रचना प्रक्रिया
एक अलक्षित कथाकार की दुनिया से गुजरकर
- अरुण होता
भालचंद्र जोशी समकाल के जागरुक कथाकार हैं। उनकी लेखकीय प्रतिभा विशेषत: ग्रामीण जनजीवन, आमजन तथा आदिवासी समुदाय से जुडी है। उन्होंने शहरीकरण की चपेट में आ रहा गांव, बदलते मूल्य, शोषण और भ्रष्टाचार के तहत बाजारतंत्र तथा भूमंडलीय प्रभावों की प्रतीकात्मकता को कथा-सूत्र में पिरोने का प्रयास किया है।
भालचंद्र की कहानियों में सामाजिक समस्याओं को भली-भांति उकेरने का भी प्रयास स्पष्ट परिलक्षित होता है। लेखक का आंतरिक जुडाव गांव की मिट्टी से है । ‘गांव’ उनके कथा- चिंतन की धुरी पर है। हालांकि लेखक ने जिस समाज का चित्रण किया है उसका परिवेश संक्रांत है । उनकी कहानियों का समाज शहरीकरण और नगरीकरण से प्रभावित है। उनके पात्र शहर में रहते हुए ग्रामीण संस्कृति के साथ आंतरिक लय बांधते हुए दिखाई पडते हैं। उनकी कहानियों से गुजरते हुए अक्सर महसूस होता है कि लेखक से बहुत कुछ अनकहा रह गया है जो उन्हें उद्विग्न कर रहा है। उनकी यही बेचैनी पाठकों से सीधा संवाद कायम कर लेती है।
उनकी कहानियों में समाज के बदलते संदर्भों को ढूंढा जा सकता है। इनमें सामाजिक सरोकार के स्वर धीरे—धीरे विकसित होते पाये जाते हैं। उनका प्रथम कहानी संग्रह ‘ नींद से बाहर’ (1998) की कहानियों में लेखक पाठकों से मुखातिब होने के बजाय आत्मगत संवाद की धुन में डूबा हुआ मालूम पडता है । इस संग्रह की कहानियां वैविध्यमयी हैं । इनमें निहित गहरा पीडाबोध मार्मिक है । पात्रों में एक अवसादभरी जडता है जो उनमें ठहराव सा भर देता है । लेकिन यहां भी उनकी विवशताएं मुखर हैं। ‘बोरचिंवी तक’, ‘डार्करूम’,‘मौसम बदलता है’ इस संदर्भ की महत्वपूर्ण कहानियां हैं।
‘चरसा’शीर्षक संग्रह में भी आत्ममंथन ही प्रमुख हो उठा है। इन कहानियों का विषय निरूपण तत्कालीन सामाजिक परिवेश के अनुरूप ही है। ग्रामीण पृष्ठभूमि पर इनमें चित्रित समस्याओं के कुछ रूप लगभग प्रेमचंदयुगीन समस्याओं का विकसित रूप है। किंतु बाद के संग्रहों की कहानियों का समाज भूमंडलीय प्रभावों के आगोश में हैं।
‘ पहाडों पर रात’ शीर्षक कहानी संग्रह में लेखक बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक से लेकर इक्कीसवीं शती के प्रथम दशक तक की समाज की मन:स्थिति,बाजारवादी प्रलोभनों, अलगाववाद, आदिवासी जनजीवन, राजनीतिक छल-छद्मों आदि का ब्योरेवार का आकलन करता है। संग्रह की कहानियों की केंद्रीय चिंता ग्रामीण जीवन का बदलता यथार्थ है। यहां वो गांव है जो पूरी तरह से बाजार के कब्जे में है। शहरीकरण की प्रक्रिया में क्षण-क्षण परिवर्तित समाज-स्थितियां उसकी आकांक्षाएं,उसके सपने अपने गहरे यथार्थबोध के साथ गांव रूपायित हुआ है । इन कहानियों के संदर्भ में लेखक स्वयं लिखता है—“ बाजार ने इतने बडे और क्रूर बदलाव किए हैं कि गुजरे हुए कल का यथार्थ आज विस्मय और अविश्वास से भर देता है। यानी बदलाव की क्रमबद्धता खत्म हो गई है। बाजार मूल्य से लेकर जीवनमूल्यों तक ने एकाएक छलांग लगाकर लंबी दूरी तय की है। इन कहानियों को एक ही संग्रह में रखने से इस तरह के समय संदर्भों के संकेत से यथार्थ के बदलाव की यात्रा के साक्ष्य जुटाने में भी मदद मिलेगी।“ (पहाड पर रात, भूमिका)
भूमंडलीकरण, निजीकरण,उदारीकरण के साथ उपभोक्तावादी संस्कृति, मशीनीकरण की धूम मची है। नवपूंजीवाद तथा बहुराष्ट्रीयतावाद ने निम्न मध्यवर्ग और मध्यवर्ग के जीवन में भयानक उलट-फेर कर दिए। यह इसलिए कि नवपूंजीवाद में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विकास की रीढ यही मध्य-वर्ग है। एक बात और भी कही जा सकती है कि इस संग्रह की कहानियों का क्रमबद्ध पाठ विवेचन दरअसल तत्कालीन एवं समकालीन समय एवं समाज का क्रमबद्ध विश्लेषण भी है।
‘जल में धूप’ संग्रह की कहानियां प्रेम संवेदना पर आधारित हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति, भौतिकतावाद के प्रति तीव्र आग्रह में मनुष्य की सहज भावात्मक वृत्तियां अनजाने में कहीं लुप्त होती जा रही हैं। यंत्रवत जीवन की आपाधापी, भागदौड में वैयक्तिक संबंधों के लिए समय नहीं है हमारे पास। समय की बढती जटिलताओं,महत्वाकांक्षाओं तथा कैरियरपरस्ती, एक दूसरे को पछाड आगे बढने की होड के युगीन परिवेश में हमारी आदिम वृत्तियां दब जाती हैं। मनुष्य मशीन में तब्दील होता जा रहा है। फिर भी समय की तमाम विभीषिकाओं, जटिलताओं और चुनौतियों के बीच भी मानव हृदय के अंतस्तल में अबूझ की प्यास बनी हुई है। इसी क्रम में ‘ हत्या की पावन इछाएं’ समय की कथा कहती है। लेखक ने यहां कथा-साहित्य जगत में फैली आपाधापी की वाचालता पर चिंता जाहिर की है। कहानी विधा की जटिलताएं बढती जा रही हैं। ऐसे समय में उसकी कहानी कला की संवेद्यता तथा संरचना को बरकरार रखने की भरसक प्रचेष्टा में तल्लीन हैं। उनकी कहानियों में न तो किसी किस्म का दबाव है, न ही आवरण। बेहद संतुलित,सहज वैचारिकता की प्रवहमान धारा एकबारगी से बहती हुई प्रतीत होती है। जयप्रकाश लिखते भी हैं—“भालचंद्र जोशी कहानी के यथार्थ को देश-काल के उग्र दबाव को मनुष्य की नियति से जोडकर अपेक्षाकृत बडे सवालों के दायरे में संघटित करते हैं। ये सवाल प्रकटत: सामयिक और प्रासंगिक हैं किंतु अवतार रूप में वे वृहत्तर संवेदंन भूमि को स्पर्श करते हैं।“ (भूमिका,पृ.7)
