुछ और नहीं तो स्वाद ही मिट्टी से जोड़े रखने की बड़ी वजह रहते हैं। मैं पता लगाकर डी.बी.मॉल की ओर बढ़ गई। पार्किंग में ड्राइवर को जरूरी निर्देश देकर मॉल की तरफ चल दी। देर तक खरीददारी की। एक जगह बैठकर बाफला-बाटी और चूरमा खाया। आते-जाते लोगों को घूर-घूरकर देखती रही पर नाउम्मीदी बढ़ती ही रही। मैं पार्किंग में खड़ी ड्राइवर का इंतजार कर रही थी। वह न जाने कहां गायब था। मेरी खीज बढ़ती जा रही थी। सूरज की तपिश से बचने के लिए मैंने छांव की जगह खोजी। वहां से मैं आते हुए ड्राइवर को साफ देख सकती थी। अचानक पीछे से मेरे शहर का नाम कानों में दाखिल हुआ। उसने मेरा ध्यान अपनी तरफ खींचा-
‘‘ भई! दिल्ली नाम में क्या बुराई है? नई सरकार क्या आई उसके प्रशंसक तो हमारे शहर का नाम बदलने पर आमादा हो गए। दिल्ली को हस्तिनापुर करने से भला क्या विकास हो जाएगा? स्वर्णिम अतीत को लाने से बेहतर है स्वर्णिम भविष्य बनाया जाए। है कि नहीं?’’
‘‘ मैडम जी! दुकान और बच्चियों की आपकी संस्था के कामों से आपकी कितनी धाक जम गई है। आप अगला चुनाव क्यों नहीं लड़ लेतीं? जहां तक दिल्ली के नाम बदलने की बात है शायद इसी में कोई भलाई छिपी हो।’’
महिला की बात के जवाब में एक पुरुष का स्वर मेरे कानों से टकराया। मैंने उसकी ओर देखा, उसकी पोशाक बता रही थी वह मॉल का कोई कर्मचारी था। महिला का पलटवार स्वर फिर कान में पड़ा-
‘‘ क्या खाक भलाई है? वैसे भी सरकारें करम से नहीं भरम से जिंदा रहती हैं। नाम ही बदल दिया तो फिर ये दिलरूबा दिल्ली वाली कहां जाएगी? क्यों प्रभात ठीक कह रही हूं न?’’ उसके बाद महिला और पुरुष की हंसी हवा में घुल गई।
‘दिलरूबा दिल्ली वाली’ इन तीन शब्दों से मेरा समूचा शरीर झनझना गया। दिल की धड़कनें तेजी से बढ़ने लगीं। उस दिलरूबा के खुश्क गले का लठैती स्वर और उसके साथ प्रभात के नाम का समीकरण बिठाते ही मेरी रीढ़ की हड्डी में एक झुरझुरी दौड़ गई। उस हंसी को सुनने के बाद सारी ध्वनियां मेरे लिए मौन हो गईं। मेरे बोलने, सुनने,चलने की सारी क्रियाएं जड़-सी हो गईं। ख़ुशी और उत्तेजना में बड़ी मुश्किल से खुद को संभालते हुए मैंने पलटकर देखा। महिला की पीठ मेरी तरफ थी। पीछे से उसके कटे बाल दिख रहे थे। बेहद सलीके से कटे बाल। चेहरा बिल्कुल दिखाई नहीं दे रहा था। बाहर की जड़ता को भीतर के आवेग से संभालते हुए मैं एक अजब सम्मोहन में खिंचकर उस महिला के एकदम सामने पहुँच गई। उसके चेहरे पर सनग्लासिज़ थे पर खुशी के मारे मेरी आवाज़ गले में कैद हो गई। वो मुझे देखकर हैरानी में चीखती हुई बोली —
‘‘ सोनू है न…अरी! तू ? …तू यहां कैसे? इतने सालों बाद…जरा नहीं बदली।’’
आंखों में खुशी के आंसू लिए पूरी उत्तेजना के साथ गंगा मुझे झकझोरती हुई मुझसे लिपट गई। देर तक हम एक-दूसरे के दिल की धड़कनें गिनते रहे।
‘‘ तो आप हैं गंगा की सोनू? आप दोनों के किस्से तो हमें जबानी याद हैं। ’’
गंगा के साथ खड़े प्रभात ने कहा।
