प्रेमचन्द

वर्तमान अव्‍यवस्‍था और प्रेमचन्द का होरी

   

  • संतोष कुमार बघेल

 

प्रेमचन्द एक ऐसे कालजयी लेखकों में शामिल हैं, जिनकी लगभग सभी कृतियाँ उस समय की सामाजिक परिवेश के साथ-साथ वर्तमान परिदृश्‍य में भी उतनी ही प्रासंगिक बनी हुई है। आधुनिक और उत्‍तर आधुनिक समय में जैसे-जैसे हम विकसित हो रहे हैं, वैसे-वैसे मानव जीवनशैली भी बदलती जा रही है। उथल-पुथल पर्यावरण, अदृश्‍य बीमारियाँ, सामाजिक विकृतियाँ इसी नये युग की देन है, जो भयावह और खतरनाक है। इस तथाकथित समय में किसान, मजदूर अथवा पलायन करने वाले मजदूर जैसे, अभावग्रस्‍त लोगों की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो सकती है। ऐसे लोग बड़े पैमाने पर भुखमरी और बीमारी के शिकार हो सकते हैं। इस परिवेश को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि प्रेमचन्द के ‘गोदान’ का दौर न लौट जाए। किसान और मजदूरों की जो बदहाल स्थिति है, उसमें सुधार आने के बजाय निरन्‍तर गिरावट आ रही है। गिरावट आने के प्रमुख कारणों को प्रेमचन्द के ‘होरी’ पात्र के माध्‍यम से भली-भांति समझ सकते हैं। होरी जैसे लोगों का शोषण किन-किन स्थितियों और परिस्थितियों में किया जाता है, उसे प्रेमचन्द द्वारा विस्‍तार से चित्रित किया गया है।

munshi premchand

जमींदारी व्‍यवस्‍था को बनाए रखने के लिए रायसाहब अमरपालसिंह जैसे पात्रों का षडयन्त्र स्‍पष्‍ट तौर पर देखा जा सकता है। रायसाहब अमरपालसिंह अवध प्रान्‍त के जमींदार हैं। होरी इन्‍हीं के जमींदारी में रहने वाला एक किसान है। रायसाहब जमींदार वर्ग का प्रतिनिधि पात्र है, जो वाकपटूता और सामन्‍ती प्रथा का निर्वहन करने में चतुर है। ये विचारों से प्रगतिशीलता जरूर दिखते हैं, किन्‍तु थे पक्‍के रंगे सियार, जो किसानों का खून चूसता है। होरी, रायसाहब के यहाँ सलामी और गुलामी करने इसलिए जाता था कि रायसाहब खुश रहें और कोई रियायत दे दें। लेकिन उल्‍टा रायसाहब ने होरी पर ही लगान लगा दिया, जिससे होरी की आशा टूट गयी। रायसाहब जैसे लोगों का वर्तमान समय में बाढ़ आ गयी है। आज भी सामन्ती प्रथा का प्रचलन देखा जा सकता है। रायसाहब जैसे लोग वर्तमान अव्‍यवस्‍था का अभिन्‍न हिस्‍सा बन चुका है, जो गिरगिट की तरह रंग बदलकर किसानों और मजदूरों का शोषण करता है।

 किसानों और मजदूरों का शोषण करने वाले लोगों में भोला जैसे पात्र भी वर्तमान अव्‍यवस्‍था में भरपूर योगदान दे रहें है। भोला गाँव का ग्‍वाला है। एक दिन रास्‍ते में होरी और भोला की भेंट होती है। उस समय भोला गाय खरीदकर घर ले जा रहा था। किन्‍तु अपनी गाय बिना लेन-देन किए, इस आशा के साथ होरी को दे देता है कि होरी मन लगाकर गाय की खूब सेवा जतन करेगा, क्‍यों‍कि होरी को गाय की लालसा थी। इसलिए भोला सोचता है, जब गाय तन्‍दरूस्‍त हो जाएगी तो कुछ दिनों बाद गाय वापस ले आऊँगा। भोला, होरी का शोषण करना चाहता है। किन्‍तु होरी इस बात से अनजान है। वर्तमान समय में शोषण का तरीका अप्रत्‍यक्ष हो गया है जो हाथी की दांत की तरह है जो दिखाने के अलग हैं और खाने के अलग हैं।

