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पंकज मित्र : अनगिन में अकेला कहानीकार
- मृत्युंजय पाण्डेय
1990 के बाद हिन्दी कथा-साहित्य में एक नयी पीढ़ी का आगमन हुआ। ये नयी पीढ़ी अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी से अलग, नयी-नयी संवेदनाओं और समस्याओं को लेकर उपस्थित हुई। पंकज मित्र इसी नयी पीढ़ी के कहानीकार हैं, इनका हिन्दी कहानी में जन्म 1990 के बाद होता है। पर ये इस भीड़ में खोते नहीं हैं और न ही इनकी कहानियाँ खोती हैं। अलग विषय वस्तु और भिन्न शैली की वजह से ये और इनकी कहानी सबसे अलग जाकर खड़ी हो जाती हैं। ये बिन पूछे ही कहती हैं कि मैं पंकज मित्र की कलम से निकली हूँ, इसीलिए मेरा तेवर और अंदाज दूसरों से बिल्कुल अलग है।
पंकज मित्र न तो गाँव के कहानीकार हैं और न ही शहर के। वे गाँव और शहर के बीच कस्बे के कहानीकार हैं। वे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं को कस्बे के संदर्भ में दिखाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो इन कस्बाई कहानियों के माध्यम से हम देश की समस्याओं से रु-ब-रु होते हैं। पंकज छोटे कस्बे के बड़े लोकनायक हैं, जो भूमंडलीकरण, लंपट पूँजीवाद और रिश्तों के बदलते समीकरणों को लेकर हमारे सामने उपस्थित होते हैं। इनकी कहानियों से गुजरते हुए यह कहना पड़ता है कि इन्होंने कथा-साहित्य के रूप और शिल्प को बदलकर रख दिया है। उदय प्रकाश के ढाँचे को ये तोड़ डालते हैं। जहाँ तक नब्बे के बाद की कथा पीढ़ी का सवाल है, इस पीढ़ी में ये सबसे अलग और अव्वल हैं। इनका जीवन अनुभव बहुत व्यापक है।
स्थानीयता पंकज मित्र की कहानियों की खास पहचान है,जिसे हम आंचलिकता भी कह सकते हैं, लेकिन पंकज की आंचलिकता ‘रेणु’ की आंचलिकता से भिन्न है। ‘रेणु’ की रचनाओं को पढ़ते हुए सिर्फ पूर्णिया अंचल का दृश्य उभरता है, जबकि पंकज मित्र की रचनाएँ इस सीमा का अतिक्रमण कर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक जाती हैं। पंकज के बिलौती महतो की समस्या सिर्फ उस कस्बे के किसान की या बिलौती महतो की निजी समस्या न रहकर सम्पूर्ण देश के किसानों की समस्या बन जाती है। उसकी हृदयविदारक पुकार मन को विचलित कर जाती है। इनके पात्र अंग्रेजी, हिन्दी और बांगला आदि शब्दों पर अपनी स्थानीयता का रंग चढ़ा कर बोलते हैं। स्थानीय मुहावरे इनकी कहानियों की जान हैं। पंकज मित्र की स्थानीयता सोची-समझी या किसी योजना के तहत नहीं, बल्कि वह परिस्थिति, कथानक और पात्रों की माँग है।
पंकज मित्र में किस्सागोई की अद्भुत क्षमता है। जहाँ कहानी की कोई संभावना नहीं दिखती वही वे कहानी ढूँढ़ लेते हैं। इनकी कहानियों की एक और खास विशेषता यह है कि इनके यहाँ गीतों की भरमार है। शायद ही ऐसी कोई कहानी हो जिसमें गीत के दो-चार टुकड़े न मिल जाएँ। इनके यहाँ प्रयुक्त गीत लोकगीत न होकर फिल्मी गीत हैं। कुछ लोग इस बात से चकित हो सकते हैं कि स्थानीयता की इतनी जबर्दस्त और जीवंत उपस्थिति होने के बाद भी इनके यहाँ लोकगीत नहीं आते, जबकि लोक शब्दों की भरमार है। आखिर क्यों? इनके यहाँ लोकगीतों के न आने की ठोस और वाजिब कारण है। शुरू में ही कहा गया है कि पंकज मित्र कस्बे के कथाकार हैं, गाँव के नहीं। कस्बा, यानी गाँव का बदला हुआ या कहें बिगड़ा हुआ रूप जो न तो ठीक से गाँव है और न ही शहर। जो गाँव शहर बनने की प्रक्रिया से गुजर रहा हो वहाँ लोकगीतों का बचे रहना और उसे गाना किसी आश्चर्य से कम नहीं। यदि पंकज मित्र अपने पात्रों के मुँह से लोकगीत गवाते तो यह बात थोड़ी अजीब लगती। इनके यहाँ भूमंडलीकरण, पूँजीवाद, उदारीकरण और विश्वबाजार की चपेट में आया हुआ गाँव है, जो काफी बदल चुका है। बदले हुए कस्बे के हिसाब से उनके यहाँ नायक, लोककथा, किबदंतियाँ, मुहावरे, देशज शब्द और फिल्मी गीत के टुकड़े आए हैं। भविष्य के इस लोकनायक ने अपनी लोककथाओं में ज्यादा फेर-बदल नहीं किया है। लोक-इच्छा को ध्यान में रखते हुए ही ये अपने पात्रों के बिगड़े हुए नामों में फेर-बदल नहीं करते,इन्होंने इन नामों को ज्यों-का-त्यों इस्तेमाल किया है। पंकज मित्र की एक कहानी में कई कहानियाँ हैं। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि इनकी एक कथा से कई धाराएँ निकलती हैं, पर इन धाराओं का वेग किसी सैलाब से कम नहीं है।