मुझे न कुछ पूछने की जरूरत रह गई न गंगा को बताने की। आंखों ने आंखों से सारा हाल जान लिया। मेरे आगे भरोसे में पगा प्यार अपने धवल रंग में दृढ़ता के साथ खड़ा था। भरोसा, प्रेम का सादा रूपांतरण भले हो पर सबसे मजबूत धागा है। गंगा और प्रभात के बीच यह अदृश्य धागा सबको आसानी से दिखाई दे रहा था।
‘‘ चलो पापा! मैंने अपनी चॉकलेट ले ली है।’’
तभी अचानक एक ग्यारह-बारह साल की प्यारी-सी बच्ची आकर प्रभात से लिपट गई।
‘‘ नमस्ते करो बेटा! ये तुम्हारी सोनू मौसी हैं।’’
उस बच्ची ने पहले मुझे देखा और फिर अपनी मम्मी की आंखों में देखकर अपने पापा के कहे की पुष्टि करवाई। गंगा ने सिर हिलाया। अपनी मां की आंखों की हां पढ़कर बच्ची की आंखों में खुशी तैर गई। पहचान की नदी में संबंधों का पूरा आसमान झलकने लगा। बच्ची मुस्कुराती हुई मेरे नजदीक आई और बोली —
‘‘ नमस्ते मौसी।’’
उसके इन दो शब्दों ने गंगा की खोज से भरी मेरी लंबी थकान को पल भर में छूमंतर कर दिया। मैंने उसे बाहों के घेरे में समेटा तो उसने अपनी नन्हीं हथेलियों से मेरी कमर जकड़ ली। सिर पर प्यार भरा हाथ फेरते हुए मैंने उसका नाम पूछा।
‘‘ मौसी! मेरा नाम टिन्नी है।’’
टिन्नी की बजाय मैं गंगा को ताकने लगी। उसके चेहरे की नीली नसें त्वचा की लालिमा पर उभरी हुई थीं। आंखों की चमक और खिली मुस्कान बता रही थी कि गंगा ने अपने पिता के तमाम कर्जे चुका दिए हैं।
प्रज्ञा
संपर्क: एच- 103, सेकेण्ड फ्लोर, साउथ सिटी 2, सेक्टर 50, गुरुग्राम 122018
मोबाइल – 9811585399
बधाई सुंदर आलेख के लिए
बहुत ही सुन्दर कहानी बहुत बहुत बधाई मैम ❤️
बहुत ही खुबसूरत कहानी , हार्दिक बधाई मैम❤️
बहुत ही बेहतरीन कहानी मैम
बढ़िया कहानी. गंगा का यादगार चरित्र. सशक्त कथानक.
मैम आपको हार्दिक बधाई इस कहानी के लिए।।।
यह कहानी भी अन्य कहानियों की तरह अपने आप मैं बेजोड़ है।और जिस तरह गंगा के द्वारा सामाजिक समस्याओं को दिखाया गया है वह भी बेजोड़ है । जैसे मंदिर मैं बैठे पंडितो की भ्रष्टता को दिखाना हो या धर्म के नाम पर देश में सांप्रदायिकता फैलाना आदि।और गंगा किस तरह अपने पिता के कारनामों की जड़खोदती है बिना किसी भय के और अपनी मां के साथ हो रहे अत्याचारों का भी मुहतोड़ जवाब देती है और अंत मैं अपने पिता के काले कारनामों का कर्ज वह अपनी बेटी का नाम टिन्नी रख कर उतारती है जो की बहुत मानवीय प्रतीत होता हैं साथ ही इस कहानी मैं दोस्ती और प्रेम की जो परिभाषा दी गई है वह भी बहुत खूबसूरत है। साथ ही आपकी यह कहानी भी अन्य कहानियों की तरह हमे समाज की सच्चाई से रूबरू कराती है। आपको ढेर सारी बधाई मैम।
Bahut badhiya padhakar Anand ki Anubhuti ho rahi hai
बहुत ही सुंदर कहानी ,
जड़खोद – बहुत ही बेहतरीन कहानी। सामाजिक ताने बाने को बहुत ही बढ़िया से प्रस्तुत की है प्रज्ञा जी ने जिसमें उन्हें जैसे महारत ही हासिल है। गंगा महत्वपूर्ण पात्र है। उसके मनोभाव को प्रभात बहुत ही बारीकी से समझता है। बहुत बढ़िया। बहुत बहुत बधाई।
कहानी लेखिका प्रज्ञा मैंम द्वारा कहानी जड़खोर का बहुत ही अच्छा प्रस्तुतीकरण किया गया|
बहुत ही शानदार कहानी….
