कथा-संवेद –1
‘नशामुक्ति’ और ‘शराबबंदी’ ऊपर से एक जैसे अर्थ ध्वनित करने के बावजूद अपनी भिन्न सामाजिक-राजनैतिक निर्मितियों के कारण अलग-अलग अर्थ-छवियों की रचना करते हैं। भारतीय परिप्रेक्ष्य में इसका एक सिरा जहां हृदय परिवर्तन और आध्यात्मिक-राजनैतिक चेतना के गांधीवादी विचारों से जुड़ता है, तो दूसरा सिरा गुजरात और बिहार जैसे राज्यों में शराब पर लागू वैधानिक प्रतिबंध से। ‘उस कानून के देस में’ का वस्तुगत स्वरूप इन्हीं दो छोरों के बीच अपना रूपाकार ग्रहण करता है। कहानी बहुत बारीकी से इन दोनों ध्रुवों के बीच बनते-बिगड़ते उन गुणसूत्रों की भी समीक्षा करती चलती है, जो मानवीय सम्बन्धों की सहजता में संवेदनहीनता और अविश्वास के जहरीले रसायन घोलते हैं।
कानून तोड़ने का खतरा उठाकर भी अंकित द्वारा असीम सरकार के आहत मन पर सहानुभूति और संवेदना के नरम फाहे रखना परस्पर भरोसे और विश्वास के उन बुनियादी मूल्यों को पुनः अर्जित करने और सहेजने का रचनात्मक उद्यम है, जिनके टूटने-बिखरने का अहसास आजकल लगातार सघन होता जा रहा है। बिना किसी अतिरिक्त लेखकीय कौशल का अहसास कराये, स्वाभाविक संवादों के जरिये कहानी में यह सब जिस अनायासपन के साथ घटित होता है, वह इधर की कहानियों में वस्तु और संरचना की नैसर्गिक समरसता और सादगी की कलात्मकता का श्रेष्ठ उदाहरण है।
राकेश बिहारी
उस कानून के देस में
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संतोष दीक्षित
रोज की तरह ट्रेन खचाखच भरी हुई थी। एक दूसरे पर लदे, रगड़ खाते सफर करते मुसाफिरों के बीच दैनिक यात्री अपनी जगह बना ही लेते हैं! अपनी तीक्ष्ण निगाहें और रोजाना के अनुभव के भरोसे आगे बढ़ता अंकित एक मुकाम पर ठिठक गया। उसे फॉलो करता शशांक भी उसी के पास आकर रूक गया। यह डिब्बा एक चेयर कार था। तीन जनों के लिए बनी यह सीट, संख्या बल के लिहाज़ से भरी हुई थी। खिड़की के तरफ के दो लोग दिखने में एक ही तरह के थे।
पैंट, शर्ट और काले जूतों में सजे भद्र लोग। इनके मोटे भारी बैग सीट के नीचे से बाहर निकले साफ़ दिख रहे थे। इनदोनों के बगल में अपनी खाली टोकरी को सीट के नीचे छुपाए एक दुबली पतली, मैली कुचैली सी वृद्धा पैर मोड़े बैठी हुई थी। अंकित इसे ही लक्ष्य कर रूक गया था। उसने शशांक से फुसफुसाते हुए कहा-‘‘खाली टोकरी लेकर यह बुढ़िया पटना तो जाने से रही! इस पर हम दोनों एडजस्ट कर लेंगे।
‘‘कहंवा जाए के हे माता राम?’’-शशांक ने आवाज़ को भरसक भारी बनाते हुए पूछा। वह बाढ़ का ही रहने वाला था, सो स्थानीयता से परिचित था।
‘‘अगलके टीसन बउआऽ…!’’
‘‘बख्तियारपुर…?’’
‘‘हांऽ…ओहिजे…ओहिजे…!’’
