कथा संवेद

कथा-संवेद – 9

 

इस कहानी को आप कथाकार की आवाज में नीचे दिये गये वीडियो से सुन भी सकते हैं:

 

 

वाचालता के विरुद्ध मितभाषिता के कथाकार राकेश दूबे का जन्म 25 जनवरी 1979 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के सरार ग्राम में हुआ। कथाक्रम के जुलाई-सितंबर 2008 अंक में प्रकाशित कहानी ‘नयी दुनियाँ’ से अपनी कथा-यात्रा शुरू करनेवाले राकेश दूबे का एक कहानी-संग्रह ‘सपने बिगुल और छोटा ताजमहल’ प्रकाशित है।

संपर्क : मो : 8082751050, ritika100505@rediffmail.com

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शासन और सत्ता की प्राथमिकताएँ केंद्र और हाशिये के नैसर्गिक संबंधों को एक जटिल राजनैतिक प्रक्रिया में बदल देती हैं। संतुलित विकास केलिए प्राथमिकता निर्धारण की योजनाएँ किस तरह वरीयता और उपेक्षा के खेल का स्वरूप ग्रहण करती रही हैं, पूर्वोत्तर का इतिहास इसकी मजबूत गवाही देता है। इतिहास और वर्तमान की आवाजाही के बीच ‘पूर्वी’ की गायब होती हँसी को वापस लाने के लिए राष्ट्रपति भवन के परिसर से एक खास किस्म का फूल लाने का सामूहिक उद्यम जिस सांकेतिकता के साथ पूर्वोत्तर की तकलीफ़ों और संवेदनाओं की नब्ज पर उंगली रखता है, वही यहाँ एक रोचक और अर्थपूर्ण कहानी के रूप में उपस्थित है। ‘पूर्वी’ और ‘उत्तर’ की प्रेम-कथा तथा लुटियन के भारत आगमन के इतिहास के रेशों से बुनी गई यह कहानी आख्यान और इतिहास की पारस्परिकता का एक विरल उदाहरण है। गल्प और इतिहास की गलबहियों से विनिर्मित राकेश दूबे की कहानी ‘खोयी हुई हँसी’ शेष भारत, खासकर हिन्दी प्रदेशों और पूर्वोत्तर के बीच एक आत्मीय संबंध सेतु का निर्माण भी करती है। कुछेक अपवादों कों छोड़ दें तो हिन्दी कहानी की मुख्य धारा पूर्वोत्तर की चिंताओं से सामान्यतया दूर ही रही है। इस कहानी को उस अंतराल की भरपाई की एक कोशिश की तरह भी रेखांकित किया जाना चाहिए।

राकेश बिहारी

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खोयी हुयी हँसी

राकेश दूबे

 

छप…..छप ……….छपाक…छपाक ……छपाक ……छप।

‘अरे, बस भी करो उत्तर, मर जाऊँगी मैं।’ पूर्वी बेतहासा चिल्लाई।

‘अच्छा, अब अपनी बारी आई तो मर जाऊँगी। मुझे कितना दौड़ाया था?’  उत्तर अभी भी रुकने का नाम नहीं ले रहा था।

‘नहीं –नहीं, मैं सच कह रही हूँ, सचमुच मैं बहुत थक गयी हूँ। मेंरी धड़कन अब मुझसे संभल नहीं रही है। तुम खुद ही देख लो।’ पूर्वी ने झट से उत्तर का हाथ कलेजे पर सटा दिया।

चौंक उठा उत्तर  ‘अरे हाँ रे, तेरा दिल तो सचमुच बहुत ज़ोर-ज़ोर से उछल रहा है।  चल थोड़ा आराम कर लेते हैं।’  दोनों आसमान की ओर मुंह करके ब्रह्मपुत्र की गुनगुनी रेत  पर पसर गए।  लेटे-लेटे सोचने लगा उत्तर… आजकल सचमुच बहुत जल्दी थकने लगी है पूर्वी। पहले तो घंटों दौड़ती थी इसी ब्रह्मपुत्र के किनारे। ब्रह्मपुत्र से उसे अपार प्रेम है। वह बेदम हो जाता था उसके साथ दौड़ते-दौड़ते। दौड़ते-दौड़ते चिल्ला उठता वह… ‘अरे अब बस भी कर पूर्वी की बच्ची। जान निकाल कर ही मानेगी क्या मेंरा?’

खिलखिला उठती पूर्वी,  ‘गारंटी ले  लो मुझसे, तुम्हारी जान नहीं निकल सकती।’

झल्ला उठता वह,  ‘अरे क्यों नहीं निकाल सकती मेंरी जान। आदमी के जान की बिसात ही क्या होती है? घंटे भर से दौड़ा रही है और कह रही है कि जान नहीं निकल सकती। क्यों नहीं निकल सकती मेंरी जान जरा बताओ तो।’

क्योंकि तुम्हारी जान  तो पहले से ही निकाल कर छिपा दिया है मैंने, यहाँ।’ पूर्वी अपनी बाईं छाती की ओर इशारा करती उत्तर की पीठ पर चढ़ जाती।

अच्छा, ठहर अभी मैं तेरी जान भी निकलता हूँ।’ उत्तर पूर्वी को बाहों में कस लेता।

ब्रह्मपुत्र से खेलना उनके गाँव के हर व्यक्ति को बेहद पसंद है। उत्तर और पूर्वी को भी। बचपन से ही वे जब भी ऊब जाते हैं, इसी तरह ब्रह्मपुत्र के किनारे घंटों एक दूसरे से चुहलबाजी करते पड़े रहते हैं। एक अजीब सा उल्लास देता है ब्रह्मपुत्र, अपने सानिध्य से। ब्रह्मपुत्र उनके लिए दोस्त, भाई, पिता सबकुछ है।

वर्षों से पूरे गाँव के जीवन का आधार रहा है ब्रह्मपुत्र। कभी माँ की तरह पुचकारता है तो कभी बाढ़ के दिनों में पिता की तरह क्रोध भी दिखाता है। उस क्रोध से सभी घबराते हैं लेकिन जानते हैं कि यह क्रोध स्थायी नहीं है, जल्दी ही यह क्रोध प्यार में बदल जाएगा और सबकुछ सामान्य हो उठेगा। इसी ब्रह्मपुत्र की छांव में बीता है दोनों का जीवन। बचपन से ही दोनों एक दूसरे को बेहद पसंद करते हैं। धीरे –धीरे दोनों ही खुद को एक दूसरे के बिना अधूरा समझने लगे हैं। यह बात केवल ब्रह्मपुत्र ही जानता है। गांवबूढ़ा (प्रधान) की इकलौती बेटी है पूर्वी, जितनी सुंदर, उतनी ही चंचल। बात –बात पर ठुनकने वाली लेकिन उतनी ही जल्दी मान  जाने वाली।

उत्तर ने एक नजर बगल में लेटी पूर्वी पर डाली। वह अब तक आंखे बंद किए है, लेकिन पहले से अब सामान्य लग रही है।

‘पूर्वी, ए पूर्वी।’ उत्तर ने उसके माथे पर आ गयी लटों को किनारे सरकाते हुये धीरे से पुकारा।

‘आं …हाँ।’

‘सो गयी क्या?’