ज्ञानरंजन की दृष्टि में उनकी कहानियां मानवीय धरातल को छूती जीवनोन्मुखी कहानियां हैं। ज्ञान जी लिखते हैं—“ उनके पाठक वे हैं या हो सकते हैं जो दुनिया की सर्वोत्तम वस्तुओं, स्मृतियों और उपलब्धियों को बचाना चाहते हैं। जिनके पास अभी भी बेचैनी है और जो कहानीकार से तरंग बना सकते हैं। भालचंद्र की कहानियों में बौद्धिक प्रतिकृतियों की जगह आत्मपरक और वैयक्तिक अंतर्दृष्टि है। यह अंतर्दृष्टि सामाजिक लाभ-हानि और उपयोग का अतिक्रमण करती हुई एक व्यापक भाव-संबंधों की दुनिया में प्रवेश करती है।” (भूमिका, नींद से बाहर)
भालचंद्र की कहानियां मनुष्य की तलाश करती हैं। स्वार्थपरता व अवसरवादी समाज-चरित्रों के बीच ‘मनुष्य’ की खोज एक जटिल अनुसंधान का विषय बन गया है। संबंध अर्थ की धुरी पर केंद्रित हो रहे हैं। हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को ठगने की साजिशों में लगा है। समाज एक विरोधाभासी संस्कृति की अंगडाई ले रहा है। एक ओर गगनचुंबी अट्टालिकाएं कतारों में खडी हैं तो दूसरी ओर झुग्गी झोपडियों की भरमार है। सदियों से चली आ रही वर्ग- वैषम्य की खाई और भी गहरी हुई है। पूंजीवादी विकास के बढते दौर में जहां आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के तहत पूंजी का विस्तार किया जा रहा है वहीं जनसामान्य का वृहत समुदाय आर्थिक विपन्नता से पस्त है। दिनभर की गाढी मेहनत-मशक्कत के बावजूद उनकी जरुरतें खाली ही रह जाने को विवश हैं। कहानी ‘डार्करूम’ अपनी शीर्षकीय अर्थवत्ता में वर्तमान समाज की विरोधाभासी स्थितियों को संकेतित करती है। ‘डार्करूम’ पूंजीवादी विलासिता तथा चकाचौंध के बीच अभाव और दरिद्रता झेलती अंधेरी जिंदगियों की जीती-जागती तस्वीर है– ‘’ और ये दो सौ रुपये भी किस- किस को देगा? शर्मा को रोल फिल्म के पैसे देने हैं। गांव जाना है। उद्योग विभाग की किश्त चुकानी है। और सुबह पत्नी ने जरूरी घरेलू समाज की फेहरिश्त सुनाई है। खैर पत्नी को तो डांटकर चुप किया जा सकता है।“ (नींद से बाहर, पृ.92)
किंतु विडंबना है कि ये तस्वीरें ‘डार्करूम’ का सत्य बनकर यथार्थ की निगाहों से अदृश्य रह जाती हैं। कैमरे द्वारा सुनियोजित ढंग से दिखाया गया सच ही समाज का सच बन जाता है क्योंकि कैमरा के पास व्यावसायिक आंखें हैं। वह हर घटना को अपने हित में सजा-संवारकर प्रस्तुत करता है – “ और अब एक दूसरे को देखने के लिए आंखों के बीच एक तीसरी आंख आ जुडी है। कैमरे की आंख्। और यह आंख सिर्फ पैसा बटोरने की गलियां तलाश रही है। (नींद से बाहर, पृ.94)
बाजारवादी समय में जीता-जागता इंसान भी मनोरंजन का साधन बना हुआ है। पूंजी और कुर्सी के ताकातवरों को मनबहलाव के खिलौने चाहिए। बडी चालाकी से सरकारी व्यवस्था के न्याय के नाम पर ईमानदारी का गला घोंटा जा रहा है। फर्जी कागजों को मोहरा बनाकर सीधे-सच्चे व निरपराध कर्मचारियों का कार्यालयीन स्तर पर शोषण किया जा रहा है जिसकी अनुभूति सामंती दासता के शिकार भूमिहीन किसानों और मजदूरों से कम नहीं। कहानी ‘बोरचिंदी तक’ में लेखक इस व्यवस्था का प्रतीकार्थ स्पष्ट करते हुए महसूस करता है—“ हम किसी अर्थी के साथ चल रहे हैं, दाह- संस्कार के बाद ही इस व्यवस्था से मुक्ति संभव है, हिंसा में भी आनंद है। मनोरंजन के प्रचलित तरीके अब सुख नहीं देते हैं। कुछ नए की चाह में, बदलाव की इच्छा में मैं एक समर्थ और ताकतवर आदमी के मनबहलाव का साधन मात्र हूं,…. … उसे कौन जाकर बताए कि उसके आनंद का साधन एक जीता- जागता इंसान है। सांस लेता है। रोटी खाता है। समाज का एक हिस्सा है। बहुत ज्यादा नहीं थोडी-सी जरूरी सुख-सुविधाओं के साथ जीना चाह्ता है।“ ( हत्या की पावन इच्छाएं, पृ.67-68)
आर्थिक असमानता, शोषण और भ्रष्टाचार से भरे इस समाज में बेरोजगारी और महंगाई सुरसा-सा मुंह बायें खडा है। नौकरी की तलाश में भटकते युवावर्ग की ऊंची-ऊंची डिग्रियां निरर्थक साबित हो रही हैं। भाई-भतीजावाद और रिश्वतखोरी की दलाली युवावर्ग में हताशा, आत्महत्या, कुंठा, हीनताबोध व पराजयभाव भरने में सफल हो रही है। जीवन के सहज रागात्मक संबंधों से भी वंचित होने को विवश हैं। ‘सबसे जरूरी पहले: सिफारिश’ ऐसी ही कहानी है जहां कथानायकों की बेरोजगारी ने उन्हें जीवन के सहज प्रवाह से काटकर कुंठित कर दिया है— “ पूरे पचास पद रिक्त थे। लेकिन ज्यादातर आरक्षण की श्रेणी के थे। शेष इक्के-दुक्के फलां की चिट्ठियां लाए थे। मेरे पास महज स्वाति की दी हुई शुभकामनाएं थीं। वापस ले आया।“ (नींद से बाहर, पृ.84)
