संवेद्य

हिन्दी कहानी का सौसाला सफ़र और समय की पड़ताल

  • किशन कालजयी

     

कहानी का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि सभ्यता का इतिहास। फर्क सिर्फ इतना है कि पहले कहानियाँ कही सुनी जाती थीं और अब वे लिखी जाती हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी इसलिए भी है कि उसमें कहने और और सुनने की आदिम प्रवृत्ति रही है। सभ्यता की विकास यात्रा में मनुष्य को अपने जीवन-संघर्ष के अनुभवों  को अपने समुदाय के बीच साझा करने की जरूरत महसूस हुई होगी। यह अनुभव उनके ज्ञान और कौशल को समृद्ध करने का सुलभ और सहज साधन था।चूँकि यह  ज्ञान और अनुभव उन्हें अपनी आने वाली पीढ़ी को सौंपना होता था,यह हस्तान्तरण भी श्रुति परम्परा में ही होता था।लोककथा, काव्यकथा,दृष्टान्त, रूपक, आख्यान,  पुराणकथा,सूक्त और संवाद सभी में किसी न किसी तरह से मानव जीवन के अनुभव,संघर्ष और मूल्य ही अनुस्यूत हैं।

यह मानना निराधार नहीं है कि कहानी मनुष्य की अभिव्यक्ति का आदि रूप है। यह कहा-सुनी सिर्फ यथार्थ के आधार पर नहीं होती होगी, वाचक उसमें अपनी  कल्पना का भी मिश्रण  करता होगा तभी तो  कहानी को गल्प कहा जाता है। बांग्ला में तो बातचीत को कथा कहा जाता  है। इसलिए कहानी सिर्फ आत्म अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं,वह एक मानवीय सम्बोधन और पारस्परिक संवाद भी है।जिस विधा में संवाद की गुंजाइश जितनी अधिक होगी वह विधा समूह,समुदाय और लोकतन्त्र के उतना ही  करीब होगा।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल किशोरीलाल गोस्वामी की  ‘इंदुमती (1900) को हिन्दी की पहली कहानी मानते    |हैं प्रकाशन अवधि पर गौर करें तो स्वयं रामचन्द्र शुक्ल की ग्यारह वर्ष का समय(1903) दूसरी कहानी लगती है| कुछ लोग माधवप्रसाद सप्रे की ‘टोकरी भर मिटटी’ (1907) को हिन्दी की पहली कहानी मानते हैं| इसके पहले भी कहानियां लिखी गयीं,यह बात अलग है कि उस ओर ध्यान नहीं दिया गया| किशोरीलाल गोस्वामी ने ही  ‘प्रणयनी’ 1897 में लिखी थी जो एक प्रेम कहानी है| सैयद  इंशाअल्लाह खाँ की रानी केतकी की कहानी‘, राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद की राजा भोज का सपनाकिशोरीलाल गोस्वामी की इंदुमती‘, माधवराव सप्रे की एक टोकरी भर मिट्टी‘, आचार्य रामचंद्र शुक्ल की ग्यारह वर्ष का समयव बंग महिला की दुलाई वालीवे कहानियाँ हैं जिन्हें विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने तर्क से पहली कहानी कही है|

हिन्दी की पहली कहानी कौन इस बात पर मतभेद शायद इसलिए है कि शुरुआती दौर में कहानी  के शिल्प,स्वरूप और उसके कथ्य और ढांचे का कोई सर्वमान्य मानक नहीं था। किसे कहानी कहा जाए और किसे नहीं इस बात पर विवाद की अनिवार्य रूप से गुंजाइश रहती थी।हिन्दी की पहली कहानी पर चाहे जितना विवाद हो,हिन्दी कहानी की विधिवत और सर्वमान्य शुरूआत जयशंकर प्रसाद और  प्रेमचन्द से हुई है,यह एक निर्विवाद तथ्य है।