भिन्न विषय वस्तु, भिन्न शैली, भिन्न भाषा, भिन्न तेवर और भिन्न अंदाज की वजह से ही इनकी कहानियाँ अलग आलोचना पद्धति की माँग करती हैं। अब तक जिस शैली में कहानी की आलोचना हो रही थी, आलोचना की पुरानी लीक पर चलकर पंकज की कहानियों का मूल्यांकन नहीं हो सकता। यदि हम ऐसा करते हैं, तो यह उनकी कहानियों के साथ अन्याय होगा, न्याय नहीं।
इक्कीसवीं सदी के विकास के इस दौर में, आज भी हम वर्ण-व्यवस्था और जाति-पाँति जैसी कुत्सित वृत्तियों से उबर नहीं पाए हैं। पंकज मित्र की ‘ओपेंडिसाइटिस’ कहानी इक्कीसवीं सदी की सबसे ज्वलंत समस्या जाति-पाँति को प्रमुखता से उद्घाटित करती है। हल्के-फुल्के मज़ाकिया अंदाज में लिखी गयी यह कहानी हमारे समय की सबसे बड़ी समस्या पर तीक्ष्ण प्रहार करती है। इस कहानी में कहानीकार ने ऊँची जाति की मानसिकता को परत-दर-परत खोलकर रख दिया गया है। कहानी में ‘ओपेंडिक्स’ की बीमारी परमवीर सिंह को है। ध्यान दीजिए, कहानीकार यह बीमारी किसी और को नहीं लगवाता है। आखिर क्यों? इस क्यों का उत्तर जानने के लिए थोड़ा-सा ‘ओपेंडिक्स’ को जानना जरूरी है। ‘ओपेंडिक्स’ हमारे शरीर का एक अनुपयोगी अंग है, जो समय-बेसमय अपना असर दिखाते रहता है। ‘ओपेंडिक्स’ के इस भयानक दर्द से उबरने का सिर्फ और सिर्फ एक ही रास्ता है, इसे काटकर शरीर से अलग कर दिया जाए। शायद अब आप थोड़ा समझ गए होंगे कि यह जाति-पाँति भी ‘ओपेंडिक्स’ की तरह ही है। जो समय-कुसमय अपना प्रभाव दिखती रहती है, अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रहती है। हमारे शरीर में ‘ओपेंडिक्स’ का बचे रहना यानी, जाति-पाँति को मानना, इस बात का प्रमाण है कि हमारा विकास जानवर से हुआ है और अभी भी हमारे शरीर में जानवर के गुण शेष हैं। अभी भी हम उससे पूर्णत: उबर नहीं पाए हैं।
अब सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि इस बीमारी का इलाज क्या है? ऐसी कौन-सी युक्ति अपनाई जाए, जिससे यह ‘ओपेंडिक्स’ अपनी उपस्थिति दर्ज कराना छोड़ दे? ऐसा क्या किया जाए कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को नीच, पतित या अछूत न समझे? जिस प्रकार समय के साथ ‘ओपेंडिक्स’ अनुपयोगी हो गया है, उसी प्रकार विकास के इस दौर में जाति-पाँति भी अनुपयोगी है। अब यह जाति-पाँति नामक ‘ओपेंडिक्स’ समाज को, देश को बहुत दर्द दे रहा है, इसलिए इसका खत्म हो जाना ही बेहतर है। एक सच्चाई यह भी है कि कुछ स्वार्थी लोग नहीं चाहते कि यह खत्म हो, क्योंकि इसी की आँच के सहारे वे अपनी रोटी सेंक रहे हैं। इस बीमारी से बचने का एक उपाय यह हो सकता है कि हम बचपन से भी अपने बच्चों को यह सिखाएँ कि जाति-पाँति कुछ नहीं होती, सब मनुष्य एक समान हैं और सबमें समान प्रतिभा है। इस दर्द से उबरने के लिए बचपन में ही इस ‘ओपेंडिक्स’ को निकालना जरूरी है। विकास के रास्ते पर हम तभी तेजी से बढ़ सकते हैं। साथ मिलकर चलने और रहने पर हम बड़ी-से-बड़ी मुसीबतों का सामना कर सकते हैं। विकास के इस समय में जाति को मानना ‘चुस्त पैंट के जमाने में बेलबॉटम की तरह अननेचुरल लगता है।’ समय की मांग को ध्यान में रखते हुए जिस प्रकार हम बेलबॉटम से चुस्त पैंट की तरफ बढ़ गए, वैसे ही विकास के इस जमाने में हमें झूठी जाति के अभिमान को छोड़ना होगा। विकास से इस दौर में यह वर्ण-व्यवस्था ‘कसैले कड़वे स्वाद की तरह’ जीवन के रंग और खुशयों का गला घोट रही है। जिस प्रकार समय पर यदि ‘ओपेंडिक्स’ का इलाज नहीं किया जाए तो, यह ब्लास्ट कर जाता है और मरीज की जान चली जाती है,ठीक उसी प्रकार समय रहते समाज में तेजी से फैल रही वर्ण-व्यवस्था नामक बीमारी का भी इलाज करना होगा, नहीं तो एक दिन यह भी ब्लास्ट होगी, जिसमें हम सब झुलस जाएँगे। ‘ओपेंडिक्स’ की एक और विशेषता है, यह जिसके अंदर होती है उसे ही बर्बाद करती है, थोड़ा स्पष्ट करें तो जाति को मानने वाले ही विनाश के कगार पर पहुँचते हैं। जाति नामक ‘ओपेंडिक्स’ एक ऐसी भयंकर बीमारी है, जो दूसरे को नहीं बल्कि खुद को ही मार डालती है।
