कहानी
हूजी आतंकी
- सुभाष चन्द्र कुशवाहा
वह सितम्बर का अंतिम सप्ताह और रविवार का दिन था । प्रो.घनश्याम के घर पर ठीक पांच बजे आक्रमण और प्रदर्शन साथ-साथ हुआ था। उस दिन हवा शांत और बेहद सहमी हुई थी । वातानुकूलित कमरों के बाहर हल्की उमस महसूस की जा रही थी । इस आक्रमणनुमा प्रदर्शन या प्रदर्शननुमा आक्रमण का ओर-छोर, सहमी और शांत हवा में सांस लेने की वक्त जरूरत का फैलाव करना था,जिससे कि पढ़े-लिखे या सोचने-समझने वाले तहजीब सीख लें । अपने घरों, दीवारों या हातों के अंदर रहें और बतियायें । संस्कृति रक्षा की कसमें खायें और देशद्रोहियों को सबक सिखाने के लिए वैसा ही सोचें, जैसा कि कहा जाये ।
यह ऐसा काल था, जिसने प्रकृति के अंग-प्रत्यंग को अपने इशारे पर चलाना शुरू किया था। रिमोट कंट्रोल पर नियंत्रण के सहज तरीके इजाद किए गए थे जिसमें खौफ और भ्रम पैदा करने का एक ही बटन था।
प्रदर्शन में शामिल यही कोई पन्द्रह-बीेस लोग रहे होंगे, ज्यादातर युवा। उम्र बीस से चालीस के बीच । उनके चेहरे पर आक्रोश के बजाय लम्पटई और दबंगई थी । गले में खास रंग का गमछा था। समय के साथ गमछे के रंग और लगाने की स्टाइल का पेटेंटीकरण हो चुका था।
प्राॅक्टर और प्रोफेसर रामबचन तिवारी पर उस समय विश्वविद्यालय का अतिरिक्त भार था। लिखित और अलिखित, सभी गतिविधियों को संचालित करने में उनकी अहम भूमिका होती। उनके विरोधी कहते, ‘प्रोफेसर रामबचन तिवारी, बाहर से नियंत्रित होते हैं और कुलपति, रामबचन तिवारी द्वारा।’प्रोफेसर के घर पर हुए प्रदर्शन पर भी प्रो. रामबचन तिवारी की सतर्क निगाह थी। उनके अनुसार,‘प्रदर्शनकारी बाहरी थे । कैम्पस का उनसे कोई लेना-देना नहीं था। प्रो. घनश्याम से उनकी नाराजगी का कारण भारतीय परंपरा के विरुद्ध बोलना, लिखना औरसांस्कृतिक छेड़छाड़ करना था ।’ कहने को तो लोग कुछ और भी कह रहे थे । मसलन कि,‘उनकी जाति, विचारधारा और लेखन क्षमता, जिसके सहारे वह पुरातन संस्कृतियों को अंधविश्वासऔर पाखंड कह, अंड-बंड लिखते-बोलते रहते थे। कोई जरूरी तो नहीं कि हर क्रिया के विरुद्ध प्रतिक्रिया का पुराना तरीका हो ? तरीके बदल रहे हैं । यह समय की मांग भी हो सकती है ?’
अवकाश का दिन कुछ सुस्त और अलसाये मौसम को ओढ़े निरीह लग रहा था। कैम्पस में कोई विशेष गतिविधियां नजर नहीं आयीं थींसिवाय प्रोफेसररामबचनतिवारी की गाड़ी के, जो दो बार कुलपति आवास की ओर धुंआ उड़ाते गई और आई थी। प्रोफेसर रामबचन तिवारी प्राॅक्टर होने के नाते भी कैम्पस की हवा-बयार पर नियंत्रण रखने का अधिकार रखते थे। उधर प्रदर्शन के बादविश्वविद्यालय पुलिस चैकी इंचार्ज की मोटर साइकिल घुरघुराते हुए प्रो. घनश्याम के आवास तक गई थी और जांच-पड़ताल के बाद लौट आयी थी।
चैकी इंचार्ज का नजरिया साफ था। ‘बिना वजह किसी कीे भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाना चाहिए । मास्टर का काम है पढ़ाना, वह सिर्फ पढ़ाये । राजनीति करनी है तो कोई पार्टी ज्वाइन कर ले ।’ऐसे मौके पर हमारी पुलिस अक्सर बाबाओं की तरह प्रवचन की मुद्रा में होती है। ‘माना कि प्रो.घनश्याम सरल हैं, मिलनसार हैं, गरीब छात्रों के बीच लोकप्रिय हैं मगर इससे उन्हें देशद्रोहियों का पक्ष लेने की छूट तो नहीं मिल जाती?’ प्रोफेसर तिवारी और चैकी इंचार्ज की बातों में बेहद साम्य था।
घटना के बाद प्रोफेसर काॅलोनी में आस-पड़ोस के लोगों की कुछ भीड़ जमा हो गयी थी जो घटना के पीछे के कारणों की कड़ी-कड़ी जोड़ रही थी।
लखनऊ विश्वविद्यालय कैम्पस की प्रोफ़ेसर कॉलोनी , दूसरी जगहों की तुलना में ज्यादा सुरक्षित और चहल-पहल वाली थी । हर मकान के आगे बेतरतीब उगाये गये हैज की कटिंग कर, चहारदिवारी का निर्माण कर लिया गया था। सामने लोहे का गेट दो खम्भों पर खड़ा था । कंटीले तार की एक पंक्ति, हैज के साथ-साथ, बाउंड्री बनाती और जानवरों को लॉन से बाहर रखने में मदद करती । कुल मिलाकर हर प्रोफेसरके घर-परिवार के सदस्य, आसानी से लॉन में खड़े होकर एक दूसरे से बतिया लेते ।
प्रोफेसर घनश्याम आवास पर नहीं थे । उनकी पत्नी रीना,बरामदे के रखे सात या आठ गमलों में पानी डाल रही थीं ।उन्होंने कोई माली नहीं रखा था । लॉन का काम पति-पत्नी निबटा लेते । प्रोफेसर का बेटा, बी. काम. आनर्स प्रथम वर्ष का छात्र था।
वह भी कभी-कभी लॉन और गमलों में पानी डाल देता । उस दिन वह खाना खाने के बाद सो रहा था।
