संघर्ष की जद्दोजहद और सौंदर्य की चाहत (लाल पान की बेगम)
सुप्रसिद्ध चित्रकार नंदलाल बोस का चर्चित चित्र ‘दो मुर्गों की लड़ाई’ देख कर रेणु जी को लगा था कि रेखाओं के जरिये मुर्गों और माहौल को कुछ इस प्रकार भी चित्रित किया जा सकता है कि उसकी फड़फडाहट तक सुनी जा सकती है। ऐसे में, रेणु जी को यह अहसास हुआ कि जब एक चित्रकार केवल रेखाओं के जरिये ध्वनि का प्रभाव उत्पन्न कर सकता है तो शब्दों से समर्थ लेखक ऐसा क्यों नहीं कर सकता? यही प्रभाव ‘लाल पान की बेगम’ कहानी में उत्पन्न करने की कोशिश की गयी है जिसमें ग्रामीण जीवन के विविध रंगों के साथ उसकी धड़कनों व ध्वनियों को साफ-साफ सुना जा सकता है। फणीश्वर नाथ रेणु की क्लासिक कहानियों में ‘लाल पान की बेगम’ भी है। यह कहानी पहली बार इलाहाबाद से निकलने वाली ‘कहानी’ पत्रिका के 1957 ई. के जनवरी अंक प्रकाशित हुई थी। 1959 में प्रकाशित फणीश्वर नाथ रेणु के कथासंग्रह ‘ठुमरी’ की यह आठवीं कहानी थी। इसमें उनकी कहानी-कला का उत्कर्ष दिखाई पड़ता है। यह कहानी इतनी लोकप्रिय तथा प्रसिद्ध हुई है कि अनेक भाषाओं में इसके अनुवाद हुए हैं।
‘लाल पान की बेगम’ कहानी की बागडोर मुख्यतः स्त्री पात्रों के हाथ में है। यथा, बिरजू की माँ, चंपिया, सुनरी, मखनी फुआ, जंगी की पतोहू, राधे की बेटी तथा लरैना ख्वास की पत्नी। कहानी की केंद्रीय पात्र ‘बिरजू की माँ’ है। पुरूष पात्रों में एक ‘बिरजू के बप्पा’ है और दूसरा ‛बिरजू’ मात्र है। पुरुष पात्र के रूप में ‛बिरजू के बप्पा’ के समस्त क्रियाकलाप ‛बिरजू की माँ’ से ही निर्धारित होते हैं। उसकी प्रभावी भूमिका को सर्वे-सेटलमेंट के मामले को निपटाने से लेकर नाच देखने के लिए बैलगाड़ी का इंतजाम करने तक में देखा जा सकता है। सभी महिला पात्रों की विशेषताओं को अलग-अलग ध्वनियों, आवाजों, बोलने के लहजों से पकड़ा जा सकता है। पात्रों के स्पीच कोड से उसकी चरित्रगत विशेषताएँ प्रकट हो जाती हैं।
रेणु जी ने ‘लाल पान की बेगम’ में सिर्फ जिन्दगी का एक टुकड़ा ही नहीं पेश किया है बल्कि उसके पीछे इस गहरे यथार्थ की ओर इशारा भी किया है। उत्सव मनाने के लिए उत्सवधर्मिता का भी एक भौतिक आधार होता है और उस आधार के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। जमींदारों के विरूद्ध संघर्ष कर पहले जमीन हासिल होती है। उस जमीन की फसल से बैल खरीदे जाते हैं। जब बैल हो जाते हैं फिर उसी बैलगाड़ी से नाच देखने जाया जाता है। जमीन के लिए किया गया संघर्ष ही उन्हें इस काबिल बनाता है कि वे नाच के सौंदर्य का लुत्फ उठा सकें। स्त्री के संघर्ष की जद्दोजहद तथा सौदर्य की चाहत दोनों पहलुओं का प्रतिनिधित्व ‘बिरजू की माँ’ करती है। वह जमीन लेने के लिए अपने पति को प्रेरित करती है और ललकारती भी है। साथ ही नाच देखने जाने के लिए भी उसे बैलगाड़ी के इंतजाम करने को कहती है। इस प्रकार वह संघर्ष और सौंदर्य की दोनों कड़ियों को जोड़ने वाली केंद्रीय पात्र है। इस लिहाज से ‛बिरजू की माँ’ हिंदी कहानी में एक सशक्त व स्वतंत्र स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती है।
