कथा संवेद

कथा संवेद – 11

 

इस कहानी को आप कथाकार की आवाज में नीचे दिये गये वीडियो से सुन भी सकते हैं:

 

 

‘रविशंकर का सितार’ के केंद्र में पचास वर्ष पहले की स्मृतियाँ हैं। कुछ खास समय संदर्भों को छोड़ दें तो अपने परिवेश और प्रभाव दोनों में ही यह कहानी स्वातंत्रयोत्तर भारत के स्वप्न और  विकास यात्रा के रूपक की तरह उपस्थित होती है। भूख और ‘सितार’ के द्वंद्व से उत्पन्न विडंबनाओं की पृष्ठभूमि में समानान्तर सभ्यताओं की समीक्षा करती इस कहानी का स्थापत्य ध्वनि के विविध रूपों से विनिर्मित हुआ है। इस कहानी के आरंभ में सितार है और अंत में पकते हुये भात की खदबद। ध्वनि और संगीत के इन दो छोरों के बीच अलग-अलग अर्थ-संकेतों के साथ पदचाप, हंसी, सिक्कों की खनखनाहट और खांसी की आवाजें भी शामिल हैं।  इस कहानी को खड़ा करने में ध्वनि के समानान्तर जिस दूसरी चीज़ की महत्वपूर्ण भूमिका है, वह है- रोशनी। आवाज़ और रोशनी की ये विविधवर्णी शक्लें कदम-कदम पर बिछे सन्नाटे और अँधेरे को तोड़ने का जो रचनात्मक जतन करती हैं, वही यहाँ एक रोचक कहानी के रूप में  मौजूद है। सन्नाटे के विरुद्ध ध्वनि और अंधेरे के विरुद्ध रोशनी के उपक्रम की यह कहानी कागज के सफ़े पर खत्म होकर भी खत्म नहीं होती, बल्कि हमारे भीतर बेचैनी की एक नई दुनिया का निर्माण करने लगती है।

राकेश बिहारी

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रविशंकर का सितार

  • कृष्ण कल्पित

     

(यह किस्सा पचास बरस पुराना है, जिसे अब कहानी में ढाला गया है। इसे कहा और सुना तो बहुत बार जा चुका है लेकिन लिखा पहली बार जा रहा है। इस कहानी के जो तीन पात्र हैं वे अब इस देश के वरिष्ठ नागरिक हैं। जिस समय की यह कहानी है उस समय इनकी उम्र इक्कीस, बाईस और तेईस बरस थी। तेईस बरस वाला अब एक विश्वविद्यालय का रिटायर्ड प्रोफ़ेसर और हिन्दी का विख्यात लेखक है। बाईस बरस वाला भी हिन्दी का एक कथाकार और लेखक है और इक्कीस बरस वाला हिन्दी का एक कवि है और इस कहानी का लेखक भी। – कृ. क.)

वे तीनों रविशंकर का सितार सुनकर लौट रहे थे। रात गहरा गई थी और विश्वविद्यालय की उस वीरान सड़क पर थके हुए पाँवों की पदचाप गूंज रही थी।
वे बहुत कम बोल रहे थे, अभी उन्हें लगभग दो किलोमीटर और चलना था। दूर रोशनी के चौकोर टुकड़े नज़र आ रहे थे, जैसे आरी से बराबर काटकर चिपकाए गए हों। यह डीबीएन हॉस्टल की खिड़कियों से झरती हुई रोशनी थी – जहाँ सबको पहुँचना था।
“अभी कुछ तो बची हुई होगी, रात को सारी ख़त्म नहीं हुई थी…….” उसने पूछा। भीतर का सारा आत्मविश्वास बटोरते हुए…….. हालांकि वह भी जानता था कि अब वहाँ कुछ नहीं बचा है, लेकिन वह इस बात पर विश्वास नहीं करना चाहता था।
उसकी बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया…..जैसे उसने कुछ नहीं कहा हो। उसने झल्लाकर जाने किसको एक भद्दी-सी गाली दी और बीड़ी सुलगाने लगा। तीली की रोशनी में बेतरतीब बढ़ी हुई दाढ़ी वाला उसका चेहरा बहुत भयावह लग रहा था।
“वहाँ पर घण्टा बचा हुआ है, उसे बजाना और सो जाना” सबसे आगे चल रहे लड़के ने हवा में उत्तर फेंका। उसकी चाल में अपेक्षाकृत तेज़ी और उत्साह था, जिससे उसके पीछे वाले ने अंदाज़ा लगाया कि अभी उसके पास थोड़े-बहुत चावल बचे हुए हैं, जिसे वह जाते ही हीटर पर चढ़ाएगा……। उसे याद आया उसके कमरे में भी तीन-चार प्याज रखे हुए हैं। वह आगे बढ़ा और सबसे आगे वाले लड़के के कन्धों पर हाथ रखा।

