फणीश्वर नाथ रेणु

फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का कवि-कर्म

 

  • बहादुर मिश्र

 

सामान्यतः हर साहित्यकार की साहित्य-यात्रा कविता-लेखन से शुरु होती है। ‘आदर्श राज्य’ और ‘दार्शनिक शासक’ की स्थापना के निमित्त को देशनिकाला का फतवा जारी करने वाले यूनानी विचारक और काव्यशास्त्री प्लेटो (428 ई. पू.-348/347 ई. पू.) हों या नव्यशास्त्रवाद का बिगुल फूँकने वाले निकोलस बुअलो (1636-1711 ई.), हिन्दी आलोचना के युगपुरुष रामचन्द्र शुक्ल हों या मार्क्सवादी आलोचना के शिखर-पुरुष रामविलास शर्मा या फिर हिन्दी कथा-साहित्य को नया रंग-रूप देने वाले फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ हों (1921 ई.-1977 ई.)।

रेणु के लिए ‘कवि’-जैसा अभिधान अस्वाभाविक व अप्रतीतिकर-सा लगता है; क्योंकि उनकी ख्याति कहानीकार, उपन्यासकार और रिपोर्ताजकार के रूप में ही रही है। किन्तु, सच्चाई यह है कि उन्होंने अपनी साहित्यिक यात्रा का श्रीगणेष कविता-लेखन से किया। अपने पूरे जीवन-काल में उन्होंने कुल तीस कविताएँ रचीं, जिनमें अट्ठाईस हिन्दी में, शेष दो में से एक बंगला और एक मैथिली में।

सिमरबनी पूर्णिया के द्विजदेनी तिवारी रेणुजी के साहित्यिक गुरु थे। वे रेणु के पिता के घनिष्ठ मित्र थे। तिवारी जी कवि, नाटककार, पत्रकार, सर्वोपरितः पक्के समाजवादी और स्वतन्त्रता-सेनानी थे। उन्हीं के मार्गदर्शन में रेणुजी का साहित्यिक जीवन शुरु हुआ।

फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ प्रारम्भ में तुकबन्दियाँ करते थे। कई कवि-सम्मेलनों में समस्यापूर्ति करके उन्होंने पुरस्कार भी प्राप्त किये। रेणु-रचनावली: 5 के पृष्ठ: 177 पर उनकी स्वीकारोक्ति देखी जा सकती है- ‘‘उनके (द्विजदेनी तिवारी) आशीर्वाद के बल पर मैंने तुकबन्दी शुरु की। कवि-सम्मेलनों में समस्यापूर्ति करके पुरस्कार प्राप्त किया। उन्हीं के आशीर्वाद से विद्यार्थी आन्दोलन में भाग लिया। उन्हीं की स्वीकृति से राजनैतिक क्षेत्र में आया।’’

सन् 1942 के ‘भारत-छोड़ो’ आन्दोलन के दौरान गुरु-शिष्य- दोनों गिरफ्तार होकर भागलपुर सेन्ट्रल जेल आये। अन्तिम गुरु-सेवा के तौर पर रेणु ने अपने साहित्यिक-सह-राजनैतिक गुरु द्विजदेनी तिवारी को तीन उपन्यास पढ़कर सुनाये। सुनने के बाद गुरु ने कहा – ‘‘और सुनो, तुम कविता छोड़कर कहानी लिखना शुरु करो। कहानी के बाद उपन्यास। नाटक….हास्य-व्यंग्य- सब लिखना।’’ (वही) रेणु ने कविता लिखना तो नहीं छोड़ा, अलबत्ता कहानी, उपन्यास, रिपोर्ताज, निबन्ध इत्यादि लिखकर हिन्दी-साहित्य के इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवा लिया।

इन दो उद्धरणों से स्पष्ट हो गया है कि द्विजदेनी तिवारी की सलाह से रेणु ने कविताएँ लिखीं तो उन्हीं की सलाह पर कथा-कर्म आदि भी किया।

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रेणु के प्रिय कवि त्रिलोचन, शमशेर और नागार्जुन थे। कविता, जिसतरह उन कवियों के लिए जीने का माध्यम थी, उसी तरह रेणु के लिए भी। उन्हीं के शब्दों में – ‘‘कविता मेरे लिए समझने-बुझने या समझाने का नहीं, जीने का विषय है। कवि नहीं हो सका, यह कसक सदा कलेजे को सालती रहेगी। और अगर कहीं कवि हो जाता तो त्रिलोचन नहीं हो पाने का मलाल जीवन भर रहता। सम्भव है, त्रिलोचन के एक सॉनेट की पैरोडी लिखकर सहस्त्रालोचन नाम से प्रकाशित करवाने की हिम्मत कर बैठता ……और मैं त्रिलोचन क्यों नहीं होना चाहता। पंत, नरेन्द्र, सुमन, बच्चन, महादेवी, नलिन अथवा रेणु क्यों नहीं? यह अपने आपसे बार-बार पूछता हूँ।’’ (रेणु रचनावली: 5; पृ. 177-178)

अमरीकी कवि-आलोचक रुपर्ट ब्रुक ने कवि को तीन कोटियों में विभक्त किया है – पहला वह, जो कविता रचता है; दूसरा वह, जो रचता और गाता है; तीसरा वह, जो कविता का जीवन जीता है। अव्वल तो रेणु ने स्वयं को कवि ही नहीं माना और माना भी तो तीसरी कोटि का, अर्थात् कविता की जिन्दगी जीनेवाला।

रेणु की सारी कविताएँ रेणु-रचनावली- 5 में संकलित हैं। संकलित होने के पूर्व उनकी लगभग सारी कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी थीं। अध्ययन की सुविधा के लिए इन कविताओं को कई कोटियों में विभक्त किया जा सकता है; जैसे – (1) वसन्तोत्सव होली-विषयक (2) साहित्य-साहित्यकार-विषयक (3) राजनीति-विषयक (4) व्यक्तिगत (5) प्रकीर्णक। यह विभाजन उनकी कविताओं में प्रयुक्त वर्ण्य विषय पर आधारित है। भाशा के आधार पर उनकी कविताओं का कोटीकारण त्रिविध होगा – (1) हिन्दी कविताएँ (2) बंगला कविताएँ, (3) मैथिली-कविता।

  1. होली-विषयक कविताएँ:

इस कोटि में रेणु की चार कविताएँ रखी जा सकती हैं – होली, मँगरू मियाँ के नए जोगीड़े, धमार फगुआ तथा यह फागुनी हवा।

26 फरवरी, 1945 को ‘सा. विश्वमित्र’, कलकत्ता (अब कोलकाता) में प्रकाशित ‘होली’ कविता का वर्ण्य होली की बेलौस मस्ती और मोहक रंगीनी है। इसमें एक अभावग्रस्त रमणी अपने ‘साजन’ को सम्बोधित करती हुई रंगोत्सव मनाने का आमन्त्रण दे रही है। वह कहती है कि आज के दिन कोई अपने दुखमय जीवन से शिकवा-शिकायत न करे। यह ठीक है कि पिछला समय हमारे लिए अत्यन्त त्रासद रहा है।

