‘समंदर का राजा’ बनाम ‘वह बूढ़ा और सागर’
हिन्दी नाट्य-जगत की अज़ीम शख़्सियत नादिरा ज़हीर बब्बर द्वारा निर्देशित एवं उनके विख्यात रंगसमूह ‘एकजुट’ के नये नाटक ‘समंदर का राजा’ का तीसरा प्रदर्शन मुम्बई के ‘पृथ्वी थिएटर्स’ में देखने का अवसर बना…। यह नाटक अर्नेस्ट हेमिंग्वे के 1952 में लिखित और 1953 में ‘पुलिस्जर’ तथा 1954 में ‘नोबल’ सम्मान से नवाज़े उपन्यास ‘द ओल्ड मैन ऐंड द सी’ को आधार बनाकर नादिराजी का ही लिखा हुआ भी है। किसी कृति से गुजरने फिर मंचन के लिए उसका आलेख तैयार करने के दौरान निर्देशन के विचार-विधान रूप ग्रहण करते ही जाते हैं -इनकी युति नाट्य-कला के लिए वरदान है, जो इस नाटक को नसीब हुआ है।
नाटक के विवरण में हेमिंग्वे की ‘मूल कृति पर आधारित’ प्रमुखता से साथ सादर उल्लिखित है, वरना तो आज हिन्दी में मूल कृति को ज़ाहिर न करते हुए स्व-लिखित बताकर पूरा श्रेय लेने का एक चलन भी प्राय: सक्रिय है – बड़े व ओछे में यही फ़र्क़ है। लेकिन इतनी स्पष्टता व सदाशयता के बावजूद हालत यह है कि दिव्यानी रत्तनपाल जैसी समीक्षिका ने हेमिंग्वेजी का नाम तक न देकर प्रकारांतर से नादिराजी को ही मूल लेखिका बना दिया है!! ऐसी नीयत व लियाक़त को तो पाठक व ‘एकजुट’ ही समझे…।
बड़ी रचना के उल्लेख का सुफल यह भी कि इस विश्व-प्रसिद्ध कृति के लिए भी लोग नाटक देखने आयेंगे…। साथ ही साहित्य तथा नाट्य के जानकार-रसिक उस महान कथाकृति पर बने नाट्यरूप व उसके मंचीय सलूक (ट्रीटमेंट) का लुत्फ़ पाने को भी उतावले हो उठेंगे…। ‘एकजुट’ की सूचना में इसके ‘आधारित’ कहने का संकेत यह भी कि आधार भर लिया है, बाक़ी निर्मितियाँ अपनी हैं – याने उपन्यास से छूट लेने व अपने प्रसंग जोड़े जाने का स्वीकार है। इस प्रक्रिया को लेकर दो मत तो साफ़ हैं। एक इतना कठोर कि मूल में से कुछ भी छोड़ने या बदलने का एकदम परहेजी। उसके मुताबिक़ अपना कुछ कहना है, तो किसी क्लासिक रचना को न छेंडें – अपनी बात के लिए अपनी कथा सिरजें, अपने कथानक गढ़ें। लेकिन एक दूसरा मत लचीला (फ़्लैक्सिबल) व उदार (लिबरल) भी है कि यदि बड़ी रचना के सूत्रों के साथ अपना कुछ जोड़कर आज की कोई बात कही जा सकती है, तो यह भी उस रचना का ही श्रेय होगा। ‘लव लेटर्स’ से सिर्फ़ शैली और विधान लेकर पूरा का पूरा अलग लिखे जाने वाले ‘तुम्हारी अमृता’ जैसे सरनाम उदाहरण हैं भी…।