कहानीकार उस व्यवस्था के प्रति आक्रोश व्यक्त करता है जहां विज्ञापन संस्कृति की आड में बाजार अनेकानेक बेतुके विषयों को विज्ञापित करता है। आजकल अखबारों में नौकरियों के विज्ञापन कम आते हैं जबकि कुसंस्कार, अंधविश्वास, ग्रह-रत्न वा पोंगा-पंथियों के प्रचारों के जरिये भाग्यवादी आस्थाओं को तेजी से पोषित किया जा रहा है। इन अराजकताओं का सबसे बडा घृणित यथार्थ यह है कि सारे कार्य स्त्री-देह की सौदेबाजी पर टिके होते हैं। धर्म के ध्वजाधारियों द्वारा धार्मिक स्थलों पर बढते व्यभिचार का यथार्थ लेखक इन शब्दों में व्यक्त करता है—“ बाबा की सभी बातें तो ठीक हैं लेकिन जिस तरह बाबा अपनी पत्नी और युवा बेटी को करीब बैठा लेते हैं, यह उन्हें नहीं सुहाता। बार-बार बाबा की आंखें उनकी बेटी की देह को टटोलती रहतीं। वे मन मसोसकर रह जाते लेकिन अगले ही पल डर भी जाते हैं। बाबा में चाहे खोट हो,उनके इष्ट में तो दम है, चमत्कार है। (पहाडों पर रात, पृ.54)
भालचंद्र की कहानियां नए विमर्शों की जमीन तैयार करती मालूम पडती हैं। उत्तर आधुनिक परिवेश के विखंडन,अजनबीपन, अलगाववाद, टूटन से टकराती हमारी दिनचर्या,नये वैचारिक बोधों के फलस्वरूप पारिवारिक व सांस्कृतिक मूल्यों के विघटन के प्रति चिंता प्रकट करती है। कहानी ‘ अंधी सुबह’, ‘ मिस्टर अविनाश का घर बौना है’, ‘सिफारिश’, ‘डार्क रूम’ ‘ नदी के तहखाने में’ आदि कहानियां इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। अंतर्विरोध तथा अंतर्द्वंद्व उनकी कहानियों में कसाव भरते हैं। जुडने और टूटने के बीच पात्रों की बेचैनी सत्य को उद्घाटित करने का प्रयास करती है।
‘ मिस्टर अविनाश का घर बौना है’ शीर्षक कहानी में मिस्टर अविनाश एक तटस्थ बुद्धिजीवी की भूमिका में बेहद तार्किक ढंग से अपनी दायवद्धता से मुक्ति पा लेते हैं, किंतु उनके द्वारा दिया जा रहा जस्टीफिकेशन कहीं न कहीं उनकी ग्लानि को भी रेखांकित करता है। पत्नी विभा के आक्रामक सवालों से उत्तेजित मिस्टर अविनाश का कचोट इन शब्दों में व्यक्त होता है – “व्हाट केन आई डू? नो बडी केन अंडरस्टेंड मी….? “… इस कर्ज के लिए मुझे भी चिंता है। लेकिन कितना मिलता है मुझे? महीने में कुछ भी तो नहीं बचा पाते। कार का पेट्रोल, दून में बेटे की पढाई। गाडी और फ्रिज का मैंट्नेंस, मंथली शापिंग, क्लब…बस खत्म (वही, पृ.103)
महानगरीय परिवेश में रचे-बसे मि. अविनाश का घर भौतिक संसाधनों से परिपूर्ण हो सकता है लेकिन मां की ममता समेटने की सामर्थ्य उनके शहरी आंगन में नहीं है… शी टोल्ड मी… अवि का मकान बहुत छोटा है। मैं कैसे रहूंगी ?” ((वही, पृ.104)
अर्थात महानगरीय संस्कृति की यंत्रवत दिनचर्या में मानवीय संवेदनाओं के लिए स्थान नहीं है। बढते समय की आपाधापी में संस्कारों की लडाई भी महत्वपूर्ण है। पुरानी पीढी और नई पीढी की वैचारिक टकराहट युगीन सत्य है जो गांठ बनकर संबंधों से भर देते हैं। रिश्तों के बीच एक अनकही दीवार-सी खींच जाती है जिसे फलांगने का दुस्साहस कोई दिखा नहीं पाता— “ घर जाने को मैं बेचैन हूं। बरसों से इस बेचैनी को अकेला पी रहा हूं।….आहत अतीत है और इन सबके पीछे,बहुत पीछे एक गुस्सेल आदमी खडा है जिसे पिछले तीस बरसों से बाप कहता आ रहा हूं। यह आदमी हर बार मुझे बहुत पीछे धकेल देता है। और मैं रात में घर जाने का निर्णय सुबह बदल देता हूं।“ (वही, पृ. 113-114) दो पीढियों के बीच का अंतराल ‘ एक भीमकाय दरवाजे’ का प्रतिबिंब खडा करता है।
उत्तर आधुनिकतावाद की संस्कृति में लेखक को सबकुछ ठहरा हुआ-सा महसूस हो रहा है। हालांकि साफ्ट्वेयर के युग में हम तकनीकी गति से आगे बढ रहे हैं, किंतु दूसरा सत्य यह भी है कि भागदौड की इस संस्कृति में बहुत कुछ हमारे हाथों से फिसल भी चुका है। हमारी सांस्कृतिक अस्मिता,परम्परागत वैभव, स्मृतियं अतीत के तहखाने में कैद हो चुकी हैं। कहानी ‘ नदी के तहखाने में” जोशी जी इस ठहरे हुए समय के यथार्थ को “ जादुई यथार्थवाद’ की शैली में प्रकट कर अपनी चिंता जाहिर करते हैं—“ ईश्वर एकाएक चौंक पडे। वे ध्यानस्थ नहीं थे। जल में घुली चिंता में निमग्न थे।… किसी समय के झान-मंजीरों और घंटियों की तीव्र और लम्बी गूंज अब पानी सोख चुका है। दर्शन करने वाले भक्त ईश्वर को छोडकर जा चुके हैं और उनकी भक्ति का शोर जल के तल में काई के नीचे दबा पडा है”। ( हत्या की पावन इच्छाएं, पृ.35)
अर्थात धार्मिक विश्वासों की कायापलट हो रही है। ईश्वर,आस्था,धर्म, घर-परिवार, व्यक्ति, संबंध सबकुछ विलुप्त होते जा रहा है। समय और समाज की व्यवस्थाजन्य तहखाने में हमारी संस्कृति कैद होने लगी है।