यह सुनते ही अंकित ने अपना हैंडबैग वृद्धा के पीठ पीछे के खाली स्थान पर जमा दिया। अब दोनों दोस्त निश्चिंत थे। दोनों के चेहरे पर सफलता की एक क्षीण मुस्कुराहट पसर गयी थी।
‘‘बस दस मिनट और!’’-अंकित ने कलाई घड़ी की ओर देखते हुए कहा।
‘‘जरा उधर तो देखो;’’-शशांक ने खिड़की से सटे बैठे यात्री की ओर देखने को आंख से इशारा किया। अंकित की नज़र फ़ौरन घूम गई। वह यात्री काफ़ी बेचैन लग रहा था। जैसे एक उन्माद की अवस्था में हो। रह रहकर वह खड़ा होने की क़ोशिश करता। ‘‘जंजीर खीचबो…जंजीर…’’जैसा कुछ बड़बड़ाते हुए वह उठ खड़ा होना चाहता। लेकिन उसके बगल में बैठा साथी उसकी पैंट खींच उसे जबरन यथा स्थान बिठा देता।
‘‘भूल जाइए दादाऽ…प्लीज…गाड़ी बहुत दूर आ चुकी है! और वह तो गिरते ही भांगिये (टूट) गया होगा।’’
‘‘कैसे भूल जाएं पंकज…भूलते पारि नऽ…! पन्द्रह हजार का था…पन्द्रह हजार टाका…बूझचो! अभी पिछला महीना ही खरीदा था। क्या मुंह दिखाएगा तुमरा भाभी को?…उफऽ…!…अमाके नंबर टा मिलिये दिन’’
‘‘हम बोल दिये थे उनको…उसी समय…!’’
‘‘क्या बोला?’’
‘‘यही कि दादा का फोन खराब हो गया है। आप मेरे नंबर से बात कीजियेगा!’’
‘‘क्या बोला वह?’’
‘‘बोला कि स्वस्थ हैं न वह। घर कब तक आयेगा?’’
‘‘ओहऽ…घर जाकर कैसे बतायेगा उसको…उफ रे बाप…!’’
कहने वाले ने कलपते हुए कहा और बैग से बिस्लरी की बोतल निकाल, दो लंबी घूंट भर लिया। बोतल का पानी रंगीन था। सुनहला। शराब का एक तेज भभका सा उठा और आसपास फैल गया।
उसके ठीक सामने बैठे यात्री ने कहा-‘‘आधा घंटा हो गया ड्रामा करते! अब शांति से बैठो वरना पिटा जाओगे तुमलोग।’’
एक और यात्री ने बगल में बैठे उसके साथी को इंगित करते हुए कहा-‘‘रोकिये भाई इसको…फेंक दीजिए इसकी बोतल। अभी तो पन्द्रह हजार के लिए रो रहा है…पुलिस के चक्कर में पड़ गया तो लाखों गंवाने होंगे।’’
इसी क्रम में थोड़ी दूर बैठे एक झबरीली मूछों वाले, धोती कुरता धारी सज्जन ने लगभग आदेशात्मक स्वर में कहा-‘‘देख क्या रहे हैं आप लोग…छीन कर फेंकिये इसकी बोतल! बाहली लोग है…मालूम नहीं कि शराबबंदी है इधर। बहुते कड़ा कानून है…बेल भी नहीं मिलेगा, जान लो। सीधे जेल जाना होगा!’’
पंकज नामक उस दयनीय से दिखते युवक ने एक बार पुनः फरियाद की-‘‘फेंक दीजिए दादाऽ…शराबबंदी है इधर! इट्स अॅ क्राइम हियर।’’
‘‘दुर स्साला…बंदी…!…शराबबंदी, नोटबंदी, घूसबंदी, जमाबंदी…क्या फायदा होता बंदी से?…सब बकवास! सारा कानून बकवास!!’’ उसने फिर से बोतल निकाली और फुर्ती से दो घूंट भरकर बोतल पुनः बैग के अंदर रख दिया। अब तक बख्तियारपुर आ चुका था। एक सिपाही खिड़की पर डंडा मारता, बेशर्मी से अंदर झांकता, प्लेटफॉर्म पर घूम रहा था। इस खिड़की तक आने के ठीक पहले सामने बैठे यात्री ने उसका मुंह दूसरी ओर घुमाते हुए कहा-‘‘इधर देखो इधर…अपने दोस्त से बतियाओ! कहीं जो गंध मिल गयी इसे तो यहीं उतार लेगा। फिर भुगतते रहना दोनों!’’