ग्रामीण समाज में मनोरंजन के एकमात्र स्रोत नाच देखने की सहज व स्वाभाविक उत्कंठा को रेणु जी ने कहानी का आधार बनाया है। लेकिन उसी बहाने गांव का पूरा परिवेश उभर कर सामने आ जाता है। आपसी अंतर्विरोधों, अभावों, तकलीफों के बावजूद नाच के प्रति लालसा उन सभी महिला किरदारों को एक सूत्र में बांधती है। ग्रामीण सामाजिक जीवन में लड़ाई-झगड़े, ईर्ष्या-द्वेष, कुढ़न-जलन के बावजूद एक आत्मीय रिश्ता कायम रहता है। रेणु जी ने इस कहानी में ग्रामीण जीवन के उन यथार्थ सम्बन्धों को भी चित्रित करने का प्रयास किया है। तमाम कठिनाइयों के बावजूद जीवन में उत्साह व उसका राग-रंग बचा रहता है। दरअसल, नाच देखने जाना उसी की अभिव्यक्ति है।
‘लाल पान की बेगम’ में बिरजु की माँ की बहुत छोटी-सी इच्छा है। वह अपनी बैलगाड़ी में बैठकर नाच देखने जाना चाहती है। कहानी इस वाक्य से उठती है कि ‛बिरजू की माँ नाच देखने नहीं चलोगी?’’ लेकिन बिरजू का बप्पा बैलगाड़ी लेकर नहीं आया है और नाच देखने की बेला गुजरी जा रही है। इंतजार करते-करते बिरजू की माँ खीझ रही है। ऐसे में, गांव की वृद्ध विधवा महिला मखनी फुआ पूछती है ‘‘बिरजू की माँ नाच देखने नहीं चलोगी?’’ तो बिरजू की माँ उसपर अपना खीझ प्रकट कर देती है कि उस विधवा औरत की तरह उसके ‘आगे नाथ न पीछे पगहा’ वाली बात नहीं है। ये बात वृद्ध विधवा को इतनी बुरी लगती है कि गांव की दूसरी स्त्रियों से अपने पक्ष में समर्थन जुटाने का प्रयास करती है। ‘बिरजू की माँ’ अन्य महिलाओं के लिए ईष्या व द्वेष की सबब है। ‘टीशन किनारे की रहने’ वाली शोख जंगी की पतोहू मखनी फुआ के समर्थन में उतर कर बिरजू की माँ पर ताना मारते हुए व्यंग्यात्मक लहजे में कहती है ‘‘ फुआ-आ! सरबे सित्तलमिर्टी ( सर्वे सेटलमेंट) के हाकिम के बासा पर फूलछाप किनारीवाली साड़ी पहन के तू भी भंटा की भेंट चढ़ाती तो तुम्हारे नाम भी दु-तीन बीघा धनहर जमीन का पर्चा कट जाता! फिर तुम्हारे घर पर भी आज दस मन सोनाबंग पाट होता, जोड़ा बैल खरीदता! फिर आगे नाथ और पीछे सैकड़ों पगहिया झुलती।’’
‘लाल पान की बेगम’ में बीसवीं सदी के ओछास के दशक में हुए सर्वे सेटलमेंट की बात आती है। ज्ञातव्य हो कि बिहार जमींदारी उन्मूलन करने वाला देश का पहला राज्य बनता है। क्रांतिकारी किसान नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती के जमींदार विरोधी आन्दोलनों ने वह जमीन तैयार की जिसमें पिछड़े, दलितों, भूमिहीनों के लिए जमींदारों के समक्ष खड़ा होने की हिम्मत पैदा हुई। कहानी में जमींदारों की रणनीति बखूबी सामने लाने का प्रयास किया गया है। जमींदार का बड़ा बेटा घर में आग लगाने की धमकी देता