रीना कोएकाएक कुछ असामान्य सा लगा। शोर और नारों का एक कंपन पास आता जान पड़ा । उन्होंने गरदन उठा कर आसपास के घरों को निहारा। कहीं, कोई नजर नहीं आ रहा था। गर्मी और उमस के कारण बच्चे खेलने के लिए बाहर नहीं निकले थे ।
रीना को सामने की सड़क पर एक छोटी सी भीड़,उत्तेजित और हाथ झटकती, बढ़ती नजर आयी । भीड़ द्वारा लगाये जा रहे नारे तेज होते जा रहे थे, ‘देशद्रोही प्रोफेसर मुर्दाबाद ! मुर्दाबाद! मुर्दाबाद !प्रोफेसर घनश्याम होश में आओ, वरना पाकिस्तान जाओ। हिन्दू एकता जिंदाबाद! जिंदाबाद! जिंदाबाद ।’प्रो. घनश्याम का नाम सुन,रीना कुछ समझती, सतर्क होतीं या अंदर जातीं, तभी जिधर वह पानी डाल रही थीं, उसके दूसरी ओर,एक ईंट का टुकड़ा धड़ाम से गिरा था और छटकते हुएदीवार से जा टकराया था। एक और टुकड़ा आधे मिनट के अंतराल के बाद, उनकी आधी टूटी खिड़की को पूरा तोड़ता हुआ,प्रोफेसर के स्टडीरूम तक गया था।कमरे में हुई खन की डरावनी आवाज से वह सहम गईं और भागकर अंदर गईं । झटके से दरवाजा बंद कर लिया था।उनकी सांसे एकाएक तेज हो गयी थीं । चेहरे का आकार संकुचित और मलिन हो गया था। वह शीघ्रता से आंगन की ओर खिसक गई थीं । बेटा भी धड़ाम की आवाज सुन, हड़बड़ाकर मम्मी के पास भाग आया था। ‘क्या बात है मम्मी?’ उसने इधर-उधर निहारते हुए पूछा था। रीना की आवाज निकल नहीं पायी थी । उन्होंनेआंगन से प्रोफ़ेसर कॉलोनी की ओर नजरें घुर्माइं । आसपास के अन्य आवासों की खिड़कियां खामोश थीं । सामने के पेड़ों पर बैठी चिड़ियां, चीं, चीं करती उड़ रही थीं मगर किसी के घर, दरवाजे या बरामदे में जीवंतता या खट-पट न थी। उन्हें प्रोफ़ेसर कॉलोनी पर खौफ का आवरण छाता नजर आया । ‘किसे बुलाऊं ? क्या कहूं ?’ रीना सोच रही थीं । बेटा हैरान था। रीना ने पड़ोसी प्रोफेसर सक्सेना की पत्नी,मीना को आवाज लगाने की कोशिश की मगर आवाज निकल नहीं पायी । लगा,जैसे किसी ने गला दबा रखा हो । वह पसीेन-पसीने हो रही थीं और बार-बार बेचैन हो, आंगन से मकानों के बंद दरवाजे निहार रहीं थीं ।
रीना को लगा,जो शोर उनके आवास के बाहर सुनाई दे रहा था, अब धीमा और दूर होता जा रहा था। उनकी धड़कन की आवृत्ति कुछ कम हुई । उन्होंने कोशिश कर एक बार फिर मीना को आवाज लगाई । आवाज सुन मीना ने दरवाजा खोला और तुरंत आंगन में आ गईं । प्रोफेसर कालोनी के आवासों के आंगन की दीवारें नीची थीं और कभी कभार महिलाएं स्टूल पर खड़ी हो, एक-दूजे से बतिया लिया करतीं ।
‘भाभी जी आप ठीक तो हैं? ….. मैं तो घबरा गई थी ।’ एकाएक मीना की आवाज ने रीना के अंदर के अकेलेपन को झटका दिया । उन्होंने अपने साड़ी के पल्लू को चेहरे पर फिराते हुए चेहरे के भाव को बदलने की कोशिश की।मीना की ओर गौर से निहारा । खौफ ने रीना का पीछा न छोड़ा था। उनकी आंखों में अभी भी डर डबडबाया हुआ था। मीना ने स्वयं इधर-उधर निहारते हुए, अपने आंगन से बातचीत को आगे बढ़ाया-
‘भाभी जी ये कौन लोग थे ? क्यों भाई साहब को भला-बुरा कह रहे थे?’ मीना ने जानना चाहा । रीना को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बताएं ?
‘प्रोफेसर साहब घर पर नहीं है । वह होते तो कुछ बताते।’ रीना की आंखें भर आईं थीं।
‘अरे ! क्या बताऊं भाभी जी, सक्सेना जी भी नहीं हैं ? होते तो अभी तक पुलिस बुला लिए होते । दिन दहाड़े आतंक ?’ मीना कुछ सख्त नजर आने लगी थीं।
रीना अभी भी कांप रही थीं । बेटा कुछ समझ नहीं पा रहा था और अपनी मां को टुकुर-टुकुर निहार रहा था। एक बार उसने बाहर का दरवाजा खोलने का प्रयास किया तो रीना ने मना कर दिया था। अभी भी रीना कीआवाज में अजीब सा भारीपन था और शब्द जब-तब लड़खड़ा रहे थे । वह डरी सहमी, प्रो. घनश्याम का मोबाइल मिलाने लगीं थीं । नेटवर्क के प्राॅब्लम के कारण मोबाइल ‘टूं…..टूं…..टूं…कर रह जाता । उनकी खीज बढ़ रही थी । वह लगातार फोन मिलाने की कोशिश कर रही थीं । मस्तिष्क किसी सही निर्णय पर नहीं पहुंच रहा था। दिमाग में एक तस्वीर धुंधलाती तो दूसरी उभर आती । कई बार एक साथ कई तस्वीरें घालमेल पैदा कर रही थीं । लगता जैसे दिमागी कम्प्यूटर हैंग हो रहा हो ।
आखिरप्रो. घनश्याम से क्या दुश्मनी ? मात्र लिखने-बोलने से वह देशद्रोहीबताये जा रहे हैं ? जिंदगी भर देश और समाज की बेहतरी के बारे में सोचने वाले सामाजिक विज्ञान केप्रोफेसर कासमाज के बारे में सोचना-बोलना देशद्रोह है क्या ? रीना की सोच किसी नतीजे पर नहीं पहुंच रही थी । वह कांपते हाथों से जल्दी जल्दी रीडायल बटन दबाते जा रही थीं । आखिरकार प्रोफेसर के मोबाइल की घंटी बजी ।प्रोफेसर ने व्यग्रता से पूछा, ‘रीना! तुम ठीक हो न ?’