उसने अपने कन्धे पर रखे हुए हाथ को झटकारा और जलती हुई आंखों से गर्दन सटाकर कहा – “क्या है ?”

चित्र : प्रवेश सोनी

“मेरे पास दो-तीन प्याज बचे हुए हैं.”…. बहुत धीमी और नरम आवाज़ में उसने कहा।
“हैं तो उन्हें पेट से बाँधकर सो जाना……मैं क्या करूँ……” उसने सवाल की नरमाई को अपने रूखे शब्दों से लगभग पोंछ दिया।

एकदम जो पीछे चल रहा था उसे यह संवाद सुनकर हँसी आ गई। वह ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा। उसकी तेज़ हँसी से अचानक रात का सन्नाटा बिखर गया। वह अब भी ज़ोर-ज़ोर से हँस रहा था। वह जेब में पड़े कुछ सिक्कों को बजाने लगा।

उसके इस तरह हँसने पर या सिक्कों की खनखनाहट सुनकर एकदम अगले वाला रुका, मुड़ा और बहुत ही सधे क़दमों से उसके पास आया और रहस्यमयी नज़रों से उसे घूरने लगा।
वह अब भी हँसे जा रहा था। वह दो दिन से भूखा था। सिर्फ़ दस बारह चाय और दो चार तली हुई ब्रेड के सहारे वह हँस रहा था………..हा हा हा हा हा……….तीसरी दुनिया……..वह चिल्लाया और फिर हँसने लगा….हा हा हा हा हा……।

“लू शून……हा हा हा हा हा……..”

“फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की………हा हा हा हा हा……….”

“मायकोव्स्की………हा हा हा हा हा…..”

“प्रेमचन्द………हा हा हा हा हा……….”

“पतलून पहने बादल………हा हा हा हा हा……”

“रविशंकर का सितार………हा हा हा हा हा……..”

हँसते-हँसते उसकी हँसी कमज़ोर पड़ी और वह खाँसने लगा। उसने अपने हाथों में थामी हुई मायकोव्स्की की कविता की किताब हवा में उछाल दी। वह सड़क के बीचों-बीच बैठ गया। लगातार खाँसता हुआ।

चित्र : प्रवेश सोनी

उसे दोनों ने सहारा देकर उठाया। एक बीड़ी सुलगाकर उसे दी। एक ने उसकी जेब से सारी रेज़गारी निकाल ली और लैम्पपोस्ट की धीमी-रोशनी में सिक्कों को गिनने लगा।
कुल ढाई रुपये की रेज़गारी थी, जिसने उन दोनों की आँखों में रोशनी जगा दी। वे नाराज़गी के साथ उसकी तरफ़ देख रहे थे।

“पहले क्यों नहीं बताया” वे फिर चलने लगे थे, हॉस्टल की तरफ़। “पहले बता देते तो रविशंकर का सितार सुनना क्या ज़रूरी था?”

वह बीड़ी पीते हुए ख़ामोश था। खाँसी अब थम गई थी। उसने इस गैरज़रूरी सवाल का जवाब देने की कोई कोशिश नहीं की। पहले और बाद से क्या फ़र्क़ पड़ता है ? सच्चाई यह है कि अब हाथों में ढाई रुपये की खनखनाती हुई रेज़गारी है।