  जयशंकर प्रसाद की पहली कहानी ग्राम‘ 1911 में प्रकाशित हुई थी और उनका  अन्तिम कहानी संग्रह इंद्रजाल‘ 1936 में प्रकाशित हुआ था। प्रेमचन्द की  पहली कहानी सौत‘ 1916 में और अन्तिम कहानी कफन‘ 1936  में प्रकाशित हुई और इस 20 वर्ष के दौरान उन्होंने लगभग 300 कहानियाँ लिखीं। इसलिए जयशंकर प्रसाद और प्रेमचन्द का रचनाकाल लगभग एक है।  और इस अवधि में ये दोनों कथाकार ही हिन्दी कहानी का प्रतिनिधित्व करते हैं।इसी समय एक और कथाकार चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ प्रकाश में आते हैं जिन्होंने सिर्फ तीन  कहानियाँ (सुखमय जीवन 1911,उसने कहा था 1915,बुद्धू का कांटा 1911 और 1915 के बीच किसी समय)लिखीं जो हिन्दी कहानी के लिए मील का पत्थर साबित हुईं| ‘उसने कहा था’ हिन्दी की पहली ऐसी कहानी है जिसने शिल्प और अन्तर्वस्तु की दृष्टि से अपने समय में अपनी सर्वश्रेष्ठता साबित की थी| आज भी वह कहानी समीक्षकों और आलोचकों के लिए सन्दर्भ बिन्दु बनी हुई है| कहानी के परिवेश को लोकोन्मुख और लोकप्रिय बनाने में इन कथाकारों  का सर्वाधिक योगदान है।इसी अवधि में हिन्दी कहानी वस्तु और रूप की दृष्टि से न केवल प्रौढ़ हुई बल्कि उसमें एक समृद्ध विविधता भी आयी। इस दौर में कहानी की कई प्रवृत्तियाँ प्रकट हुईं। इन प्रवृत्तियों को समेकित दृष्टि से देखा जाय तो  कहानी का यह काल आदर्श और यथार्थ के द्वन्द्व के रूप में ही दिखता है।अपनी कहानियों में जयशंकर प्रसाद यदि रोमैंटिक आदर्शवाद के पैरोकार हैं तो प्रेमचन्द यथार्थवादी आदर्शवाद के स्पष्ट प्रवक्ता प्रतीत होते हैं|
 द्वितीय महायुद्ध और स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश और दुनिया में परिवर्तन की नयी हवा शुरू हो गयी| लोकतान्त्रिक चेतना के प्रसार ने लोगों को दुनिया देखने और समझने की नयी दृष्टि दी| जैनेन्द्र,यशपाल,अज्ञेय,इलाचन्द्र जोशी,अमृतलाल नागर आदि स्वतन्त्रता के पूर्व ही कहानीकार के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे और स्वतन्त्रता के बाद भी इनका कथा-लेखन जारी रहा| इनके साथ नये कहानीकारों की रचना प्रक्रिया भी प्रारम्भ हुई| इसलिए धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, राजेन्द्र यादव,फणीश्वर नाथ रेणु, शिवप्रसाद सिंह,अमरकांत, मार्कंडेय आदि कहानीकारों के माध्यम से 1950 के आसपास जो कहानियाँ लिखी गयीं, वह नये सामाजिक मूल्यों के तलाश की कहानियाँ हैं| इन कहानियों में एक तरफ पुरानी और रूढ़ मान्यताओं के खिलाफ विद्रोह है तो दूसरी ओर आधुनिकता बोध भी है|पुरानी कहानियों से इन्हें अलग दिखाने के लिए ही कुछ लोग इस दौर की कहानियों को ‘नयी कहानी’  कहने लगे|