शासन को खून की होली खेलते देखा है। यहाँ कवि का इशारा 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन की तरफ है। जो हो, आज के दिन हमसब सबकुछ भूलकर रंग-अबीर खेलें, उछल-कूदकर गा लें, नाच लें- ‘‘साजन! होली आयी है!/ खूनी और बर्बर/ लड़कर-मरकर/मथकर नर-षोणित का सागर/ पा न सका है आज! /सुधा वह हमने पायी है!’’ (रेणु रचनावली- 5/ पृ. 382 )

रेणु की ‘होली’ में दुख-सुख का मिश्रित रंग है। फागोत्सव का प्राकृतिक पुट है तो देशभक्ति का रक्तिम पुट भी।

‘नई दिशा’ नामक पत्रिका के होली-अंक’ में 2 मार्च, 1950 को प्रकाशित कविता ‘मँगरूश्मियाँ के नए जोगीड़े’ में रेणु ने तत्कालीन कांग्रेसी सरकार में ऊपर से नीचे तक व्याप्त हेरीफेरी, रिश्वतखोरी, मुनाफाखोरी, चापलूसी इत्यादि की कलई खोली है। देखिए – ‘‘एक रात में महल बनाया, दूसरे दिन फुलवारी

तीसरी रात में मोटर मारा, जिनगी सुफल हमारी

 

कांग्रेस का टिकट कटाया बनकर खद्दरधारी

मोरंग की सीमा पर हमने रात में पलथी मारी।

 

बाप हमारा पुलिस सिपाही, बेटा है पटवारी

हाल साल में बना सुराजी, तीनों पुष्त सुधारी

 

खादी पहनो चाँदी काटो, रहे हाथ में झोली

दिनदहाड़े करो डकैती, बोल सुदेशी बोली

जोगीजी सर-र-र…          (वही; पृ. 390-391)

होली के अवसर पर गाए जाने वाले जोगीड़ों में प्रायः विरोधियों, भ्रष्टाचारियों आदि की पोल खोली जाती रही है। ‘बुरा न मानो होली है’ के बहाने ऐसे लोगों की खबर लेने की पुरानी परिपाटी है। रेणु के कवि ने इसी परिपाटी का पालन किया है।

‘नई दिशा’ के ‘होली अंक’ में 2 मार्च, 1950 को रेणु की एक और रचना छपी- ‘धमार फगुआ’। रचना के प्रारम्भ में उन्होंने कोष्ठक के अन्तर्गत लिखा कि श्री होलैयाजी रचित यह धमार फगुआ जरा मृदंग और झाल पर आजमाकर गाइए। यह होलैया कोई और नहीं, रेणु थे। वे खास-खास मौके पर ढोलक, झाल आदि लोकवाद्य यंत्र मगन होकर बजाया करते थे।

आलोच्य रचना का भी स्वर प्रतिरोधात्मक है। इसके माध्यम से उन्होंने देश के तत्कालीन शीर्श नेतृत्व को खरी-खोटी सुनाई है। देखिए – ‘‘जनता के नामें गद्दी चढ़ बैठे-गद्दी चढ़ बैठे/ झुट्ठन के सरदार/गाँधी के सत्य अहिंसा रोए,/ रोवत राम के राज! …..भूखी नंगी जनता रोवे- जनता रोवे/ नेहरु रोपत पियाज/ जमींदरवन के पीठ ठोकि के पोसे/ पटेल सरदार /खादी के धोती, उजली टोपी- उजली टोपी/चोरवन के सब साज….पुआ माल, मलाई, मुरब्बा/ निशिदिन पकत पुलाव/ जब सुधि आवे, गाल बजावे/ कैसे के जीतब चुनाव। हो एतना जुलुम जनि करु मूढ़ रावन….।(वही: 392-393)

रेणुजी पक्के समाजवादी थे। उस समय कांग्रेस और समाजवादी विचारधारा के बीच छत्तीस का रिश्ता था। आगे चलकर दोनों के बीच की वैचारिक दूरी अवश्य कमी, पर खत्म नहीं हुई।

‘यह फागुनी हवा’ की रचना यों तो 1956 में हुई, पर प्रकाशित की गयी रेणु के निधनोपरान्त 1 अप्रैल, 1979 को, उससमय की सुप्रसिद्ध पत्रिका ‘सारिका’ में। कवि ने फागुनी हवा को ‘दर्द की दवा’ के रूप में दिखाने का प्रयास किया है।

आँगन में कुचरता कागा, पिछवाड़े कूकती कोयल, वन-वन गुनगुनाते भौंरे, रह-रहकर बज उठता मन-मृदंग, अँगड़ाई लेता समस्त अग-जग, भय-भरम का भागता भूत- ये सारी गतिविधियाँ नूतन युग के आगमन की सूचना देती हैं। कुल मिलाकर, रेणु के कवि ने फागुनी हवा में नए युग का संदेश पढ़ा है। इसे होली का परम्परागत गीत नहीं कहा जा सकता। इसे आप उनकी प्रयोगधर्मी रचना कह सकते हैं।

कहने के लिए उपरिविश्लेशित रचनाएँ होली-विषयक हैं। प्रथम दृष्ट्या हैं भी, परन्तु ‘कंटेंट’ राजनैतिक है। इसे आप ‘कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना’ कह सकते हैं। इनमें हास-परिहास कम, व्यंग्य कहीं अधिक प्रयुक्त हुआ है।

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  1. साहित्य-साहित्यकार-विषयक कविताएँ:

इस श्रेणी में रेणु की पाँच कविताएँ आती हैं; जैसे – ‘पार्कर’ 51 के प्रति’, ‘टेबिल पर अनेक किताब’, ‘गतमास का साहित्य’, ‘अपनी ज्वाला से ज्वलित, ओ’ तथा ‘शब्द कहेगा’।

रेणु की कविता ‘पार्कर’ 51 के प्रति’ ‘एक पार्कर’ 51 धारी’ शीर्षक के अन्तर्गत ‘सा. विश्वमित्र’ के 13 मार्च, 1946 वाले अंक में छपी थी। उनके पास ‘पार्कर ’51’ कलम थी, जिससे उन्होंने अपना अधिकांश लेखन किया। 1946 में उन्होंने इस कलम की शान में एक कवित्त लिखा।

तरीके से इस कवित्त को यहाँ नहीं होना चाहिए था; क्योंकि यह न तो साहित्य है और न ही साहित्यकार। अलबत्ता साहित्य-सृष्टि का उपकरण अवश्य है। ‘पार्कर’51 थी तो कलम मात्र, पर जिसके पास होती थी, उसकी प्रतिष्ठा बढ़ जाती थी।