वहीं चौधरी जैसे पात्र भी सक्रिय भूमिका में है। चौधरी बाँस का व्‍यवसाय करता है। घर-घर जाकर किसानों से मोलभाव करके बाँस खरीदता है। होरी और चौधरी के बीच बाँस की कीमत 20 रुपये तय कर ली जाती है। किन्‍तु चौधरी होरी के हाथों में 20 रुपये की जगह 15 रुपये यह कहते हुए थमा देता है कि आपके भाई से 15 रुपये में मोलभव हो गया। चौधरी झूठ बोलकर होरी से अपना स्‍वार्थ सिद्ध करता है। चौधरी जैसे लोग आज भी गाँवों में विराजमान है। जो भोले-भाले किसानों से औने-पौने भाव में किसानों से फसल खरीद लेते हैं। ये लोग किसानों के शुभचिन्तक बनकर गाँव में जाते हैं और इनको दुनिया भर का पाठ पढ़ाकर बेवकूफ बनाकर शोषण करते हैं ।

तोखेराम जैसे लोग समाज में दलालों की भूमिका निभाते हैं। ऐसे लोग लाभ उठाने का अवसर ढूँढते रहते हैं। वर्तमान अव्‍यवस्‍था में ऐसे पात्रों की तदाद में लगातार इजाफा होता जा रहा है। रायसाहब अपने कारकून (तोखेराम) के माध्‍यम से यह खबर भेजता है कि जब तक गाँव वाले पुराना हिसाब नही देंगे, तब तक खेतों में हल नहीं जाएगा। इस फरमान से सारे किसान परेशान होने लगते हैं। अन्ततः किसानों को ऋण लेकर पुराना हिसाब देना पड़ता है। रायसाहब का कारकून मूल के अतिरिक्‍त रुपये वसूल करता था और किसानों का शोषण करता था। किसानों का ऋण से दबना स्‍वाभाविक है। चाहे यह ऋण जमींदारी प्रथा की हो, या सरकारी बैंको का हो।  दलाल लोग बिना फायदे के कुछ करते ही नहीं हैं, जो आज भी लोगों का खून चुसने में लगे रहते हैं। 

सरकारी अफसरों का भ्रष्‍टाचार भी जगजाहिर  रहा है। दरोगा साहब और पटेश्‍वरी जैसे लोग ऐसी ही छवि का निर्वहन करते हैं। दरोगा साहब – गाय को जहर देकर मारने की बात को सुनकर, होरी के घर पहुँच जाते हैं और होरी को डराने-धमकाने लगते हैं। डर से होरी रिश्‍वत भी उधार लेकर देने के लिए तैयार हो जाता है। लेकिन जब दरोगा साहब आश्‍वस्‍त हो गए कि होरी के पास रिश्‍वत देने के लिए एक रुपया भी नहीं है। तब गाँव के अन्‍य लोगों को डरा-धमका कर रिश्‍वत लेता है। दरोगा साहब गरीबों का शोषण करने का अवसर नहीं छोड़ते हैं। दरोगा साहब की जैसी  छवि प्रेमचन्द ने प्रस्‍तुत की  है, उस छवि से आज भी दरोगा साहब  जैसे लोग शायद ही निकल पाये हैं।