सिपाही के जाते ही पंकज ने सामने वाले यात्री के पैरों पर झुकते हुए कहा-‘‘धन्यवाद दादा…बहोत बहोत धन्यवाद…! दरअसल मेरा यह दादा आज बहोत दुःखी है। आसनसोल में ही दिल टूट गया इसका। इसी दुःख में इतना पी लिया कि मोबाइल बाथरूम में गिरा दिया। वह फिसलकर शौचालय के रास्ते पटरी पर चला गया। यह अलग दारूण दुःख इसको। वैसे आदमी बहोत भला है। बहोत गुणी…हुनरमंद मानुष! हमारी कंपनी का फोरमैन है और मैं हूं इसका सहायक।
‘‘पंकज तुमि बोलो…हम क्या मुंह दिखायेगा तुम्हारी भाभी को! जब वह पूछेगा तो क्या बोलेगा…बोलो?’’-लगभग रोने की स्थिति में उस फोरमैन ने पुनः बैग से बोतल निकाली और इस बार बची खुची संपूर्ण मात्रा हलक के नीचे उतार दी। गट गट…गटा गटऽ…! पंकज ने उसके हाथ से बोतल लेकर बाहर फेंकते हुए कहा-‘‘ठीक है, हो गया न! अब शांति से सो जाइए।’’
लेकिन उस फोरमैन की रूह को चैन कहां? उसने बैग से चनाचूर का पैकेट निकाला। उसमें दो मुट्ठी से ज्यादा की मात्रा नहीं थी। उसने एक मुट्ठी भर निकाल पंकज को दिया और खुद भी चबा चबाकर खाने लगा। इस वक़्त वह बहुत ही भोला और निर्दोष दिख रहा था।
‘‘शराबबंदी का कानून बहुत ही वाहियात है, एकदम फालतू!’’ सामने बैठे एक व्यक्ति ने टिप्पणी की।
‘‘इससे भी बुरा है दादा रोजगारबंदी! खासकर हम नौजवानों के लिए। हमलोग शिक्षा ग्रहण कर रोजगार के लिए भटक रहे हैं, सरकार केवल संविदा और तदर्थ बहालियों से काम चला रही है।’’
‘‘मेरा बेटा तो एक दिन भी बेरोजगार नहीं रहा। कैम्पस सेलेक्शन हो गया उसका। डिग्री मिलने के पहले ही नौकरी पक्की। निजीकरण का जमाना है अब, सरकार कितना को नौकरी देगी?’’
अंकित को यह बात चुभ गई। शशांक ने हौले से कंधा दबाते हुए उसे शांत रहने को कहा। बहस के थोड़ा आगे बढ़ने पर, अपनी बात रखनी जरूरी समझते हुए, शशांक कहने लगा-‘‘मेरा यह दोस्त अंग्रेजी का टॉपर है। एक बार में ही ‘नेट’ निकाल लिया है इसने। अब कॉलेज में नियुक्ति के इंतजार में है, जबकि वहां सैंकड़ों सीटें खाली पड़ी हैं फिर भी नियुक्ति नहीं हो रही! यही है उच्च शिक्षा का हाल। हर कोई डॉक्टर, इंजीनियर तो नहीं बनना चाहता! न केवल इनके सहारे ही देश चल सकता है? मेरे इस दोस्त को पढ़ाने से प्यार है। अभी यह बाढ़ में, मेरे कोचिंग में, हफ्ते में तीन दिन आकर बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाता है। तब जाकर किसी तरह अपना पेट भर पा रहा है।’’
शशांक के इतना बोलने ने अंकित के लिए मरहम का काम किया। वैसे भी वह इतना संवेदनशील है कि अपने विषय में तो कहीं कुछ बोल ही नहीं पाता।
इसी दौरान वह फोरमैन फिर से खड़ा हो गया। वह पानी की बोतल बेचने वाले एक वेंडर को आवाज देने लगा था। थोड़ा चैन पाते ही हल्की झपकी का आनन्द लेता पंकज उसके शोर मचाने से अचानक चैंककर उठ खड़ा हुआ। फोरमैन पानी की बोतल लेकर अपनी टाइट जींस की पॉकेट से पर्स निकालने की क़ोशिश कर रहा था।
‘‘आप छोड़िए न…बैठिए…! मैं देता हूं पैसे।’’ पंकज ने फोरमैन को जबरन सीट पर बिठा दिया। बैठते ही वह झट फिर से खड़ा हो गया और चीखने लगा-‘‘चिनिया बादाम…चिनिया बादाम…ओ खोकाऽ…इधर…इधर…!’’