कायदे से हिन्दी कहानी पर व्यवस्थित चर्चा 1955 में ही प्रारम्भ होती है,जब ‘कहानी’ पत्रिका का पुनर्प्रकाशन होता है| यही वह समय है जब  नामवर सिंह,राजेन्द्र यादव,मोहन राकेश,शिवप्रसाद सिंह और हरिशंकर परसाई समेत कई लेखक,सम्पादक कहानी के  विमर्श को केन्द्र में लाने की सफल कोशिश करते हैं| मोहन राकेश का  कहानी संग्रह ‘नये बादल’ (जनवरी 1957) और राजेन्द्र यादव का  कहानी संग्रह ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’ (अगस्त 1957) की भूमिकाएँ  नयी कहानी को रेखांकित करती हैं| ‘साहित्यकार सम्मलेन’ प्रयाग (1957) में शिवप्रसाद सिंह,हरिशंकर परसाई और मोहन राकेश ने जो परचा पढ़ा था उसमें भी नयी कहानी की वकालत की गयी थी| हिन्दी कहानी की मुकम्मल पड़ताल मासिक पत्रिका ‘नयी कहानियाँ’ में तब होती है जब जनवरी 1960 से दिसम्बर 1962 तक नामवर सिंह ‘हाशिये पर’ स्तम्भ में नयी कहानी को विस्तार से विश्लेषित करते हैं| यहीं वे पुरानी कहानी की सीमाओं को और नयी कहानी की सम्भावनाओं को स्पष्ट करते हैं| इसलिए शुरूआती कहानियों से बाद की कहानियों को अलग करते हुए उन्हें ‘नयी कहानी’ नाम देने का श्रेय नामवर सिंह को ही जाता है| नामवर सिंह के लेखों के शीर्षकों  ‘नयी कहानी:सफलता और सार्थकता’, ‘नयी कहानी:नये प्रश्न’, ‘नयी कहानी की पहली कृति:परिन्दे’ से भी यह बात प्रमाणित होती है कि ‘नयी’ को स्थापित करने के लिए वे कुछ बांकी नहीं रखते|आलोचना और समीक्षा की दृष्टि से ‘नयी कहानी’ का दौर हिन्दी कहानी का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है| ‘नयी कहानी’ आन्दोलन का असर यह हुआ कि हिन्दी कहानी में आन्दोलन चलाने की परम्परा सी बन गयी|
‘नयी कहानी’ के तर्ज पर अकहानी,सचेतन कहानी,समानान्तर कहानी,जनवादी कहानी नाम से कहानी आन्दोलन चलाने की कोशिशें खूब हुईं,लेकिन उनका असर व्यापक नहीं हुआ| समानान्तर कहानी का झंडा जरूर कुछ कथाकारों ने कुछ दिनों के लिए थामे रखा,क्योंकि इस आन्दोलन का नेतृत्व प्रसिद्द कथाकार कमलेश्वर कर रहे थे और उन दिनों वे चर्चित कथा- पत्रिका ‘सारिका’ के सम्पादक थे| जब कमलेश्वर ‘सारिका’ से अलग हुए तो नेतृत्व के संकट के कारण कहानी का ‘समानान्तर आन्दोलन’ भी तिरोहित हो गया| इन घटनाओं से इस बात की ही  पुष्टि  हुई कि कलात्मक सृजनात्मकता और प्रतिभाशाली रचनाकार के  विकास के लिए आन्दोलन आवश्यक नहीं है|
साहित्य की हरेक विधा की यह सच्चाई है कि समय के साथ वह अपना स्वभाव और तेवर बदलती है| 1950 की कहानी में नायक की खोज और नायकत्व की प्रतिष्ठा हिन्दी कहानी के प्रमुख सरोकार थे,लेकिन 1960 आते–आते या उसके बाद सरोकार बदल गए| नायक नेपथ्य में चले गये और परिस्थितियाँ प्रबल हो गयीं| रुखड़े यथार्थ के सूक्ष्म चित्रण से भाव-भवन की निर्मित्ति और संवेदना का समुन्दर सिरजना कहानी के कथ्य हो गए| आधुनिकता के रंग से प्रभावित हिन्दी कहानी की आवाज बदलने लगी| आधुनिकता के विभिन्न आयामों को अपनी कहानियों के माध्यम से धर्मवीर भारती,निर्मल वर्मा,भीष्म साहनी, कमलेश्वर, अमरकांत, मोहन राकेश,नरेश मेहता,राजेन्द्र यादव,ज्ञानरंजन,रवीन्द्र कालिया,मन्नू भण्डारी,उषा प्रियंवदा,कृष्णा सोबती,सुधा अरोड़ा आदि कहानीकारों ने व्यक्त करने की कोशिश की है|     
