कथा संवेद

कथा संवेद -2

 

इस कहानी को आप कथाकार की आवाज में सुन भी सकते हैं-

 

तात्कालिक घटनाओं की पृष्ठभूमि में कहानी बुनना जितना आसान होता है, उस बुनी हुई  कहानी को सचमुच की एक अच्छी कहानी में बदल पाना उतना ही मुश्किल काम है। ‘कहानी’ को ‘कहानी’ बनानेवाली उस युक्ति का कोई पूर्वनिर्धारित फार्मूला नहीं होता। बहुत सहज-से  दिखनेवाले घटनाक्रम के भीतर विन्यस्त संवेदना की एक छोटी-सी कौंध, तो कभी दो व्यक्तियों के बीच आकार ग्रहण कर रहे आमफहम संवादों की टकराहट से उपजी एक लगभग नामालूम-सी चिंगारी रोशनी का एक ऐसा कतरा पैदा कर जाती है, जो अपने समय और परिवेश में व्याप्त अंधेरे का मानीखेज प्रतिपक्ष बनने की ताकत रखता है। कोरोना की विभीषिका के बीच परस्पर अविश्वास और आशंकाओं के उग आए जंगलों में साँस लेता एक युगल तरुण भटनागर की कहानी ‘रात की बारहखड़ी’ में, जिस सहजता से दाम्पत्य और सामाजिकता के भूगोल से गुम हो रही संवेदनाओं की ऊष्मा को पुनराविष्कृत करता है, वही यहाँ एक रोचक कहानी के रूप में मौजूद है। कौतूहल के पारम्परिक कथा-उपकरण का अत्यन्त ही सहज और प्रभावी इस्तेमाल जहाँ इस कहानी में कहानीपन के ठाट को जिंदा रखता है, वहीं छोटे-छोटे वाक्यों का प्रवाहमय सौंदर्य इसकी ग्राह्यता को सकारात्मक  गति प्रदान करता है। विखण्डन के विरुद्ध संरचना और आशंका के विरुद्ध सहानुभूति की इबारत उकरेती यह कहानी सादगी के सौन्दर्य का एक उत्कृष्ट नमूना है।

राकेश बिहारी

rakesh bihari

 

 रात की बारहखड़ी

 

  • तरुण भटनागर

 

अजीब वक्त था। कोरोना महामारी का प्रकोप चारों ओर था। तालाबन्दी हुए पूरे पैंतीस दिन हो चले थे। सडकें सूनी थीं। बाजार मुर्दा। कहीं कोई न दीखता था। घनश्याम घर की छत से दूर तक देखता था। शहर के जो इलाके रात दिन गुलजार रहते थे वहाँ सन्नाटा पसरा दीखता था। दीखते सन्नाटे में जाने क्या तो घनश्याम देखता रहता था।

घनश्याम की हाल ही में शादी हुई है। उसका दो कमरों का मकान है। पत्नी का नाम सुमन है। सुमन बेहद सुघड है। मकान के इन दो कमरों को वह खूब सजा सँवार कर रखती है। हर चीज को इस तरह से झाड-पोंछकर रखती है मानो उस चीज पर उसका दिल आ गया हो। अपने ही मकान की, अपनी ही छोटी-छोटी चीजों पर वह रीझ जाती है। फिर उन चीजों को कपडे से साफ करती है। ब्रश से चमकाती है। तरतीब से जमाती है। फिर उन्हे देख मन ही मन खुश होती है। कोरोना के वक्त में दोनों मकान में ही हैं। कोई औलाद नहीं है। इसलिए सिर्फ वे दोनों हैं। उनका ज्यादातर वक्त एक दूसरे के साथ बीतता है। बातें करते। टी.वी. देखते। मोहब्बत करते। पर जैसे फिर भी कुछ है कि जी खुश नहीं। जैसे कोई बेहद अजीज चीज हिरा जाये। कोई गम हो किसी पहाड सा और वह अचानक टूट पड़ा हो। एक अजीब सी दुश्वारी पीछा करती रहती है। एक किस्म की गैर यकीनी की छाया हमेशा पड़ी रहती है। बेवक्त की खामोशी से एक किस्म की बेएतबारी की बू आती है। कहीं दिल नहीं लगता।