‘कवित्त’ कवियों का पसन्दीदा छन्द रहा है। इस छन्द में कवि ने ‘पार्कर ‘51’ का गौरवगान किया है। देखिए – ‘‘गोल्ड क्लिप’, ‘गोल्ड कैप’ सुन्दर-सुघड़ शेप’/कवियों की कल्पना में जिसकी रसाई है।/ रूप है अनूप, शोभा का ही है स्वरूप यह,/ देव जिसे पा न सके, सबके मन भायी है’’/(वही; 383)

मैथिली और हिन्दी के अलावा रेणुजी नेपाली और बंगला में भी आधिकारिक गति रखते थे। ‘टेबिल पर अनेक किताब’ तथा ‘शब्द कहेगा’ जहाँ उनके बंगला-प्रेम को उदाहृत करती हैं, वहाँ जित्तू बहरदार उनके मैथिली-प्रेम को।

‘जीवनानन्द’ (1899-1954) रवीन्द्रोत्तर बंगला-काव्य के सबसे बड़े हस्ताक्षर थे। जिन चीजों पर कवीन्द्र रवीन्द्र की दृष्टि नहीं पड़ी, उन पर जीवनानन्द की दृष्टि पड़ी। कवीन्द्र वसन्त के कवि थे तो जीवनानन्द शिशिर और हेमंत के, कवीन्द्र कोकिल के कवि थे तो जीवनानन्द चील और गीध के, कवीन्द्र आशा-प्रेम के कवि थे तो जीवनानन्द अवसाद और दुख के। आशय यह कि उन्होंने उपेक्षितों, वंचितों को अपने काव्य का विषय बनाया। कुल मिलाकर, वे रवीन्द्र के विलोम थे। यही कारण है कि रेणुजी उन्हें काफी पसन्द करते थे।

जीवनानन्द की एक प्रसिद्ध कविता है ‘तार स्थिर प्रेमिकेर जन्य’, जो उनकी काव्य-कृति ‘वेला-अवेला-कालवेला’ में संगृहीत है। यह लम्बी कविता है। रेणु ने इसी कविता के बीच के कुछ अंषों को भावान्तरित कर ‘टेबिल पर अनके किताब’ शीर्षक से प्रकाशित किया। उनकी यह कविता रणधीर सिन्हा तथा पद्मनारायण के संयुक्त संपादकत्व में पारिजात प्रकाशन, पटना से 1959 ई. में ‘आधुनिक कविताएँ’ नाम से प्रकाशित कविता-संकलन में शामिल की गयी थी।

आधुनिक भावबोध पर आधारित प्रस्तुत कविता में कवि ने कई बिम्बों और प्रतीकों का प्रयोग किया है; जैसे- टेबुल पर खड़ी, मगर बुझी हुई मोमबत्ती, कमरे के फर्श पर घूमता चूहा, सहजन की डाल पर पाँखें फड़फड़ाता उल्लू, छत पर टपकती ओस की बूँदें, अन्धकार का काला साम्राज्य। एकाकी कवि लगातार सोच रहा है कि किताब की सारी चिन्ताएँ, जीवन की अभिज्ञताएँ, देशकाल की आद्यन्त मालाएँ कभी गूँथी जा सकेंगी ? प्रेम और करुणा के कंकण इस अन्तिम समय में बजेंगे क्या?  वया ब्रह्माण्ड का यह सर्वग्रासी और अविनाशी अन्धकार मनुष्य की नियति बन चुका है? तभी उन्हें आशा की किरण दिखाई पड़ती है। निराशा के अन्धकार को भेदकर कवि आशा के उजास में पहुँच जाता है – ‘‘मनुष्य के हाथ में सेवा, क्षमा, स्निग्धता आदि/ मशाल की तरह/ उनके बुझते हुए अन्ध-आधार, बार-बार/ एक बड़ी परिवर्तनीयता की ओर जाना चाहते हैं/ सनातन अन्धकार में, यह प्रयास अच्छा है। ’’ (वही; पृ. 401)

कविता का उन्मीलक अंश यही है। ‘परिवर्तनीयता की ओर जाने की चाहत’ और ‘अन्धकार में प्रयास’ हमें निराला के ऐसे ही दो बिम्बों का स्मरण कराते हैं। पहला बिम्ब ‘राम की शक्तिपूजा’ में आया है तो दूसरा उनकी अन्तिम कविता ‘पत्रोत्कण्ठित जीवन का’ में। उद्धरण द्रष्टव्य हैं –

‘‘है अमानिशा; उगलता घन अन्धकार;

खो रहा दिशा का ज्ञान; स्तब्ध है पवन-चार;

अप्रतिहत गरज रहा जैसे अम्बुधि विशाल;

भूधर ज्यों ध्यान-मग्न; केवल जलती मशाल। (निराला रचनावली: पृ. 330)

‘राम की शक्तिपूजा’ में निराला ने घन-अन्धकार के बीच ‘जलती मशाल’ दिखाकर निराशा के मध्य आशा का संचार किया है।

उसी तरह अपनी अन्तिम कविता में –

आशा का प्रदीप जलता है हृदय-कुंज में,

अन्धकार-पथ एक रश्मि से सुझा हुआ है।

 

झूल चुकी है खाल-ढाल की तरह तनी थी।

पुनः सवेरा एक और फेरा है जी का।’’ (निराला रचनावली -2; पृ. 494)

धुंध अन्धकार के बीच ‘जलती मशाल’ अन्धकार में आशा का प्रदीप, रश्मि, सवेरा इत्यादि निराशा के अन्धकार पर आशा के प्रदीप की विजय-गाथा लिखते हैं।

‘गतमास का साहित्य’ शीर्षक कविता रेणु ने ‘नूना माँझी’ के छद्मनाम से लिखी थी। ज्ञातव्य है कि यह कविता उन्होंने रूसी कवि ‘बोरिस पास्तरनाक’ तथा हिन्दी के प्रखर कवि और राज्यसभा-सदस्य बालकृष्ण शर्मा नवीन की मृत्यु के ठीक बाद लिखी थी। रेणु-रचनावली- 5 में संकलित होने के पूर्व यह अप्रकाशित थी।

बोरिस पास्तरनाक (10.2.1890-30.5.1960) का मूल नाम बोरिस लियो नियोविच था। कलाकार माता-पिता के पुत्र बोरिस कवि, कथाकार और उच्चकोटिक अनुवादक थे। ‘माई सिस्टर-लाइफ’ (1925) तथा ‘दि सेकंड बर्थ’ (1943) उनके प्रसिद्ध कविता-संग्रह हैं तो ‘डॉ. जिवागो’ (1957) नोबेल पुरस्कार-जयी उपन्यास। शिलर, शेक्सपीयर प्रभृति के नाटकों का अनुवाद कर उन्होंने स्वयं को और अधिक यषस्वी बना लिया था। वे युवापीढ़ी के आदर्श कवि थे। 30 मई, 1960 को 70 की आयु में हृदयरोग तथा कुछ अन्य बीमारियों से ग्रस्त होकर शरीर छोड़ने वाले बोरिस पास्तरनाक के प्रशंसक दुनिया भर में फैले हुए हैं। फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ अपवाद नहीं।