पटेश्‍वरी – गाँव का पटवारी है। किसानों की  जमीन के हिसाब-किताब के नाम पर किसानों से रिश्‍वत लिया करता था और गाँव के रसूकदारों के साथ मिलकर विभिन्‍न माध्‍यमों से भी मजदूरों और किसानों का शोषण करता था। गाँव का किसान यदि किसी सरकारी कर्मचारियों से त्रस्‍त है तो वह है, पटवारी। बिना लेन-देन के कोई पटवारी शायद ही काम करता है। जमीन के लेनदेन के नाम पर किसानों को लम्बे समय तक लटका कर रखते हैं। ऐसे पटवारी वर्तमान समय इतने अधिक समसामयिक और प्रासंगिक हैं कि तथाकथित दौर में इनकी आय दिन दुगनी और रात चौगुनी तरक्‍की करती है। ऐसे लोग किसानों का शोषण तो करते ही हैं, शहरी और पढ़े-लिखें लोग भी इनके दांव-पेंच के सामने घूटने टेकने को मजबूर हो जाते हैं।

 

 प्रेमचन्द के उपन्‍यासों की तरह महाजनी सभ्‍यता का वर्चस्‍व आज भी देखने को मिलता है, अन्तर सिर्फ इतना है कि इसका स्‍वरूप बदल गया है। झिंगुरी सिंह जैसे पात्रों के कारण भी गरीबों का  शोषण बड़े पैमाने पर होता है। झिंगुरी सिंह, गाँव का  सबसे बड़ा महाजन है। गाँव में घूम-घूम कर लेन-देन का कार्य किया करता था। दो आने रुपये ब्‍याज पर रुपये देता था। झिंगुरी सिंह को यदि किसी किसान, मजदूर के घर कोई नयी वस्‍तु दिख जाए, तो उस वस्‍तु को हड़पने के लिए तमाम प्रयास करता था। जब से होरी के घर गाय बंधी हुई देखी, तभी से गाय पर नजर टिक गयी थी। झिंगुरी सिंह सूद के नाम पर शोषण करने का अवसर ढूँढता रहता था। खासतौर आदिवासी किसानों की स्थिति तो अत्यन्त दयनीय है। इसलिये झिंगुरी सिंह जैसे पात्र की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।

 गाँवों में पंचायत के नाम पर क्‍या-क्‍या किया जाता है, यह तो किसी से छुपा हुआ नहीं है। बहुत से गाँवों में सरकारी नियमों को दरकिनार कर पंचायती फरमान सुना दिया जाता है। पंचायती व्‍यवस्‍था का काला कानून वर्तमान अव्‍यवस्‍था का एक प्रमुख कारण है। पंचायत – गोबर, झुनिया को पसंद करता था। दोनों के बीच प्रेम प्रसंग चला। झुनिया गर्भवती हो जाती है। यहाँ धनिया ने नैतिकता और मानवीयता का परिचय देते हुए, धनिया को पुत्रवधू समझ कर अपने घर में आश्रय देती है। यह बात गाँव के मठाधीशों को रास नहीं आया और पंचायत की बैठक बुलाई गयी, जिसमें होरी को 100 रुपये नकद और खड़े खेत के सारे फसल देने पड़ते हैं। इसलिये होरी के घर भुखमरी छा गयी। पंचायत के नाम पर यह भी शोषण का माध्‍यम है। गाँव में पंचायत के नाम पर खाप पंचायत जैसे नियम आज भी प्रचलित हैं।

     अखबारों की विश्‍वसनीयता भी धीरे-धीरे कम होती जा रही है। लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहलाने वाले मीडिया की जड़ें ओंकारनाथ जैसे लोगों के कारण कमजोर होती जा रही है। इसलिए ओंकारनाथ(अखबार के संपादक) जैसे पात्र की संख्‍या में लगातार इजाफा हो रहा है, जो खबरों के नाम पर अपना स्‍वार्थ सिद्ध करना चाहता है। ओंकारनाथ को जब होरी के साथ पंचायत वाली घटना का पता चलता है कि होरी से लिए जाने वाले दंड को रायसाहब वसूलना चाहते हैं तो इस खबर को अखबार में छापने के नाम पर रायसाहब से रुपये वसूलता है। संपादक ने भी होरी के मामले का पूरा लाभ उठाया। वर्तमान समय के अधिकांश संपादक भी ओंकारनाथ के समतुल्‍य दिखाई देते हैं, जो खबरों के नाम पर अपना स्‍वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं।