इस कहानी में समाज में प्रचलित सत्ता के तीन रूपों की विकृतियों को सूक्ष्मता के साथ उकेरा गया है – पितृसत्ता , धर्म सत्ता और राज सत्ता….
दक्षिण भारत में प्रचलित ‘देवदासी ‘प्रथा का भी काला रूप समझा जा सकता है।
हरिशंकर परसाई द्वारा लिखित निबंध ‘वैष्णव की फिसलन’ की भाँति धर्म की आड़ में हो रहे आडम्बर भी अंकित हुए हैं ।
गंगा और प्रभात के प्रेम प्रसंग बहुत ही प्रभावी है जो निर्मलता से शुरू होकर भारतीय समाज के खोखलेपन और कालेपन पर को हमारे समक्ष रखता है।
कुल मिलाकर यह कहानी भूत + वर्तमान की समीक्षा करते हुए समाज के समक्ष उसके वास्तविक चित्र को प्रस्तुत कर रही है।
मसाल , प्रेरणा……
बहुत ही सराहनीय, शानदार कहानी लिखी है प्रज्ञा बेटा,खूब लिखो।बधाई।,हमे तुम पर बहुत गर्व है।यह हमारा सोभाग्य है कि हमे इतनी होनहार भांजी मिली। शुभकामनाए ।
Bahut hi sundar kahani.. bahut bahut badhaai ho aapko
बहुत शानदार कहानी, दीदी! धर्म के पाखंड, धर्म की आड़ में किये जाने वाले अनाचार और पितृसत्तात्मक शोषण की जड़ इसी तरह खुदेगी। कैसा मानीखेज़ शीर्षक है।
आपने गंगा के रूप में एक बार फिर एक और दमदार स्त्री चरित्र रच दिया है।
पिता की करतूतों का शुरुआत से व्यक्तिगत स्तर पर सक्रिय और मुखर विरोध करती गंगा अंततः सामाजिक स्तर पर एक रचनात्मक पहल तक पहुँचती है, यह कहानी की बड़ी विशेषता है।
धर्मसत्ता और पितृसत्ता के विरुद्ध एक साधारण स्त्री के प्रतिपक्ष की एक शानदार कहानी के लिए आपको बधाई!
बहुत ही सुंदर कहानी
Bahut hi sundar kahani
बहुत ही अच्छी कहानी
आपको बहुत-बहुत बधाई मैम.
भारतीय सामाजिक व्यवस्था में ‘गंगा’ जैसे पात्र की सहायता से महिलाओं की स्थिति और उनके स्व-सुदृढ़ीकरण की बात इस कहानी से परिलक्षित होती है। ‘समरकांत’ और ‘प्रभात’ जैसे साहसिक व्यक्तित्वों को भी इस कहानी के माध्यम प्रस्तुत किया गया है। ‘जड़खोद’ – एक बेहतरीन कहानी।
प्रज्ञा रोहिणी उन कलाकारों में है जो अपनी धरती से उगते हैं और अपने समय को पढ़ते हैं। प्रस्तुत कहानी भी इसकी बानगी है जहां गंगा के रुप में स्त्री का बदलता बागी चेहरा है तो उस उस स्त्री विरोधी समाज की पड़ताल भी है।
……वो स्टोर के कबाड़ में रखी भगवान की पुरानी मूर्तियों को अभी तक उसी चाव से देख रही थी पर मेरे भीतर कई मूर्तियां ढह चुकी थीं।”
कहानी पढ़ने के बाद गंगा की तरह ही मेरे भीतर से भी कई मूर्तियां ढह चुकी है।
अच्छी कहानी के लिए बहुत बहुत बधाई मैम ☺️
‘दिलरूबा दिल्ली वाली’ इस कहानी का अंत बहुत अच्छा लगा ।
कहानी के लिए आपको बधाई मैम
बेहतरीन कहानी
Bahut hie achii kahani
Bahut hie sundar kahani…. Badhai ho
Bahut hie achii kahani….. badhai ho
”दिल्ली को हस्तिनापुर करने से भला क्या विकास हो जाएगा? स्वर्णिम अतीत को लाने से बेहतर है स्वर्णिम भविष्य बनाया जाए। है कि नहीं?’’