मूंगफली के भुने दाने के पैकेट बेचने वाला वह लड़का आवाज़ सुन फ़ौरन ही इधर आ गया।
‘‘दो पैकेट, बड़ा वाला…!’’ आदेश पंकज को ही देना पड़ा। पैसा भी उसी ने दिया। फौरमैन आंख मूंदे कुछ बड़बड़ाने लगा था।’’
‘‘कहां से आ रहे हैं आप लोग?-अंकित ने पंकज से पूछा। उसे अब इनदोनों में रूचि जग गई थी। विशेषकर फोरमैन की गतिविधि देखकर।’’
‘‘हमलोग बंगाल से आता…बोले तो आसनसोल से!’’ पंकज से पहले जवाब फोरमैन ने दिया। ‘‘आसनसोल का लोग बहोत खराब…वेरी डर्टी!’’ बड़बड़ाकर उसने पुनः आंखें बंद कर ली। वह एक अजीब तंद्रा की स्थिति में था। पूरी तरह से नशे के गिरफ्त में।’’
‘‘दरअसल हमलोग लखनऊ से हैं और एक कंपनी में बॉयलर मैकेनिक हैं;’’-पंकज आराम से बताने लगा- ‘‘आप असीम सरकार हैं हमारे फोरमैन!’’
‘‘तो इधर कैसे आ गये?’’
‘‘हम बताता है…हम!’’-अचानक से ऊंघता हुआ असीम सरकार चैतन्य होकर बैठते हुए बोला-‘‘कंपनी हमारा आफ्टर सेल सर्विस भी देता। सो इसी काम से आया था आसनसोल। एक खराब हो गया ब्यॉलर बनाने। आठ दिन लग गये इसमें। भीषण खराबी थी। गैस निकलने वाला पाइप सब भी जाम हो गया था। इस भीषण गर्मी में दिन रात खटता रहा। आज सुबह दस बजे काम खत्म हुआ। एक दिन वहां रूकना चाहता था, शहर देखना चाहता था। दस वर्षों के बाद इधर आया था…बंगाल। हमारा मातृभूमि! हमारा ग्रैंड फादर यहीं से जाकर बसा था बनारस में। वकील था। पिता हमारा रेलवे में था। लखनऊ में। और अब हम भी वहीं। सो इतने वर्षों बाद आया बंगाल। सारे कर्मचारी भी वहां बंगाली।
इसीलिए तो खूब मन लगाकर काम किया। बॉयलर एकदम से दुरूस्त कर दिया। लेकिन काम खत्म करते ही उनलोगों ने फटाफट टिकट कटा इस ट्रेन में बिठा दिया। बोला कि तुरंत पटना चले जाओ। वहीं से लखनऊ का ट्रेन मिल जायेगा। एकदम से जानवर माफिक गरदनिया देकर पिंड छुड़ाया हमसे। समस्तो रिश्ता केवल व्यापारिक! एक दिन भी जास्ती रूकने नहीं दिया। घर के वास्ते ‘संदेश’ भी लेने नहीं सका। यही एक अद्धा लेने सका स्टेशन के पास से। यह भी अब खत्म होने को है!’’