‘नहीं रे। बस थोड़ी सी थकान हो गयी है।’

‘आजकल तू इतनी जल्दी कैसे थक जाती है?’ उत्तर अब पूर्वी के साँसो की गर्मी अपने चेहरे पर महसूस करने लगा था।

‘पता नहीं, लेकिन आजकल सचमुच मैं बहुत जल्दी थकने लगी हूँ।’

‘खाना ठीक से नहीं खाती क्या आजकल?’

‘क्यों? खाती तो हूँ।‘

‘तो फिर इतनी कमजोर कैसे हो गयी है?’

‘पता नहीं लेकिन अम्मा भी आजकल यही कहती है कि मैं चिड़चिड़ी होती जा रही हूँ।’

‘तो तू सोचती नहीं कि ऐसा क्यों हो रहा है?’

‘सोचती तो हूँ और जानती भी हूँ लेकिन क्या करूँ?’

‘अच्छा। क्यों हो रहा है ऐसा, जरा बताओ तो।’

उदासी फैल गयी पूर्वी के चेहरे पर ‘अब क्या बताऊँ? इन पत्थर तोड़ने वाली मशीनों को देखते हो?  कितना शोर मचाती हैं। जब से ये हमारे गाँव में आई हैं, दिन रात ऐसे गरजती हैं मानो शरीर की नसें चटक जाएंगी। लगता है जैसे छाती पर ही चल रही हों। चैन की नींद भी नसीब नहीं हो पाती, इनकी वजह से।’

‘सो तो तू बिलकुल ठीक कह रही है। जबसे ये मशीनें गाँव में लगी हैं, पूरा गाँव ही अशांत हो उठा है। पहले कितनी शांति थी हमारे गाँव में लेकिन आजकल कोई भी कहाँ चैन से सो पाता है?’

‘ये मशीनें हैं या दैत्य? एक पल को भी आराम नहीं लेतीं। दिन- रात पत्थर निकालने में लगीं रहती हैं। हमारी जमीन का सारा पत्थर और कोयला पता नहीं कहाँ ले जाते हैं ये लोग बड़ी बड़ी गाड़ियों में भरकर।’

‘पत्थर और कोयला छोड़, अब तो लकड़ियाँ भी इन्ही के हवाले हो गयी हैं। जिन जंगलों से हमारा जीवन चलता था, उनमें अब हमें ही नहीं घुसने दिया जाता है। हम तो जंगल से उतनी ही लकड़ियाँ लाते थे, जितनी हमको जरूरत होती थी। वर्षों से हमारे गाँव के लोग जंगल से लकड़ियाँ लाते रहे हैं लेकिन कभी यह जंगल इतने उदास नहीं हुये जितने इधर के दिनों में हुये हैं।’

‘यही सोचकर तो मुझे और अधिक रोना आता है उत्तर। इसी तरह चलता रहा तो बहुत जल्दी ही हमारा गाँव वीरान हो जाएगा। हमारी धरती खोखली हो जाएगी। ऊपर से इन मशीनों का शोर और धुआँ। मेंरा तो दम घुटने लगा है।’

‘तेरा बाप तो गांवबूढ़ा है, तू उससे क्यों नहीं कहती इन मशीनों को बंद करने के लिए।’

‘बापू कहता है कि यह उसके बस की बात नहीं है क्योंकि इन मशीनों को दिल्ली वालों ने परमीशन दिया है।’

‘तो तू बापू से यह क्यों नहीं कहती कि वह दिल्ली वालों से ही बात करे इन मशीनों के बारे में।’ उत्तर संजीदा था।

‘धत्त। बुद्धू कहीं के। दिल्ली यहीं है क्या? बापू कहता है दिल्ली बहुत दूर है। आसान थोड़े ही है वहाँ पहुंचना।’

‘दिल्ली भले ही चाहे कितनी भी दूर क्यों न हो लेकिन तेरे बापू को एक बार वहाँ अपनी फरियाद लेकर जरूर जाना चाहिए। आखिर यह हमारे पूरे गाँव का मामला है। तू खुद सोच, कैसे जी पाएंगे हम पहाड़ और जंगल के बिना?’

गंभीर हो उठी पूर्वी, ‘बापू दिल्ली चला भी जाय तो भी कुछ नहीं होने वाला। वह कहता है कि दिल्ली वाले किसी की बात नहीं सुनते।’

‘अरे, ऐसे कैसे नहीं सुनेंगे वे हमारी बात? मैं भी जाऊंगा तुम्हारे बापू के साथ दिल्ली।’

पूर्वी ने झट से अपना हाथ उत्तर के मुंह पर रख दिया, ‘मैं तुम्हें दिल्ली कभी नहीं जाने दूँगी। दिल्ली वाले जिसपर नाराज होते हैं उसे जेल में डाल देते हैं। मैंने सुना है कि बहुत बड़ी बड़ी जेलें बनवाई हैं दिल्ली वालों ने। वहाँ से निकालना बहुत मुश्किल है। तू जेल में बंद हो जाएगा तो मैं तो मर ही जाऊँगी। रो पड़ी वह।’

उत्तर ने गले से लगा लिया पूर्वी को… ‘तू सचमुच मुझसे इतना प्यार करती है?’

‘प्यार व्यार मैं नहीं जानती हूँ, लेकिन इतना कह देती हूँ कि जिस दिन तुझे कुछ हो गया, ब्रह्मपुत्र की सौगंध, मैं इसी में छलांग लगा दूँगी।’

तू तो सचमुच पगली होती जा रही है।’ उत्तर ने बाहों का दबाव बढ़ा दिया।

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चित्र : डॉ सुनीता

पूर्वी की दशा से पूरा गाँव सदमें में है। पता नहीं क्या हो गया मासूम सी बच्ची को। पूरा गाँव जिसकी खिलखिलाहट से गूँजता रहता उसकी आवाज ही चली गयी। पुतलियाँ तक नहीं हिल रहीं। जिंदा लाश हो गयी है पूर्वी। न जाने यह कौन सी बीमारी है, अब तक तो ऐसा किसी को नहीं हुआ पूरे गाँव में।

पूर्वी की माँ रोते-रोते निढाल हो रही है… ‘इधर महीनों से खोई –खोई सी रहती थी। न ठीक से खाती थी, न से सोती थी। पूछने पर कुछ बताती भी नहीं थी बस चुपचाप आसमान की ओर देखने लगती।

बैद्य जी भी चिंतित हैं। उनका कहना है कि जब भी किसी को गहन निराशा घेरती है, तब ऐसा होने की संभावना बढ़ जाती है।

‘भला पूर्वी को क्या निराशा हो सकती है? बाप गांवबूढ़ा है, घर में खाने पीने की कोई कमी नहीं।

यह तो भगवान ही जाने लेकिन जो हुआ बहुत बुरा हुआ।‘

‘मुझे तो लगता है जरूर किसी ने कोई जादू टोना कर दिया है हमारी फूल सी बच्ची पर।’ गाँव की एक उम्रदराज महिला ने आशंका प्रकट की।

उत्तर, गुमसुम बैठा सोच रहा है। उसे पता है कि पूर्वी क्यों परेशान थी, उसको बताया भी था लेकिन उसने ही उसकी बातों को हल्के में ले लिया था। उसे लगा परेशान तो आजकल सभी हैं, धीरे धीरे आदत हो जाएगी। आखिर गाँव में तो तमाम लड़कियां हैं फिर पूर्वी की ही यह दशा क्यों हुयी?