बात तो सही है- अगर स्वर्णिम अतीत के नाम पर नफ़रत का कारोबार फलने-फूलने लगे तो ये आवश्यक हो जाता है कि भविष्य की तरफ निगाह रखी जाए और निगाह भी- चौकस।
आज के समय को बयां करती कहानी, जो बताती है कि ‘शहरों के नाम बदलने से विकास नहीं होता।’
शानदार कहानी
Bahut achii kahani
बहुत ही सुन्दर कहानी बहुत बहुत बधाई
यकीनन गंगा ने सारे कर्ज उतार दिए । बहुत ही खूबसूरत कहानी , जो आज की वर्तमान स्थिति में अपनी प्रासंगिकता को चार चांद लगा रही है ।
कहानी के हर पात्र , वस्तु और भाव को बड़े ही सहजता पूर्वक सवारा गया है। प्रज्ञा मैम को इस सुंदर कहानी के लिए हार्दिक बधाई और धन्यवाद क्योंकि आपके ही माध्यम से हम कुछ नया सीख पाए है , चीजों के प्रति एक नया दृष्टिकोण अपना पाए है ।
और मैं आशा करता हूं की हम सब इस कहानी से कुछ सीखने का प्रयत्न करे , सच्चे ईश्वर को जाने , हर टिन्नी का ध्यान रखे और उसे सशक्त और सुदृढ़ बनाए ।
‘‘ जब तक जीना, कर्जा चुकाना।’’
इन शब्दों में ही सभी कर्ज चुका दिए थे गंगा ने। अंत में अपनी बेटी का नाम टिन्नी रख कर गंगा जो कर्ज चुकाती है वह मार्मिक वर्णन आज के समाज को नई सीख देता है।
यह केवल कहानी नहीं है, दुनिया में आज भी मौजूद कई गंगा, टिन्नी, प्रभात, पंडित और समरकांत जैसे किरदारों का यथार्थ चित्रण है। आज भी समाज में कई लड़कियां विरोध में दबाई जाती हैं, कई टिन्नी जैसी बच्चियां बचपन में ही बचपन खो देती हैं, प्रभात जैसे कई लड़के बिना गलती की सजा पाते हैं, पंडित जैसे कई पाखंडी धर्म का चोला ओढ़ कर अपने जीवन का सर्वनाश स्वयं कर लेते हैं, समरकांत जैसे किरदार आज के समाज में नई और सही सोच को बढ़ावा देते हैं।
संक्षेप में कहा जाए तो कहानी के माध्यम से लेखिका ने समाज के सभी पहलुओं को एक सूत्र में पिरोकर यह भी बताया है, जड़ खोद केवल एक कहानी नहीं समाज की उस विचारधारा को सुधारना है जिसमें आज भी लोग बंधन से मुक्त होकर अपना जीवन व्यतीत कर सकते हैं।
प्रज्ञा मैम का समाज को नई सोच की ओर अग्रसर करने के लिए धन्यवाद एवं शुभकामनाएं।
जड़खोद एक दम बेजोड़ कथा है मैं गांव में थी तो नेट की प्रोब्लेम से बीच में रह गयी थी परन्तु दिमाग व्यस्त था कहानी को गढ़ने में की आगे क्या होगा अब वह 17 की हो गयी अब क्या और घटना बाकी रह गया …इतना कुछ तो उस बालक मन पर चोट कर गया ….कहानी की सफलता ही है कि यदि पाठक पूरी कहानी न पढ़ पाए तो दिमाग इसी उधेड़ बुन में लगा रहेगा…आगे क्या होग ? रोचकता से भरी कहानी पितृ सत्ता , राजसत्ता , और धर्मान्धता पर कटाक्ष करती नजर आयी
आपकी एक और अच्छी और सुघड ,कई विसंगतियो और भावनाओ को उकेरती कहानी। बहुत बहुत बधाई मेम।