महानगरीय संस्कृति अलगाववाद वा अकेलेपन की संस्कृति है। व्यक्ति भीड में भी अकेला और खाली है। ‘मौसम बदलता है’ में कथानायक भयभीत है क्योंकि वह इस बाजारवादी समय में खुद को फिट नहीं पा रहा है। पूंजी के चाकचिक्य में भावपूर्ण स्मृतियों की तलाश निरर्थक है। फिर भी कशमकश ऐसी कि इस पूंजीवादी व्यवस्था से विलग होना भी कठिन है। न चाहते हुए भी कृत्रिमता का बोझ वहन करने की पीडा बडी त्रासद है।
मनुष्य तथा मनुष्यता की सारी परिभाषाएं चूक रही हैं। व्यक्ति की पहचान उसके कर्म और आचरण तय नहीं कर रहे , अपितु वर्ग व जाति के आधार पर उसका मूल्यांकन किया जा रहा है। क्योंकि व्यक्ति की मानसिकता को गहरे रूप में प्रभावित करवाया जा रहा है। ‘रिहाई’ कहानी में भी संकीर्णताओं से मुक्त होने की छटपटाहट है—“पहले लोग घृणा मन में रखते थे। प्रकट नहीं करते थे,लिहाज में चुप रहते थे लेकिन अब तो जिस निर्लज्ज तरीके से अपनी घृणा प्रकट करते हैं वह बहुत पीडादायी है। धर्म का नाम जुडते ही वे अपराधी हो जाते हैं। देशद्रोही कहलाते हैं।“ ( वही, पृ,108)
अर्थात जातिवादी वैमनस्य अथवा वर्णाश्रम परंपरा से आज भी हमारा समाज मुक्त नहीं हुआ है। जोशी की कहानियों में यत्र-तत्र जातिवादी अकड के दृश्य जीवंत हैं। इसी के साथ परंपरा के नाम पर अंधविश्वास और कुरीतियां भी चित्रित हुए हैं। ‘इसी लोक में’, ‘ मिस्टर अविनाश का घर बौना है’, ‘एक बार फिर’ जैसी कहानियां इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। मृत्यु का पूजन और जीवन की उपेक्षा पर लेखक ने व्यंग्य किया है। कहानी ‘ इसी लोक में’ जीते जी जिस मां का उपचार सेठजी के लिए व्यर्थ था, उसकी मृत्यु पर हजारों रुपये खर्च कर उनका परलोक सुधारा जाता है। अंधविश्वास और प्रदर्शनप्रियता पर चोट करते हुए कहानीकार लिखता है—“ जीते जी बुढिया को किसी ने ठीक से पानी नहीं पिलाअया लेकिन मरते ही सेठ ने बडी तस्वीर मढाकर बैठक में टांग दी जिसे देखते ही हर कोई वाह कर उठता है और सेठ का सीनागर्व से फूल जाता है ।(पहाडों पर रात, पृ.87) ध्यातव्य है कि पंत की ‘ताज’कविता और प्रेमचंद की ‘ कफन’ कहानी भी इन्हीं कुरीतियों और जीवन की उपेक्षा पर प्रश्नचिह्न लगाती हैं। इसी के साथ भालचंद्र ने वर्णाश्रम धर्म को भी आडे हाथों लेता है—“ क्या पुराणों में लिखा गया सब कुछ सच है ? पुराणों में ब्राह्मण जाति के बारे में जैसा लिखा गया है वे खुद तो उतने पराक्रमी, तेजस्वी और सुखी नहीं हैं”। (वही, पृ. 84)
जातिगत सत्ता को व्यक्ति सत्ता से ऊपर मानना किसी भी समाज की अधोगति का प्रमुख कारण है। अतीत के तहखाने में इतिहास दबा पडा है जहां सामंती शोषण के साक्ष्य मौजूद है। विमर्शों के इस दौर में शोषित समाज नई चेतना से प्रभावित हो रहा है। किंतु कभी- कभी यह प्रभाव विकृत प्रतिशोध में बदलकर शोषण की जडों को और भी मजबूत कर रहा है। इस संदर्भ में ‘चरसा’ कहानी का पाठ किया जा सकता है। इसमें किशन और सविता का शारीरिक संबंध किसी प्रेम की परिणति न होकर किशन द्वारा अपनी जाति के अपमान का प्रतिशोध है। वह सविता को जूठाकर ब्राह्मणवाद को कुचल रहा है। पूर्वजों द्वारा किये गये अत्याचारों का हिसाब सविता की देह से लिया जा रहा है, उसे छला जा रहा है। इव छलपूर्वक विजय को वह अपनी जाति का विजय मान रहा है।
‘चरसा’ – अमानवीय व्यवहारों की पराकाष्ठा है। यहां शोषण दोहरे स्तर पर सक्रिय है। पारंपरिक मूल्य की रक्षा का प्रश्न हो अथवा पितृसत्ता का दंभ,स्त्री-देह शोषण का भी माध्यम है और प्रतिकार का भी। स्त्री-अस्मिता का दमन पितृसत्तात्मक समाज-व्यवस्था का वैशिष्ट्य है। स्त्री के अधिकारों, उसके सपने,उसकी मनोवांछाओं का गला घोंटकर सामंती दीवारों को मजबूत किया जाता है। कहानी ‘ ढहती दीवार’ में आत्मचेतस नारी की मांग मानवीय अस्मिता है लेकिन जरूरी है कि सबसे पहले उसके मन के अवगुंठनों का खुलना अनिवार्य है— “ सच ही,पीछे की दीवार अकेली नहीं गिरी है। उसके भीतर की संकोच और भय की दीवार टूटी है। टूटना चाहिये था या नहीं, वह खुद भी नहीं जानती है, लेकिन कितनी बरसात और सहन करती?” (पहाडों पर रात, पृ.149) राजेंद्र यादव की ‘ जहां लक्ष्मी कैद है’ की याद यह कहानी दिलाती है । यहां कथानायिका की दृढ चेतना ही सांमती दीवारों के ढहाने का साहस दिखा रही है ।
कथा दृष्टि में प्रकृति और पर्यावरण :
भालचंद्र की कहानियां संभावनाओं के वृहद आयाम प्रस्तुत करती हैं। नैराश्य, आतंकवाद, कुंठा, वन-क्षरण, मूल्यों के ह्रासजन्य वातावरण में भी लेखक पुनर्निर्माण करने का हौसला रखता है। वे भावी पीढी के लिए विकासशील परम्परा को सुरक्षित रखना चाहते हैं। उन्हें विश्वास है कि आपदा व संकट के भयानक काल में भी मानवीय राग जीवित रहेगा, सुरक्षित रहेगा—पर वह जानता है। जमीन डूब जाए। जंगल डूब जाए। धरती नष्ट हो जाए। पर इस जगह पर जल की असीम गहराई में, धरती के गर्भ में गुजरे पल नष्ट नहीं होंगे। कुछ देर पहले का उनका वह प्रेम अपने उसकी आवेग के साथ बना रहेगा।“ ( हत्या की पावन इच्छाएं,पृ. 32)
