प्रेमचन्द : इतिहास और इतिहासबोध
प्रेमचन्द का सम्बन्ध जिस शहर और समय से है उसमें मुझे दो त्रिवेणियों का संगम दिखाई पड़ता है। पहली त्रिवेणी नदियों की है। गंगा, वरुणा और अस्सी की त्रिवेणी। दूसरी त्रिवेणी इसी नगर में रचे बसे उन साहित्यकारों की है जिन्हें आप प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद और रामचन्द्र शुक्ल के नाम से जानते हैं। प्रेमचन्द नगर के उत्तर में हैं, वरुणा के पार तो शुक्ल जी सबसे दक्खिन, अस्सी के पार। बीच शहर में प्रसाद जी। अगर गूगल मैप पर देखें तो लमही और लंका के लगभग ठीक बीच प्रसाद जी का घर है। पास में बेनियाबाग़ का मैदान। अपने समय के सबसे बड़े कवि और सबसे बड़े कथाकार की असंख्य मुलाकातों का साक्षी।
प्रेमचन्द उम्र में सबसे बड़े हैं। 1880 में जन्म। भारतेंदु के निधन से पाँच साल पहले। शुक्ल जी पैदा तो हुए बस्ती में लेकिन घूमते फिरते बनारस आते हैं और उसी भारतेंदु के घर से निकलते हुए केदारनाथ पाठक को देख कर चकित होते हैं कि क्या यह वही जगह है जहाँ भारतेंदु रहते थे? प्रेमचन्द से चार साल छोटे शुक्ल जी और नौ साल छोटे प्रसाद जी। भारतेंदु के पुराने रिश्तेदार भी। यह भी देखिए कि प्रेमचन्द के ठीक एक साल बाद प्रसाद जी का निधन होता है और चार साल बाद शुक्ल जी का। छप्पन में प्रेमचन्द गये। सत्तावन में शुक्ल जी और प्रसाद जी तो पचास भी पूरा नहीं कर पाए।
भारतीय नवजागरण के लेखकों को जब भी मैं याद करता हूं तो सबसे बड़ा दुख मुझे उनकी उम्र को लेकर होता है। मध्यकाल के कवियों की उम्र देखें तो उन्हें ठीक-ठाक समय मिला था। महान रचनाशीलता ज्ञान, अनुभव और दृष्टि के स्तर पर जिस परिपक्वता की मांग करती है उसके लिए समय और धैर्य की जरूरत होती है और निश्चित रूप से इसके लिए औसत से कुछ ज्यादा उम्र मिले तो बेहतर स्थिति होती है। आप सोचें कि कबीर, नानक और तुलसी को अगर भारतेंदु, प्रेमचन्द और जयशंकर प्रसाद की उम्र मिली होती तो हिन्दी साहित्य या समग्र रूप से भारतीय साहित्य के इतिहास की रूपरेखा क्या होती? या ठीक इसी तरह यह कल्पना भी कितनी प्रीतिकर है कि हमारी काशी स्थित इस त्रिवेणी को भक्तिकाल के कवियों की तरह लम्बी उम्र मिली होती तो हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल की रूपरेखा कुछ दूसरी होती। ठीक उसी तरह जैसे भारतेंदु की लम्बी उम्र हिन्दी को नयी चाल में ढालने के लिए ज्यादा बेहतर हो सकती थी।
रामविलास जी ने भक्ति आन्दोलन को लोक जागरण के रूप में प्रस्तावित करते हुए उसके स्वाभाविक विकास के रूप में नवजागरण की प्रस्तावना प्रस्तुत की थी। इस प्रस्तावना की कड़ी में दोनों दौर के लेखकों की उम्र का तुलनात्मक अध्ययन दिलचस्प हो सकता है। इसे महज ईश्वरीय संयोग मान लेना शायद उचित नहीं होगा।
सब्यसाची भट्टाचार्य ने अपनी किताब ‘आधुनिक भारत का आर्थिक इतिहास’ में ब्रिटिश भारत में निरन्तर घटती हुई औसत आयु के सवाल पर विचार किया है। उन्होंने लिखा है कि,