बहुत ही सुंदर कहानी मैम। गंगा का किरदार समाज, धर्म और अस्तित्व के बीच संघर्ष करता हुआ अपने जीवन को सही दिशा देकर समाज मे सम्मान का पात्र बनता है। इस सुंदर आलेख के लिए बहुत बहुत बधाई।
कहानी में एक स्त्री द्वारा सामाजिक समस्याओं को दिखाया गया है । कहानी की स्त्री पात्र किशन पंडित की बेटी गंगा अपने पिता के कृत्य को उजागर करती है । उदाहरण के रूप में ‘‘ तो इस पाप की भागी अकेली मैं नहीं हूं। देख रही है न सामने उस आदमी को, मंगल के पैसे बटोरकर मंहगी शराब पिएगा और रात को माई को मारेगा। इस पापी के सामने मैं क्या हूं? भगवान सब जानते हैं।’’निर्भीकता से अपनी माता के साथ हो रहे उत्पीड़न का मुहतोड़ जवाब देने का साहस करती है ‘‘हरामी-कमीने ….हाथ लगा अबकी माई को। हाथ तोड़ दूंगी तेरे।’’अपनी परिस्थितियों से असमय परिपक्व हो जाने वाली गंगा विचलित हो कर समाज की रूढ़ियों को नकारने की हिम्मत करती है ।
इंसानी प्रवृत्ति की सूक्ष्म पड़ताल करती कहानी धर्म, समाज, सत्ता सभी के चरित्रों पर दृष्टिपात करती है साथ ही स्त्री के एक सशक्त स्वरूप को उजागर कर एक अच्छा सन्देश भी देती है. समाज की कलई खोलती है तो वहीँ ये दुनिया केवल बुरे लोगों से नहीं भरी अपितु चंद अच्छे लोगों के दम पर ही चल रही है इसका सन्देश तो देती ही है साथ ही गंगा के माध्यम से मानो यही कहना चाहती है कि इंसान को अपनी लड़ाई स्वयं लड़नी पड़ती है, पहला कदम स्वयं बढ़ाना पड़ता है, जागरूक होना पड़ता है फिर राहें स्वयमेव प्रशस्त हो जाती हैं. एक अच्छी कहानी के लिए हार्दिक बधाई प्रज्ञा जी
Bhoot sunder kahani hai
प्रणाम मैम
आपको नई कहानी के प्रकाशन की बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाऐं। आपकी नई कहानी जड़खोद पढ़ी। कहानी पढ़कर दिनभर की सारी थकान जैसे गायब हो गई हो। आपकी हर कहानी दिल में घर बना लेती हैं। “जड़खोद” कहानी पढ़ते-पढ़ते मन में कई ख़याल घूमे। यूं लगा जैसे कहानी के बहुत से हिस्से कभी न कभी, जाने-अंजाने प्रत्यक्ष देखे/महसूस किए हैं। दोस्ती, प्यार, परिवार और समाज की भूमिकाओं को समझाती है यह कहानी। गंगा और सोनू जैसी दोस्ती किस्मत से ही मिलती है। किशन पंडित जैसे न जाने कितने लोग ऊँचे पद, प्रतिष्ठाओं की आड़ में रहते हैं उनका पर्दाफ़ाश करने के लिए हमें गंगा जैसा होना पड़ेगा। “गंगा” यह नाम अब जब भी सुनाई देगा तो हमेशा यह जड़खोद गंगा याद आएगी।
“गंगा” अपने जीवन की सारी तकलीफ़ों, सभी चुनौतियों को ऐसे रौंदती हुई आगे बढ़ती है जैसे रौद्र रूपिणी नदी जो आक्रामक हो जाए तो किसी को भी नहीं बक्शती। “माई” और “समरकांत” वो भूमि हैं जिन्होंने कभी शांत तो कभी आतंक मचाती इस गंगा को अंतिम छोर “प्रभात” तक पहुँचाने के लिए खुद को स्वेच्छा से कटने दिया। और इस उफ़नती और शांत गंगा के हर शोर को सुनने के लिए “सोनू” जैसा किनारा हर दफ़ा मौजूद रहा।