‘क्विज़ मास्टर और अन्य कहानियाँ’ (2011) संग्रह की ‘बोनसाई’ कहानी के नायक अचिंत्यनारायन यानी चिन्तू का प्रिय जुमला है— “मेरे सपनों में आसमान की ऊंचाई की बहक है और आँखों में हरियाली की झलक, मेरे आँखों में झांकिए।” कहानी से गुजरते हुए हम देखते हैं कि सचमुच चिन्तू के इरादे आसमान की ऊंचाई को छूने के हैं। पर, कहानी की बिडम्बना या कहिए चिन्तू की बिडम्बना यह कि वह आसमान की ऊंचाई को नहीं छू पाता। उसके हरे-भरे सपने उसकी आँखों में ही सिमट कर रह जाते हैं। आसमान से ऊँचे उसके सपनों के न पूरा होने की मुख्य वजह वह नहीं बल्कि हमारा समाज है। ‘बोनसाई’ प्रेमी यह समाज उसके सपनों को क़तर देता है।
चिन्तू के सपनों को कतरने में उसके पिता वकील साहब और पर्यावरण-प्रेमी ईमान साहब की विशेष भूमिका है। वकील साहब चिन्तू के सपनों को कतरने के लिए कैंची के रूप में अपनी पत्नी का इस्तेमाल करते हैं और ईमान साहब अपनी बेटी सायमा का। चिन्तू का एक से रिश्ता माँ का है और दूसरे से प्रेमिका का। यानी, उसका इन दोनों से मन और दिल का रिश्ता है। ये दोनों लोग इस बात को बखूबी जानते है कि चिन्तू इनकी बात को कभी टाल नहीं सकता और हम सब यह जानते हैं कि ये दोनों लोग (चिन्तू की माँ और सायमा) इनकी (वकील साहब और ईमान साहब) बात को नहीं काट सकते। हम देख सकते हैं कि एक मनुष्य को इंसान से ‘बोनसाई’ बनाने के लिए बड़े स्तर पर साजिश रची जा रही थी और इस साजिश में समाज के दो नामचीन लोग शामिल हैं। शायद इन्हें चिन्तू के सपनों की भान हो चुकी थी और ये कभी नहीं चाहेंगे कि कोई इनसे बड़े कद का हो। इसीलिए ये दोनों अपने-अपने तरीके से चिन्तू के सपने और हौसले को कतर डालते हैं।
कहानी में हम देखते हैं कि आसमान की ऊंचाई छूने वाले चिन्तू को ‘बोनसाई’ से सख्त नफरत है। प्रश्न उठ सकता है कि उसे ‘बोनसाई’ से क्यों नफरत है? हम सब जानते हैं कि ‘बोनसाई’ की दुनिया एक गमला ही होती है। साथ ही उसका स्वाभाविक विकास नहीं होने दिया जाता। वह जैसे ही सिर उठाता है, उसे कैंची से कतर दिया जाता है। उसे हमेशा बौना बनाकर रखा जाता है और चिन्तू को बौना बनने और बौना बनाने वाले लोगों से सख्त चिढ़ है। इसीलिए उसे उसके पापा पसंद नहीं हैं। उनका ‘बोनसाई’बनाना उसे पसंद नहीं है। पर ‘बोनसाई’प्रेमी वकील साहब चिन्तू को ‘बोनसाई’की तरह ही कांट-छांट कर, अपने मन के अनुकूल रखना चाहते हैं। किसी सजावट के समान की तरह। वकील साहब के पिता ने भी वकील साहब के साथ यही किया था।
एक ‘बोनसाई’ बनाने में या कहें एक इंसान को बौना बानने में बहुत-सा वक्त लगता है। हर रोज इन पर निगाह रखनी पड़ती है,हर समय यह डर लगा रहता है कि नजर से ओझल हुए नहीं कि नयी डालियाँ, नयी पत्तियाँ और नए सपनों की पंख लेकर उड़ चले और इन्हें नयी चीजें पसंद नहीं। नयी डालियाँ या कहें नए सपनों का पंख देखते ही यह कैंची लेकर भीड़ जाते हैं, कतरने के लिए। ‘बोनसाई’ को जिस गमले में लगाया जाता है, उस गमले की पेंदी में छेद कर दिया जाता है। यानी, किसी को बौना बनाने के लिए ये लोग उसके आधार में ही छेद कर देते हैं और जिसका आधार कमजोर हो वह कभी बढ़ नहीं सकता, उसका विकास नहीं होता। जिस प्रकार ‘बोनसाई’ का जमीन से जुड़ाव नहीं होता, उसी प्रकार ‘बोनसाई’ प्रेमी ये लोग, अपने शिकार को जमीन से जुडने नहीं देते। जमीन से जुड़े नहीं की अपनी जगह बनाई और ये यही तो नहीं चाहते कि कोई अपनी जगह बनाए, उनसे आगे निकले। ये मनुष्य को भेड़ बनाकर रखना चाहते हैं। इतने पर भी इनको संतोष नहीं, इन्हें यह भी मंजूर नहीं होता कि मनुष्य रूपी यह भेड़ झुंड से अलग हो। ये हमेशा इस बात का ध्यान रखते हैं कि ये झुंड से अलग न होने पाएँ। इन्हें “भगत सिंह और चन्द्रशेखर आजाद दूसरे के घर में ठीक लगते हैं अपने घर में नहीं।”