यह धरती प्रेम की धरती है। प्रेम की फसलों का लहलहाना ही धरती का सौंदर्य है। कहानीकार मिट्टी से खेलना चाहता है। मिट्टी के संस्पर्श में उसके रागात्मक भाव जी उठते हैं। नदी के तहखाने कहानी में लेखक प्रकृति के साथ रागात्मकता की अनिवार्य संपृक्ति को महसूसते हैं। प्रकृति और मनुष्य आदिम सहचर हैं। अत: उन्मुक्त प्रकृति के साहचर्य में स्त्री-पुरुष के प्रेम का उन्माद धरती का राग बन जाता है।
लेखक का प्रकृति के साथ यह नैकट्य,आत्मीयता निश्चय ही प्राकृतिक विमर्शों को एक सकारात्मक दिशा देगी। मशीनी संस्कृति, रियल- इस्टेट का बढता व्यापार निरंतर वनों की कटाई कर रहा है। पेडों का कटना हमारी संस्कृति, स्मृतियों और परंपरा से कटना है। उजाड प्रकृति में व्यक्ति के मनोभाव भी सूख गये हैं। उसके संवेग व संवेदनाएं तिक्त हो रही हैं। अत: लेखक की अंतश्चेतना में प्रकृतिमय धरती की छवि देखने की लालसा बलवती है। क्योंकि दिनोंदिन प्राकृतिक आपदा से संत्रस्त पृथ्वी का जनजीवन विनाश के कगार पर खडा है। कहानीकार की दूरदर्शी चेतना देखी जा सकती है—“ एक घर डूब गया। एक पूरा शहर डूब गया। सौ इच्छा में बसा शहर एकाएक डूब गया। कितना सारा समय अनबीता,बिना खर्च किए रह गया। ( हत्या की पावन इच्छाएं, पृ. 30)
यह बाजारों का समय है
बाजार वर्तमान समय व समाज का सबसे बडा यथार्थ बन गया है। इसी के साथ भूखे,दरिद्र किसान-मजदूरों की समस्याएं भी बढी हैं। सरकारी कर्ज, मुआवजे तथा ग्रामीण विकास योजनाओं के नाम पर शोषण चक्र मजबूत हुए हैं। भ्रष्टाचार का शंखनाद जोरों पर है। बाजार व कॅर्पोरेट शक्तियों के कब्जे में गांव आने लगा है। अमेरिका अपनी शर्तों पर भारत में बाजार को प्रमोट कर रहा है। समस्त सरकारी तंत्र बाजार के विस्तार में एकजूट है। महंगाई को इंजायमेंट से जोडने का फंडा काम कर रहा है—“ महंगाई से डरे नहीं, महंगाई को एंजाय करें। मौज करें। आपके पूर्वज पैसा जमीन में गाडकर रखते थे। सोचते थे,पैसा सुरक्षित रहेगा लेकिन पैसा बढता नहीं था। उस पैसे को बाहर निकालो, बाजार में डालो। पैसा, पैसे को बनाता है। ( हत्या की पावन इच्छाएं, पृ. 42) भूमंडलीकरण,निजीकरण और बाजारवाद ने उपभोक्तावादी संस्कृति को बढावा दिया है। पूरी ग्लोबल दुनिया सिमटकर अमेरीका के हाथों का खिलौना बन गयी है। लेखक फैंटसी शिल्प में बुल और मोदी की राजनीतिक एकात्मता की यथार्थ छवि का रहस्य खोलता है—“ घबराओ मत, धैर्य रखो। संकट का सामना हम सबको मिलकर करना है। हम ब्याज दरें कम कर रहे हैं। उद्योगपतियों से कहा है कि वे कीमतें न बढाएं।“( हत्या की पावन इच्छाएं, पृ. 57) बुल यानी सांड को सर्वेश्वर ने भेडिये की शक्ल में पहचाना है तो उदय प्रकाश ने तिरीछ के रूप में और भालचंद्र ने उसे बाजार की उद्दंडता और मनमानेपन के प्रतीकार्थ के रूप में।
विश्वबाजारवाद की अवस्थिति मे अमेरीका ‘सुप्रीम पावर’ बना हुआ है। ‘सट्टाबाजार’ हो या ‘ ब्यूटी काम्प्लेक्स, तकनीकी कृषि-व्यवस्था हो या मारक अस्त्र-शस्त्र की विक्री, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट हो या मीडिया का स्वैराचार, सर्वत्र अमेरीकावाद जारी है। कहानीकार के शब्दों में—“ मैंने देखा, सांड के भागने से उस रास्ते पर उसके पैरों के निशान दूर तक नज़र आ रहे हैं। सहसा, बुश नीचे झुका और उन पैरों के निशान मिलाकर एक ग्राफ बनाने लगा। कुछ देर असमंजस में खडे होकर ग्राफ को देखता रहा। समझ में नहीं आ रहा था कि ग्राफ ऊपर जा रहा है कि नीचे। ( वही, पृ. 57-58) पूरा समाज बाजार के बहकावे में है। रातोंरात करोडपति बनने की महत्वाकांक्षाएं सेंसेक्स के नीचे उतरते ही आत्महत्याओं में बदलने लगती हैं। कहानी ‘ पल पल परलय’ में रस्तोगी जी का बेटा इसलिए आत्महत्या कर रहा है क्योंकि शेयर मार्केट के गिरते ही वह कर्ज में डूब जाता है। अर्थात कारपोरेट शक्तियां मनुष्य को किस हद गिरा सकती हैं, उसकी ओर कहानीकार ने इशारा किया है।
भूमंडलीकरण के दौर में पूंजी और बाजार का वर्चस्व है। बाजार हमें विज्ञापन कौशल ही नहीं समझाता, तिकडमें भी सीखा देता है। आकर्षक पैकिंग में घटिया वस्तु भरने का शिल्प भी सिखाता है। सामाजिक दायित्त्व्बोध से उदासीन बनाकर बाजार वैयक्तिक लाभ-हानि के गणित में पटु बनाता है। आज का समय बाजार का समय है। कला, साहित्य,जनजीवन को बाजार अपनी मर्जी के अनुसार प्रभावित किये जा रहा है। बाजार के लिए सबकुछ प्राडक्ट है जिसे खरीदा-बेचा जा सकता है। मनुष्य के गुण, मूल्य, उसकी संवेदनाएं और उसका प्रेम भी ‘ वस्तु’ से कुछ अधिक नहीं है। पूंजीवादी व्यवस्था में समय सबसे बडा बलवान नहीं रह गया है। समय को भी अपनी मुट्ठी में भर लेने का दंभ जारी है। इस भावबोध के आधार पर ‘ किला समय’ लिखी गई है। किला प्राचीन ऐतिह्य और स्मृतियों का भी प्रतीक है जिसे समय समाप्त करने के लिए तुला हुआ है—“ इस किले ने कितनी लडाइयां फतह की होंगी, लेकिन आज समय से, बल्कि विकास की ओट में पल रही संपन्नता की चाह से परास्त हो गया। किला अपनी समस्त भव्यता के बावजूद आदमी की अदना-सी इच्छा के आगे बौना हो गया।“ (पृ.70)