आपकी अगली कहानी का इंतज़ार रहेगा।
प्रणाम।
बहुत बढ़िया आलेख है मैम,, बहुत बहुत बधाई मैम
प्रणाम मैम,
अस्पताल के बिस्तर पर लेटे लेटे आपकी कहानी का लिंक खोला और फिर मेरा बिस्तर नाव बन गया .. कोशिश के बावजूद आखों का बांध टूट गया जब गंगा की बिटिया का नाम टिन्नी पढ़ा। ये कहानी जैसा की इसका नाम है आज के समाज की जड़ खोदती है। गंगा अपने नाम के अनुरूप अपने उम्र के हिसाब से बढ़ती उफनती.. बारिश की गंगा बन पंडित के पाप की जमीन दरकाती , धार्मिक उन्मादियों के हथियार बहाती, रूढ़ियों के बांध तोड़ती बाढ़ लिए नजर आती है तो कभी ठहराव लिए जीवन को आत्मसात करती । गंगा को वेग देने में उसकी मां उसकी भागीरथी नजर आती है जो चुपचाप सामान्य भारतीय नारी की तरह बिना किसी तवज्जो के है जुल्म सहती रही यहां तक की गंगा को बचाने में जान भी देना पड़ा। मर्यादा की पुडिया में लपेटी हुई भारतीय नारी जिसने हर दम आदर्श और सस्कार को अपने दम पर बचाए रखने की भरसक कोशिश की। पंडित के लिए जी लिखना उचित नहीं । गूंगे बधीर भगवान का रंग रोगन कर चंद मंत्रों के सहारे शुद्ध होने की स्वघोषणा करने वाला ये पंडित हर करतूत करता है जो धर्म की दहलीज पर वर्जित है। गंगा डरती नहीं बल्कि बाप ही क्यों न कुकृत्य करे उसे उजागर करती है। धार्मिक उन्माद के इस वर्तमान दौर में जहां आस्था एक चोटिल विषय है वहां इस तरह की कहानी लोगों के बीच कहना एक सामाजिक दायित्व है जिसे आप पूरा करती हैं। मुझे हमेशा इस बात की खुशी रहेगी की आप जैसे गुरु जनों का में शिष्य रहा जो धारा में बहने को आसान नहीं मुश्किल करते रहे और गंगा सरीखे पात्रों के जरिए धारा मोड़ने के लिए प्रयासरत रहे।
प्रज्ञा जी आदाब ( जी तो चाहता कि अस्सालामो अलैकुम कहूँ मगर डरता हूँ कि ना जाने आप क्या सोचें ) ” जड़ खोद ” आप की तमाम कहानियों की तरह लाजवाब कहानी है कूज़े में दरिया समाया हुआ है, हमेशा की तरह नये नये जुमलों से सजी कहानी हिन्दुस्तान के इतिहास का हिस्सा बन गई है,” गंगा की याद भी कलैंडर में उसके जन्म दिन की तारीख़ को सहलाने भर तक सिकुड़ के रह गई थी ।” यहाँ आप ने एहसास लिखा नहीं दिखाया है,कमाल का फ़न , मुबारकबाद क़ुबूल कीजिये ।
बहुत ही सुंदर कहानी और बहुत ही सुंदर प्रस्तुतीकरण….सुनने के साथ साथ कहानी दिख भी रही थी…बधाई हो मैम आपको आपको
Mam I enjoyed the whole story specially the bond between two and the hug from tinni at which time I ultimately have goosebumps
मैंम आपको बहुत बहुत बधाई इस कहानी के लिए ……….कहानी बहुत खूबसूरत हैं ……. कहानी मे एक अलग ही उत्साह और प्रेरणा है
Bhot hi pyaari kahaani. Mjhe bhot accha laga padhke. Congratulations Aunty! Bhot accha likhte ho aap ♥️♥️