इसी बीच एक वाकया हो गया। एक अनहोनी।

स्केच : अनुप्रिया

दो कमरे के उस छोटे से मकान में सादा सा उनका बेडरूम था। सादे बेडरूम से कोई फर्क न पडता था। सुमन बहुत सलीके से बेडरूम को सजा सँवार कर रखती थी। वैसे भी कमरे की खूबसूरती का इस बात से कोई मतलब न था कि उसमें कम सामान है या ज्यादा। इस तरह कम सामान होने पर भी उनका वह बेडरूम खूबसूरत दीखता था। घनश्याम के पास पैसों की किल्लत थी। सो किसी मंहगे डबल बेड की जगह वह लोहे के दो पलंग ले आया था। पलंग थोडे ऊँचे थे। वाकये की शुरुआत इसी पलंग के नीचे से हुई थी। एक रात सोते वक्त सुमन को लगा मानो पलंग के नीचे कोई है। रात के दो बज रहे थे। बाहर पानी गिर रहा था। बिजली गुल थी। उमस और गर्मी से परेशान होकर घनश्याम ने मकान का दरवाजा खोल दिया था। सुमन को पहले तो लगा कि वहम है। भला पलंग के नीचे कौन हो सकता है। जरुर कोई बुरा सपना होगा। बुरा सपना जिसमें पलंग के नीचे कोई हो, कोई चोर, कोई कातिल। पर अगले ही पल उसे लगा मानो कोई पलंग के नीचे रेंग रहा है। बारिश के शोर के बावजूद पलंग के नीचे उसके रेंगने की सरसराहट की एक दो बार आयी थी। फिर उसने गौर से सुना तो किसी की साँसों की आवाज भी उसी सुनाई दी थी। उसने पास सोते घनश्याम को झकझोरा और उससे फुसफुसाते हुए कहा – ‘बिस्तर के नीचे कोई है।’ घनश्याम की नींद टूट गयी। वह सुमन पर झुँझला पड़ा – ‘सोने दो। तुम्हें तो रात दिन वहम होते रहते हैं।’ फिर करवट बदल कर सोने लगा। लाइट जाने पर घनश्याम ने एक मोमबत्ती जलायी थी। जो न जाने कब हवा के झोंके से बुझ गयी थी। चारों ओर घुप्प अँधेरा था। बस रह-रह कर बिजली चमकती थी। तभी पलंग के नीचे जो आदमी था उसकी पीठ पलंग से टकरायी। पलंग की जिस जगह उसकी पीठ पलंग से टकरायी उसके ऊपर सुमन लेटी थी। सुमन घबराकर उठ बैठी। उसने घनश्याम को जोर से झिंझोड़ते हुए कहा – ‘तुमसे मैं कितनी बार कह रही हूँ कि पलंग के नीचे कोई है। जागो कोई है यहाँ। पलंग के नीचे।’ हड़बड़ा कर जागे घनश्याम ने आसपास टटोल कर टॉर्च उठा ली। फिर बिस्तर से अपनी गर्दन लटका कर टॉर्च की रौशनी पलंग के नीचे डाली। उसे रौशनी में किसी आदमी के पैर दीखे। आदमी का मुँह दूसरी तरफ था। पल भर को घनश्याम को काटो तो खून नहीं। उसने चीखते हुए कहा – ‘कौन है बे।’ पर तब तक वह आदमी तेजी से बिस्तर के नीचे से निकला और मकान के खुले दरवाजे से भाग गया। घनश्याम उसके पीछे-पीछे दौडा। मकान के बाहर तक टॉर्च की रौशनी फेंकी। बाहर गिरता पानी तेज हो गया था। छत से गिरता परनाला जोर की आवाज कर रहा था। मोबाईल की टॉर्च जलाये सुमन भी उसके पीछे-पीछे चली आयी थी।

‘ चोर। चोर। चोर।’ -सुमन जोर से चीखी। फिर मकान के बाहर तक आकर उस तरफ को देखकर जिस तरफ वह आदमी भागा था जोर से एक दो बार चिल्लाई -‘चोर। चोर। चोर।’ हल्ला सुनकर पड़ोसी जाग गया। उसने अँधेरे में ही खिडकी से झाँकते हुए पूछा – ‘क्या हुआ भाभी?’ ‘ अरे चोर था। चोर। भाग गया।’ – सुमन ने अपनी काँपती और घबराई आवाज में कहा। अँधेरे में खिडकी से झाँकतेपड़ोसी ने खिडकी से ही कहा – ‘दरवाजा बन्द कर लें। आपके मकान का दरवाजा खुला था।’ ऐसा कह कर पड़ोसी ने अँधेरे में अपने मकान की खिडकी बन्द कर ली। फिर अँधेरे में ही उसने अपना मोबाइल टटोला। उसे स्क्रॉल कर पुलिस स्टेशन का नम्बर देखा। पुलिस स्टेशन को फोन लगा दिया।