बोरिस पास्तरनाक से उम्र में सात साल छोटे बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ (8.12.1897-29.4.1960) भी अपने समय के लोकप्रिय कवियों और वक्ताओं में परिगण्य रहे हैं। बोरिस से सिर्फ एक माह पहले दिवंगत होने वाले नवीन की मृत्यु भी पहले हृदयरोग, पुनः पक्षाघात के दुर्निवार प्रहारों से हुई थी। कवि, पत्रकार, सर्वोपरितः हिन्दी के हक में संसद और संसद से बाहर जोरदार बहस करने वाले नवीन जी के नौ काव्य-संग्रह उन्हें अक्षय यश के अधिकारी बनाते हैं।

कुल तेरह पदच्छेदों में प्रणीत कविता के प्रथम पदच्छेद में कवि ने नामोल्लेख किये बगैर धरती के दो सुगंधित फूलों के असमय सूखकर धरती पर झड़ पड़ने, दो बड़े घावों, दो जाज्वल्यमान नक्षत्रों के टूटकर गिर पड़ने तथा रस-रंग की दो बड़ी बूँदों के टपक पड़ने का जिक्र किया है। कोष्ठकबद्ध अगले पदच्छेद में कवि ने उनका सांकेतिक नामोल्लेख किया है- वे हैं हिन्दी के चिर नवीन कवि बालकृष्ण शर्मा नवीन और विश्व के नवीन कवि बोरिस पास्तरनाक। एक भारत का लाड़ला कवि, दूसरा सोवियत रूस का। दोनों एक ही रोग से एक ही माह में दिवंगत हो गये।

नवीन जी को तीन-चार साल पूर्व कोरोनरी थ्राम्बोसिस (हृदयरोग) हुआ था। पुनः हृदयाघात, फिर पक्षाघात। कविता में दी गयी सूचना गलत है कि दोनों एक ही माह में मरे। सच तो यह है कि नवीन जी 1960 में 29 अप्रैल को मरे तो पास्तरनाक एक माह बाद 30 मई को।

बोरिस जनकवि थे, युवापीढ़ी के सर्वाधिक प्रिय कवि। उधर नवीन जी कविता से उथल-पुथल मचाने वाले; ‘प्रताप’, ‘प्रभा’-जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं का सम्पादन करनेवाले, हिन्दी की लड़ाई लड़नेवाले निर्भीक योद्धा, दिनकर के शब्दों में, तत्कालीन भारत के चार बड़े वक्ताओं में एक- जनता के आकर्षण के प्रधान केन्द्र। बोरिस ने नारा दिया था- ‘‘अमृत पर हमारा/ है जन्मगत अधिकार’’। रेणु ने उनकी मृत्यु के तरीके पर टिप्पणी करते हुए लिखा- ‘‘बोरिस!/ तुमने अपने समकालीन-अभागे मित्रों से पूछा नहीं कि आत्महत्या करके मरने से/ बेहतर यह मृत्यु हुई या नहीं?’’ बोरिस की मृत्यु पर लोग छिप-छिपकर, घुट-घुटकर रोते रहे-बिलखते रखे। उन्हें अपनी मातृभूमि पर गर्व था।

रेणु एक खास साहित्यिक क्षण को यादकर लिखते हैं। जब सुमित्रानन्दन पंत की साठवीं जयन्ती मनाई जा रही थी, तब बोरिस ने चन्द पंक्तियाँ लिख भेजी थीं – ‘‘पिंजड़े में बन्द असहाय प्राणी मैं/ सुन रहा हूँ शिकारियों की पगध्वनि…आवाज।/ किन्तु वह दिन अत्यंत निकट है/ जब घृणित-कदम-अष्लील पषुता पर/ मंगल-कामना का जयघोष गूँजेगा/ निकट है वह दिन…।’’ (वही; पृ. 404-05)

बोरिस पास्तरनाक ने ये पंक्तियाँ अपने अन्तिम और रोगग्रस्त दिनों में लिख भेजी थीं। उन्हें मौत की पदचाप स्पष्ट सुनाई पड़ रही थी। एक ओर विवषता, दूसरी ओर मंगलाशा। कवि ने आशा की डोर कसकर पकड़ रखी थी। यह आशा पषुता पर नरता की जीत की थी, विश्व-कल्याण की थी।

रेणु ने कुछ पंक्तियों को छोड़ लगभग पूरी कविता बोरिस पास्तरनाक को समर्पित कर रखी है।

इसतरह, इस कविता में उन्होंने एक साथ तीन कवियों को याद किया है।

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‘अपनी ज्वाला से ज्वलित आप ओ जीवन (दिनकर के निधन पर) शीर्षक कविता की रचना रेणु ने रामधारी सिह ‘दिनकर’ की शवयात्रा से लौटने के बाद 5 मई, 1974 को की थी। ज्ञातव्य है कि दिनकर का निधन दक्षिण भारत की यात्रा के दौरान, 24 अप्रैल, 1974 की आधी रात क बाद हृदयाघात से हुआ था। अँगरेजी गणना से वह 25 अप्रैल की तिथि थी, जिसे ‘साहित्य निर्माता’ की लेखिका डॉ. कुमुद शर्मा ने भी मान रखा है। जो हो, उनकी अंत्येष्टि कुछ दिनों बाद पटना-स्थित गंगाघाट पर हुई थी, जिसमें रेणु भी शामिल हुए थे।

रेणु की प्रस्तुत कविता उसी घटना से उत्पन्न तीव्र व तत्क्षण अनुभूति पर आधारित है – ‘‘अच्छा ही किया, चले गये/ उत्तर  की दिव्य, कंचन काया को/ दक्षिण की माटी माता की गोद में छोड़/ बाहर-ही-बाहर/ चले गये।’’ (वही; पृ. 421)

आगे कवि ने जोड़ा कि ‘‘तुम तो जीवित हो/ जीवित रहोगे हमारे बीच/ तेजोदीप्त!/ मरने को हमेशा दोपहरी के तिमिर/ तुम्हारे दुश्मन ही मरेंगे! (वही; 422)

रेणु ने दिनकर के किन दुष्मनों की ओर संकेत किया है? जाहिर है, वे दुश्मन वही थे, जो देश और देश की दुखी जनता के दुश्मन थे। उन दुष्मनों की उन्होंने अपनी कई कविताओं ; जैसे-  ‘दिल्ली’, ‘समर शेष है’, ‘परषुराम की प्रतीक्षा’ में खबर ली थी- ‘‘रथ के घर्घर का नाद सुनो…’/ ‘आ रहा देवता जो, उसको पहचानो…’/अंगार हार अरजो रे’’।