Dinesh Yadav
कहानी की कथावस्तु अपने आप में बेजोड़ है| इस कहानी के संवाद में कमाल का कसाव और व्यंग है मसलन ” ‘‘ करमजली! औंधी खोपड़ी की लड़की, कोई सऊर ,न कोई ढंग। जड़खोद कहीं की। जाने कहां से पैदा हो गई हमारे घर? कुलच्छनी। इमरजंसी में पैदा हुई और आफत बनकर हमारे सर चढ़ गई। इसका नाम गंगा नहीं इंदिरा रखना चाहिए था।’’ इसी तरह ” ‘‘ क्या खाक भलाई है? वैसे भी सरकारें करम से नहीं भरम से जिंदा रहती हैं। नाम ही बदल दिया तो फिर ये दिलरूबा दिल्ली वाली कहां जाएगी? क्यों प्रभात ठीक कह रही हूं न?’’ साथ ही मैकू की कर्मशीलता देखते ही बनती है
डॉ.दिनेश कुमार
प्रवक्ता
जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान सोनभद्र
कहानी पढ़ा और भाव विभोर हो गया हूँ। बहुत बहुत बधाई मैम इस सुंदर कहानी के लिए।
कहानी- जड़खोद
#कथाकार प्रज्ञा
साहित्य का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए ‘ *प्रेमचंद* ‘ लिखते हैं-
*” साहित्य उसी रचना को कहेंगे जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो,उसकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित एवं सुंदर हो और जिसमें दिल एवं दिमाग पर असर डालने का गुण हो। “*
*जड़खोद* कहानी पढ़ते हुए हम बिल्कुल ऐसा ही अनुभव करते हैं क्योंकि अपने शीर्षक के अनुरूप ही यह कहानी वर्तमान समाज में व्याप्त धर्मांधता, धार्मिक कट्टरता, वर्ण व्यवस्था ,पुरूष सत्ता तथा राजनीतिक सत्ता की सच्चाई की जड़ खोदती नजर आती है, जिसमें कई बेहद जरूरी सवालात के साथ लेखिका के गहरे अनुभव का मार्मिक चित्रण मिलता है।
कहानी का आरंभ *गंगा*, *सोनू* और *सीमा* के बचपन की कई यादों के साथ पाठक के बचपन की स्मृतियों को तरोताजा कर देता है।
*” पीछे बैठकर हर वाहन से आगे होने का सुख निराला था जिसे आगे बैठी लड़कियां भला क्या जान पाती।”*
हमारे समाज में स्त्रियों का स्त्रियों के ही पक्ष में खड़ा होना स्वाभाविक नहीं है, अक्सर स्त्रियाँ ही स्त्रियों के खिलाफ प्रतिबंधों का बाँध बनाती नजर आती है हालाँकि इसमें पुरूष सत्ता का बहुत बड़ा हाथ होता है। परन्तु इस कहानी में दृश्य बिल्कुल उलट है- गंगा अपने पिता के हैवानियत से बखूबी परिचित है और अपनी माँ के साथ हुई अत्याचारों एवं उसके साथ हुए दुर्व्यवहारों का वह जड़ खोदती नजर आती हैं। पुत्र को न जन्म दे पाने के कारण माँ तो लांछना सहती ही है परंतु अगर पुत्र के जगह पुत्री ने जन्म ले लिया तो वह जन्म उस पुत्री के लिए अभिशाप बन जाता है। उसके साथ दुर्व्यवहार,गालियां ,ताने-बाने का ताँता लगा रहता है जो गंगा जैसी बिटिया के लिये श्राप है।
“……..करमजली! औंधी खोपड़ी की लड़की, कोई सऊर, न कोई ढंग। जड़खोद कहीं की। जाने कहां से पैदा हो गई हमारे घर? कुलच्छनी।…..”