लौट कर घनश्याम और सुमन ने अपने घर की पड़ताल की। राम जाने चोर क्या-क्या न ले गया हो? लाईट आ गयी थी। घनश्याम की पहली नजर अलमारी पर पड़ी। अलमारी से अलमारी की चाबी लटक रही थी। दोनों ने पूरी अलमारी खंगाल डाली। उसका हर खाना, हर ड्रौअर और लॉकर भी। गनीमत थी कि हर चीज महफूज थी। कुछ भी गायब न था। अलमारी से लटकती चाबी को देखकर घनश्याम को सुमन पर गुस्सा आ गया – ‘कितनी बार कहा है कि अलमारी में इस तरह चाबी लटकती मत छोड़ा करो। ताला लगाकर चाबी बिस्तर के गद्दे के नीचे रख लो। पर तुम्हें कोई बात समझ में आए तब न।’

‘ और तुमने जो यह मकान का दरवाजा खुला छोड़ रखा है उसका क्या? इसी दरवाजे से न वह चोर घुस आया। पूरा दरवाजा खोलकर खुर्राटे ले रहे हो और मुझे पाठ पढा रहे हो।’- सुमन ने तल्ख़ शब्दों में प्रतिवाद किया।

दोनों पल भर को एक दूसरे से ख़फा हो गये। फिर थोड़ी देर बाद खुद से घर की दूसरी चीजों की पड़ताल करने लगे। पता नहीं चोर क्या चीज न ले गया हो? उनकी नयी गृहस्थि है। घनश्याम की आमदनी भी कोई खास नहीं है। पता नहीं क्या हुआ हो? टेबिल पर रखी हर चीज सही सलामत थी। घनश्याम दास का मोबाईल, सुमन का पर्स जो शाम को घनश्याम दास को पैसे देने के लिए उसने अलमारी से निकाला था और उसकी सोने की चेन जिसे सोने से पहले वह उतार कर टेबिल पर रख देती थी। हर चीज अपनी जगह थी। महफूज। सही सलामत। जहाँ की तहाँ। किसी ने छुआ भी न हो जैसे। सोने की चेन देखकर घनश्याम फिर बिफर उठा – ‘कितनी लापवाह हो तुम। कोई सोने की चेन इस तरह रखता है।’ उसकी बात पर सुमन भी पिनक उठी – ‘मुझे लापरवाह कहते हो। तुम देखो। दो मोबाइल गुमा चुके हो। सारा जमा खर्च नये मोबाईल की खरीद में चला गया। तुम्हारी लापरवाही से। और मुझे लापरवाह कहते हो।’

‘ कोई बात तो तुम्हें समझ आती नहीं है। कभी ऐसे ही कोई आएगा और तुम्हारी सोने की चेन उठा ले जाएगा। तब तुम्हें पता चलेगा। सीधी बात तो तुम्हारे पल्ले पड़ती नहीं है।’- घनश्याम दास ने फिर से कहा।

‘ लेजाएगा तो ले जाएगा। यह चेन मुझे मेरे घर वालों ने दी थी। तुम्हारे जैसे लापरवाह के साथ भी यह सब हो ही जाना है एक दिन। जो मकान का दरवाजा खोलकर, घोड़े बेचकर सो जाता है।’ – सुमन ने फिर प्रतिवाद किया।

थोड़ी देर बाद दोनों फिर चुप हो गये। चुपचाप घर की तमाम चीजें देखते रहे, उलटते पुलटते रहे। हो सकता है कुछ चोरी हो गया हो। पर हर चीज अपनी जगह थी। मुकम्मल तौर पर महफूज। लगता था चोर ने किसी भी चीज को छुआ तक नहीं था। सुमन किचन में आ गयी थी। उसने किचन की लाईट जलायी। उसे किचन में जो दीखा उसे देखकर पहले-पहल उसे अपनी आँखों पर यकीन न हुआ। पर जो था सब सामने था। रोटी का डब्बा खुला पड़ा था। खाने के बाद की बची दाल को उसने एक कटोरी में ढँक कर रख दिया था। वह कटोरी प्लेटफॉर्म  पर उलटी पड़ी थी। प्लेटफॉर्म  पर जगह-जगह रोटी के टुकड़े पडे थे। लगता था किसी ने हड़बड़ी में रोटी खायी थी। जल्दीबाजी में बेतरतीबी से। दाल में डुबो-डुबो कर। फुर्ती से। दाल की कटोरी उलटी पड़ी थी। प्लेटफॉर्म  के कोने पर। मानो खाने की हड़बड़ी में उलट गयी हो। और फिर लुढक कर प्लेटफॉर्म  के कोने तक चली गयी हो। बची हुई दाल उल्टी कटोरी में से निकल कर प्लेटफॉर्म  पर बिखर गयी थी। लम्बी धार में दाल का पीला घोल किचन के प्लेटफॉर्म  पर जमा हुआ था। रात का जो दूध बचा था वह उसने जाली से ढँक-कर इसी प्लेटफॉर्म  पर रख छोड़ा था। वह उस छटांक भर बचे दूध को भी पी गया था। लगता था गंज से उसने सीधे अपने मुँह में दूध उडेंल लिया था जिससे वह दूध इधर-उधर भी बिखर गया था। मानो वह एक ही साँस में सारा दूध पी जाना चाहता रहा हो। इसी हड़बड़ी में कुछ दूध बिखर गया हो। फिर उसे याद आया कि शाम को घनश्याम ने किराना वाली गाडी से ब्रेड का पैकेट खरीदा था। आजकल  किराना वाली गाडी आती है। बाजार बन्द हैं। दुकानों में ताले पडे हैं। मकान के बाहर भी कहीं जा नहीं सकते। जगह-जगह पुलिस का पहरा है। ऐसे में यह किराना वाली गाडी बड़ा सहारा है। वह रोज मोहल्ले आती है। बिना नागा। वे दोनों जरुरत का सामान इसी किराने वाली गाडी से ले लेते हैं। शाम को जो ब्रेड का पैकेट घनश्याम ने खरीदा था सुमन ने उसे किचन के प्लेटफॉर्म  पर रख छोड़ा था। ब्रेड का वह पैकेट गायब था। घर की पूरी पड़ताल के बाद यह साफ हो गया था कि ब्रेड के उस पैकेट के अलावा कोई और चीज मकान से गायब न थी।