‘आप ? ……आप कहां हैं ? घर पर तोबवाल करने वाले … ?’ रीना ने अपनी बात पूरी नहीं की थीं और हिचकने लगी थीं ।
‘मैं आ रहा हूं । बस पांच मिनट में । परेशान न हो । बिल्कुल परेशान मत हो ।’ और मोबाइल कट गया था। मैडम की घड़कनें और बढ़ गयीं । घनश्याम ने यह तो पूछा ही नहीं कि क्या हुआ? बात अधूरी रह गई थी । उन्होंने फिर फोन मिलाना शुरू किया ।
‘सुनो ! तुम अभी मत आना ! वे दूर नहीं गये होंगे।’ मैंडम की आवाज कांप रही थी ।
‘अरे तुम नाहक परेशान हो रही हो । घबराओ मत । मैं आ रहा हूं ।’ प्रोफेसर की आवाज में दृढ़ता थी।
विगत एक साल से कैम्पस का माहौल बिगड़ता जा रहा था। पठन-पाठन से ज्यादा तिरंगा फहराने, लाइब्रेरी को बंद रखने, सीलेबस को बदलने और देशद्रोहियों को चिह्नित करने का काम तेज हो गया था। प्रो. तिवारी के निर्देश पर हास्टलों में कुछ लोग राष्ट्रवाद की नई परिभाषाएं सिखाने आने लगे थेमगर प्रो.घनश्याम को अभी भी लगता था कि यह दौर ज्यादा समय तक नहीं चलेगा। कैम्पस की गरिमा ज्ञान, चेतना और बहस-मुबाहिसोंसे बनती है। वैचारिक भिन्नता, ज्ञान-विज्ञान को परिष्कृत करने की जननी है। लोग-बाग इसका सम्मान करते रहेंगे।
रीना का दिमाग तमाम संभावनाओं को तलाशने में व्यस्त था। ‘विश्वविद्यालय के किसी टीचर की करतूत तो नहीं ? क्या पता वीसी की नजरों में अच्छा दिखने के लिए ?छात्र तो ऐसी करतूत नहीं कर सकते ? प्रोफेसरधनश्याम तो लम्पट से लम्पट छात्रों को प्यार करते हैं । उन्हें ज्ञान से सींच कर शरीफ बनाने में माहिर रहे हैं । कभी किसी से ऊंची आवाज में बात नहीं करते । प्रो. तिवारी की तरह केवल अपनी जाति के छात्रों को टॉप कराने की मानसिकता से भिन्न, काबिल और मेहनती छात्रों को सम्मान देते हैं । उनकी जाति का हिसाब नहीं रखते ।’
कैम्पस की यह ऐसी घटना थी जिसमें विश्वविद्यालय के किसी विद्यार्थी या छात्र संगठन का हाथ नहीं दिख रहा था।
सभीने प्रोफेसरघनश्याम से कारण जानना चाहा मगर उनके पास बताने को कुछ खास न था। और जो था, वह प्रोफेसर के लिए एक सामान्य बात थी। चार दिन पहले मर्माहत होकर प्रोफेसर घनश्याम ने डॉ. दाभोलकर की हत्या के विरोध में फेसबुक पर एक तीखी टिप्पणी की थी । उन्होंने हिन्दू तालिबानीकरण के बढ़ रहे खतरों के प्रति चिंता जताई थी । उसके एक दिन बाद, एक स्थानीय चैनल पर बढ़ती असहिष्णुता की प्रवृत्ति पर तीखा हमला किया था। उन्होंने सत्ता के वर्गचरित्र पर भी टिप्पणी की थी । हफ्ते भर की यही गतिविधियां थीं । इनके अलावा कहीं किसी धरना-प्रदर्शन में नहीं गये थे । किसी से कोई विवाद नहीं हुआ था, न तो विश्वविद्यालय में और न विश्वविद्यालय के बाहर ।
प्रोफेसर घनश्याम उम्र दराज और अनुभवी अध्यापक थे। हल्की दाढ़ी, सिर के आधे-अधूरे बाल, कुर्ता पैजामा जैसा सादा लिबास, चिंतनशील मनोवृत्ति और सामाजिक आंदोलनों में बढ़-चढ़कर भाग लेना, उन्हें लोकप्रिय बनाये हुए था। वह किसी धर्म या संप्रदाय के प्रति पक्षपातपूर्ण विचार नहीं रखते । इंसानियत पसंद आदमी थे। विश्वविद्यालय में समय पर आना, बिना नागा किए निरंतर क्लास लेना, लड़कों को वैचारिक रूप से परिपक्व बनाना उनकी रुचि थी । लोगों के बीच नफरत फैलाने वालों से उनकी नहीं बनती थी। वह वैचारिक हमले करने से डरते नहीं । बोलना और लिखना, उनकी जवानी के दिनों से शगल बन चुका था। इमरजेंसी के दिनों में जब वह छात्र थे, तब भी बोलने और लिखने के जुर्म में जेल जाने से नहीं डरे थे। वह अपने विरोधियों के वैचारिक विरोध को सहज स्वीकार करते और यह उनका अधिकार मानते थे।
दो दिन पहले, जब वह अपने विभाग में थे, तब भी उनके मोबाइल पर धमकी भरा फोन आया था, ‘ज्यादा चपर चपर मत करो प्रोफेसर ! साले ! …..कमीने, ……कुत्ते !’ आवाज की अराजकता से अचानक उनके चेहरे के भाव सख्त हो गये थे । उन्हें ऐसी बातें सुनकरघिन्न हुई थी। ‘कौन ? कौन है तू ?’ उन्होंने सख्ती से पूछा था ।
‘साले वामपंथी? नहीं चुप होगे तो समझा दिया जायेगा कि हम कौन हैं ?अक्ल ठिकाने लगा दिया जायेगा, समझे!’ और फोन कट गया था।
तो इसका मतलब यही निकाला जा सकता था कि प्रो. घनश्याम ने हिन्दू कट्टरपंथियों के विरुद्ध जो कुछ कहा, लिखा है, उसी की प्रतिक्रिया में यह सब किया गया है।
प्रो.रामबचन तिवारी इसे स्वीकार नहीं करते । कहते, यही वामपंथियों का सेकुलरवाद है। वे हर अपराध को हिन्दुओं पर मढ़ने का दर्शन जानते हैं । अरे भाई! यह किसी ऐसे संगठन की चाल भी तो हो सकती है, जो हिन्दू संगठनों को बदनाम करना चाहता हो?’