कहानी अपना रंग या यह कहें कि ईमान साहब अपना रंग वहाँ दिखाते हैं, जब एम. एन. सी. नामक कंपनी कुआरी नदी पर बांध बनाने का ठेका लेती है। इनवायरमेंटल-प्रेमी ईमान साहब का कहना था, जो सही भी था,इस बांध को बनाने के लिए हजारों एकर जंगल काटने होंगे तथा गाँव के गाँव डूब जाएँगे। वातावरण को प्रदूषण रहित रखने तथा लोगों के जीवन को बचाने के लिए ईमान साहब जमीन आसमान एक कर देने की बात कहते हैं। ईमान साहब चिन्तू को इस विषय पर एक रिपोर्ट तैयार करने को कहते हैं, जिसे दिल्ली के ‘इंटेरनेशनल सेमिनार ऑफ इनवायरमेंट’ में पढ़ा जाना था। चिन्तू के इस काम में मदद करने के लिए ईमान साहब सायमा को भी साथ-साथ लगा देते हैं और चिन्तू अपनी पूरी सलाहियत, नेकनीयती और मशक्कत के साथ दिन भर लू के थपेड़ों को सहता हुआ, गाँव-गाँव घूम-घूम कर, लोगों से मिल कर, उनसे बातचीत कर, जंगल के जीवन से खुद गहरे जुड़कर आँकड़े एकत्रित करता है। वह बेखुदी के आलम में रात-दिन इस कोशिश में लगा रहता है कि बांध के बनने से जंगल के लोगों के जीवन प्रवाह में कौन-कौन-सी रुकावटें आ सकती हैं। इस पेपर को तैयार करने में चिन्तू को पूरे डेढ़ महीने लगा था। इन्टरनेशनल सेमिनार में पेपर पढ़ने के बाद उसकी पीठ थपथपाई गई, उसे शाबासी मिली। पेपर पढ़ने के बाद ईमान साहब चिन्तू को घर लौट जाने को कहते हैं और खुद एक सप्ताह बाद लौटते हैं। वापस आते ही सायमा से कहते हैं, कोई उनसे मिलने आए तो उसे न मिलने दिया जाए, उन्हें एक बहुत जरूरी काम है।
इधर ईमान साहब अपने को कमरे में बंद कर लेते हैं और उधर एम. एन. सी. नामक कंपनी कुआरी नदी पर बांध बनाने के लिए क्रेन, डंपर वगैरह लानी शुरू कर देती है। चिन्तू यह देख सकते में आ जाता है और इसकी सूचना देने वह ईमान साहब के पास चलता है। यहाँ आकार चिन्तू को सायमा से यह ज्ञात होता है कि वे उससे मिलना नहीं चाहते और कोई कैम्पेन वगैरह नहीं होगा,इस बात को वह भूल जाए। चिन्तू की ऊँची आवाज सुन ईमान साहब बाहर आकर कहते हैं- “आयम कंविन्स्ड, फिलहाल कोई नुकसान नहीं है उन्हें अपना काम करने देने में। आखिर डेवलपमेंट भी तो जरूरी है। जब सिचुएशन खतरे के निशान को पार करेगी, तब देखेंगे। एंड नाउ आयम ऑफुली टायर्ड। सायमा! प्लीज आस्क हिम टु स्पेयर अस एंड यू कम इन।”
ध्यान दीजिये, ईमान साहब एक सप्ताह जो दिल्ली में थे, उन एक सप्ताह में वह कंपनी के साथ साठ-गांठ कर रहे थे। हमारे देश में यही होता है, ईमानदार और मेहनती चिन्तू जैसे लोगों को हमेशा दर किनार किया जाता रहा है। रिपोर्ट तैयार किया था चिन्तू ने,लोगों की समस्याओं को उसने जाना था और कंविनस्ड ईमान साहब हो गए। जंगल के निवासियों ने जिस मनुष्य तक अपनी समस्याएँ पहुंचाई थी, उसकी आवाज को दबा दिया गया। उसकी आवाज के सहारे उन हजारों लोगों की आवाजों को भी दबा दिया गया। वर्षों से विकास के नाम पर जल, जंगल और जमीन पर कब्जा किया जाता रहा है। हम देख सकते है, पंकज मित्र कहानी को किस ऊंचाई तक पहुंचा देते हैं।
कहानी के एक और पहलू पर अभी बात करना शेष है, ईमान साहब सायमा को चिन्तू के साथ इसलिए भेजते हैं कि वह उसके काम पर निगाह रख सके। अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु ईमान साहब अपनी लड़की को औज़ार के रूप में इस्तेमाल करते हैं। सायना के साथ चिन्तू के कुछ करने से भी उन्हें परहेज नहीं है। कहानी में ही हम देखते हैं कि चिन्तू जब उसे चूमता है तो वह विरोध नहीं करती। कहीं-न-कहीं ईमान साहब ने इसकी भी छूट दे रखी थी। आप देख सकते हैं ईमान साहब जैसे लोग किस हद तक गिर सकते हैं। ईमान साहब उसे बौना बना देते हैं, ‘बोनसाई’ की तरह। उन्हें यह मंजूर नहीं कि चिन्तू का कद उनसे बड़ा हो। उसके कद को या कहें उसके हाथ-पाँव को काटने के लिए कैंची के रूप में अपनी लड़की का इस्तेमाल करते हैं।
कहानी का अंत इन पंक्तियों से होता है- “चिन्तू चला जा रहा था – चिलचिलाती धूप में। सूरज एकदम सिर पर था और उसका साया बहुत ही नन्हा-सा बन रहा था – धरती पर उग आए बिलकुल एक बोनसाई की तरह।” आखिर यही तो ईमान साहब चाहते थे।