दोनों कमरे में चुपचाप बैठे थे। नींद न आती थी। सुबह होने में अभी देर थी। बाहर फिर से बूँदा-बाँदी शुरु हो गयी थी। लाईट फिर से चली गयी थी। घनश्याम ने फिर से मोमबत्ती जला दी थी। मकान का दरवाजा फिर से खोल दिया था। रह-रहकर बिजली चमकती थी। घनश्याम दरवाजे के बाहर देखता था। दरवाजे के बाहर अँधेरा था। टपकते पानी की टिपर-टिपर थी, कोरोना की मनहूस चुप्पी को तोडती। एक सुकून था कि कुछ भी चोरी न गया था। पर कुछ भी चोरी न होना भी सुकून न देता था। कोरोना की खामोशी में ब्रेड के पैकेट का गायब होना दोनों को चुप करा रहा था। घनश्याम को बाहर देखता देखते हुए सुमन ने ही चुप्पी को तोड़ा था -‘ हम पुलिस में चोरी की कम्पलेण्ट न करेंगे। ब्रेड के पैकेट के चोरी की क्या कम्पलेण्ट करना। वह भी तालाबन्दी के ऐसे समय में।’ घनश्याम ने उसकी बात का कोई जवाब न दिया। वह अँधेरे के पार होती बारिश को सुनता रहा। बूँदों की टिपर-टिपर में सुनने जैसा कुछ नहीं था, परवह सुन रहा था। खामोशी से कोई आवाज न आती थी परवह चुप था। ‘कोरोना के ऐसे भयावह समय में ब्रेड के पैकेट की चोरी की कम्पलेण्ट करना कितना तो गलत होगा। है न। देखो वह मेरी सोने की चेन तो नहीं ले गया न। पर्स भी था ही। अलमारी भी खुली ही थी। वह कुछ भी तो नहीं ले गया। हम पुलिस में कम्पलेण्ट नहीं करेंगे।’

‘ तुमसे एक बात कहनी है सुमन।’

‘ क्या?’ – सुमन ने पूछा। अँधेरे में घनश्याम का चेहरा ठीक से दिखायी न पडता था पर सुमन उसके चेहरे को लगातार देखती थी। वह अँधेरे के मार्फत आती घनश्याम की बात के मायनों को बूझना चाहती थी। उसकी आवाज की टोन। उसकी आवाज की आवाज।

‘ तुम बहुत नेक हो सुमन। मैंने अपनी जिन्दगी में तुम्हारी जैसी ही किसी औरत को चाहा था। लगता है मैं तुमसे फालतू ही झगड़ता हूँ। जो अपना होता है उसे ही मेरे जैसे लोग टेकेन फॉर ग्रान्टेड ले लेते हैं। मानो दुनिया के तमाम चुभते शब्द सिर्फ तुम्हारे लिये बने हों और मैं उन्हें तुम पर तुम्हें अपमानित करने को फेंकता रहूँ। गलती मेरी ही थी। मैंने ही दरवाजा खुला छोड़ दिया था। मैं ही तो गलत था।’ – पुलिस में कम्पलेण्ट न करने वाली बात पर वह सुमन से अपनी गलती और प्यार दोनों का इजहार करना चाहता था।