वह हफ्ता तनाव भरा गुजरा था।
रीना को याद है प्रोफेसर घनश्याम, डॉ.दाभोलकर की हत्या के बाद किस तरह तनाव से गुजरे थे । कई दिनों तब उन्होंने ठीक से खाना नहीं खाया था। सिगरेट पर सिगरेट जलाये जाते । घंटों कमरे से बाहर नहीं निकलते । उन्होंने मेज पर पड़े एक कागज पर लिखा था-‘डॉ.दाभोलकर की हत्या करने वाले दरिंदे हाईब्रीड नस्ल के हैं । इस हाई ब्रीड प्रजातियों को तैयार करने में न जाने कितनों के डी.एन.ए. से छेड़छाड़ की गई है ? कितनों का रक्त मिलाया गया है और तब जाकर ऐसे दरिंदे पैदा किए गए हैं,जो मात्र अपनी प्रजातियों को पनपने के लिए, वैज्ञानिक विचार रखने वाले डॉ. दाभोलकरकी हत्या करने का काम किए होंगे । यह सब अतीत की वर्णवादी अराजक सत्ता की पुनर्वापसी की तैयारी के लिए किया जा रहा है।’
रविवार कोउनके घर पर हुआ प्रदर्शननुमा आक्रमण,समुद्री ज्वारभाटे की तरह गुजर गया था। एक बार फिर पुलिस, प्रोफेसर के घर छानबीन के लिए आई । कैम्पस में पुलिस चैकी प्रोफ़ेसर कॉलोनी से सौ कदम दूर थी। प्रदर्शन के समय भी चैकी इंचार्ज आ सकता था। ऐसा संभव ही नहीं कि नारेबाजी की आवाज चैकी तक न पहुंची हो ?
छानबीन के लिए आये पुलिस वाले ने प्रोफेसर को नसीहत दी थी,‘सर जी, अनावश्यक विवाद न खड़ा कीजिए । पढ़ाने-लिखाने के अलावा आप जो राजनीति करते हैं, उससे ये लोग नाराज होते हैं ?
‘कौन लोग?’ प्रो. ने जानना चाहा ।
‘अरे यही, जो आये थे। धार्मिक लोगों की भवनाएं आहत होती हैं ।’
‘मेरी भी तो भावनाएं इन लोगों से आहत होती हैं?’
‘आप कुछ उल्टा-सीधा लिखेंगे तो दूसरों को खराब लगेगा ही?’
‘और मेरे बोलने-लिखने पर पाबंदी लगाने का उन्हें अधिकार मिल जायेगा ?’
‘आप समझते क्यों नहीं? आजकल….’ और पुलिसवाले ने बात गटक ली थी।
प्रोफेसरएकटक पुलिस वाले को निहारते रह गये थे । कुछ बोले नहीं थे। बोलने का न तो समय था और न माहौल। तफ्तीश के बाद एफ.आई.आर. दर्ज करने में ना-नुकुर हुई थी । जब कुछ अन्य प्रोफेसरों ने दबाव बनाया तो पुलिस ने हल्की धाराओं में अनजान लोगों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने की रिपोर्ट लिख ली थी ।
अगली रात, कुलपति ने अपने आवास पर प्रोफेसर घनश्याम को बुलाया था। उन्होंने घनश्याम को समझाते हुएधमकाया था। ‘प्रो.. घनश्याम! ये हिन्दू तालिबान क्या होते हैं ? तालिबानों के बारे में पूरी दुनिया जानती है। उनकी हिंसक मनोवृत्ति और कट्टरपन को हमने अफगानिस्तान में देखा है। आज सीरिया, युगांडा में देख रहे हैं । आप ने एक नया शब्द कहां से गढ़ लिया ? कौन है इसका सरगना ?अपके दिमाग में यह बात आई कहां से ?’ कुलपति ने नाराजगी व्यक्त करते हुए आंखों पर चढ़े चश्मे को उतारा। फिरउसे साफ करते हुए प्रोफेसर को घूरना जारी रखा । पता नहीं तब उनकी दृष्टि कितनी साफ थी या धुंधली, कहा नहीं जा सकता । वह प्रो. घनश्याम के चेहरे की दृढ़ता को पढ़ पा रहे थे या नहीं, यह अनुमानप्रो. घनश्याम के लिए भी कठिन लग रहा था। कुलपति ने अपना चश्मा फिर चढ़ा लिया था।
‘तो क्या अब एक सामाजिक विज्ञान के प्रोफेसर को सामाजिक संदर्भों की अपने विवेक से व्याख्या करने की इजाजत नहीं होगी?’प्रोफेसरघनश्याम ने कुलपति के सामने प्रश्न खड़ा किया था।
‘मगर आप दूसरों की भावनाओं को आहत तो नहीं कर सकते?’ कुलपति ने हाल के दिनों में गढ़ लिए गए चिरपरिचित सवाल को सामने रख, घनश्याम को घेरना चाहा।
‘भावनाओं के आहत होने का सवाल, विरोधियों को ध्वस्त करने और विचारों को कुचलने का तरीका नहीं बन गया है? हमारी, आपकी भावनाएं भी तो रोज कहीं न कहीं आहत की जा रही हैं? हम कहां जा रहे हैं किसी पर आक्रमण करने ? क्या कानून, अपराधियों की भावना का सम्मान करता है ?… नहीं न ? हिन्दू तालिबानीकरण, समाज का अपराधीकरण नहीं तो क्या है ?’प्रो. घनश्याम ने अपनी बात को लम्बा खींच दिया था। उनका चेहरा कुछ भारी और कसाव लिए दिख रहा था। कुलपति लगातार उनकी ओर सख्त निगाह गड़ाये हुए थे। प्रोफेसर ने अपनी बात को अभी समाप्त नहीं किया था।
‘मेरी किसी बात से किसी को आपत्ति है तो वह अपनी बात लिखे, बोले ? मैं उन्हें रोकने तो नहीं जा रहा ? इब्राहिम लोदी जैसे मुस्लिम धर्मांध के जमाने में कबीर ललकार सकते थेऔर हम इस लोकतंत्र में अपने विचार नहीं रख सकते?’प्रोफेसर घनश्याम,बोलते-बोलते कांपने लगे थे। कुलपति महोदय ने एक बार फिर चश्मे को आंखों पर चढ़ाते हुए अपने सख्त चेहरे कोढीला किया । सहानुभूति की कलई चढ़ाते हुए समझाने का प्रयास किया,‘मैं तो आप के भले के लिए यह सब कह रहा हूं । आपकी बीवी, बच्चों का ख्याल रखते हुए समझा रहा हूं । दाभोलकर की तरह इतिहास में दर्ज होना हो तो जाइये, जो मन में आये कीजिए । मैं तो यही कहूंगा कि एक बार फिर बीवी, बच्चों के बारे में भी कुछ सोचिए ।’