1960 के बाद भारतीय लोकतन्त्र दुर्दशा के राजपथ पर तेजी से अग्रसर होने लगा|  चीन से शर्मनाक हार, बेरोजगारी के कारण युवाओं में हताशा, राजनीतिक मूल्यों का पतन,हिंसा और भ्रष्टाचार का सर्वव्यापीकरण, सार्वजनिक जीवन में सादगी और ईमानदारी का विलोप, सत्ता की बढ़ती तानाशाही ये सिर्फ जुमले नहीं, ये लोकतन्त्र के श्रृंगार और भारतीय सामजिक जीवन के हिस्से बन गए| 1947 में देश की आजादी से मिले उत्साह और उमंग को 1975 आते-आते आपातकाल के अँधेरे ने पूरी तरह से ग्रस लिया| 1974 के आन्दोलन और 1977 के सत्ता परिवर्तन से थोड़ी देर के लिए उम्मीद बनी कि लोकतन्त्र सम्ह्लेगा, लेकिन सिर्फ राज बदला था, राजनीति नहीं| जनता पार्टी की आन्तरिक कलह और बिखराव ने जयप्रकाश नारायण के सपने को चूर कर दिया था| अपातकाल और नयी आर्थिक नीति के लागू होने  के बीच  का जो सोलह वर्षों का समय है वह भारतीय राजनीति का सबसे अधिक अव्यवस्थित,अस्थिर और उथल-पुथल वाला समय है| जिस समय इन्दिरा गाँधी की सत्ता में वापसी,पंजाब में आतंकवाद, स्वर्ण मन्दिर में सैनिक कार्रवाई,इन्दिरा गाँधी की हत्या,राजीव गाँधी के हाथों में देश की बागडोर सौंपने की परिघटनाएँ राष्ट्रीय पटल पर हो रही थीं उसी समय हिन्दी कहानी में गिरिराज किशोर, कामतानाथ,भीमसेन त्यागी,दूधनाथ सिंह,महीप सिंह, भीष्म साहनी,राजी सेठ, रमेश बतरा, हृदयेश, सूर्यबाला,शिवानी,माहेश्वर,मिथिलेश्वर,ममता कालिया, चित्रा मुद्गल,मुद्रा राक्षस,मृणाल पाण्डेय और बटरोही जैसे कथाकार अपनी-अपनी कहानी में अपने समय की जटिलताओं और खुरदुरे यथार्थ को दर्ज कर रहे थे|     
21मई 1991 को राजीव गाँधी की हत्या हुई फिर भी  24 जुलाई 1991 को भारतीय संसद ने  नयी आर्थिक नीति को लागू किया,इस बात से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस नयी नीति को लागू करने की तैयारी कितनी प्रबल थी और  तत्कालीन राजनीति अपने ‘लक्ष्य’ के लिए कितनी निष्ठुर और निर्मम थी(?) इस नयी नीति ने  भारत के  ‘स्वदेशीपन’ की न सिर्फ कब्र खोद डाली बल्कि समाज में गैरबराबरी इस कदर बढ़ा दी कि कुछ अमीरों के पास अकूत सम्पत्ति आ गयी और गरीबों के हिस्से में अपार विपत्ति आयी.जाहिर है गरीबों की साँसे अटकने का जो सिलसिला  शुरू हुआ वह थमने का नाम नहीं ले रहा है| युवाओं की बेरोजगारी और किसानों की आत्महत्या बढ़ गयी| नयी आर्थिक नीतियों,और उदारीकरण के दुष्परिणामों के बारे में तब जिन बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने चेताया था,आज 26 वर्षों बाद उनकी चेतावनी भयावह रूप में प्रकट हो रही है| नयी आर्थिक नीति ने जिस तरह से समूचे भारत को बाजार में बदल दिया है और जिस तरह हर भारतीय नागरिक को उपभोक्‍ता बनने के लिए विवश कर दिया गया है, वैसा हमारे अतीत में कभी नहीं हुआ| इस उपभोक्तावादी