इसका जवाब तो पुजारी जी ही दे सकते हैं। जब जब गाँव के लोग अपने जीवन से जुड़े किसी भी सवाल को लेकर उलझ जाते हैं और कहीं जवाब नहीं मिलता तो वे उन्ही की शरण में जाते हैं और आज तक वे कभी भी निराश नहीं हुये। पुजारी जी त्रिकालदर्शी हैं, माँ कामाख्या की उन पर साक्षात कृपा है। वे जरूर पूर्वी को ठीक करने का उपाय बता देंगे। सबने मिलकर निर्णय लिया कि पूर्वी को लेकर पुजारी जी के पास चला जाय।

पुजारी जी गंभीर हो उठे हैं। आंखे बंद किए, पूर्वी के माथे पर हाथ रखे कुछ देर बुदबुदाते रहे। उनकी आंखो से आँसू झरने लगे, ‘तेरी लीला भी अपरम्पार  है माँ। कैसे –कैसे खेल खेलती है तू भी।’

लोग चौंक उठे,  किस खेल की बात कर रहे हैं पुजारी जी? वह खेल पूर्वी से कैसे संबन्धित है?

पुजारी जी अभी भी बुदबुदा रहे हैं,  ‘और कितनी परीक्षा लोगी अपने भक्तों की त्रिपुर सुंदरी। ऐसा क्यों करती है तू? अब क्या कहूँ इन भोले गाँव से। कैसे समझाऊँ तेरा खेल। ये भला समझ भी क्या पाएंगे। तेरा खेल समझने में तो बड़े बड़ों के जनम बीत जाते हैं।’ पुजारी जी ध्यानमग्न हो गए। जब आंखे खोलीं तो चेहरा शांत था ,  ‘यह लड़की मर तो नहीं सकती लेकिन इस दशा से बाहर निकलना भी बहुत मुश्किल है।’

ऐसा न कहें महाराज, कोई तो उपाय होगा?’ लोग आकुल हो उठे।

उपाय अगर है भी तो वह इतना आसान  नहीं है।

आप आदेश करें महाराज। पूर्वी को ठीक करने के लिए मैं अपनी जान भी दे दूंगा।’ उत्तर पहली बार बोला था।

मुस्कराये पुजारी जी ‘मैं समझता हूँ तुम्हारी मनोदशा को। एक विशेष तरह का फूल है,जिसे अगर तीन दिन तक पीस कर इस बच्ची को पिला दिया जाय तो शायद कुछ बात बन जाय।’

गाँव वाले एक दूसरे का मुंह देखने लगे, कौन सा फूल है वह, कहाँ मिलेगा?

वह केवल एक ही जगह मिलता है, अपने देश के राष्ट्रपति भवन में। मुश्किल यह है कि वह फूल केवल रात में ही खिलता है और राष्ट्रपति भवन में किसी भी आम आदमी को रात में जाने को मनाहीं है।

पूर्वी का बाप रो पड़ा,’ इसका मतलब बेटी गयी हाथ से। क्या माँ कामाख्या भी हमारी मदद नहीं करेंगी?

पुजारी जी का चेहरा तमतमा उठा ‘हर बात के लिए माँ को ही दोषी क्यों ठहराते हो तुम लोग? माँ ने रास्ता बता दिया, अब करना या न करना तुम्हारे हाथ में है लेकिन यह मत समझना कि यह दशा केवल पूर्वी की ही है। यह तो केवल चेतावनी भर है। धीरे धीरे यह दशा पूरे गाँव की हो जाएगी। पूरा पूर्वोत्तर हँसना भूल जाएगा, चाहकर भी गुनगुना नहीं सकेगा। अभी भी समय है, जल्दी करो। रोओ, गिड़गिड़ाओ, कुछ भी करो लेकिन वह फूल ले आओ।

लेकिन अगर उन्होने मना कर दिया तो?

तो वे भी चैन से नहीं रह सकेंगे। धीरे –धीरे पूरा देश इस बीमारी की चपेट में आ जाएगा। माँ दिल्ली वालों को सद्बुद्धि दे वरना बड़ा भयंकर समय आने वाला है।

सभी स्तब्ध हैं। किसी की समझ में पुजारी जी की बात का मतलब समझ में नहीं आ रहा है। आज के पहले किसी ने भी उनको इतना उद्वेलित नहीं देखा था। सभी आसन्न विपत्ति की आशंका से थर –थर  काँप रहे हैं।

पूर्वी का बाप किसी तरह हिम्मत जुटाकर आगे बढ़ा,  ‘महाराज। हम अज्ञानी लोग हैं। आपकी बातों का मतलब हमारी समझ से परे है। पूर्वी की इस दशा का पूरे गाँव और उस फूल से क्या संबंध है?

ये बड़ा गहरा रहस्य है। जन्मों की गाथाएँ जुड़ी है इसके साथ। खेल तो देखो इस नटनी का। उस समय भी खेल यहीं से शुरू हुआ था लेकिन तब भी यह ऐसे ही मुस्कराते हुये मौन रह गयी थी। बड़े निराले हैं इसके खेल। बड़े विस्तार से समझाना होगा तुम लोगों को। अब मेंरे ध्यान का समय हो गया है, लेकिन तुम्हारे गाँव में एक और व्यक्ति है जो तुम्हें वह कहानी सुना सकता है।

कई लोग एक साथ पूछ पड़े, कौन?