प्रोफेसर घनश्याम, कुलपति आवास से निकल आये थे । सड़क पर सन्नाटे और अंधेरे ने अपना विस्तार कर लिया था। सड़क पर चलते हुए उन्होंने महसूस किया कि कुछ पदचाप उनके पीछे या आसपास सुनाई दे रहे हैं या इस समय भी वह कुछ लोगों की नजरों में हैं। उन्होंने एक बार पीछे मुड़ कर देखा मगर कोई दिखाई नहीं दिया । संभवतः यह उनके मन का भ्रम था। पहली बार उनके अंदर डर उतरता जान पड़ा। उन्होंने अपने कदमों को सचेत किया और जल्दी से घर की ओर बढ़ चले थे।
प्रोफेसर घनश्याम कुछ-कुछ चिड़चिड़ेे होते जा रहे थे । रीना को याद है कि एक दिन प्रो. घनश्याम सोचते-सोचते किस तरह उत्तेजित हो गये थे । वह उत्तेजना उनके अंदर अनायास पैदा नहीं हुई थी । कई दिनों से मन में जमा हुए गुस्से और दुख का मिलाजुला स्वरूप था। रीना को याद है, उनका शरीर कांपने लगा था। वह जिन अंगुलियों में कलम पकड़ते थे, वे अकड़ने लगी थीं । रीना ने सोेचा कि शायद की-बोर्ड पर काम करने से ऐसा हुआ हो । ‘कौन है ?’ एकाएक प्रोफेसर चिल्ला पड़े थे । रीना घबड़ा गई थीं । ‘कोई नहीं, मैं हूं, ……मैं,’ और प्रोफेसर की बांह पकड़ कर हिलाने लगी थीं ।
प्रोफेसर की तंद्रा टूटी थी । उन्होंने अपने कमरे में रीना को पाया। वह सोचने लगे, ‘पता नहीं वह चिल्लाये थे या चिल्लाने जैसे भाव उनके होठों पर आये थे।’ वह किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पा रहे थे। रीना भी प्रोफेसर की मनःस्थिति देख परेशान लगीं । उन्होंने कमरे की दीवारों, मेज और फर्श पर पड़ी बेतरतीब किताबों को निहारा । सिगरेट के गिरे टुकड़ों को उठाकर डस्टबिन में डालते हुए उन्हें लगा कि डस्टबिन भर गया है। कई दिनों ने उन्होंने डस्टबिन बाहर नहीं किया था । यह उनकी गलती है। उन्हें भी तो प्रोफेसर साहब के कमरे को कभी कभार देख लेना चाहिए था। माना कि वह अपने स्टडीरूम में बहुत कम दखलंदाजी पसंद करते हैं मगर सुबह-शाम तो आ ही सकती थीं? तभी उनकी निगाह चाय की प्याली पर पड़ी । वैसे तो प्रोफेसर साहब जब भी अपने स्टडीरूम से बाहर निकलते, कम से कम गिलास, पानी की बोतल या कप को लाकर रसोईघर में जरूर रख देते । यह काम वह खुद करना पसंद करते । डस्टबिन भर जाने पर बाहर रख देते । सिगरेट जलाने के लिए माचिस उठाते और उन्हें लगता कि माचिस खत्म हो गई है तो किसी को आवाज देने के बजाय किचन में जाते । जहां माचिस होने की संभावना होती वहां टटोलते। माचिस अपनी जगह पर न होती तो थोड़ाझुंझलाते और अपने आप पर बिफरते । चाकुओं को इधर-उधर हटाते और अंदर ही अंदर बदकते कहते, ‘आजकल माचिस के बजाय चाकू ही चाकू दिख रहे हैं ।’ कभी-कभी बुदबुदाते-‘आजकल आग लगाने वाले बढ़ गये हैं, तभी तो हम प्रोफेसरों को दिल जलाने के लिए माचिस नहीं मिलती ।’ इस तरह वह लगातार कई दराजों को खोलते औरसमानों को उलटते-पलटते । अगर इस बीच रीना की निगाह उन पर पड़ जाती तो वह बिना कुछ बोले, आकर उनके हाथ में माचिस पकड़ा देतीं ।
प्रोफेसर के घर पर हुए आक्रमण के संदर्भ में शहर में विरोधप्रदर्शन हुए । यह देखते हुए टीचर एसोसिएशन ने भी बैठक बुलाई थी। अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरे से आगाह किया गया था। सीनियर प्रोफेसर के घर पर असामाजिक तत्वों के पथराव करने की घटना की निंदा की थी मगर बात यहीं खत्म नहीं हुई थी। प्रो. रामबचन तिवारी ने बैठक में कुछ सवाल उठाये थे। कहा था, ‘विश्वविद्यालय लम्बे समय से वामपंथियों के गिरफ्त में रहा है । इसलिए एकपक्षीय नजरिये से हिन्दुओं के विरुद्ध अनर्गल बातें करने का फैशन रहा है। मुसलमानों के खिलाफ कभी कुछ नहीं कहा जाता। अब यह नहीं चलेगा । हिन्दू जाग रहे हैं । हम अपनी संस्कृति के विरोध में चलाये गये कुचक्र को अब समाप्त करेंगे । प्रोफेसरघनश्याम को अब यह समझ लेना चाहिए कि जिहादी ही तालीबान कहे जातेहैं, हिन्दू नहीं । प्रो. घनश्याम लगातार अंधविश्वासों पर आक्रमण करते समय हिन्दू धर्म और देवी-देवताओं को निशाना बनाते रहे हैं। कभी उन्होंने मुस्लिमों पर आक्रमण किया? हिन्दू होकर हिन्दू का विरोध फैशन हो गया है। कोई मुसलमान, मुसलमान का विरोध कर रहा है? बताइये आप लोग ? माना कि हमारी संस्कृति में हिंसा को स्थान नहीं है, नहीं होनी चाहिए, फिर भी वनस्पति विभाग के प्रोफेसरने जिस तरह वैदिक औषधि वाटिका के निर्माण की बात की, उसका विरोध सबसे ज्यादा प्रो. घनश्याम ने ही किया । उसे अंधविश्वास फैलाने वाला कहा । हमारे पुराणों में पेड़ों के महत्व के बारे में जो कुछ बताया गया है, उसे हम नहीं बचायेंगे तो कौन बचायेगा?यह वैदिक विज्ञान है । अगर इस दिशा में कुछ नये शोध हो रहे हैं तो किसी को क्या विरोध ?’
