पुस्तक समीक्षा

‘क़ौल-ए-फ़ैसल’ : मौलाना आजाद की शानदार विरासत और हमारा वर्तमान

 

इतिहास को देखने-समझने के कई नजरिये हो सकते हैं। इसी तरह किसी महान शख्सियत को भी परखने के कई ढ़ंग हैं। या तो हम उनको उनके समय के सन्दर्भ में रखकर देख सकते हैं, जब वे जीवित थे, या फिर हम आज के सन्दर्भ में उनकी देनों का मूल्यांकन करने की कोशिश कर सकते हैं। किन्तु कुछ महान व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो दोनों ही कसौटियों पर खरे उतरते हैं। ऐसी ही एक अजीम शख्सियत मौलाना अबुल कलाम आजाद थे, जिन्होंने न केवल भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की, बल्कि उनके विचारों का परिचय हमें आज की हमारी चुनौतियों का हल खोजने में भी मदद कर सकता है।

एक युवा इतिहासकार मोहम्मद नौशाद की अनुवादित पुस्तक ‘क़ौल-ए-फ़ैसल’ ऐसी ही उम्मीद जगाती है जिसे पढ़ते हुये बार-बार यह लगता है कि मौलाना आजाद कहीं हमारे आस-पास ही खड़े हमें बार-बार सतर्क कर रहे हैं। सामान्यजन के लिये एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज को फिर से आमजन की भाषा में सामने लाने का कार्य करने वाले नौशाद साहब निश्चय ही बधाई के पात्र हैं, उनसे भविष्य में बहुत उम्मीदें हैं। उनके द्वारा लिखी पुस्तक की सामयिक भूमिका इसका प्रमाण है जो ध्यान से पढ़े जाने योग्य है।

‘क़ौल-ए-फ़ैसल’ (इंसाफ की बात) मौलाना अबुल कलाम आजाद का वह बयान है जो उन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाये गये राजद्रोह के आरोप के खिलाफ दिया था। यह अपने आप में स्वराज के लक्ष्यों-राष्ट्रवाद, लोकतंत्र और असहमति के आपसी सम्बन्धों पर एक सटीक टिप्पणी है जो आज भी प्रासंगिक जान पड़ती है। यह कलकत्ता की एक अदालत के सामने एक राजनैतिक कैदी द्वारा अपने बचाव में दी गई दलील भर नहीं है, यह एक बेहद नेक, ईमानदार, धार्मिक और अत्यंत पढ़े-लिखे विद्वान व्यक्ति द्वारा नाइंसाफी के खिलाफ आवाज बुलन्द करने के नैतिक अधिकार और कर्तव्य का आवाहन है।

खास बात यह भी है कि इंसाफ के प्रति यह प्रतिबद्धता, उस पर डटे रहना और उसके लिये कोई भी कीमत अदा करने को तैयार रहना मौलाना आजाद की अपनी धर्मनिष्ठा से जन्मी है। आज के वैश्विक माहौल में जब इस्लाम को आधार बनाकर कई कट्टरपंथी आतंकवादी संगठन फल फूल रहे हैं और इस्लाम को अधिनायकवादी राजनीति के लिये दोनों तरफ इस्तेमाल किया जा रहा है, मौलाना आजाद इस्लाम की यह समझ माने रखती है, जब वे कहते हैं कि – ‘‘एक मुसलमान से यह उम्मीद रखना कि वह हक का ऐलान न करे और जुल्म को जुल्म न कहे, बिल्कुल ऐसी ही बात है जैसे यह कहा जाय कि वह इस्लामी जिन्दगी से दस्तबरदार हो जाए।’’ (पृ. 138-39)

कई बार इतिहास में धर्मों की भूमिका की आलोचना करने वाले धर्म की सकारात्मक भूमिका को नजरन्दाज कर देते हैं। मौलाना आजाद का यह बयान उनकी आलोचना पर एक प्रश्न चिन्ह सा लगाता प्रतीत होता है। साथ ही हमें यह सोचने पर भी मजबूर कर देता है कि धर्म की इस अन्तर्विरोधी भूमिका का रहस्य क्या है? क्यों एक ही समय में मौलाना आजाद जैसे नेता पैदा हुये जो कहते हैं कि ‘‘मैं स्वराज छोड़ दूंगा मगर हिन्दू-मुस्लिम एकता का ख्याल दिल से नहीं निकालूंगा।’’ (पृ.-xx) और साथ ही जिन्ना और उनके समर्थक लोग भी हैं जो यह मानते थे कि हिन्दू और मुस्लिम दो कौमें हैं जिनमें कभी एकता नहीं हो सकती? यहाँ यह बात भी काबिले गौर है कि गाँधी भी अपने को एक ‘सनातनी हिन्दू’ ही मानते थे लेकिन उनका धर्म भी, अनेक सनातनी लोगों के विपरीत, स्वराज के रास्ते में बाधा खड़ी नहीं करता।