दिव्येंदु बरुआ।

दिव्येंदु? लोग सोच में पड़ गए। दिन रात अफीम के नशे में धुत रहने वाला दिव्येंदु? जिसकी बात पर गाँव के बच्चे भी विश्वास नहीं करते,लेकिन अगर पुजारी जी कह रहे हैं तो जरूर कोई रहस्य होगा।

दिव्येंदु बरुआ की आंखे नशे से झपक रही थीं। पुजारी जी का आदेश उसके लिए सर आंखो पर। कहानी तो सुनानी ही पड़ेगी…

1857 का गदर, जीत के बावजूद अंग्रेजों को बेचैन कर गया। उन्हे हर ओर लक्ष्मीबाई, नाना साहब और तात्या दिखाई पड़ रहे थे। वे अब भी यह नहीं समझ पा रहे थे वह कौन सी ऊर्जा है जिसने कुँवर सिंह और बहादुर शाह जैसे बूढ़ों को भी इतना जोशीला बना दिया। हिंदुस्तान में तो इस उम्र में लोग बैरागी हो जाते हैं। फिर यह क्रान्ति। अब तो हर गाँव से, हर बच्चे से विद्रोह का स्वर सुनाई पड़ रहा है। उन्हे विक्टोरिया पैलेस की दीवारें काँपती हुयी महसूस होने लगीं। काँपती दीवारों के बीच यूनियन जैक उड़ता हुआ नजर आ रहा है।

सभी चिंतित थे। आखिर सबसे महत्वपूर्ण उपनिवेश हाथ से खिसकता जान पड़ रहा है। लगता है बंदूक की गोलियां बहुत देर तक कारगर नहीं साबित होंगी। अब तो जीसस का ही सहारा है।

जीसस का स्मरण आते ही सबकी नजरें उस बूढ़े पादरी पर टिक गईं जिसे  लंदन से खास तौर पर हिंदुस्तान भेजा गया था, जिसके बारे में यह कहा जाता है कि वह भविष्य की इबारतों को न सिर्फ बाँच सकता है बल्कि उनका हल भी निकाल सकता है।

बूढ़ा पादरी गंभीर था ‘जब ताकत नाकाफी होने लगे तो फिर दैवीय शक्तियों की शरण में जाना ही एकमात्र उपाय होता है। मुझे लगता है अब समय आ गया है जब हमें लुटियन को हिंदुस्तान आने का निमंत्रण भेज देना चाहिए। वही है जो इस समस्या का समाधान दे सकता है।

लुटियन? क्या वही लुटियन जो वर्षों से टेम्स नदी के किनारे जंगलों में घूमा करता है, शायद कुछ तांत्रिक साधनाएं भी करता है।’ वायसराय की आंखे सिकुड़ गईं।

हाँ वही लुटियन। एक वही है जो अंग्रेजों को हिंदुस्तान के हाथ से फिसलने से बचा सकता है।’ पादरी मुस्कराया।

लेकिन कैसे?

तुम्हें शायद यकीन नहीं होगा लेकिन मैं जानता हूँ कि अपनी वर्षों की साधना से लुटियन ने ऊर्जा स्थानांतरण की दुर्लभ सिद्धि प्राप्त कर ली है जिसके द्वारा वह किसी की भी ऊर्जा को अपने बस में कर सकता है।

क्या यह संभव है फादर?

बिलकुल संभव है। इस विद्या की जानकारी हमें भले ही अब मिली हो लेकिन हिंदुस्तान में तो यह आदिकाल से ही रही है। तुम्हें हिंदुस्तान का इतिहास समझना चाहिए। कृष्ण के बारे में सुना है तुमने? वह निहत्थे होते हुये भी पूरे महाभारत के सर्वश्रेष्ठ योद्धा थे बल्कि यूं कहो कि एकमात्र करता थे। सच तो यह है कि हिंदुस्तान के वायुमंडल में एक और ऊर्जा का आवरण है जिसे दुनियाँ की कोई बुलेट नहीं बेध सकती।’ पादरी की आवाज सर्द हो उठी।

‘लेकिन फादर, लुटियन का कोई निश्चित ठिकाना तो है नहीं, हम उसे ढूढ़ेंगे कहाँ? और अगर किसी तरह ढूंढ भी लिया तो क्या गारंटी है कि वह हिंदुस्तान आने को तैयार ही हो जाएगा।‘

‘बिलकुल हिंदुस्तान आयेगा, लुटियन। इसी समय के लिए तो उसकी सारी साधना है। वह अंग्रेज जाति का सच्चा पुत्र है। रही बात उसे ढ़ूढ़ने की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी, वह खुद लंदन के दरबार में पहुँच जाएगा।’

वायसराय उस समय चकित रह गया जब उसे लंदन  का तार मिला जिसमें लिखा था कि लुटियन भारत जाने की तीव्र इच्छा प्रकट कर रहा है। उसका कहना है कि वह हिंदुस्तान में अङ्ग्रेज़ी हुकूमत को स्थायी बनाने में मदद कर सकता है। तार में आगे लिखा गया था कि लुटियन की बातों का यद्यपि कोई तार्किक आधार नहीं है फिर भी उसे अगले ही जहाज से हिंदुस्तान रवाना किया जा रहा है। वायसराय को यह हिदायत दी गयी थी कि वह लुटियन के काम में किसी भी तरह का हस्तक्षेप न करते हुये उसे हर संभव सहायता प्रदान करे।

दिव्येंदु बरुआ की जुबान अब लड़खड़ाने लगी है, वह बहुत देर तक बिना नशे के नहीं रह सकता। अफीम मंगानी होगी। उत्तर इस सबसे बेपरवाह आंखे बंद किए लेटा रहा।

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चित्र : डॉ सुनीता

पूर्वी दिन ब दिन असहज  होती जा रही है। उसकी असहजता अब दिखाई भी पड़ने लगी है। अपनी खिलखिलाहट से ब्रह्मपुत्र को भी मचलने को विवश करने वाली, अपनी शरारतों से पूरे गाँव की नाक में दम कर देने वाली पूर्वी न जाने क्यों गुमसुम सी रहने लगी है। उसमें अब न तो पहले जैसा उछाह है न उमंग।

पूर्वी क्या तू बीमार है? पूछा उत्तर ने।

नहीं तो।

फिर ऐसे क्यों रहती है आजकल?

कैसे रहती हूँ आजकल?

आजकल तू बिलकुल खोई –खोई सी रहती है। न ठीक से बोलती है न हँसती है।

अच्छा, लेकिन माँ तो कहती है कि मैं आजकल बहुत हंस रही हूँ। एक दिन वह कह रही थी कि सयानी लड़की को बहुत ज़ोर ज़ोर से नहीं हँसना चाहिए, और न ही बेकार में इधर उधर घूमना चाहिए।

अच्छा? ऐसा कहा तेरी माँ ने? लेकिन हमारे गाँव की सभी लड़कियां तो हमेंशा से ही खूब ज़ोर ज़ोर से हँसती हैं और जहां मन करे वहाँ घूमती भी हैं फिर तेरी माँ ने तुझे क्यों मना किया?

वो तो तब की बात थी जब हमारे  गाँव में पुलिस नहीं रहती थी। अब देखते नहीं हर जगह पुलिस वाले खड़े रहते हैं। माँ कहती है ये बाहर के लोग हैं इनसे संभल कर रहना चाहिए।

हाँ रे, ये पुलिस वाले तो सचमुच बहुत तंग करने लगे हैं आजकल। हर बात में टोका टोकी। कहाँ जा रहे हो? क्यों जा रहे हो? ये लड़की कौन है? क्या लगती है तुम्हारी?’