‘क्या शोघ हुए हैं या हो रहे हैं, हमें भी बताइये ? दुनिया के किसी वैज्ञानिक ने आपकी शोधों को नोटिस में लिया है ?’ प्रो. घनश्याम फिर उत्तेजित होने लगे थे। कुल मिलाकर टीचर एसोसिएशन की बैठक ने, कैम्पस के माहौल में एक दूसरे तरह का भय घोल दिया था।
प्रो. घनश्याम का परिवार बेहद डरा हुआ था। रीना ज्यादातर खामोश रहतीं । उनकी बड़ी बेटी, जो पूना मेडिकल काॅलेज में एम.बी.बी.एस. द्वितीय वर्ष की छात्रा थी, मम्मी-पापा को लेकर चिंतित रहने लगी थी। परिवार की मनःस्थिति को देख प्रोफेसर घनश्याम ने कुछ दिनों के लिए छुट्टी ले ली । वह ज्यादातर समय शहर की गोष्ठियों और सभाओं में लगाने लगे । रीना उन्हें सतर्क रहने की लगातार सलाह दे रही थीं मगर प्रोफेसर थे कि चुप रहना, मरने के समान समझते थे।
उस घटना को चार महीने बीत चुके थे । प्रोफेसर ने ड्यूटी ज्वाइन कर ली थीलेकिन एक भय, उनका पीछा करता रहता। उन्हें लगता,जैसे कोई उनका पीछा कर रहा हो । उन्हें मारने के फिराक में हो। हर ओर, उन जैसे लोगों को मारने की कोशिश हो रही है। चाहें वे नास्तिक हों या आस्तिक । जो कट्टर नहीं या जो पाखंडों को खंडित करने का साहस करेंगे उन्हें खत्म कर दिया जायेगा । एक पूरी नस्ल, इसी मकसद से धरती पर उतार दी गई हो जैसे । बांग्लादेश में कितने लेखक, ब्लाॅगर्स मारे गये । पाकिस्तान में तो ईश निंदा जैसा विवादित कानून जब चाहे, जिसे चाहे, फांसी पर झुला सकता है। बोलना-लिखना जैसे अपराध बन गया है।
इस बीच हैदराबाद के एक अन्य लेखक, कांचा इलैया पर हुए आक्रमण ने स्पष्ट कर दिया था कि पाखंडों से लड़ने वालों का कोई स्थान नहीं है । इसलिए वह और ज्यादा डर गये थे । ज्यादातर अपने विभाग में पड़े रहते । विश्वविद्यालय में उन्होंने स्वयं को अकेला कर लिया था । उन्होंने देखा था कि विश्वविद्यालय टीचर एसोसिएशन ने इस मामले में ज्यादा कुछ नहीं किया था। कुछ दिन विरोध सभा के बाद मामला शांत हो गया था।
पिछले शनिवार को वह प्रेस क्लब में आयोजित एक गोष्ठी में भाग लेने गये थे । गोष्ठी शाम को सात बजे समाप्त हुई थी। प्रो. घनश्याम वहां से उठे तो कॉफ़ी हाउस चले गये थे । वह अकेले थे और कॉफ़ी हाउस में एक कोने की टेबल पर बैठकर कॉफ़ी का आर्डर किया था। तभी उन्हें लगा कि कोई सामने के दरवाजे पर खड़ा, घूर रहा है। अंधेरा शाम को बेदखल करने की दिशा में बढ़ रहा था और वह घूरने वाले युवक का चेहरा साफ-साफ नहीं देख पा रहे थे । मगर इतना तो स्पष्ट था कि युवक की उम्र छब्बीस-सत्ताइस के आसपास रही होगी । उसके हाथ में कोई चीज थी । कट्टा या पिस्तौल हो सकता है, वह ठीक-ठीेक अनुमान नहीं लगा पाये थे। उनके अंदर एक बार फिर खौफ की सर्द हवा ने प्रवेश किया। वह सिहरे । उन्होंने अपनी निगाह दूसरी ओर की और कॉफ़ी को जल्दी-जल्दी पीना शुरू किया। वह अब अशांत लग रहे थे । शायद अंदर से डरे हुए भी।
‘कौन हो सकता है?’ उन्होंने अपने मन से सवाल किया ।
‘कोई भी हो सकता है ? आजकल धार्मिक उन्मादियों को नास्तिक पसंद कहां ? कोई भीसिरफिरा ….? जैसे फ्रांस में एक जालिम ने मनुष्यता को ट्रक से रौंद दिया।’प्रोफेसर ने एक सिगरेट सुलगाने के लिए निकाला मगर आसपास बैठे लोगों का ख्याल कर पुनः डिब्बे में रख दिया । सोचने लगे,‘आज की गोष्ठीमें भी तो उन्होंने धार्मिक उन्मादियों पर ही आक्रमण किया था? वे ही किसी को पीछे लगा दिए हों । प्रो.. तिवारी भी तो ? नहीं…नहीं… प्रो.. तिवारी हत्या कराने जैसी बात नहीं सोच सकते।’प्रो. धनश्याम के अंदर उमड़ रही आशंकाएं, कैंसर की कोशिकाओं की तरह अनियंत्रित हो रही थीं।