है। लेकिन जमींदार विरोधी आन्दोलनों ने पिछड़े तबकों पर ऐसा गहरा असर डाला है कि जमींदार की यह धमकी बेअसर रह जाती है। तब जमींदार का दूसरा बेटा सामने आता है जो बिरजू की माँ को विनम्रता से ‘मौसी’ कह कर संबोधित करता है। वह उसे समझाने का प्रयास करता है कि जिस तीन बीघे जमीन के लिए झंझट है, दरअसल उसी से उसकी पढ़ाई का खर्च निकलता है। बिरजू की माँ जमींदारों के इन तौर-तरीकों से भलीभांति परिचित है। लिहाजा जमींदारों की दोमुंही तरकीबें काम नहीं आतीं।
बिरजू की माँ कहती है ‘‘बिरजू के बप्पा ने तो पहले ही कुर्मीटोली के एक-एक आदमी को समझाकर कहा, जिन्दगी भर मजूरी करते रह जाओगे। सर्वे का समय आ रहा है, लाठी कड़ी करो तो तीन बीघे जमीन हासिल कर सकते हो।’’ लेकिन ‘‘गांव की किसी पुतखौकी का भतार सर्वे के समय बाबू साहेब के खिलाफ खांसा भी नहीं।… बिरजू के बप्पा को कम सहना पड़ा है! बाबू साहेब गुस्से से सरकस नाच के बाघ की तरह हुमड़ते रह गए।’’ यहां ध्यातव्य है कि बिरजू की माँ ने जमींदार यानी ‘बाबू साहेब के गुस्से’ की उपमा ‘सर्कस के नाच के बाघ के हुमड़ने’ से की है। यानी अब जमींदार पहले की तरह खूंख्वार नहीं रहा, अब वह महज़ सर्कस का पालतू बाबू साहेब है। यह परिवर्तन आया है जमींदारों के विरूद्ध चले किसान आन्दोलन के आवेग और ‘लाठी कड़ी’ करने से। किसान आन्दोलन का नारा भी था ‘‘लट्ठ हमारा जिंदाबाद!’’ सर्वे-सेटलमेंट की प्रक्रिया, दरअसल उसे कानूनी रूप देने का हिस्सा है।
बिरजू का ‘बप्पा’ तो बेचारा भोला-भाला ‘गोबरगनेश’ है, वह छलकपट नहीं जानता है। उसका सीधा-सपाटा होना उसे बाबू साहेब के खिलाफ जाने से रोकता है। वह रह-रह कर निराश हो उठता है ‘‘मुझे जमीन नहीं लेनी है बिरजू की माँ, मजूरी ही अच्छी।’’ लेकिन बिरजू की माँ अपने पति के स्वाभिमान को, पारंपरिक कहावत का सहारा ले, ललकारती है ‘‘जोरू-जमीन जोर के, नहीं तो किसी और के!….’’ अंततः बिरजू का बप्पा जमीन हासिल करने में सफल होता है। लेकिन बाकी गांव के लोग भूमिहीन ही रहे। वे इस अवसर का फायदा नहीं उठा सके। जमींदार के विरूद्ध खड़े होने की हिम्मत वे न जुटा सके। जमीन प्राप्त करने के लिए अपने पति को ललकारने में बिरजू की माँ प्रेरक, निर्णायक व मुख्य शक्ति बनती है।
जमीन हासिल करने के पीछे ‛बिरजू की माँ’ की निर्णायक भूमिका से गांव की सभी स्त्रियां वाकिफ हैं। लेकिन बिरजू की माँ की बुद्धि़मानी के बजाय गांव में चर्चा इस बात पर होती है कि कैसे सर्वे-सेटलमेंट अफसरों को प्रसन्न कर बिरजू की माँ ने वह जमीन हासिल की है। आधी रात को घोड़े के नाल की टाप का सुनायी देना, भक-भक बत्ती जलना अदि बातें जलन व डाह से कही जाती है। भूमिहीन घर की महिलाओ में भूमि की मालकिन बिरजू की माँ के प्रति जलन को इन शब्दों से समझा जा सकता है। ‘दो बच्चों की माँ होकर भी जस की तस है। उसका घरवाला उसकी बात में रहता है। वह बालों में गरी का तेल लगाती है। उसकी अपनी जमीन है।’’ ग्रामीण समाज के एक बेहद पेचीदा परिघटना को रेणु जी ने सामने लाने का प्रयास किया है। बिरजू की माँ व उसके पति ने जमींदार के सामने खड़ा होकर तीन बीघे जमीन हासिल की। ज्यादा संभव है कि वे लोग जमींदार की भूमि पर खेती करते हों। ‘जमीन किसकी, जोते उसकी’ जैसे नारे तथा तय सीमा के अंदर यदि काश्तकार को नहीं हटाया गया तो उसका कानूनन हक बनता है। यानी उसका ‘मौरूसी हक’ हो जाता है। लगता है सर्वे-सेटलमेंट के अधिकारियों ने इस आधार पर उसे जमीन उसे दी हो। लेकिन बिरजू की माँ की बुद्धिमानी, साहस के बजाय जमीन मिलने में उसकी सुंदरता की ओर ग्रामीण महिलाओं का इशारा दरअसल ईर्ष्या का सबब है कि बिरजू की माँ और उसके पति के कहने के बावजूद कुर्मी-कोईरी टोली के लोग जमींदार के खिलाफ आवाज न उठा सकें। अब बिरजू की माँ की सफलता को कैसे कमतर साबित किया जाए।
संभव है, जमींदारों ने ही यह आख्यान चलाया हो कि बिरजू की माँ ने दरअसल अपनी सुंदरता का इस्तेमाल कर वह जमीन हासिल किया है जिसमें उसके चरित्र को लेकर संकेत हैं। संभव है कि जमींदारों के दृष्टिकोण को ही बाकी पिछड़ी जातियों के लोग अंगीकार कर चुके हों। ग्राम्शी की विचारधारात्मक वर्चस्व की अवधारणा से इसे समझा जा सकता है। यानी आपने भले ही मेरे खिलाफ लड़ाई लड़ी हो, आपके प्रति नैरेटिव मेरा प्रचलित होगा। अन्यथा एक के साहस की गाथा दूसरों के लिए मॉडल न बन जाए और जमींदारों के प्रति इक्का-दुक्का आवाज उठाने वालों की संख्या बढ़ न जाए। ग्रामीण समाज में ऐसा खूब होता है। स्वतंत्र मिजाज की स्त्रियों का मुकाबला करने के लिए उसके चरित्र के प्रति शंकालु दृष्टिकोण पेश करना उसका पुराना हथियार रहा है। जंगी बहू द्वारा व्यंग्य व कटाक्ष को इसी संदर्भ में समझा जाना चाहिए।
अंत में बैलगाड़ी पर सभी महिलाएँ सज-संवर कर नाच देखने जाती हैं। ‘बिरजू की माँ’ सब गिले-शिकवे भूल कर सभी स्त्रियों – जंगी की बहू, लरैना बहू, सबों को बैलगाड़ी में बिठाती है। मखनी फुआ घर की रखवाली करती है। समय काटने के लिए उन्हें तंबाकू दे दिया जाता है। चांदनी रात है। कहानी में जंगी बहू व चंपिया द्वारा ‘चंदा की चांदनी’ गाने का जिक्र है। ये ‘पूनम’ फिल्म का गाना है। इसके शेष बोल हैं – चंदा की चांदनी में /झूमे-झूमे दिल मेरा/ जीने का ढ़ंग आया/ लेकर उमंग आया/ किरणों के दीप जले/गीतों को संग लाया/ चंदा की चांदनी में झूमे-झूमे दिल मेरा। बिरजू की माँ ‘चंदा की चांदनी’ गीत सुनते-सुनते सोने लगती है। उसका मन संतोष से भरा है।