सो, ‘समंदर का राजा’ किस राह का रहबर है, जानने के लिए मूल को पढ़ना अ-निवार्य हो गया। मै शुक्रगुज़ार हूँ इस प्रदर्शन व प्रस्तोताओं का, जिनने इसी बहाने उस विश्वप्रसिद्ध कृति को पढ़ने का अवसर मुहय्या करा दिया – वरना साहित्य के पेशे में रहकर इसे पढ़ने की सारी इच्छा के बावजूद 40 सालों से पढ़ नहीं पाया था और शुक्र आज के नये डिजिटल युग का भी है कि ऑन लाइन 94 पृष्ठों में मिल गया। सो, पता लगा कि नादिराजी का यह लेखन कई-कई परिवर्तनों के साथ दूसरी राह पर चलकर हुआ है…। और यह तो सामान्य सत्य है कि जब प्रसंग व घटनाएँ बदलेंगी, तो हेमिंग्वे साहब जो कहना चाहते थे, वह भी बदलेगा, क्योंकि लेखक के मक़सद उसकी घटनाओं-प्रसंगों से ही व्यक्त होते हैं। फिर उपन्यास का जानकार दर्शक किंचित निराश व उद्विग्न होगा। और नादिराजी ने वह सब जोड़ा है, जो उन्हें कहना था, जो उनका मक़सद था। और उनका मक़सद नाटक की सेहत से बावस्ता है – जो नाटक के लिए उपयोगी हो। फिर ऐसे द्विज (दो बार जन्मे) लेखन की प्रस्तुति पर विचारते हुए दोनो के अंतरों व उनके सबब की चर्चा होनी तो चाहिए…। अस्तु,
उपन्यास ‘द ओल्ड मैन ऐंड द सी’ में सैंटियागो नामक एक असफल मछुआरे की कथा है और मज़ा यह कि नायक की इसी असफलता में ही इस रचना के अप्रतिम होने का मर्म छिपा है। जबकि ‘समंदर का राजा’ के मछुआरे कांसेराम की असफलता के बाद सफलता व पारिवारिक सुख की कथा है, जिससे शायद नाटक के चलने का रास्ता बनता है – शायद इसीलिए उसका ‘ओल्ड मैन’ यहाँ हो गया है ‘राजा’। वरना समुद्र तो उस तरह नाटक में है नहीं कि उसे उसका राजा कहा जाये। मंच पर वैसा हो सकता नहीं और जितना-जिस तरह हो भी सकता है, हुआ नहीं है। उदाहरण के लिए जब समुद्र से बातें होनी थी, तो बेटे की याद आती है, पत्नी से बातें होती हैं। याने जैसा कहा गया – रास्ता ही अलग है। लेकिन दोनो ही नायक 85 साल के हैं और 85 साल से प्रयत्नशील हैं। सैंटियागो की मछुआरे बस्ती के अन्य सभी लोग दो-चार…कुछ मछलियाँ रोज़ पा लेते हैं। इसलिए बस्ती के लोगों ने सैंटियागो को ‘सलाओ’ याने ‘महा अभागा’ या ‘बदकिस्मत के रूप में अभिशप्त’ मान लिया है। फिर भी वह प्रयत्न व संघर्ष करता रहता है…। इसीलिए सैंटियागो का संघर्षशील प्रयत्न अनंत होकर एक रूपक (मेटाफ़र) बन जाता है। इधर कांसेराम भी बस्ती में उपेक्षित व बदनाम तो है, लेकिन अभिशप्त नहीं। प्रयत्न वह भी छोड़ता नहीं, पर इसका प्रयत्न अनंत की यात्रा क़तई नहीं बनता…।
नौका-समुद्र-मछली के साथ एक सैंटियागो के सिवा उपन्यास में हाड़-मांस का एक ही अदद पात्र और है – 12-14 साल का मनोलिन, जो नायक का शागिर्द है – उससे नौका चलाना, मछली पकड़ना सीखा है। यह भी अमूर्त्त (आबस्ट्रैक्ट) रूपक है, क्योंकि जिसने खुद कभी मछली न पकड़ पायी हो, सिखाएगा क्या!! लेकिन जैसा कहा गया, जनाब हेमिंग्वे के लिए सफलता नहीं, प्रयत्न व संघर्ष मायने रखता है, जो सैंटियागो में है। सो, उसने सिखाया है। मनोलिन उसके साथ समुद्र में प्राय: जाता है। नाटक में उसका नाम पांडिया है, जिसके समुद्र में कभी साथ जाने के उल्लेख नाटक के