उत्तर खीज उठता इन तमाम सवालों से।  ऐसा तो  कभी नहीं पूछा जाता था। उसके गाँव में तो कभी किसी लड़के लड़की को साथ घूमने पर कोई पाबंदी नहीं रही है। लड़की जिस लड़के को भी पसंद करती है, घरवाले उसके साथ शादी करा देते हैं। फिर ये लोग कहाँ से आए हैं जिन्हे लड़के लड़की के साथ घूमने पर इतनी पूछताछ करनी पड़ती है। वह बचना चाहता है इन सवालों से, इसलिए पुलिस वालों को देखते ही रास्ता बदल लेना चाहता है। पता नहीं किसने भेज दिया इन पुलिस वालों को।’ बड़बड़ा उठा उत्तर।

बापू कहता है कि इन पुलिसवालों को भी दिल्ली ने ही भेजा है।

ये दिल्ली वाले पता नहीं क्यों हमारे गाँव के पीछे पड़े हुये हैं? पहले पत्थर तोड़ने के लिए दिन रात शोर करने वाली मशीनें भेज दीं, हमारे जंगल से लकड़ियाँ काटने पर रोक लगा दिया और अब इन पुलिस वालों को भेज दिया।’ उत्तरउत्तेजित हो उठा।

ये तो दिल्ली वाले ही जानें लेकिन घर में बंद रहने से अब मेंरा दम  घुटने लगा है आजकल। कितना अच्छा भला चल रहा था हमारा जीवन, पता नहीं किसकी नजर पड़ गयी।

***

जिस दिन लुटियन का जहाज हिंदुस्तान की जमीन से टकराया उसका स्वागत करने के लिए खुद वायसराय बूढ़े पादरी के साथ मौजूद था।’ अफीम की खुराक पाने के बाद दिव्येंदु ने संयत होकर कहानी आगे बढ़ायी।

हिंदुस्तान आते ही लुटियन अपने काम पर लग गया। उसे पूरा हिंदुस्तान घूमना था। पूरे पाँच साल बीत गए। वह घूमता रहा। नदी, पहाड़, जंगल, गाँव और शहर। कभी मिट्टी सूँघता, लोगों को छूता, मंदिरों और मस्जिदों में घंटो मौन बैठा रहता। उसके साथ भारतीय इतिहास और मिथक की जानकारी रखने वालों की पूरी टीम थी।

पूर्वोत्तर आकर ठहर गया वह।  दूर दूर तक फैले पहाड़ और मन की ताजगी देने वाली हरियाली ने उसे बांध लिया। घोर गरीबी और अशिक्षा के बावजूद खूब प्रसन्न लोग। वह इस इलाके में जितना ही आगे बढ़ता, विस्मित हो उठता। आखिर क्या है इस अविराम, उल्लासपूर्ण जीवन का राज। उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि दुनियाँ में कोई ऐसा भी इलाका होगा जहां के लोग इतनी कठिन परिस्थितियों में भी इतने खुश रहते होंगे। हर ओर संगीत, नृत्य और प्रेम। प्रेम का इतना सहज फैलाव उसके लिए रोमांचित करने वाला था। बिना किसी आयोजन और प्रयास के हर तरफ प्रेम ही प्रेम।

इतिहास और मिथक के जानकार बता रहे थे कि पुराणों में इस इलाके का वर्णन बेहद महत्वपूर्ण है। अर्जुन की पत्नी चित्रांगदा मणिपुर की थी, कृष्ण की पटरानी रुक्मिणी भी इसी इलाके से थी। भीम ने इसी इलाके की हिडिंबा से विवाह किया था जिससे घटोत्कच पैदा हुआ। असीम बलशाली था वह। कहते हैं कर्ण के पास एक अमोघ शक्ति थी जिसे उसने अर्जुन के लिए बचाकर रखा था। घटोत्कच ने ऐसा विकट संग्राम किया कि कर्ण विवश हो उठा अमोघ शक्ति के प्रयोग के लिए। घटोत्कच तो मर गया लेकिन अर्जुन को सदा के लिए सुरक्षित कर गया।

सर। यहीं कामाख्या का प्रसिद्ध मंदिर है। कहते हैं जब शिव, सती की लाश लेकर तांडव कर रहे थे तो सती का जननांग यहीं गिरा था। तब से ही यह स्थान शक्ति साधना का केंद्र है। हर तरह के साधक यहाँ साल भर शक्ति की उपासना करते रहते हैं।\

मुस्करा उठा लुटियन ‘सचमुच ही यह स्थान शक्ति का केंद्र है। प्रेम के बिना भला शक्ति कैसे उत्पन्न हो सकती है। जहां जीवन के इतने गहरे स्तर पर प्रेम है, शक्ति वहीं हो सकती है। इस शक्ति को साधे बिना हिंदुस्तान पर हुकूमत संभव ही नहीं है। अनगिनत रातें बेचैन रहा वह। कैसे साधा जा सकता है इस ऊर्जा को? पश्चिम और पूरब दोनों के ग्रन्थों को खंगालना शुरू कर दिया।’

रात को वह डायरी में लिख रहा था ‘पूर्वोत्तर को समझने के लिए घटोत्कच से गुजरना अनिवार्य है, क्योंकि वह पूर्वोत्तर की छाया है। वह जब कभी भी संग्राम में उतरेगा, सामने वाले को अपना सर्वोत्तम प्रयोग करना होगा। वह अर्जुन के लिए सदैव ढाल बना रहेगा। अर्जुन जिसमें भारत की आत्मा बसती है।’ आगे की पंक्ति को उसने विशेष रूप से रेखांकित किया ‘भविष्य के हर शासक को इस इलाके को बेहद गंभीरता से लेना चाहिए।’

एक सहयोगी ने टिप्पणी किया ‘सर, इस इलाके के लोग तो बेहद संतोषी प्रवृत्ति के हैं, मुझे नहीं लगता वे कभी भी किसी के लिए कोई मुश्किल पैदा कर सकते हैं।’

इनका संतोष ही तो मुझे चिंतित कर रहा है। तुम शायद नहीं समझ सकोगे कि बहुत संतोषी व्यक्ति के भीतर जब असंतोष पैदा होता है तो वह किसी भी शासन की नींव हिला सकता है।’

लुटियन ने आगे लिखना शुरू किया ‘इस इलाके को मुख्य धारा में लाना बेहद जरूरी है। यहाँ अधिक से अधिक दुकाने खोली जाय जहां बाहरी दुनियाँ के सामान उपलब्ध हों। जितनी जल्दी हो सके यहाँ के लोगों को आधुनिक जीवन शैली से जोड़ा जाय। बाहरी लोगों को अधिक से अधिक आवागमन के अवसर उपलब्ध कराये जाएं।

लेकिन अंग्रेज सरकार तो जानबूझकर इस इलाके को तमाम सुविधाइयों से वंचित कर रखा है क्योंकि उसे लगता है कि सुविधा मिलते ही ये लोग अपने अधिकारों के प्रति अधिक सचेत हो जाएंगे।