रेणु के कवि को, पता नहीं, किस बात का डर था कि देश-विदेश की फासिस्ट और स्वार्थी शक्तियाँ, दिनकर की आवाज को कमजोर कर रही थीं। सम्भवतः उन्हें ‘देशनिकाला’ भी दिया जा सकता था- ‘‘….तब तुमको फासिस्ट और चीनी/ और अमेरिकी और देसी सेठों की दलाली/ और देशद्रोह के जुर्म में/ निश्चय ही देश से / बाहर निकाल दिया जाता!/ पता नहीं कहाँ…किस देश….। किस हिमालय और गंगाविहीन देश में।’’ (वही; पृ   .421)

यह कविता बिहार और देश की माटी के गौरव दिनकर के प्रति श्रद्धांजलि के साथ-साथ उनकी प्रतिबद्धता का अभिलेख भी है। कुल मिलाकर, रेणु ने कहना चाहा है कि हम दिनकर की आत्मा की शान्ति के बदले उसे अपनी काया के एकान्त कोने में प्रतिष्ठित करना चाहते हैं, ताकि जहाँ कहीं अन्याय-अत्याचार की घटना हो, उसे प्राणपण से रोक सकें, पापी शशि-सूर्य को भी टोक सकें, अपने भीतर के अंगारत्व को प्रज्वलित रख सकें। व्यक्ति के रूप में दिनकर भले ही चले गये हों, परन्तु न्यायपूर्ण पौरुष के कवि-रूप में सदैव जीवित रहेंगे।

समीर राय चौधरी (नवम्बर, 1933-जून 2016) बंगला के सुप्रसिद्ध कवि, नाटककार, रंगनिर्देशक, पत्रकार तथा फोटोग्राफर थे। उनकी मुख्य पहचान ‘भूखी पीढ़ी’ के प्रखर कवि के रूप में थी। उन्होंने रेणु के ‘कौवा, बगुला भस्म’ नामक लघुनाटक का मंचन कराकर उनके साथ अपनी मित्रता के साथ-साथ प्रतिबद्धता का भी परिचय दिया था। कहते हैं, दोनों के बीच गहरी मित्रता थी।

पत्र-शैली में रचित रेणु की प्रस्तुत कविता ‘शब्द कहेगा’ समीर राय चौधरी क प्रति सम्बोधित है। उनकी यह कविता कोलकाता से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका ‘चौरंगी वार्ता’ (2-9 दिसम्बर, 1974) में छपी थी, जबकि इसकी रचना 18 नवम्बर, 1974 को पटने में की गयी थी। अपवादस्वरूप दो चार पंक्तियों को छोड़ पूरी कविता बंगला में है। उनदिनों बिहार में कांग्रेसी सरकार के विरुद्ध छात्र-आन्दोलन चल रहा था। रेणु ने उस आन्दोलन का आँखों देखा हाल रिपोर्ताज-शैली में लिख रखा है।

देखिए – ‘‘तुम प्रतिनिधि नहीं रहे हमारे, /विधायको इस्तीफा दो, मंत्रियो गद्दी छोड़ दो।’’ आन्दोलनकारियों ने गाँधीवादी नारा दिया था- ‘‘मार खाबो अथच् मारबो ना।’’

इस आन्दोलन का शान्तिपूर्ण नेतृत्व जयप्रकाश नारायण ने किया था। कविता में इसका भी लिप्यंकन हुआ है- ‘‘आज जे पी जॅखन जीत थेके लाफिये नेम/ मारो, मारो मुझे मारो- निजेर माथा पेते-/….तारपरे जा घटे गेल ना! जा घटे छे आमि/ देखे छि अद्भुत सब व्यापार’’।

बेली रोड से किंग जार्ज एवेन्यू, फिर वहाँ से गाँधी मैदान के इर्द-गिर्द आन्दोलनकारियों की बेतहाशा भीड़ का कवि ने टेलिस्कोपिक हाल बयाँ किया है।

कविता में जहाँ एक ओर कविता और रिपोर्ताज का सुन्दर मिश्रण हुआ है तो वहाँ भाशिक स्तर पर बंगला और हिन्दी का।

आलोच्य कविता यों तो एक साहित्यकार को सम्बोधित है, पर वर्ण्य विषय राजनीति है।

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  1. राजनीति-विषयक कविताएँ:

इस कोटि में दो प्रकार की कविताएँ शामिल हैं –

(क) स्वदेशी राजनीति-विषयक कविताएँ:  ‘समर्पण’, ‘नूतन वर्षाभिनन्दन’, ‘मुझे तुम मिले!’, ‘अपने जिले की मिट्टी से’ और ‘मिनिस्टर मँगरू’।

सा. विश्वमित्र (कलकत्ता) के 26 सितम्बर, 1945 – अंक में प्रकाशित कविता ‘समर्पण’ का मूल स्वर स्वतन्त्रता की उत्कट कामना है, प्रकृति के कण-कण में उस कामना के प्रसार की दुर्निवार इच्छा है। देखिए कैसे कवि ‘तितली’ को स्वच्छन्द विहार के लिए उत्प्रेरित कर रहा है-

‘‘उड़ती फिरो स्वच्छन्द अब

तितलिके! प्रति कुंज में उड़ती फिरो स्वच्छन्द अब।

आज कलियों को सुनाओ, प्रेम की मोहक कहानी

मुस्कुरा जागे हृदय की युगों से सोयी जवानी

चूम पुष्पों के अधर, संचय करो मकरन्द अब।’’ (वही; 382)

‘तितली’ यहाँ देशवासियों को प्रतीकित करती है तो कलियाँ नौजवानों को। कवि ने ‘स्वच्छन्द’, ‘मुक्त गति’, ‘उड़ो निद्र्वन्द्व’ जैसै पदबन्धों का साभिप्राय प्रयोग किया है। 1942 के आन्दोलन के बाद कवि को विश्वास हो गया था कि वह दिन दूर नहीं, जब हम आजाद धरती की आजाद हवा में खुलकर साँस ले पाएँगे, जहाँ चाहें वहाँ घूम पाएँगे, मनपसन्द राग मुक्तकंठ गा पाएँगे। कवि ने स्वच्छन्दता की यह भावना प्रकृति के बहाने व्यक्त की है।

नूतन वर्षाभिनन्दन’ (जनवरी, 1946 को ‘विशाल भारत’ कलकत्ता में प्रकाशित) तथा ‘मुझे तुम मिले’ (वही/ नवम्बर, 1947) कविताओं का स्वर भी अँगरेजों की दासता से मुक्ति की निव्र्याज कामना है। ‘नूतन वर्षाभिनन्दन’ का कवि नए वर्ष के स्वागत के बहाने शुद्ध-स्वतन्त्र वायुमंडल में जड़ता के तमाम बन्धनों के टूटने की कामना करता है तो ‘मुझे तुम मिले’ का कवि- ‘‘रहा सूर्य स्वातंत्र्य का हो उदय!/ हुआ कर्मपथ पूर्ण आलोकमय!/ युगों के धुले आज बन्धन खुले!’’ का सहर्श उद्घोष। (वही/385)

16 जनवरी, 1948 को आजादी के ठीक पाँच माह बाद पूर्णिया से प्रकाशित हिन्दी साप्ताहिक ‘राष्ट्र संदेश’ में रेणु की अपेक्षाकृत लम्बी कविता ‘अपने जिले की मिट्टी से’ छपी थी। अँगरेजी की ‘सम्बोधन-गीति’ (ओड)-शैली में रचित प्रस्तुत कविता में रेणु का जनवादी कवि अपने जिले की आजाद मिट्टी से बेबाक पूछता है – ‘‘कि बोलो! रात तो गुजरी खुशी से?/ कि बोलो/ डर तो नहीं है किसी से?’’