“1881 की जन गणना के अनुसार शिशु- मृत्यु, भुखमरी और महामारी की बदौलत भारत में जन्म लेने वालों की औसत उम्र पच्चीस साल थी। कहना न होगा कि ब्रिटिश कालीन भारत के लिए यह औसत उम्र अस्वाभाविक नहीं है :यहां 1931 में औसत आयु 26 वर्ष और 1941 में 31 वर्ष थी। ”
महामारी के इस दौर में यह बात अब बहुत सारे वैज्ञानिक जब यह आशंका व्यक्त करने लगे हैं कि इसका दूरगामी असर विश्व की औसत आयु पर पड़ना तय है तब यह बात अनुमान से परे नहीं है कि एक के बाद एक महामारी, अकाल और भुखमरी की मार ने देश की औसत उम्र को किस कदर प्रभावित किया होगा? सब्यसाची भट्टाचार्य ने अपनी किताब के पहले अध्याय में भारत के आर्थिक इतिहास की प्रकृति और प्रगति को समझने के लिए एक प्रतीकात्मक व्यक्ति की कल्पना की है। इस काल्पनिक चरित्र का जन्म 1850 में होता है। हिन्दी के सन्दर्भ में यह महज संयोग नहीं है कि भारतेंदु का जन्म भी उसी साल हुआ था। सब्यसाची भट्टाचार्य के अनुसार यह देखना दिलचस्प है कि उनके इस काल्पनिक चरित्र के तीन साल के होते ही बंबई और थाने के बीच रेल लाइन चालू हो जाती है। कुछ महीने के बाद कलकत्ता से हुगली के बीच भी रेल लाइन चालू हो जाती है। सूचना क्षेत्र में उसी साल कलकत्ता से आगरा के बीच टेलीग्राफ लाइन भी शुरु हो जाती है। औद्योगिक विकास के क्रम में एक साल बाद एक पारसी सज्जन द्वारा बंबई में पहले सूती मिल की भी शुरुआत होती है। उस काल्पनिक व्यक्ति के छह साल के होते ही रिसड़ा में जूट मिल भी खुल जाता है। सात साल के होते-होते 1857 में राष्ट्रीय विद्रोह की चिंगारी निकलती है जो देखते-देखते विस्फोट के ज्वाला का रूप ले लेती है और देश की सत्ता सुशासन के नाम पर कंपनी से सीधे विक्टोरिया महारानी के हाथ में चली जाती है, इस आश्वासन के साथ कि वे अब रियाया का ज्यादा ख्याल रखेंगी। लेकिन जमीनी हालात कुछ और ही कह रहे थे| सब्यसाची भट्टाचार्य के अनुसार,
“हमारे इस औसत काल्पनिक भारतीय की उम्र जब तीन से पाँच साल की थी तब वर्तमान राजस्थान, महाराष्ट्र, तमिलनाडु क्षेत्र में अकाल पड़ा था। इसकी दस वर्ष की उम्र में उत्तर प्रदेश से कच्छ तक उत्तरी भारत अकाल से पीड़ित था। उसकी बारह वर्ष की उम्र में महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में भयंकर खाद्य अभाव हुआ। 16-17 की उम्र में उड़ीसा और दक्षिण भारत में भयंकर अकाल पड़ा और महामारी फैली। 18 से 20 की उम्र में उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश अकाल पीड़ित हुए। 26-27 की उम्र में पहले तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र; फिर उत्तर प्रदेश में अकाल पड़ा और महामारी फैली। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1850 से 1877 तक अकाल से मरने वालों की संख्या 42 लाख थी और उससे प्रभावित होने वालों की संख्या 9 करोड़ 32 लाख थी। “