पानी हमारी प्राथमिक जरूरतों में से एक है। मनुष्य एक दिन बिना भोजन के रह सकता है लेकिन बिना पानी के नहीं रह सकता। जीवन जीने के लिए जितनी साँस की जरूरत है, उतनी ही पानी की। पर आज विश्वबाजार की दुनिया में सभ्यता और विकास के नाम पर, पानी पर कब्जा किया जा रहा है। प्रकृति ने मनुष्य को जीवन के जिस आधार से नवाजा था, आज उस पर कुछ पूँजीपतियों का कब्जा बढ़ता जा रहा है और हमारी सरकारें उनकी इस मंशा को पूरे मन से सफल बनाने में लगी हुई हैं।
कहानीकार पंकज मित्र अपनी कहानी ‘बिन पानी डॉट कॉम’ में इसी षड्यंत्र का पर्दाफाश करते हैं। पंकज बहुत ही खूबी के साथ यह बताते हैं कि कैसे विकास के नाम पर एक-एक कर सभी प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा किया जा रहा है। नदी और तालाब बड़ी-बड़ी कंपनियों के अधीन होते जा रहे हैं। पूँजी और बाजार के हमले से आज हर जगह बोतल बंद पानी बिक एंव दिख रहा है। यह हमारे समय का कड़वा सच है।
‘बिन पानी डॉट कॉम’ कहानी में पंकज मित्र बहुत ही बारीकी से यह दिखाते हैं कि कैसे लोगों को बोतल बंद पानी खरीदने के लिए मजबूर किया जा रहा है और लोग मजबूर हो रहे हैं। लोगों को ज़ोर-जबर्दस्ती से नहीं, बल्कि पूरी योजना के तहत मजबूर किया जा रहा है। हम देखते हैं गाँव के छोटे-छोटे स्टेशनों पर पानी का नल तो है, पर उस नल में पानी नहीं है, सारी टोटियाँ सूखी पड़ी हैं और इन सूखी हुई टोटियों की तरह हमारी सरकारों का मन भी सूख चुका है। इन टोटियों का सूखना षड्यंत्र का एक हिस्सा है, जिसमें हमारी सरकारें और पूँजीपति मिले हुए हैं। पहले सरकार जनता को खुश करने और वोट बटोरने के लिए जगह-जगह नल लगवाती है और बाद में जीत जाने के बाद, पूँजीपतियों को खुश करने के लिए इन नालों को या तो तुड़वा देती है या फिर पानी का कनेक्सन कटवा देती है। ताकि, आम जनता बोतल बंद पानी खरीदने के लिए विवश हो जाए। हमारी ही सरकार हमारे सामने कोई विकल्प नहीं छोड़ रही। आज नदी, तालाब और दरिया पर बड़ी-बड़ी कंपनियों और पूँजीपतियों का अधिकार होता जा रहा है। सरकार इनके हाथों इन प्राकृतिक संसाधनों को बेच रही है। इस भारत का सपना न तो गाँधी ने देखा था और न ही अंबेडकर ने।
‘बिन पानी डॉट कॉम’ कहानी में एक बूढ़ा सुल्तान नए सुल्तान की ताजपोशी कर रहा है। जाहिर-सी बात है सुल्तान से पंकज मित्र का आशय कुछ और है। बूढ़ा सुल्तान कोई और नहीं बल्कि हमारी सरकार है और ये कंपनियाँ नए सुल्तान हैं। यहाँ कहानीकार जवान सुल्तान की ताजपोशी की बात कह रहा है, यानी, आज देश की बागडोर बूढ़े सुल्तान (भारतीय सरकार) के हाथों से निकलकर नए सुल्तान (बड़ी-बड़ी कंपनियाँ) के हाथों में चल गई है। आज इनके ही इशारे पर हमारी सरकारें उठ-बैठ रही हैं, ये रिमोट की तरह हमें तथा हमारे देश को चला रहे हैं। आज पानी के इंतजाम की बागडोर इन कंपनियों ने थाम लिया है। जनता की तंदरुस्ती के नाम पर ये कंपनियाँ तंदरुस्त होती जा रही हैं।
आज विकास और राजनीति के नाम पर या कहें देश-भक्ति के नाम पर या धर्म के नाम पर पूँजीपति, सेठ और राजनेता देश-समाज में एक सांस्कृतिक प्रदूषण फैला रहे हैं। यह सांस्कृतिक प्रदूषण ध्वनि या धुआँ प्रदूषण से कहीं अधिक घातक है। पंकज मित्र की ‘अफसाना प्रदूषण का…’ शीर्षक कहानी अपने आप में बहुअर्थी है। इस कहानी की शुरुआत सांस्कृतिक-धार्मिक प्रदूषण से होती है, जिसकी पृष्ठभूमि में 1992 वाली घटना है। यह सांस्कृतिक प्रदूषण धर्म और संस्कृति के नाम पर एक खास राजनीतिक दल द्वारा फैलाया जाता है। राजनीति के ये घोड़े भाई-चारे की नरम घास को अपने टापों तले रौंदते हुए सड़क से संसद तक का सफर तय करते हैं। इनकी इस यात्रा में सबसे अधिक सहायक होते हैं धर्म गुरु। ये धर्म गुरु, धर्म की नहीं, बल्कि ‘दुर्गंध की प्रतिमूर्ति’ थे, जो ‘प्रचंड विस्फोटों की शृंखला और साथ ही बदबू के भभूके’ छोड़ा करते थे। पंकज मित्र लिखते हैं- “एक क़दीम इमारत के मिस्मार होने की आवाज पूरे मुल्क में गूंज उठी थी लेकिन जो ‘आह’ हर जगह थी और बहुतों को सुनाई नहीं दे रही थी, वह थी एक भरोसे के टूटने की।” इसी भरोसे के टूटने की वजह से, कमरुआ का बेकरी जला दिया जाता है और वह अपने कस्बे को छोड़ रुँधे गले और भारी मन से दिल्ली की ओर कूच करता है। दिल्ली के नाम पर लगभग दिल्ली से बाहर अपने मामूजाद भाई रफीक की छोटी-सी बेकरी में उसका हाथ बटाने लगता है।