उसने बैग से निकालकर अद्धा दिखलाया। उसमें मुश्किल से सौ एमएल शराब बची होगी।
अद्धा पर नज़र पड़ते ही आसपास के यात्री चिल्लाने लगे-‘‘फेंक दे अभी…फ़ौरन फेंक दे रे बोका बंगाली…धरइबे तो पता चलतो बेटाऽ…!’’
‘‘दाराऽ…दाराऽ…बस दो मिनट! अभी फिनिश किये देता हूं;’’-कहते हुए उसने पानी के बोतल का थोड़ा पानी फ़ौरन खिड़की के बाहर गिरा दिया और शराब उसमें डाल, अद्धे को खिड़की के बाहर उछाल दिया।
‘‘लीजिए, झमेला खत्म! ऐसे ही चटाक से बोला था मेरा मोबाइल भी। आवाज सुना था हम। शीशा चटकने का आवाज। लेकिन इससे भी बड़ा घात…मेरा दिल जो तोड़ा उनलोगों ने? किसी ने कोई आवाज नहीं सुना! ये स्लाला रिश्ता सब व्योपारिक। हम तो व्यवसायी नहीं। हम तो मिस्त्री आदमी। मिस्त्री भी नहीं फोरमैन। देह से खटने वाला। त्रीस हजार टका दरमाहा है पता…त्रीस हजार। क्या मुंह दिखाएगा अपना नॉन बंगाली बीबी को? कितना प्यार करता वह हमसे! पैसा, टाका बचाकर यह मोबाइल खरीद लाया। हमारे वास्ते, अपने फोरमैन के वास्ते। क्या कथा बतायेगा? वो थोड़े ना समझ पायेगा कि दिल नहीं टूटता तो मोबाइल भी नहीं भांगता। सब उनलोगों की वजह से…!’’
असीम सरकार नामक वह फोरमैन अचानक फूट फूटकर रोने लगा। रोता जाता और बोतल से घूंट घूंट पीता जाता।
‘‘अबे ओ बोका बंगाली…फेंक बोतल! फेंक नहीं तो आज जाकर रहेगा अंदर। पुलिस के एक डंडा में ही सारा नशा हिरण हो जायेगा इसका! तब से नाटक किये जा रहा है स्लाला बंगलियाऽ…!’’
भीड़ अचानक से आक्रामक सी हो उठी थी। लोग अपनी जगह से उठकर चिल्लाने लगे थे। एक सरकारी बाबू से दिखते अधेड़ ने धमकी दी-‘‘सरकारी लोगों के सामने गैर कानूनी काम कर रहा है रे मादर…अभी फोन करता हूं पुलिस को!’’
स्थिति को भांप पंकज कंपकंपाने लगा था। तभी अंकित ने फोरमैन के हाथ की बोतल छीनते हुए उसे खिड़की के बाहर फेंक दिया और भीड़ को शांत रहने का इशारा किया।
उस फोरमैन ने कोई प्रतिरोध नहीं किया। अपने हिस्से का पेय फेंक दिए जाने के कारण वह काफी कुपित होकर अस्पष्ट सा कुछ बड़बड़ा रहा था। फिर चुपचाप आंखें मूंद, सीट के पीछे माथा टिका, पड़ रहा। थोड़ी देर में उसकी नाक भी बहने लगी थी। गाड़ी फतुहा से खुल चुकी थी।
अंकित को पटना साहेब उतरना था। शशांक को आगे पटना जंक्शन जाना था। आज उसके ममेरे भाई का जन्मदिन था, इसी में शरीक होने वह बाढ़ से आया था। सुबह की पहली गाड़ी से ही उसे लौटना था ताकि अपना कोचिंग समय पर खुलवा सके।
अंकित ने शशांक से फुसफुसाते हुए देर तक बातें की। सहमति में उसकी गर्दन डोलते ही उनदोनों ने पंकज को एक प्रस्ताव दिया। पंकज बहुत ही असमंजस में था।
‘‘यकीन कर सकते हो मुझपर! तुम्हारे भले के लिए ही कह रहा हूं। पटना जंक्शन पर यह निश्चित रूप से पकड़ा जायेगा। तुम्हारे संभाले, संभलने वाला नहीं तुम्हारा यह फोरमैन!’’