‘ न ऐसा नहीं है घनश्याम। दरवाजा खुला छोड़ना गलती न थी। ऐसे वक्त में जब सारी दुनिया बन्द है कितने ऐसे मकान हैं जिनके आदमी अपने मकान का दरवाजा खुला छोड़ देते हों। जिसके रास्ते आकर कोई चुरा ले जा सके ब्रेड का पैकेट। तुम्हें नहीं पता तुम कितने तो अच्छे हो घनश्याम। कितने प्यारे।’ – अँधेरे में सुमन की आँखों में घनश्याम के लिए मोहब्बत का बहुत जाना पहचाना सा रंग उतर आया था। अँधेरे में उदास दिल पर इश्क की कोई रंगत थी। जैसे सिन्दूरी शाम उतरती है। जैसे कोई आवारा बादल ढँक देता है रात के अकेले चाँद को। दुनिया के तमाम ग़म जब साझा हुए तो जो चीज बनी उसे लोगों ने इश्क नाम दिया।

तभी घनश्याम का मोबाईल बज उठा। दूसरी तरफ इलाके का दरोगा था। दरअसल हुआ यह था कि पड़ोसी ने रात को ही थाने में फोन कर बता दिया था कि मोहल्ले में कोई चोर घुस आया है। घनश्याम की बीबी सुमन चिल्ला-चिल्ला कर कह रही थी – ‘चोर। चोर। चोर।’ मामला गम्भीर है। कुछ भी हो सकता है।

‘ क्या हुआ था?’ – दरोगा ने मोबाईल पर घनश्याम से कडक आवाज में पूछा।

‘ कु…कुछ नहीं। कुछ भी तो नहीं।’ -झिझकते हुए घनश्याम ने कहा था।

‘ अभी तो थोड़ी देर पहले तेरी बीबी जोर-जोर से चिल्ला रही थी – चोर, चोर,चोर। वह भी रात के दो बजे। अब क्या हो गया?’ – थानेदार के लहजे में धमक थी।

‘ वह बात नहीं है सर। बस उसे कुछ गलतफहमी हो गयी थी।’

‘ गलतफहमी। रात के दो बजे। रात के दो बजे गलतफहमी। तुम लोग कोई नशा पत्ता करते हो क्या बे….।’ – दरोगा की बातों में तल्खी थी। घनश्याम आगे कुछ कह पाता उसके पहले दरोगा ने फोन काट दिया। थोड़ी देर बाद सुमन ने पूछा – ‘ कैसा दीखता था वह?’ दरअसल दरोगा की बात सुनकर घनश्याम थोडा डर गया था। सुमन उसका ध्यान किसी और बात की तरफ लगाना चाहती थी।

‘ कौन?’

‘ वही जो ब्रेड का पैकेट ले गया। तुमने तो उसे देखा भी था। बिस्तर के नीचे टॉर्च की रौशनी में।’

‘ मुझे सिर्फ उसके पैर दीखे थे। उसका मुँह दूसरी तरफ था।’

‘ ओह।’

‘ उसके पैर मिट्टी में सने थे। उसके पैरों में मोटी-मोटी बिवाइयाँ थीं। पैर की खाल पर जगह-जगह छाले थे। मवाद और खून से भरे छाले। उसके एक पैर का छाला फूट गया था। उसकी खाल गायब थी। भीतर का माँस और खून दीखता था। खून और मवाद की लकीरें मिट्टी से सने उसके पैरों की खाल पर बहती थीं। फटी बिवाइयों के बीच समाता जाता था खून और मवाद….मैंने उसके पैर को देखा था सुमन……सिर्फ पैर।’

घनश्याम के जेहन में उसके दीखे पैर और मोबाइल और टी.वी. पर दीखे ऐसे ही एक पैर का मंजर एक साथ गुजरते गये। जो पैर उसे दीखा और जिस मजलूम और मुफलिस मजदूर का वह पैर उसने मोबाईल और टी.वी. पर देखा था दोनों में कोई फर्क न रह गया हो जैसे।

घनश्याम एकदम से चुप हो गया। कुछ दिनों से ऐसे लोग हर जगह दीखते हैं। टी.वी. पर वे रोज दीखते हैं। मुफलिस। तंग दस्त। परेशान। चुपचाप चलते जाते। सड़कों पर। खेतों के रास्ते। जंगलों के रास्ते। सारी रात। सारा दिन। सुमन को एक चेहरा दीखता है। गुस्साया और आँसुओं से भरा। काँपते हाथों वाला चेहरा – ‘शहर में मरने से बेहतर है हम अपने गाँव में अपने मकान में मरे। हम अगर मरेंगे तो अपने गाँव में ही। इस अनजान शहर में नहीं।’ कभी लगा ही नहीं था टी.वी. पर दीखते उन लोगों में से कोई एक उनके मकान में होगा। उनके बिस्तर के नीचे।