हंस पड़ा लुटियन ‘यही तो नजरिए का फर्क है। सुविधाभोगी लोग उतने खतरनाक नहीं होते जितने सुविधा से वंचित लोग। सुविधाएं आदमी को परजीवी बना देती हैं माई डियर। एक बार जिस कौम को को सुविधाओं की लत लग जाती है वह कौम निकम्मी हो उठती है। वह क्रान्ति नहीं कर सकती। जैसे हमारी अंग्रेज कौम। तुम्हें क्या लगता है हम अकेले 1857 की क्रान्ति दबा सकते थे? नहीं प्यारे, अगर भारतीय सिपाही नहीं होते तो आज हम लंदन में बैठकर अपने जख्म सूखा रहे होते। ये सुविधावांचित लोग किसी भी सरकार के लिए मुश्किल पैदा कर सकते हैं क्योंकि इनकी कोई कमजोरी नहीं होती। ये लंबी और विकट लड़ाई लड़ सकते हैं क्योंकि इनके लिए जीवन और युद्ध में युद्ध अधिक सरल होता है।’

लुटियन की राय को अंग्रेज सरकार ने गंभीरता से लिया। कलकत्ते से भारी संख्या में अंग्रेज  अधिकारी पूर्वोत्तर भेजे गए। हर तरफ सरकारी शराब की दुकानें खोली गईं। रातों रात सड़कें बनाई जाने लगीं। समूचा पूर्वोत्तर अपने इस कायांतरण और अंग्रेजों की दरियादिली पर भौंचक था।

***

चित्र : डॉ सुनीता

उत्तर, कई बार पूर्वी की बातें सुनकर हैरान हो उठता है। आखिर कैसे जानती है वह इतना सबकुछ। जंगल के एक एक पेड़, एक एक पत्थर, एक एक पक्षी, नदियों के पानी, मंदिरों सबके बारे में वह इतना विस्तार से बताने लगती है कि आंखे फैल जाती है उत्तर की।

तू इतना सबकुछ कैसे जानती है रे।

खिलखिला उठती है पूर्वी, क्यों तुझे जलन हो रही है?

जलन तो नहीं लेकिन आश्चर्य जरूर हो रहा है। तू स्कूल तो कभी गयी नहीं, फिर इतना सबकुछ किससे जान लिए?

गंभीर हो उठी पूर्वी, तुझे पता है उत्तर, न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं वर्षों से इस इलाके को जानती हूँ।

लेकिन तू तो हमेंशा मेंरे ही साथ आती रही है।

सो तो है पर न जाने क्यों जब भी मैं इन जंगलों में घूमती हूँ, लगता है पहले भी अनगिनत बार घूम चुकी हूँ, एक अपनापन लगता है इस वातावरण से। मन करता है गले लगा लूँ इन पेड़ों को, चूम लूँ इन पत्थरों को …………।

जब पूर्वी अपनी रौ में होती है तो भौंचक सा रह जाता है उत्तर।

तू जानता है माँ कामाख्या को अपने इलाके में ही भगवान शिव ने क्यों स्थापित किया?

इसमें जानने वाली बात क्या है? सैकड़ो बार कहानियों में सुन चुका हूँ कि जब शिव जी माता के शव को लेकर व्याकुलता से तांडव कर रहे थे उस समय माता के अंग जहां जहां गिरे वहाँ शक्तिपीठ बन गयी। यहाँ माँ का जननांग गिरा था इसलिए यहाँ माँ कामाख्या विराजीं।

मुस्करा उठी पूर्वी, तुम शायद कभी भगवान शिव को समझ ही नहीं सके।

अच्छा। तो तुम ही समझाओ न भगवान शिव को।

शिव कितने भी व्याकुल क्यों न हो जाएँ, निश्चेत कभी नहीं होते। उनकी चेतना हमेंशा विवेक से युक्त रहती है। उन्होने माता  के अंगों को अनायास  नहीं गिरने दिया बल्कि माता के हर अंग को वहीं गिराया जहां वे चाहते थे।

मतलब?

मतलब यह कि शिव ने एक विशेष उद्देश्य से अपने इलाके में माता के कामरूप को स्थापित किया है।

अच्छा। किस उद्देश्य से जरा मैं भी तो सुनूँ।

दरअसल वह जानते थे कि प्रेम और काम एक दूसरे के पूरक हैं। ये आपस में इतने गहरे जुड़े हैं कि इन्हे अलग कर पाना बड़े बड़े ज्ञानियों के लिए भी असंभव हो जाता है। जाने अंजाने हमारा यह इलाका ऐसा है जहां प्रेम और काम दोनों को बड़ी सहजता से साधा गया है, इसलिए भोले बाबा ने यहाँ माँ कामाख्या को स्थापित किया।

उत्तर ने झट से दोनों हाथ जोड़ लिए,’ जय हो गुरु जी। आपने मेंरी आंखे खोल दीं।’

मैं गंभीर हूँ उत्तर।

यही तो मैं कह रहा हूँ कि जब तू गंभीर होती है मुझे बिलकुल भी अच्छी नहीं लगती।’

पूर्वी का ध्यान इस समय उत्तर की बातों पर बिलकुल नहीं था। वह तो माँ कामाख्या की मुस्कान में खो सी गयी थी।

***

कामाख्या धाम में उस दिन भी  ऐसी ही मुस्कान चमक रही थी। उस मुस्कान में बिंध कर खो सा गया लुटियन। तमाम भैरवी साधिकाओं के बीच प्रेमरुपा वैसे ही लग रही थी जैसे रात को आकाश में असंख्य तारों के बीच चाँद। लुटियन को लगा जैसे उसे उसकी मंजिल मिल गयी। वह जिस उद्देश्य के लिए वर्षों से भटक रहा है, उसकी एकमात्र सीढ़ी  यह प्रेमरुपा ही हो सकती है।  उसने सम्मोहन विद्या का प्रयोग किया लेकिन पूरी शक्ति झोंक देने के बाद भी असफल ही रहा। प्रेमरुपा की साधना एक ऐसा कवच थी जिसे भेद पाने की शक्ति पश्चिम के तंत्र में शायद थी ही नहीं।

उसने दूसरा रास्ता चुना। सौ सोने की मुहरों के बदले मुख्य पुजारी इस बात के लिए तैयार हो गया कि वह प्रेमरुपा के कवच को भेदने का रहस्य बता देगा।

प्रेमरुपा को सम्मोहित कर खुशी से झूम उठा लुटियन। तमाम रातें प्रेमरुपा के साथ श्मशान में बिता कर उसने वह सारी ऊर्जा प्रेमरुपा के शरीर में स्थापित कर दिया।  अब आखिरी काम बाकी रह गया था। वह इसमें किसी भी तरह का जोखिम नहीं उठाना चाहता था।

पूरनमासी का चाँद आकाश में अपनी पूरी आभा के साथ मुस्करा रहा था। यह लुटियन  के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण रात थी जिसपर हिंदुस्तान में अंग्रेजों का भविष्य टिका हुआ था। वह जानता था कि यह काम इतना आसान नहीं है लेकिन यही एकमात्र रास्ता भी है। ऊर्जा स्थानांतरण केवल एक ही स्थिति में हो सकती है, जब शरीर का प्रत्येक अणु क्रियाशील हो लेकिन चेतना शून्य में स्थित  हो। ऐसी स्थिति या तो संभोग में होती है या समाधि में। समाधि का रास्ता लंबा है, उसके पास समय कम है।