समाज में धर्म के नाम पर कैसे शोषण किया जाता है उसका जीवंत रूप पंडि़त दातादीन के रूप में प्रस्‍तुत किया गया है, जो धर्म को अपना व्‍यवसाय का रूप देता है। ऐसे पात्रों की समकालीनता आज भी भलीभांति देखी जा सकती है। होरी के दोनों बैल को भोला ले जाता है। दोनों बैल के बिना होरी की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो जाती है। होरी किसान से मजदूर बन जाता है। पंडि़त दातादीन के यहाँ होरी जी तोड़ मेहनत करता। इसके बावजूद होरी का परिवार भुखमरी में जीवनयापन करने के लिए मजबूर था। धर्म और गरीबी के नाम पर पंडि़त दातादीन, होरी की इस स्थिति का पूरा फायदा उठाता है। पंडि़त दातादीन जैसे लोग न सिर्फ गरीबी और मजबूरी का फायदा उठाते हैं बल्कि धर्म के नाम पर भी शोषण का कोई अवसर नहीं गवाना चाहते हैं। जब होरी की मृत्‍यु हो जाती है तो पंडि़त दातादीन अतिम संस्‍कार के नाम पर गाय की मांग करता है, किन्‍तु धनिया के पास बीस आने रुपये थे, इसको भी पंडि़त दातादीन ले लेता है। ऐसे लोग धर्म और संस्‍कार के नाम किसानों और मजदूरों का शोषण करते हैं।

     वर्तमान अव्‍यवस्‍था में खन्‍ना जैसे लोगों की भी बड़ी भूमिका है, जो किसानों से औने-पौने भाव में फसल खरीद लेते हैं। शोषणकर्ता की भूमिका में खन्‍ना (उद्योगपति) जैसे पात्रों की कमी नहीं है। खन्‍ना शक्‍कर मिल का मैनेजिंग डायरेक्‍टर है। शक्‍कर कारखाना के लिए होरी जैसे किसान जब फसल बेचने के लिए जाते हैं, तो मिल में तौलने के नाम पर काटा मारा जाता है। इसके अलावा मजदूरों को मेहनताना कम दिया जाता था। जब तक ऐसी बईमानी किसानों और मजदूरों के साथ होता रहेगा, तब तक गरीबी और भुखमरी बनी रहेगी। वर्तमान समय के मिल मालिक भी खन्‍ना की भूमिका अदा कर रहें है, जो मजदूरों का पूरा खून चूस लेते है। जब तक समाज में ऐसे मिल मालिक हमारे बीच प्रासंगिक रहेंगे, तब तक किसानों और मजदूरों का कल्‍याण नहीं हो सकता है।

     नोहरी और भोला का वैवाहिक संबंध ठीक नहीं चल रहा था। भोला, नोहरी के खिलाफ पंचायत बुलाने का फैसला लेता है, क्‍योंकि नोहरी चरित्रहीन महिला थी, इसलिए नोहरी अपनी छवि सुधारने के लिए होरी को अपने पक्ष में करने के लिए जानबूझकर रुपये उधार देती है कि बाद में होरी से सूद समेत वापस ले लूंगी। होरी इस अदृश्‍य शोषण के तरीकों को समझ नहीं पाता था। नोहरी जैसी महिलायें अपने हित के लिए तमाम तरह का प्रपंच रचती है, जिसका आभास सीधे-साधे किसानों और मजदूरों को नहीं हो पाता है। ऐसी महिलायें समाज के लिए  किसी अभिशाप से कम नहीं है। भले ही ये महिलायें संख्‍या में कम हो, किन्‍तु ऐसी महिलायें समाज में आज भी विद्यमान हैं।