लाइट फिर से आ गयी थी। दोनों चुपचाप बैठे थे। काठ की तरह। सुमन कमरे के फर्श को देखने लगी। लाईट की रौशनी में फर्श पर उसके पैरों के निशान दीखते थे। उसी आदमी के पैरों के निशान जो पलंग के नीचे था। पैरों में लिपटी बारिश में भीगी मिट्टी की छाप से बने उसके पैरों के निशान। उसने गौर से उसके पैरों के निशानों को देखा। बाहर के दरवाजे से वे किचन तक जाते थे। एकदम सीधे। एक के पीछे एक बने पैरों के निशान। किचन के प्लेटफॉर्म  के नीचे उसके पैरों के निशान बडी संख्या में थे। बहुत सारे। फिर वे किचन से लौटते थे। उनके पलंग के नीचे तक। उसके बाद पलंग के नीचे से बाहर के दरवाजे तक।

‘ पुलिस के आने से पहले इन पैरों के निशानों को मिटा दो घनश्याम। ये अभी गीले हैं। मिट जाएँगे। मैंने किचन साफ कर दिया है। दाल की कटोरी धो दी है। नीचे गिरी रोटी फेंक दी है। प्लेटफॉर्म  साफ कर दिया है। ’ – सुमन ने कहा।

पौ फटने से पहले पुलिस के दो लोग आये थे। दरोगा और दूसरा एक और पुलिस वाला। दरोगा की मोटरसाईकिल की आवाज सुनकर पड़ोसी जाग गया था। वही पड़ोसी जिसने पुलिस को चोरी की इत्तला दी थी। घर की खिडकी से झाँकता वह सबकुछ देखता सुनता था। दरोगा के वही सवाल थे। सुमन और घनश्याम के वही जवाब थे।

‘ क्या हुआ था? तुम इतनी जोर से क्यों चीखी थी – चोर, चोर, चोर?’

‘ दरोगा जी गलतफहमी हो गयी थी।’ – सुमन ने दरोगा की आँखों में आँखें डालकर कहा। दरोगा को उसकी बात चुभ गयी।

‘ गलतफहमी?’ उसने घनश्याम और सुमन को देखते हुए कहा। फिर दुबारा कहा। अबकी बार उसकी आवाज में धमक थी – ‘गलतफहमी?’ दरोगा की आँखों में शक था। उसके हाव भाव देखकर ऐसा लगता था कि उसे सन्देह है। उसके चेहरे की खाल के नीचे शक का कोई दरिया था। आँखों की जुम्बिश में बेऐतबारी के बल थे। सन्देह की तमाम लकीरें उसके चेहरे की नक्काशी को गढती थीं। अगर शक न करे, सन्देह न करे तो फिर क्या करे दरोगा। शक करना उसका पेशा है। यकीन ही कर ले तो काहे बात की तफ्तीश और काहे बात की दरोगाई। अभी दो रोज पहले ही पास के अनाज के गोडाउन में चोरी हुई थी। अनाज गोडाउन का चैकीदार भी यही कहता था। हू-ब हू यही – ‘कोई चोरी नहीं हुई है साहेब। गलतफहमी हो गयी थी।’ दरोगा ने पहले तो उससे कहा कि वह सीधे-सच्चे सच बात बता दे। वरना सच तो वह पता कर ली लेगा। दरोगा को मालूम है कि सच इंसान की जबान पर नहीं होता है। इंसान की जबान इतनी फिसलन भरी है। इतनी लटपटी है कि उस पर सच टिक ही नहीं सकता। सच इंसान के दिमाग में भी नहीं होता है। इंसान के दिमाग में जरायम होता है, बदनियती का समन्दर होता है, ख्वाबों की इमारतें होती हैं और भी पता नहीं क्या-क्या गन्दा-गन्दा सब इंसान के दिमाग में होता है। इसलिए इंसान के दिमाग में सच नहीं हो सकता। ऐसी गन्दगी में सच रह ही नहीं सकता। सच तो इंसान की गर्दन के बीचों बीच होता है। टेंटुऐ के बस जरा सा नीचे। जहाँ स्वर ग्रंथी होती है। जहाँ से आवाज आती है। वहीं सच भी होता है। पर कभी-कभी तमाम मुश्किलों के बाद भी सच बाहर नहीं आता है। तब बडी मेहनत करनी पड़ती है। जैसे कि अनाज के गोडाउन से चोरी के मामले में दरोगा को करनी पड़ी थी। दरोगा ने पहले तो गोडाउन के सारे अनाज के बोरे गिनवाये। फिर अनाज के गोडाउन के बही में दर्ज बोरों की संख्या का टोटल करवाया। फिर दोनों नंबरों को मिलाया। बही में अनाज के दो बोरे ज्यादा ज्यादा थे। याने गोडाउन में अनाज के दो बोरे कम थे। इस तरह साबित हुआ कि दो बोरों की चोरी हुई थी। साबित हुआ कि चैकीदार झूठ बोल रहा था।