“अब मिलेगा भी क्या? सारी दुकानें बंद हो चुकी हैं। मेरे पास थोड़े-से चावल बचे हुए हैं और इसके पास कुछ प्याज।” आख़िरकार उसने रहस्य खोल दिया।
हॉस्टल का दरवाज़ा खुला हुआ था। चौकीदार अंदर लम्बी-चौड़ी टेबल पर पसरा हुआ खर्राटे ले रहा था। मेस में अँधेरा था और मेस के बाहर बैठा झबरीला कुत्ता पूँछ हिला रहा था।
तीनों के कमरे नीचे बायीं तरफ़ थे, जहाँ वे पिछले दस महीनों से अवैध रूप से रह रहे थे। वे तीनों इस विश्वविद्यालय के रजिस्टर्ड शोध-छात्र थे। रेज़गारी वाला लड़का हिन्दी-साहित्य का शोध-छात्र था और मुक्तिबोध पर शोध कर रहा था। प्याज वाला अंग्रेज़ी-साहित्य में स्टाइनबेक पर रिसर्च कर रहा था और चावल वाला तीसरा अर्थशास्त्र विषय में भारत की ग़रीबी और आर्थिक विकास की विसंगतियों पर शोध कार्य कर रहा था। तीनों में से किसी को भी स्कॉलरशिप नहीं मिलती थी। भूख अब तीनों को ही परेशान नहीं करती थी, भूख आदत बन चुकी थी। लेकिन भूख पर बातों से विजय नहीं पाई जा सकती थी, जिसमें वे तीनों पारंगत थे।
स्टाइनबेक पर जो रिसर्च कर रहा था वह दिन में एक लड़की से प्रेम भी किया करता था। लड़की टिफ़िन लेकर आती थी जिससे उसका काम चल जाता था। इसी बात को लेकर हिन्दी और अर्थशास्त्र वाले शोध-छात्र उससे ईर्ष्या और नफ़रत करते थे। लेकिन कभी-कभी जब वह भरा हुआ टिफ़िन लेकर हॉस्टल आता तब उन्हें प्रेम की महत्ता का अहसास होता।
आज की सुबह भी हर रोज़ की तरह तीनों नहा-धोकर, अपने-अपने थैलों में किताबें डालकर बाहर निकल पड़े थे। हर नई सुबह एक नई आशा जगाती हुई आती। ऐसा लगता जैसे बाहर दुनिया इनका इन्तिज़ार कर रही है। आज दुनिया शायद कल से कुछ बेहतर होगी।
तीनों विश्वविद्यालय के बाहर जाकर चाय की थड़ी पर बैठ गए। उधार की चाय पी। थोड़ी बहस की और अपनी-अपनी दिशाओं में चल पड़े।

पहला एक अख़बार के दफ़्तर गया। अपना लेख लेकर। एक पचास रुपये का चेक भी कई दिन से अटका हुआ पड़ा था।

अंग्रेज़ीवाला अपनी प्रेमिका के इन्तिज़ार में पुस्तकालय की सीढ़ियों पर बैठ कर किताब पढ़ने लगा।

तीसरा शहर में निरुद्देश्य भटकने निकल गया।

तीन बजे तीनों फिर मिले। हारे हुये, थके हुए। आज लोक सेवा आयोग का कोई रिजल्ट निकला था। इस पर तीनों साथ – साथ हँसे ……..”स्साले क्लर्क, इस देश का कोई भविष्य नहीं….. हर शहर में क्लर्क भरते जा रहे हैं…….हर शहर में क्लर्कों की कॉर्बन-कॉपियां ……..हा हा हा ” एक भुवनेश्वर की कहानी का डॉयलॉग बोलने लगा।

तीनों ने साथ-साथ चाय पी। उधार। चायवाला उदार था। पहला फ़ैज़ की एक ताज़ा ग़ज़ल की कटिंग लाया था। उसे सस्वर पढा गया। थड़ी पर पड़े अख़बार से पता चला कि आज रविंद्रमंच पर रविशंकर का सितार-वादन है। पचास रुपये का टिकट है।

चित्र : प्रवेश सोनी

तीनों चाय पीकर पैदल ही रविंद्रमंच कि तरफ़ चल पड़े। यह भी सोचा गया कि यदि वहाँ कोई परिचित मिला तो पाँच-दस रुपये उधार लेकर आज शाम के भोजन का इंतज़ाम किया जाएगा। दाल फ्राई और तंदूरी रोटी।

रविंद्रमंच के बाहर कारों का जमघट था। लोग अपनी-अपनी सजी-धजी बीवियों के साथ कारों से उतरकर अंदर जा रहे थे।