इस तस्वीर के बाद अब यह समझने में सुविधा होगी कि ब्रिटिश भारत में निरन्तर घटती हुई औसत आयु की वजह क्या थी? एक दूसरा बड़ा कारण स्वास्थ्य के आधारभूत ढांचे की घनघोर उपेक्षा थी। सेना के लिए 1869 में कई प्रदेशों में गठित सेनेटरी कमीशन द्वारा सेना में विभिन्न बीमारियों से रोकथाम के द्वारा मृत्यु दर को कम किया गया था लेकिन आम जनता के लिए कुछ अपवादों को छोड़कर पीने के साफ पानी तक का इंतजाम भी सरकार की प्राथमिकता सूची में नहीं था।
भारतेन्दु जैसे तमाम लेखक अगर असमय काल कवलित हो गये तो इसे ईश्वरीय प्रकोप या विधान मान कर संतोष कर लेना भारतीय इतिहास के दुखद अध्याय से मुंह मोड़ लेने जैसा है। इस सच से बेखबर रहकर न तो ‘अंधेर नगरी’ समझ में आएगी और न ही ‘गोदान’। प्रसाद जी की ‘आत्मकथा’ या फिर ‘चिंतामणि’ के निबंध भी समझ में नहीं आयेंगे। यही नहीं ‘देश की बात’ और ‘सम्पतिशास्त्र’ जैसी किताबों को भी देश की इस लम्बी दुर्दशा के सिरे को पकड़ने की गंभीर कोशिश के रूप में ही देखा जाना चाहिए।
खैर, बात उम्र की हो रही थी और जब भारतेंदु और जयशंकर प्रसाद जैसे सुविधा संपन्न लोगों के जीवन और स्वास्थ्य को लेकर ऐसा संकट हो तो यह समझने में देर नहीं लगनी चाहिए कि होरी के इस कथन का राज क्या है कि,
“साठ तक पहुँचने की नौबत न आने पाएगी धनिया। इसके पहले ही चल देंगे। “
यह भी समझ सकते हैं कि होरी जिस प्रेमचन्द की कल्प सृष्टि हैं उनकी बीमारी की दशा में निराला के मार्मिक और ह्रदय विदारक संस्मरण का सबब क्या है, और फिर धीरे-धीरे इस रहस्य से भी पर्दा उठेगा कि काशी की जिस त्रिवेणी की चर्चा की थी उसमें संकट सिर्फ अस्सी के अस्तित्व को लेकर ही नहीं है बल्कि उन नदियों के किनारे बसे तीनों महान साहित्यकारों के साथ भी जिनका जीवन द्रव्य साठ के पहले ही छीज गया।
आप मेरे साथ थोड़ी देर के लिए यह भी कल्पना करें कि ये तीनों लेखक अगर आजाद भारत का चेहरा देखने में कामयाब हुए होते तो हिन्दी साहित्य के इतिहास का स्वरूप कैसा होता?
(दो )
यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि अपने समय की दशा और दुर्दशा से चकित और व्यथित होकर भारतेन्दु ने भी अकबर के शासन काल को याद किया था और प्रेमचन्द ने भी। भारतेन्दु ने जलालुद्दीन अकबर के गौरवशाली शासन काल के उदाहरण द्वारा ब्रिटिश सत्ता को एक आईना दिखाया था। प्रसाद जी ने यही काम ‘चन्द्रगुप्त’ और ‘स्कंदगुप्त’ के जरिये किया। वह साम्राज्यवाद जो यहीं का होकर रह गया था और वह साम्राज्यवाद जो यहां से हर चीज को उजाड़कर ब्रिटेन को महान और गुलजार बनाने में मशगूल रहा, उसमें बुनियादी फर्क को भारतेन्दु भी समझते थे और प्रेमचन्द भी। मुक्तिबोध ने अपनी भारत के इतिहास सम्बन्धी चर्चित और विवादास्पद किताब में बताया है कि किस तरह उन्नीसवीं सदी के आखिरी दो दशकों में सिर्फ बंगाल को लूटकर इंग्लैंड यूरोप का सबसे धनी देश बन गया था।