1942 के 9 अगस्त को पूर्णिया की जिला-कचहरी के भवन पर तिरंगा फहराते बारहवर्षीय बालक ध्रुव कुंदू की शहादत, पूर्णिया जिले के रूपौली कस्बे के सैकड़ों लोगों की कुर्बानियों तथा फिरंगियों की दुरंगी नीति की साम्प्रदायिक आग में धू-धूकर जलती इन्सानियत को बड़ी शिद्दत से याद करते हुए कवि ने लिखा- ‘‘हजारों युवतियों ने माँग के सिन्दूर धोए! उगा जिसदिन हमारे देश का आजाद पौधा/ उसी दिन मर गयी मिट्टी/ कहो यह व्यंग्य कैसा?/ सिर्फ जिन्दी रही तू/ हिमालय की कसम/ मरती हुई इंसानियत को हम/ जिला रखेंगे मरते दम/….तिरंगे की कसम/ रक्षा करेंगे हम।’’ (वही/386-87)

गुलाम भारत का कवि पहले आजादी की बात करता है, फिर आजाद होने के बाद उसकी हरतरह से रक्षा का संकल्प लेता है। ऐसे में जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘स्कन्दगुप्त’ के पंचम अंक के पाँचवें दृष्य में आगत अभियान-गीत की अन्तिम पंक्तियाँ याद आ रही हैं- ‘‘जियें तो सदा उसी के लिये, यही अभिमान रहे, यह हर्श।

निछावर कर दें हम स्र्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष।’’

कवि रेणु की देशभक्ति तनिक समाजवादी रंग में रंगी हुई है, बस।

9 अगस्त, 1949 को, ‘नई दिशा’ (साहित्यिक पत्रिका) में प्रकाशित कविता ‘मिनिस्टर मँगरू’ परिहासात्मक शैली में लिखी गयी है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के दो साल भी नहीं बीते थे कि देश के मन्त्री भ्रष्टाचार में लिप्त हो गये। अँगरेजों के जमाने के सारे दुख-दर्द भूलकर जनविरोधी कार्य करने लगे। एकतरह से यह आजादी से मोहभंग की कविता है।

मिनिस्टर मँगरू से पूछे जाने पर वह अपनी दिनचर्या बताता है-

‘‘सदा रखते हैं करके नोट सब प्रोग्राम मेरा भी।

कि कब सोया रहूँगा औ’ कहाँ जलपान खाऊँगा।

कहाँ ‘परमिट’ बेचूँगा, कहाँ भाषण हमारा है,

कहाँ पर दीन-दुखियों के लिए आँसू बहाऊँगा।

…..  …..  …..  …..  …..  …..  …..

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मुझे मालूम है कुछ गुर निराले दाग धोने के,

‘अहिंसा लाउंड्री’ में रोज मैं कपड़े धुलाता हूँ। (वही; पृ. 390)

(ख) विदेशी राजनीति-विषयक कविताएँ:

इस श्रेणी में बाँगलादेश के ‘मुक्तियुद्ध और योद्धा से जुड़ी कविताएँ आती हैं। रेणु ने इस दृष्टि से तीन कविताएँ रची हैं, जो इस प्रकार हैं – ‘अग्रदूत’, ‘खून की कसम’ तथा ‘रुद्रशिव’।

21 फरवरी, 1971 को रचित ‘अग्रदूत’ शीर्षक कविता के केन्द्र में पूर्वी पाकिस्तान (बाँगलादेश का तब यही नाम था।) से विस्थापित एक सर्वहारा है। भारत के उस शरणागत ने जब अपने रुँधे कण्ठ से यह कहा कि ‘हमारा सबकुछ चला गया, तब ढाढ़स बँधाते हुए रेणु के जनवादी कवि ने कहा –

‘‘देश को ‘माँ’ के रूप में देखा है न?/ तुम्हारा सब सुरक्षित है/ अन्याय के/ दिव्य प्रतिवाद से ही जीवन जलता है/….देश के लिए /प्राण देने को ही प्रस्तुत/ तुम्हीं तो हो अग्रदूत/ फिर भी कहते हो- / सबकुछ चला गया हमारा!’’ (वही; 411)

क्वि ने यह संदेश देना चाहा है कि अन्याय-अत्याचार के विरोध में अपना सर्वस्व गँवानेवाला भी कभी सर्वहारा नहीं होता। वह अग्रदूत होता है।

13 अप्रैल, 1971 को लिखित ‘खून की कसम’ कविता के केन्द्र में मुक्तियोद्धा बंगबन्धु मुजीबुर्रहमान है। कवि को तमाम मुतियोद्धाओं से सहानुभूति है। कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं- ‘‘कभी भी मर सकता वह नहीं/ तुम्हारा बेटा वीर मुजीब/ शत्रु खुद हो जाएँगे क्षार- / मुक्ति का दिन है बहुत करीब ।/…होंठ पर ‘जय बांगला का गान/ चले हम करने को निर्मूल/ दुष्मनों के सारे अभियान!’’ (वही/413)

ये दोनों कविताएँ रेणु के निधनोपरान्त रविवार (3-9 मार्च, 1985 में प्रकाशित हुई थीं। इनसे कवि के वैष्विक दृष्टिकोण और समझदारी का पता चलता है।

इस तरह, रेणु की उपरिविश्लेशित राजनीतिमूलक कविताओं के मुख्य दो स्वर हैं – स्वदेशाभिमान तथा भ्रष्ट नेतृत्व की भत्र्सना।

3-9 मार्च, 1985 के ‘रविवार’ में प्रकाशित, किन्तु मई, 1971 में रचित ‘रुद्रशिव’ का वर्ण्य विषय भी बांग्लादेश का मुक्तियुद्ध ही है। देखिए-

‘‘ओ लुटेरो!/ लूट सकते हो नहीं तुम देश/ नहीं अब चाल कोई/ चल सकेगी/ वंग-भू पर/ तुम्हारा जाल भ्रम का। हो चुका है दूर।

ये सारी राजनीति-विषयक कविताएँ प्रमाणित करती हैं कि फणीश्वरनाथ रेणु को देश-विदेश की गहरी राजनैतिक समझ थी।

  1. व्यक्तिगत तथा सामाजिक कविताएँ:

रेणु की एकमात्र व्यक्तिगत कविता ‘मेरा मीत सनीचर’ है तो सामाजिक कविताओं में ‘खड्गहस्त’, ‘मालिक! आज माफ करो!’, ‘नदी-मातृक देश के जलजीवी सपूत’ इत्यादि।