संवादों में हैं भी, पर होने को करते हुए दिखाया नहीं गया है – जबकि नाटक करने की कला है – ‘इमोशन्स इन टु ऐक्शन्स’ की…। अंतिम बार की 85 दिन की यात्रा में भी मनोलिन 40 दिन साथ रहा है और अंतिम जवाई, जो नाटक में आयी ही नहीं, में वह साथ ही जाता है। इस तरह उपन्यास में दोनो की यात्रा अनंत है, जिसकी नाटक में कल्पना ही नहीं। सो, स्वाभाविक है कि नाटक में दोनो के रिश्ते उतने प्रगाढ़ (क्लोज़) नहीं बनते, जितने उपन्यास में हैं – वहां मनोलिन उसका एकमात्र दोस्त, शागिर्द, बेटा-पोता…सब है। वह उसके खाने-पीने का बंदोबस्त करता है। पांडिया भी नाटक में प्रतीक रूप में पाव-चाय आदि लाता है, लेकिन मनोलिन तो खाना बनाता भी है। उसका हर तरह से ख़्याल रखता है। इसके जितने सरंजाम नाटक में आये है, कम हैं। आते, तो दोनो की संगति ज्यादा बनती -जो नाटक की सेहत और अच्छी होती। यदि उपन्यास को मंच पे उतारना मक़सद होता, तो मंजी हुई लेखिका की कल्पनाशीलता से बहुत कुछ आ सकता था। फिर भी इन्हीं दोनो की बात से नाटक शुरू होता है और एक अभिनव आयाम जुड़ जाता है…आज के युग में जहां वृद्ध अरक्षित-अकेले हो रहे हैं, तो कुछ दर्शक कांसेराम के लिए पांडिया को देखकर भावुक व गदगद हो रहे हैं – इसी को कहते हैं ‘उपजहिं अनत, अनत सुख लहहीं’ (पैदा कहीं और हुए हुए, सुख कहीं और दे-पा रहे हैं…), जो निश्चय ही ‘समंदर के राजा’ का श्रेय है।
और कहना होगा कि पांडिया को मंज़ूर पटनी ने जिस सहजता, ऊर्जा (एनर्जी) एवं उत्फुल्लता से निभाया है, जैसी मचकती हुई उसकी मौजूदगी है, उसमें ‘लम्बी दौड़ के घोड़े की’ संभावनाएँ भरपूर हैं – यदि देह का संतुलन बनाये रह गया तो…, क्योंकि अभिनय में भी ‘शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्’ (अभिनय-धर्म का भी साधन शरीर ही) है। कांसेराम-पांडिया के संवाद में कांसेराम बने मुकुल किंचित चकबकाते भी हैं, जो उनका अंदाज भी है, लेकिन मंज़ूर तो सब कुछ को हृदयंगम किये हुए दृश्य भर अपने भाव को और बात भर अपने संवादों को उँड़ेलने के लिए सदा भरा बैठा होता है और पूरता भी है तथा प्रस्तुति उससे काफ़ी लहकती भी है…।
85 साल की उम्र में सैंटियागो की वह समुद्री यात्रा भी 85 दिनों की होती है और 85वें दिन उस के जाल में एक बहुत बड़ी (18 फ़िट लम्बी) मछली फँसती है। समझ में तो नहीं आया, लेकिन यह 85 की संख्या भी हेमिंग्वे साहब का कोई रूपक लगता है। जबकि कांसेराम की यह यात्रा तीन दिन की होती है। बड़ी मछली इसे भी मिलती है। हासिल करने के मरणांतक प्रयत्न दोनो करते हैं। क़ाबू करना असम्भव पाकर हथियार का प्रयोग भी दोनो करते हैं…। सैंटियागो का ‘हापून’ से मारना पढ़ा – कांसेराम का लक्ष्य नहीं हुआ – चाकू, गंडासा, खुकरी…!!