नदी के किनारे दीवार के ऊपर जहां कभी क्रांतिकारियों को लटकाया जाता था, वहां शीतल पेय का एक बाडा होर्डिंग लटक रहा है। राष्ट्रीय विरासत पर बहुराष्ट्रीय कंपनी का झंडा फहर रहा है।
इस कहानी की ‘ लडकी’ के माध्यम से लेखक ने भोगवादी संस्कृति और अमेरिकी वर्चस्व की ओर उन्मुख युवा-पीढी पर चिंता व्यक्त की है। मर्सिडीज-वेंज, लेवल प्लेइंग फील्ड, न्यूयर्क का स्टाक एक्सचेंज, अमेरिकी सभ्यता का तेज गति से अंधानुकरण, देहवाद को बढावा देना आदि के इस समय में सबकुछ खत्म हो जाएगा जिसे हम बहुमूल्य समझते आ रहे हैं। संकट सबसे अधिक मंडरा रहा है मानव जाति पर, मनुष्यता पर। न्यूयार्क के ‘ ब्लू नाइल’ स्ट्रीट की डायमंड शाप की चमक से हमारी आंखें चौंधिया जा रही हैं। लेखक की वाजिब चिंता है कि क्या हम विकास के नाम पर इंसानियत को भुला दें? विकास किसके लिए हो ? मनुष्य के लिए या राबटों के लिए? खुशी की बात है कि ‘ लडके’ में संवेदनाएं जीवित हैं । यह भाव हमें आश्वस्त करता है कि हम बाजारवादी, उपभोक्तावादी समय में अपने वजूद को जीवित रख सकते हैं। मनुष्यता को लील लेने के लिए आतुर विनाशकारी शक्तियों को अपने-अपने ढंग से लड सकते हैं।
स्पष्ट है कि बाजारवादी समय में शिक्षा और टेलेंट का महत्व नहीं। युवापीढी के तरुण सपने और महत्वाकांक्षाएं किसी दलाल स्ट्रीट में कहीं खो जाते हैं।
चक्रव्यूह में घिरे हैं होरी आज भी
कारपोरेट शक्तियां,बहुराष्ट्रीय कंपनियां, राजनीतिक सत्ता कृषि- सभ्यता को पूरी तरह नष्ट करना चाहती हैं। भालचंद्र इनकी रणनीतियों को भली-भांति जानते हैं। ‘ पल पल परलय’, ‘कहीं भी अंधेरा’,’ इसी लोक में’, ‘ जमलासो’, डार्करूम’ आदि कई कहानियां इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। आज ‘गोदान’ के जमींदारों का नेटवर्क अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्याप्त हो गया है। वे जरूरतमंद किसान-मजदूरों को विकास का झुनझुना पकडाकर बरगलाया जा रहा है। ऐसा रचा जा रहा है कि किसान अपनी जड- जमीन से विलग हो जाए और मज़दूर बनने के लिए बाध्य हो जाए।
उन्नत खेती के नाम पर किसानों को तथाकथित उन्नत बीज,उन्नत खाद और उन्नत फसल के वास्ते कर्ज़ दिया जाता है। कर्ज़ चुका न पाने की स्थिति में किसान आत्महत्या करने को विवश हो जाता है क्योंकि उसे अपराधबोध से ग्रसित होना पडता है ( काश यह अपराधबोध बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मालिकों को होता)। ‘हत्या की पावन इच्छाएं’ के अलावा ‘ पल पल परलय’ में कृष्ण और अर्जुन का अभिनय करने वाला शंकर और रामरतन इस व्यवस्था की मार से हताहत है। बैंक अपने कर्ज़ की वसूली के लिए गुण्डागर्दी पर उतर आता है। सरकारी आदेश निरीह किसानों के लिए प्रलय बनकर आता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के रूप में औपनिवेशिक शक्तियां दबे पांव पुन: अपना प्रभुत्व कायम करने लगी हैं जिनसे जूझने का साहस किसी योद्धा में नहीं है-“ दोनों ऐसे शत्रु से मारे गए जिसे वे देख नहीं सकते थे, पहचान नहीं सकते थे।“ किसान सपनों में जीता है। वह सपने बोता है। उगते फसलों के साथ उनके सपने लहलहाते हैं। लेकिन साहूकार और महाजनों के बाज़ार में उसके सपने दम तोड देते हैं। ऊपर से राजनीतिज्ञों के छद्म वायदे उन निरीह सपनों को लेकर गंदा खेल खेलते हैं– “ मेरे पिता भी इसी तरह का सपना देखते रहे थे। एक दिन बैंक के कर्जे की वसूली में ही खेत चला गया। उस कर्ज़े के लिए जो खेत के लिए मिला था। शायद बैंक ने भी खेत का सपना देखा होगा।“ (चरसा, पृ, 74) वस्तुत: सपनों की अंगडाई लेती इस समाज व्यवस्था में सपने सच जान पडते हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति ने उपभोग की मानसिकता को प्रश्रय दिया है। इस बाजारवादी समय की सबसे बडी विडंबना यह है कि यह हमें अपनी जडों से उखाड फेंकना चाहती है। किसानों की वस्तुस्थिति से भालचंद्र की कहानियां रू-ब-रू कराती हैं। इनका रचना संसार किसानों के अंदरूनी जीवन से अपरिचित नहीं है।
जल,जंगल और ज़मीन की लडाई और आदिवासियों का संसार
इस रचनाकार ने आदिवासी जीवन-पद्धति तथा कला का विशेष अध्ययन किया है। निमाड क्षेत्र की लोक-कथाओं पर यह रचनाकार दशकों से कार्यरत है। आदिवासी और जनजातियों की जीवनशैली का प्रत्यक्ष अनुभव भी है। अपने इन अनुभवों को वह कथा-सूत्र में पिरोता है। उसकी कथा पठनीय ही नहीं विश्वसनीय भी है। यहां कथाकार की रचना यात्रा महज कल्पना नहीं, अनुभव पर आधारित भी है।