जमींदारबाबू साहेब की धमकी से बगैर डरे, उनके सामने खड़ा होकर अपना हक हासिल करने से लेकर नाच देखने जाने के इंतजामात का नेतृत्व भी बिरजू की माँ ही करती है। जमींदार से संघर्ष और नाच देखने जाने की आजादी के मध्य गहरा रिश्ता है। जमीन पर अधिकार की वजह से ही बिरजू के ‘बप्पा’ के पास एक जोड़ी बैल संभव हो पाया है। खेती के लिए इन बैलों की आवश्यकता पड़ती है। खेती की ये जमीन उसने जमींदार से यूं ही नहीं मिली है। काफी कुछ झेलना पड़ा है उसे। यदि वह जमींदार के सामने तन कर खड़ा नहीं होता तो उसे जमीन नहीं मिलती। चंद बीघे जमीन न होती तो बैल होने का भी सवाल खड़ा नहीं होता। इसी जमीन की खेती से प्राप्त फसल को बेच कर बैल खरीदे जाते हैं। बिरजू की माँ कहती भी है ‘‘पाट का दाम भगत के यहां से ले कर बाहर ही बाहर बैल-हट्टा चले गए। बिरजू की माँ को एक बार भी नमरी लोट देखने नहीं दिया। आँख से… बैल खरीद लाए। उसी दिन से गांव में ढिंढोरा पीटने लगे, बिरजू की माँ इसबार बैलगाड़ी चढ़कर जाएगी नाच देखने ….. दूसरे की गाड़ी के भरोसे नाच दिखाएगा।’’ यह बात जंगी बहू ने भी बिरजू की माँ पर व्यंग्य करते हुए कहा था कि धनहर जमीन के पैसे से ‘जोड़ा बैल’ खरीदे जाने की बात कही थी।
यही बैलगाड़ी, नाच देखने जाने का मुख्य माध्यम है। नाच का स्थल दूर है और इसीलिए रात्रि वेला में वहां जाना बैलगाड़ी के बगैर संभव नही है। चुंकि बिरजू की माँ बैलगाड़ी का इंतजाम कर सकती है तभी नाच देखने का सपना पूरा भी हो पाएगा। इस तथ्य से सभी स्त्रियां वाकिफ हैं। बबुआन टोले के बैलगाड़ी जैसे ‘झुनुर-झुनुर’ करती जाती है, वैसे ही बिरजू की माँ की बैलगाड़ी भी ‘टुनुर-टुनुर’ करती जाएगी। नाच देखने जाते समय बैलगाड़ी के पहिए की ‘चूं-चूं’ आवाज
गरीब लोगों की बैलगाड़ी के पहिए में नियमित तेल न डाले जाने के कारण निकलती है। रेणु जी ने इन ध्वनि बिंबों के जरिये समाज के जातीय व वर्गीय विभाजनों की ओर संकेत किया है।
जब नाच देखने की बिरजू की माँ के मन की अभिलाषा पूरी होने लगती है तो उसके मन में वैर-भाव और गिला-शिकवा भी दूर हो जाती है। इस कहानी में ताश के 52 पत्तों में ‘लाल पान की बेगम’ एक सुंदर, आकर्षक, कुशल, जिम्मेवार गृहणी, स्नेहमयी माँ, संघर्ष के साथ समन्वय कर चलने वाली स्त्री के प्रतीक रूप में प्रयुक्त हुई है। सचमुच यह प्रतीक बिरजू की माँ के चरित्र में फलीभूत हुआ है। इस कहानी को पढ़ते हुए पाठकों को ऐसा प्रतीत होता है कि वे कहानी को पढ़ नहीं रहे हैं बल्कि देख रहे हैं। नामवर सिंह ने रेणु के बारे में सच ही कहा है कि रेणु कलम से कैमरे का काम लेने वाले रचनाकार हैं।
अनीश अंकुर
पिछले तीन दशकों से रंगमंच में सक्रिय। पटना की चर्चित नाट्य संस्था ‘अभियान सांस्कृतिक मंच’ से जुड़ाव। कई पत्र-पत्रिकाओं एवं वेबसाइटों के लिए नियमित लेखन।
सुप्रसिद्ध समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा के साक्षात्कार पर आधारित पुस्तिका ‘ वर्तमान विकास में मुक्ति के प्रश्न’, अनुज्ञा प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित।
सम्पर्क: +918708973726, anish.ankur@gmail.com
205 , घरौंदा अपार्टमेंट, पश्चिम लोहानीपुर, कदमकुआं, पटना-800003