लेकिन यहीं से दोनो की यात्राएँ अलग हो जाती हैं। घायल-मृत मछली लेकर कांसेराम बस्ती में आ जाता है। इसकी मछली का कोई नाम नहीं और सैंटियागो की मछली का नाम है – मर्लिन, जिसके खून की गंध पाके समुद्र में शार्क आ जाते हैं और धीरे-धीरे मर्लिन का सारा मांस खा जाते हैं। ये सैंटियागो के सपनों की हत्या के रूपक हैं। बस्ती तक मर्लिन का सिर्फ़ अस्थि-पिंजर (कंकाल) ही पहुँचता है – याने असफलता का रूपक। इस तरह हेमिंग्वेजी का यह मछुआरा सैंटियागो अपनी ‘सलाओ’ की नियति से मुक्त नहीं होता।
लेकिन वह न हारता, न टूटता। दूसरे दिन फिर समुद्री-यात्रा पर चल देने के साथ उपन्यास पूरा होता है…हमारे दर्शन का ‘न दैन्यम्, न पलायनम्’ सार्थक होता है। हेमिंग्वे से कुछ दस साल पहले हमारे यहाँ महादेवीजी ने सूत्रवत कहा था – खोज ही चिर प्राप्ति का वर, साधना ही सिद्धि सुंदर’…। इस प्रकार सैंटियागो की यात्रा, उसके प्रयत्न…अनंत में संतरित हो जाते हैं। मछली उसके लक्ष्य का रूपक बन जाती है। मर्लिन के कंकाल का सर वह बस्ती वालों को दान कर देता है (इस नन्ही-सी समीक्षा में कहने की बात नहीं कि ये सारे रूपक हेमिंग्वे की ज़िंदगी के हैं। वह भी अपने नोबल सम्मान का प्रतीक-चिह्न बस्ती में दान करना चाहता था, पर चर्च में कर आया था)। लक्ष्य न पाने की हार सतत प्रयत्न में विजय का अनंत बन जाती है – नोबल का बायस बनती है। सैंटियागो के इसी सोपान के लिए कैफी साहब ने कहा होगा – अभी इश्क़ ने हार मानी नहीं है, अभी इश्क़ को आज़माना न छोड़…!! और सैंटियागो से यह सब अपने उद्देश्य के तहत कराते हैं हेमिंग्वे – खुमार साहब की तरह – मेरे राहबर मुझको गुमराह कर दे, सुना है कि मंज़िल क़रीब आ रही है’...!!
लेकिन नादिराजी का कांसेराम दुबारा समंदर में नहीं जाता। वह जब तीन दिन समंदर में होता है, तो भी 60-70 प्रतिशत घर में ही होता है। याने एक गृहस्थ, जो कहीं भी रहे, घर-परिवार में पिजा रहता है। नादिराजी का कांसेराम शायद घरेलू-पारिवारिक दर्शक के (प्रतिनिधित्व) के लिए बना है। तभी नौका पर जाके अपनी भरी जवानी में मर गये मृत बेटे उदय को याद करता है, जिसका नाम-ओ-निशान तक हेमिंग्वे के मूल में नहीं है। यहाँ कांसेराम मृत बेटे के लिए पछताता है कि उसकी पढ़ाई छुड़ाकर मछली-मारने के अपने पेशे में उसे क्यों लगाया। तूफ़ान से लड़ते-लड़ते जान गँवाते हुए उसकी बहादुरी को याद करता है। पूर्वदीप्ति (फ़्लैशबैक) का यह दृश्य शायद प्रस्तुति का सर्वाधिक नाट्यमय अनुभव देता है…प्रवेश अप्रत्याशित (अनएक्सपेक्टेड) है। पिता के मन की यादों के मुताबिक़ गति तीव्र है। लहरों के आवेग की तरह ऐक्शन तेज है। युवा के हादसे की गंभीर बात हृदय-द्रावक है…और पहले दोस्तों की, फिर अपनी जान बचाने के आकुल आवेग-सा