पर कमरुद्दीन को क्या पता था कि यहाँ की भी हवा-पानी खराब हो चुकी है। विकास और प्रदूषण के नाम पर इन जगहों पर भी पूँजीपतियों और बिल्डरों द्वारा कब्जा किया जा रहा था। पहले एक साजिश के तहत इन वीरानों में इन गरीबों को बसाया जाता है या बसने दिया जाता है और जब ये इन वीरानों को रहने लायक बना देते है तब इन्हें प्रदूषण और विकास के नाम पर उजाड़ दिया जाता है। पंकज मित्र बहुत ही कम शब्दों में इस समस्या को दिखा जाते हैं कि कैसे सैयद राशिद हसन साहब अपनी ‘मैकराशिद बेकरी’ को, जिसमें डबलरोटियाँ, बन्स, पिज्जा, बर्गर बनाते हैं, इसे जमाने के लिए रफीक की बेकरी को प्रदूषण के नाम पर, ग्रीन कोर्ट का सहारा लेकर, उसे उजाड़ डालते हैं। इस बेकरी के उजड़ जाने से रफीक अंधेरे का रास्ता अख़्तियार कर लेता है और कमरुआ पुनः अपने गाँव आ जाता है। कुछ लोग अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए लगातार इस सांस्कृतिक प्रदूषण को फैला रहे हैं। पर ऐसे समय में भी बजरंगी लाल चौरसिया और शरफुद्दीन जैसे लोग भी हैं जो सांस्कृतिक एकता की मिशाल छोड़ जाते हैं और उनकी इस एकता को उनके बाद कमरुद्दीन और उसकी बीबी रोकसाना खातून बरकरार रहती है।
किसानों की आत्महत्या की समस्या को भी पंकज मित्र अपनी कहानियों में उठाते हैं। वे सिर्फ इस समस्या को उठाकर छोड़ नहीं देते, बल्कि उनकी आत्महत्या को किस तरह से पूँजीवादी समाज द्वारा बेचा जाता है इसका भी खुलासा करते हैं। ‘आज, कल, परसों तक…’ कहानी में हम देखते हैं कि कैसे एक ही परिवार के तीन सदस्य भूख, गरीबी, बेरोजगारी और कर्ज से तंग आकर आत्महत्या करते हैं। गाजियाबाद के पास हीरापुर गाँव का साठ वर्षीय बलराम सिंह नामक किसान कर्ज, फसल की बर्बादी और बैंक से क्रेडिट कार्ड समय से न मिल पाने की वजह से आत्महत्या कर लेता है। इसी किसान का बड़ा बेटा रणवीर नोएडा के एक प्लास्टिक के खिलौने की कंपनी में काम करता था, जिसे आठ महीने से तनख्वाह नहीं मिली थी। रणवीर मजदूरी कर अपने किसान पिता के कर्ज को चुकाना चाहता था, लेकिन इसे यह कहकर निकाल दिया जाता है कि आदमी को भगाओ, ये कंपनी पर अतिरिक्त बोझ हैं। आर्थिक उदारीकरण के चलते ये छोटी-छोटी कंपनियाँ बड़ी-बड़ी कंपनियों के हाथों बिक रही हैं, बाजार में सस्ते दामों में चाइना का खिलौना उपलब्ध हो रहा है, जिसकी वजह से ये भारतीय कंपनियाँ बंद हो रही हैं और सरकार की इस नीति (विदेशी विनिमय) की चपेट में आ रहे थे रणवीर जैसे लोग। अंत में रणवीर गरीबी और कर्ज से तंग आकार कंपनी के गेट से सामने आत्मदाह कर लेता है। इस गैरतमंद पिता और पुत्र को जीवन से आसान मौत लगी। समस्या यहाँ भी खत्म नहीं होती इस किसान पिता का छोटा बेटा और इस मजदूर का छोटा भाई तेजप्रताप, जो एक साइबर कैफे चलता है, वह सेक्स रैकेट में पकड़ा जाता है।
कहानी का यह एक पक्ष है, कहानी के दूसरे पक्ष में पंकज मित्र न्यूज चैनल वालों की खबर लेते हैं। कहानीकार यह दिखाता है कि कैसे टीआरपी बढ़ाने के लिए ये मीडिया वाले इन खबरों का बाजारीकरण करते हैं। सच्चाई, संवेदना, मानवीयता और इंसानियत से इनका कुछ भी लेना देना नहीं है। कहानी के अंत में खबरिया चैनल वाले इस आत्महत्या की गुत्थी को कुछ इस तरह से सुलझाते हैं कि शर्म भी शर्मसार हो जाती है। उनके अनुसार रणवीर की पत्नी और तेजप्रताप के बीच अवैध संबंध था, रणवीर नोएडा में सेक्स रैकेट चलाता था और उसके इस काम में उसकी भाभी भी साझेदार थी, यही बात रणवीर को नागवार गुजरी और उसने खुद को जलाकर ख़ुदकुशी कर ली। अब बचे किसान पिता बलराम सिंह जिसे अपने रास्ते से हटाने के लिए उसकी पत्नी ने जहर देकर मार डाला। अंत में पुलिस रणवीर की पत्नी को पकड़ कर जेल ले जाती है। इस कहानी में हम देखते हैं कि कैसे दो आत्महत्या को हमारे न्यूज चैनल वाले सेक्स रैकेट और अबैध संबंध दिखाकर इस घाटन को सनसनीखेज खबर बना देते हैं। ऐसा नहीं है कि वे सच्चाई जानते नहीं है, सारी सच्चाई को जानते हुए भी वे ऐसा करते हैं।