जिस प्रकार एक माँ अपने बच्चों के लिए प्रत्येक क्षण ममता,दुलार एवं सुरक्षा की गारंटी होती है, उसी भांति माँ पर कोई संकट आने पर बच्चों का यह कर्तव्य होता है कि वह अपनी जान की परवाह किये बिना उन्हें उस संकट से निजात दिलाएं। इस कहानी में गंगा ने भी अपने दायित्व को निभाने में कोई कसर न रहने दी। गंगा अपने पिता के बढ़ते अत्याचारों के खिलाफ रणचंडी बनकर उन पर हावी होती दिखाई पड़ती है।
*”हरामी-कमीने….. हाथ लगा अबकी माई को हाथ तोड़ दूंगी तेरे। “*
गंगा मानो पुरूष सत्ता को चुनौती दे रही हो कि स्त्रियों की तुलना में स्वंय को शारिरिक तौर पर मजबूत समझने की घमंड छोड़ दें।
अयोग्यता के धब्बे संस्था को किस प्रकार गर्त में ले जाती है उसका सटीक उदाहरण किशन पंडित है। श्रद्धा और आस्था की लौ से जगमगाने वाला मंदिर का पुजारी कौन हो? उनकी क्या योग्यता हो? यह सब धरीं की धरीं रह जाती है क्योंकि पुजारी तो पंडित का बेटा ही बनेगा आखिर पंडिताई जो उन्हें विरासत में मिली है। चाहे वह किशन पंडित की तरह कितना ही बेहया और नालायक क्यों न हों। किशन पंडित भी उसी सूची में है जिसमें कई बलात्कारी एवं अय्यास ढोंगी बाबा हैं जिन्होंने न जाने कितने ही *टिन्नी* का जीवन बर्बाद किया होगा। साथ ही अग्रवाल जैसे मंदिर के कई अन्य ट्रस्टी होंगे जिन्होंने कितनी ही *गंगा* की विरोध को मरजाद की चादर में लपेट कर बहा दिया होगा।
*” मरजाद में रह लड़की। बड़ों का आदर सम्मान कर। लड़की होकर इतने ऊँचे बोल? जिसने जनम दिया, जिंदा रखा उसकी इज्जत उतार रही है। गंगा जैसा पवित्र नाम और कितना खल आचरण। “*
कहानी गंगा, सोनू के बचपन से आगे बढ़ते हुए किशोरावस्था में प्रवेश करती है। संकेत भर से पता चलता है कि ये बच्चियाँ आपातकाल के दौर में पैदा हुई थी और घटनाएं बाबरी विध्वंस तक पहुंचती है। कोई भी घटना जब घटती है तो वह एक चेन रिएक्शन को जन्म देती है जिसका प्रभाव अनंत समय तक रहता है और आज भी बाबरी जैसी कई ऐसे मुद्दे ख़बर में है जिनका जनता से कोई सरोकार नहीं क्योंकि –
*” राम के नाम में इस त्रिशूल का क्या काम? “*
अतः इस त्रिशूल भरी गढरी को फेंक देना ही उचित कार्य है।
जैसे-जैसे बच्चों की उम्र बढ़ती है वैसे-वैसे माता-पिता की कोशिश रहनी चाहिए कि बच्चों के निजी मामलों में हस्तक्षेप कम करें परंतु आधुनिक दौर के कई लेखक अपनी कोशिशों के बावजूद भी यह प्रयास करने में सफल नहीं हुए। वास्तविकता यह है कि हमारा समाज यह समझने के लिए तैयार ही नहीं हैं। बड़े-बुजुर्गों को विवाह जैसे नितांत निजी मामले में अड़ंगा लगाने की आदत है कई जगह तो वे इससे भी आगे बढ़कर ऑनर किलिंग जैसे जघन्य अपराध को अंजाम दे बैठते हैं। हाल ही में बिहार के अररिया में छोटू की हत्या (आरती एवं छोटू के प्रेम संबंध में) ऑनर किलिंग का जीता-जागता उदाहरण है। कहानी में पिता एवं चाचा द्वारा गंगा की हत्या का षडयंत्र भी महापाप है।
कई बार ऐसा महसूस होता है कि यह कहानी पुरानी और नयी पीढ़ी की नयी सोंच के बीच वैचारिकी लड़ाई में नयी पीढ़ी के साथ खड़ी है। संभव है नयी पीढ़ी कम समझदार हो परन्तु प्रेम कर प्रेम निभा जाना इन्हें अच्छे से आता है। पीढ़ियाँ बदलेगी , समझदार होंगी परंतु सत्ता का चरित्र नहीं बदलने वाला है क्योंकि सत्ता के चरित्र को बदलने के बजाय अधिक वक़्त इसमें जाया किया जा रहा है कि किस शहर को कौन-सा नाम दे दिया जाए।
“भई! दिल्ली नाम में क्या बुराई है? नई सरकार क्या आई उसके प्रशंसक तो हमारे शहर का नाम बदलने पर आमादा हो गए। दिल्ली को हस्तिनापुर करने से भला क्या विकास हो जाएगा? स्वर्णिम अतीत को लाने से बेहतर है स्वर्णिम भविष्य बनाया जाए। है कि नहीं? ”
इस प्रकार बहुत बड़े परिदृश्य को समेटे हुए कई सवालों की तहें विछाती हुई यह कहानी सुखद अंत तक जाती है जो प्रेमचंद के आदर्श से काफी भिन्न है।
बहुत ही अच्छी कहानी
आपको बहुत-बहुत बधाई मैम
बेहतरीन कहानी