डूबने-उतराने को साकार करते त्वरित देह-संचालन के बीच अंतत: जल में समा जाने को उदय बना मानव पांडेय ऐसा निभाता है, ऐसा खेलता है…तथा तकनीकी सहाय व सधे निर्देशन का ऐसा सुयोग-संयोग बनता है कि हम उसी में रम जाते हैं। संवादों पर ध्यान जाता ही नहीं – स्थिति-ऐक्शन ही सब कुछ कह देते हैं। इस दृश्य को आलेख का भले नहीं, प्रदर्शन का तो चरमोत्कर्ष कह सकते हैं।
इसी क्रम में कांसेराम अपनी पत्नी उषा को याद करता है, जिसके बहुत पहले मर जाने का ज़िक्र भर उपन्यास में है। यहाँ उसके रूठकर मायके चले जाने…आदि की चर्चा नौका पर आने के पहले बस्ती में भी हो चुकी है। नौका पर तो उसका फ़ोन ही आ जाता है – नाटक बिलकुल आज के दूर-संचार युग का हो जाता है, बल्कि आज से भी आगे का – उस हाशिए पर के समाज के जीव को भी बीच समुद्र में नेट जो मिल जाता है!! मछली तो मिल ही जाती है – रूठी हुई पत्नी अपने मान जाने और घर आने की बात खुद सामने से करती है और मिलती है – हर्षोल्लास के साथ सुखद अंत होता है – हैपी एंडिंग…।
इसी बीच मुंगेरी बन के आये समूह के वरिष्ठ व मंजे अभिनेता हनीफ़ पटनी ने दो मिनट में अच्छा मज़ा कराया, पर इस प्रवेश का मर्म व संगति समझ में न आयी। बहरहाल, इसी सब में नाटक बिलकुल अलग हो जाता है हेमिंग्वे से। उसकी अंतरिम असफलता व अनथक प्रयत्न के रूपक को कौन देखता व समझता, के ख़्याल से यह सब…। फिर भी इस तीसरे शो में नादिराजी एक चौथाई ख़ाली कुर्सियों के ज़िक्र करते हुए ‘समंदर का राजा’ के अव्यावसायिक व प्रयोजन-परक होने के संकेत देती हैं और तीन चौथाई भरे हाल के प्रति रंगकर्म की जानिब से संतोष व्यक्त करती हैं, जो सुखद तो लगा ही, शुरू व अंत के उनके दोनो प्रवेशों को मिलाकर एक किरदार के रूप में भी उनकी याद लेके आये हम…।
इसी सब के लिए इस ‘समंदर के राजा’ को हेमिंग्वे पर आधारित नहीं, हेमिंग्वे से प्रेरित कहना ज्यादा सही होगा। शीर्षक ‘समंदर का राजा’ को पूरा साकार करने के मुताबिक़ समंदर के दृश्य तो मंच पे आने यूँ भी मुश्किल थे – संवादों में हो सकता था। पर विषय ही बदल के घर-परिवार आ गया…फिर इसी के मुताबिक संवाद बने, तो समुद्र-मछली-जल-जाल-नौका…सब उस तरह प्रमुख व मुखर न हो पाये कि ‘समंदर का राजा’ उतना सार्थक होता…। लेकिन यह सब मंच पर मौजूद है – ख़ासकर नौका व मछली तो दो जानें हैं प्रस्तुति की। इन सब के लिए तकनीक के साथ सेट की परिकल्पना व नियोजन के कौशल को सलाम बनता है…सामग्री के लिए कपिलदेव को और बिना बुलाए बोलते सेट के लिए शिवाजी सेनगुप्ता व परवीन बनसोडे को। यह सब मूल किताब में भी है, जिन्हें उठाते-ले जाते-रखते…आदि में मनोलिन बहुत कारगर होता है, काश, पांडिया भी ऐसा करता…!! अनादि नागर के संगीत को तो दर्शकों की तालियों ने भी सराहा…और गुलबानो हनीफ़ की वस्त्र-सज्जा का कमाल सबकी आँखों ने देखा…।