‘‘दादा जगिए…स्टेशन आ गया…उतरना है!’’
‘‘कौन जेल भेजेगा हमको…देखता हूं कौन है माई का लाल…? दारू पीने से भला कोई जेल जायेगा! यह कहां का कानून है…किसने बनाया यह कानून…?’’
जगते ही वह फोरमैन बड़बड़ाने लगा था। वह कांप भी रहा था और उससे ठीक से खड़ा भी हुआ नहीं जा रहा था।
शशांक और अंकित ने सहारा देकर उसे प्लेटफॉर्म पर उतारा। एक आदमी के बस का नहीं था उसे संभालना। पंकज दोनों बैग के साथ बाहर आया। उसे लग रहा था कि जो भी निर्णय लिया गया है, सौ प्रतिशत ठीक ही है।
अंकित ने कुली बुलाया। उसके कान में बतियाते हुए कुछ कहा। कुली ने सर हिलाया और दोनों बैग सर पर रख आगे बढ़ा। उसी के पीछे अंकित और पंकज के कंधों के सहारे घिसटता फोरमैन भी।
ईंजन की दिशा में ही आगे बढ़ते हुए, पटरी पारकर सभी उस पार पहुंचे। यह प्लेटफॉर्म से बाहर निकलने का एक चोर रास्ता था, जिसे दैनिक और बेटिकट यात्री बेखटके इस्तेमाल करते थे। यहां पर रेलवे की चाहरदीवारी तोड़कर एक छोटा निकास मार्ग बनाया हुआ था। इसके उस पार, सड़क पर कई ऑटो, ई-रिक्शा सवारी की प्रतीक्षा में खड़े रहते थे।
अंकित एक ऑटो रिजर्व कर उन्हें अपने घर ले आया। छोटे से इस घर में वह अपनी मां के साथ शान से रहता था। पिता दो साल पूर्व ही गुजर चुके थे। घर में एक कमरा अतिथियों के लिए हमेशा खाली रहता।
उनलोगों के फ्रेश होने तक अंकित ने मोहल्ले के अपने एक शौकीन लंगोटिया यार को फोन कर, गेस्ट का हवाला देते हुए, एक अद्धा भी मंगा लिया था।
‘‘लीजिए दादाऽ…अब चैन से पीजिए और सारे गम भूल जाइए!’’-अंकित ने टेबुल पर स्वागत का सारा सामान सजाते हुए कहा-‘‘शुरू कीजिए दादा… जितना आपका फेंका था, सूद समेत लौटा रहा हूँ। सारे डर को भूल, चैन से पीजिए। और हो सके तो आखिरी बार। बस यह मेरा निवेदन है, एक हमदर्द का आत्म निवेदन! आप जैसे पढ़े लिखे कामगारों को हमेशा दो पैसा बचाना चाहिए। अभी आपको नया मोबाइल भी लेना होगा, याद रहे। यह भी याद रखिएगा, सुबह पांच बजे आपकी गाड़ी है।’’
‘‘ओ.के…ओ.के…ठीक…भालो!’’ बोतल सामने देख फोरमैन प्रसन्नता से झूमने लगा था। बोला-‘‘इस बंदी में इसका जोगाड़ कैसे कर लिया?’’
‘‘आपको थोड़ा सुकून पहुंचाने और यह बताने कि यही है इस कानून की ढकी छिपी हकीकत!’’-अंकित ने मुस्कुराते हुए कहा।
‘‘सब जगह समान हकीकत! दो साल पहले गुजरात गया था। वहां भी स्लाला यही कानून…। मगर पान के दुकान में ही ‘माल’ मिल गया। कीमत थोड़ा जास्ती देना पड़ा।’’
‘‘यहां भी यही हाल। डबल कीमत!’’ दोनों हंसने लगे थे। अब पंकज भी चैन से था और उसका साथ देने को तैयार था। ‘‘खाने में अंडा करी, चावल बनवा रहें हैं, चलेगा न?’’