आजकल बाजार बन्द हैं। चारों ओर सन्नाटा है। कोरोना का प्रकोप है। कोरोना की वजह से कोई मकान से बाहर नहीं आता है। यह वक्त चोरों के लिए सबसे सही वक्त है। सबसे बड़ा अपराधी वह है जो चोरी सरीखे जघन्य अपराध को छिपाता है। उससे भी बड़ा अपराधी वह है जो चोरी के अपराध में शामिल है। सारा मुल्क एक है। हर कोई कोरोना की जंग में शामिल है। ऐसे वक्त में हर किसी को पुलिस का साथ देना चाहिए। ऐसे में भी अनाज के गोडाउन के चैकीदार सरीखे दगाबाज लोग हैं। जो चोरों का साथ दे रहे हैं। दरोगा का फण्डा एकदम क्लियर है।

दरोगा घनश्याम और सुमन के मकान के भीतर दाखिल हो गया। फिर उसने हर चीज को गौर से देखा। उसने अलमारी से लटकती चाबी को देखा। टेबिल पर रखी सोने की चेन को देखा। घनश्याम से बहस के बाद सुमन जिद्दिया गयी थी। उसने न तो अलमारी की चाबी निकाली और न ही सोने की चेन को उठाकर रखा। फिर दरोगा ने भीतर के कमरे को देखा। फिर किचन को। जमीन पर जो रोटी गिर गयी थी सुमन ने उसे पेपर में लपेट कर प्लेटफॉर्म  के कोने में रख दिया था। उसने सारा प्लेटफॉर्म  साफ कर दिया था। दूध की गंज, दाल की कटोरी और रोटी का डब्बा धोकर पोंछकर रख दिया था। दरोगा की नजर कागज में लिपटी रोटी की तरफ गयी – यह क्या है?- उसने पूछा।  ‘ घनश्याम का शनि भारी है दरोगा जी। बहुत पहले पण्डित जी ने बताया था कि शनिवार को काले कुत्ते को रोटी खिलाना। रोज बिना नागा। कल शनिवार है। सो एक रोटी ज्यादा बना ली थी। वही है।’ सुमन ने तपाक से जवाब दिया। वह जानती है कि घनश्याम ठीक से जवाब न दे पायेगा। सो उसने सोचा कि दरोगा की बातों का वह ही जवाब देगी। दरोगा की हर बात का। शनि के कारण रोटी का ज्यादा होना सही बहाना है। धर्म से जुडी बात हो तो फिर लोग ज्यादा प्रश्न नहीं करते। ऐसा उसे लगता है। दरोगा ने उसके बाद फिर और कुछ न पूछा। इससे सुमन में और हिम्मत आ गयी। उसने तय कर लिया कि जवाब तो वह ही देगी।

दरोगा ने कमरे के फर्श को गौर से देखा। अगर कोई आया होगा तो उसके निशान जरुर होंगे। बाहर कच्ची जमीन है। बारिश में भीगती। गीली मटैली जमीन जो पैरों, चप्पलों और जूतों में लिपट जाती है। सुमन चुपचाप उसे फर्श का मुआयना करता देखती रही। बिस्तर के नीचे झाँक कर देखते हुए दरोगा ने साथ आये पुलिसवाले को इस तरह कहा मानो उसे कोई बात सिखा रहा हो – ‘ऐसी जगह चोर छिप जाया करते हैं। देखो यह पलंग कितना ऊँचा है। कोई भी आसानी से इसके नीचे छिप सकता है। मकान में घुसने के बाद चोर किसी ऐसी जगह की तलाश करता है जहाँ वह महफूज तरीके से थोड़ी देर छिपा रह सके। ताकि अपने काम को वह धीरे-धीरे अंजाम दे पाए।’ उसकी यह बात सुनकर सुमन को लगा कि यह दरोगा चोरों के बारे में कितना कम जानता है। लगता है इसे चोरों के बारे में ठीक-ठीक नहीं मालूम। जरुरी नहीं है कि चोर का पलंग के नीचे छिपना इस वजह से हो कि वह इत्मिनान से अपने काम को अंजाम देना चाहता है। यह बात सच नहीं लगती। यह तो पुलिस है। इसे तो चोरों के बारे में सही-सही पता होना चाहिए। पर देखो। यह दरोगा कैसी बात करता है। वह चुपचाप दरोगा को और उसके साथ आए पुलिसवाले को देखती रही। किसी को यह पता न चलना था कि हाथ में ब्रेड का पैकेट पकड़े वह जब खुले दरवाजे की ओर बढा तब जोर की बारिश हो रही थी। तेज पानी को महसूस कर वह पल भर को ठिठका था कि तभी घनश्याम ने खुर्राटा लेते हुए करवट बदली थी। डरकर, हड़बड़ाया हुआ, वह धीरे से पलंग के नीचे सरक आया था।