साधना की इस प्रक्रिया में विपरीत रति में साधक को बिना स्खलित हुये योगिनी को ग्यारह बार स्खलित कराना था। जरा सी चूक भारी पड़ सकती है  लेकिन यदि वह सफल हो गया तो …..। प्रेमरुपा के भीतर इस समय अनंत ऊर्जा एकाकार है।

लुटियन प्रेमरुपा के सौंदर्य से स्वयं को निरपेक्ष रखते हुये विपरीत रति की प्रक्रिया में लीन हो गया। प्रेमरुपा का हर स्खलन उसमें अपार ऊर्जा का संचरण कर रहा था। हर संचरण उसमें एक रोमांच भर रहा था। उसका नाम अंग्रेज़ जाति  के इतिहास में अमर होने वाला है। जो काम तलवारें न कर सकीं, वह उसे पूरा करने के बेहद करीब है। वह अपनी आंखे बंद किए हुये  था।

चाँद जैसे थककर  आंखे झपकाने लगा था। वातावरण की नमीं और ब्रह्मपुत्र की ताजगी दोनों ही उसपर भारी पड़ रहे थे। एक क्षण के लिए उसकी एकाग्रता टूटी। साँसो की गति अनियंत्रित हो उठी। अचानक उसे लगा जैसे उसके कमर के नीचे से ज्वालामुखी पिघल रही है। चिल्ला पड़ा वह।

सफलता के इतने करीब पहुँचकर असफल हो जाना उसे बेचैन कर गया लेकिन उसने हार नहीं मानी। मारण विद्या के प्रयोग से प्रेमरुपा की प्राण ऊर्जा को एक विशेष फूल में कैद किया और कलकत्ता रवाना हो गया।

लुटियन के इस प्रस्ताव पर कि राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित की जानी चाहिए, अंग्रेज अधिकारियों में खलबली मच गयी। तमाम विरोध के स्वर उठे, यह आसान नहीं था। वे कलकत्ता के वातावरण  में स्वयं को अभ्यस्त कर चुके थे। उनके लिए रायसीना की पहाड़ी विरान थी। आखिर सोनागाछी  को दिल्ली कैसे ले जाएंगे।

लुटियन अपने प्रस्ताव पर अटल था। उसने सीधे लंदन बात की। राजधानी स्थानांतरण के पक्ष में उसके तर्क काफी मजबूत थे। उसने इतिहास का हवाला देते हुये यह स्पष्ट किया कि जिन शासको ने भी हिंदुस्तान की राजधानी दिल्ली के अतिरिक्त कहीं और स्थापित की उन्हे शासन चलाने में काफी मशक्कत करनी पड़ी। उसने माहौल में व्याप्त तल्खी को हल्का करने के लिए मुस्कराते हुये कहा कि हिंदुस्तान के इतिहास के आधार पर मैं इस  निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि दिल्ली की हवा में एक जादू है जो सदैव शासक को ऊर्जा प्रदान करती है। इस हवा का प्रभाव ऐसा है कि यहा से धृतराष्ट्र भी बहुत आसानी से शासन चला सकता है।  बहुत मशक्कत के बाद लुटियन के तर्क से सहमत होने के बावजूद  अगली शंका राजधानी परिवर्तन में होने वाले खर्च को लेकर पैदा हो गयी।

लुटियन ने स्पष्ट कर दिया ‘निर्माण तो हमें हर हाल में करना होगा। राजधानी चाहे दिल्ली जाये या कलकत्ता रहे। वास्तुशास्त्र के अनुसार यह निर्माण हिंदुस्तान का शासन चलाने के लिए उपयुक्त नहीं है।

लंदन की सहमति पाकर लुटियन दिल्ली आ गया। योजना के मुताबिक सबसे पहले वायसराय भवन का निर्माण शुरू हो गया। दिन भर मजदूर काम करते और रात को लुटियन। एक एक फूल वह काफी विचार से लगाता। हर पौधे को रोपने के बाद उसके चेहरे पर एक आश्वस्ति उभर आती। बिल्कुल बीचोबीच उसने वह फूल लगाया जिसे कामाख्या से लाया था।

लगभग सत्रह  वर्ष लगे निर्माण पूरा होने में। वायसराय भवन का बगीचा अनेक प्रकार के फूलों से गमक उठा। मुस्करा उठा लुटियन। आखिर उसका वर्षों का सपना पूरा हुआ। वायसराय भवन के संचालन के लिए परिश्रम से तैयार किया गया मैनुअल उसने सुरक्षित स्थान पर रख दिया।

दिव्येंदु बरुआ के चुप होते ही पुजारी जी बोल पड़े ‘माँ कामाख्या की लीला देखो। वही प्रेमरुपा अब पूर्वी बनाकर आई है। शायद यह माँ द्वारा दिया गया एक भूल सुधार का मौका है। वह भूल जो हम वर्षों से करते चले आ रहे हैं। हमें लुटियन और धृतराष्ट्र दोनों से मुक्ति पानी होगी।

***

चित्र : डॉ सुनीता

दिल्ली में सभी भौचक हैं। चारो तरफ आदमी ही आदमी,लेकिन पहचानता किसी को कोई नहीं। न जाने सभी किस जल्दी में हैं। दम भरने की भी फुर्सत नहीं। बस चलते रहना ही जैसे नियति हो,लेकिन पहुंचता कोई नहीं। मानों किसी दूसरे ग्रह  पर आ गए हों। आदमी –आदमी में इतना अंतर पहली बार देखा है उसने। इतनी बड़ी बड़ी गाड़ियाँ,इतने महंगे कपड़े, महंगे शौक और इन्ही सबके बीच भीख मांगकर जीवन  गुजारने वाले लोग भी।  उसके गाँव में किसी के पास इतने पैसे नहीं हैं लेकिन कोई भीख भी नहीं मांगता।

राष्ट्रपति भवन देखकर सबकी आंखे फैल गईं। एक आदमी के लिए इतना बड़ा महल? इसमें तो हमारे जैसे कई गांवों के लोग रह सकते हैं। उत्तर दौड़कर उस फूल के पास पहुँच जाना चाहता है जिसमें पूर्वी की शांति कैद है। पुजारी जी ने उस फूल की जो पहचान बताई है उसे बराबर याद है।

पूर्वी की याद आते ही बेचैन हो उठा वह। कितना भाग्यशाली मानता था वह खुद को पूर्वी का साथ पाकर। वह थी भी तो ऐसी ही। हँसती तो ब्रह्मपुत्र खिलखिलाता, चलती तो पेंड झूमते और जब बोलती तो मानों तमाम चिड़िया एक साथ चहचहा उठतीं। न जाने किसकी नजर लग गयी।