ठेकेदार भी मजदूरों से इतना अधिक कार्य लेता है कि मजदूरों की हिम्‍मत जवाब दे जाती है। इतनी कठोर परिश्रम करने के बावजूद, मजदूरों को दो वक्‍त की रोटी भी नसीब नहीं हो पाती है। इसलिए भूखे पेट मजदूरों को काम पर जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। ऐसी स्थिति में कई मजदूरों को भुखमरी के कारण जान गवानी पड़ती है। होरी भी इसी भुखमरी का शिकार होकर स्‍वर्ग लोक सुधार जाता है। वर्तमान समय के ठेकेदार भी मजदूरों का बंधुवा मजदूरों अथवा जानवरों की तरह शोषण करते हैं कि जिसके कारण इनका जीवन नरक बन जाता है। ठेकेदारों द्वारा यह शोषण आज अत्‍यधिक प्रासंगिक और समसामयिक प्रतीत होता है। 

गोदान उपन्‍यास के उपर्युक्‍त सभी पात्र आज भी बेहद प्रासंगिक और समसामयिक दिखाई पड़ते हैं। वर्तमान युग को वैज्ञानिक तथा तकनीकी युग के रूप में देखते हैं। हम इस युग में जिस विकास की बात करते हैं, उस विकास की इमारत होरी जैसे किसानों और मजदूरों के खून-पसीने से सींची जाती है। किसानों और मजदूरों के कारण दुनिया के छोटे-बड़े विकास की नींव टिकी हुई है। किन्‍तु व्‍यवस्‍था चलाने के लिए जिन व्‍यक्तियों को जिम्‍मेदारी दी जाती है, वे लोग किसानों और मजदूरों को अपना नरम चारा समझते हैं। जब तक रायसाहब जैसे लोग जमींदारी प्रथा का संचालन करते रहेंगे, भोला का छलकपट करना, चौधरी का कर्तव्‍यनिष्‍ठ नहीं होना, तोखेराम की बेईमानी, पटेश्‍वरी और दरोगा साहब का रिश्‍वतखोर होना, मंगरू और झिगुरीसिंह द्वारा सूद के नाम पर औने-पौने रकम लेना, पंचायती परंपरा का दुरूपयोग करना, ओंकारनाथ का पत्रकारिता के प्रति ईमानदार नहीं होना, पंडि़त दातादीन का धर्म और आडंबर के नाम पर व्‍यवसाय करना, खन्‍ना मिल मालिक है किन्‍तु बईमान, नोहरी जैसी चरित्रहीन महिला का षडयन्त्र, ठेकेदार द्वारा मजदूरों को निचोड़ने का कार्य आदि जैसी प्रवृत्ति वाले लोग अपने कर्तव्‍य के प्रति ईमानदार और कर्तव्‍यनिष्‍ठ नहीं होंगे। तब तक किसानों और मजदूरों का कल्‍याण कभी नहीं हो सकता है। व्‍यवस्‍था तार-तार करने वाले लोगों की कमी नही हैं। इसलिए देश की कानून व्‍यवस्‍था कितना ही अच्‍छा और बेहत्‍तर क्‍यों न हो, किन्‍तु संचालनकर्ता जब तक ईमानदार और कर्तव्‍यनिष्‍ठ नहीं होंगे। तब तक गरीबी और भुखमरी जैसी समस्‍या बरकरार रहेगी। चाहे हम कितने ही आधुनिक और विकसित क्‍यों न हो जाये। उपर्युक्‍त चरित्रों को कोरोना काल की महामारी में भी बड़ी आसानी से देखा जा सकता है।

लेखक शिक्षाविद् एवं स्‍वतन्त्र लेखक हैं|

सम्पर्क- +919479273685, santosh.baghel@gmail.com

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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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Unknown
4 years ago

An exhaustive and burning issues raised by the author.
Season's greetings

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