संस्कृति ने  पैसा और उपयोगकी ऐसी घृणित व्‍यवस्‍था को जन्‍म दिया है जिसमें हमारे परिवार और सम्बन्ध भी बाजार दर से अधिक हैसियत नहीं रखते| देश के कोने-कोने में पसर गई गैर-सरकारी और स्वयंसेवी संस्‍थाएं, सरकार और विदेशी निकायों से प्राप्‍त धन का इस्‍तेमाल फिरकापरस्‍ती और सामाजिक ताने-बाने को नष्ट करने में कर  रही हैं| देश की बुनियादी संरचना का आधारभूत स्‍तंभ रहा किसान इस नीति का सबसे बडा शिकार है जिसके पास आत्‍महत्‍या करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है|
पत्रकारिता और साहित्य में  बहुत निकट का सम्बन्ध है| सच्ची पत्रकारिता रोज का साहित्य रचती है और सच्चा साहित्य एक युग की पत्रकारिता करता है| ऐसा नहीं कि भूमंडलीकरण के दौर के कठिन समय की हिन्दी कहानी ने अनदेखी की है| कई कथाकारों ने निष्ठा और ईमानदारी से मनुष्यता के पक्ष में कहानी रचने की ‘साधना’ की है तो कई कथाकारों ने व्यवस्था से टकराने का ‘जोखिम’ भी लिया है| काशीनाथ सिंह,असगर वजाहत,शिवमूर्ति,स्वयं प्रकाश,अरुण प्रकाश, उदय प्रकाश, संजीव,धीरेन्द्र अस्थाना,अखिलेश, हरि भटनागर,प्रभु जोशी,ललित कार्तिकेय,संजय खाती,ह्रृषीकेश सुलभ,प्रियंवद, अवधेश प्रीत, योगेन्द्र आहूजा,परितोष चक्रवर्ती,मीरा कान्त,मधु कांकरिया, मिथिलेश्वर, रामदेव सिंह,देवेन्द्र,कर्मेंदु शिशिर, चित्रा मुद्गल,अब्दुल विस्मिलाह, गीतांजली श्री, हेश दर्पण, पंकज बिष्ट, महेश कटारे, नूर जहीर, जयनंदन, ओमप्रकाश वाल्मीकि, कैलाश वनवासी,भालचंद्र जोशी,  चन्द्रकिशोर जायसवालमैत्रेयी पुष्पा, नासिरा शर्मा, प्रेमपाल शर्मा,शंकर,अभय,नर्मदेश्वर, सारा राय,मुशर्रफ आलम जौकी,मनोज रूपड़ा,पंकज मित्र (सभी नाम गिनाना यहाँ संभव नहीं है) जैसे कथाकारों ने यथार्थ को पकड़ने की कामयाब कोशिशें की हैं| जबकि दूसरे छोर की सच्चाई यह भी है कि कथा-कर्म की निष्ठा के बजाय कहानी का ‘कारोबार’ भी तेजी से बढ़ रहा है| कहानी की प्रायोजित चर्चा-प्रशंसा,समीक्षा और आलोचना साहित्यिक पत्रकारिता के सम्पादकीय धर्म होते जा रहे हैं| छोटे-छोटे शहरों में संस्कृति का सूखा और गतिविधियों का उजाड़  है जबकि कार्पोरेट घराना बड़े खर्चे पर आयोजित ‘लिटरेरी फेस्टिवल’ का ‘जयपुर’ बसा रहे हैं| ऐसे समय में यह जरूरी हो गया है कि सच्चे और अच्छे  को रेखांकित करने के सम्पादकीय ‘खतरे’ लिए जाएँ|  
छठे से आठवें दशक तक की कहानियों पर अच्छा आलोचनात्मक काम हुआ है, लेकिन पिछले पच्चीस-तीस वर्ष की कहानियों पर संतोषजनक पड़ताल समकालीन साहित्य में कम दिखती है| इस दिशा में एक विनम्र प्रयास के क्रम में ही ‘संवेद’ के इस अंक को देखा जाना चाहिए| 1990 के बाद जिन कथाकारों ने नयी आर्थिक नीति और उदारीकरण के  दुष्‍परिणामों, प्रभावों तथा बदलावों को लेकर कहानियाँ लिखी हैं उनमें से 20  कथाकारों  पर 20 लेख  संवेदमें प्रकाशित हो यह योजना बनी थी| बीस कथाकारों को चुनने के लिए पहले पचास,फिर