‘स्साले दिन-भर दुनिया को लूटेंगे और शाम को रविशंकर का सितार सुनेंगे …. थू” पहले ने अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरा और दोनों से कहा – “आओ”। दोनों हिचकते हुए उसके पीछे चलने लगे। पहले ने बीड़ी सुलगा ली थी और आगे-आगे चल रहा था।

दरवाज़े पर किसी ने रोका। कार्ड अथवा टिकट मांगा। पहले वाले ने एक भरपूर बीड़ी का कश लिया और धुआँ उसके मुँह पर छोड़ दिया और गुस्सैल आँखों से गेटकीपर की तरफ़ देखा। इसके बाद उसने कुछ नहीं पूछा। तीनों अंदर आ गए। रविशंकर का सितार सुनते हुए तीनों बीच-बीच में आगे-पीछे घूम-घूम कर किसी परिचित को ढूंढते रहे। कोई परिचित नज़र नहीं आया।

कोई आधा घण्टा बाद जब रविशंकर की अंगुलियाँ जादू जगा रही थीं, वे तीनों बाहर निकल आए। बाहर अँधेरा और रामनिवास बाग़ में निओन बत्तियाँ जगमगा रही थीं।

~ ~ ~ ~ ~

हॉस्टल की गैलरी से चलते हुए तीनों बासठ नम्बर के कमरे के सामने रुके। ताला खोलकर अंदर गए। कमरे में बेतरतीब फैली हुई किताबें। सिगरेटों और बीड़ियों के टोटे। एक ने फटाफट एक टूटे-से हीटर को निकाला, उसे ठीक करने लगा। दूसरा पतीला धोने चला गया और तीसरा कागज़ के ठोंगे में चार-पाँच मुट्ठी पड़े चावलों को बीनने लगा।

देखते ही देखते चावल सीझने लगे। रेज़गारी में से एक अठन्नी निकालकर टॉस किया गया कि अस्पताल के सामने से ब्रेड का पैकेट कौन लाएगा ? अर्थशास्त्रवाला शोध-छात्र चौकीदार की साइकिल लेकर दौड़ पड़ा।

पहले ने अलमारी खोलकर एक फ़ौजी बक्सा निकालकर खोला। उसमें मिलिट्री-कैंटीन से लाई रम की बोतल निकली, जिसमें एक चौथाई से अधिक शराब बाक़ी थी। उसे वह विजेता की तरह देखने लगा।

जब तीसरा ब्रेड का पैकेट लेकर आया तो देखा – पहले वाला फ़ैज़ की एक नज़्म गुनगुना रहा है, दूसरा प्याज काट रहा है और टेबल पर चौथाई से अधिक भरी भी रम की बोतल पड़ी हुई है।

और हीटर में चावल खदबद-खदबद सीझ रहे हैं !


कृष्ण कल्पित

गहन इतिहासबोध के धनी कृष्ण कल्पित का जन्म 30 अक्टूबर, 1957 को रेगिस्तान के एक क़स्बे फतेहपुर-शेखावाटी में हुआ। कवि के रूप में प्रसिद्ध कृष्ण कल्पित ने कथालेखन के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय काम किया है। इनकी पहली कहानी ‘फटी हुई कमीजें’ 1977 में ‘सारिका’ में प्रकाशित हुई थी। अबतक इनके पाँच कविता-संग्रह ‘भीड़ से गुज़रते हुए’, ‘बढ़ई का बेटा’, ‘कोई अछूता सबद’, ‘एक शराबी की सूक्तियां’ और ‘बाग़-ए-बेदिल’, हिन्दी में काव्यशास्त्र की प्रथम पुस्तक ‘कविता-रहस्य’, सिनेमा और मीडिया पर केन्द्रित एक पुस्तक ‘छोटा पर्दा बड़ा पर्दा’ तथा एक काव्याख्यान ‘हिन्दनामा_एक महादेश की गाथा’ प्रकाशित हैं।

K – 701, महिमा पैनोरमा, जगतपुरा,जयपुर 302017
सम्पर्क 7289072959, krishnakalpit@gmail. com

चित्रकार : प्रवेश सोनी

चित्रकला और साहित्य दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से सक्रिय प्रवेश सोनी का जन्म 12 अक्तूबर 1967 को हुआ।
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रेखाचित्र, कवितायें और कहानियाँ प्रकाशित।पुस्तकों के आवरण के लिए पेंटिंग।

सम्पर्क- praveshsoni.soni@gmail.com

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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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