फरवरी, 1973 की बाल-पत्रिका ‘नन्दन’ में प्रकाशित ‘मेरा मीत सनीचर’ रेणु की बाल्य-कैशोर्यकालिक स्मृतियों पर आधारित प्रौढ़ कविता है। कविता के केन्द्र में उनका बाल्यकालिक मित्र सनीचर है। वह मिड्ल भी नहीं पास कर सका था। इन दिनों अपने ठेकेदार मित्र ‘जोगिन्दर’ के साथ ‘हाजिरी बाबू’ का काम करता है। किशोरावस्था में सब नाटक खेला करते थे। आज भी नाटकों से शौक बना हुआ है। साहित्यकार के रूप में देश-दुनिया में प्रतिष्ठित हो चुके गुणी मित्र ‘फणीसर’ (फणीश्वरनाथ) से किसी नाटक या फिल्म में रोल की याचना करता है-

‘‘भले भाग से मिले दोस्त तो एक अरज करता हूँ

….       …..       …..       …..

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अगर किसी से कहकर कोई पाट दिला दो एक बार भी।’’

उसे इस बात का दुख है कि आज नाटक में द्रौपदी, यानी औरत का रोल औरत ही करने लगी है। अपने जमाने में तो पुरुष को ही स्त्री की भूमिका करनी पड़ती थी।

कवि को किशोरावस्था में उसके द्वारा निभाई गयी कौरव-सेनानी वाली भूमिका का स्मरण हो आता है, जब वह बीच में ही अपना संवाद भूल गया था। उसे मंच पर मरना था लेकिन, अचानक वह यह कहते हुए उठ खड़ा हुआ-

‘‘नहीं रहेंगे हम कौरव संग, ले लो अपना पाट,

सभी मुझे जीते-जी ले जाएँगे मुर्दा-घाट।

कविता में उसके द्वारा बोले गये शब्दों ; जैसे- लाइब्रेरी के लिए ‘रायबरेली’, मैला आँचल के लिए ‘मेला चल’ का प्रयोग कर स्वाभाविकता का पुट डाला गया। कैसे छात्रावास से भाग-भाग कर रेणु जी नाटक, मेला आदि देखा करते थे, मित्र के मुँह से इसका भी खुलासा कराया है।

ट्रेन से लौट रहे मित्र से मिलने आए ‘सनीचर’ को ‘कुरसेला’ में ही उतरना था। गप के दौरान पता ही नहीं चला। अब उन्हें अगले स्टेशन पर उतरकर थर्टी डाउन ट्रेन से शाम होते लौटना होगा, ताकि कामगारों की सायंकालीन हाजिरी ले सकें।

लरिकाई की बातें कितनी स्वाभाविक और न भुलाने योग्य होती हैं, साथ ही, मित्रता में कहीं कोई गाँठ नहीं होती। यह कविता इसे भलीभाँति प्रमाणित करती है।  कवि ने कविता की शुरुआत में ही इसकी मुनादी कर रखी है-

‘‘ पद्य नहीं यह, तुकबन्दी भी नहीं, कथा सच्ची है,

कविता-जैसी लगे भले ही, ठाठ गद्य का ही है। (वही/416)

फणीश्वरनाथ रेणु समाजवादी विचारधारा के प्रतिबद्ध साहित्यकार थे। उन्होंने न केवल तत्कालीन समाजवादी आन्दोलनों में बढ़-चढ़कर भाग लिया, बल्कि अपने साहित्य में अनूदित भी किया। रेणु-रचनावली-5 में संगृहीत उनकी कविताएँ इसकी साक्षी हैं।

26 मार्च, 1948 को साप्ताहिक ‘राष्ट्रसंदेश’ (पूर्णिया) से प्रकाशित कविता ‘खड्गहस्त!’ का स्वर न्यायपूर्ण सामाजिक वर्ग-चेतना की उपज है। समाज का यह श्रमजीवी वर्ग अपने लिए थोड़े से अन्न और प्यार की माँग करता है उसे न तो जातीय पचड़े में पड़ना है और न ही धार्मिक बन्धन में। उसे तो, बस, अपना उजड़ा हुआ संसार बसाना है। देखिए –

‘‘रक्खो अपना धरम-नियम अब

डोल रही है नींव तुम्हारी

वर्ग हमारा जाग चुका अब

हमें बसाना है फिर से अपना उजड़ा संसार

दे दो हमें अन्न मुट्ठीभर औ’ थोड़ा-सा प्यार।

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1 अप्रैल, 1979 को ‘सारिका’ के रेणु-स्मृति अंक में प्रकाशित ‘मालिक! आज माफ करो।’ शीर्षक कविता भी उत्तर बिहार के खेतिहर मजदूर पर केन्द्रित है। उसने घोषणा कर रखी है कि आज मैं काम पर नहीं जाऊँगा। आज तो मैं अपनी गर्भवती पत्नी की ख्वाहिश पूरी करने के लिए मछलियों का शिकार करने जाऊँगा। उसकी इच्छा मछली-भात खाने की है। मेरी पत्नी छोटे आदमी की घरवाली है। इसलिए, उसकी इच्छा भी छोटी-छोटी होती है। वह मिथिलेश जनक की पुत्री और राजा रामचन्द्र की पत्नी तो है नहीं कि स्वर्णमृग के चर्म की इच्छा रखे। मेरे घर में इस समय उसकी इच्छापूर्ति के लायक डेढ़ सेर चावल और पिछवाड़े की लत्ती से लटका हुआ एक कद्दू है।

यह कविता एकसाथ दोनों वर्गों को निशाना बनाती है। घर में जबतक पेट भरने लायक अनाज हो तो मजदूर अपने को किसी जमीन्दार से कम नहीं समझता। दूसरी तरफ जमीन्दार के चारित्रिक वर्ग की सांकेतिक अभिव्यक्ति भी हुई है।

‘नदी-मातृक देश के जलजीवी सपूत’ की रचना 25 फरवरी, 1971 को हुई थी। किन्तु, इसका प्रकाशन उनके निधन के कई बरसों बाद ‘रविवार’ के 3-9 मार्च, 1985 वाले अंक में हुआ।

‘जलजीवी सपूत’ में कवि का आशय यहाँ मल्लाहों, केवटो से है, जिनकी जिन्दगी नदी और नाव है। नदियों में ममतामयी माँ की छवि देखने की परम्परा भारत में रही है। इसी भावना की निव्र्याज अभिव्यक्ति इन पंक्तियों में देखी जा सकती है –

‘‘माँ को छोड़ घोर दुर्दिन में/ हम कहीं नहीं जा पाएँगे/ बार-बार विभिन्न नाम ग्रहण कर/तुम्हारी ही गोद में हमें आना है/तुम्हारी एक ही पुकार पर/ सारी किश्तियाँ/ तुम्हारे ही घाट पर आ लगेंगी-/नदी-मातृक देश के जलजीवी सपूत/ रणबाँकुरों के वेश में आएँगे।’’