‘हो सकता है फासिस्टों ने किसी हत्यारे को पीछे लगा दिया हो ?हो सकता है हत्यारा उनके बाहर निकलने की ताक में हो या हत्या करने का उपयुक्त समय तलाश रहा हो ? वह जैसे ही दरवाजे की ओर बढ़ेंगे, ठांय से गोली चला देगा।’सोचते-सोचते प्रोफेसर कांपने लगे थे । वह स्वयं पर झुुंझलाते । ‘पता नहीं आजकल उनके दिमाग में क्या-क्या चलता रहता । आखिरवह ऐसा क्यों सोच रहे हैं,’ वह स्वयं से पूछते । ‘हमेशा नकारात्मक सोच? संभव है कोई उनसे मिलना चाहता हो? उनकी ख्याति ऐसी रही है कि दूर-दूर सेलोग मिलने आते हैं ।’
प्रोफेसरने एक बार फिर अपनी गरदन दरवाजे की ओर घुमाई । दरवाजे पर अबयुवक नहीं दिखा । ‘वहीं कहींछिप गया होगा। उचित अवसर की तलाश में होगा । ऐसे लोग बड़े शातिर होते हैं । कई-कई दिनों तक रेकी करते हैं । छात्र के वेश में भी आ सकते हैं। पहले पैर छूयेंगे फिर पिस्तौल चला देंगे ।’प्रोफेसर के मन में फिर आशंका के बादल घिर आये थे।
अंधेरा करीब-करीब छा गया था मगर शहर की जलती लाइटों का प्रतिरोध जारी था। वह झटके से उठे, झोले को कंधे पर टिकाया। वेटर को पैसाचुकाया और अपने अंदर साहस समेटते हुए तेजी से बाहर निकल आये थे । बाहर सड़क पर भीड़ पर्याप्त थी और यह देख, उनके अंदर का डर कुछ कम हुआ था। उन्होंने तुरंत ऑटो पकड़ा और विश्वविद्यालय की ओर निकल गये थे।
घर पहुंचते-पहुंचते लगभग साढ़े आठ बज गये थे। रीना उनकी राह देखरही थीं । प्रोफेसर ने आते ही जूता और कपड़ा उतारा । बाथरूम में गये और थोड़ी देर बाद निकलते ही बिस्तर पर जाकर पसर गये थे। रीना, चाय का प्याला लिए आ गई थीं और चेहरे पर बनते-बिगड़ते भाव को छिपा रही थीं ।
शाम को जब भी प्रोफेसर घर से बाहर होते या देर रात लौटते, रीना चिंतित हो जातीं । कई बार उन्होंने टोका भी था-‘देखो, रात होने के पहले लौट आया करो, ज्यादा से ज्यादा सात बजे तक।’ प्रोफेसर ने सुना था मगर कुछ जवाब नहीं दिया था । कुछ देर तक घूरते रहे थे। जैसेदोनों में सहमति के अंकुर फूट रहे हों ।
‘प्रोफेसर तिवारी जी का फोन आया था।’ रीनाने प्रो. घनश्याम को बताना चाहा ।
‘कब ?’
‘कुछ देर पहले ही। यही कोई आठ बजे ।’
‘क्या कह रहे थे?’
‘तुम्हें पूछ रहे थे। मैंने बता दिया कि शहर में एक कार्यक्रम में गये हैं ।’ यह सुनकर बोले, ‘अरे हां, प्रेस क्लब में आज फिर जहर उगलने गये होंगे।’ फिर कुछ रुक कर बोले,‘भाभी जी उन्हें समझाइए । दुनियाभर की राजनीति से बचने को कहिए । वह तो मुझे दुश्मन समझते होंगे पर मैं उनके लिए चिंतित रहता हूं । धर्म के मामले में अनावश्यक छेड़छाड़ ठीक नहीं होती । इससे मुसलमानों का दिमाग और खराब होता है। खुराफात वे करते हैं और आपस में हम उलझे रहते हैं। देख रही हैं न, दुनिया में कितने फिदाइन हमले हो रहे हैं ? हमें एक होकर रहना चाहिए । तभी जेहादी डरेंगे। जहां तक आपके घर पर प्रदर्शन का सवाल है, अब ऐसा नहीं होना चाहिए । मैंने चैकी इंचार्ज को हिदायत दे दी है। फिर भी …….आप सतर्क रहिए । घर पर भी कोई मिलने आये तो आॅफिस में मिलने को कहिए । रात में किसी अनजान व्यक्ति से कतई मिलने को न कहिए । मैं भले ही उनके विचारों को पसंद नहीं करता, उनका आलोचक हूं, मगर उनके लिए चिंतित रहता हूं । अच्छे विचारकों में से एक हैं प्रोफेसर घनश्याम । उन्हें कुछ हो गया तो विश्वविद्यालय की क्षति तो होगी ही, ये वामपंथी, हिन्दू तालिबानियों का कृत्य बताकर माहौल खराब करेंगे ।’
‘ओह !’ और ‘हा…..हा…..हा…..’, कर हंसने लगे थे प्रोफेसर। ‘अच्छा मजाक कर लेते हैं शाखा वाले । कभी-कभी सहानुभूति भी दिखाते हैं । इनकी दोस्ती और दुश्मनी में फर्क करना बड़ा मुश्किल है। खैर ! तुमने क्या कहा ?’