प्रेमचन्द ने अकबर के शासन काल का इतिहास जानने के लिए आश्चर्यजनक तरीके से एक अँग्रेज पर्यटक के यात्रा वृत्त का सहारा लिया है। यह एक तरह से लोहे को लोहे से काटने वाला काम था। उन्होंने किसी इतिहासकार से ज्यादा भरोसा एक पर्यटक पर इसलिए किया था कि,
“प्रायः ऐसा होता है कि जब किसी देश के इतिहासकार उसका इतिहास लिखते हैं तो रोजाना की सोशल बातों को मामूली समझ कर विस्मृत कर जाते हैं। लेकिन जो पर्यटक अपरिचित देशों में जाते हैं वे प्रत्येक बात को, चाहे वह कितनी भी छोटी क्यों न हो, लिपि बद्ध कर देते हैं। यही कारण है कि किसी देश की जीवन शैली की दशा जानने के लिए हमें वहाँ के पर्यटकों के यात्रा वृत्तों की आवश्यकता पड़ती है। अकबर के युग में सम्राज्ञी एलिजाबेथ से सिफारिशी चिट्ठियां लेकर कुछ अँग्रेज पर्यटक व्यापार करने की इच्छा से हिन्दुस्तान में आए थे। उनमें से एक ने संक्षिप्त सा यात्रावृत्त लिखा है। “
प्रेमचन्द ने इसी यात्रावृत्त के आधार पर अकबरकालीन भारत की एक तस्वीर पेश की है। लेकिन उनकी भारत यात्रा की राह कितनी जटिल थी इसे बताना भी वे आवश्यक समझते हैं-
“ये व्यापारी 13 फरवरी 1513 ई. को इंगलिस्तान से रवाना हुए और अप्रैल के अन्तिम सप्ताह में स्याम देश में त्रिपोली स्थान पर उतरे। कोलंबस ने नयी दुनिया खोज ली थी लेकिन उस समय तक केप ऑफ़ गुड होप आकर आने का मार्ग किसी को ज्ञात नहीं हुआ था। त्रिपोली से ये लोग पैदल बसरा होते हुए फारस की खाड़ी के बंदरगाह हुर्मुज तक आये। उस समय वहाँ पुर्तगाली व्यापारियों ने व्यापार प्रारंभ किया था। वे जब किसी यूरोपियन को देखते तो ईर्ष्या से तत्काल गिरफ्तार कर लेते और भांति-भांति के कष्ट पहुंचाते। उन्होंने इन पर्यटकों पर भी जासूस होने का आरोप लगाया और बन्दी बना लिया।”
एक माह तक कारावास के बाद जब उन्हें गोवा के गोवा के लिए रवाना किया गया क्योंकि वह उस समय भी पुर्तगालियों के अधिकार में था। प्रेमचन्द के लिए चिंता का विषय है कि अपने देश का एक हिस्सा इतने लम्बे समय से पुर्तगालियों के अधीन रहा है। यह कितने हैरत की बात है कि बाकी हिन्दुस्तान मुग़ल साम्राज्य और ब्रिटिश साम्राज्य के सदियों पुराने दंश का दुःख देख चुका था जबकि गोवा इतने उथल पुथल के बीच पुर्तगालियों के कब्जे से मुक्त नहीं हो सका। खैर प्रेमचन्द ने उन ब्रिटिश यात्रियों के बारे में यह बताया है कि किस तरह उन्हें गोवा में भी परेशान किया गया फिर थोडा बहुत कपड़ों और रत्नों के व्यापार से जब उन्हें कुछ लाभ होने लगा तब पुर्तगालियों ने उन पर हाथ डालना चाहा। फिर वे वहाँ से जान बचाकर भाग निकले। बुरहानपुर होते हुए नदी पार कर जब वे आगरा पहुंचे तब आगरा का जो वर्णन किया है उन्होंने वह प्रेमचन्द के लिए विस्मयकारी है। प्रेमचन्द ने इसे उद्धृत किया है –
“आगरा बड़ा आबाद और विस्तृत शहर है। मकान बड़े सुन्दर तथा साफ़ सुथरे हैं और गलियाँ भी साफ़ सुथरी तथा चौड़ी। शहर के ठीक मध्य में एक नदी बहती है जो बंगाल की खाड़ी में गिरती है …आगरा और फतहपुर, दोनों शहर लन्दन से बहुत बड़े हैं …इस शहर में फारस और तिब्बत और सारे हिन्दुस्तान और अन्य देशों के व्यापारी हजारों की संख्या में इकट्ठे होते हैं और रेशम, कपड़े, मूल्यवान रत्नों जैसे हीरे, मोती, लाल आदि का खूब क्रय विक्रय होता है। ”