भालचंद्र जोशी आदिवासी जन-जीवन का सौंदर्यशास्त्र प्र्स्तुत करते हैं। आदिवासियों की बदहाली,उनका शोषण, उनके दुर्भाग्यपूर्ण निर्यातन को प्रकाश में लाकर उनके प्रति मानवीय संवेदना को उज्जीवित करना लेखक का अभीष्ट है। बडे ही सांकेतिक लहजे में उन्होंने दलित-जीवन की त्रासदीमय यथार्थ को सामंती परंपरा को जोडते हुए प्रशासनिक व्यवस्थाओं पर भी प्रश्नचिह्न लगाते हैं—“ ये आदिवासी अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं है। बल्कि अपनी स्थिति के लिए जिम्मेदार को पह्चान नहीं पा रहे हैं। इसे वे अपने भाग्य पर छोड देते हैं । और भाग्य साहूकार की भांति इनकी जिंदगी में आता है। छोटे-छोटे सुख ब्याज की कीमत पर छीन लेता है। और बडे सुख का सिर्फ लालच देता है। इतनी सारी वसूली सिर्फ आदिवासी होने के कर्ज के नाम पर्।“ (नींद से बाहर, पृ. 109)
समाज की मूलधारा से जनजातियां भाग्यवादी आस्थाओं का शिकार हैं। उनके भोलेपन, सहजता के प्रति लेखकीय संवेदना पाठकों की सहानुभूति भी बटोर लेती है। बाजार की रणनीतियों के अनुसार तमाम विकास अभियान चलाये जाते हैं। लेकिन यहां भी दलित दमन और शोषण चलता है। व्यवस्था की मजबूत दीवार से टकरा कर दलितों के सारे उपाय चकनाचूर हो जाते हैं- “ ये कहां गुहार लगायें? सभी तो इन्हें विपत्ति समझ कर परे हो जाते हैं। व्यवस्था ने अपने विशाल दरवाजे पर ढेरों नींबू लटका रखे हैं। जो न काले पडते हैं, और न सूखते हैं। (वही, पृ. 105)
सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इन दलितों के जीवन का पिछडापन दूर करने का दायित्व कोई भी कर्णधार अपने कंधों पर लेने को तैयार नहीं। उनके सुख-दुख और अनुभूतियों से किसी का कोई सरोकार नहीं है। मूलधारा से कटे हुए इन लोगों को जानवर से भी गया-गुजरा समझा जाता रहा है।
यह है खेल राजनीति का
राजनीति से नीति गायब हो चुकी है। इसे भालचंद्र का कथाकार जानता है। यह भी जानता है कि लोकतंत्र, संविधान,कानून, प्रशासन आदि का मखौल उडाया जा रहा है। सत्तासीनों की स्वार्थी नीतियां जनहित का दिखावा कर रही हैं। इस कहानीकार की राजनीतिक चेतना का स्पष्ट परिचय हमें ‘राजा उदास है’, राजा गया दिल्ली, कवर विज्जू, आदि कई कहानियों से मिलता है। इन कहानियों से गुजरकर स्पष्ट पता चलता है कि कहानीकार की राजनीतिक दृष्टि से समकालीन राजनीतिक परिदृश्य ओझल नहीं हुआ है। व्यंग्य की तीखी चुभन इनके कथा-शिल्प की एक बडी विशेषता है।
राजसत्ता की शोषकीय मानसिकता जनतांत्रिक शक्तियों को दमित रखना चाहती है। जनसमुदाय की जागृति,दलित चेतना एवं जनता की एकजूट शक्ति सत्ताधारियों के लिए खतरे पैदा करती है। जनतंत्र की समवेत शक्ति से भयभीत राष्ट्रनायक जनता के सवालों से बचना चाहते हैं क्योंकि उनके सवाल इतिहास और संस्कृति के आवरण में किये गये अन्याय और शोषण का हिसाब मांगने लगी है। ‘राजा उदास है’कहानी में राजा इसीलिए उदास है कि सारी चीजें व्यवस्थित होती जा रही हैं, उन्हें अंगद, नल,नील,सुग्रीव आदि की उपस्थिति असुरक्षा का भय दे रही है।
राजसत्ता द्वारा शोषण की परम्परा को सामंती समाज तथा पुराणों से जोडते हुए कहानीकार लिखता है—“जंगल में जनतंत्र का, एक राजा के पत्नीहरण के प्रतिशोध के लिए व्यक्तिगत उपयोग की चालाकी वानर भांप नहीं पाये थे।“ (नींद से बाहर, पृ.117) कहानीकार का आक्रोश मिथकीय श्रीराम के प्रति भी उतना ही है जितना कि वर्तमान के सत्तासीनों के प्रति। सत्ता में केवल सत्तासीन नहीं,पूरी व्यवस्था शामिल है। रचनाकार लिखता भी है—“ बे ईमानी के दायित्व का बोझ अलग-अलग कंधों पर हो जाने से शातिर मन आश्वस्त हो जाता है।“ (वही, पृ.122) आज के जनतंत्र में प्रजा ही अपने लिए और राज तथा नेता के लिए चिंतित रहे– “ वंदनीय राजा होने के कारण आपको चिन्तित नहीं होना चाहिए। और जैसाकि परंपरा रही है कि राजा के कारण प्रजा चिंतित रहे।“ (वही)
राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण सर्वत्र व्याप्त है। चुनाव के दौरान अपना वोट बैंक बढाने की राजनीति हो अथवा सत्ता हासिल होने के बाद पूंजी का दलाल बन जाने की बात हो इसे ‘राजा गया दिल्ली’ में देखा जा सकता है। सत्ता और पूंजी की सांठ-गांठ से भी कहानीकार अपरिचित नहीं है। चुनाव में जीत हासिल होते ही मंत्री बनने की सुखद कल्पना देखी जा सकती है- “ सचमुच ! कितना बदलाव आयेगा? बेटी कार से कालिज जायेगी। मंत्रीजी की बेटी ! मंत्रीजी की पत्नी ! मंत्रीजी की कार ! मंत्रीजी का बंगला। और मंत्रीजी… वे खुद।“ (पहाडों पर रात,पृ.54) ग्रामीण जनजीवन को विकास के नाम पर राजनीति की गंदगियों से गुजरना तथा पीडित होना पडता है । इस संदर्भ में ‘कवर विडजू’ कहानी का पाठ किया जा सकता है। व्यवस्था की असली सच्चाइयों को प्रस्तुत करने में भालचंद्र पीछे नहीं रहते हैं—“क्या सारे चोट्टे एक जैसा बोलते हैं? हमारे गांव का सेठ और तुम एक ही स्कूल में पढकर आए हो क्या, लूट की स्कूल में ? ( हत्या की पावन इच्छाएं, पृ.43)
हवा में गंध है बारूद की