‘‘खूब भालो!’’ दोनों दोस्तों ने घूंट भरते हुए कहा-‘‘आपने देवता मानुष!’’
‘‘बस मनुष्य ही बना रह सकूं दादा!’’ अंकित ने गहरी सांस छोड़ते हुए कहा और मां का हाथ बंटाने उसके पास चला गया।
सुबह उन्हें स्टेशन छोड़ते हुए अंकित आश्वस्त था। जानता था, आज उनके बैग में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं। वरना कल तो इन भोले भाले कामगारों की जो हालत थी, उसकी कल्पना करते हुए भय से उसकी अपनी नसें भी तड़कने लगी थी। कहीं जो पुलिस के हत्थे चढ़ जाते तो? और जैसी कि हालत थी, पकड़ाना मुमकिन ही था। तब क्या पुलिस समझ पाती इन यात्रियों की अंदरूनी व्यथा? तभी तो अचानक इतना बड़ा निर्णय लेना पड़ा उसे। इतना भारी खतरा उठाया। कानून तोड़ा। लेकिन इसका अब कोई मलाल नहीं था उसे। उल्टे वह प्रसन्न था। ऑटो में सुबह की ताज़ा हवा के स्नेहिल स्पर्श पाते ही असीम सरकार नामक वह फोरमैन हुलस कर गाने लगा था-‘‘ले गेछे अमल धवल पाले…मन्द मधुर हावाऽ…!’’
स्टेशन परिसर में प्रवेश करने से पूर्व बिदा लेते हुए असीम सरकार ने कहा-‘‘दादा एक ठो कथा कहना है। आज से ही दारू से कुट्टी… गॉड प्रॉमिश… कुट्टी! आप जैसे भद्र मानुष का कहा टालने का नहीं। न रे बाबाऽ…एकदम नहीं। आपने इतना किया…कौन करता है आजकल…?
“ओ. के. … ओ. के. … टेक इट ईज़ी…!”
अंकित ने हँसते हुए उन्हें विदा किया। जानता था खान-पान पर प्रतिबंध का अनुपालन कर पाना दुनिया का सबसे मुश्किल सबक है। हमारी सबसे भोली इच्छाएं ही हैं हमारी सबसे मौलिक इच्छाएं!
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इस कहानी को कथाकार से आप इस लिंक पर सुन भी सकते हैं – https://youtu.be/oVpidWwpz0o
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संतोष दीक्षित
10 सितंबर, 1959 को लालूचक (भागलपुर, बिहार) में जन्मे संतोष दीक्षित हिन्दी कहानी की यथार्थवादी धारा के समकालीन प्रतिनिधि कथाकारों में से एक हैं। इनकी पहली कहानी ‘नया लेखक’ वर्तमान साहित्य (1992) में प्रकाशित हुई थी। संतोष दीक्षित की रचनाओं में यथार्थ यथास्थिति की तरह नहीं, बल्कि अपने समय के बड़े स्वप्नों की पूर्वपीठिका की तरह उपस्थित होता है। पिछले तीन दशकों से कथा-कहानी की दुनिया में निरंतर सक्रिय संतोष दीक्षित के पाँच कहानी-संग्रह – ‘आखेट’, ‘शहर में लछमिनियाँ’, ‘ललस’, ‘ईश्वर का जासूस’ एवं ‘धूप में सीधी सड़क’ तथा दो उपन्यास- ‘केलिडोस्कोप’ और ‘घर बदर’ प्रकाशित हो चुके हैं।
सम्पर्क– +919334011214, santoshdixit17@gmail.com
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संवेदनशील कहानी।
उपदेश देने, दर्शन बघारने से बचती।
मैं तो कहानीकार के भाषा-प्रयोग पर मुग्ध हूँ।
अंकित जैसे चरित्र मनुष्यता में हमारी आस्था बनाए रखते हैं।
कहानी की सादगी और स्वाभाविकता को राकेश बिहारी ने उचित ही रेखांकित किया है
कहानी बहुत ही सहज पर वर्तमान स्थिति को दर्शाती है ।नशामुक्ति और शराबबंदी सच में अलग अलग मुद्दा है