फिंच के बिहार, बंगाल और उड़ीसा के यात्रा वृतांतों से प्रेमचन्द इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि,
“इस पर्यटक के ये रिमार्क हमारे लिए अर्थपूर्ण हैं। इनसे स्पष्ट होता है हिंदुस्तान में उस समय सम्पन्नता का बोलबाला था। मलाका द्वीप समूह, सरनदीप, सुमात्रा, चीन, तिब्बत, फारस, काबुल आदि से व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित थे। रेशमी और सूती कपड़ा सभी दिशाओं में भेजा जाता था। माल की ढुलाई के लिए नावों और जहाजों का प्रयोग किया जाता था। मांस का प्रयोग कम था और जनता प्रत्येक दृष्टि से तृप्त तथा संतुष्ट थी।”
ब्रिटिश यात्रियों के इस यात्रा वृतांत के आधार पर प्रेमचन्द ने यह स्पष्ट कर दिया कि अँग्रेज किसी गरीब, लाचार और असभ्य देश को देश को अमीर, मजबूत और सभ्य बनाने नहीं आये थे बल्कि वे एक अमीर देश को लूटकर अपनी गरीबी को दूर करने आये थे। यह प्रेमचन्द नहीं कह सकते थे। जिस देश में ‘देश की बात’, ’हिन्द स्वराज’ और ‘सोजेवतन’ लिखने पर पाबन्दी हो उस देश में इतना कटु सत्य कहने का अधिकार किसी को नहीं था लेकिन, इतना तो कहा ही जा सकता था कि अंग्रेजों के आने के पहले हिन्दुस्तान एक अमीर देश था और यह बात कोई और नहीं बल्कि तुम्हारे मुल्क के ही लोग कह रहे थे। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ प्रेमचन्द का अपना प्रतिपक्ष था।
बाबर भारत में ऐसे ही नहीं आया था। उसने देखा था कि जिस देश में रुपया गिनने की इकाई नील और पद्म तक जाती हो उस देश में रुपया बहुत होगा। भारत के लोग किसी दूसरे को लूटने के लिए इसलिये नहीं गये क्योंकि भौतिक समृद्धि भी अपने देश में कमोबेश निरन्तर बनी रही। बाहर से जितने भी छोटे बड़े लुटेरे आये वे हमारे धन के लिए ही आये। अंग्रेजों ने लूट के साथ झूठ का जो कारोबार फैलाया उसमें इस भ्रम की गुंजाइश बनी रही कि वे गोरे चिट्टे लोग पसीने और मच्छर के बीच कष्ट उठाते हुए हमारे विकास और समृद्धि में लगे हुए हैं।
अंग्रेजों की वास्तविकता इंग्लैंड में जाकर पढने वाले लोग समझ रहे थे। प्रेमचन्द इंग्लैंड नहीं गये। उन्होंने इंग्लैंड से चार सौ साल पहले आये यात्रियों के जरिये इंग्लैंड की वास्तविकता को हिंदुस्तान के सामने प्रस्तुत किया। दुनिया का सबसे अनमोल रतन पाने और पहचानने की दिशा में यह उनका निजी प्रयत्न था और यह प्रयत्न कितना अनमोल था इसे अलग से बताने की जरूरत भी नहीं है।
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प्रेमचंद के विषय में आपका यह लेख सचमुच बहुत प्रसंसनीय है। आपने प्रेमचंद के साथ प्रसाद, शुक्ल और भारतेंदु की एक साथ चर्चा की। एक महत्वपूर्ण बात जो लेखकों के उम्र की आपने यहाँ लिखी है वह सचमुच विचारणीय है।