इस तरह, रेणु की ये कविताएँ खेतिहर मजदूरों, नदीजीवी केवटों, छोटे किसानों-जैसे बिलकुल आमजनों की दुखसुखात्मक भावनाओं की मुखर अभिव्यक्तियाँ हैं।

  1. प्रकीर्णक:

रेणु की जो कविताएँ उपरिविश्लेशित कोटियों में नहीं आ सकीं, उन्हें प्रकीर्णक, अर्थात् अन्यान्य में रखा गया है। ऐसी कविताओं के शीर्षक हैं- ‘ कौन तुम वीणा बजाते?’, ‘निवेदन’, ‘प्रथम शीत स्पर्श’, ‘फर्जी-अर्जी’, ‘सुंदरियो’, ‘बहुरूपिया’, ‘जित्तू बहरदार’ तथा ‘इमर्जेंसी’।

जुलाई, 1948 के ‘विशाल भारत’ में प्रकाशित कविता ‘कौन तुम वीणा बजाते?’ का मिजाज छायावादी-रहस्यवादी है। जिसतरह सुमित्रानन्दन पन्त का कवि ‘मौन निमन्त्रण’ कविता में अज्ञात सत्ता से प्रश्न-पर-प्रश्न करता चला जाता है, उसीतरह रेणु का कवि भी प्रश्नों की झड़ी लगा देता है; जैसे- ‘‘कौन तुम वीणा बजाते?/ कौन उर की तंत्रियों पर/ तुम अनश्वर गान गाते?’’

नलिन विलोचन शर्मा के सम्पादन में प्रकाशित पत्रिका कविता, अंक-2, फरवरी, 1956 में रेणु की ‘निवेदन’ शीर्षक कविता छपी थी। यह कविता हमें बरबस अषोक वाजपेयी के कविता-लोक में ले जाती है।

कविता के केन्द्र में एक अश्रुस्नाता पुजारिन है, जो सबेरे-सबेरे हरसिंगार के फूल चुनकर मंदिर में विराज रहे देवताओं को चढाने चली जाती है। पाद्-पद्मों में झुकी गर्दन को बाहु-वलय में समेटकर मंदिर के देवताओं ने कहा कि तुम्हारी पूजा तो सुबह ही हो चुकी है, जब तुम हरसिंगार के फूल चुन रही थी। विश्वास न हो तो अपनी इन लहरदार लटों में अटके पड़े इन दो टटके फूलों से पूछ लो।

कविता के स्वर व्यंग्यात्मक हैं। कवि ने अत्योक्ति का सहारा लिया है।

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रेणु की ‘प्रथम शीत स्पर्श’ नामक कविता भी नलिनजी द्वारा संपादित कवितामूलक पत्रिका ‘कविता’ (फरवरी, 1956) में छपी थी। इस कविता में कवि ने शरदकालीन चाँदनी में नहाई रात में पड़नेवाली पहली-पहली ठंडक की अनुभूति को रागात्मक अभिव्यक्ति दी है- ‘‘रजनीगंधा की प्यालियाँ छलक गईं- सुबह को- मुरेड़े पर…./ -नहाई/ बाल विधवा युवती-पवित्रा, / कोकटी रंग की धूप तापती/ धरती की चदरी पर बिखेरे-/ मोतियों को ताकती/ बोली- / ‘‘एक चदरी भर दी शरदी पड़ गयी – दीदी।/….अन्नकूट के पहले/ ही।’’ (वही/399)

कविता में प्राकृतिक वितान के नीचे मानवीकरण और सादृष्यविधान की मनोरम छटा रेणु को समर्थ कवि सिद्ध करती है।

नूना माँझी के छद्मनाम से ‘ज्योत्स्ना’ के सितंबर, 1960 में प्रकाशित कविता ‘फर्जी-अर्जी?’ रूप की दृष्टि से प्रयोगात्मक रचना है; जैसे- ‘‘(सुनियेगा इक) अरज है!/ गरज है।! करज है/(यह मत समझें) गरज है। (खाते में मेरा नाम) दरज है/ (चूल्हा आज) सरद है/ (घरवाली को) दरद है,/…… (हें-हें, हें-हें, हें-हें किरपाकर फिर ) करज दें करज दें/’’ (वही/406)

छोटे-छोटे शब्दों से बनी-बुनी यह रचना करुणात्मक व्यंग्य का काव्यात्मक उदाहरण है, अर्थात् थोडी लाचारी, थोड़ी बेशर्मी। इसमें आप तत्कालीन कर्जखोर भारत का अक्स भी देख सकते हैं।

‘सुदरियो!’ (1 अप्रैल, 1979 को ‘सारिका’ के रेणु-स्मृति-अंक में प्रकाशित) कविता में कवि ने खूबसूरत नर्तकियों को कामातुर हो निहारने वाले शराबी की पोल खोली है तो ‘बहुरूपिया’ (1 अप्रैल, 1979 को ‘सारिका’ रेणु-स्मृति अंक में प्रकाशित) कविता में बहुरूपिया के प्रति लोगों के अस्वस्थ दृष्टिकोण की; जनवरी, 1976 में रचित तथा रेणु-रचनावली-5 में संकलित मैथिली कविता (डॉ. चन्द्रेश्वर कर्ण द्वारा हिन्दी में अनूदित) ‘जित्तू बहरदार’ हल्की-फुल्की रचना है तो 21 जून, 1977 को ‘धर्मयुग’ मे प्रकाशित कविता ‘इमर्जेंसी’ सरकारी अस्पताल के इमर्जेंसी-वार्ड का आँखों देखा हाल-

‘‘रोज का यह सवाल, ‘कहिए! अब कैसे हैं?

रोज का यह जवाब- ठीक हूँ। सिर्फ कमजोरी

थोड़ी खाँसी और तनिक-सा…यहाँ पर …..मीठा-मीठा दर्द!

इमर्जेंसी वार्ड की ट्रालियाँ

हड़बड़-भड़भड़ करती

ऑपरेशन थियेटर से निकलती है- इमर्जेंसी!

सैलाइन और रक्त की

बोतलों में कैद जिन्दगी।’’ (वही, पृ. 480)

इस तरह, रेणु की ये विविधरसीय तथा विविधरूपीय कविताएँ न केवल उनके व्यक्त्तित्व से हमारा साक्षात्कार कराती हैं, अपितु अपने समय व समाज पर बेबाक टिप्पणी भी करती हैं। ये रचनाएँ न सिर्फ मनःप्रसादन करती हैं, बल्कि मनःप्रबोधन भी। इन रचनाओं में छांदस् अनुशासन मिलता है तो उससे मुक्ति की पुकार भी।

bahadur mishra

लेखक समालोचक, अनुवादक, तथा तिलका माँझी भागलपुर विश्वविद्यालय के मानविकी संकाय के अध्यक्ष हैं।

samved

साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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