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सुख के संग्रह के युग में प्रलय का मिथक

  • सुनीता गुप्ता

  

 

भारतीय ही नहीं, विश्व की अनेक सभ्यताओं में प्रलय का मिथक मिलता है। भारतीय साहित्य में इसका संदर्भ देव सभ्यता और उसके विनाश से जुड़ता है। प्रलय के साथ ही देव सभ्यता का विनाश हुआ और उसके एकमात्र बचे हुए व्यक्ति मनु के द्वारा मानव सभ्यता का प्रारम्भ हुआ। जयशंकर प्रसाद की कामायनी इसी प्रलय की कथा पर आधारित है। प्रसाद ने महाकाव्य के पहले सर्ग में देव सभ्यता के विनाश के कारणों की जो विस्तार से चर्चा की है, उसके संदर्भ बिल्कुल आज से जुड़ते हैं। इस रूप में कामायनी आज की उपभोक्तावादी संस्कृति पर एक गंभीर टिप्पणी है।

 

सभ्यता के विकास क्रम में आज हम उस शीर्ष पर आ पहुँचे है जहाँ से आगे की राह बहुत मनोरम नहीं दिखती। यह वह शिखर है जहाँ से विपर्यय अनिवार्य हो गया है। यह समय बाजार के विस्तार का, अबाध उपभोग का है। बाजार और जरूरतों का गहरा रिश्ता रहा है। यह रिश्ता पारस्परिकता का है। बाजार और उपभोग ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें जीवन से निष्कासित नहीं किया जा सकता। इसलिए सभ्यता के सभी पड़ाव में बाजार अलग अलग रूपों में अपनी भूमिका निभाते रहे हैं। विडम्बना की स्थिति तो तब पैदा होती है जब ये जीवन पर हावी हो जाते हैं। उपभोग जब जीवन का इतना बड़ा लक्ष्य बन जाए कि उसके सुन्दर और कोमल पक्षों को भी आत्मसात कर ले तो जीवन महाछद्म में परिणत हो जाता है। उपभोग आज जरूरत से आगे बढकर दिखावा हो गया है। इस अनियंत्रित उपभोग की प्रवृत्ति का ही परिणाम है कि कभी मासिक, साप्ताहिक और दैनिक रूप से लगने वाले बाजार का विस्तार हमारे घरों तक हो गया है और अब वह हमारी मुट्ठी में है। बाजार ने अपनी सीमा का अतिक्रमण करते हुए हमारे घर, मन व आत्मा के निरे वैयक्तिक हद में प्रवेश कर लिया है। उसने हमारे जीवन से मूल्यों को निष्कासित कर दिया है। किसी भी विचार या भाव का अति की सीमा पर पहुँचकर ऑब्सेशन बन जाना खतरनाक होता है। वह व्यक्ति की विवेक क्षमता को कुंठित कर उसे अंधा बना देता है। बाजार ने मूल्यों के साथ साथ हमारे रिश्तों, संवेदनाओं और विवेक का भी अतिक्रमण कर लिया है। यहीं आकर उपभोग उपभोक्तावाद में परिणत हो गया है। वैज्ञानिक आविष्कारों के सम्बन्ध में यह उक्ति प्रचलित रही है कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी होती है। आज इसके संदर्भ उलट गये हैं। अब आविष्कार ही आवश्यकता की जननी हो गये हैं। वैज्ञानिक आविष्कारों ने हमारी जरूरतों को इस सीमा तक बढ़ा दिया है कि जीवन का आधारभूत ताना बाना ही छिन्न-भिन्न हो गया है।