‘आज, कल, परसों तक…’ कहानी में पंकज मित्र यह भी दिखते हैं कि एक तरफ सरकार की तरफ से किसानों के लिए नयी-नयी योजनाओं की घोषणा हो रही है और दूसरी तरफ किसान गरीबी और कर्ज से तंग आकार आत्महत्या कर रहे हैं, एक तरफ सरकार लोगों को अधिक-से-अधिक काम देने की बात कर रही है और दूसरी तरफ मजदूरों को करखानों से निकाला जा रहा था। आखिर यह कैसा विरोधाभास है? सरकार की यह दोहरी नीति, उसका यह दोहरा चरित्र किसान मजदूरों को ले डुबा है। हमारे किसान-मजदूर भाई इस दोहरी-चौतरफा मार को सह नहीं पा रहे हैं। सरकार, प्रकृति, बाजार, पूँजीपति और कंपनियाँ इन पर एक साथ चारों तरफ से हमला कर रही हैं। चमकीले भारत के निर्माण में इनकी कोई जरूरत नहीं है, जरूरत है तो सिर्फ मैकडॉनल्ड, पिज्जा, कोका कोला जैसी चीजें बनाने वाली कंपनियों की।
इस कहानी के बीच-बीच में खबरिया चैनल के माध्यम से जो विज्ञापन दिखाये गए हैं और प्रधानमंत्री के मुंख से जो वक्तव्य दिलवाया गया है वह हमारी व्यवस्था पर एक जबर्दस्त तमाचा है और यह तमाचा पंकज मित्र मारते हैं।
आजादी के आज सत्तर वर्ष बाद भी मेहनत और मुनाफा का ताल-मेल नहीं बैठ रहा है। विदेशी बीज, देशी सरकार और गलत योजनाएँ किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर कर रही हैं। पहले पहल विदेशी बीज किसानों को फसल में बढ़ोतरी और मुनाफा देकर ललचाती है और फिर उनकी कमर तोड़ती है। देशी बीज कम पैसे और कम लागत में गारंटी के साथ उपजता था, लेकिन इस विदेशी बीज की कोई गारंटी नहीं और ऊपर से खर्च अधिक। इस विदेशी बीज में ‘हारी-बीमारी बर्दाश्त करने की ताकत’ बहुत कम होती है। जिसकी वजह से किसानों को जरूरत से ज्यादा मात्र में खोतों में खाद डालनी पड़ती है, धीरे-धीरे यही खाद बाद में मिट्टी की उर्वरा शक्ति को खत्म कर देता है। खेत की उर्वरा शक्ति खत्म होने के बाद न तो कम्पनी की बीज काम आती है, न खाद-पानी और न ही कीटनाशक। पंकज मित्र की कहानी ‘बिलौती महतो की उधार-फिकिर’ में इसी समस्या को दिखाया गया है। इस कहानी के किसान बिलोती महतो की बेचनी, उसका दुख मन को भीतर-ही-भीतर मथ देता है। इस कहानी में हम यह भी देखते हैं कि समय के साथ आज शोषण का तरीका भी बदल गया है। आज न तो जमींदार हैं और न ही उसके कारिंदे, फिर भी किसान बर्बाद हो रहे हैं, उनका शोषण हो रहा है। इसी शोषण की वजह से बिलौती पागल हो जाता है और बलराम सिंह आत्महत्या कर लेता है।
कहानीकार पंकज मित्र किसानों के साथ-साथ आदिवासियों को भी अपनी कहानी में जगह देते हैं। ‘कस्बे की एक लोककथा बतर्ज बंटी और बबली’ में पंकज मित्र यह दिखाते हैं कि कैसे कुछ बड़े सरकारी अधिकारी और आदिवासी कल्याण जनजातीय विकास जैसे नाम वाली संस्थाएँ इन आदिवासियों की सेवा और सहायता करने के नाम पर अपना स्वार्थ सिद्ध कर रही हैं। ये लोग सरकारी योजनाओं का लाभ तो आदिवासियों को पहुंचाना चाहते हैं पर विकास आदिवासियों का नहीं इनके खुद का हो रहा है। विकास के नाम पर कोई पाँच वर्ष से अपना उल्लू सीधा कर रहा है तो कोई दस वर्ष से। कहानी की सबसे बड़ी विडम्बना यह कि एतवा नामक आदिवासी को बंटी नामक अधिकारी नक्सली कह कर गोली मार देता है और आदिवासी कल्याण के लिए सरकार की तरफ से आए पचास लाख रुपए का गमन कर जाता है। उसकी पत्नी बबली जो खुद एक सरकारी अधिकारी है वह एतवा बिरहोर के मौत के बाद सेवा के नाम पर मेवा खाने के लिए एन. जी. ओ. खोल लेती है। एन. जी. ओ. चलाने वाले अधिकांश लोगों की यही सच्चाई है, कल्याण और विकास के नाम पर आने वाले सारे फंड से ये अपना कल्याण और विकास करते हैं। पंकज मित्र की यह कहानी इस सच्चाई को तार-तार कर देती है।