‘क़ौल-ए-फ़ैसल’ पढ़ते समय, उसी ऐतिहासिक संदर्भ में, गाँधी के द्वारा 1922 में अपने मुकदमे (Golden Trail) में अदालत में दिये गये बयान की ओर ध्यान जाना स्वाभाविक है। दोनों ही बयानों में कई समानतायें देखी जा सकती हैं। दोनों ही अपने जुर्म को कुबूल करते हैं, अपने बचाव में कोई दलील नहीं देते और अदालत से सख्त सजा देने की अपील करते हैं। दोनों की ‘कथनी’ और ‘करनी’ में कोई अन्तर नहीं है, दोनों के व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक जीवन के बीच कोई दूरी नहीं है। दोनों की आस्था स्वराज में है और दोनों ही अन्यायपूर्ण औपनिवेशिक सत्ता की खिलाफत को अपना कर्तव्य मानते हैं।

निश्चय ही अंग्रेजी सरकार द्वारा राजद्रोह/सेडीशन का कानून सरकार का विरोध करने वाले और आजादी की मांग करने वाले देशभक्तों को ताउम्र जेल में बंद करने के लिये बनाया गया था। तभी तो गाँधी कह सके कि – ‘‘राष्ट्रवाद और खिलाफत को तफ़सील से समझना हो तो मौलाना आजाद का ‘क़ौल-ए-फ़ैसल’ पढ़िये।’’ (इसी पुस्तक से)। जहाँ गाँधी अपने मुकदमें में यह साफ-साफ कहते हैं – “If one has no affection for the person or system, one should be free to give the fullest expression to his disaffection, so long as he does not contemplate, provide and incite to violence”. (Gandhi’s speech against sedition law, 1922)A । वहीं मौलाना आजाद भी अपने बयान में फरमाते हैं – ‘‘मैं मौजूदा सरकार को जायज हुकूमत तस्लीम नहीं करता और अपना मुल्की, मजहबी और इंसानी फर्ज समझता हूं कि इसकी हुकूमत से मुल्क और कौम को निजात दिलाऊँ।’’ (पृ. 134)

लेकिन स्वराज के लिये संघर्ष में गाँधी की लीडरशिप में ‘अहिंसा और असहयोग’ की राह में यकीन करते हुये भी मौलाना आजाद हिंसा के प्रश्न पर गाँधी से अलग राय को ईमानदारी से व्यक्त करते हैं – ‘‘महात्मा गाँधी की तरह मेरा यह विश्वास नहीं है कि किसी हाल में भी हथियार का मुकाबला हथियार से नहीं करना चाहिये।’’ (पृ. 160)। ध्यान देने वाली बात यह है कि हमारे स्वतंत्रता संग्राम के कद्दावर नेता किस तरह एक बड़े लक्ष्य की खातिर अपने सैद्धान्तिक मतभेदों के बावजूद एकजुट होकर संघर्ष कर सके।

कोई सवाल कर सकता है कि ठीक है कि ‘क़ौल-ए-फ़ैसल’ एक ऐतिहासिक दस्तावेज है लेकिन आज उसकी हिन्दुस्तानी में अनुवाद करने और पढ़ने/पढ़ाने की जरूरत क्यों आन पड़ी? इसका माकूल जवाब नौशाद साहब ने किताब की भूमिका में ही दे दिया है। उनका कहना है कि ‘‘अंग्रेजी हुकूमत ने सेडीशन/राजद्रोह का यह कानून सरकार के खिलाफ काम करने वाले देशभक्त हिन्दुस्तानियों को ताउम्र जेल में बन्द करने और आजादी की मांग को दबाने के लिये बनाया था। जाहिर है कि आजाद भारत के ऐसे कानूनों का कोई औचित्य नहीं हो सकता।

किन्तु, अचरज की बात यह है कि जो लफ़्ज हमारे संविधान में मौजूद ही नहीं हैं, वह हमारी मौजूदा राजनीति का एक नियामक तत्व बन बैठा है।’’ (पृ. Xxii-xxiii)। विडम्बना यह भी है कि मौजूदा दौर में राजद्रोह और देशद्रोह को समानार्थी मान लिया गया है। नतीजा सामने है कि अनेकों सामाजिक/राजनैतिक कार्यकर्ताओं और आन्दोलन करने वालों को इस कानून के अन्तर्गत मामला दर्ज करके जेलों में ठूंस दिया गया है, जो असहमति के लोकतांत्रिक अधिकार के पूरी तरह खिलाफ है। अपनी भूमिका में नौशाद साहब ने आंकड़ों के साथ वर्तमान स्थिति का विवरण प्रस्तुत करके पुस्तक की प्रासंगिकता को और बढ़ा दिया है।

बड़े दुख की बात तो यह है कि एक समय में स्वयं राजद्रोह कानून का विरोध करने के बावजूद नेहरू की सरकार ने 1951 में पहले संशोधन के जरिये राजद्रोह कानून को न केवल फिर से लागू किया बल्कि उसके पक्ष में दी दलीलों के माध्यम से उसे और मजबूत कर दिया। ये दलीलें थीं – 1. विदेशी मुल्कों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध और 2. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबन्ध। तब से इस कानून का इस्तेमाल केन्द्र/राज्य सरकारों द्वारा राजनैतिक प्रतिद्वन्द्वियों के खिलाफ और अभिव्यक्ति की आजादी को दबाने के लिये किया जाता रहा है। लेखक ने इसका राष्ट्रव्यापी और विशेष रूप से पिछले दस वर्षों का जो लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है वह आंख खोलने वाला है कि हम किस तरह के खतरे का सामना कर रहे हैं, जिसकी अभिव्यक्ति संविधान सभा में के.एम.मुन्शी का यह वक्तव्य था कि ‘‘वास्तव में लोकतंत्र का सार सरकार की आलोचना है।’’ (पृ. Xxxiii)