उपयोगिता ही बाजार का मूल्य होता है। अधिक से अधिक उपभोग करने की चाहत कम समय में अधिक मुनाफा कमाने को प्ररित करती है और इसके लिए उपयोगिता का छद्म रचना अनिवार्य हो जाता है। इसप्रकार जरूरतें बाजार से गुजरती हुई उपभोग, ऑब्सेशन और अन्ततः छद्म में परिणत हो जाती हैं। यह उपभोगवाद मन, शरीर और जीवन को तो प्रभावित कर ही रहा है, पर इसकी सबसे बड़ी कीमत हमारे पर्यावरण को चुकानी पड़ रही है जो कई प्रकार के पर्यावरणिक असंतुलन पैदा कर रहा है। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ऋतु चक्र में अस्वाभाविक और आकस्मिक बदलाव आदि ये और कुछ नहीं, प्रकृति के क्रूर अट्टहास की आवाजें हैं जो हमारे कानों से टकरा रही हैं किन्तु अपने अपने सुख की लक्ष्मण रेखाओं में कैद हम आँख कान बंद किए सोए पड़े हैं।

जयशंकर प्रसाद की कामायनी ...

ऐसे जटिल समय में कामायनीका बार-बार स्मरण हो आना बिल्कुल स्वाभाविक है। कामायनी में प्रलय के उपरांत हिमालय के शिखर पर एकाकी बैठे मनु की स्मृतियों में अतीत के जो चित्र हैं, वे देव सभ्यता के उपभोग के अतिरेक के हैं। प्रलय की भयावह विनाशलीला से गुजरने के बाद मनु को अनुभव होता है कि यह विनाश इसी अतिरेक की परिणति थी। उन्मत्त विलास’, ‘देव दम्भ का महामेघ’, ‘भरी वासना सरिता का वह मदमत्त प्रवाह’, ‘री अतृप्ति! निर्बाध विलास’, आदि शब्द इसी ओर संकेत करते हैं। देव अमर माने जाते थे, वैभव के ध्रुवीकरण ने उनके जीवन में इतना ऐश्वर्य और भोग भर दिया था कि जीवन ही असंतुलित हो उठा जिसने विनाश की स्थिति पैदा की। प्रसाद देवों की विलासिता की विस्तार से चर्चा करते हैं –

‘‘प्रकति रही दुर्जेय, पराजित हम सब थे भूले मद में

भोले थे, हाँ तिरते केवल विलासिता के नद में।’’

ऐश्वर्य के अतिरेक ने भोग की स्थितियाँ पैदा कीं और अतिशय भोग, विलासिता और सुख ने पैदा किया वह अहंकार जो आँखों पर इस तरह पर्दा डाल देता है कि अपना भविष्य भी दिखलाई नहीं देता –

‘‘शक्ति रही, हाँ श्क्ति, प्रकृति थी पद तल में विनम्र विश्रांत

 कंपती धरणी उन चरणों से होकर प्रतिदिन ही आक्रांत ।’’

कहना न होगा कि देव सभ्यता की ये स्थितियाँ उपभोक्तावाद से बहुत भिन्न नहीं है। बाजारवाद ने आर्थिक असमानता को बढाते हुए एक ऐसा सम्पन्न वर्ग पैदा किया है जो वैभव व विलासिता में देवों का ही प्रतिरूप है।

रहस्य सर्ग के अन्तर्गत श्रद्धा मनु का जिस श्यामल रंग के कर्मलोक से परिचय करवाती है उसमें आज के युग की विडम्बनाएँ साकार हो उठी हैं। और अधिक प्राप्त करने की लालसा ने हमें एक ऐसे अनवरत चक्र का पुर्जा बना दिया है जहाँ एक पल भी ठहरकर सुस्ताने की फुरसत किसी को नहीं है। सब एक अंधी दौड़ में शामिल हैं बिना यह सोचे कि यह दौड़ हमें किधर ले जा रही हैं। सर्वत्र शोर व्याप्त है जो हमें स्वयं से और औरों से दूर ले जा रहा है। यह एकतरफा विकास है जो असंतुलन पैदा कर रहा है –

‘‘यहाँ सतत संघर्ष, कोलाहल का यहाँ राज है

अंधकार में दौड़ लग रही, मतवाला यह सब समाज है’’