‘चमनी गंझू की मुस्की’ शीर्षक कहानी में हम देखते हैं कि कैसे बेटू इमाम, आदिवासी चमनी गंझू के भोलेपन और उसके अनपढ़ होने का नाजायज फायदा उठता है। चमनी गंझू द्वारा बनाए गए आदिम भित्तिचित्रों को अपना बताकर, उसकी खोज का सारा श्रेय वह खुद ले लेता है। उसके द्वारा बनाए गए दीवार पर पेड़–पौधे, जानवर और जानवरों के शिकार के आदिम चित्रों का खोजकर्ता वह स्वयं बन जाता है। प्रेस-कॉन्फ्रेंस कर इस दुर्लभ खोज का सारा श्रेय वह खुद लेता है। बाद में इसी के सहारे वह देश-विदेश की यात्राएं करता है, उसे अंतर्राष्ट्रीय कला जगत में पहचान प्राप्त होती है। पर इस कला की जननी गंझू वहीं-की-वहीं रहती है। उसे एक चित्र के बदले मात्र दो सौ रुपये मिलते हैं और इन्हीं चित्रों को बेटू इमाम अंतर्राष्ट्रीय बाजार में हजारों-लाखों में बेचता है। कहानी में कुछ क्षण के लिए यह लगता है कि बेटू को चमनी गंझू से प्रेम हो गया है, वह उससे शारीरिक सम्बंध भी बनाता है, पर यह भ्रम भी जल्द ही टूट जाता है। दरअसल बेटू आदिवासी गंझू का इस्तेमाल कर रहा था। वर्षों से यही तो होता आ रहा है। इन भोलेभाले आदिवासी लोगों के भोलेपन का गलत फायदा उठाया जाता रहा है। पंकज मित्र अपनी कहानियों के माध्यम से यह दिखाते हैं कि बंटी, बबली या बेटू जैसे बड़े लोगों के जीवन में एतवा और चमनी गंझू जैसी आदिवासी लोगों के लिए कोई जगह नहीं। ये सिर्फ इन्हें अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करते हैं और स्वार्थ सिद्ध हो जाने के बाद एतवा की तरह इन्हें नक्सली कहकर गोली मार दी जाती है या चमनी गंझू की तरह बेइज़्जत करके निकाल दिया जाता है।
विकास की अग्नि में ये आदिवासी झुलस रहे हैं। विकास के नाम पर नदी, जंगल और पहाड़ों पर कब्जा किया जा रहा है। इन आदिवासियों का सबसे बड़ा दोष यह है कि इनकी धरती की कोख कोयले और लोहे से भरी हुई है। विकास के अभिलाषी ये असुर इस कोयले और लोहे को हर कीमत पर हासिल करना चाहते हैं। इसके लिए ये अपनी शक्ति, चालाकी और बेईमानी हर चीज का इस्तेमाल कर रहे हैं। जब कुछ नहीं सूझ रहा तो इन्हें नक्सली और माओवादी कहकर मार दिया जा रहा है।
पंकज मित्र अपनी कहानियों के माध्यम से किसान, मजदूर, आदिवासी, स्त्री, दलित, पर्यावरण, योग और पानी की समस्या को प्रमुखता से उठाते हैं। इनकी ‘जोगड़ा’ कहानी में हम यह देखते हैं कि कैसे योग के नाम पर कुछ लोग अपने बाजार को फैला रहे हैं। इन योग गुरुओं को बड़ी-बड़ी कंपनियाँ अपने प्रोडक्ट के लिए इस्तेमाल कर रही हैं और वे आसानी से इस्तेमाल हो रहे हैं। रामदेव बाबा जैसे कुछ लोग योग के नाम पर, स्वदेशी के बहाने, न जाने लोगों को क्या-क्या खिला रहे हैं और लोग खा भी रहे हैं। इन योग गुरुओं का मुख्य उद्देश्य मात्र अपने व्यापार को फैलाना है।
पंकज मित्र की कहानियों से गुजरना अपने समय के संकट से रु-ब-रु होना है। विशिट्टताबोध के इस समय में पंकज मित्र अति सामान्य लोगों, पर उनकी गंभीर समस्या को लेकर हमारे सामने उपस्थित होते हैं। भूमंडलीकरण, पूंजीवाद और बजारवाद की दुनिया इन लोगों का किस तरह से आखेट कर रही है, पंकज मित्र की कहानियाँ इसको प्रमुखता से दिखाती हैं। न चाहते हुए भी ये इसका शिकार हो रहे हैं। इस आभासी समय में, विकास के बहाने इन किसान, मजदूरों और आदिवासियों का सूअर की तरह आखेट किया जा रहा है। इन्हें दौड़ा-दौड़ा कर और हंफा-हंफा कर मारा जा रहा है।
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परिचय :
जन्मतिथि- 20 जुलाई 1982
सम्प्रति- प्रवक्ता, विद्यासागर कॉलेज फॉर वीमेन, कोलकाता
प्रकाशन- वागर्थ, समकालीन भारतीय साहित्य, कथादेश, बनास जन, पंचशील शोध समीक्षा, संकल्प, सबलोग, अनुसंत्युंधान, समकालीन चुनौती, मुक्तांचल, जनकृति आदि साहित्यिक पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित
संपर्क;25/1/1, फकीर बगान लेन, पिलखाना, हावड़ा – 711101, मो॰ +91 9681510596,
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