इसलिये नौशाद साहब के इस वक्तव्य से शायद ही किसी को ऐतराज हो कि – ‘‘राजद्रोह कानून का बढ़ता दुरुपयोग एक लोकतांत्रिक मुल्क के लिये गम्भीर चिन्ता का विषय है जो भारतीय संविधान की आत्मा में निहित इन स्वतंत्रताओं की नींव पर हमला है। समय की मांग है कि न्याय पालिका इस कठोर कानून की समीक्षा करे।’’ शायद यही कारण है कि हाल ही में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एन.वी.रमना ने ‘‘एक ऐसे कानून की आवश्यकता पर सवाल उठाया जो औपनिवेशिक राज्य द्वारा महात्मा गाँधी, मौलाना आजाद और तिलक जैसे नेताओं को चुप कराने के लिये इस्तेमाल किया गया था।’’ (पृ. Xliv)

लोकतंत्र में राजद्रोह के कानून की आवश्यकता को लेकर दो तरह के मत सामने आये हैं। दोनों ही इस कठोर कानून की न्याय पालिका द्वारा समीक्षा के पक्ष में हैं। पहला मत यह मानता है कि भले ही इस कानून को खत्म करना सम्भव न हो, इसके अन्धाधुन्ध उपयोग को सीमित करना जरूरी है और यह कार्य इसके प्रावधानों में निहित शक्तियों में व्यापक कटौती करके और सख्त दिशा-निर्देश करके दिया जा सकता है। नौशाद साहब इसी के पक्ष में दिखाई देते हैं। किन्तु दूसरा मत इसे औपनिवेशिक राज्य के निहित स्वार्थ से जुड़ा मानते हुये स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद एक लोकतांत्रिक राज्य में इसकी कोई सकारात्मक भूमिका नहीं देखता और कई अन्य देशों का उदाहरण देते हुये उसको पूरी तरह निरस्त करने की मांग करता है। प्रस्तुत पुस्तक में इन दोनों दृष्टिकोणों के बीच बहस की विशेष चर्चा तो नहीं है किन्तु यह हमें उसकी दहलीज तक जरूर पहुंचाती है जहाँ हमारे सामने यह बड़ा प्रश्न आज मुंह बाये खड़ा है। पुस्तक की सार्थकता भी इसी में है।

आज हमारे मुल्क में जो सियासत हावी है उसकी नजर में आम मुसलमान की राष्ट्रभक्ति संदिग्ध है और उसके पक्ष में आवाज उठाने वाला देशद्रोही। यह एक ऐसी हकीकत है जिससे मुँह चुराया नहीं जा सकता। ऐसे में राजद्रोह कानून आसानी से राष्ट्रद्रोह के हथियार की तरह इस्तेमाल हो जाता है। पर यह बदलता क्यों नहीं? विपक्ष में रहते हुये इसके खिलाफ आवाज उठाने वाले सत्ता में आते ही क्यों बदल जाते हैं, यह भी विचारणीय है। ऐसे में क्या किया जाय यह सवाल हर किसी के मन में उठना स्वाभाविक है। निश्चय ही यह पुस्तक का प्रतिपा़द्य विषय नहीं है किन्तु इस महत्वपूर्ण प्रश्न के सामने ला खड़ा करने के लिये लेखक/अनुवादक साधुवाद के पात्र हैं। निश्चय ही जिस ढ़ंग से उन्होंने मौलाना आजाद के जीवन और वक्तव्य को इस पुस्तक में उजागर किया है उसमें अंधेरे में कहीं रोशनी की किरण तो दिखाई देती है। पर यह रोशनी हमसे उसी नैतिक साहस और कुर्बानी की मांग करती है जो उन्होंने दिखाया था। हम उनकी विरासत के सही हकदार तो तभी हो सकते हैं जब हम उस रास्ते पर चलने का साहस दिखा सकें।

अंत में एक बात अनुवाद के बारे में कहना चाहूंगा कि अनुवाद में प्रयोग किये गये अनेक शब्द अब हिन्दी/उर्दू के चलन से बाहर के लगते हैं, इसलिये उनके अर्थ समझने में सामान्यजन को दिक्कत आती है। अच्छा हो, भविष्य के संस्करण में भाषा के इस पहलू पर थोड़ा ध्यान दिया जाये जिससे इस ऐतिहासिक दस्तावेज को पढ़ने/समझने में कोई कठिनाई न हो

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आलोक टण्डन

लेखक सामाजिक दर्शन के गम्भीर अध्येता हैं। सम्पर्क +916392192862, aloktndn1@gmail.com
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