कामायनी - विकिपीडिया

कामायनी में प्रसाद ने जिस देव संस्कृति का वर्णन किया है, वर्तमान संदर्भ में उसके गहरे निहितार्थ हैं। जिस बीसवीं सदी का प्रारम्भ मानव-मुक्ति, मानव-कल्याण, समता, बंधुत्व आदि मूल्यों से हुआ था, सदी के अन्त तक आते आते वे ही मूल्य उत्तर आधुनिकता की निष्क्रियता व जड़ता में पर्यवसित हो गये। उपभोक्तावाद और बाजारवाद के सम्मिलन ने जिस सुखवाद को जन्म दिया है उसका अतिरेक हमें कहाँ ले जा रहा है, इस तरफ ठहरकर सोचने की फुरसत किसी को नहीं है। कामायनी सोचने को बाध्य करती है कि क्या जिस मानव (मनु और श्रद्धा का पुत्र) को श्रद्धा इड़ा के पास छोड़ गई थी, उसमें मनु के आनुवांशिक गुण फिर से उभरने लगे हैं? तो क्या सभ्यता की विकास यात्रा चक्रीय होती है? हम फिर से उस देव सभ्यता के इतिहास को दुहराने जा रहे हैं, जिसके बारे में प्रसाद को चेतावनी देनी पड़ी थी कि ‘‘सुख केवल सुख का संग्रह केन्द्रीभूत हुआ इतना/ छायापथ में नव तुषार का होता सघन मिलता जितना’’। यही सुख का संग्रहदेव-सभ्यता को विनाश की ओर ले गया था। मनु आधुनिक व्यक्ति केंद्रित जीवन-दृष्टि की अनिवार्य परिणति है। अमेरिका उन्हीं देवताओं का स्वर्ग है और वहाँ के अधिपति का चेहरा देवाधिपति इन्द्र से कुछ अलग नहीं है – जहाँ आसन हिला कि साम, दाम, दंड भेद सबका सहारा ले लिया। कामायनी बतायी है कि ‘‘तर्क, बुद्धि और विज्ञान के बल पर आधुनिक विकास जब तक कुछ आधारभूत मानवीय मूल्यों और प्रतिबद्धताओं से नहीं जुड़ेगा, खोखला होगा और अन्ततः फासीवाद का पथ प्रशस्त करेगा।’’ (डॉ. शंभुनाथ)

आधुनिक विश्व में मानवता के सम्मुख एक बड़ा संकट यह सुख का संग्रहभी है। इस सुखवाद के व्यक्तिगत और सामाजिक दुष्प्रभाव भी हैं। प्रसाद जी ने स्पष्ट लिखा है ‘‘अपना हो या औरों का सुख बढ़ा कि वह दुख हुआ नहीं’’। यह सुख का संग्रहही विषमता का जनक है। गाँधीजी का कहना था कि लोगों की जरूरत की पूर्ति के लिए इस धरती के पास पर्याप्त साधन हैं पर लोभ के लिए नहीं। प्रेमचंद का होरी भी मानता है कि दस को चूसकर तब कहीं एक व्यक्ति मोटा है।

कामायनी का एक महत्वपूर्ण बिन्दु प्रकृति के साथ मनुष्य का सम्बन्ध भी है। प्रसाद प्रकृति का साथ राग का सम्बन्ध जोड़ना चाहते हैं।यह प्रसाद ही हैं जो आनेवाले उपभोक्तावादी युग की आहट सुन लेते हैं। प्रकृति पर विजय का दंभ व उसकी अवहेलना के परिणाम का सम्बन्ध वे प्रलय से जोड़ते हैं। कामायनी आज के युग के लिए एक चेतावनी भी है।

लेखिक प्राध्यापक और कथाकार हैं|

सम्पर्क- +919473242999, sunitag67@gmail.com

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samved

साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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