तीस और उसके बाद बीस कथाकारों को चुना गया और चयन की इस प्रक्रिया में कहानीकार,आलोचक और पाठक शामिल रहे| यहाँ दो बातों का जिक्र जरूरी लग रहा है- एक तो यह कि बीस कथाकारों के  चयन की प्रक्रिया लोकतान्त्रिक थी,दूसरी बात  यह कि हिन्दी की दुनिया इतनी बड़ी है और कथा-लेखन में जिस तरह की सक्रियता अभी आयी है, ऐसे में ‘बीस’ चुन लेने के बाद भी कई ‘बीस’ बचे रह जाते हैं| इसलिए यह आयोजन सिर्फ चयन के लिए नहीं ‘अध्ययन’ के लिए भी है|
बीस कथाकारों पर बीस  आलोचकों से लिखवाना सचमुच एक कठिन कार्य था| लगभग 18 महीने की तैयारी के बाद 16 कथाकारों पर ही लेख उपलब्ध हो सका| पूर्व निर्धारित बीस कथाकारों में से  जिन चार कथाकारों पर लेख इस अंक में नहीं जा पा रहा है,उन पर ‘संवेद’ के  आगामी अंकों में लेख प्रकाशित होंगे|
दिसम्बर 2013 में ‘संवेद’ ने एक पुस्तिका ‘समय,समाज और भूमण्डलोत्तर कहानी’ (अतिथि सम्पादक-राकेश बिहारी) का प्रकाशन किया था जिसमें 25 युवा कथाकारों (पंकज मित्र,रवि बुले, प्रियदर्शन, नीलाक्षी सिंह, मो.आरिफ, प्रभात रंजन, कुणाल सिंह, मनीषा कुलश्रेष्ठ, चन्दन पाण्डेय, राकेश मिश्र, वंदना राग, अरुण कुमार असफल, तरुण भटनागर, गीत चतुर्वेदी, प्रत्यक्षा, सत्यनारायण पटेल, उमाशंकर चौधरी, शशिभूषण द्विवेदी, अनिल यादव, कैलाश वानखेड़े, जयश्री रॉय,कविता,विमलचन्द्र पाण्डेय, अल्पना मिश्र और मनोज कुमार पाण्डेय) की एक-एक कहानियों पर एक-एक लेख प्रकाशित हुए थे| भूमंडलीकरण के दौर की हिन्दी कहानियों को समझने का वह एक प्रस्थान बिन्दु था| और यह भी कहा जा सकता है कि इस अंक की तैयारी की वह पूर्व पीठिका थी| उस पुस्तिका को जिस तरह से स्वीकारा  और सराहा गया था उससे यह उम्मीद बनी है कि ‘संवेद’ के इस आयोजन को भी पसन्द  किया जायेगा| यह उल्लेख सन्दर्भ से हटकर नहीं होगा कि उपन्यास,कविता और नाटक पर ‘संवेद’ ने भूमंडलीकरण के सन्दर्भ में तीन अलग-अलग  विशेषांक निकाले थे,जिनकी माँग काफी रही| भविष्य में आलोचना पर भी इसी तरह के एक अंक की योजना बन रही है|
इस अंक में जिन लेखकों,रचनाकारों ने अपना योगदान दिया है,उनके प्रति मैं ‘संवेद’ के पाठकों की ओर से आभार व्यक्त करता हूँ| उन लेखकों,रचनाकारों से मैं क्षमा याचना भी करता हूँ जिन्होंने अपनी रचनाएँ समय से दीं और उनके प्रकाशन में असाधारण विलम्ब हुआ|
‘संवेद’ की सम्पादकीय यात्रा में 1991 से आज तक कई  साथी जुड़े| किसी भी लम्बी यात्रा का यही तो सुख है कि साथी मिलते रहते हैं| हिन्दी के प्रतिभाशाली युवा आलोचक राहुल सिंह ‘संवेद’ के सम्पादन से जुड़ रहे हैं| विश्वास है कि उनके साथ होने के कारण युवा रचनाशीलता का बेहतर प्रतिनिधित्व ‘संवेद’ में हो पायेगा|      
 संवेद जुलाई 2017 का सम्पादकीय|

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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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