बिस्तर के नीचे का मुआयना करने के बाद बाहर आते दरोगा ने सुमन से वही बात फिर से पूछी जो थोड़ी देर पहले उसने मोबाईल पर घनश्याम से पूछी थी – आप इतनी जोर से चोर, चोर, चोर…..कह कर क्यों चिल्लायी थीं।

‘ हुआ ये था दरोगा जी कि रात को तीन चार बार लाईट चली गयी थी। उमस और गर्मी के मारे घनश्याम ने घर का दरवाजा खोल दिया था। मैं सो रही थी। जाने कब इसने दरवाजा खोल दिया। फिर इसे नींद न आयी। यह जागता रहा। गर्मी से बेहाल होकर थोड़ी हवा खाने दरवाजे के बाहर तक चला गया। फिर जब यह दरवाजे से भीतर आ रहा था तब मेरी नींद खुली। चारों ओर अँधेरा था। जो मोमबत्ती जली थी वह हवा के झोंके से बुझ गयी थी। आँख खुलते ही क्या देखती हूँ कि दरवाजा खुला है। बाहर की हल्की रौशनी से दरवाजे का खुला होना पता चलता था। फिर देखती क्या हूँ कि दरवाजे पर कोई है। दरवाजे पर उसकी छाया दीखती है। खुले दरवाजे से वह छाया धीरे-धीरे मकान के भीतर आ रही है। डर के मारे पहले तो मेरी घिग्घी बंध गयी। फिर मैं जोर से चिल्ला पड़ी – चोर,चोर, चोर। मुझे क्या पता था कि ये चोर नहीं ये तो घनश्याम है।’

‘ वही। वही दरोगा जी। वही गलतफहमी।’ – घनश्याम ने बात को और साफ करते हुए कहा।

लौटते हुए दरोगा ने टेबिल पर रखी सोने की चेन को फिर से देखा। सुमन ने देखा था कि उसने चेन को देखा था। उड़ती नजर से। मोटरसाईकिल स्टार्ट करते हुए दरोगा ने कहा था – ‘खामखाँ इतना वक्त जाया कर दिया।’ उसके लौटने के बाद सुमन ने घनश्याम से कहा – ‘हमसे ही क्यों की जाती है पूछताछ? हम से ही क्यों पूछा जाता है बार-बार कि क्या हुआ था? वह भी ऐसे वक्त में। तालाबन्दी के ऐसे वक्त में। क्या सारी दुनिया में एक यह ही वाकया रह गया है जिसकी हकीकत जानना इतना जरुरी है। हमसे ही…। हमीं से …..’ कहते कहते सुमन का गला भर आया था। उसे दरोगा की धमक भरी बात सुनाई देती थी। उसे उसका भावहीन चेहरा दीखता था। घनश्याम ने उसे अपनी बाहों में भर लिया था।

फर्श पर बने पैर के आखरी निशान को मॉप से मिटाते हुए घनश्याम ने खुद ही खुद से कहा था – ‘हमें माफ करना भाई। हम तुम्हें चोर समझने की भूल कर बैठे थे।’ दरोगा को इन सब बातों का कभी पता न चलना था।

तरुण भटनागर

गणित की सूक्ष्मता और इतिहास की विराटता के रचनात्मक संतुलन के बीच किस्सागोई की सहजता का प्रांजल निर्वाह करने वाले तरुण भटनागर की पहली कहानी छायाएँ जुलाई 2003 में  प्रकाशित उत्तर प्रदेश के सम्भावना विशेषांक में साया हुई थी। 24 सितम्बर को रायपुर छतीसगढ़ में जन्मे तरुण के तीन कहानी-संग्रह ‘गुलमेंहदी की झाड़ियाँ’, ‘भूगोल के दरवाजे पर’ और ‘जंगल में दर्पण’ तथा तीन उपन्यास ‘लौटती नहीं जो हंसी’, ‘राजा जंगल और चाँद’ तथा ‘बेदावा’ प्रकाशित हो चुके हैं।

सम्पर्क-  tarun.bhatnagar1996@gmail.com

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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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