सांप्रदायिक विभीषिका वर्तमान समाज की क्रूरतम सच्चाई है। इतिहास साक्षी है कि सत्ता के उन्माद और सत्ता के संघर्ष के कारण ही समाज में हत्या, नृशंसता, दंगा,व्यभिचार का साम्राज्य फैला है। धार्मिक वैमनस्य के बीजारोपण तथा विस्तारीकरण को धर्मगुरुओं ने सर्वाधिक प्रोत्साहित किया है। धर्म के नाम पर व्यक्ति,व्यक्ति को गाजर-मूली की तरह काट रहा है। धर्म के ध्वजाधारियों ने धर्म की सुरक्षा का दायित्व तलवारों को सौंप दिया है जिसका धर्म ही हत्या करना है। इसी से पवित्र कर्म का संपादन हो जाता है। ‘ हत्या की पावन इच्छाएं’ की हो अथवा ‘चरसा’ की, कई कहानियों में यह चिंता जाहिर हुई है। हत्या अब पावन इच्छाओं में तब्दील हो रही है। भीषण नरसंहार से मृत्यु उत्सव मनाया जा रहा है। सांप्रदायिकता की चमकती तलवार के बारे में लेखक का कहना है—“ तलवार न तो हिंदू होती है और न मुसलमान। वह चमककर चलती है तो यह नहीं देखती है कि गला हिंदू है या मुसलमान । अपराधी तो है वह हाथ जो इसके हाथ में तलवार देता है और उसके हाथ में भाला। स्वार्थ या अपराध की कोई जाति नहीं होती है।“ (चरसा,पृ.98)
धर्म का भी राजनीतिकरण हो रहा है। धर्म की विभाजक रेखाएं सांप्रदायिक विद्वेष फैलाकर राजसत्ता को संरक्षित करने का दायित्व पालन कर रही है। सत्ता हासिल करने का प्रबल माध्यम धर्म है—“ आदरणीय, तब तक तो हम कई पूजागृह बनवा देंगे। कार्य अभी से जारी है। उनकी संतानें संशय में होंगी तब तक तो राजन, आप ईश्वर हो चुके होंगे । अवतार साबित किये जा चुके होंगे। और सबसे बडी बात तो यह है आप इतिहास के सच होंगे। आपके कई रूप होंगे। आप दक्षिण भारतीय होंगे।आप महाराष्ट्रीयन होंगे। आप मुस्लिम होंगे। सिख होंगे। ईसाई होंगे। राजन, सच सांप्रदायिक हो चुका होगा।“ (नींद से बाहर, पृ.109)
कला के आईने में
भालचंद्र की कलात्मक क्षमता है कि वे परिवेश को शब्दों में निर्मित करते हैं। वातवरण के अनुकूल पात्रों की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाएं व्यक्ति के सहज उच्छलन को अभिव्यक्त करती हैं। बिंब और व्यंग्य के माध्यम से परिस्थितियां साकार हो उठती हैं और संप्रेषणीयता आत्मीयतापूर्ण्। युगीन यथार्थ को कथा के सूत्रों में मूर्त भी करते हैं। मुहावरेदार शैली के कारण कथानक विवरणों से बोझिल नहीं है। बीच- बीच में सूत्र वाक्यों का प्रयोग आकर्षक हो उठा है। ‘पालवा’ में मनोविज्ञान के तथ्यों और सत्य का खूब प्रयोग मिलता है। कहीं- कहीं हिंग्लिश का प्रयोग मिलता है। इस प्रयोग से यथार्थ अंकन ही नहीं, परिवेश का साक्षात्कार भी कराने का प्रयास हुआ है। कई कहानियों में कलात्मकता की ओर अधिक झुकाव दिखाई पडता है। इससे कथ्य बाधित हुआ है। समग्र रूप से विचार करने से यह कहा जा सकता है कि भालचंद्र जोशी हमारे समय के महत्वपूर्ण रचनाकार हैं। उनकी दृष्टि प्रगतिशील है। अन्याय,अत्याचार, दमन तथा शोषण का उनके कथा संसार में तीव्र विरोध है। उनकी कथा दृष्टि में समकालीन समय और समाज की अंतर्विरोध, विसंगतियां, विद्रूपताएं शिद्दत के साथ अंकित हुए हैं। उन्होंने मालवा तथा मध्यप्रदेश के अन्य अंचलों को अपने कथा संसार में प्रस्तुत करते हुए वैश्विक परिदृश्य को भी नजरअंदाज नहीं किया है। वैश्विक घटनाओं तथा परिघटनाओं को कथा सूत्र में पिरोने में भी उन्हें सफलता हासिल हुई है। जोशी की सामाजिक पक्षधरता आवेश में आकर कहानी को बहुत अधिक आहत नहीं करती वरन उनकी कहानियां मानवीय संवेगों से स्पंदित होती हैं। कहानियों का रचाव अपना शिल्प खुद ही गढ लेना चाहता है। ‘नींद से बाहर’ से लेकर ‘ हत्या की पावन इच्छाएं’ तक की भूमिकाओं में लेखक की कहानियों के बहाने समस्त समाज में कहानी-कला का स्थान निर्धारित किया गया है। कहानियां केवल कहानियां नहीं हैं, कथ्य- संरचना में सम्पूर्ण तथा रचनाकार की दृष्टि का भी परिचायक हैं। यहां कहीं भी लेखक ने स्वयं को आरोपित नहीं किया है। कहानियों के माध्यम से पाठक इस समाज-स्थितियों के बीच अपनी उपस्थिति खोजने के प्रयास में सक्रिय होता है। यह अत्यंत दुख की बात है कि इस रचनाकार के कथा-संसार का आज तक मूल्यांकन नहीं हुआ है। उम्मीद है इस आलेख से कथालोचकों का ध्यान आकृष्ट होगा।
भालचंद्र जोशी की पुस्तकें:
1. नीद से बाहर– अनुराग प्रकाशन, नई दिल्ली,1998
2. चरसा– मेधा बुक्स,दिल्ली, 2007
3. पहाडों पर रात– पिनेकल प्राइम पब्लिशिंग इंडिया,दिल्ली, 2009
4. पालवा—भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2011
5. नल में धूप—बोधि पुस्तक,जयपुर,2013
6. हत्या की पावन इच्छाएं—राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014
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अरुण होता : प्रखर आलोचक । आलोचना की तीन पुस्तकें प्रकाशित । फिलहाल पश्चिम बंगाल विश्विद्यालय में प्रोफेसर तथा विभागाध्यक्ष ।
संपर्क : 2 एफ, धर्मतल्ला रोड, कस्बा, कोलकाता- 700 042
सम्पर्क – +919434884339
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