अब मुख्य कर्त्ता कांसेराम पे आयें, जिन पर सबसे पहले आना चाहिए था…लेकिन वह पूरे नाटक में है, तो कहीं भी आयें…सबमें है वो, सब हैं उसके…। यूँ तो मंच-पूर्व और मंच-बाद सब कुछ नादिराजी का है, लेकिन मंच पर तो सब कांसेराम का ही है। नाटक तो उसी पर है, तो उसी का है – इतना कि एक स्तर पर बाक़ी सब लोग व सबकुछ पूरक हो जाते हैं। और यह भूमिका कर रहे मुकुल नाग को यूँ तो हमने बहुत देखा है – मंच पर कुछ कम, पर्दे पर कुछ ज्यादा – जीवन में भी कमोबेस, लेकिन पहली बार ‘एकजुट’ से जुड़ते – जुट जाते हुए देख रहा हूँ। कहूँगा कि यह ‘बरियात लायक़ वर’ का चयन है – देहयष्टि याने देह-रंग़ भी रूप भी और आकार भी…सब उस वर्ग व पेशे में खप सके, उभर सके – छा सके व गमक भी जाने लायक़ हो – जितना सध सके…। अभिनय में जो हैं नहीं, वही लगना होता है और होने की तरह लगना होता है। 85 साल के हैं नहीं, लगना है। 85 के होते, तो लगते पूरा, लेकिन कर नहीं पाते बिलकुल। 25-35 के होते, तो गाढ़े मेकअप से लगते, लेकिन करने के प्रवाह में 25-35 खुले बिना न रहता, क्योंकि फ़िल्म जैसा रीटेक नहीं होता यहाँ…। इसलिए मुकुल का चयन कांसेराम के अनुकूल भी है और उनके पहले के कामों के मुताबिक़ वाजिब भी। और यह उनके काम से सिद्ध भी हुआ है। पूरी प्रस्तुति उन्हीं के कंधों पर टिकी है, जिसे वे सही-सही माथे तक पहुँचाते हैं। न कहीं भटकते, न बिलमते…।
मकुलजी के काम की वर्तमान व भावी लियाक़त यूँ है कि जैसे हमारे स्कूली दिनों में पास-फेल के बीच एक और श्रेणी होती थी – कक्षोन्नति। याने कक्षा में बहुत अच्छा तो नहीं किया है, लेकिन ऐसा विश्वास पैदा किया है कि अगली कक्षा में उन्नति दे देने के लायक़ है। वैसे ही मुकुल का अभिनय सही दिशा में हैं। दशा भी ठीक है। पर दशा को समृद्ध (एनरिच) करना है। दिशा को और साफ़ करना है। अभी चलते हैं, उन्हें बढ़ना है – बिना दौड़े-भागे -टिक कर, थम कर…। अभी करते हैं, उन्हें खेलना है…और वे यह सब करेंगे…ऐसा भरोसा तीसरी प्रस्तुति दिला रही है, जबकि दो-चार शोज़ तक ढेरों क़तर-व्योंत (काट-छाँट) से गुजरती रहती है प्रस्तुति। फिर सम पर आती है, ठहरती है। फिर रवाँ होती है। फिर खिलती है…। ऐसी प्रस्तुतियों में ऐसा होता है कि खुल जाते है, खिलने में कुछ समय लगता है। मैंने नादिराजी के ही नाटक ‘दयाशंकर की डायरी’ के दूसरे शो व तीसवें-इक्तीसवें जैसे किसी शो में यह अंतर साफ़ देखा है…। इंशा अल्लाह – इस बार भी देखूँगा…। तब तक के लिए सदिच्छा कि ‘एकजुट’ के बुलंद इक़बाल को और बुलंदी की तरफ़ ले जाये ‘समंदर का राजा’…आमीन!!
सारगर्भित एवं बेहतरीन समीक्षा ।आप तो सिद्धहस्त समीक्षक है इसमें दो राय नहीं है।