उसे लगा जैसे राष्ट्रपति भवन मुस्करा रहा है। इस मुस्कान से बेबसी उभर आई है उसके मन में। बड़बड़ा उठा  ‘तुम बहुत बड़े हो, हमें गर्व है तुम्हारे बड़प्पन पर। भगवान करे तुम और ऐश्वर्य प्राप्त करो। लेकिन तुम्हारे मुस्कराने के लिए हमारा रोना कबसे जरूरी हो गया? तुम जानते हो? पूर्वी की दशा से पूरा गाँव हँसना भूल गया है। भगवान के लिए लौटा दो न हमारी हंसी को। तुम्हारे पास तो खुश होने के लिए बहुत कुछ है लेकिन हमारे लिए तो हमारी हंसी ही जीवन है।’

उनकी बातें सुनकर सुरक्षा अधिकारी हँसते –हँसते बेहाल हो गया, ‘हर साल सरकार आप लोगों के लिए इतना पैसा भेजती है लेकिन उसका कोई फायदा नहीं दिख रहा है। अभी भी पूरा पूर्वोत्तर रूढ़ियों और अंधविश्वास से ही ग्रसित है।’

भगवान के लिए आप हमारी बात पर यकीन कीजिये, यह हमारी पूर्वी के जीवन का सवाल है।

अच्छा तो आप लोग यह चाहते हैं कि हम यकीन कर लें कि किसी की आत्मा को किसी फूल में कैद किया जा सकता है?

आपको हमारी बात पर यकीन नहीं है न सही। आप बस हमें एक बार राष्ट्रपति भवन के भीतर रात को प्रवेश करने की अनुमति दे दीजिये। उस फूल से हमारी पूर्वी की खुशी लौट आयेगी, हमें और कुछ नहीं चाहिए।’ उत्तर गिड़गिड़ा उठा।

ऐसा नहीं हो सकता, राष्ट्रपति भवन का कानून किसी भी आम आदमी को रात में प्रवेश की इजाजत नहीं देता।

क्या आपका कानून किसी की जान से बढ़कर है? पहली बार पूर्वी का पिता बोला।

‘शासन किसी की भावनाओं से नहीं बल्कि नियम और कानून से चलता है और किसी भी आम आदमी के लिए देश का कानून नहीं बदला जा सकता।’

लेकिन जब लोग ही नहीं बचेंगे तो फिर आपका देश कहाँ रहेगा? आपने पत्थर तोड़ने वाली मशीनें भेजीं, हम चुप रहे, हमारे  जीवन पर पहरा बैठाया, हम तब भी चुप रहे,हमारे ही जंगलों में हमें ही घुसने से रोक दिया, हम तब भी चुप रहे लेकिन अब आप हमसे हमारी हंसी भी छीन लेना चाहते हैं वह भी केवल इस लिए कि आपका कानून बना रहे। अब हम चुप नहीं रहेंगे। हम या तो जान दे देंगे या फिर अपना पुराना खिलखिलाता जीवन वापस लेकर जाएँगे।

पहली बार सरकार किसी धरने  को लेकर इतनी बेचैन है।  मीडिया ने इसमें आग में घी जैसा काम किया है। लोग धीरे धीरे ही सही धरने  में शामिल हो रहे हैं।  उत्तर से सबको सहानुभूति हो गयी है, पूर्वी अब उसकी ही नहीं समूचे देश की हंसी के लिए जरूरी बन गयी है।

प्रधानमंत्री आवास पर चल रही सर्वदलीय बैठक में सभी मायूस हैं। वर्षों बाद किसी मुद्दे पर सभी एकसाथ दुखीं हैं। सबके सामने लुटियन द्वारा तैयार किया गया मैनुअल खुला पड़ा है।

वास्तुशास्त्रियों का मानना है कि यह सब आम जनता के लिए राष्ट्रपति भवन खोले  जाने का परिणाम है, लोग ऊर्जान्वित हो उठे हैं जबकि मैनुअल में साफ लिखा है कि जितना हो सके आम जनता को लुटियन जोन से दूर रखना ही शासन के हित  में है।

तो क्या फिर से राष्ट्रपति भवन को आम जनता के लिए बंद कर दिया जाय?

नहीं, इससे गलत संदेश जाएगा। मीडिया वाले तिल का ताड़ बना देंगे।

फिर?

‘राष्ट्रपति भवन के सारे फूलों को धीरे धीरे किसी गोपनीय स्थान पर लगवा दिया जाय और उनके स्थान पर दूसरे फूल लगा दिये जाएँ। आम जनता के साथ पूर्वोत्तर को भी सरकारी हंसी देने की पेशकश की जाय और लुटियन के मैनुअल को दूसरे कवर से ढँक दिया जाय ताकि यह भी सुरक्षित रह सके।’ निर्णय पर सभी दल एकमत हैं।

……………………………………………………

फिलहाल अपुष्ट सूत्रों से जो खबर आ रही है वह यह है कि सरकार ने अपनी तीनों योजनाओं पर अमल शुरू कर दिया है। आंदोलन में भीड़ लगातार बढ़ती जा रही है। आप भी अगर समय निकाल सकें तो जरूर आइये। उत्तर को बल मिलेगा ……पूर्वी के बिना वह अधूरा जो है ……………..आखिर उनकी हंसी का सवाल है।


राकेश दूबे

वाचालता के विरुद्ध मितभाषिता के कथाकार राकेश दूबे का जन्म 25 जनवरी 1979 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के सरार ग्राम में हुआ। कथाक्रम के जुलाई-सितंबर 2008 अंक में प्रकाशित कहानी ‘नयी दुनियाँ’ से अपनी कथा-यात्रा शुरू करनेवाले राकेश दूबे का एक कहानी-संग्रह ‘सपने बिगुल और छोटा ताजमहल’ प्रकाशित है।

संपर्क : मो : 8082751050, ritika100505@rediffmail.com

केन्द्रीय विद्यालय, सुंजुवान, पो – सैनिक कालोनी, जम्मू -180001

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चित्रकार : डॉ सुनीता

पेशे से शिक्षक और दिल दिमाग़ से यायावर डॉ सुनीता की कथालोचना और चित्रकारिता में खास दिलचस्पी है। उत्कृष्ट साहित्यिक कृतियों पर मैथिली, मधुबनी व आधुनिक शैली में सतत चित्रकारिता। अब तक दो सौ से अधिक पुस्तकों पर श्रृंखला चित्रों की रचना कर चुकी हैं।

शोध केन्द्रित पुस्तक ‘शोषण में हिस्सेदारी’ प्रकाशित।

मेल आईडी : drsunita82@gmail.com

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samved

साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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शिवा शंकर पांडेय.
शिवा शंकर पांडेय.
3 years ago

बहुत ही सुंदर कहानी. बेहतरीन कथा शिल्प, कथ्य और संवाद… भाई बधाई.

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2 years ago

[…] कथा-संवेद – 9 […]

Anju anju
Anju anju
2 years ago
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2 years ago

[…] खोई हुई हंसी – राकेश दूबे […]

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