‘कुछ नहीं । मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और कहा कि ठीक है भाई जी ।’
खाना खाने के बाद लॉन में टहलने के लिए प्रोफेसर घनश्याम ने हमेशा की तरह दरवाजा खोला। अभी वह दो कदम बढ़े हीे होंगे कि उन्हें हैज के बाहर एक आकृति दिखाई दी । एक बेहद खतरनाक आकृति । हाथ में कुछ पकड़े हुए, जैसे ए.के. 47 हो । उनका मन कांप गया । वह उल्टे पांव झट अंदर आ गये । दरवाजा बंद कर लिया । तेजी से अपने कमरे की ओर बढ़े और खिड़की का परदा हटाकर आकृति की ओर आंखें गड़ा दीं । रीना भी बाहर निकलने की तैयारी में थीं मगरप्रोफेसर को झटके से अंदर आते देख, ठहर गयीं । अभी वह किसी निष्कर्षपर पहुंचती कि घंटी बज गयी थी।
‘रीना रुको ! दरवाजा मत खोलना ।’ प्रोफेसर ने तेज आवाज लगाई थी। फिर उन्होंने रीना को अपनी ओर बुलाते हुए खिड़की से कुछ दिखाने का प्रयास किया था। ‘देखोबाहर कोई बदमाश है । शायद वह हैज के पीछे छिपाबैठा था । उसे पता था कि हम खाना खाने के बाद लॉन में टहलते हैं । वह इस इंतजार में था कि हम लॉन में आएं और वह गोली का निशाना बना दे। वह तो अच्छा रहा कि फौरन नजर पड़ गई। आकृति उसी युवक की तरह थी जो अभी कुछ घंटे पूर्व कॉफ़ी हाउस के बाहर दिखा था। जी हां, ठीक वैसा ही ।’
‘अच्छा !’ रीना सहम गईं । उनके मन में प्रो. तिवारी की बातें उतर आईं । तभी एक बार फिरघंटी बजी थी ।
‘पुलिस इंचार्ज को फोन करो ।’ रीना ने बाहर झांकते हुए, बिना किसी नतीजे पर पहुंचे हड़बड़ाकर कहा ।
‘ठीक है’, प्रोफेसर ने कांपते हाथों से पुलिस चैकी इंचार्ज का नम्बर डायल कर दिया था।
‘हेलो! इंचार्ज साहब! मेरे घर के बाहर कोई है। कोई शाम से मेरा पीछा कर रहा है। शायद शहर से पीछा करते-करते,घर तक आया है।’ घबराहट में प्रोफेसर की आवाज लड़खड़ा रही थी।
‘आप दरवाजा मत खोलिए । मैं पहुंच रहा हूं,’ –चैकी इंचार्ज ने हिदायत दी ।
चैकी इंचार्ज ने इस बार फुर्ती सेप्रोफ़ेसर कॉलोनी में प्रवेश किया था और प्रोफेसर आवास से दूर, मुख्य सड़क की ओर जाते एक युवक को धर दबोचा था। ‘आखिर पकड़ा गया,’ चैकी इंचार्ज मन ही मन खुश हुआ था। चैकी इंचार्ज की मोटर साइकिल की आवाज सुन प्रोफेसर बाहर आ गये थे।
‘सर! सर! …’ युवक ने प्रोफेसर को देखते ही कुछ कहने की कोशिश की थी। ‘ चोप! सर….सर के बच्चे?’ इंचार्ज चिल्लाया था।
‘आप अंदर जाइये सर! मैं इसे चैकी ले जा रहा हूं । अब सारा राज उगलवा कर रहूंगा ।’ चैकी इंचार्ज ने युवक को खींचते हुए अपने बाइक पर बैठा लिया था।
‘प्रोफेसर को मारने आये एक आतंकी को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है।’ यह खबर पलभर में फैल गई थी।
पुलिस ने गिरफ्तार आतंकी से रातभर गहन पुछताछ की थी। हर हथकंडे को अपनाया था और अंत में इस तथ्य का पता लगाने में वह सफल रही थी कि यह हूजी आतंकी विगत दो दिनों से प्रोफेसरघनश्याम कापीछा कर रहा था ।
‘उफ! हूजी आतंकी ! ….. एक साथ दो निशाने लगाने के फिराक में था । एक तो प्रोफेसरकी हत्या और दूसरा, आरोप हिन्दू संगठनों के माथे मढ़ना।’ प्रोफेसर तिवारी ने इस, मौके का पूरा इस्तेमाल किया था।
’’’
इस घटना के अगले दिन ही प्रो. घनश्याम के पास अलीगढ़ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एम.एन. खान का फोन आया था, ‘प्रोफेसर धनश्याम! कैसे हैं ?
‘क्या बताऊं प्रो. खान ! कुछ समझ नहीं पा रहा हूं कि हम-आप कैसे रहेंगे इस समाज में ? कैसे जिएंगे अब ? हम क्या बोलें? क्या लिखें, सबका हिसाब रखा जा रहा है।लोग जान के पीछे पड़े हैं।’
‘बिल्कुल सही फरमा रहे हैं आप । समय खराब है मगर आप जज्बाती दिख रहे हैं । खैरियत तो है ?’
‘जज्बाती कहिए या डरपोक ! कुछ लोग मेरी हत्या कराना चाहते हैं ।’
‘क्या कह रहे हैं आप?’
‘मैं ठीक कह रहा हूं । आपके यहां भी तो ?’
‘चलिए, सतर्क रहिये । इस दौर को भी झेला जायेगा।’
‘अरे छोड़िये इन बातों को,बहुत दिनों बाद याद किया आपने,बताइये, क्या हाल है?
‘खैरियत तो नहीं कह सकता, सारीयूनिवर्सिटीज को सुलगाया जा रहा है। मगर छोड़िये ….. मैं फोन इसलिए कर रहा हूं कि मेरा एक प्रिय छात्र है रियालुज खान, और आप का फैन भी । बेहद गरीब मगर इंटेलीजेंट छात्र है। लखनऊ गया है, आपसे मिलने । वह ‘कबीर दर्शन पर सूफीवाद का प्रभाव’ विषय पर शोध कर रहा है। अपनी थीसिस सबमिट करने के पूर्व, आप को दिखाना चाहता है । मुझसे कहा था,‘सर!फोन कर दीजिए,’ मगर मैं भूल गया था। संभवतः वह आपसे मिला हो या मिलने वाला हो। देख लीजिएगा ।’ प्रो. खान ने अनुरोध किया था।
‘क्या ?’ प्रोफेसर के हाथ कांपने लगे थे। आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा था। तभी उन्हें लगा, धड़ाम से एक बम विस्फोट हुआ है, ठीक लॉन के अंदर और उन्होंने मोबाइल काट दिया था। ‘हूजी आतंकी ? नही….नहीं…..’वह एकाएक चिल्लाते हुए तेजी से पुलिस चैकी की ओर बढ़ चले थे ।
जुलाई 2017 में प्रकाशित |
जुलाई 2017 में प्रकाशित |
सुभाष चन्द्र कुशवाहा
जन्म : 26/04/1961, फाजिलनगर, कुशीनगर (उ.प्र.)
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